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________________ ५५ विजयोदया टीका क्षायिकेण क्षायोपशमिकेनौपशमिकेन वा सम्यग्दर्शनेन परिणतः दर्शनपंडितः । मत्यादिपंचप्रकारसम्यग्ज्ञानेषु परिणतः ज्ञानपंडितः । सामायिकच्छेदोपस्थापनापरिहारविशुद्धसूक्ष्मसापराययथाख्यातचारित्रपु कस्मिश्चित्प्रवृत्तश्चारित्रपंडितः । इह पुनर्ज्ञानदर्शनचारित्रपंडितानां अधिकारः । व्यवहारपंडितस्य मिथ्यादृष्टः वालमरगं 'यतो भवति सम्यग्दृष्टेस्तदेव दर्शनपंडितमरणं भवति । तद्दर्शनपंडितमरणं नरके, भवनेषु, विमानेषु, ज्योतिष्केषु, वानव्यंतरेषु, द्वीपसमुद्रेषु च । ज्ञानपंडितमरणानि च तेष्वेव । मनुष्यलोके एव केवलमनःपर्ययज्ञानपंडितमरणं भवति । ओसण्णमरणमच्यते-निर्वाणमार्गप्रस्थितात्संयतसार्थाद्यो हीनः प्रच्युतः सोऽभिधीयते ओसण्ण इति । तस्य मरणं ओसण्णमरणमिति । ओसम्णग्रहणेन पावस्थाः, स्वच्छंदाः, कुशीलाः संसक्ताश्च गृह्यन्ते । तथा चोक्तम् ।। पासत्थो सच्छंदो कुसील संसत्त होंति ओसण्णा ॥ जं सिद्धिपच्छिदादो ओहोणा साधु सत्थादो ॥-[ के पुनस्ते ? ऋद्धिप्रियाः, रसेष्वासक्ताः, दुःखभीरवः सदा दुःखकातराः, कषायेषु परिणताः, सज्ञावशगाः, पापश्रुताभ्यासकारिणः, त्रयोदशविधासु क्रियास्वलसाः, सदा संक्लिष्टचेतसः, भक्के उपकरणे च प्रतिबद्धाः, निमित्तमंत्रौषधयोगोपजीविनः गृहस्थवैयावृत्त्यकराः, गुणहीना गुप्ति समितिपु चानुद्यताः मंदसंवेगा दशप्रकारे धर्मे अकृतबुद्धयः शबलचारित्राः ओसन्ना इत्युच्यते । एवंभूताः संतो मृत्वा वराका भवसहस्रषु है । अथवा जो अनेक शास्त्रोंका ज्ञाता है, सेवा आदि बौद्धिक गुणोंसे युक्त है वह व्यवहारपण्डित है। क्षायिक, क्षायोपशमिक अथवा औपशमिक सम्यग्दर्शनसे जो युक्त है वह दर्शनपण्डित हैं। जो मति आदि पाँच प्रकारके सम्यग्ज्ञान रूपसे परिणत है वह ज्ञानपण्डित है। जो सामायिक, छेदोपस्थापना, परिहारविशुद्धि, सूक्ष्मसाम्पराय और यथाख्यात चारित्रमेंसे किसी एक चारित्रका पालक है वह चारित्रपण्डित है । यहाँ ज्ञान, दर्शन और चारित्र पण्डितोंका अधिकार है । व्यवहारपण्डित मिथ्यादृष्टि का तो वालमरण होता है और सम्यग्दृष्टिका मरण दर्शनपण्डित मरण है। वह दर्शनपण्डित मरण नरकमें भवनवासी देवोंमें, वैमानिक देवोंमें, ज्योतिष्क देवोंमें, व्यन्तर देवोंमें और द्वीप समुद्रोंमें होता है। ज्ञानपण्डित मरण भी इन्हींमें होता है। किन्तु केवलज्ञान और मनः पर्यायज्ञान पण्डितमरण मनुष्य लोकमें ही होता है। - ओसण्णमरणको कहते हैं निर्वाण मार्गेपर प्रस्थान करनेवाले संयमियोंके संघसे जो हीन हो गया है उसे निकाल दिया गया है वह ओसण्ण कहलाता है। उसके मरणको ओसण्णमरण कहते हैं। ओसण्णके ग्रहणसे पार्श्वस्थ, स्वच्छन्द, कुशील और संसक्तोंका ग्रहण होता है। कहा भी है-पार्श्वस्थ, स्वच्छन्द कुशील और संसक्त ये ओसण्ण होते हैं क्योंकि ये मोक्षके लिए प्रस्थान करनेवाले साधुसंघसे बाहर होते हैं। ऋद्धियोंके प्रेमी, रसोंमें आसक्त, दुःखसे भीत, सदा दुःखसे कातर, कषायोंमें संलग्न, आहारादिसंज्ञाके अधीन, पापवर्धक शास्त्रोंके अभ्यासी, तेरह प्रकारकी क्रियाओंमें आलसी, सदा संक्लेशयुक्त चित्तवाले, भोजन और उपकरणोंसे प्रतिबद्ध, निमित्तशास्त्र, मंत्र, औषध आदिसे आजीविका करनेवाले, गृहस्थोंका वैयावृत्य करनेवाले, गुणोंसे हीन, गुप्तियों और समितियोंमें उदासीन, संवेग भावमें मन्द, दस प्रकारके धर्ममें मनको न लगानेवाले तथा सदोष चारित्रवाले मुनियोंको अवसन्न कहते हैं । इस प्रकारसे रहते हुए ये बेचारे मरकर हजारों भवोंमें भ्रमण करते १. यथा आ० मु० । २. आहीणा आ० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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