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________________ विजयोदया टीका इत्यादिकः प्रयोगविनयः । प्रतिक्रमणं प्रतिनिवृत्तिः षोढा भिद्यते नामस्थापनाद्रव्यक्षेत्रकालभावविकल्पेन । अयोग्यनाम्नामनुच्चारणं नामप्रतिक्रमणं भट्टि दारिगा सामिणी इत्यादिकमयोग्यं नाम । आप्ताभासानामर्चा, सस्थावराणां रूपाणि लिखितान्युत्कीर्णानि वा स्थापनाशब्देनेह गृह्यन्ते । तत्राप्ताभासप्रतिमायां पुरः स्थितायां यदभिमुखतया कृतांजलिपुटता, शिरोवनतिः, गंधादिभिरभ्यर्चनं च न कर्तव्यम् । एवं सा स्थापना परिहृता भवति । श्रसस्थावरादिस्थापनानामविनाशनं, अमर्द्दनं, अताडनं वा परिहारः प्रतिक्रमणं । वास्तुक्षेत्रादीनां दशप्रकाराणां उद्गमोत्पादनैषणादोषदुष्टानां वसतीनां, उपकरणानां भिक्षाणां च परिहरणं, अयोग्यानां चाहारदीनां गृद्धेर्दर्पस्य च कारणानां संक्लेशहेतुनां वा निरसनं द्रव्यप्रतिक्रमणं । उदककर्द्दमत्रसस्थावरनिचितेषु क्षेत्रेषु गमनादिवर्जनं क्षेत्रप्रतिक्रमणं । यस्मिन्वा क्षेत्रे वसतो रत्नत्रयहानिर्भवति तस्य वा परिहारः, तच्च किं ? ज्ञानतपोवृद्धैरनाध्यासितं । रात्रिसंध्यात्रयस्वाध्यायावश्यककालेषु गमनागमनादिव्यापाराकरणात् कालप्रति - १५५ मूलाचारमें कहा है- क्रियाकर्ममें दो अवनति, बारह आवर्त, चार शिरोनति, और तीन शुद्धियाँ होती हैं | पंचनमस्कारके आदिमें एक नमस्कार और चौबीस तीर्थंकरोंके स्तवनके आदिमें दूसरा नमस्कार इस प्रकार दो नमस्कार होते हैं- पंचनमस्कारका उच्चारण करने के प्रारम्भमें मनवचनकायके संयमनरूप तीन शुभयोगोंके सूचक तीन आवर्त होते हैं। पंचनमस्कार की समाप्ति होनेपर भी उसी प्रकार तीन आवर्त होते हैं । इसी प्रकार चौबीस तीर्थङ्करोंके स्तवनके आदि और अन्तमें तीन-तीन आवर्त होते हैं । इस प्रकार बारह आवर्त होते हैं । अथवा एकबार प्रदक्षिणा करनेपर चारों दिशाओंमें चार प्रणाम होते हैं । इस प्रकार तीन प्रदक्षिणाओंमें बारह प्रणाम होते हैं। पंचनमस्कार और चतुर्विंशति स्तवके आदि और अन्तमें दोनों हाथ मुकुलितकर मस्तकसे लगाना, इस तरह चार सिर होते हैं । इस प्रकार मनवचनकायकी शुद्धिपूर्वक क्रियाकर्म होता है यह सब प्रयोग विनय है । दोषों से निवृत्तिको प्रतिक्रमण कहते हैं । उसके छह भेद हैं-नामप्रतिक्रमण, स्थापना प्रतिक्रमण, द्रव्यप्रतिक्रमण, क्षेत्रप्रतिक्रमण, कालप्रतिक्रमण और भावप्रतिक्रमण । अयोग्य नामोंका उच्चारण न करना नाम प्रतिक्रमण है । भट्टिनी, दारिका, स्वामिनी इत्यादि अयोग्य नाम है । स्थापना शब्दसे यहाँ आप्ताभासोंकी मूर्ति, त्रस और स्थावरोंकी आकृतियाँ लिखित या खोदी हुई, ग्रहण की गई हैं । उनमेंसे आप्ताभासोंकी प्रतिमाओंके सन्मुख हाथ जोड़ना, सिर नमाना और गन्ध आदिसे पूजन नहीं करना चाहिए। इस प्रकार करनेसे उस स्थापनाका परिहार हो जाता है यह स्थापना प्रतिक्रमण हैं । Jain Education International त्रस स्थावर आदिकी स्थापनाओंको नष्ट न करना अथवा तोड़ना- फोड़ना आदि न करना स्थापना प्रतिक्रमण है । मकान खेत आदि दस प्रकारकी परिग्रहोंका, उद्गम उत्पादन और एपगा दोषोंसे दूषित वसतिकाओंका उपकरणोंका, और भिक्षाओंका अयोग्य आहार आदिका और जो तृष्णा और मदके तथा संक्लेशके कारण है उन द्रव्योंका त्याग द्रव्य प्रतिक्रमण है । जल, कीचड़ और त्रस स्थावर जीवोंसे भरे क्षेत्रोंमें आने जानेका त्याग क्षेत्र प्रतिक्रमण है । अथवा जिस क्षेत्रमें रहनेसे रत्नत्रयकी हानि हो उसका त्याग क्षेत्र प्रतिक्रमण है तपसे वृद्ध मुनिगण नहीं रहते, इसलिए उनमें रहना वर्जित है । रात, ऐसे क्षेत्रों में ज्ञान और तीनों सन्ध्या, स्वाध्याय । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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