Book Title: Madhyakalin Rajasthan me Jain Dharma
Author(s): Rajesh Jain Mrs
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पार्वनाथ विद्याश्रम ग्रन्थमाला:६१ सम्पादक: डॉ० सागरमल जन मध्यकालीन राजस्थान में जैनधर्म 189 G)卐EO (श्रीमती) राजेश जैन सच्चा लोगम्मिसारमय WRISH पाश्वनाथ विद्याश्रम शोधसस्थान,वाराणसी Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाश्र्वनाथ विद्याश्रम ग्रन्थमाला : ६१ सम्पादक : डॉ० सागरमल जैन मध्यकालीन राजस्थान में जैनधर्म लेखिका डॉ० (श्रीमती) राजेश जैन SER बाराणसी-५ सच्चं लोगम्मि सारभूयं पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान वाराणसी-५ Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशक: पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान (काशी हिन्दू विश्वविद्यालय द्वारा मान्यता प्राप्त) आई० टी० आई० रोड, करौंदी, वाराणसी-५ फोन : ३११४६२ अर्थ सहयोग : श्रीमान् भँवरलाल जी वैद कलकत्ता संस्करण : प्रथम १९९१-९२ मूल्य : रुपये एक सौ साठ Madhyakālina Rājasthāna men Jainadharma Dr. (Smt.) Rajesh Jain Price Rs. : 160.00 First Edition : 1991-92 मुद्रक : वर्द्धमान मुद्रणालय जवाहरनगर कालोनी, वाराणसी-१० Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तुत पुस्तक के अर्थ सहयोगी श्री भँवरलाल जी सा० वैद प्रस्तुत पुस्तक के प्रकाशन के लिए श्रीयुत् भँवरलाल जी सा० वैद, कलकत्ता द्वारा अर्थं सहयोग प्रदान किया गया है । आप बीकानेर संघ के पूर्व अध्यक्ष स्व० श्रीयुत् जसराज जी सा० वैद के ज्येष्ठ सुपुत्र हैं । श्री वेद सा० मूलतः बीकानेर के निवासी हैं एवं वर्तमान में आप कलकत्ता में व्यवसायरत हैं । आप तरुण टेक्सटाइल, कलकत्ता के संस्थापक संचालक हैं । आप एक प्रसिद्ध उद्योगपति हैं । अपने व्यवसाय में अतिव्यस्त रहते हुए भी आप समाज एवं संघहित के लिए सदैव प्रयत्नशील रहते हैं । आपके दो अनुज श्री झँवर लाल जी वेद एवं श्री रिखबचन्द जी वेद हैं। तीनों भाई एवं पूरा परिवार धार्मिक भावनाओं से ओत-प्रोत है । श्रीयुत् वैद सा० अत्यन्त उदार एवं सरल स्वभावी हैं । आप सामाजिक, शैक्षणिक एवं सेवा सम्बन्धी रचनात्मक कार्यों में सदैव अग्रणी रहते हैं और तनमन-धन से उसमें सहयोग प्रदान करते हैं । वर्तमान में आप निम्न संघों एवं संस्थाओं में अपनी सेवाएँ प्रदान कर रहे हैं । (१) अध्यक्ष - श्री अ० भा० साधुमार्गी जैन संघ, बीकानेर (२) अध्यक्ष -- श्री श्वे० स्थानकवासी जैन सभा, कलकत्ता (३) अध्यक्ष -- श्री सु० शिक्षासांड सोसायटी नौखा पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान की प्रवृत्तियों में आपकी प्रारम्भ से ही रुचि रही है । श्री वेद सा० का यह सहयोग उनके साहित्य एवं शोध के प्रति प्रेम का ही परिचायक है । Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशकीय राजस्थान की सांस्कृतिक गरिमा की सभी विशेषताओं को समाहित करते हुए जैन धर्म ने उसके इतिहास-निर्माण में महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह किया हैं। राजस्थान के धार्मिक इतिहास का अवलोकन करने से यह ज्ञात होता है कि ८ वी से १८ वीं शताब्दी तक मध्यकालीन की सांस्कृतिक धारा में जैनधर्म एक महत्वपूर्ण जीवन्त केन्द्र रहा है । लेखिका ने विशेष श्रमपूर्वक 'मध्यकालीन राजस्थान में जैनधर्म' विषय पर जो शोध प्रबन्ध लिखा था उसी का यह मुद्रित रूप है। इसे ग्रन्थ रूप में पाठकों के कर कमलों में प्रस्तुत करते हुए हम अतीव प्रसन्नता का अनुभव कर रहे हैं। किसी भी धर्म अथवा संस्कृति की जीवन्तता का प्रतीक उसका साहित्य होता है । साहित्य एक ऐमा दर्पण है जो अतीत को प्रतिविम्बित करता है, वर्तमान स्वरूप का बोध करता है और भविष्य का निर्धारण करता है। मध्यकाल में राजस्थान जैन साहित्यिक साधना का प्रमुख केन्द्र था। तत्कालीन राजनैतिक उथल-पुथल के कारण भी यहाँ की साहित्य-साधना विशेष प्रभावित नहीं हुई। कतिपय मुगल शासकों की बर्बरता के कारण यद्यपि यहाँ के जैन मन्दिरों और शास्त्र भण्डारों की अपूरणीय क्षति हुई, फिर भी राजस्थान के शास्त्र भण्डारों में विपुल जैन साहित्य सुरक्षित रहा । आज भी यहाँ के भण्डारों एवं मन्दिरों आदि में इतनी अधिक मात्रा में जैन साहित्य एवं कलाकृतियाँ विद्यमान हैं, जिनसे तत्कालीन धर्म एवं संस्कृति को सहजता पूर्वक समझा जा सकता है । प्रस्तुत ग्रन्थ डा० (श्रीमती ) राजेश जैन के शोध प्रबन्ध का मुद्रित रूप है उन्होंने इसमें मध्यकालीन ( राजस्थान में ) जैन धर्म एवं संस्कृति के विविध पक्षों का विवरण दिया है । प्रस्तुत कृति पर श्रीमती जैन को विक्रम विश्वविद्यालय, उज्जैन द्वारा पी-एच. डी० की उपाधि से सम्मानित किया गया था। उन्होंने अपनी इस कृति को पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान को प्रकाशनार्थ दिया, एतर्थ हम उनके आभारी हैं। हमें आशा है कि उनकी इस कृति से पाठकगण मध्यकालीन राजस्थान के जैनधर्म के विविध पक्षों से परिचित होंगे और उनके शोध-श्रम का सम्यक् मूल्यांकन कर सकेंगे। प्रस्तुत कृति के प्रकाशन हेतु कलकत्ता निवासी जैनविद्या प्रेमी श्री भंवरलाल जी वैद्य ने ग्यारह हजार रुपये की राशि प्रदान की, विद्याश्रम परिवार उनकी उस उदारता के प्रति कृतज्ञ है। प्रस्तुत कृति के सम्पादन एवं प्रकाशन में संस्थान के निदेशक प्रो० सागरमल जैन का विशेष योगदान रहा है, हम उनके प्रति आभारी हैं। इसी प्रकार प्रफ संशोधन आदि कार्यों में संस्थान के डा० अशोक कुमार सिंह एवं डा० इन्द्रेशचन्द्र सिंह का भी हमें विशेष सहयोग प्राप्त हुआ अतः हम इनके भी आभारी हैं । अन्त में सुन्दर कलापूर्ण मुद्रण के लिए हम वर्द्धमान मुद्रणालय को भी धन्यवाद ज्ञापित करते हैं । भूपेन्द्र नाथ जैन হী Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1851 