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________________ विजयोदया टीका प्रविष्टोदकमिव संस्थानवत्तामुपगतः, शरीरापायेऽपि तमात्मानं चरमशरीरात् किंचिन्न्यूनात्मप्रदेशसमवस्थानं बुद्धावारोप्य तदेवेदमिति स्थापिता मतिः स्थापनासिद्धः । सिद्धस्वरूपप्रकाशनपरिज्ञानपरिणतिसामर्थ्याध्यासित आत्मा आगमद्रव्यसिद्धः । नोआगमद्रव्य सिद्धस्त्रेधा ज्ञायर्कशरीरभावितद्वयतिरिक्तभेदात् । ज्ञायकशरीरसिद्धः सिद्धप्राभृतज्ञस्य शरीरं भूतं भवत् भावि वा । भविष्यत्सिद्धत्वपर्यायो जोवो भाविसिद्धः । तद्व्यतिरिक्तमसंभवि, कर्मनोकर्मणोः सिद्धत्वस्य कारणत्वाभावात् । सिद्धप्राभृतगदितस्वरूपसिद्धज्ञानमागमभावसिद्धः । क्षायिकज्ञानदर्शनोपयक्तः परिप्राप्ताव्यावाधस्वरूपस्त्रिविष्टपशिखरस्थो नोआगमभावसिद्धः । स इह गृह्यते । ननु सामान्यशब्दस्यान्तरेण प्रकरणं विशेषणं वाऽभिमतार्थवृत्तिता दुरवगमा ? अत एव विशेषणमुपात्तं चतुर्विधाराधनाफलं प्राप्तानिति । सम्यक्त्वं केवलज्ञानदर्शने सकलकर्मविनिर्मुक्ततेति चतुर्विधं, चतुर्विधाया आराधनायाः फलं साध्यं तत्प्राप्तिरात्मनः सम्यग्दर्शनादिरूपेण समवस्थानम् । ततोऽयमर्थ:-'फलं पत्ते' इत्यस्य क्षायिकसम्यक्त्वकेवलज्ञानदर्शननिरवशेषकर्मविनिर्मुक्ततारूपेणावस्थितानिति । जगति आसन्नभव्यजीवलोके समीचीनश्रुतज्ञानलोचने प्रसिद्धान् प्रतीतान् विदितान् । 'अरहते' इत्यत्र च शब्दमन्तरेणापि समुच्चयार्था गतिः । 'पृथिव्यप्तेजोवायुराकाशं कालो दिगात्मा मन इति' द्रव्याणीत्येवं यथा । निहतमोहनीयतयाऽस्तज्ञानअपेक्षा अन्तिम शरीरमें प्रविष्ट हआ जो आत्मा दूधमें मिले पानीकी तरह आकारवत्ताको प्राप्त हुआ, शरीरके नष्ट हो जानेपर भी उस आत्माको अन्तिम शरीरसे किञ्चित् न्यून आकार वाला बुद्धिमें स्थापित करके 'यह वही है' इस प्रकारसे स्थापित मूर्तिको स्थापना सिद्ध कहते हैं । सिद्धों के स्वरूपको प्रकाशित करनेवाले ज्ञानकी परिणतिकी सामर्थ्यसे युक्त आत्मा आगमद्रव्यसिद्ध है । नोआगम-द्रव्यसिद्धके तीन भेद हैं-ज्ञायकशरीर, भावि और तद्व्यतिरिक्त । सिद्ध विषयक शास्त्रके ज्ञाताके भूत, भावि और वर्तमान शरीरको ज्ञायक शरीर सिद्ध कहते हैं । भविष्यमें सिद्ध पर्यायको प्राप्त करनेवाले जीवको भाविसिद्ध कहते हैं। इसमें तद्व्यतिरिक्त भेद सम्भव नहीं है क्योंकि कर्म और नोकर्म सिद्धत्वके कारण नहीं होते। सिद्ध प्राभृतमें कहे गये सिद्ध स्वरूपके ज्ञानमें उपयुक्त आत्मा आगम भावसिद्ध है। क्षायिक ज्ञान और क्षायिक दर्शनमें उपयुक्त तथा अव्यावाध स्वरूपको प्राप्त और लोकके शिखर पर विराजमान सिद्ध परमेष्ठी नो आगमभावसिद्ध हैं। यहाँ उसीका ग्रहण किया है । शङ्का-प्रकरण अथवा विशेषणके विना सामान्यसे अभिमत अर्थका वोध होना कठिन है अतः यहाँ सिद्धसे नो आगम भावसिद्धका ग्रहण कैसे संभव है ? समाधान-इसीलिये आचार्यने 'चतुर्विध आराधनाके फलको प्राप्त' यह विशेषण दिया है। सम्यक्त्व, केवलज्ञान, केवलदर्शन और समस्त कर्मोसे सर्वथा मुक्तता ये चार, चार प्रकारकी आराधनाके फल हैं। आत्माका सम्यग्दर्शन आदि रूपसे सम्यक् अवस्थान ही उनको प्राप्ति है। अतः ‘फलं पत्ते' का अर्थ है---जो क्षायिक सम्यक्त्व, केवलज्ञान, केवलदर्शन और समस्त कर्मो से विनिमुक्तता रूपसे स्थित है उन सिद्धोंको । 'जगत्' अर्थात् निकट भव्य जीवरूपी लोकमें, जिनकी आँख समीचीन श्रुतज्ञान हैं, उनमें जो प्रसिद्ध हे जाने माने हैं। 'अरहंते' यहाँ यद्यपि 'च' शब्द नहीं है फिर भी समुच्चयरूप अर्थका ज्ञान होता है। जैसे 'पृथिव्यप्तेजोवायुराकाशं कालो दिगात्मा मन इति द्रव्याणि' इस सूत्रमें 'च' शब्द नहीं होने पर भी पृथिवी, जल, तेज, वायु, आकाश, काल, दिशा, आत्मा और मन ये द्रव्य हैं इस प्रकारसे समुच्चयका ज्ञान होता है उसी प्रकार जानना । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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