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भगवती आराधना संस्करोति, यदि वा न करोति न संस्कारयति केवलं प्रयच्छत्यत्रास्वेति । एतेषां पिण्डो नामाहारः, उपकरणं वा प्रतिलेखनादिकं शय्याधरपिण्डस्तस्य परिहरणं तृतीयः स्थितिकल्पः । सति शय्याधरपिण्डग्रहेण'प्रच्छन्नमयं योजयेदाहारादिकं । धर्मफललोभाद्यो वा आहारं दातुमक्षमो दरिद्रो लुब्धो वा न चासौ वसतिं प्रयच्छेत् । संति वसती आहारादाने लोको मां निन्दति-स्थिता वसतावस्य३ यतयो न चानेन मन्दभाग्येन तेषां आहारो दत्त इति । यतेः स्नेहः स्यादाहारं वसतिं च प्रयच्छति तस्मिन् बहूपकारितया । तत्पिण्डाग्रहणे तु नोक्तदोषसंस्पशंः ।
राजपिण्डाग्रहणं चतुर्थः स्थितिकल्पः । राजशब्देन इक्ष्वाकुप्रभृतिकुले जाताः । राजते प्रकृति रञ्जयति इति वा राजा राजसदशो महद्धिको भण्यते । तस्य पिण्डः तत्स्वामिको राजपिण्डः । स त्रिविधो भवति । आहारः, अनाहारः, उपधिरिति । तत्राहारश्चतुर्विधो अशनादिभेदेन । तणफलकपीठादिः अनाहारः, उपधिर्नाम प्रतिलेखनं वस्त्रं पात्रं वा । एवंभूतस्य राजपिण्डस्य ग्रहणे को दोषः इति चेत् अत्रोच्यते-द्विविधा दोषा आत्मसमुत्थाः परकृताश्चेति । द्विविधा परसमुत्थाः मनुजतिर्यक्कृत विकल्पेनेति । तिर्यक्कृता द्विविधा ग्रामारण्यपशुभेदात् । ते द्विप्रकारा अपि द्विभेदा दुष्टा भद्राश्चेति। हया, गजा, गावो, महिषा, मेण्डाः, श्वानश्च ग्राम्याः दुष्टाः । वसतिको टूटने पर या उसका एक हिस्सा गिर जाने पर जो उसकी मरम्मत कराता है, जो न करता है न मरम्मत कराता है केवल देता है कि यहाँ ठहरिये । उनका पिण्ड अर्थात् भोजन, उपकरण अथवा प्रतिलेखना आदि शय्याधर पिण्ड कहाता है। उसका त्याग तीसरा स्थितिकल्प है। शय्याधरका पिण्ड ग्रहण करने पर वह धर्मके फलके लोभसे छिपाकर आहार आदिकी योजना कर सकता है। अथवा जो दरिद्र या लोभी होनेसे आहार देने में असमर्थ है वह ठहरनेका स्थान नहीं देगा क्योंकि वसतिम ठहराकर आहार न देने पर लोक मेरी निन्दा करेंगे कि इसकी वसतिमें य और इस अभागेने उन्हें आहार नहीं दिया। तथा आहार और वसति देने वाले पर यतिका स्नेह हो सकता है कि इसने हमारा बहुत उपकार किया है । किन्तु शय्याधरका आहार ग्रहण न करने पर उक्त दोष नहीं होते। ४ राजपिण्डका ग्रहण न करना चतर्थ स्थितिकल्प है। राज शब्दसे इक्ष्वाकु आदि कुलमें उत्पन्न हुओंका ग्रहण किया जाता है। जो 'राजते' शोभित होता है या जनताका रंजन करता है वह राजा है। राजाके समान सम्पत्तिशाली भी राजा कहलाता है । उसका पिण्ड अर्थात् जिस पिण्डका वह स्वामी होता है, वह राजपिण्ड है। उसके तीन भेद हैंआहार, अनाहार और उपधि । अशन आदिके भेदसे आहारके चार भेद हैं। तृणोंका फलक, आसन आदि अनाहार है । प्रतिलेखन, वस्त्र पात्रको उपधि कहते हैं ।
शङ्का--इस प्रकारके राजपिण्डके लेने में क्या दोष है ?
समाधान-दो प्रकारके दोष हैं एक आत्मसमुत्थ-स्वयं किया, और दूसरा परसमुत्थ । परसमुत्थ के दो भेद हैं-एक मनुष्यकृत और एक तिर्यञ्चकृत । तिर्यञ्चकृतके दो भेद हैं-एक ग्रामीण पशुके द्वारा किया गया और एक जंगलो पशुके द्वारा किया गया । इन दोनों प्रकारोंके भी दो भेद हैं-दुष्टके द्वारा और भद्रके द्वारा किया गया। गाँवके घोड़े, हाथी, गाय, भैंस, मेढे, कुत्ते दुष्ट होते हैं । दुष्टोंसे संयमियोंका उपघात होता है । भद्र हुए तो संयमीको देखकर भागने पर गिरकर
१. पिंडधरन-अ० आ० । २. फलेभाद्ये वा-अ० । फलेभोद्यो वा-आ० । ३. वसताववसा यत-अ० । वसत्यवसत्यवसाधते-आ० । ४. वा राज्ञा सदृशः अ० ।
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