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________________ ८७७ विजयोदया टीका परियाइगमालोचिय अणजाणित्ता दिसं महजणस्स । तिविधेण खमावित्ता सवालवुड्डाउलं गच्छं ।।२०२७।। 'परियाइगमालोचिय' क्रमेण रत्नत्रयाचारमालोच्य । 'अणुजाणित्ता' अनुज्ञाय । "दिसं' गणधरं । 'महजणस्स' महाजनस्य चतुविधसंघस्येत्यर्थः । 'तिविधेण खमावित्ता' त्रिविधेन क्षमां ग्राहयित्वा । सबालवृद्धाकुलं गच्छं ॥२०२७।। अणुसर्टि दादण य जावज्जीवाय विप्पओगच्छी । अब्भदिगजादहासो णीदि गणादो गुणसमग्गो ।।२०२८॥ 'अणुसद्धिं दादूण य' शिक्षां दत्वा गणपतेर्गणस्य च । 'जावज्जीवाय विप्पओगच्छो' यावज्जीवं विप्रयोगार्थी । 'अन्भदिगजावहासो' कृतार्थोऽस्मीति जातहर्षः । ‘णोदि गणादो' निर्याति यतिगणात् । 'गुणसमग्गो' संपूर्णगुणः ॥२०२८॥ एवं च णिक्कमित्ता अंतो बाहिं व थंडिले जोगे । पुढवीसिलामए वा अप्पाणं णिज्जवे एक्को ।।२०२९।। __"एवं च णिक्कमित्ता' एवं विनिष्क्रम्य । 'थंडिले जोगे' समे समुन्नते कठिने जीवरहिततया योग्ये । 'अंतो वाहि व' अंतर्बहिर्वा । 'पुढवीसिलामए वा' पृथ्वीसंस्तरे शिलामये वा । 'अप्पाणं णिज्जवे एक्को' आत्मानं निर्जयेद् देहसहायः ॥२०२९॥ पुव्वुत्ताणि तणाणि य जाचित्ता थंडिलम्मि पुव्वत्ते । जदणाए संथरित्ता उत्तरसिरमधव पुन्वसिरं ॥२०३०॥ 'पुग्वत्ताणि तणाणि य' पूर्वोक्तानि तृणानि निस्संधि निःछिद्रजंतुरहितानि शरीरस्थितिसाधनमात्राणि मृदूनि प्रतिलेखनायोग्यानि ग्राम नगरं वा प्रविश्य याञ्चया गृहीतानि पूर्वोक्ते स्थण्डिले कोऽसौ सालोकः गा०-रत्नत्रयमें लगे दोषोंकी क्रमसे आलोचना करे और अपने स्थान पर अन्य आचार्यकी स्थापना करके उन्हें सब बतला दे। तथा चतुर्विध वृद्ध मुनियोंसे भरे अपने गच्छको शिक्षा देकर जीवनपर्यन्तके लिये संघसे अलग होनेकी इच्छा करता हुआ प्रसन्न होता है कि मैं कृतार्थ हुआ और इस प्रकार वह सम्पूर्ण गुणोंसे विशिष्ट होकर मुनिसंघसे चला जाता है ॥२०२७-२८॥ गा०-इस प्रकार संघसे निकलकर गुफा आदिके अन्दर या बाहर जीवरहित तथा समान रूपसे ऊँचे कठिन भूमिप्रदेशमें पृथ्वीरूप संस्तर पर या शिलामय संस्तर पर एकाको आश्रय लेता है। अपने शरीरके सिवाय उसका अन्य कोई सहायक नहीं होता ॥२०२९।। ___गा०-टो०-वह गाँव या नगरमें जाकर तृणोंकी याचना करता है जो तृण छिद्ररहित, जन्तुरहित, कोमल तथा शरीरकी स्थितिके लिये साधन मात्र और प्रतिलेखनाके योग्य होने चाहियें उन तृणोंको वह उक्त भूमि प्रदेश पर प्रतिलेखनापूर्वक सावधानतासे पृथक्-पृथक् करके १. येदसहायः आ० मु० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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