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________________ ७४२ भगवती आराधना असिधारं व विसं वा दोसं परिसरस कुणइ एयभवे । कुणइ दु मुणिणो दोसं अकप्पसेवा भवसएसु ॥१६६१॥ 'असिधारं व' असिधारा वा विषं वा पुरुषस्य दोषमेकस्मिन्नेव भवे करोति । अयोग्यसेवा भवयतेषु मुनेर्दोषं करोति ॥१६६१॥ जावंत किंचि दुक्ख सारीरं माणसं च संसारे । पत्तो अणतखुत्तं कायस्स ममत्तिदोसेण ॥१६६२॥ 'जावंत किचि दुक्ख' यावत्किचिदुःखं शारीरं मानसं वा संसारे त्वमनंतवारं प्राप्तवान् । तत्सर्व शरीरममतादोषेणव ।।१६६२।। इण्हि पि जदि ममत्तिं कुणसि सरीरे तहेव ताणि तुमं । दुक्खाणि संसरंतो पाविहसि अणतयं कालं ॥१६६३।। 'इण्हिं' पि इदानीमपि यदि शरीरे करोषि ममतां तथैव तानि दुःखानि चतुर्गतिषु परावर्तमानोऽनंतकालं प्राप्स्यसि ॥१६६३।। णत्थि भयं मरणसमं जम्मणसमयं ण विज्जदे दुःख । जम्मणमरणादकं छिण्ण ममत्तिं सरीरादो ॥१६६४॥ 'पत्थि भयं मरणसम' मरणसदृशं भयं नास्ति । कुयोनिषु जन्मसमानं दुःखं न विद्यते । जन्ममरणातंक 'छिन्न शरीरममतां ॥१६६४॥ अण्णं इमं सरीरं अण्णो जीवोत्ति णिच्छिदमदीओ। दुक्खभयकिलेसयारी मा हु ममत्तिं कुण सरीरे ।।१६६५।। यदि अर्हन्त आदिकी साक्षीपूर्वक त्यागे हुए आहारकी अभिलाषा करता है और उसे खाता है तो तत्काल उसे अपनी इच्छापूर्ति होनेसे सुख प्रतीत होगा। किन्तु उसकी सब आराधना गल जायेगी ॥१६६०॥ गा०-शहदसे लिप्त तलवार और विषमिश्रित अन्न तो पुरुषका एक भवमें ही अनर्थ करते हैं। किन्तु मुनिका अयोग्य आहारका सेवन सैकड़ों भवोंमें अनर्थकारी होता है ।।१६६१।। गा०-हे क्षपक ! इस संसारमें तुमने जो कुछ भी शारीरिक और मानसिक दुःख अनन्त वार भोगा है वह सब शरीरमें ममतारूप दोषके कारण ही भोगा है। ॥१६६२।। गा०-इस समय भी यदि तुम शरीरमें ममता करते हो तो उसी प्रकार चारों गतियोंमें भ्रमण करते हुए अनन्त कालतक दुःख भोगोगे ॥१६६३।। ___ गा०-मरणके समान भय नहीं है और जन्मके समान दुःख नहीं है । तथा जन्म मरण रोगका कारण शरीरसे ममत्व है उसको तुम दूर करो ॥१६६४।। १. छिद्धिश-आ० मु० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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