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भगवती आराधना
पंडिदपंडिदमरणं खोणकसाया मरंति के लिणो । सामान्य मृतेर्विशेषमृतिः कर्मतया निर्दिष्टा पंडितपंडितमरणमिति । यथा गोपोषं पुष्टः इति । 'खीणकसाया', कषन्ति हिंसन्ति आत्मानमिति कषायाः । अथवा कपायशब्देन वनस्पतीनां त्वक्पत्रमूलफलरस उच्यते । स यथा वस्त्रादीनां वर्णमन्यथा संपादयति एवं जीवस्य क्षमामार्दवार्जव संतोषाख्यगुणान्विनाश्यान्यथा व्यवस्थापयंतीति क्रोधमानमायालोभाः कषाया इति भयंते । ते क्षीणाः कषाया येषां ते क्षीणकषायाः । द्रव्यकर्मणां कषायवेदनीयानां विनाशात्तन्मूला अपि भावकषायाः प्रलयमुपगता इति क्षीणकषाया इति भण्यन्ते । केवलमसहायं ज्ञानं इंद्रियाणि मनःप्रकाशादिकं चानपेक्ष्य युगपदशेषद्रव्यपर्यायभासनसमर्थं सद्यत्' प्रवर्तते तद्येषामस्ति ते केवलिनः । यद्यपि केवलज्ञानवस्तुसामान्ये न प्रवर्तते केवलिशब्दस्तथापि सयोगकेवलिनो मरणस्यासंभवादयोगकेवलिनो ग्रहणं । अत्रान्ये क्षीणकषायाः श्रुतकेवलिनश्चेति व्याचक्षते । तेषां तद्व्याख्यानमसमंजसं श्रुतशब्दमंतरेण केवलिशब्दस्य क्वचिदप्यागमे समस्तश्रुतरत्नवत्यपि प्रयोगादर्शनात् । प्रसिद्धशब्दार्थासंभवो यदि स्यात् यथा कथंचिदन्योऽर्थो व्याख्येयः स्यात् । संभवति प्रतीतेऽर्थे कथं तत्परित्यागः । अपि च पांडित्यप्रकर्षः क्षायिकज्ञानदर्शनचारित्रापेक्षस्तत्र सन्निहितो न श्रुतकेवलिनि । विरदाविरदा जीवाः स्थूलकृतात्प्राणातिपातादेर्व्यावृत्ताः इति विरताः सूक्ष्माच्चाव्यावृत्तेरविरताः । विरता यदि कथमविरता अविरताश्चेत्कथं विरताः इति विरोधाशंका न कार्या । विरत
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गाo - पण्डितपण्डितमरणसे क्षीण कषाय और अयोगकेवली मरते हैं । विरताविरत जीव तीसरे मरणसे मरते हैं ||२७||
टी० - ' पण्डित पण्डितमरण मरते हैं' यहाँ पण्डितपण्डित नामक विशेष मरणको 'मरते हैं'. इस सामान्य मरणके कर्मरूपसे कहा है । जैसे बैलके समान पुष्टको सामान्य पुष्ट शब्दसे कहा है । जो 'कषन्ति' अर्थात् आत्माका घात करती हैं उन्हें कषाय कहते हैं । कषाय शब्दसे वनस्पतियोंके छाल, पात्र, जड़ और फलका रस कहा जाता है । वह रस जैसे वस्त्रादिके रंगको बदल देता हैं इसी प्रकार जीवके क्षमा, मार्दव, आर्जव और सन्तोष नामक गुणोंको नष्ट करके अन्यथा कर देते हैं इसलिए क्रोध, मान, माया, लोभको कषाय कहते हैं । वे कषाय जिनकी क्षीण हो गई हैं- - नष्ट हो गई हैं वे क्षीणकषाय होते हैं । कषाय वेदनीय नामक द्रव्यकर्मोंका विनाश होने से उनका निमित्त पाकर होने वाली भावकषाय जिनकी नष्ट हो गई है वे क्षीणकषाय कहे जाते हैं । केवल अर्थात् असहाय ज्ञान, जो इन्द्रियाँ, मन, प्रकाश आदि की अपेक्षा न करके एक साथ समस्त द्रव्य-पर्यायोंको जाननेमें समर्थ हैं वह केवलज्ञान हैं। वह जिनके हैं वे केवली होते हैं । यद्यपि केवली शब्द केवलज्ञान रूप वस्तुसामान्यमें प्रवृत्त नहीं होता, तथापि सयोगकेवलीका मरण असम्भव होनेसे अयोगकेवलीका ग्रहण होता हैं । दूसरे व्याख्याकार 'क्षीणकषाय और श्रुतकेवली' ऐसा व्याख्यान करते हैं । उनका वह व्याख्यान ठीक नहीं है । श्रुत शब्दके बिना केवली शब्दका प्रयोग किसी भी आगममें समस्त श्रुतधारी के लिए नहीं देखा गया । यदि शब्दका प्रसिद्ध अर्थ असम्भव ही हो तो जिस किसी तरह अन्य अर्थ किया जा सकता है । जव सम्भव अर्थ प्रतीतिसिद्ध है तो उसे कैसे छोड़ा जा सकता है ? दूसरे, पाण्डित्यका प्रकर्षं वहाँ क्षायिकज्ञान, क्षायिकदर्शन और क्षायिक चारित्रकी अपेक्षा लिया गया है, वह श्रुतकेवली में नहीं है ।
जो स्थूल हिंसा आदिसे निवृत्त होनेसे विरत और सूक्ष्म हिंसा आदिसे अनिवृत्त होनेसे अविरत होते हैं वे जीव विरताविरत होते हैं । यदि वे विरत हैं तो अविरत कैसे हैं और अविरत
१. सद्यत्र - अ० ज० मु० ।
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