________________
१५४
भगवती आराधना चतुर्विशतिस्तवनपठनक्रिया नोआगमभावचतुर्विंशतिस्तव इह गृह्यते ।
वंदना नाम रत्नत्रयसमन्वितानां यतीनां आचार्योपाध्यायप्रवर्तकस्थविराणां गुणातिशयं विज्ञाय श्रद्धापुरःसरेण अभ्युत्थानप्रयोगभेदेन द्विविधे विनये प्रवृत्तिः । प्रत्येकं तयोरनेकभेदता कर्तव्यं केन, कस्य, कदा, कस्मिन्कतिवारानिति । अभ्युत्थान केनोपदिष्टं, किंवा फलमुद्दिश्य कर्तव्यं ? पूर्वमेव विनयः कर्तव्यतयोपदिष्टः सर्वेजिनः कर्मभूमिषु सदा मानकषायभंगः । गुरुजने बहुमानं, तीर्थकराणां आज्ञासंपादनं श्रुतधर्माराधनाक्रिया भावशुद्धिराजवं, तुष्टि च फलमपेक्ष्य केन तत् क्रियते । अमानिना, संविग्नेन, अनलसेनाशठेनानुग्रहकारणार्थिना, परगुणप्रकाशनोद्यतेन संघवत्सलेन । असंयतस्य संयतासंयतस्य वा नाभ्युत्थानं कुर्यात्, पार्श्वस्थपंचकस्य वा । रत्नत्रये तपसि च नित्यमभ्युद्यतानां अभ्य त्थानं कर्तव्यं कुर्यात । सुखशीलजनेऽभ्युत्थानं कर्मबन्धनिमित्तं प्रमादस्थापनोव्हणकरणात् । संविग्नजनं प्रति क्रियमाणमभ्युत्थानं निर्जरानिमित्तं विरतिस्थापनोपबृहणकरणात् । वाचनामनुयोगं वा शिक्षयतः अवमरत्नत्रयस्याभ्युत्थातव्यं तन्मूलेऽध्ययनं कुर्वद्भिः सर्वेरेव । वसतेः, कायभूमितः,
तिः चैत्यात. गरुसकाशात. ग्रामांतराद्वा आगमनकालेऽभ्यत्थातव्यं । गरुजनश्च यदा निष्क्रामति निष्क्राम्य प्रविशति वा तदा तदा अभ्यत्थानं कार्य । अनया दिशा यथागममितरदप्यनगंतव्यम् ।
दुऊणदं जहाजादं बारसावत्तमेव य ।
चदुस्सिरं तिसुद्धच किदिकम्मं पउंजए॥ [मूलाचार-७।१०४] पूर्वक चौवीस स्तवनोंको पढ़ना नोआगमभाव चतुर्विशंतिस्तव है। उसीका यहाँ ग्रहण है ।
रत्नत्रयसे सहित आचार्य, उपाध्याय, प्रवर्तक और स्थविर मुनियोंके गुणातिशयको जानकर श्रद्धापूर्वक अभ्युत्थान और प्रयोगके भेदसे दो प्रकारकी विनयमें प्रवृत्तिको वन्दना कहते हैं। उन अभ्युत्थान विनय और प्रयोग विनयके अनेक भेद हैं कि किसको किसका कब, कितनी बार करना चाहिये।
शंका-अभ्युत्थानका उपदेश किसने दिया है और किस फलके उद्देशसे करना चाहिए ?
समाधान-सब जिनदेवोंने कर्मभूमियोंमें सदा प्रथम ही कर्तव्यरूपसे विनयका उपदेश दिया है। विनयसे मानकषायका विनाश होता है। गुरुजनोंमें बहमान, तीर्थङ्करोंकी आज्ञाका पालन, श्रतमें कहे गये धर्मकी आराधना. परिणाम विशद्धि. आर्जव और सन्तोषरूप फलको अपेक्षा करके विनय की जाती है। यह विनय कौन करता है ? जो मान रहित, संसारसे विरक्त, निरालसी, सरल अनुग्रह करनेका इच्छुक, दूसरोंके गुणोंको प्रकट करने में तत्पर और संघका प्रेमी होता है वह विनय करता है। असंयमी और संयमासंयमी तथा पार्श्वस्थ आदि पाँच प्रकारके भ्रष्ट मुनियोंके सन्मानमें उठना नहीं चाहिए। जो रत्नत्रय और तपमें नित्य तत्पर रहते हैं उनके प्रति उठना चाहिए। जो सुखशील साधु हैं उनके सन्मानमें उठना कर्मवन्धका कारण है क्योंकि वह प्रमादको बढ़ानेमें कारण होता है। जो वाचना देता है अथवा अनुयोगका शिक्षण देता है वह अपनेसे रत्नत्रयमें न्यून भी हो तब भी उनके पासमें सव अध्ययन करनेवालोंको उनके सन्मानमें उठकर खड़ा होना चाहिए। वसतिसे, कायभूमिसे, भिक्षासे, जिन मन्दिरसे, गुरुके पाससे अथवा ग्रामान्तरसे आनेके समय उठना चाहिए। जब-जब गुरुजन निकलते हैं अथवा निकलकर प्रवेश करते हैं तब तब अभ्युत्थान करना चाहिए। इसी प्रकार आगमसे अन्य भी जानना चाहिए।
१. क्ष्यत्केन तत्-आ० मु० ।
Jain Education International
- For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org