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________________ विजयोदया टीका ३८७ लम्पटो न भिक्षां शोधयति नाप्युपकरणं । सुखशील उद्गमादिदोषं न परिहरति मनोज्ञोपकरणबद्धाभिलाषत्वात् । क्लेशासहो यस्य कस्यचिद्वसतावास्ते ॥५२४।। इन्द्रियजयं कषायजयं च कुर्वित्युपदिशति सद्दे रूवे गंधे रसे य फासे य णिज्जिणाहि तुमं । सव्वेसु कसाएसु य णिग्गहपरमो सदा होह ॥५२५।। 'सद्दे रूवे गंधे' इत्यनया । ननु शब्दादयो विषयास्तेषां जयो नाम कः ? तद्विषयो हि रागो बन्धहेतुत्वात् तत्प्रतिपक्षवैराग्यभावनया जेतव्यत्वेनोपदेष्टव्यः । अत्रोच्यते-सोपस्कारत्वात्सूत्राणां सर्वे, स्वे, गन्ध, रसे य फासे य रागं तुमं जिणाहि इति पदसम्बन्धः । अथवा शब्दादीनां विषयाणां वशे न स्थित इति कृत्वा जेता भण्यते । यथा पुरुषो जितोऽनयेत्युच्यते या पुरुषवशानुवतिनी न भवति । 'सम्वेसु कसाएसु य' सर्वेषु कषायेषु वा क्रोधादिषु । 'णिग्णहपरमो' निग्रहप्रधानः क्षमादिभावनया सदा भव ।।५२५॥ एवं कृतेन्द्रियकषायजयेन मया पश्चारिक कर्तव्यमित्यत्रोत्तरमाचष्टे हंतूण कसाए इंदियाणि सव्वं च गारवं हंता । तो मलिदरागदोसो करेहि आलोयणासुद्धिं ॥२६॥ सुखशील मुनि भोजन, उपकरण और वसतिका शोधन नहीं करता। जो स्वादिष्ट भोजनका लम्पट होता है न वह भिक्षाका शोधन करता है और न उपकरणका शोधन करता है। तथा सुखशील मुनि उद्गम आदि दोषका परिहार नहीं करता, उसका मन तो मनोज्ञ भोजन और उपकरणमें रहता है । कष्ट न सहकर जिस किसीकी वसतिमें ठहर जाता है ॥५२४॥ आगे इन्द्रिय और कषायोंको जीतनेका उपदेश देते हैंगा०-टी०-हे यति ! तुम शब्द, रूप, गन्ध, रस, स्पर्श इन पाँच इन्द्रियोंके विषयोंको जीतो। शङ्का-शब्द आदि इन्द्रियोंके विषय हैं उनको जीतना कैसे ? उन विषयोंमें राग बन्धका कारण है। अतः उनके विरोधी वैराग्य भावनाके द्वारा उनको जीतनेका उपदेश देना चाहिए ? समाधान-सूत्र उपस्कार सहित होते हैं अतः शब्द, रूप, रस,गन्ध और स्पर्शमें जो राग है उसे तुम जीतो ऐसा पदका सम्बन्ध होता है । अथवा जो शब्दादि विषयोंके वशमें नहीं है उसे जीतनेवाला कहते हैं। जैसे जो स्त्री पुरुषको अनुगामिनी नहीं होती उसके सम्बन्धमें कहा जाता है कि इसने पुरुषको जीत लिया। __ तथा सब क्रोधादि कषायोंमें क्षमा आदि भावनाके द्वारा सदा निग्रह करनेमें तत्पर रहो ।।५२५॥ इस प्रकार इन्द्रिय और कषायको जीतनेपर मुझे क्या करना चाहिए, क्षपकके इस प्रश्नका उत्तर देते हैं १. कुशीलः उद्गमादिदोषां परिहरति--आ० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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