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विजयोदया टीका बहुगुणसहस्सभरिया जदि णावा जम्मसायरे भीमे ।
भिज्जदि हु रयणभरियाणावा व समुद्दमज्झम्मि ॥१४८९॥ 'बहुगुणसहस्सभरिवा' बहुभिर्गुणसहस्रः, सम्पूर्णा यतिनौर्जन्मसागरे भीमे यदि भेदमुपेयात् रत्नपूर्णा नौरिव समुद्रमध्ये ॥१४८९॥
गुणभरिदं जदिणावं दठूण भवोदधिम्मि भिज्जंतं ।
कुणमाणो हु उवेक्खं को अण्णों हुज्ज णिद्धम्मो ॥१४९०।। 'गुणभरिदं जदि णावं' गुणः पूर्णा यतिनावं भवसमुद्रमध्ये भिद्यमानां दृष्ट्वा यः करोत्युपेक्षां तस्माकोऽन्यो भवेद्धर्मनिःक्रान्तः ।।१४९०॥
विज्जावच्चस्स गुणा जे पुव्वं वित्थरेण अक्खादा ।
तेसि फिडिओ सो होइ जो उविक्खिज्ज तं खवयं ॥१४९१॥ 'वेज्जावच्चस्स गुणा' वैयावृत्तस्य गुणा ये पूर्व विस्तरेण व्याख्यातास्तेभ्यः प्रच्युतो भवति य उपेक्षते क्षपकं ॥१४९१॥
तो तस्स तिगिंछाजाणएण खवयस्स सव्वसत्तीए ।
विज्जादेसेण व से पडिकम्मं होइ कायव्वं ॥१४९२।। 'तो तस्स' ततस्तस्य क्षपकस्य चिकित्सां जानता सर्वशक्त्या प्रतिकर्म कर्तव्यं वैद्यस्य चोपदेशेन ॥१४९२।।
णाऊण विकारं वेदणाए तिस्से करेज्ज पडियारं ।
फासुगदव्वेहिं करेज्ज वायकफपित्तपडिघादं ॥१४९३॥ ‘णादण विकारं' ज्ञात्वा विकारं तस्या वेदनायाः ततः प्रतिकारं कुर्यात् । योग्यव्यतिकफपित्तप्रतिघातं ।।१४९३॥
गा०-समुद्रके मध्यमें रत्नोंसे भरी नावकी तरह हजारों गुणोंसे भरी यतिरूपी नौका यदि भयंकर संसारसागरमें डूबने लगे ।।१४८९||
गा-गुणोंसे भरी नावको संसार-समुद्रमें डूबते हुए देखकर यदि कोई उपेक्षा करता है तो उससे बड़ा अधार्मिक दूसरा कौन होगा ॥१४९०॥
___ गा०-जो क्षपककी उपेक्षा करता है वह पूर्व में जो वैयावृत्यके गुण विस्तारसे कहे हैं उनसे च्युत होता है ।।१४९१||
गा-अतः उस क्षपकके रोगकी चिकित्सा जाननेवाले निर्यापकाचार्यको स्वयं अथवा वैद्यके परामर्शसे सर्वशक्तिके साथ इलाज करना चाहिये ॥१४२।। ___ गा०-उस क्षपकको वेदनाके विकारको जानकर प्रासुक द्रव्योंसे वात, पित्त और कफ़को रोकनेवाला प्रतिकार करना चाहिये ॥१४९३।।
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