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________________ ८४८ भगवती आराधना .. 'अध तेउपउमसुक्क' अथ तेजःपद्मशुक्ललेश्या अतिक्रान्तः अलेश्यतामुपगतः ज्ञानदर्शनसमग्र आयुषः क्षयात् सिद्धिं गच्छति कर्मलेपापगमाद्विशुद्धो निरस्ताशेषक्लेशः । लेस्सेत्ति ॥१९१७॥ एवं सुभाविदप्पा ज्झाणोवगओ पसत्थलेस्साओ । आराधणापडायं हरइ अविग्घेण सो खवओ ॥१९१८।। 'एवं सुभाविदप्पा' एवं सुष्ठु भावितात्मा ध्यानमुपगतः प्रशस्तश्यापरिणत आराधनापताकां हरत्यविघ्नेन ॥१९१८॥ तेलोक्कसव्वसारं चउगइसंसारदुक्खणासयरं । आराहणं पवण्णो सो भयवं मुक्खपडिमुल्लं ।।१९१९।। 'तेलोक्कसव्वसारं' त्रैलोक्ये सर्वस्मिन्सारभूतां चतुर्गतिसंसारदुःखनाशकरणीमाराधनां प्रपन्नोऽसौ भगवान् मोक्षमप्रतिमौल्यं ॥१९१९।। एवं जधाक्खादविधि संपत्ता सुद्धदंसणचरिना। केई खवंति खवया मोहावरणंतरायाणि ॥१९२०॥ ‘एवं जघाक्खादविधि' एवं यथाख्यातविधि संप्राप्ताः शुद्धदर्शनचारित्राः केचित्क्षपका घातिकर्माणि क्षपयन्ति ॥१९२०॥ केवलकप्पं लोगं संपुण्णं दव्वपज्जयविधीहिं । . ज्झायंता एयमणा जहंति आराहया देहं ॥१९२१॥ 'केवलकप्पं' केवलज्ञानस्य परिच्छेद्यत्वेन योग्यं लोकं संपूर्ण द्रव्यपर्यायविकल्पैः परिच्छिन्दन्तः जहति ते स्वदेहं ।।१९२१॥ करता है। वह समस्त कर्मलेपके चले जानेसे विशुद्ध होता है तथा समस्त क्लेशोंसे छूट जाता है ॥१९१७॥ गा०-इस प्रकार वह क्षपक अच्छी तरहसे आत्माकी भावना भाकर प्रशस्त लेश्यापूर्वक ध्यान करके, किसी विघ्न बाधाके बिना आराधना पताकाको धारण करता है ।।१९१८|| गा०-वह भगवान् तीनों लोकोंमें सारभूत तथा चार गतिरूप संसारके दुःखका नाश करनेवाली आराधनाको प्राप्त करता है जो उस मोक्षका प्रतिमूल्य है अर्थात् आराधनारूपी मूल्य प्रदान करके ही मोक्षको खरीदा जा सकता है ।।१९१९॥ गा-इस प्रकार कोई-कोई चरमशरीरी क्षपक यथाख्यात चारित्रको विधिके द्वारा शुद्ध सम्यग्दर्शन और चारित्रको प्राप्त करके मोहनीय, ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय कर्मोंका क्षय करते हैं ।।१९२०॥ . गा० केवलज्ञानके द्वारा जाननेके योग्य सम्पूर्ण लोकको द्रव्य पर्यायोंके भेदोंके साथ एकाग्रमनसे जानते हुए आराधक अपना शरीर छोड़ते हैं ।।१९२१॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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