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________________ विजयोदया टीका ३९२ तो एयत्तमुवगदो सरेदि सव्वे कदे सगे दोसे । आयरियपादमूले उप्पाडिस्सामि सल्लत्ति ॥५५४॥ 'एगत्तमुवगदो' एकत्वभावनामुपगतः । निरतिचारज्ञानदर्शनचारित्राण्येवाहं । शरीरमिदमन्यदनुपकारि मम दुःखनिमित्तत्वात्, तद्विनाशे मम किं विनश्यति, क्रशयितव्योऽयमरातिरिति मन्यमानः, प्रायश्चित्ताचरणे न खिद्यते । मायां च कर्मोदयनिमित्तां हातु ईहतो मम शुद्धरूपस्येयमशुद्धिरिति । 'तो' ततः । 'सरेवि' स्मरति । 'सवे' सर्वेषां । 'कदे' कृतानां । 'सगे' स्वकानां । 'दोसे' दोषाणां। किमर्थ स्मरति ? 'आयरियपादमले' आचार्यपादमूले । 'उप्पाडिस्सामि' उत्पाटयिप्यामि । 'सल्लंति' दर्शनातिचारमिति ॥५५४|| स्मृत्वा किं करोति पश्चादित्याशङ्कायामित्याचष्टे इय उजुभावमुपगदो सव्वे दोसे सरित्तु तिक्खुत्तो । लेस्साहिं विसुझंतो उवेदि सल्लं समुद्धरिदु ॥५५५।। 'इय' एवं । 'उजुभावं उवगदो' ऋजुभावं उपगतः । 'सवे दोसे' सर्वेषां दोषाणां । 'तिक्खुत्तो सरित्तु' त्रिःस्मृत्वा । 'लेस्साहिं विसुझंतो' लेश्याभिविशुद्धाभिविशुद्धयन् । 'उवेदि' ढोकते आचार्य । 'सल्लं' शल्यं । 'समुद्धरितुं' सम्यगुद्धत्तु ॥५५५॥ आलोयणादिया पुण होइ पसत्थे य सुद्धभावस्स । पुव्वण्हे अवरण्हे व सोमतिहिरिक्खवेलाए ॥५५६॥ 'आलोयणादिका' आलोचनप्रतिक्रमणादिकाः क्रियाः । अथवा 'आलोयणं' आलोचना । 'दिया' दिवसे । 'पुण' पश्चात् । 'होई' भवति । क्व ? 'पसत्थे' प्रशस्ते क्षेत्रे । अनेन क्षेत्रशुद्धिरुक्ता । विसुद्धभावस्स विशुद्धि विशेषार्थ-इस समय मैं आलोचना करता हूँ। मेरे सम्यक्त्व आदिमें कोई भी दोष नहीं है। इस प्रकार दोषकी शंकासे मुक्त होकर मैं एक असहाय अथवा नित्य हूँ। यह शरीर मुझसे भिन्न है । दुःखका कारण होनेसे मेरा उपकारी नहीं है । मैं तो निरतिचार रत्नत्रयस्वरूप ही हूँ। अतः देहके नाशसे मेरा कुछ भी नष्ट नहीं होता। मैं तो शुद्ध चिद्रूप हूँ। इस प्रकार एकत्व भावनामय होता है ।।५५३।। गा०-टो०-एकत्व भावनामय होकर प्रायश्चित्तका आचरण करने में खिन्न नहीं होता। कर्मके उदयके निमित्तसे होनेवाली मायाको छोड़नेमें तत्पर होता है। मैं शुद्धस्वरूप हूँ। मेरी यह माया अशुद्धि है ऐसा मानता है। अतः यह सम्यग्दर्शनका अतिचार है । मैं आचार्यके पादमूलमें अपने दोषोंको जड़मूलसे दूर करूँगा, इस भावनासे अपने द्वारा किये गये सव दोषोंको स्मरण करता है ।।५५४॥ दोषोंके स्मरण करनेके पश्चात् क्या करता है यह कहते हैं- गा०-इस प्रकार सरलभावको प्राप्त हुआ क्षपक सम्पूर्ण दोषोंको तीन बार स्मरण करके लेश्याओंसे विशुद्ध होता हुआ शल्योंको दूर करनेके लिए आचार्यके पास जाता है ॥५५५॥ गा०—आलोचना प्रतिक्रमण आदि क्रिया विशुद्ध परिणामवाले क्षपकके प्रशस्त क्षेत्रमें Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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