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________________ विजयोदया टीका १९१ दानादवद्यभीरुतराः । स्वयमात्मना प्रियस्थिरधर्मतराः । अन्तरेणाप्यतिशायिकप्रत्ययमतिशयार्थगतिरत्र 'अभिरूपाय कन्या देयेति' यथा प्रियस्थिरधर्मतरः इति । अपिशब्देन संविग्नतरः अवद्य भीरुतरश्चेति ग्राह्यम् ॥ १४८ ॥ भावनां व्याचष्टे - परिषहसहनमिह भावनेत्युच्यते चरिया छुहाय तण्हा सीदं उन्हं च भाविदं होदि । सेज्जाव अपविद्धा विहरणेणाधिआसिया होदि ॥ १४९ ॥ 'चरिया' चर्याजन्यं दुःखमिह चर्येति गृहीतं । उपानहान्येन वा अकृतपादरक्षस्य, गच्छतो निशितशर्करापाषाणकण्टकादिभिस्तुद्यमानचरणस्य, उष्णरजः संतप्तपादस्य, वा यदुःखं यस्यानुभवनमसंक्लेशेन चर्या - भावना । 'छुहा य' अपरिचिते देशे संयतैः पूर्वमनध्यासिते अल्पधान्यसंग्रहे प्रयोग्याया अलाभात् भिक्षायाः समुपजाता क्षुद्वेदना सोढा भवति । चिरमेकत्र वसतो जनः परिचयाद्दाक्षिण्याद्वा भिक्षां प्रयच्छतीति न महान्परिश्रमः । 'सीदं उण्हं च' शीतोष्णस्पर्शजं दुःखं इह गृह्यते । तदनुभवनं संक्लेशरहित भावितं ' सोढं भवति । 'सेज्जा' य शय्या च वसतिः । 'अपडिबद्धा' ममेदं भावरहिता । 'अधिआसिदा' सोढा भवति । 'विहरणेण ' विविधदेशगमनेन ॥ १४९ ॥ प्रियधर्मतर होते हैं । और जो थोड़ेसे भी अशुभ योगको नहीं होने देते वे अवद्य भीरुतर होते हैं । उन्हें देखकर सदा विहार करनेवाला साधु स्वयं भी प्रियस्थिर धर्मतर होता है । गाथा में 'पियथिरधम्मो ' पाठ है उसमें अतिशयको बतलानेवाला 'तर' प्रत्यय नहीं है फिर भी अतिशय अर्थका बोध होता है । जैसे किसीने कहा है 'अभिरूपको कन्या देना', यहाँ अभिरूप से विशिष्ट रूपवानका बोध होता है | अतः प्रियस्थिर धर्मतर अर्थ लेना । 'अपि ' शब्दसं संविग्नतर और अवद्य भीरुतर भी ग्रहण करना चाहिए । अर्थात् वह साधु दूसरे इस प्रकार के विशिष्ट साधुओंको देख स्वयं भी वैसा विशिष्ट बन जाता है । यह विहारसे लाभ है || १४८॥ अब भावनाको कहते हैं । यहाँ परीषह सहनको भावना कहते हैं गा०---- - अनेक देशों में विहार करनेसे, चर्या भूख, प्यास शीत और उष्णका दुःख संक्लेशरहित भावसे सहना होता है । वसति भी ममत्वसे रहित सहनेमें आती है ॥ १४९ ॥ टी० – यहाँ 'चर्या' शब्द से चर्यासे होनेवाले दुःखका ग्रहण किया है। जूता अथवा अन्य किसी वस्तुसे अपने पैरोंकी रक्षा नहीं करनेवाले साधुके चलते हुए तीक्ष्ण कंकर पत्थर काँटे आदिसे पैर छिद जाते हैं, अथवा गर्मधूलिसे पैर झुलस जाते हैं । उसके दुःखको विना संक्लेशके सहना चर्याभावना है । अनजान देशमें, जहाँ पूर्व में कभी साधुओंका जाना नहीं हुआ, और अनाजका संग्रह भी कम है, वहाँ, योग्य भिक्षाके न मिलनेसे उत्पन्न हुआ भूखका दुःख सहना होता है । बहुत समय तक एक स्थानपर बसनेसे मनुष्य परिचित होनेसे अथवा उदारतावश भिक्षा देते हैं इसलिए भिक्षामें बड़ा श्रम नहीं होता । शीत उष्ण से शीतस्पर्श और उष्णस्पर्श से होनेवाला दुख यहाँ लिया है । उसका अनुभवन अर्थात् संक्लेशरहित भावपूर्वक सहना होता है । तथा रहनेके लिए वसतिका जो प्राप्त होती है उसमें भी 'यह मेरी है' ऐसा भाव नहीं रहता । ये सब विहार करनेवाले मुनियोंको सहना होता है ॥ १४९ ॥ १. भाविनां आ० मु० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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