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________________ विजयोदया टीका कृज्जन्मान्तरे पितृपुत्रादिभावमुपागतानां मारणमयुक्तं इति वदति - सव्वे विय संबंधा पत्ता सव्वेण सव्वजीवेहिं । तो मारतो जीव संबंधी चैव मारेइ || ७९२ ।। 'सव्वे वि य' सर्वेऽपि च । 'संबंधा' सम्बन्धाः प्राप्ताः । 'सव्वेण' सर्वेण जीवेन । 'सव्वजीव हि' सर्व जीवै: । 'तो' तस्मात् । जीवो मारणोद्यतः सम्बन्धिन एव घातयति ॥ ७९२ ॥ तच्च सम्वन्धिननं लोके अतिनिन्दितं - जीaast अप्वहो जीवदया होइ अप्पणो हु दया । विसकंटओव्a हिंसा परिहरियव्वा तदो होदि ॥ ७९३ ॥ 'जीववहो अप्पवहो' जीवानां घात आत्मघात एव । जीवानां क्रियमाणा दया आत्मन एव कृता भवति । सकृदेकजीवघातनोद्यतः स्वयमनेकेषु जन्मसु मार्यते । कृतैकजीवदयोऽपि स्वयमनेकेषु जन्मसु परं रक्ष्यते । इति विषलिप्तकण्टकवत् परिहार्या हिंसा दुःखभीरुणा ।।७९३ ॥ हिंसादोषमिहैव जन्मनि दर्शयति मारसीलो कुणदि हु जीवाणं रक्खसुव्व उव्वेगं । संबंधिविणय विस्संभं मारितए जंति ॥७९४ ॥ ४८७ 'मारणसीलो हु' मारणशीलः परहननोद्यतः । राक्षस इव जीवानामुद्वेगं करोति । सम्बन्धिनोऽपि न विस्रम्भं उपयान्ति तस्मिन्वधके ॥७९४॥ वघबंघरोघधणहरणजादणाओ य वेरमिह चेव । निव्विसयमभोजित्तं जीवे मारंतगो लभदि ॥ ७९५ ।। मारना नहीं चाहते । तब पूर्व नाना जन्मोंमें पिता पुत्र आदि सम्बन्ध जिनके साथ रहा है, उन जीवोंको मारना अनुचित है, यह कहते हैं Jain Education International गा० – सब जीवोंके साथ सब जीवोंके सब प्रकारके सम्बन्ध पूर्वभवोंमें रहे हैं । अत. उनको मारनेवाला अपने सम्बन्धीको ही मारता है और सम्बन्धीको मारना लोकमें अत्यन्त निन्दित माना जाता है ||७९२ || गा० - टी० - जीवोंका घात अपना ही घात है । और जीवोंपर की गई दया अपनेपर ही की गई दया है । जो एक बार एक जीवका घात करता है वह स्वयं अनेक जन्मोंमें मारा जाता है । और जो एक जीवपर दया करता है वह स्वयं अनेक जन्मोंमें दूसरे जीवोंके द्वारा रक्षा किया जाता है । इसलिए दुःखसे डरनेवाले मनुष्यको विषैले काँटेकी तरह हिंसा से बचना चाहिए ||७९३॥ इसी जन्म में हिंसा के दोष दिखलाते हैं गा० – जो दूसरोंका घात करनेमें तत्पर होता है उससे प्राणी वैसे ही डरते हैं जैसे राक्षससे । उस हिंसकका विश्वास सम्बन्धीजन भी नहीं करते ॥ ७९४|| For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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