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________________ विजयोदया टोका ९०३ देविंदचक्कवट्टी इंदियसोक्खं च जं अणुहवंति । सदरसरूवगंधप्फरिसप्पयमुत्तमं लोए ॥२१४२।। 'देविंदचक्कवट्टी' देवेंद्राश्चक्रवर्तिनश्च यदिद्रियसुखमनुभवंति शब्दरसरूपगंधस्पर्शात्मकं लोके प्रधानं ॥२१४२।। अव्वाबाधं च सुहं सिद्धा जं अणुहवंति लोगग्गे । तस्स हु अणंतभागो इंदियसोक्खं तयं होज्ज ॥२१४३।। 'अव्वाबाधं सुहे' अव्याबाधात्मकं सुखं यत्सिद्धा लोकाग्रेऽनुभवंति तस्यानंतभागो भवति तदिद्रियसुखं पूर्वव्यावर्णितम् ।।२१४३॥ जं सव्वे देवगणा अच्छरसहिया सुहं अणुहवंति । तत्तो वि अणंतगुणं अव्वाबाहं सुहं तस्स ॥२१४४॥ 'जं सव्वे देवगणा' यत्सुखमनुभवंति साप्सरोगणाः सर्वे देवास्ततोऽप्यनंतगुणं तस्य सिद्धस्यायाबाधसुखम् ॥२१४४|| तीसु वि कालेसु सुहाणि जाणि माणुसतिरिक्खदेवाणं । सव्वाणि ताणि ण समाणि तस्स खणमित्तसोक्खेण ॥२१४५।। 'तीसु वि कालेसु' त्रिष्वपि कालेषु यानि मानवानां, तिरश्चां, देवानां च सुखानि सर्वाणि तानि न समानि सिद्धस्य क्षणमात्रेण सुखेन ॥२१४५॥ ताणि हु रागविवागाणि दुक्खपुवाणि चेव सोक्खाणि । ण हु अत्थि रागमवहत्थिदण किं चि वि सुहं णाम ॥२१४६।। 'ताणि रागविपाकाणि' तानि रागविपाकानि रागस्य दुःखहेतोर्जनकानि, एतेन दुःखानुबंधित्वं गा०—इस लोकमें देवेन्द्र और चक्रवर्ती शब्द रस रूप गन्ध और स्पर्श जन्य जिस उत्तम इन्द्रिय सुखको भोगते हैं, तथा लोकके अग्रभागमें स्थित सिद्ध जिस बाधा रहित सुखको भोगते हैं उसके सामने वह इन्द्रिय सुख उसका अनन्तवाँ भाग भी नहीं है ।।२१४२-४३॥ गा०-अप्सराओंके साथ सब देवगण जिस सुखको भोगते हैं उससे भी अनन्तगुण बाधा रहित सुख सिद्धोंको होता है ॥२१४४।। गा०-सब मनुष्यों तिर्यञ्चों और देवोंको तीनों कालोंमें जितना सुख होता है वह सब सुख सिद्धोंके एक क्षणमात्रमें होनेवाले सुखके भी बराबर नहीं है ।।२१४५।। गा० --मनुष्यादिके होनेवाला सुख रागका जनक है और राग दुःखका कारण है अतः १. मवदुज्झिऊण -अ० आ० । अवहत्थिदूण -मूलारा० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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