लेखकीय ८वीं से १८वीं शताब्दी तक मध्यकालीन राजस्थान की सांस्कृतिक धारा में, जैन धर्म एक महत्त्वपूर्ण क्रियाशील धार्मिक शक्ति रहा है । जीवन के शाश्वत सत्य को पहिचानने और मनसा, वाचा, कर्मणा उसे जीवन लक्ष्यों में समादृत और समाहित करते रहने का जो महत्त्वपूर्ण कार्य जैन धर्म ने निष्पादित किया है, वह किसी भी धर्म के लिये एक आदर्श है । राजस्थान की धरती की गन्ध लिये, यहाँ के सांस्कृतिक सौष्ठव की सभी विशेषताओं को आवेष्ठित कर, जैन धर्म ने एक ऐसी सांस्कृतिक भूमिका का निर्वाह किया है, जो प्रत्येक काल में चिरस्मरणीय रहेगी । उदारमना राजपूत शासकों ने, शैव व वैष्णव धर्मी होते हुए भी, कर्तव्यनिष्ठ जैन राजनयिकों, सद्गुणी एवं विद्वान् जैनाचार्यों, धनपति श्रेष्ठियों एवं लोकमानस में जैनमत की लोकप्रियता से प्रभावित होकर, जैन धर्म के संरक्षण, संवर्द्धन एवं उत्कर्ष में गहन अभिरूचि प्रदर्शित कर प्रशंसनीय योगदान दिया । राजस्थान का भौगोलिक दृष्टि से अपना अलग ही वैशिष्ट्य है, जिसका प्रभाव आर्थिक, राजनीतिक, सामाजिक यहाँ तक कि धार्मिक क्षेत्र में भी देखने को मिलता है । २३° ३' उत्तर से ३०° १२' उत्तरी अक्षांश और ६९°३०' पूर्व से ७८°१७' पूर्वी देशान्तर के मध्य विस्तृत इस प्रदेश का क्षेत्रफल ३,४२, २७४ वर्ग कि० मी० है । यह पूर्व में उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, दक्षिण में गुजरात, पश्चिम में पाकिस्तान तथा उत्तर व उत्तर पूर्व में पंजाब व हरियाणा से घिरा हुआ है । गुजरात के चांपानेर से, उत्तर-पूर्वी दिशा में दिल्ली तक विस्तृत अरावली पर्वत श्रृंखला, यहाँ की प्रमुख भू-आकृतिक विशेषता है । इस पर्वत श्रृंखला के उत्तर-पश्चिम में प्रदेश का ३ / ५ भाग मरुस्थलीय है । राजस्थान में बाँसवाड़ा, डूंगरपुर, उदयपुर, भीलवाड़ा, अजमेर, जयपुर, भरतपुर, बून्दी, कोटा आदि ऐसे क्षेत्र हैं, जो अपेक्षाकृत पठारी, उपजाऊ, सघन वनस्पति वाले व जल सुविधाओं से सम्पन्न हैं । राजस्थान का राजनैतिक स्वरूप व नामकरण, युगानुरूप परिवर्तित होता रहा है । लगभग ७वीं शताब्दी से इस प्रदेश में गुर्जर प्रतिहार, चौहान, चालुक्य, परमार, गुहिल आदि राजपूत जातियों ने अपने प्रभाव क्षेत्र व सत्ता केन्द्र स्थापित करना प्रारम्भ किये, जिसके परिणाम स्वरूप तत्कालीन राज्य शक्तियों के केन्द्र, अन्य प्रदेशों से हटकर इस भू-प्रदेश में संकेन्द्रित होने लगे । ८वीं से १२वीं व १३वीं राजपूत शक्तियों द्वारा स्थापित परिवर्तनशील सीमाओं वाले ये साहित्यिक प्रमाणों के अनुसार — जांगलदेश, सपादलक्ष, अनन्त, सप्तशतभूमि, भादानक, शताब्दी तक, विभिन्न प्रदेश, अभिलेखीय एवं Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेदपाट, प्राग्वाट, बागड़, पारियात्र, शतपंचाशत, मरू, अबुददेश और अष्टादश शतदेश, माड, वल्ल त्रवणी, दशेरक, गुर्जर या गुर्जरात्र आदि नामों से अभिहित थे। इसी काल में मुसलमानों के विध्वंसक आक्रमणों के प्रारम्भ होने से, राजपूत जातियों की वीरता व उदारता से सुरक्षा के प्रति आश्वस्त होकर, बहुसंख्यक जन समुदाय इन प्रदेशों में विस्थापित होकर आये एवं नये नगर, राजधानियाँ व व्यापारिक केन्द्र विकसित हुये। इस दौरान राजपूत वंशों की विभिन्न शाखाएँ अपने छोटे-छोटे राज्य स्थापित करने के लिये निरन्तर संघर्ष करतो रहीं । १३वीं शताब्दी से ही, देश में केन्द्रीय मुस्लिम सत्ता के न्यूनाधिक रूप से स्थिरता प्राप्त कर अस्तित्व में आने के व्यापक सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक व धार्मिक प्रभाव हुये। राजस्थान प्रदेश में, विभिन्न राजपूत वंशों की शाखाओं के द्वारा स्वतंत्र रूप से छोटी रियासतों की स्थापना व नई राजधानियों का निर्माण किया जाने लगा। १८वीं शताब्दी तक इस प्रकार के कई राजपूत राज्य, जैसे—मेवाड़, सिरोही, जोधपुर, जैसलमेर, बीकानेर, जयपुर, अजमेर, बून्दी, कोटा, भरतपुर, अलवर आदि अस्तित्व में आ गये थे। केन्द्रिीय मुगल सत्ता में भी लम्बे संघर्ष, रक्तपात व हिंसा के पश्चात् अकबर के काल तक स्थिरता आ गई थी। अकबर की धर्मसहिष्णु नीति व अन्य धर्मों के प्रति आदर भाव से सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक व जन जीवन के विविध क्षेत्रों में शान्ति, स्थिरता और विकास का वातावरण बन गया था, किन्तु कट्टर व धर्मान्ध मुस्लिम शक्तियाँ अन्दर ही अन्दर सुलग रही थीं। अकबर की मृत्यु के उपरान्त १७वीं शताब्दी से ही कट्टर मुस्लिम शक्तियाँ केन्द्रीय सत्ता पर हावी होने लगी जिसकी परिणति व पराकाष्ठा औरंगजेब के सत्ता में आने पर हुई। औरंगजेब की अत्यधिक कट्टरता, धर्मान्धता और भूमिज धर्मों के प्रति घृणा, मुगल साम्राज्य के पतन व अवसान में प्रतिफलित हुई। अतः १७वीं शताब्दी में मुस्लिम विध्वंसक शक्तियों में उफान आया, जिसके सामाजिक व धार्मिक क्षेत्र में अत्यधिक प्रभाव हये। राजस्थान में इस काल में मराठों व पिंडारियों ने भी बहुत उत्पात मचाये । पूर्वी व दक्षिण-पूर्वी राजस्थान का अधिकांश भाग औरंगजेब, मराठों आदि विध्वंसक शक्तियों के मार्ग में होने के कारण अपूर्व क्षति का केन्द्र रहा, जिसके प्रमाण इन क्षेत्रों में विस्तृत रूप से बिखरे हुये भग्नावशेष हैं । परवर्ती शताब्दियों में राजपूतों के इस प्रदेश में सुस्थापित हो जाने के पश्चात्, स्थानीय भाषा में यह भप्रदेश "राजवाड़ा" व "रायथान' कहलाता था । अंग्रेजों ने इस भौगोलिक प्रदेश को "राजपूताना'' नाम दिया व स्वतंत्र भारत में यह "राजस्थान' के नाम से अभिषिक्त किया गया। ८वीं से १८वीं शताब्दी तक राजस्थान में मध्यकालीन जैन धर्म का अध्ययन, प्रदेश की सामाजिक, धार्मिक, आर्थिक, राजनीतिक आदि परिस्थितियों पर विचार करते हुये, ३ कालखण्डों में विभक्त किया गया है Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८वीं