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________________ विजयोदया टीका ४०९ चनाख्या शुद्धिः । मायाशल्य निराकरणार्थमालोचनायां प्रवृत्तोऽन्यया माययात्मानं प्रच्छादयति । यथा बालुकाविक्षेपो गर्तसंस्कारार्थो वालुकाभिरापूरयति गर्तमिति ॥ ५७८ ॥ बादरमालोचें तो जत्तो जत्तो वदाओ पडिभग्गो । सुमं पच्छादेतो जिणवयणपरंमुहो होइ ||५७९ ।। 'बादरमालोचतो' । अत्रैवं पदसम्बन्धः, ' जत्तो जत्तो वदाओ पडिभग्गो' यस्माद्यस्माद्व्रतात्प्रतिभग्नः । तत्र 'बादरं आलोचॅतो' स्थूलं कथयन् । 'सुहुमं पच्छादेतो' सूक्ष्मदोषं प्रच्छादयन् । 'जिणवयणपरं मुहो होइ' जिनवचनपराङ्मुखो भवति ।। ५७९ ।। सुमं व बादरं वा जइ ण कहेज्ज विणएण सुगुरूणं । आलोचणाए दोसो एसो हु चउत्थओ होदि ॥ ५८० ॥ स्थूलस्य सूक्ष्मस्य वातिचारजातस्थानालोचना चतुर्थो दोषः इति 'सुमं व' इत्यस्यार्थः ॥ ५८० ॥ जह कंसिय भिंगारो अंतो नीलमइलो बहिं चोक्खो । अंतो ससल्लदोसा तघिमा सल्लुद्धरणसोघी ॥ ५८१॥ बादरं ||४|| 'जह कंसिय भिंगारो' यथा कांस्यरचितो भृङ्गारः । 'अंतो' अभ्यन्तरे । 'गोलमइलो' नील: सन्मलिनः । 'बहि चोक्खो' बहिः शुद्धः । 'अंतो ससल्लदोसा' अन्तः सशल्यदोषा इमालोचना शुद्धिः ॥ ५८१ ॥ चंक्रमणे य ट्ठाणे णिसेज्जउवट्टणे य सयणे य । उल्लामास सरक्खे य गब्भिणी बालवत्थाए ||५८२ | 'चकमणे' अवश्यायबहुलेन पथा व्याकुलितचित्तो मनागीर्यायामनुपयुक्तो गतवान् । 'ठाणे णिसेज्ज उवणे य सयणे य' प्रमार्जनमकृत्वा स्थानं, निषद्या, शय्या च कृता । 'उल्लामाससरक्खे य' 'आर्द्रगात्राधिकं उसी प्रकार यह आलोचना शुद्धि कर्मोंको लाने वाली है इससे नवीन कर्मोंका बन्ध होता है । आशय यह है कि मायाशल्यके दूर करनेके लिए साधु आलोचना करता हुआ भी अन्य मायासे अपनेको आच्छादित करता है । जैसे गढ़ा बनाने के लिए उसमेंसे रेत निकाली जाती है किन्तु उसमें और रेत भर जाती है ||५७८|| गा० ० - जिन-जिन व्रतोंमें जो दोष लगे हों उनमेंसे जो साधु स्थूल दोषोंकी तो आलोचना करता है और सूक्ष्म दोषोंको छिपाता है वह साधु जिनागमसे विमुख होता है ||५७९ || गा० - यदि साधु विनयपूर्वक सुगुरुसे सूक्ष्म अथवा बादर दोषको नहीं कहता तो यह आलोचनाका चतुर्थ दोष है ||५८० ॥ गा० - जैसे काँसेका वना भृंगार अन्दरसे नीला और मलिन होता है तथा बाहरसे स्वच्छ होता है वैसे ही यह आलोचना शुद्धि मायाशल्य दोषसे युक्त होती है ॥ ५८१ ॥ मार्ग से ईर्ष्यासमितिकी ओर गा० - टी० - साधु गुरुसे निवेदन करता है— ओससे भीगे हुए ध्यान न रखते हुए मैं चला था । उस समय मेरा चित्त व्याकुल था । या प्रतिलेखना किए बिना १. आर्द्रायां गा०--आ० मु० । ५२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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