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________________ विजयोदया टोका - एतेषामवर्णवादानामसंभवप्रदर्शनं । पुरुषत्वाद्रथ्यापुरुषवत् सर्वज्ञो वीतरागो वा न भवत्यर्हन् इति साधनमनुपपन्नं । असर्वज्ञतामवीतरागतां चान्तरेण पुरुषता नोपपद्यते इत्यन्यथानुपपत्तेरभावात् । जैमिन्यादयो न सकलवेदार्थज्ञा पुरुषत्वादविपालवत् इति शक्यं वक्तुम् । सर्वज्ञतावीतरागतासिद्धिश्चान्यत्र निरूपितेति मेह प्रतन्यते । दुःखप्रतिकारार्थेषु वस्तुपु मढानां सुखसाधनव्यवहारः शरीरायासमात्र त्वान्न कामिनीसमागमसुखं । वैरूप्यनाशनर्वस्त्रादिभिर्न कृत्यं सिद्धानां । अशरीराणां सकलदुःखापायरूपं सुखं अविकलमनंतज्ञानात्मकं तेष्ववस्थितं । श्रुतं निबंधनं तदधिगमे । शुभोपयोगनिमित्ततार्हदादीनामिव प्रतिबिबानामिति न बुद्धयोप्रेक्षितव्या ॥४६॥ एवं दंसणमाराहंतो मरणे असंजदो जदि वि कोवि ।। सुविसुद्धतिव्वलेस्सो परित्तसंसारिओ होई ॥४७।। एवमित्यनया गाथया असंयतसम्यग्दृष्टेः सम्यक्त्वमाराधयतः फलमाचष्टे एवमिति पूर्वोक्तपरामर्शः । नैर्ग्रन्थ्यमेव मोक्षमार्ग प्रकृष्ट इति । 'सद्दइया' पत्तियया रोचय फासंतया पवयणस्स । सयलस्स जेण एदे सम्मत्ताराहया होति ॥' श्रद्दधानाः शंकादिकमपाकुर्वन्ति उपबृंहणादिभिः सम्यक्त्वस्य शुद्धिं वर्धयन्समीचीनं दर्शनविनयं इन अवर्णवादोंको असम्भव दिखलाते हैं पुरुष होनेसे राह चलते पुरुषकी तरह अर्हन्त सर्वज्ञ वीतराग नहीं हैं । यहाँ पुरुष हेतु ठीक नहीं है क्योंकि असर्वज्ञता और अवीतरागताके विना पुरुष नहीं होता ऐसी अन्यथानुपपत्ति नहीं है। इस तरहसे यह भी कहा जा सकता है कि जैमिनि आदि समस्त वेदार्थके ज्ञाता नहीं हैं, पुरुष होनेसे, जैसे भेड़ चरानेवाला व्यवित । सर्वज्ञता और वीतरागताकी सिद्धि अन्य ग्रन्योंमें कही है इसलिए यहाँ उसका विस्तार नहीं करते। जो वस्तु दुःखका प्रतीकार करनेके लिए हैं, अज्ञानी उन्हें सुखका साधन मान लेते हैं। स्त्री सम्भोग सुख नहीं है वह तो शारीरिक श्रममात्र है । तथा विरूपताको नष्ट करनेवाले वस्त्रोंसे सिद्धोंको क्या करना है ? वे तो शरीर रहित हैं उनमें समस्त दुःखोंका विनाशरूप अनन्तज्ञानात्मक सम्पूर्ण सुख हैं । इसके जाननेके लिए श्रुत वर्तमान है। तथा जैसे अर्हन्त शुभोपयोगमें निमित्त होते हैं उसी तरह उनके प्रतिबिम्ब भी होते हैं। इसलिए यह बौद्धिक कल्पनामात्र नहीं है ।।४६॥ __ गा०--इस प्रकार सम्यग्दर्शनको आराधना करने वाला मरते समय यद्यपि कोई असंयत होता है किन्तु सुविशुद्ध तीव्र लेश्या वाला अल्प संसारी होता है ।।४७|| टी०--'एवं' इत्यादि गाथाके द्वारा सम्यक्त्वकी आराधना करने वाले असंयत सम्यग्दृष्टिका फल कहते हैं। ‘एवं' पद पूर्वोक्त कथनके लिये आया है कि निम्रन्थता ही उत्कृष्ट मोक्ष मार्ग है। मनसे श्रद्धान करने वाले, यही उत्तम है ऐसा वचनसे प्रीति प्रकट करने वाले, संकेतादि से रुचिको दर्शानेवाले और समस्त प्रवचनका अनुष्ठान करने वाले ये सब सम्यक्त्वके आराधक होते हैं । अर्थात् जो श्रद्धान करते हुए शंका आदिको दूर करते हैं और उपवृहण आदिसे सम्यक्त्वको १. संवादार्थ व्याख्यातृभिः सूत्रे पठिता गाथा यथा-मूलारा० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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