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________________ विजयोदया टीका ३२७ अचेलग सलूहस्स (स्प लहुअस्स) सीदं भवदि एगदा । णात से विचितेज्जो अधिसिज्ज अलाइसो (?) ॥ ण मे णिवारणं अत्थि छाइयं ताण विज्जदि । अहं तावग्गि सेवामि इति भिक्ख ण चितए । अचेलगाण लहस्स संजदस्स तवस्सिणो। तणेस असमागस्त णं ते होदि विराधिदो॥ एगेण ताव कप्पेण संवडंगतिणं सित । दंसावाए जो संपसिद्धं किमंगं पुण दोहकप्पेहिं ॥ एतान्युत्तराध्ययने आचेलक्को य जो धम्मो जो वायं सणरुत्तरो। देसिदो वड्ढमाणेण पासेण अ महप्पणा ॥ एगधम्मे पवत्ताणं दुविधा लिंगकप्पणा । उभएसि पदिट्ठाणमहं संसयमागदा ॥ इति वचनाच्चरमतीर्थस्यापि अचेलता सिद्धयति । जग्गस्स य मुंडस्स य दीहलोमणखस्स य । ... मेहणादो विरत्तस्स कि विभूसा करिस्सदि ॥ इति दशवकालिकायामुक्तं । एवमाचेलक्यं स्थितिकल्पः । श्रमणानुद्दिश्य कृतं भक्तादिकं उद्देसिगमित्युच्यते । तच्च षोडशविध आधाकर्मादिविकल्पेन । तत्परिहारों द्वितीयः स्थितिकल्पः । तथा चोक्तं कल्पे-- - सोलस विधमुद्देसं वज्जेदव्वंति पुरिमचरिमाणं । तित्थगराण तित्थे ठिदिकप्पो होदि विदिओ हु॥ सेज्जाधरशब्देन त्रयो भण्यन्ते वसति यः करोति । कृतां वा वसतिं परेण भग्नां पतितैकदेशां वा पास शीत दूर करनेका कोई साधन नहीं है न काई छाजन ही है। मैं आगका सेवन करूं' ऐसा भिक्षु विचार नहीं करता। जो तपस्वो अचेल होनेसे भारमुक्त है वह संयमकी विराधना नहीं करता। उत्तराध्ययन सूत्रमें केसी गौतमसे प्रश्न करता है-जो यह वर्धमान भगवान्ने अचेलक धर्म कहा है और भगवान् पार्श्वने 'सान्तरोत्तर धर्म कहा है। एक ही धर्मके मानने वालोंमें दो प्रकारके लिंगकी कल्पनासे मैं संशयमें पड़ा हूँ। इस कथनसे अन्तिम तीर्थकी भी अचेलता सिद्ध होती है। दशवैकालिक सूत्रमें कहा है-नग्न, मुण्डित और दीर्घ नख और रोम वाले तथा मैथुनसे विरक्त साधुको आभूषणोंसे क्या प्रयोजन है । इस प्रकार आचेलक्य स्थितिकल्प है। . २. श्रमणोंके उद्देशसे बनाये गये भोजनादिको औद्देशिक कहते हैं । अधःकर्म आदिके भेदसे उसके सोलह प्रकार हैं। उसका त्याग दूसरा स्थितिकल्प हैं। कल्पमें कहा है-प्रथम और अन्तिम तीर्थंकरोंके तीर्थमें सोलह प्रकारका उद्दिष्ट छोड़ने योग्य है । यह दूसरा स्थितिकल्प है। ३. 'शय्याधर' शब्दसे तीन कहे जाते हैं-जो वसति बनाता है, दूसरेके द्वारा बनाई गई Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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