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________________ ५७४ भगवती आराधना ण य होदि संजदो वत्थमित्तचागेण सेससंगेहिं । तम्हा आचेलक्कं चाओ सव्वेसि होइ संगाणं ॥१११८॥ 'ण य होदि संजदो' नैव संयतो भवति इति वस्त्रमात्रत्यागेन शेषपरिग्रहसमन्वितः । वस्त्रादन्यः शेषः इत्युच्यते । आचेलक्कमित्यत्र चेलत्यागमात्रमेव यदि निर्दिष्टं स्याच्चेलादन्यपरिग्रहं गहन संयतः स न भवति यस्मात्तस्मादाचेलक्यं नाम सर्वसंगपरित्यागोऽत्र मन्तव्यः इति यक्तिरुपन्यस्ता चलशब्दस्य परिग्रहोपलक्षणतायां । किं च महाव्रतोपदेशप्रवृत्तानि च सूत्राणि ज्ञापकानि सर्वसंगत्यागः आचेलक्कमित्यत्र निर्दिष्ट इत्यस्य ॥१११८॥ कथं यदि चेलमात्रमेव त्याज्यं स्यान्नेतरं अहिंसा दिव्रतानि न स्युः इत्येतद्वयाचष्टे उत्तरगाथायां संगणिमित्तं मारेइ अलियवयणं च भणइ तेणिक्कं । भजदि अपरिमिदमिच्छं सेवदि मेहुणमवि य जीवो ॥१११९।। 'संगणिमित्तं मारेदि' परिग्रहनिमित्तं प्राणिनो हिनस्ति षटकर्मप्रवृत्तेः । अथ द्रव्यं परकीयं ग्रहीतुकामस्तं हिनस्ति, भणत्यलोकं, करोति स्तन्यं, भजते अपरिमितामिच्छां, मैथुने च प्रवर्तते । सत्येवमहिंसादि त्याग नहीं कहा। इसके समाधानमें दो बातें कहीं हैं। प्रथम यह सूत्र देशामर्षक है-एक देश चेलके द्वारा सब परिग्रहका त्याग कहा है। दूसरे, इसमें आदि शब्दका लोप हो गया है आचेलक्यादिकी जगह आचेलक्य कहा है अतः आदि शब्दसे सब परिग्रहका त्याग बतलाया है। अपने इस कथनको पुष्टि में ग्रन्थकारने ताल प्रलम्ब सूत्रका उदाहरण दिया है। कल्पसूत्रमें पहला सूत्र है'नो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा आमे तालपलंबे अभिन्ने पडिगाहित्तए ।' अर्थात् निर्ग्रन्थ साधु और साध्वियोंको ताल प्रलम्ब ग्रहण नहीं करना चाहिए। इसके भाष्यमें कहा है कि तालवृक्षके फलको ताल कहते हैं उसे अग्रप्रलम्ब कहते हैं। और उसके आधारभूत वृक्षको तल कहते हैं। और प्रलम्ब मूलको कहते हैं। यहाँ यद्यपि सूत्रमें तालप्रलम्ब जो कच्चा हो और टूटा न हो उसके ग्रहणका निषेध किया है। तथापि तालफलसे नारियल, लकुच, कैथ, आम्र आदि सभी लिए हैं। इसी तरह आचेलक्यमें भी केवल वस्त्रका ही त्याग नहीं कहा किन्तु सर्वपरिग्रहका त्याग कहा है ।।१११७।। ___गा०-टो०-केवल वस्त्रमात्रका त्याग करनेसे और शेष परिग्रह रखनेसे साधु नहीं होता। यदि 'आचेलक्य' से वस्त्रमात्रका त्याग ही कहा होता तो वस्त्रके सिवाय अन्य परिग्रहको ग्रहण करनेवाला साधु नहीं हो सकता। अतः आचेलक्यका अर्थ सर्वपरिग्रहका त्याग मानना चाहिए। 'चेल शब्द परिग्रहका उपलक्षण है' इसके सम्बन्धमें यह युक्ति दी गई है। तथा महावतका कथ करनेवाले सूत्र इस बातके ज्ञापक हैं कि आचेलक्यमें सर्वपरिग्रहका त्याग कहा है ।।१११८।। आगे कहते हैं कि यदि साधुके लिए केवल वस्त्रमात्र ही त्याज्य है, अन्य परिग्रह त्याज्य नहीं है तो अहिंसादिव्रत नहीं हो सकते गाo-टी०-परिग्रहके लिए असि मसि कृषि आदि षट्कर्म करके मनुष्य प्राणियोंका घात करता है। पराये द्रव्यको ग्रहण करनेकी इच्छासे उसका घात करता है, झूठ बोलता है, चोरी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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