से १२वीं शताब्दी - पूर्व मध्यकाल, १३वीं से १६वीं शताब्दी - मध्यकाल, १७वीं व १८वीं शताब्दी - उत्तर मध्यकाल विभिन्न परिप्रेक्ष्यों पर आधारित उक्त स्थूल कालिक-अनुक्रमण, राजस्थान के लौकिक व सांस्कृतिक इतिहास के अध्ययन की दृष्टि से उचित और युक्तियुक्त है। मुस्लिम शासन देश के विभिन्न प्रदेशों में भिन्न-भिन्न कालों में स्थापित हुआ, अतः मुस्लिम शासन की स्थापना से ही मध्यकाल का प्रारम्भ मानना अनुचित है। ८वीं शताब्दी के कुछ पूर्व से, राजस्थान में विभिन्न क्षत्रिय वंशों का अधिवासन प्रारम्भ होने व विभिन्न प्रदेशों से जन समुदायों के आगमन से, जैन धर्म का इस प्रदेश में अपर्व उत्कर्ष प्रारम्भ हुआ, जो १२वीं शताब्दी के अन्त व कुछ क्षेत्रों में १३वा शताब्दी के पूर्वार्द्ध तक चरमोत्कर्ष पर रहा। जैन धर्म के प्रचार व प्रसार के स्पष्ट प्रमाण ८वीं शताब्दी से ही उपलब्ध होने लगते हैं। हरिभद्र सूरि, उद्योतन सूरि, सिद्धर्षि आदि अनेक जैनाचार्यों ने, विपुल मौलिक साहित्य सृजन कर जैनमत को लोकप्रिय बनाने के अथक प्रयास किये। जैन राजनयिकों व धष्ठी वर्ग ने राजपूत राजाओं की सहानुभूति व उदारता प्राप्त कर अनेकों मंदिर, मूर्तियाँ आदि प्रतिष्ठित करवाई। आबू के विमल व वस्तुपाल-तेजपाल द्वारा निर्मित मंदिर, शिल्पकारों व वास्तुकारों के दीर्घ अनुभव से उत्पन्न-स्थापत्य व तक्षणकला की श्रेष्ठ निमितियाँ रहीं, जिनकी विलक्षण कुराई व उत्कीर्णन अद्यतन अतुलनीय है । प्राकृत, संस्कृत, अपभ्रंश, राजस्थानी व लोक भाषाओं में विद्वान् जैन मुनियों ने मौलिक साहित्य सृजन किया । चित्रकला की दृष्टि से इस काल में ताड़पत्रीय ग्रन्थों, काष्ठ पट्टकों आदि पर जैन चित्रकला की लघु शैली विकासमान हुई। जैन साधुओं ने जैन धर्म का उज्जवल पक्ष प्रस्तुत कर, विभिन्न समुदायों को जैन मत में दीक्षित होने के लिये प्रवृत्त किया, फलस्वरूप ८वीं से १२वीं शताब्दी के मध्य क्षत्रिय और वैश्यों के द्वारा जैन मत स्वीकार करने से, उत्तरी भारत की कई महत्त्वपूर्ण जैन जातियाँ-ओसवाल, खंडेलवाल, पोरवाल, बघेरवाल, जायसवाल, पल्लीवाल आदि, तथा इनके विभिन्न गोत्र अस्तित्व में आये । जैन संघ में भी ८४ गच्छों की उत्पत्ति हुई । इस प्रकार जैन धर्म में ८वीं से १२वीं शताब्दी तक साहित्य, कला, स्थापत्य, जाति-निर्माण आदि विविध क्षेत्रों में, जैनाचार्यों, श्रेष्ठियों, राजाओं, राजनीतिज्ञों व श्रावकों के अपूर्व सहयोग से अत्यधिक उन्नति हुई, अतः पूर्व मध्यकाल में जैन मत की प्रभावना चरमोत्कर्ष पर होने के कारण हर दृष्टि से इसे "स्वर्णकाल" माना जा सकता है। यद्यपि मुस्लिम आक्रमण एवं तज्जनित धर्मान्ध विध्वंस का प्रारम्भ राजस्थान में ११वीं शताब्दी से ही हो गया था, किन्तु १३वीं शताब्दी से हमें परिवर्तन की एक नई Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धारा देखने को मिलती है। दिल्ली में केन्द्रीय मुस्लिम शासन की स्थापना से, शासन-शक्ति के आधार पर मुस्लिम मत में धर्मान्तरण, अन्य धर्मावलम्बियों का उत्पीड़न, विध्वंस आदि प्रारम्भ हुये । केन्द्र के अतिरिक्त अन्य स्थानों पर भी मुस्लिम सत्ता के केन्द्र विकसित हुये। कई नगर व बस्तियाँ खाली हो गईं। राजस्थान में राजपूतों की छोटी-छोटी रियासतें बनने लगीं। सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक व धार्मिक क्षेत्र में परिवर्तन की बाढ़ आ गई। यद्यपि जैनमत को पूर्ववत् राजपूत राजाओं का उदार संरक्षण मिलता रहा और इस काल में भी इसके जन प्रभाव में कमी नहीं हुई , किन्तु असंख्य जैन मंदिर व मूर्तियाँ, मुस्लिम-विध्वंस की बाढ़ में ध्वस्त हो गये । जैन चिन्तन पर कुछ क्षेत्रों में मुस्लिम प्रभाव पड़ा। जैन शास्त्रों का पुनः अध्ययन कर मुस्लिम दर्शन से सामंजस्य रखने वाला नया अमूर्तिपूजक दर्शन श्वेताम्बर सम्प्रदाय में लोंकापंथ व दिगम्बर सम्प्रदाय में तारण पंथ के नाम से अस्तित्व में आया। यही नहीं मुस्लिम शासन का अस्तित्व में रहना इन पंथों के लिये इतना अनुकूल सिद्ध हुआ कि उत्तर मध्यकाल में तो ये जैन धर्म की पृथक् रूप से प्रमुख धारा ही बन गये। मुगल सम्राट अकबर के काल में जैन धर्म के प्रभाव में कुछ बढ़ोत्तरी हुई । अकबर एक उदार-चेता और धर्म-सहिष्णु मुगल शासक था। हीरविजय सूरि और जिनचन्द्र आदि जैनाचार्यों से प्रभावित होकर, उसने उन्हें क्रमशः "जगद्गुरु" और "युगप्रधान" की उपाधियाँ दी थीं । जैन दर्शन के प्रभाव से उसने कई अमारि घोषणाएँ करवाई व स्वयं निरामिष होकर आखेट आदि हिंसक कृत्य, अपने जीवन के पश्चात्वर्ती काल में त्याग दिये थे। भविष्यदृष्टा जैन सन्तों ने मुस्लिम विध्वंस के प्रहारों को देखते हुये, इस काल में मौलिक साहित्य सृजन की अपेक्षा महत्त्वपूर्ण ग्रन्थों के प्रतिलिपिकरण और शास्त्र-भण्डारों के निर्माण पर जोर दिया। इस काल में मूल ग्रन्थों पर अनेक भाष्य, टीकाएँ व प्रतिलिपियाँ तैयार हुई तथा कई स्थानों पर ग्रन्थ भण्डार स्थापित किये गये । १३वीं से १६वीं शताब्दी तक राजस्थान से जैन धर्म के स्वरूप में हमें कई उतार-चढ़ाव देखने को मिलते है। १७वीं शताब्दी से ही अकबर की मृत्यु के बाद कट्टरपंथी मुस्लिम हावी होने लगे । जहाँगीर अपने पूर्ववर्ती शासनकाल में तो जैन मत के प्रति उदार था, किन्तु बाद में गुजरात में, उसने भी जैन मतावलम्बियों के प्रति उत्पीड़न का रुख प्रदर्शित किया । औरंगजेब ने अकबर की धर्म सहिष्णुता का डट कर बदला लिया और अपने काल में असंख्य जैन प्रतिमानों को ध्वस्त किया, जिसमें राजस्थान के भी कई जैन मंदिर व प्रतिमाएँ थीं। उत्तर मध्यकाल में जैन मत में और नये पंथ विकसित होते रहे और अधिकांश महत्त्वपूर्ण साहित्य ग्रन्थागारों में सुरक्षित रख दिये गये।। राजस्थान के विभिन्न क्षेत्रों में जैन धर्म विषयक विपुल सामग्रो