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________________ ९०२ भगवती आराधना 'गदरागदोसमोहो' दूरीकृतरागद्वेषमोहः, "विभो' विगतभयः 'विमओ' विगतमदः, क्वचिदप्यनुत्सुका, निरस्तकमरजःपटलः, बुधजनपरिगीतगुणः विष्टपत्रयेण नमस्करणीयः ॥२१३७ णिव्वावइत्तु संसारमहग्गि परमणिव्वुदिजलेण ! णिव्वादि सभावत्थो गदजाइजरामरणरोगो ॥२१३८।। "णिव्वावइत्तु' क्षयमुपनीय संसारमहाग्नि परमनिर्वृतिजलेन तृप्यति स्वरूपस्थो विनष्टजातिजरामरणरोगः ॥२१३८॥ जावं तु किंचि लोए सारीरं माणसं च सुहदुक्खं । तं सव्वं णिज्जिण्णं असेसदो तस्स सिद्धस्स ।।२१३९।। 'जावं तु किंचि लोए' यावत् किंचिल्लोके शारीरं मानसं वा यत्सुखं दुःखं च तत्सर्व निर्जीणं निरवशेषं । प्रकारकाय॑निरासार्थमशेषग्रहणं ॥२१३९॥ जं णत्थि सव्वबाधाओ तस्स सव्वं च जाणइ जदो से । जं च गदज्झवसाणो परमसुही तेण सो सिद्धो ।।२१४०॥ 'जंत्यि सम्वबाधाओ' यन्न सन्ति सर्वबाधाः, सर्व च यतो जानाति, यच्चापगताध्यवसानः, तेनासौ सिद्धः परमसुखी भवति ॥२१४०॥ परमिड्ढिपत्ताणं मणुगाणं णत्थि तं सुहं लोए । अव्वाबाधमणोवमपरमसुहं तस्स सिद्धस्स ।।२१४१।। ___परमिड्ढिपत्ताणं' परमामृद्धिं चक्रलांछनतादिकां प्राप्तानामपि मनुजानां नास्ति तत्सुखं लोके यदनुपमं तस्य सिद्धस्य सुखमव्याबाधम् ॥२१४१।। aaaaaaaaaaaaa गा०-जिन्होंने रागद्वेष मोहको दूरकर दिया है, जो भय रहित, मदरहित, उत्कण्ठा रहित और कर्मरूप धूलिपटलसे रहित हैं तथा ज्ञानीजन जिनका गुणगान करते हैं वे सिद्ध भगवान तीनों लोकोंके द्वारा वन्दनीय हैं ॥२१३७॥ गा०-परम निर्वृतिरूप जलसे संसाररूपी महान् अग्निको बुझाकर तथा जन्म-जरा-मरण रोगोंको नष्ट करके अपने स्वरूपमें स्थित मुक्तात्मा निर्वाणको प्राप्त करते हैं ॥२१३८।। गा०-संसारमें जितना भी शारीरिक और मानसिक सुखदुःख है वह सब पूर्णरूपसे उस सिद्ध परमेष्ठीके नष्ट हो चुका है ॥२१३९।।। ___गाल-क्योंकि सिद्ध परमेष्ठीके समस्त बाधाएँ नहीं हैं, और वह समस्त वस्तुओंको जानते हैं तथा अध्यवसान-विकल्पवासनासे रहित हैं । अतः वे परमसुखी हैं ॥२१४०।। गा०-उन सिद्धोंके जो बाधा रहित अनुपम परम सुख है वह सुख इस लोकमें परमऋद्धि चक्रवर्तित्व आदिको प्राप्त मनुष्योंके भी नहीं है ॥२१४१।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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