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________________ विजयोदया टीका . ५२५ दळूण परकलत्तं किहिदा पत्थेइ णिग्घिणो जीवो । ण य तत्थ किं पि सुक्खं पावदि पावं च अज्जेदि ।।९१८ 'दळूण परकलत्तं' परेषां कलत्रं दृष्ट्वा । कथं तावत् प्रार्थयते जीवो निरस्तलज्जो ममेयं भवतीति । एतस्यां प्रार्थनामात्राधिगतायां दुःखं प्राप्नोति । पापं नियोगेनार्जयति ।।९१८।। आहट्टिदूण चिरमवि परस्स महिलं लभित्तु दुक्खेण । उप्पित्थमवीसत्थं अणिन्वुदं तारिसं चेव ॥९१९॥ 'आहट्रिदूण चिरमवि' चिरकालमभिलष्यापि । 'परस्स महिलं' परस्य महिलां परस्य स्त्रियं । 'दुक्खेण लभित्तु' क्लेशेन लब्ध्वा । 'उप्पित्थं' व्याकुलवदविश्वस्तमनिवृतं चरणं इति क्रियाविशेषत्वेन नेयं । 'तारिसो चेव' यथा तदैवाप्राप्तेः पूर्वमतृप्तहृदयः पश्चादपि तथैवातृप्तहृदयत्वात्तादृश इत्युच्यते ॥९१९॥ कहमवि तमंघयारे संपत्तो जत्थ तत्थ वा देसे । किं पावदि रइसुक्कं भीदो तुरिदो वि उल्लावो ॥९२०॥ 'कथमपि तमंधकारे' केनचित्प्रकारेण परवञ्चनं ज्ञात्वा । अंधकारं संप्राप्तः । तां यत्र तत्र वा देशे, शून्यगृहे शून्यायतने, अटव्यां च किं प्राप्नोति ? रतिसौख्यं । प्रकाशे स्वाभिलषितानवयवांस्तस्याः पश्यतो मृदुनि शयनतले विगतमनोव्याकुलस्य सुखं भवति । नान्यथेति भावः । किं प्राप्नोति रतिसुखं भीतः सन् राजपुरुषेभ्यस्तस्य वा संबन्धिभ्यः । पश्यन्ति मां परे, बघ्नन्ति मा, परपत्नीनिवासं भाषणं अपि तया त्वरितं किं पुना रतम् ॥९२०॥ परमहिलं सेवंतो वेरं वधबंधकलहधणनासं । पावदि रायकुलादो तिस्से णीयल्लयादो वा ॥९२१।। गा०—पर स्त्रीको देखकर कामान्ध पुरुष लज्जा त्याग कैसे प्रार्थना करता है कि यह मेरी होवे : उसमें उसे कुछ भी सुख नहीं उल्टे, पापका ही उपार्जन करता है ॥९१८।। गा०-चिरकाल तक अभिलाषा करनेपर कदाचित् बड़े कष्टसे परस्त्रीका लाभ भी हो जाये तो उसके मिलनेसे पूर्व वह जैसा व्याकुल, अविश्वस्त और अतृप्त रहता है मिलनेपर भी वैसा ही रहता है ॥९१९॥ गा०-टी-किसी प्रकार दूसरोंको धोखा देकर अन्धकारमें किसी शून्य घरमें या जंगलमें उसे पाकर भी क्या रति सख पाता है वह कामी। प्रकाशमें कोमल शय्यापर मनकी व्याकुलताके अभावमें उस नारीके इच्छित अंगोंको देखते हुए सुख होता है, अन्यथा नहीं होता। किन्तु राजपुरुषोंसे अथवा उस नारीके सम्बन्धियोंसे भयके होते हुए कि मुझे कोई देखे नहीं, कोई बाँधे नहीं, कि.पर पत्नीके साथ निवास करता है, ऐसी स्थिति में भाषण करनेकी भी जल्दी रहती है, रमण करनेकी तो बात ही क्या ? तब क्या सुख मिल सकता है ? ॥९२०।। आ०-अन्नकाल ज०। ३. नीति वा १. कृत्वा-आ० । २. अन्वकालं-अ० । अन्धकालं संभा०-आ० मु०। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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