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________________ विजयोदया टीका २७७ क्रियाः । आसां परिवर्जनं चारित्रविनयः । व्यावणिताशभक्रियापरिवर्जनं विना चारित्रं नाम किमारम्भवतां तस्मादत्रोद्योगं कुरुत । अनशनादिकतपोजनितक्लेशसहनं तपोविनयः । सति संक्लेशे महानास्रवो भवेदल्पा निर्जरा। उपचारविनयाद्विनीत इति पूज्यते बुधैरन्यथा अविनीत इति निन्द्यते किं च उपचारविनयं मनोवाक्कायविकल्पं यो न करोति, स गुरून्मनसावजानाति, नाभ्युत्तिष्ठति, नानुगच्छति. नाञ्जलिं करोति, न स्तौति, न विज्ञप्ति करोति, गुरोरग्रत आसनमारोहति, याति पुरस्तेषां, निन्दति, परुषं वदति, आक्रोशति वा स नीचर्गोत्रं बध्नाति । तेन श्वपाकचाण्डालादिकूलेषु गहितेष, सारमेयग्रामसूकरादिषु वा जायते । न च रत्नत्रयं गुरुभ्यो लभते । विनीतं हि शिक्षयन्ति गुरवः, प्रयत्नेन मानयन्ति च ततो विनयपरा भवत । अविनये दोषं विनये च गुणं महान्तमवबुध्य 'सज्झाए आजुत्ता होह' शोभनं अध्ययनं स्वाध्यायः । जीवादितत्त्वपरिज्ञानं, तदुपायभूतश्च ग्रन्थः तस्मिन्स्वाध्याये आजुत्ता आयुक्ता भवत निद्रां, हास्यं क्रीडां, आलस्यं, लोकयात्रांच त्यक्त्वा । तथा चोक्तम् णिवण वह मण्णज्ज हासं खेडं विवज्जए। जोग्गं समणधम्मस्स जुजे अणलसो सदा ॥" इति । [ ] 'गुरुपवयण वच्छल्ला होह' गुरुप्रवचनत्सला भवत ।।३०२॥ दुस्सहपरीसहेहिं य गामवचीकंटएहिं तिक्खेहिं । . अभिभूदा वि हु संता मा घम्मधुरं पमुच्चेह ॥३०३॥ कर्मोंके ग्रहण में निमित्त हैं। इनको त्यागना चारित्र विनय है। इन कही गई अशुभ क्रियाओंको त्यागे विना आरम्भ करनेवालोंके चारित्र कैसे हो सकता है। अतः इसमें उद्योग करना चाहिए। अनशन आदि तपसे होनेवाला कष्ट सहना तपविनय है। संक्लेश परिणाम होनेपर महान् आस्रव होता है और थोड़ी निर्जरा होती है। उपचार विनय करनेसे विद्वानोंसे पूजित होता है। नहीं करनेपर अविनयी कहा जाता है और निन्दाका पात्र होता है । तथा मन वचन कायसे जो उपचार विनय नहीं करता वह मनसे गुरुओंकी अवज्ञा करता है, उनके आनेपर खड़ा नहीं होता, उनके जानेपर पीछे-पीछे गमन नहीं करता, हाथ नहीं जोड़ता, स्तुति नहीं करता, विज्ञप्ति नहीं करता, गुरुके सामने आसन पर बैठता है, उनके आगे चलता है, निन्दा करता है, कठोर वचन बोलता है, चिल्लाता है. ऐसा करनेवाला नीच गोत्रका बन्ध करता है और मरकर श्वपाक चाण्डाल आदि नीचकुलोंमें और कुत्ता सुअर आदिमें जन्म लेता है। उसे गुरुओंसे रत्नत्रयकी प्राप्ति नहीं होती। गुरु विनीतको शिक्षा देते हैं और प्रयत्नपूर्वक उसका सन्मान करते हैं। इसलिए अविनयमें दोष और विनय में महान् गुण जानकर विनयी होना चाहिए। तथा स्वाध्यायमें लगना चाहिए। सुन्दर अध्ययनको स्वाध्याय कहते है। जीवादितत्त्वोंका परिज्ञान और उसके उपायभूत ग्रन्थोंकी स्वाध्यायमें निद्रा, हास्य, क्रीड़ा, आलस्य और लोकयात्राको त्यागकर लगना चाहिए। कहा भी है-'बहुत सोना नहीं चाहिए। हास्य क्रीड़ा छोड़ना चाहिए। सदा आलस्य त्यागकर श्रमणधर्मके योग्य कार्यमें लगना चाहिए।' तथा गुरुमें प्रवचनवात्सल्य रखना चाहिए ॥३०२॥ गा०-दुःसह परीषहोंसे और तीक्ष्ण आक्रोशवचनरूपी काँटोंसे पराभूत होकर भी धर्मकी धुराके भारको मत त्यागो ॥३०३|| Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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