SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 130
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ विजयोदया टीका ६३ त्वाविरतत्वयोः अर्पणाभेदाद्विरोधो नास्पदं बध्नाति । यथा द्रव्यपर्यायरूपापेक्षे नित्यानित्यत्वे एकद्रव्याधिकरणे एकस्मिन्नपि समये न विरोधमुपयातः । अथवा प्रत्याख्यानावरणानां क्षयोपशमे सति स्थूलात्प्राणातिपातादेविरतोऽस्मि न सूक्ष्मादित्येक एव परिणाम उपजायते । विरोधश्च नाम अनेकाधिकरणः यथा शीतोष्णस्पर्शादीनां । द्रव्यभावप्राणधारणाज्जीवा इति निरूप्यंते । 'तदएण' तृतीयेन मरणेन नियन्ते । वस्तुपरिणामवृत्तिक्रमो यदि स्यात्तथा गण्यमाने द्वित्त्वं त्रित्वं वा प्रतिप्रद्यरन । गुणस्थानापेक्षायां सम्यमिथ्यादृष्टेरेव तृतीयता न संयतासंयतत्वस्य तत्किमुच्यते तृतीयेनेति ? मरणस्य तु सामान्यापेक्षायां एकत्वमेवेति न तृतीयता । . विशेषापेक्षायां च अतीतानां च अनंतत्वादनागतानां चातिबहुत्वसंभवात् । अत्रोच्यते-सूत्रनिर्दिष्टक्रमापेक्षया तृतीयता ग्राह्या। विरताविरतपरिणामविशेषनिर्देशादेव जीवद्रव्यस्य गते जीवा इति सूत्रे वचनमपार्थकमिति चेन्नानर्थकं मतांतरनिवृत्तिपरत्वात् । साख्या हि प्रकृतिधर्मतां मरणस्याभ्युपयन्ति पुरुषस्य सर्वथा नित्यत्वात् । तत्तथा न, उत्पादव्ययध्रौव्यात्मकत्वादात्मनः । अत्रोच्यते-पंडितपंडितमरणादनंतरं पंडितमरणं तदुल्लंध्य हैं तो विरत कैसे हैं इस प्रकारके विरोधकी आशङ्का नहीं करना चाहिए । अपेक्षा भेदसे विरतपने और अविरतपने में विरोधको कोई स्थान नहीं है। जैसे एक द्रव्यमें एक ही समयमें द्रव्यरूपकी अपेक्षा नित्यपना और पर्यायरूपकी अपेक्षा अनित्यपनामें कोई विरोध नहीं आता। अथवा अप्रत्याख्यानावरण कषायोंका क्षयोपशम होनेपर स्थूल हिंसा आदिसे मैं विरत हूँ किन्तु सूक्ष्म हिंसादिसे विरत नहीं हूँ इस प्रकारका एक ही परिणाम होता है। विरोध तो उनमें होता है जो एक आधारमें न रहकर अनेक आधारोंमें रहते हैं जैसे शीतस्पर्श और उष्णस्पर्श आदिमें विरोध है । अस्तु, द्रव्यप्राण और भावप्राणोंको धारण करनेसे जीव कहे जाते हैं। विरताविरत जीव तीसरे मरणसे मरते हैं। __ शंका-यहाँ तृतीयसे यदि वस्तुके परिणामोंकी वृत्तिका क्रम लेते हैं तो गणना करनेपर दोपना या तीनपना प्राप्त होता है। गुणस्थानकी अपेक्षा सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थान ही तीसरा है, संयतासंयत नहीं है तब कैसे तीसरा कहते हैं। तथा सामान्यकी अपेक्षा मरण तो एक ही है, तीसरापना कैसे ? विशेषकी अपेक्षा अतीतमरण अनन्त हैं और भाविमरण उससे भी अधिक सम्भव हैं ? समाधान-सूत्रमें जिस क्रमसे मरणोंका निर्देश किया है उसकी अपेक्षा तीसरा लेना चाहिए। शंका-विरताविरत परिणाम विशेषका निर्देश करनेसे ही जीवद्रव्यका ज्ञान हो जाता है तब गाथामें जीवा पद व्यर्थ है ? समाधान-व्यर्थ नहीं है यह मतान्तरकी निवृत्तिके लिए है । सांख्य मतवाले मरणको प्रकृतिका धर्म मानते हैं क्योंकि उनके मतमें पुरुष सर्वथा नित्य है। किन्तु ऐसा नहीं है, क्योंकि आत्मा उत्पाद व्यय और ध्रौव्यात्मक है। शंका-पण्डितपण्डितमरणके अनन्तर पण्डितमरण आता है । उसे छोड़कर तीसरे मरणका १. गणने आ० मु०। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy