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________________ ५४४ भगवती आराधना 'मासम्मि सत्तमे' सप्तमे मासे । 'तस्स' तस्य गर्भस्थस्य । 'चम्मणहरोमणिप्पत्ती होदि' चर्मनखरोमनिष्पत्तिर्भवति । 'फंदणमट्टममासे' स्पंदनमीषच्चलनं अष्टमे मासे । 'णवमे दसमे य णिग्गमणं' नवमे दशमे चोदरान्निर्गमनं भवति ॥१००४।। सव्वासु अवत्थासु वि कललादीयाणि ताणि सव्वाणि । असुईणि अमिज्झाणि य विहिंसणिज्जाणि णिच्चपि ॥१००५।। 'सव्वासु अवत्थासु.वि' सर्वास्वप्यवस्थासु शुक्रशोणितयोः । 'कललादियाणि' कललमबुदमित्यादिकानि । 'सन्वाणि असुईणि' सर्वाणि अशुचीनि । 'अमेज्झाणिव' अमेध्यमिव । 'विहिंसणिज्जाणि' जगप्सनीयानि । णिच्चं पि' नित्यमपि ॥१००५॥ णिप्पत्ति गदं। गर्भेऽवस्थानक्रम अशुभं कथयत्युत्तरगाथया आमासयम्मि पक्कासयस्स उवरि अमेज्झमज्झम्मि । वत्थिपडलपच्छण्णो अच्छइ गब्भे हु णवमासं ॥१००६॥ 'आमासयम्मि' आमाशये । आममुच्यते भुक्तमशनमुदराग्निना अपक्वं तस्य आशयः स्थानं तस्मिन् । 'पक्कासयस्स उवरि' जाठरेण अग्निना पक्व आहारः पक्वं तस्य आशयः स्थानं । तत उपरि। 'अमेज्झमज्झम्मि' अमेध्ययोः पक्वापक्कयोर्मध्ये । 'गन्भो अच्छदि' आस्ते गर्भः । कीदृक् 'वत्थिपडलपच्छण्णो' विततं मांसशोणितं जालसंस्थानीयं वत्थिपडलशब्देनोच्यते तेन प्रतिच्छन्नः । कियन्तं कालमास्ते ? णवपासं उपलक्षणं नवमासग्रहणं दशमासमात्रमप्यवस्थानात् ।।१००६।। अशुचिस्थाने अवस्थितः स्वल्पकालं यदि जुगुप्स्यते चिरकालावस्थितः कथमयं न जुगुप्सनीय इत्याचष्टे वमिदा अमेज्झमज्झे मासंपि समक्खमच्छिदो पुरिसो । होदि हु विहिंसणिज्जो जदि वि सयणीयल्लओं होज्ज ॥१००७।। गा०–सातवें मासमें उस गर्भस्थ पिण्डपर चर्म, नख और रोम बनते हैं। आठवें मासमें उसमें हलन-चलन होने लगता है । नौवें अथवा दसवे मासमें उसका जन्म होता है ।।१००४॥ गा०-रज और वीर्यकी सब अवस्थाओंमें वे सब कलिल आदि अशुचि और विष्टाकी तरह सदा ग्लानिकारक होते होते हैं ॥१००५॥ आगे गर्भका स्थान और उसकी अशुचिता कहते हैं गाo-आमाशयसे नीचे और पक्वाशयसे ऊपर इन दोनों अशुचि स्थानोंके मध्य में गर्भाशय होता है। उसमें वस्तिपटलसे वेष्ठित होकर प्राणी नौमास तक रहता है ॥१००६॥ टी०-खाया हुआ भोजन, उदराग्निके द्वारा पकता नहीं है उसे आम कहते हैं उसके स्थानको आमाशय कहते हैं । और उदराग्निके द्वारा पके आहारको पक्व कहते हैं। उसके स्थानको पक्वाशय कहते हैं। इन अपक्व और पक्वके मध्यमें गर्भस्थान होता है। उसमें शिशु नौ मास तक रहता हैं। नौ मास तो उपलक्षण है अतः दस मासमात्र भी रहता है। रुधिर और मांसके जालको वस्तिपटल कहते हैं। उससे गर्भस्थ बालक चारों ओरसे वेष्ठित रहता है ॥१००६॥ - आगे कहते हैं कि अपवित्र गन्दे स्थानमें थोड़े समयके लिए भी यदि रहना पड़े तो ग्लानि होती है तब नौ दस मास तक ऐसे स्थानमें रहनेवाला ग्लानिका पात्र क्यों नहीं है ? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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