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________________ विजयोदया टीका उवलद्धो' इति पठन्ति । तत्रायमर्थः-अतिशयभूतानां शास्त्राणां प्रत्यग्राणामरातीयैः सूरिभिः कृतानां चिरंतनानामेवाप्रत्याख्यातानां उपलब्धिर्भवति । प्रकारान्तरेण अतिशयार्थकुशलत्वमाख्यातुमीहते -णिक्खवणपवेसादिसु आयरियाणं बहुप्पयाराणं । . सामाचारी कुसलो य होदि गणसंपवेसेण ||१५२।। "णिक्खवणपवेसाविसु' इत्यनया गाथया। 'आयरियाणं' आचार्याणां । 'बहुप्पयाराणं' बहुविधानां । केचिदाचार्याः चरणक्रममवगच्छन्ति परैः सहाचरणात् । अपरे पुनः शास्त्रनिगदितमेव । अन्ये तदुभयज्ञाः । इति बहप्रकारता । एवं आचार्याणां अनेकप्रकाराणां गणसंपवेसेण गणप्रवेशेन निःक्रमणप्रवेशादिकासु क्रियासु । 'कुसलो य होदि' कुशलश्च भवति । कः ? सामाचारी। ते यथा आचरन्ति तथा प्रवर्तमानः स्वावासदेशान्निगन्तुमिच्छता शीतलादुष्णाद्वा' देशाच्छरीरप्रमार्जनं कार्य, तथा प्रविशतापि । किमर्थ? शीतोष्णजन्तुनामाबाधापरिहारार्थ अथवा श्वेत रक्तकृष्णगुणासु भूमिषु अन्यस्या निःक्रमणे अन्यस्याश्च प्रवेशने प्रमार्जनं कटिप्रदेशादधः कार्य । अन्यथा विरुद्धयोनिसंक्रमेण पृथिवीकायिकानां तद्भूमिभागोत्पन्नानां प्रसानां चाबाधा स्यात् । तथा जलं प्रविशता सचित्तचित्तरजसोः पदादिषु लग्नयोन्निरासः । यावच्च पादौ शुष्यतस्तावन्न गच्छेज्जलान्तिक एव ति ठेत् । महतीनां नदीनां उत्तरणे आराद्भागे कृतसिद्धवन्दनः यावत्परकूलप्राप्तिस्तावन्मया सर्व होती है, कोई ‘अदिसयसत्थाण होइ उवसद्धी' ऐसा पढ़ते हैं। उसका यह अर्थ है-अतिशयभूत शास्त्रोंकी जो नवीन बने हैं अथवा प्राचीन आरातीय आचार्योंके द्वारा रचे गये हैं उनकी उपलब्धि होती है-उनको जानना देखना होता है ।।१५१।। प्रकारान्तरसे अतिशय अर्थकुशलताका कथन करते हैं गा०-बहुत प्रकारके आचार्योंके गणमें प्रवेश करनेसे वसति और दाताके घरसे निकलने और प्रवेश करने आदिमें जो उनका सम्यक् आचरण है उसमें प्रवीण होता है ॥१५२॥ टी०-आचार्य बहुत प्रकारके होते हैं। कुछ आचार्य दूसरोंके साथ आचरण करनेसे आचरणका क्रम जानते हैं। दूसरे कोई आचार्य शास्त्रमें जो आचार कहा है उसे ही जानते हैं। अन्य कुछ आचार्य दोनोंको जानते हैं। इस प्रकार आचार्योंके वहुत प्रकार हैं। इस प्रकार अनेक प्रकारके आचार्योंके संधमें प्रवेश करनेसे निष्क्रमण प्रवेश आदिमें सामाचारी कुशल होता है। वे आचार्य जैसा आचरण करते हैं उसी प्रकार जो आचरण करता है उसे सामाचारी कहते हैं । अपने रहनेके स्थानसे यदि बाहर जाना चाहता है वह स्थान शीतल हो अथवा गर्म हो, शरीरका प्रमार्जन करके बाहर जाना चाहिए। इसी प्रकार प्रवेश करते हुए भी प्रमार्जन करना चाहिए। यह प्रमार्जन पीछीसे शरीरकी सफाई शीतकाय और उष्णकायके जीवोंको बाधा न हो, इसलिए किया जाता है । अथवा सफेद, लाल या काले गुणवाली भूमियोंमें एकमेंसे निकलकर दूसरीमें प्रवेश करनेपर कमरसे नीचे प्रमार्जन करना चाहिए। अन्यथा विरुद्ध योनिके संक्रमसे पृथिवीकायिक जीवोंको और उस भूमिमें उत्पन्न हुए त्रसोंको बाधा होतो है। तथा जलमें प्रवेश करते समय पर आदिमें लगी सचित्त और अचित्त धलीको दूर कर देना चाहिए । जब तक पर न सूखे तबतक जलसे निकलकर जलके पास ही ठहरना चाहिए, वहाँसे जाना नहीं चाहिए। यदि बड़ी नदीको १. द्वा सकलशरीर-अ०। २५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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