SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 960
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ विजयोदया टीका ८९३ ततो ज्ञानदर्शनावरणांतरायक्षयात अनंतरसमये उत्पद्यते केवलज्ञानं सर्वपर्याय निबद्धं, सर्वेषां द्रव्याणां त्रिकालगोचरा ये पर्याया विशेषरूपाणि तत्र प्रतिबद्धं परिच्छेदकत्वेन ज्ञानस्यातिशयो वस्तुगतविशेषरूप परिच्छेदो नाम सामान्यरूपस्य सुगमत्वादित्याख्यातं भवति । केवलं इंद्रियसहायानपेक्षत्वात् केवलमसहायं ज्ञानं रागादिमलाभावात् शुद्ध तथा केवलदर्शनं च ॥२०९७।। अन्वाघादमसंदिद्धमुत्तमं सव्वदो असंकुडिदं । एयं सयलमणंतं अणियत्तं केवलं जाणं ॥२०९८॥ 'अव्वाघादं' न विद्यते प्रत्ययांतरेण व्याघातो बाधास्येत्यव्याघातं । निश्चयात्मकत्वादसंदिग्धं । सर्वेभ्यो ज्ञानेभ्य उत्तम प्रधानं श्रुतादिभिरिदं केवलं साध्यत इति । 'असंकुडिवं' न मत्यादिवदल्पविषयमिति । 'एक्क' एकस्मिन्नात्मनि स्वयमेव प्रवर्तत इति । 'सकलं' संपूर्णमात्मनःस्वरूपमिति । मत्यादीनि यथाऽसंपूर्णानि न तथेदं । 'अणंतं अनंतप्रमाणावच्छेद्यं । 'अणियत्तं' न विद्यते निवृत्तिविनाशोऽस्येत्यनिवृत्तं केवलज्ञानं ॥२०९८॥ चित्तपड व विचित्तं तिकालमाहिदं तदो जगमिणं सो । सव्वं जुगवं पस्सदि सव्वमलोगं च सव्वत्तो ॥२०९९।। 'चित्तपडं व विचित्तं' चित्रपटवद्विचित्र विचित्रद्रव्यपर्यायरूपेण प्रत्यवभासनात् । 'तिकाल सहिद' कालत्रयसहितं 'जगदिदं', ततः तेन रूबलज्ञानेन सर्वं युगपत्पश्यत्यलोकं कृत्स्नं 'सर्वतः' समंतात् ॥२०९९॥ बीरियमणंतराय होइ अणंतं तधेव तस्स तदा । कप्पातीदस्य बहामुणिस्स विग्धम्मि खीणम्मि ॥२१००॥ गा.-टी०-ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तरायका क्षय होनेके अनन्तर समयमें शुद्ध केवलज्ञान और शुद्ध केवल दर्शन उत्पन्न होता है। वह केवल ज्ञान सब द्रव्योंको त्रिकालगोचर सव पर्यायोंको जानता है। वस्तुगत विशेषरूपको जानना ही ज्ञानका अतिशय है सामान्यरूपको जानना तो सुगम है। इसीसे केवल ज्ञानको सर्वपर्यायनिबद्ध कहा है। केवलका अर्थ है असहाय । केवल ज्ञान इन्द्रियोंकी सहायतासे रहित है इसीसे उसका नाम केवल है। तथा रागादिमलसे रहित होनेसे शद्ध है। व्याघातसे रहित है क्योंकि कोई अन्य ज्ञान उसमें बाधा नहीं डाल सकता। निश्चयात्मक होनेसे सन्देह रहित है। श्रुत आदि अन्य सब ज्ञानोंमें प्रधान होनेसे उत्तम है। सब द्रव्य और पर्यायोंमें प्रवर्तमान होनेसे मतिज्ञान आदिकी तरह उसका विषय अल्प नहीं है। तथा एक आत्मामें स्वयं ही होनेसे एक है । सम्पूर्ण आत्मस्वरूप होनेसे सकल हैं। जैसे मति आदि ज्ञान असम्पूर्ण है उस तरह वह सम्पूर्ण नहीं है । अनन्त प्रमाण वाला होनेसे अनन्त है । अविनाशी है, उसका कभी विनाश नहीं होता। विचित्र द्रव्य पर्यायरूपसे प्रतिभासमान होनेसे चित्रपटकी तरह विचित्र-नानारूप है। उस केवलज्ञानसे वह तीन काल सहित इस समस्त जगतको और सर्व अलोकको एक साथ जानता है ॥२०९७-२०९९।। - गा०-छमस्थ अवस्थासे रहित उस महामुनिके अन्तराय कर्मका विनाश होनेपर अन्तराय १. सव्वण्हू -अ० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy