SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 187
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १२० भगवती आराधना ___ "जिणपडिरूवं' जिनानां प्रतिबिंबं चेदं अचेललिगं । ते हि मुमुक्षवो मुक्युपायजा यद्गृहीतवन्तो लिंग तदेव तदर्थिनां योग्यमित्यभिप्रायः । यो हि यदर्थी विवेकवान् नासौ तदनुपायमादत्ते यथा घटार्थी 'तुरिवेमादीन्मुक्त्यर्थी च यतिनं चेलं गृह्णाति मुक्तेरनुपायत्वात् । यच्चात्मनोऽभिप्रेतम्योपायस्तन्नियोगत उपादत्ते यथा चक्रादिकं तथा यतिरपि अचेलतां । तदुपायता च अचेलताया जिनाचरणादेव ज्ञानदर्शनयोरिव । 'विरियायारों' वीर्यांतरायक्षयोपशमजनितसामर्थ्यपरिणामो वीर्य, तदविग्रहनेन रलत्रयवृत्तिर्वीर्याचारः । सच पंचविधेष्वाचारेष्वेकः स च प्रतितो भवति । अचेलतामद्वहताऽशक्यचेलपरित्यागस्य कृतत्वात् । परिग्रहत्यागो हि पंचमं व्रतं तन्नाचरितं भवेत् शक्तोऽपि यदि न परिहरेत् । ___ 'रागादिवोसपरिहरणं' । लाभे रागोऽलाभे कोपः । लब्धे ममेदभावलक्षणो मोहः । अथवा मृदुत्वं दानमित्येवमादिषु वसनाच्छादनगुणेषु रागोऽमृदुस्पर्शनादिषु द्वेष इत्येषां परिहारः । 'इच्चेवमादि' इत्येवमादयः 'बहुगा' महान्तः महाफलतया अच्वेलक्के अचेलतायां सत्यां 'गुणा होंति' गुणा भवन्ति । यांचादीनता रक्षा संक्लेशादिपरिहाराः आदिशब्देन गृहीताः ॥८४॥ अचेलताके अन्य गुणोंका सूचन करते हैं गा०-यह अचेलता जिन भगवानका प्रतिरूप है । वीर्याचारका प्रवर्तक है। रागादि दोषोंको दूर करती है । इत्यादि बहुतसे गुण अचेलतामें होते हैं ।।८४॥ टो०-जिण पडिरूव-यह अचेललिंग जिन देवोंका प्रतिबिम्ब है अर्थात् जिन देवोंने जो लिंग ग्रहण किया था मुक्तिके लिये वहीं लिंग मुक्तिके अभिलाषियोंके योग्य है। क्योंकि जिनदेव मुमुक्षु थे मुक्तिका उपाय जानते थे। जो जिस वस्तुका प्रार्थी होता है और विवेकशील होता है वह उस वस्तुके जो उपाय नहीं है उन्हें ग्रहण नहीं करता। जैसे घट बनानेका इच्छुक कपड़ा बुननेके साधन तुरि आदिको ग्रहण नहीं करता। इसी तरह मुक्तिका इच्छुक साधु वस्त्र ग्रहण नहीं करता क्योंकि । वस्त्र मुक्तिका उपाय नहीं है । और जो अपनेको इष्ट वस्तुका उपाय होता है उसे नियमसे ग्रहण करता है। जैसे घटका अर्थी चाक आदिको अबश्य ग्रहण करता है। उसी तरह साध भी अचेलताको ग्रहण करता है और अचेलता ज्ञान और दर्शनकी तरह मक्तिका उपाय है यह जिन भगवानके आचरणसे सिद्ध है। वीरियायारो-वीर्यान्तरायके क्षयोपशमसे उत्पन्न हुए सामर्थ्यरूप परिणामको वीर्य कहते है । उसको न छिपाते हुए रत्नत्रयके पालन करनेको वीर्याचार कहते हैं। पांच प्रकारके आचारोंमेंसे एक वीर्याचार है उसका पालन होता है क्योंकि अचेलताके धारणसे जो वस्त्रत्याग अशक्य है वह हो जाता है। परिग्रहका त्याग पाँचवा व्रत है। शक्ति होते हुए भी यदि परिग्रहका त्याग न करे तो वह पाँचवाँ व्रत नहीं रहता। रागदिदोस परिहरण–लाभमें राग होता है, लाभ न होने पर क्रोध आता है। जो प्राप्त होता है उसमें 'यह मेरा है' इस प्रकारका मोह होता है । अथवा ओढ़ने पहिरनेके वस्त्रोंके कोमलता मजबूती आदि गुणोंमें राग होता है और कठोर स्पर्शन आदिमें द्वेष होता है। वस्त्र त्याग देनेपर ये रागादि दोष नहीं होते। इस प्रकार अचेलतामें महाफलदायक महान गुण होते हैं । आदि शब्दसे मागना, दीनता, आदिसे रक्षा होती है और संक्लेश आदि नहीं होते ॥८४|| १. तंतुरित्येवमा-आ० नु० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy