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________________ ८१८ भगवती आराधना संवरानुप्रेक्षा कथ्यत । संवियन्ते निरुध्यन्तेऽभिनवाः कर्मपर्यायाः पुद्गलानां येन जीवपरिणामेन । मिथ्यात्वादिपरिणामो वा निरुध्यते स संवरः । तत्रायं सूरिमिथ्यात्वादिपरिणामसंवरात् सम्यक्त्वादीनां संवरतामाचष्टे मिच्छत्तासवदारं रुंभइ सम्मत्तदिढकवाडेण । हिंसादिदुवाराणि व दढवदफलहेहिं रुंभंति ॥१८२९॥ 'मिच्छत्तासवदारं' तत्त्वाश्रद्धानमास्रवद्वारं। हभंति' रुन्धते, 'सम्मत्तदिढकवाडेण' तत्त्वश्रद्धान कवाटेन । 'हिंसाविदुवाराणि वि' हिंसादिद्वाराण्यपि, 'दढवदफलहेहि भंति' दृढव्रतपरिघः स्थगयन्ति ।।१८२९॥ उवसमदयादमाउहकरेण रक्खा कसायचोरेहिं ।। सक्का काउं आउहकरेण रक्खाव चोराणं ॥१८३०॥ 'उवसमदयादमाउहकरेण' उपशमः कषायवेदनीयस्य कर्मणस्तिरोभवन, दया सर्वप्राणिविषया, दमः कषायदोषभावनया चित्तनिग्रहः । एते त्रय आयुधाः करे यस्य तेन । 'कसायचोरेहि' कषायचोरेभ्यः । 'रक्खा सक्का कादं' रक्षा शक्या कर्तृ, 'आयुधकरण रक्खाव चोरेहिं आयधहस्तेन चोरेभ्यो रक्षेद. कषायदोषपरिज्ञानेनासकृत् प्रवृत्तेन क्रोधादिनिमित्तवस्तुपरिहारेण तत्प्रतिपक्षक्षमादिपरिणामेन च कषायनिवारणं । उक्तं च जयेत्सदा कोषमुपाश्रितः क्षमा जयेच्च मानं समुपेत्य मावं ।। तथैव मायामपि वार्जवाब्जयेत, जयेच्च संतोषवशेन लुग्धतां ॥ जिताः कषाया यदि किन्न तेजितं कपायमूलं सकलं हि घनमिति ॥१८३०॥ मिथ्यात्वसंवरं कषायसंवरं च निरूप्य इन्द्रियसंवरं व्याचष्टे इंदियदुतस्सा णिधिप्पंति दमणाणखलिणेहिं । उप्पहगामी णिग्घिप्पंति हु खलिणेहिं जह तुरया ।।१८३१॥ अब संवर अनुप्रेक्षा कहते हैं। जिस जीव परिणामसे पुद्गलोंके नवीन कर्म पर्याय अथवा मिथ्यात्वादि परिणाम रुकते हैं उसे संवर कहते हैं। उनमेंसे ग्रन्थकार मिथ्यात्व आदि परिणामोंका संवर करनेसे सम्यक्त्व आदिको संवर कहते हैं -मिथ्यात्व अर्थात तत्त्वके अश्रद्धानरूप आसवका द्वार सम्यक्त्व अर्थात तत्त्वके श्रद्धान रूप दृढ़ कपाटोंके द्वारा रोका जाता है और हिंसा आदि आस्रव द्वारोंको दृढ़ व्रतरूपी अर्गलाओंसे रोका जाता है ॥१८२९।। गा०-टी०-कषायवेदनीय कर्मके तिरोभाव अर्थात् उदय अवस्थाको प्राप्त न होनेको उपसम कहते हैं। सब प्राणियोंपर दयाभाब होना दया है। कषायोंके दोषोंका विचार करके चित्तका निग्रह करना दम है । ये तीन अस्त्र जिसके पास हैं वह कषायरूप चोरोंसे अपनी रक्षा कर सकता है। जैसे जिसके हाथमें अस्त्र होता है वह चोरोंसे अपनी रक्षा कर सकता है उसी प्रकार कषायके दोषोंको जाननेसे, क्रोध आदिमें निमित्त वस्तुसे बचनेसे और कषायोंके विरोधी क्षमा आदि परिणामोंसे कषायको दूर किया जा सकता है। कहा भी है-सदा क्षमाकी उपासना करके क्रोधको जीतना चाहिये। मार्दवको धारण करके मानको जीतना चाहिये । तथा आर्जवभावसे मायाको जीतना चाहिये और सन्तोषसे लोभको जीतना चाहिये। जिसने कषायोंको जीत लिया उन्होंने क्या नहीं जीता । अर्थात् सबको जीत लिया। क्योंकि सब बन्धनका मूल कषाय है।।१८३०।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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