अभिलेखों, साहित्य, Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिमाओं, भग्नावशेषों आदि के रूप में बिखरी पड़ी है । इनसे प्राप्त सूचनाओं को संयोजित कर, समग्र रूप से प्रस्तुत करने की महती आवश्यकता है। इस संदर्भ में डॉ० के० सी० जैन का "जैनिज्म इन राजस्थान" यद्यपि एक अग्रणी एवं प्रशंसनीय शोधपरक प्रयास है और इसमें प्राचीन काल से अद्यतन, सुदीर्घ अवधि के जैन इतिहास के विभिन्न पक्षों पर प्रकाश डाला गया है, किन्तु राजस्थान का जैन इतिहास इस प्रदेश के सांस्कृतिक इतिहास के लिये ही नहीं, अपितु सम्पूर्ण भारत के जैन इतिहास-निर्माण में महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है, क्योंकि जैन मत की महत्त्वपूर्ण जातियों एवं गोत्रों की उत्पत्ति व प्रसार यहीं से हुआ, महत्त्वपूर्ण जैन साहित्य अधिकांशः यहीं रचा गया और इसी प्रदेश के भौगोलिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण सुरक्षित प्रदेशों में कला एवं साहित्य के कतिपय उत्कृष्ट प्रतिमानों को सुरक्षित रखा गया । इतने महत्त्वपूर्ण जैन इतिहास को छोटे कालखण्डों में बाँटकर समीक्षात्मक अध्ययन की आवश्यकता पिछले कई वर्षों से अनुभव की जा रही है, अतः जैन धर्म संबंधी, राजस्थान के विभिन्न कोनों में सुदीर्घ काल से उपेक्षित, अज्ञात व अछूती पड़ी सामग्री को भी, यथाशक्य संकलित कर, आलोचनात्मक, सूक्ष्म निरीक्षण के उपरान्त, नये तथ्य प्राप्त करके, मध्यकाल के विभिन्न कालखण्डों में, समेकित रूप से प्रस्तुत करने का यह तुच्छ एवं विनम्र प्रयास इस शोध-प्रबंध के द्वारा किया जा रहा है, ताकि जैन धर्म के अपरिचित प्रभाव का और अधिक सही मूल्यांकन किया जा सके और ८वीं से १८वीं शताब्दी तक के मध्यकाल में इसके प्रचार-प्रसार, उत्कर्ष-अपकर्ष, विध्वंस एवं जीर्णोद्धार सम्बन्धी गवेषणात्मक निष्कर्षों से एक क्रमबद्ध इतिहास सृजित हो सके । प्रस्तुत शोध-प्रबंध में गवेषणात्मक सामग्री को, मध्यकाल के पूर्वोक्त ३ काल खण्डों के अन्तर्गत अग्रलिखित अध्यायों में विभिन्न शीर्षकों के अन्तर्गत संयोजित किया गया है । प्रथम अध्याय में जैन इतिहास सृजन के स्रोतों का वर्णन किया गया है। द्वितीय अध्याय में राजस्थान के विभिन्न शासकों के अन्तर्गत जैन धर्म की ऐतिहासिक भूमिका का विवेचन है । तृतीय अध्याय राजस्थान में जैन मत के श्वेताम्बर एवं दिगम्बर सम्प्रदायों में, विवेच्य काल में हुई टूटन व अलगाववादी पंथों से सम्बन्धित है। चतुर्थ अध्याय में प्रत्येक कालखण्ड के जैन तीर्थों एवं पवित्र स्थानों का उल्लेख है, जिनकी राजस्थान में प्रचुरता रही है। पंचम अध्याय राजस्थान की जैन चित्रकला, जैन मूर्तिकला, रूपप्रद अंकन व स्थापत्य वैभव की शैली का आलोचनात्मक विवेचन है । षष्ठ अध्याय में जैन साहित्य सृजन का स्वरूप, विभिन्न कालखण्डों एवं शताब्दियों में प्रयुक्त भाषानुसार संयोजित है । सप्तम अध्याय, शास्त्र भण्डारों अर्थात् साहित्य के कोषागारों से सम्बन्धित है और अष्टम अध्याय में राजस्थान में जैन धर्म की भूमिका का मूल्यांकन व राजस्थान तथा भारतीय सांस्कृतिक जीवन में इसके योगदान का आकलन है । Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १० ) शोधप्रबंध के लेखन में जैन मान्यताओं की तुलना में अभिलेखीय एवं साहित्यिक प्रमाणों को प्राथमिकता दी गई है। यद्यपि जैन स्रोतों में व्यापक सूचनाएँ सन्निहित हैं, किन्तु एकमात्र इन्हीं का आश्रय लेकर राजस्थान के लौकिक एवं सांस्कृतिक इतिहास से सम्बन्धित अन्य स्रोतों व कृतियों की भी उपेक्षा नहीं की गई है । कर्नल टॉड, श्यामलदास, गौरीशंकर हीराचन्द ओझा, मुशी देवी प्रसाद, रामनाथ रतनू , जगदीश सिंह गहलोत, पंडित गंगा सहाय, डॉ. वासुदेव शरण अग्रवाल, डॉ० रघुवीर सिंह, हर विलास शारदा, डॉ. सत्यप्रकाश, डॉ० मथुरालाल शर्मा, डॉ० दशरथ शर्मा, डॉ० गोपीनाथ शर्मा, डा० वी० एस० भार्गव प्रभृति विद्वानों की राजस्थान से सम्बन्धित शोधपरक एवं अन्य कृतियों से भी जैन धर्म के इतिहास विषयक तथ्यों का संकलन किया गया है। राजस्थान के जैन धर्म सम्बन्धी लेखन के लिये पूर्णचन्द्र नाहर, मनि कांतिसागर, मुनि जिनविजय, मुनि पुण्यविजय, महो० विनयसागर, मुनि हस्तीमल, श्री अगरचन्द नाहटा, डॉ० कस्तूरचन्द कासलीवाल, डॉ० नरेन्द्र भानावत, डॉ. कैलाशचन्द जैन एवं रामवल्लभ सोमाणी आदि सुविख्यात हैं । इनकी रचनाओं एवं कृतियों की सामग्री का भी यथोचित उपयोग किया गया है । कतिपय विदेशी लेखकों ने भारतीय जैन धर्म का अच्छा अध्ययन करके अपना महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है । इनमें कनिंघम, फग्य्स न, हर्मन जेकोबी, बुहलर, शुबिग आदि के नाम उल्लेखनीय हैं। इनके अभिमतों को भी यथावश्यक प्रयुक्त किया गया है। इसके अतिरिक्त अर्वाचीन शोध विषयक प्रकाशित सामग्री, नवशोधित तथ्यों, इतिहास परक निबन्धों, शोध ग्रन्थों, नवीन साहित्यिक व ऐतिहासिक रचनाओं, ख्यातों, रास व गोतों, स्मृति ग्रन्थों, पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित विभिन्न लेखों आदि से भी उपयोगी सामग्री ली गई है । ____ नवीन तथ्यों की गवेषणा करने, प्रकाशित तथ्यों की प्रामाणिकता का अभिज्ञान करने तथा जैन धर्म के पार्थिव प्रतिमानों के प्रत्यक्ष अवलोकन के निमित्त, लेखिका के द्वारा राजस्थान के विविध क्षेत्रों का भ्रमण एवं सर्वेक्षण भी एतदर्थ किया गया और तद्विषयक कतिपय प्राथमिक तथ्यों का भी संकलन किया गया है, जिन्हें विषय की आवश्यकतानुसार यथास्थान निरूपित कर दिया गया है। पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोधसंस्थान के निदेशक डॉ० सागरमल जैन ने इस ग्रन्थ के प्रकाशन का दायित्व वहन किया एतदर्थ मैं उनके एवं संस्थान के प्रति अपना आभार व्यक्त करती हूँ। डा० (श्रीमती) राजेश