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________________ ८६९ विजयोदया टीका वेमाणिओ थलगदो समम्मि जो दिसि य वाणविंतरओ । गड्डाए भवणवासी एस गदी से समासेण ॥१९९४।। 'वेमाणिओ थलगदो' वैमानिको देवो जात उत्तमभूमिस्थे उत्तमाङ्गे, समभूमिदेशे यदि दृश्यते ज्योतिष्को व्यन्तरो जातः, गर्ते यदि दृश्यते भवनवासी देवो जातः, एपा गतिस्तस्य संक्षेपेण निरूपिता । विजहणत्ति सत्रपदं गतं । विजहणा ||१९९४॥ आराधकस्तवनमुत्तरं ते सूरा भगवंतो ते सूरा भयवंतो आहच्चइदण संघमज्झम्मि । आराधणापडाया चउप्पयारा धिदा जेहिं ॥१९९५।। 'ते सूरा भगवंतः आहच्चइदूण' प्रतिज्ञां कृत्वा संघमध्ये चतुष्प्रकाराधना पताका यैरागृहीता ॥१९९५।। ते धण्णा ते णाणी लद्धो लाभो य तेहिं सव्येहिं । आराधणा भयवदी पडिवण्णा जेहिं संपुण्णा ।।१९९६।। 'ते धण्णा' पुण्यवन्तः । ते ज्ञानिनः, ते लव्धलाभाः, सर्वेभ्यो यैराराधना भगवती संपूर्णा प्रतिपन्ना ॥१९९६॥ किं णाम तेहिं लोगे महाणभावहिं हुज्ज ण य पत्तं । आराधणा भगवदी सयला आराधिदा जेहिं ।।१९९७।। _ कि णाम तेहिं लोगे' किनाम तैर्लोके महानुभागेरप्राप्तं पराराधिता सकला आराधना भगवती ॥१९९७॥ विशेषार्थ-आशाधरजी ने 'कर्ममल विप्रमुक्त' का अर्थ मिथ्यात्व आदि स्तोक कर्मो से मुक्त किया है। तथा लिखा है कि जयनन्दिके टिप्पणमें 'सिद्धि' का अर्थ सवार्थसिद्धि किया है। किन्तु प्राकृतटीकामें सिद्धिका अर्थ निर्वाण किया है ।।१९९३॥ गा०-टी०- यदि मृतकका मस्तक उन्नत भूमिभागमें दिखाई दे तो वह मरकर वैमानिक देव हुआ जानना। यदि सम भूमिभागमें दिखाई दे तो वह ज्योतिष्क देव या व्यन्तर हुआ जानना। यदि गढ़ेमें दिखाई दे तो वह भवनवासी देव हुआ जानना। इस प्रकार यह उसकी गति संक्षेपमें कही है ॥१९९४॥ आगे आराधक क्षपकका स्तवन करते हैं गा०-जिन्होंने संघके मध्यमें प्रतिज्ञा करके चार प्रकारकी आराधना रूप पताकाको ग्रहण किया वे शूरवीर और पूज्य हैं ॥१९९५॥ गा०-जिन्होंने भगवती आराधनाको सम्पूर्ण किया वे पुण्यशाली और ज्ञानी हैं और उन्होंने जो प्राप्त करने योग्य था उसे प्राप्त कर लिया ।।१९९६।। गा०—जिन्होंने सम्पूर्ण भगवती आराधनाका आराधन किया उन महानुभावोंने लोकमें क्या प्राप्त नहीं किया ॥१९९७।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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