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भगवती आराधना दिगम्बर सम्प्रदायकी किसी भी कथामें भद्रबाहुका इस ऊनोदर कष्टसे समाधिमरणका उल्लेख नहीं है।'
- हरिषेण कथाकोश सब कथा कोशोंसे प्राचीन है। इसमें १३१ नम्बर में बद्रबाहुकी कथा है। जब मगधमें दुर्भिक्ष पड़ा तो वह सम्राट चन्द्रगुप्तके साथ दक्षिणापथको चले। आगे लिखा है--
'भद्रबाहुमुनि/रो भयसप्तकवजितः । पम्पाक्षुधाश्रमं तीन जिगाय सहसोत्थितम् ॥४२॥ प्राप्य भाद्रपदं देशं श्रीमदुज्जयिनीभवम् । चकारानशनं धीरः स दिनानि बहून्यत्नम् ।।४३।। आराधनां समाराध्य विधिना स्वचतुर्विधाम् । समाधिमरणं प्राप्य भद्रबाहुर्दिवं ययौ ॥४४॥
अर्थात् सात भयोंसे रहित भद्रबाहु मुनिने सहसा उत्पन्न हुए भूख प्यासके श्रमको जीता। और उज्ययिनी सम्बन्धी भाद्रपद देशमें पहुंचकर उन्होंने बहुत समय तक अनशन किया । तथा चार प्रकारकी आराधना करके समाधिमरणको प्राप्त हो स्वर्गको गये।
इस गाथासे तो दिगम्बर मान्यताको ही पुष्टि होती है कि मगधमें दुभिक्ष पड़नेपर भद्रबाहु सम्राट चन्द्रगुप्तके साथ दक्षिणापथ चले गये थे। श्वेताम्बर ऐसा नहीं मानते। इसोसे मरण समाधि आदिमें भद्रबाहुका उदाहरण नहीं है । अतः उक्त कथन भी ठीक नहीं है। .
आगे लिखा है-'तीसरी गाथाकी विजयोदया टीकामें 'अनुयोगद्वारादीनां बहूनामुपन्यासमकृत्वा दिङ्मात्रोपन्यासः' आदिमें अनुयोगद्वारसूत्रका उल्लेख किया है ।
__ यह अनुयोगद्वार सूत्र नामक श्वे० ग्रंथका उल्लेख नहीं है, किन्तु निर्देश स्वामित्व आदि अनुयोग द्वारोंका उल्लेख है। जब विस्तारसे कथन करना होता है तो इन अनुयोग द्वारोंका आश्रय लिया जाता है। इसीलिये 'दिङमात्रोपन्यासः' लिखा है। गा० ७५२ की टीकामें लिखा भी है-'निर्देश-विधानैरनुयोगद्वारै'।
__ हाँ, विजहना नामक अधिकार अवश्य ही आजके युगमें विचित्र लग सकता है जिसमें मुनिके मृत शरीरको रात्रिभर जागरण करके रखनेकी और दूसरे दिन किसी अच्छे स्थानमें वैसे ही बिना जलाये छोड़ आनेकी विधि वर्णित है।
__ उस समयका विचार कीजिये जब बड़े-बड़े साधु संघ वनोंमें विचरते थे। उस समय किसी साधुका मरण हो जानेपर वनमें शवको रख देनेके सिवाय दूसरा मार्ग क्या था ? वे न जला सकते थे, न जलानेका प्रबन्ध कर सकते थे। अतः उसका सम्वन्ध किसी सम्प्रदाय विशेषसे नहीं है। यह तो सामयिक परिस्थिति और प्रचलन पर ही निर्भर है। अतः प्रेमीजीका केवल इतना ही लिखना यथार्थ है कि 'यापनीय संघ सूत्र या आगमग्रन्थोंको भी मानता था। और उनके आगमोंकी वाचना उपलब्ध वलभी वाचनासे, जो श्वेताम्बर सम्प्रदायमें मानी जाती है, शायद कुछ भिन्न थी। उसपर उनकी स्वतंत्र टीकाएं भी हो सकती हैं जैसी अपराजितकी दशवैकालिक पर टीका थी जो अब अप्राप्य है।'
अतः इस बातको दृष्टिमें रखकर विचार करने पर आराधनाके कर्ता शिवार्य और टीकाकार अपराजित दोनों ही यापनीय हो सकते हैं । अपराजित सूरिने अपनी टीकामें आगमोंसे
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