जैन Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयानुक्रमणिका अध्याय १ : साधन-स्रोत १-१५ (अ) पुरातत्त्व : (१) अभिलेख-(क) मन्दिरों के पुननिर्माण एवं प्रतिष्ठा सम्बन्धी लेख ३ (ख) प्रतिमा लेख ४ (ग) अनुदान सम्बन्धी लेख ४ (घ) ऐतिहासिक लेख ४ (ङ) संघ यात्रा सम्बन्धी लेख ५ (च) अन्य लेख (छ) अभिलेखों में प्रयुक्त सन्, संवत् । (२) मन्दिर मूर्तियां एवं स्मारक ६ (ब) साहित्य : (१) साहित्यिक ग्रन्थ ७ (२) ऐतिहासिक कृतियां ८ (३) प्रशस्तियाँ ८ (४) पट्टावलियाँ १० (५) वंशावलियाँ ११ (६) तीर्थ मालाएँ और तीर्थ स्तवन १२ (७) सनद एवं पत्र १३ (८) विज्ञप्ति पत्र १३ (९) सचित्र हस्तलेख । (स) विदेशियों के द्वारा किया गया कार्य एवं वृत्तान्त १५ अध्याय २ : जैनधर्म की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि १६-७५ (अ) पूर्व मध्यकाल १६ (१) प्रतिहारों के अन्तर्गत जैनधर्म १७ (२) चौहानों के अन्तर्गत जैन धर्म १८ (३) चावड़ा तथा सोलंकी राजवंश के अन्तर्गत जैन धर्म २३ (४) परमार राजवंश के अन्तर्गत जैन धर्म २५ (५) हस्तिकुण्डी के राष्ट्रकूटों के अन्तर्गत जैन धर्म २६ (६) शूरसेन राजवंश के अन्तर्गत जैन धर्म २७ (७) मेवाड़ क्षेत्र में जैन धर्म २९ (८) दक्षिण-पूर्वी राजस्थान में जैन धर्म ३० माड क्षेत्र में जैन धर्म ३२ । (ब) मध्यकाल ३३ (१) मेवाड़ में जैन धर्म ३४ (२) वागड़ प्रदेश में जैन मत ४० (३) हाड़ोती क्षेत्र में जैन धर्म ४३ (४) सिरोही राज्य में जैन मत ४४ (५) जैसलमेर क्षेत्र में जैन धर्म ४६ (६) जोधपुर और बीकानेर राज्यों में जैन मत ४८ (७) जयपुर राज्य में जैन धर्म ५० (८) अलवर राज्य में जैन धर्म ५२ । Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२ ) (स) उत्तर मध्यकाल ५३ (१) मेवाड़ में जैन धर्म ५३ (२) डूंगरपुर, बाँसवाड़ा और प्रतापगढ़ राज्यों में जैन धर्म ५५ (३) कोटा क्षेत्र में जैन धर्म ५५ (४) सिरोही क्षेत्र में जैन धर्म ५६ (५) जैसलमेर क्षेत्र में जैन धर्म ५७ (६) जोधपुर एवं बीकानेर राज्यों में जैन धर्म ५८ (७) जयपुर राज्य में जैन धर्म ६० (८) अलवर राज्य में जैन धर्म ६३ । (द) मुस्लिम शासक और जैन धर्म ६४ (१) मुसलमानों द्वारा किया गया विध्वंस ६४ (२) मुस्लिम शासकों की जैन धर्म के प्रति सहिष्णुता ६९ । अध्याय ३ : जैनधर्म के भेद और उपभेव ७६-१६१ पृष्ठभूमि : ७६ (अ) चैत्यवासी प्रथा ७८ (१) श्वेताम्बर सम्प्रदाय में चैत्यवासी प्रथा ७८ (२) दिगम्बर सम्प्रदाय में चैत्यवासी प्रथा ८० । (ब) भेद एवं उपभेद ८१; प्रयुक्त शब्दावली ८२; गण, गच्छ ८२ कुल, शाखा ८२। (१) पूर्वमध्यकाल (क) श्वेताम्बर सम्प्रदाय के भेद-प्रभेद ८३ (क-१) प्रवर्तमान गच्छ ८३। (ख) दिगम्बर सम्प्रदाय में भेद-प्रभेद ८८ (ख-१) प्रवर्तमान संघ ८८ १. मूलसंघ ९०; २. माथुरसंघ ९३; ३. लाडवागड़ संघ ९४ । (२) मध्यकाल ९४ (क) श्वेताम्बर सम्प्रदाय में भेद-प्रभेद ९४ (क-१) प्रवर्तमान गच्छ ९४ (क-२) नवीन सम्प्रदाय व पन्थ १०८; १. लोका सम्प्रदाय १०८; २. बीजामत या विजयगच्छ १०९; ३. कडुआ मत १०९ (ख) दिगम्बर सम्प्रदाय में भेद-प्रभेद ११० (ख-१) प्रवर्तमान संघ ११०; १. काष्ठा संघ ११०; काष्ठा संघ के लाड़बागड़ गच्छ के मध्यकालीन आचार्य १११; काष्ठासंघ के बागड़गच्छ के मध्यकालीन आचार्य ११२, काष्ठासंघ के नंदी तट गच्छ के मध्यकालीन आचार्य ११२; २. देवसेन गच्छ ११३; ३. मूलसंघ ११३; भट्टारक गादियों का स्थानान्तरण ११५; ईडर शाखा के मध्यकालीन भट्टारक ११५; नागौर शाखा के मध्यकालीन भट्टारक ११५; अजमेर शाखा के मध्यकालीन भट्टारक ११५; दिल्ली जयपुर शाखा चित्तौड़ सहित के मध्यकालीन भट्टारक ११६; भट्टारकों का योगदान ११८ (ख-२) Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३ ) नवीन सम्प्रदाय व पन्थ १२०; १. तारण पन्थ या समैया पन्थ १२० २. बीसपन्थी वर्ग १२१ ३. विधि मार्ग १२१ । (३) उत्तरमध्यकाल १२१ (क) श्वेताम्बर सम्प्रदाय में भेद - प्रभेद १२१ ( क - १ ) प्रवर्तमान गच्छ १२१ (क-२) नवीन सम्प्रदाय व पंथ १२३ (ख) दिगम्बर सम्प्रदाय में भेदप्रभेद १२५ ( ख - १) प्रवर्तमान संघ १२५ ( ख - २) नवीन संप्रदाय व पंथ १३० निष्कर्ष एवं समालोचना १३१ । (स) जैन जातियाँ एवं गोत्र - पृष्ठभूमि १३३ (१) ओसवाल १३४ ओसवालों के गोत्र १३५ (क) क्षेत्रीय प्रादेशिक या स्थानिक गोत्र १३६ ( ख ) व्यावसायिक गोत्र १३७ (ग) व्यक्तिओं के नामों पर आधारित गोत्र १३८ (घ) कुलों से परिवर्तित गोत्र १४० ( ङ ) विशेष कार्यों के उपरान्त निर्मित गोत्र, गच्छ एवं गोत्रों के अन्तर्सम्बन्ध १४२ ( २ ) श्रीमाल १४३ श्रीमालों के गोत्र १४४ ( ३ ) पोरवाल १४६ ( ४ ) पल्लीवाल १४६ (५) खण्डेलवाल जाति १४७ ( क ) क्षत्रियवंशोत्पन्न गोत्र १४८ ( ख ) प्रादेशिक गोत्र १४८ ( ग ) व्यावसायिक गोत्र १४९ (घ ) पद एवं उपनामों पर आधारित गोत्र १५० ( ६ ) बघेरवाल जाति १५१ (७) अग्रवाल जाति १५१ (८) नरसिंहपुरा एवं जायसवाल जातियाँ १५३ (९) चित्तौड़ा व नागदा जातियाँ १५३ (१०) हुम्मड़ जाति १५३ (११) घट वंश १५४ (१२) श्रीमोढ़ जाति १५५ (१३) गुर्जर जैन जाति १५५ ( क) श्वेताम्बर सम्प्रदाय के अन्तर्गत १५६ ( ख ) दिगम्बर सम्प्रदाय के अन्तर्गत १५७ ( क ) श्वेताम्बर जैन जातियों के गोत्र १५७ (ख) दिगम्बर जैन जातियों के गोत्र १५८ (क) भोजक या सेवक १५८ (ख) महात्मा या मथेण १५८; निष्कर्ष एवं समालोचना १५९ । अध्याय ४ : जैन तीर्थ (अ) पूर्व मध्यकाल (१) आबू तीर्थ १६४ ( क ) विमल वसहि १९६५ (ख) लूणवसहि १६८ (ग) पित्त-लहर या जैन मन्दिर, भीमाशाह १७१ (घ) चौमुखा या पार्श्वनाथ जैन मन्दिर १७१ (ङ) कुन्थुनाथ दिगम्बर जैन मंदिर १७२ (च) मन्दिर वर्धमान स्वामी १७२ (छ) अचलगढ़, मन्दिर चौमुखजी १७३ (ज) आदिनाथ मन्दिर १७३ () कुन्थुनाथ मन्दिर १७३ ( ब ) शांतिनाथ मन्दिर १७४ (२) लोद्रवा तीर्थं १७५ (३) बघेरा तीर्थं १७६ (४) नरैणा तीर्थं १७८ (५) बिजौलिया तीर्थं १८० (६) नाणा तीथं १८२ (७) १६२-२६८ Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४ ) मूगथला तीर्थ १८३ (८) तलवाड़ा तीर्थ १८५ (९) मदार तीर्थ १८६ (१०) मोरखानों तीर्थ १८७ (११) फलौदी तीर्थ १८८ (१२) जीरावला तीर्थ १९० (१३) किराडू तीर्थ १९४ (१४) भीनमाल ( श्रीमाल ) तीर्थ १९४ (१५) ओसिया तीथं १९६ (१६) मेड़ता तीर्थ १९९ (१७) जालौर ( सुवर्णगिरि) तीर्थ २०१ (१८) सांचौर तीर्थ २०४ (१९) नागदा, नागद्रह या अद्रभुदजी तीर्थ २०६ (२०) आहड़ ( आघाटपुर ) तीर्थ २०७ (२१) नागौर तीर्थ २०९ (२२) खंडेला तीर्थ २११ (२३) हथूण्डी (राता महावीर ) तीर्थ २१२ (२४) नाडोल तीर्थ २१३ (२५) कोरटा तीर्थ २१४ (२६) संडेरा तीर्थ २१५ (२७) नाडलाई तीर्थ २१६ (२८) पाली तीर्थ २१७ (२९) खेड़ा तीर्थ २१९ (३०) हरसूर तीर्थ २२० (३१) रणथम्भौर तीर्थ २२१ (३२) बरोदा ( वाटपद्रक ) तीर्थ २२२ (३३) जूना तीर्थ २२३ (३४) वरमाण तीर्थ २२५ (३५) चन्द्रावती तीर्थ २२७ (३६) मीरपुर तीर्थ २२८ (३७) नरहद तीर्थ २२९ (३८) आरासण तीर्थ २३० (३९) घंधाणी तीर्थ २३१ (४०) मुछाला महावीर तीर्थ (घाणेराव ) २३२ (४१) बरकाणा तीर्थ २३२ (४२) करेडा पार्श्वनाथ तीर्थ २३३ (४३) नांदिया तीर्थ २३४ (४४) दियाणा तीर्थ २३४ (४५) अंजारी तीर्थ २३४ (४६) लोटाणा तीर्थ २३५ (४७) झालरा पाटन तीथं २३५ (४८) केशोराय पाटन तीर्थ २३७ (४९) चंवलेश्वर पार्श्वनाथ ( चूलेश्वर ) तीर्थ ३३९ (५०) चित्तौड़ तीर्थ (चित्रकूट ) २४० । (ब) मध्यकाल २४३ (१) जैसलमेर की पंचतीर्थी २४३ (क) चिन्तामणि पार्श्वनाथ मन्दिर २४४ (ख) सम्भवनाथ मन्दिर २४७ (ग) शीतलनाथ मन्दिर २४८ (घ) शांतिनाथ और अष्टापद मन्दिर २४८ (ङ) चन्द्रप्रभ स्वामी मन्दिर २४९ (च) ऋषभदेव मन्दिर २५० (छ) महावीर स्वामी मन्दिर २५० (ज) सुपार्श्वनाथ मन्दिर २५० (झ) विमलनाथ मन्दिर २५० (२) रणकपुर जैन तीर्थ २५१ (३) ऋषभदेव ( केसरिया जी) तीथं २५५ (४) नाकोड़ा पार्श्वनाथ तीर्थ (नगर) २५७ (५) रावण पार्श्वनाथ तीर्थ, अलवर २५९ (६) जावर तीर्थ २६० (७) देवकुल पाटक तीर्थ (देलवाड़ा-मेवाड़) २६१ (८) भीलड़िया तीर्थ २६२ । (स) उत्तर मध्यकाल २६२ (१) श्री महावीर जी २६२ (२) चाँदखेड़ी तीर्थ २६४ (३) कापरडा तीर्थ २६६ (४) दयाल शाह का किला २६७ (५) जैसलमेर पंचतीर्थी के अन्य मन्दिर एवं तीर्थ २६७ (क) अमरसर के जैन मन्दिर २६७ (ख) ब्रह्मसर के जैन मन्दिर २६८ (ग) देवीकोट के जैन मन्दिर २६८ (घ) बरसलपुर के जैन मन्दिर २६८ । Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १५ ) अध्याय ५ : जैन कला २६९-३२९ (अ) जैन चित्रकला २६९ (१) पूर्वमध्यकाल (क) भित्ति चित्र २७१ (ख) लघु चित्रशैली २७१ (ख-१) सचित्र ताड़पत्रीय ग्रन्थ २७१ (ख-२) सचित्र कागज ग्रन्थ २७२ (ख-३) सचित्र वस्त्र पट्ट २७२ (ख-४) काष्ठ फलक २७२ (२) मध्यकाल (क) भित्ति चित्र २७५ (ख) लघु चित्र शैली २७६ (ख-१) सचित्र ताड़पत्रीय ग्रन्थ २७६ (ख-२) सचित्र कागज ग्रन्थ २७८ (ख-३) सचित्र वस्त्र पट्ट २७९ (ख-४) काष्ठ फलक २८० (ख-५) सचित्र विज्ञप्ति पत्र २८० (३) उत्तर मध्यकाल (क) भित्ति चित्र २८० (ख) लघु चित्र शैली २८१ (ख-१) सचित्र ताडपत्रीय ग्रंथ २८१ (ख-२) सचित्र कागज ग्रंथ २८१ (ख-३) सचित्र वस्त्र पट्ट २८३ (ख-४) काष्ठ फलक २८५ (ख-५) सचित्र विज्ञप्ति पत्र २८५; निष्कर्ष एवं विशेषताएँ २८६; सचित्र ताडपत्रीय ग्रन्थों की विशेषताएँ २८६; सचित्र कागज के ग्रन्थों की विशेषताएँ २८७; जैन लघु शैली को सामान्य विशेषताएँ २८८ (ब) जैन मूर्तिकला २९१ जैन प्रतिमाओं की सामान्य विशेषताएँ २९१ (१) पूर्व मध्यकाल २९३ (क) प्रस्तर प्रतिमाएं २९३ (ख) धातु प्रतिमाएं २९५ (२) मध्यकाल मूर्तियाँ ३०२; आचार्यों की १२. यन्त्रों की पूजा ३९२; १३. दानियों व संरक्षकों की मूर्तियाँ ३०२; १४. हिन्दू देवी-देवताओं की मूर्तियाँ ३०३; राजस्थान के जैन प्रस्तर मूति कला केन्द्र ३०३; राजस्थान के जैन धातु मूर्ति कला केन्द्र ३०४ (स) जैन स्थापत्य कला ३०५ (१) पूर्व मध्यकाल (क) ८वीं से ९वीं शताब्दी के जैन स्थापत्य प्रतिमान एवं विशेषताएं ३०५ (ख) ११वीं से १३वीं शताब्दी-स्वर्ण काल ३१०; अन्य मन्दिर ३१४ (२) मध्यकाल ३१७; चतुर्मुख एवं समवसरण शैली के मन्दिर ३१९; अन्य जैन मन्दिर ३२१ (३) उत्तर मध्यकाल ३२२ (द) जैन रूपप्रद कला ३२३ (१) सज्जांकन ३२३ (२) तक्षित प्रतिमाए ३२३ (३) वर्णनात्मक रूपांकन ३२६ (य) जैन कलानिष्कर्ष एवं समालोचना ३२६ । (क) प्रस्तर प्रतिमाए २९७ (ख) धातु प्रतिमाएं २९८ (३) उत्तर मध्यकाल (क) प्रस्तर प्रतिमाएं २९८ (ख) धातु प्रतिमाए २९९; तीर्थकरेतर मूर्तियाँ २९९ (१) देवी-देवता २९९ (२) सरस्वती (३) अम्बिका ३०० (४) पद्मावती ३०० (५) अन्य यक्षियाँ ३०० (६) चक्रेश्वरी ३०१ (७) सच्चिका देवी ३०१ (८) मरुदेवी ३०१ (९) यक्ष ३०१ (१०) कुबेर ३०२ अध्याय ६ : जैन साहित्य एवं साहित्यकार ३३०-४१८ (अ) पूर्व मध्यकाल (१) प्राकृत साहित्य एवं साहित्यकार ३२२ प्राकृत Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शिलालेख ३४० (२) अपभ्रंश साहित्य एवं साहित्यकार ३४०; अपभ्रंश एवं अभिलेख ३४३ (३) संस्कृत साहित्य एवं साहित्यकार ३४३; संस्कृत अभिलेख ३४७ (४) राजस्थानी भाषा साहित्य एवं साहित्यकार ३४८ (५) हिन्दी साहित्य एवं साहित्यकार ३४९ (ब) मध्यकाल (१) प्राकृत भाषा साहित्य एवं , साहित्यकार ३५० (२) अपभ्रश साहित्य एवं साहित्यकार ३५२ (३) संस्कृत साहित्य एवं साहित्यकार ३५५ संस्कृत अभिलेख ३८० (४) राजस्थानी भाषा साहित्य एवं साहित्यकार ३७० (क) पद्य साहित्य ३७० (क-१) पुराण साहित्य ३७५ (ख) रासक साहित्य ३७५ (ग) गीत एवं स्तवन ३७५ (घ) कथा साहित्य ३७५ (ङ) पूजा साहित्य ३७६ (ख) गद्य साहित्य ३८१ राजस्थानी भाषा एवं अभिलेख ३८३ (५) हिन्दी भाषा साहित्य एवं साहित्यकार ३८३ (स) उत्तर मध्यकाल (१) प्राकृत भाषा साहित्य एवं साहित्यकार ३८४ (२) अपभ्रंश भाषा साहित्य