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________________ ४०८ भगवती आराधना 'गुणकारिओत्ति भुजइ' गुणमुपकारं करोति इति भुङ्क्ते । 'जहा सुहत्यो' यथा सुखार्थी । 'अपच्छमाहारं' अपथ्यमाहारं । कीदृग्भूतं 'पच्छाविवागकडुगं' भोजनोत्तरकालं विपाककटुकं । 'तधिमा' तथा इमाः । 'सल्लुद्धरणसोधी' शल्योद्धरणशुद्धिः अपथ्यमाहारं स्वबुद्धया गुणकारीति संकल्प्य यदि नाम भुङ्क्ते तथापि विपाककटुक एवासी । एवं गुर्वभिप्रायानुमानेन 'प्रवृत्ता हितबुद्ध्या गृहीताप्यालोचना अनर्थावहेति । न हि संकल्पक्शाद्वस्तुनोन्यथाभावः । नापथ्यस्याहारस्य पथ्यतास्ति संकल्पमात्रेण ! अणुमाणिय ॥५७५।। जं होदि अण्णदिटुं तं आलोचेदि गुरुसयासम्मि । अद्दिष्टुं गूहंतो माइल्लो होदि णायन्वो ॥५७६।। 'चं अणविद्वं होदि' यदन्यदृष्टं भवति अपराधजातं । 'तं आलोचेदि' कथयति । 'गुरुसयासंमि' गुरुसमीपे । 'अहिट्ट' परैरदृष्टं । 'गृहंतो' प्रच्छादयन् । 'माइल्लो इति णादवो होदि' मायावानिति ज्ञातव्यो भवति ॥५७६॥ दिटुं व अदिटुं वा जदि ण कहेइ परमेण विणएण । आयरियपायमूले तदिओ आलोयणादोसो ॥५७७॥ "विट्ठ व अदिट्ठ वा' परर्दृष्टमदृष्टं वापराधं । 'परमेण विणएण जदि ण कहेह' प्रकृष्टेन विनयेन यदि न कथयेत् । वव 'आयरियपादमूले' आचार्यपादमूले । 'तदिओ आलोयणादोसो' तृतीय आलोचनादोषः ॥५७७॥ जह वालुयाए अवडो पूरदि उक्कीरमाणओ चेव । तह कम्मादाणकरी इमा हु सल्लुद्धरणसुद्धी ।।५७८॥ __ 'जह बालुयाए' यथा वालुकाभिः । 'पूरदि' पूर्यते । 'अवडो' वालुकामध्यकृतो गर्तः । 'उक्कीरमाणगो चेव' उत्कीर्यमाणोऽपि सन् । 'तह कम्मादाणकरी' तथा कर्मग्रहणकारिणी । ‘इमा सल्लुद्धरणसोधी' इयमालो गा०-जैसे सुखका इच्छुक पुरुष अपथ्य भोजनको अपनी वुद्धिसे गुणकारी मानकर खाता है तथापि भोजन करनेके पश्चात् उसका परिपाक दुःखदायी होता है। उसीके समान यह अनुमानित दोषसहित शल्यको दूर करके शुद्धि करनेवाला है। अर्थात् अनुमानसे गुरुके अभिप्रायको जानकर हितबुद्धिसे की गई भी आलोचना अनर्थकारी होती है। संकल्पसे वस्तुका अन्यथाभाव नहीं होता । संकल्पमात्रसे अपथ्य आहार पथ्य नहीं हो सकता ॥५७५।। अनुमानित दोषका कथन हुआ। गा-जो अपराध दूसरे ने देख लिया है, गुरुके पासमें उसकी आलोचना करता है। और जो अपराध दूसरोंने नहीं देखा है उसे छिपाता है । वह मायावी है ऐसा जानना ॥५७६।।। गा०-दूसरेके द्वारा देखे गये अथवा न देखे गये, अपराधको यदि आचार्यके पादमूलमें अत्यन्त विनयपूर्वक नहीं कहता तो यह तीसरा आलोचना दोष है ॥५७७॥ गा-जैसे रेतके मध्यमें गढ़ा खोदने पर वह गढ़ा खोदते खोदते ही रेतसे भर जाता है, १. प्रवृतः आ०, प्रवृत्तो मु० । प्रवृत्तहित-मूला० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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