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भगवती आराधना रुष्टः परं हन्मीति । 'पुन्वदरं सो डन्झदि' पूर्वतरं स एव दह्यते तेन तप्तेन लोहेन गृहीतेन । 'उज्झिज्झ परो ण वा पुरिसो' दह्यते परः पुरुषो न वा दह्यते ।।१३५६।।
तध रोसेण सयं पुव्वमेव डज्झदि हु कलकलेणेव ।
अण्णस्स पुणो दुक्खं करिज्ज रुट्ठो ण य करिज्ज ॥१३५७॥ 'तध रोसेण' तथा रोषेण स्वयं पूर्व दह्यते द्रवीकृतलोहसंस्थानीयेन । अन्यस्य पुनदुःखं कुर्यान्न वा रुष्टः ॥१३५७॥
णासेदूण कसायं अग्गी णसदि सयं जधा पच्छा । णासेदूण तध णरं णिरासवो णस्सदे कोघो ॥१३५८।। कोधो सत्तगुणकरो णीयाणं अप्पणो य मण्णुकरो।
परिभवकरो सवासे रोसो णासेदि गरमवसं ॥१३५९॥ 'रोसो सत्तुगुणकरो' रोषः शत्रोर्यो गुणो धर्मोऽपकारित्वं नाम तं करोति । अथवा शत्रूणां गुणमुपकारं करोति रोषः । यतोऽस्य हि रोषदहनेन दह्यमानं तं दृष्ट्वा ते तुष्यन्ति । कथमस्य रोषमुत्पादयाम इत्येवमादतास्ते सदापीति । 'णीयाणं अप्पणो वा' बान्धवानां आत्मनश्च शोकं करोति । 'परिभवकरो सवासे' स्वनिवासस्थाने परिभवमानयति । 'रोसो णासेदि गरमवसं' रोषो नरमवशं नाशयति ॥१३५९।।
ण गुणे पेच्छदि अववददि गुणे जंपदि अजंपिदव्वं च ।
रोसेण रुद्दहिदओ णारगसीलो गरो होदि ॥१३६०।। 'ण गुणे पेच्छदि' गुणं न पश्यति, यस्मै कुप्यति । 'अववदति' निन्दति । 'गुणे' गुणानपि तदीयान् । 'जंपदि अजंपिदव्वं च' वदत्यवाच्यमपि । 'रोसेण रुद्दहिदओ' रोषेण रौद्रचित्तः। 'णारगसीलो णरो हवदि' नारकशीलो भवति नरः ॥१३६०॥
गा०-उसी प्रकार पिघले हुए लोहेकी तरह क्रोधसे पहले वह स्वयं जलता है। दूसरेको वह दुःखी करे या न करे ॥१३५७॥
- गा०-जैसे आग ईधनको नष्ट करके पीछे स्वयं बुझ जाती है उसी प्रकार क्रोध पहले क्रोधी मनुष्यको नष्ट करके पीछे निराधार होनेसे स्वयं नष्ट हो जाता है ।।१३५८॥
गा०-टो०-क्रोध शत्रुका जो धर्म है अपकार करना, उसे करता है अथवा क्रोध शत्रुका उपकार करता है क्योंकि उसे क्रोधकी आगमें जलते हुए देखकर शत्रु प्रसन्न होते हैं। वे सदा इस प्रयत्नमें रहते हैं कि कैसे इसे क्रोध उत्पन्न करें । क्रोध अपने और बन्धु बान्धवोंको शोकमें डालता है । अपने ही घरमें अपना तिरस्कार कराता है। परवश मनुष्यका नाश करता है ।।१३५९।।
गाल-क्रोधी जिसपर क्रोध करता है उसके गुणोंको नहीं देखता। उसके गुणोंकी भी निन्दा करता है । जो कहने योग्य नहीं है वह भी कहता है इस प्रकार क्रोधसे रौद्र हृदय मनुष्यका स्वभाव नारकी जैसा होता है ।।१३६०।।
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