एवं साहित्यकार ३८४ (३) संस्कृत साहित्य एवं साहित्यकार ३८४ (४) राजस्थानी भाषा--साहित्य एवं साहित्यकार ३९२ (क) पद्य साहित्य ३९३ (ख) गद्य साहित्य ४०३ (६) हिन्दी गद्य-पद्य साहित्य एवं साहित्य कार ४०६ निष्कर्ष एवं समालोचना ४१५ । अध्याय ७ : जैन शास्त्र भण्डार ४१९-४६० ___ महत्त्व एवं विशेषताएँ ४२०; जैनाचार्यों का योगदान ४२३; राजनयिकों द्वारा संरक्षण एवं योगदान ४२४; व्यापारियों एवं श्रेष्ठियों का योगदान ४२६; जैन समाज का योगदान ४२६; राजस्थान के प्रसिद्ध शास्त्र भंडार (अ) जोधपुर संभाग के जैनशास्त्र भण्डार (१) जैसलमेर के जैन ग्रन्थ भण्डार ४२७ (क) बृहद् ज्ञान भण्डार जैसलमेर ४२८ (ख) खरतरगच्छ का पंचायती भण्डार ४२८ (ग) पंचानौ शास्त्र भण्डार ४२९ (घ) तपागच्छ ज्ञान भण्डार ४२९ (ङ) बड़ा उपासरा जैन ज्ञान भण्डार ४२९ (च) लोंकागच्छीय ज्ञान भण्डार ४२९ (छ) थाहरूशाह ज्ञान भण्डार ४२९ (२) हरिसागर ज्ञान भण्डार, लोहावत ४३० (३) भट्टारक ग्रन्थ भण्डार, नागौर ४३० (४) जोधपुर के ग्रन्थ भण्डार ४३१ (५) फलौधी के ग्रन्थ भण्डार ४३१ (६) राजेन्द्र सूरि शास्त्र भण्डार, आहोर ४३१ (७) जैन शास्त्र भण्डार, कुचामन सिटी ४३१ (८) धनारी का श्रीपूज्य ज्ञान भण्डार ४३२ (९) तिलोक विजय ज्ञान भण्डार, मोहब्बत नगर ४३२ (१०) जयविजय ज्ञान मन्दिर, सिरोही ४३२ (११) केवलविजय ज्ञान भण्डार, कालन्द्री ४३३ (१२) श्रीमती पंकुबाई ज्ञान मन्दिर, शिवगंज ४३२ (१३) सोहनलाल पटनी निजी संग्रह, सिरोही ४३२ बीकानेर संभाग : (१) बीकानेर के जैन शास्त्र भण्डार ४३३ Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १७ ) (२) गंगाशहर का शास्त्र भण्डार ४३७ (३) चुरु के दो पुस्तकालय ४३७ (४) राजगढ़ का ओसवाल पुस्तकालय ४३७ (५) जैन श्वे० तेरापन्थी सभा का ग्रन्थ भण्डार, सरदार शहर ४३७ (६) भीनासर का ज्ञान भण्डार ४३७ (७) कालू ग्राम के संग्रह ४३७ (८) नौहर ४३७ (९) सूरतगढ़ ४३७ (१०) हनुमान गढ़ ४३८ (११) राजदेलसर ४३८ (१२) रतनगढ़ ४३८ (१३) बीदासर ४३८ (१४) छापर ४३८ (१५) सुजानगढ़ ४३८ (१६) रिणी ४३८ (१७) अन्य संग्रह ४३८ उपरोक्त भण्डारों के दुर्लभ ग्रन्थ ४३८ (स) अजमेर संभाग : (१) जयपुर ४३९ (क) आमेर शास्त्र भण्डार ४३९ (ख) बड़ा मन्दिर का शास्त्र भण्डार ४४० (ग) पांड्या लूणकरण का ग्रन्थ भण्डार ४४० (घ) बाबा दुलीचन्द का शास्त्र भण्डार ४४० (ङ) बधीचन्द जैन मन्दिर का शास्त्र भण्डार ४४१ (च) ठोलिया जैन मन्दिर का ग्रन्थ भण्डार ४४१ (छ) पाटौदी जैन मन्दिर का शास्त्र भण्डार ४४२ (ज) चन्द्रप्रभु सरस्वती भण्डार ४४२ (झ) जोबनेर मन्दिर का शास्त्र भण्डार ४४३ (न) पार्श्वनाथ दिगम्बर जैन सरस्वती भवन ४४३ (ट) गोधा मन्दिर का शास्त्र भण्डार ४४३ (ठ) श्वेताम्बर जैन ग्रन्थ भण्डार, जयपुर ४४४ (२) नया मन्दिर का ग्रन्थ भण्डार ४४४ (ढ) चौधरियों के दिगम्बर जैन मन्दिर का शास्त्र भण्डार ४४४ (ण) काला छाबड़ा जैन शास्त्र मन्दिर ४४५ (त) मेघराज जी मन्दिर का शास्त्र भण्डार ४४५ (थ) यशोदानन्द जैन मन्दिर का शास्त्र भण्डार ४४५ (द) विजयराम पांड्या दिगम्बर जैन मन्दिर का शास्त्र भंडार ४४५ (ध) दिगम्बर जैन मन्दिर संघीजी का शास्त्र भण्डार ४४५ (न) लश्कर के दिगम्बर जैन मन्दिर का शास्त्र भण्डार ४४६ (प) लाल भवन स्थित विनयचन्द्र ज्ञान भण्डार ४४६ (क) अन्य भण्डार ४४६ (२) (क) दिगम्बर जैन तेरापन्थी मन्दिर का शास्त्र भण्डार, बसवा ४४६ (ख) दिगम्बर जैन पंचायती मन्दिर का शास्त्र भण्डार, बसवा ४४६ (३) शास्त्र भण्डार, भादवा ४४७ (४) भट्टारक शास्त्र भण्डार, अजमेर ४४७ (५) ग्रन्थ भण्डार अलवर ४४७ (६) भरतपुर के शास्त्र भण्डार : (क) पंचायती मन्दिर का शास्त्र भण्डार ४४८ (ख) फौजूराम दिगम्बर जैन मन्दिर का शास्त्र भण्डार, भरतपुर ४४८ (७) डीक शास्त्र भण्डार ४४८ (क) पंचायती मन्दिरका शास्त्र भण्डार ४४८ (ख) बड़ा पंचायत दिगम्बर जैन मन्दिर का शास्त्र भण्डार ४४८ (ग) जैन मन्दिर पुरानी डोग का शास्त्र भण्डार ४४९ (८) कामा के शास्त्र भण्डार ४४९ (क) दिगम्बर जैन खण्डेलवाल मन्दिर का शास्त्र भण्डार ४४९ (ख) अग्रवाल पंचायती मन्दिर का शास्त्र भण्डार ४ (९) बयाना के शास्त्र भण्डार ४४९ (१०) वैर के शास्त्र भण्डार Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १८ ) ४५० (११) करौली के शास्त्र भण्डार ४५० (१२) हिण्डौन के ग्रन्थ भण्डार ४५० (१३) श्री महावीर जी का ग्रन्थ भण्डार ४५० (१४) ब्यावर के शास्त्र भण्डार ४५० (१५) सीकर का ग्रन्थ भण्डार ४५१ (१६) दौसा के ग्रन्थ भण्डार ४५१ (१७) मौजमाबाद का शास्त्र भण्डार ४५१ (१८) दिगम्बर जैन मन्दिर शास्त्र भण्डार, नरायणा ४५१ (१९) दिगम्बर जैन मन्दिर शास्त्र भण्डार, सांभर ४५२ (२०) दिगम्बर जैन मन्दिर शास्त्र भण्डार, दुदु ४५२ (२१) जैन शास्त्र भण्डार, झुंझुनू ४५२ (२२) ग्रन्थ भण्डार, मारोठ ४५२ (२३) दिगम्बर जैन अग्रवाल मन्दिर का शास्त्र भण्डार, फतेहपुर ४५२ (२४) दिगम्बर जैन मन्दिर का शास्त्र भण्डार, दूनी ४५२ (२५) दिगम्बर जैन बरवाल मन्दिर का शास्त्र भण्डार, आवाँ ४५३ (२६) जैन शास्त्र भण्डार, राजमहल ४५३ (२७) ग्रन्थ भण्डार, टोडाराय सिंह ४५३ (२८) जैन शास्त्र भण्डार मालपुरा ४५३ (२९) ग्रन्थ भण्डार, टोंक ४५४ (द) उदयपुर संभाग : (१) उदयपुर के शास्त्र भण्डार ४५४ (क) संभवनाथ दिगम्बर जैन मन्दिर का शास्त्र भण्डार ४५४ ( ग ) खण्डेलवाल दिगम्बर जैन मन्दिर का (ख) अग्रवाल दिगम्बर जैन मन्दिर का शास्त्र भण्डार ४५४ शास्त्र भण्डार ४५५ (घ) गौड़ी जी के उपासरे का शास्त्र भण्डार ४५५ (ङ) अन्य ४५५ (२) दिगम्बर जैन मन्दिर शास्त्र भण्डार, डूंगरपुर ४५५ (३) यति बालचंद्र वैद्य का संग्रह, चित्तौड़ ४५६ (४) भट्टारक यशकीर्ति जैन सरस्वती भवन, धुलेव (केसरिया जी ) ४५६ ( द ) कोटा संभाग ४५६ (१) (क) खरतरगच्छीय शास्त्र भण्डार, कोटा ४५६ ( ख ) वीरपुत्र आनन्द सागर ज्ञान