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________________ भगवती आराधना न्नप्यनाचारं, 'जणसमक्वं' जनानां प्रत्यक्षं 'अकारी होदि' दुराचारो न भवति । 'मडिभाग पुण्यवान् ॥१८०.३॥ सरिसीए चंदिगाए कालो वेस्सो पिओ जहा जोण्हो । सरिसे वि तहाचारे कोई वेस्सो पिओ कोई ॥१८०४॥ 'सरिसीए चंदिगाए' चंद्रिकायां समा नायामपि । 'कालो वेस्सो' कालपक्षो द्वष्यः । 'पिओ जहा जोण्हो' शुक्लपक्षो यथा प्रियः । 'सरिसे वि तहाचारे' सदृशेऽप्याचारे द्वयोः पुंसोः । 'कोई वेस्सो पिओ कोई' कश्चित् द्वष्यः कश्चित प्रियः ॥१८०४।। इय एस लोगधम्मो चिंतिज्जंतो करेइ णिव्वेदं । धण्णा ते भयवंता जे मुक्का लोगधम्मादो ॥१८०५॥ 'इय एस लोगधम्मो' अयमेष प्राणिधर्मः । चितिज्जंतो' चिन्त्यमानो। 'करेइ णिवेदं' निवेदं करोति । 'धण्णा ते भयवंता' पुण्यवन्तस्ते यतयः । 'जे मुक्का लोगधम्मादो' ये मुक्ताः प्राणिधर्माद् व्यावणितात् ॥१८०५॥ विज्ज व चंचलं फेणदुब्बलं वाघिमहियमच्चुहदं । णाणी किह पेच्छंतो रमेज्ज दुक्खुधुदं लोगं ।।१८०६॥ 'विज्जू व चंचलं' विद्युदिव चंचलं, 'फेणदुब्बलं' फेनमिव दुर्बलं । 'वाधिमहिदमच्चुहदं' व्याधिभिमंथितं मृत्युना हतं । 'लोगं पेच्छंतो' लोकं पश्यन् । 'गाणी किध रमेज्ज' ज्ञानी कथं तत्र रति कुर्यात् । लोगधम्मचिन्ता ॥१८०६॥ अशुभत्वानुप्रेक्षा प्रक्रम्यते असुहा अत्था कामा य हुंति देहो य सव्वमणुयाणं । एओ चेव सुभो णवरि सव्वसोक्खायरो धम्मो ॥१८०७।। 'असुहा अत्या कामा य हुति' अशुभा अर्थाः कामाश्च भवन्ति । 'देहो य सव्वमणुयाणं' देहश्च सर्व गा०-जैसे चांदकी चाँदनोके समान होनेपर भी लोग कृष्णपक्षसे द्वेष करते हैं और शुक्लपक्षसे प्रेम करते हैं। वैसे ही समान आचार होते हुए भी कोई मनुष्य लोगोंको प्रिय होता है और कोई अप्रिय होता है ।।१८०४।। गा०-इस प्रकार लोकदशाका चिन्तन करनेसे वैराग्य उत्पन्न होता है। वे पुण्यवान यतिजन धन्य हैं जो इस ऊपर कही संसारकी दशासे मुक्त हो गये हैं ॥१८०५॥ गा०-बिजलीकी तरह चंचल, फेनकी तरह दुर्बल, रोगोंसे ग्रस्त और मृत्युसे पीड़ित इस लोकको देखकर ज्ञानी इसमें कैसे अनुराग कर सकता है ।। १८०६।। इस प्रकार लोकानुप्रेक्षाका कथन समाप्त हुआ। अब अशुभत्व अनुप्रक्षाका कथन करते हैं_गा०—अर्थ, काम और सब मनुष्योंकी देह अशुभ है । एक सब सुखोंकी खान धर्म ही शुभ है । शेष सब अशुभ है ॥२८०७।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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