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________________ प्रस्तावनी ३५ भी (१०।१७) यह गाथा आई है। आशाधरके अनगारधर्मामृतमें (९।८०-८१) भी इसका संस्कृतरूप मिलता है। दस कल्प तो दिगम्बर परम्पराके प्रतिकूल नहीं है किन्तु अनुकूल ही है। इसका प्रबल प्रमाण प्रथमकल्प आचेलक्य ही है। जिसका अर्थ श्वेताम्बर टीकाकारोंने अल्पचेल या अल्पमूल्य चेल आदि किया है। आचार्य प्रभाचन्द्र उक्त गाथांशको उद्धृत करके लिखते हैं 'पुरुषं प्रति दशविधस्य स्थितिकल्पस्य मध्ये तदुपदेशात् । पुरुषके प्रति जो दस प्रकारके स्थितिकल्प कहे हैं उसमें आचेलक्यका उपदेश है। अतः वह दस स्थितिकल्पोंको अमान्य नहीं करते उन्हें मान्य करके ही अपने पक्षका समर्थन करते हैं। आगे प्रेमीजीने लिखा है--'आराधनाकी ६६२ और ६६३ (इस संस्करणमें ६६१-६६२) नम्बरकी गाथाएँ भी दिगम्बर सम्प्रदायके साथ मेल नहीं खाती हैं। उनका अभिप्राय यह है कि लब्धियुक्त और मायाचाररहित चार मुनि ग्लानिरहित होकर क्षपकके योग्य निर्दोष भोजन और पानक लावें । इसपर पं० सदासुखजोने आपत्ति की है और लिखा है कि यह भोजन लानेके बात प्रमाणरूप नाहीं। इसी तरह ‘सेज्जागासणिसेज्जा' (गाथा ३०७) आदि गाथापर (जो मूलाचारमें ३९१ नं० पर है) कविवर बनारसीदासको शङ्का हुई थी और उसका समाधान करनेके लिए दीवान अमरचन्दजीको पत्र लिखा था। दीवानजीने उत्तर दिया था कि इसमें वैयावृत्ति करनेवाला मुनि आहार आदिसे उपकार करे। परन्तु वह स्पष्ट नहीं किया कि आहार स्वयं हाथसे बनाकर दे । मुनिकी ऐसी चर्या आचारांगमें नहीं बतलाई है।' ___ उक्त प्रकरण संस्तरपर समाधिमरणके लिए आरूढ़ क्षपककी वैयाक्त्यसे सम्बद्ध है। पहली गाथामें कहा है कि चार परिचारक मुनि क्षपकको इष्ट भोजन लाते हैं जो प्रायोग्य अर्थात् उद्गम आदि दोषोंसे रहित होता है। 'इष्ट' को टीकामें स्पष्ट किया है कि जो क्षपकको भूख प्यास परीषहको शान्त करने में समर्थ हो वह इष्ट है। तथा वह भोजन बात पित्त कफ़कारक न हो। लानेवाले मुनियोंके लिए एक विशेषण दिया है। वे मायाचार रहित होने चाहिए अर्थात् अयोग्यको योग्य मानकर लानेवाले न हों।' ज्ञानीजन यह जानते हैं कि जव क्षपक संस्तरपर आरूढ़ होता है तब उसकी शारीरिक स्थिति कैसी होती है। वह गोचरी नहीं कर सकता। जबतक गोचरी करनेमें समर्थ होता है तबतक संस्तरारूढ़ नहीं किया जाता। ऐसी स्थितिमें यदि उसे भूखा प्यासा रखा जाये तो उसके परिणाम स्थिर नहीं रह सकते । अतः उस युगमें जब साधु बनोंमें निवास करते थे तब ऐसे मरणासन्न साधुके लिए यही व्यवस्था सम्भव थी कि अन्य साधु उसके योग्य खान-पानविधिपूर्वक लावें और उसे विधिपूर्वक देवें । आजकी तरह उस समय साधुओंके निवास स्थानपर जाकर श्रावकोंके चौके तो लगते नहीं थे। और लगते भी तो इस प्रकारके उद्दिष्ट भोजनको वे स्वीकार नहीं कर सकते थे। गाथामें आहार लानेका स्पष्ट विधान है। अतः बनाकर देनेकी कोई बात ही नहीं है। इसलिए उक्त कथन दिगम्बर परम्पराके विरुद्ध नहीं है। समाधि एक दो दिनमें नहीं होती। उसमें समय लगता है और वही समय वैयावृत्यका होता है। आगे प्रेमीजीने लिखा है कि 'गाथा १५४४ (इस संस्करणमें १५३९) में कहा है कि घोर अवमोदर्य या अल्पभोजनके कष्टसे विना संक्लेश बुद्धिके भद्रबाहु मुनि उत्तमस्थानको प्राप्त हुए। परन्तु Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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