भण्डार, कोटा ४५६ (ग) बोरसली जैन मन्दिर का ग्रन्थ भण्डार कोटा ४५७ (२) बूंदी के ग्रन्थ भण्डार ४५७ (क) दिगम्बर जैन मन्दिर पार्श्वनाथ का ग्रन्थ भण्डार ४५७ (ख) दिगम्बर जैन मन्दिर आदिनाथ का ग्रन्थ भण्डार ४५७ (ग) दिगम्बर जैन मन्दिर अभिनन्दन स्वामी का शास्त्र भण्डार ४५७ (घ) दिगम्बर मन्दिर महावीर स्वामी का शास्त्र भण्डार ४५७ (ङ) नेमिनाथ दिगम्बर जैन मन्दिर का शास्त्र भण्डार ४५८ (च) स्थानकवासी शास्त्र भण्डार ४५८ (३) नैणवा के शास्त्र भण्डार ४५८ (क) दिगम्बर जैन मन्दिर बघेरवाल का शास्त्र भण्डार ४५८ (ख) दिगम्बर जैन तेरापन्थी मन्दिर का शास्त्र भण्डार ४५८ (ग) दिगम्बर जैन मन्दिर अग्रवाल का शास्त्र भण्डार ४५८ ( ४ ) दिगम्बर जैन मन्दिर शास्त्र भंडार डबलाना ४५८ (५) शास्त्र भण्डार, इन्द्रगड़ ४५९ (६) जैन सरस्वती भवन, झालरापाटन ४५९ राजस्थान के अन्य शास्त्र भण्डार ४५९ । Those Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १९ ) अध्याय ८ : मध्यकालीन राजस्थान में जैनधर्म का मूल्यां कन एवं योगदान ४६१-४७६ (अ) भौगोलिक परिप्रेक्ष्य का प्रभाव ४६१ ( ब ) जैन संस्कृति के आधारभूत स्तम्भ ४६४ (१) जैनाचार्य या श्रमण वर्ग ४६४ (२) श्रेष्ठी वर्ग ४६५ (३) मन्दिर एवं आश्रय ४६५ ( स ) राजस्थान में जैन धर्म के योगदान का स्वरूप ४६६ (१) नैतिक मूल्यों की स्थापना ४६६ (२) अहिंसा का दर्शन ४६६ (३) लोकोपकारी प्रवृत्तियों को प्रोत्साहन ४६७ ( ४ ) सात्त्विक जीवन की प्रेरणा ४६८ (५) सर्वधर्म एवं प्राणी समभाव ४६८ (६) संघशक्ति एवं एकता को प्रोत्साहन ४६९ (७) सैनिक, प्रशासनिक एवं राजनीतिक क्षेत्र ४६९ (८) आर्थिक उन्नयन में योगदान ४७० (९) शैक्षिक एवं बौद्धिक उन्नयन में योगदान ४७३ (१०) साहित्य सृजन में योगदान ४७३ (११) साहित्य संरक्षण में योगदान ४७४ (१२) इतिहास सृजन में सहायक ४७४ (१३) जैन जातियों का उद्गम स्थल ४७५ (१४) स्थापत्य कला में योगदान ४७५ (१४) मूर्तिकला में योगदान ४७६ (१५) चित्रकला में योगदान ४७६ | सन्दर्भ ग्रन्थ सूची ४७७ Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्द-संक्षेप अप्रजैलेस अने० असावै अजैलेस आसइएरि आसरि इए एसिटारा एरिराम्युअ ओजाइ खबृगु गाओसि जबाबाराएसो जबिउरिसो : अबुदाचल प्रदक्षिणा जैन लेख संदोह : अनेकान्त, दिल्ली : अबुदमंडल का सांस्कृतिक वैभव : अबुदाचल जैन लेख संदोह : आर्कियोलोजिकल सर्वे ऑफ इण्डिया, एनुअल रिपोर्ट : आकियोलोजिकल सर्वे रिपोर्ट : इण्डियन एन्टीक्वेरी : एंश्यण्ट सिटीज ऐंड टाउन्स ऑफ राजस्थान : एनुअल रिपोर्ट राजपूताना म्यूजियम, अजमेर : एपिग्राफिका इंडिका : ओसवाल जाति का इतिहास : खरतरगच्छ बृहद गुर्वावली : गायकवाड़ ओरिएन्टल सिरीज : जजर्न ऑफ द बाम्बे ब्रांच ऑफ दी रायल एशियाटिक सोसाइटी : जनरल ऑफ दी बिहार ऐंड उड़ीसा रिसर्च सोसाइटी : जैनिज्म इन राजस्थान : जैन साहित्य और इतिहास : जैन सत्य प्रकाश : जैन गुर्जरकविओ : जैन ग्रन्थ प्रशस्ति संग्रह : जैन ग्रन्थ और ग्रन्थकार : जैन शिलालेख संग्रह : जैन साहित्य संशोधक : जैन साहित्यको संक्षिप्त इतिहास : जैन संस्कृति और राजस्थान : जैन संप्रदाय शिक्षा : जैन इन्स्क्रिप्शन्स ऑफ राजस्थान : जैन सेक्ट्स ऐंड स्कूल्स ; जैन ग्रन्थ भण्डार्स इन राजस्थान जैइरा जैसाऔइ जैसा जैगुक जैग्रप्रस जैग्रन शिस जैसंशो जैसासइ जैसरा जैसंशि जैरा जैसेस्कू जैभरा Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैसिभा जिनचंद्रस्मृन नाजलेस पप्रस प्रालेस प्रलेस प्रस प्रोरिआसवेस प्राजैलेस बीजैलेस भपापइ भादिजैती मुहस्मृग राभा ( २२ ) : जैन सिद्धांत भास्कर : जिनचंग सूरि अष्टम शताब्दी स्मृति ग्रन्थ : नाहर जैन लेख संग्रह : पट्टावली प्रबंध संग्रह : प्राचीन लेख संग्रह : प्रतिष्ठा लेख संग्रह : प्रशस्ति संग्रह : प्रोग्रेस रिपोर्ट ऑफ आर्कियोलोजिकल सर्वे, वेस्टर्न सर्कल : प्राचीन जैन लेख संग्रह ( जिनविजय) : बीकानेर जैन लेख संग्रह : भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास : भारत के दिगंबर जैन तीर्थ : मुनि हजारीमल स्मृति ग्रन्थ : राजस्थानी भारती : राजस्थान के जैन शास्त्र भण्डारों की ग्रन्थ सूची : राजस्थान का जैन साहित्य : राजस्थान के जैन संत व्यक्तित्व एवं कृतित्व : राजस्यान के इतिहास के स्रोत : राजस्थान थू द एजेज : वीर निर्वाण स्मारिका : वीर शासन के प्रभावक आचार्य : विविध तीर्थ कल्प : सेक्रेड बुक्स ऑफ द ईस्ट : सिंधी जैन सिरीज : शोध पत्रिका : श्रमण भगवान महावीर : श्रीमद् विजय राजेन्द्र सूरि स्मारक ग्रन्थ : श्री जिन प्रतिमा लेख संग्रह राजैशाग्रसू राजैसा राजसंप राइस्रो राथ ए विनिस्मा वीशाप्रआ वितीक सेबुई सिजैसि शोप श्रभम श्रीविरास्मा श्रीप्रलेस Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्याय प्रथम साधनस्रोत मध्यकालीन राजस्थान में जैन धर्म का बहुआयामी वैभव सम्पन्न इतिहास राजस्थान की सांस्कृतिक विरासत की एक अमूल्य धरोहर है। शुरवीर एवं पराक्रमी राजपूत राजाओं की उदार धार्मिक नीतियों ने, न केवल जैन धर्म के चार प्रमुख स्तम्भ श्रावक, श्राविकाओं, साधु एवं साध्वियों को प्रश्रय एवं संरक्षण दिया, अपितु जैन धर्म के प्रचारप्रसार में भी महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। जैन धर्म के सांस्कृतिक वैभव को चरमोत्कर्ष तक पहुँचाने का श्रेय ८वीं से १२वीं शताब्दी तक के विभिन्न राजपूत शासकों को है, तो ११वीं से १७वीं शताब्दी तक के मुस्लिम आक्रमणों से जैन धर्म के विविध प्रतिमानों यथा-जैन तीर्थस्थल, साहित्य, कला, मूर्तियों, स्थापत्य आदि को संरक्षण देने एवं सुरक्षित बचाये रखने का श्रेय भी विभिन्न राजपूत राजाओं को ही है । मुस्लिम विध्वंस के उपरान्त मन्दिरों का पुनरुद्धार करने, उनके रख-रखाव आदि के लिये न केवल राजाओं ने स्तुत्य प्रयास किये, अपितु जन-सामान्य ने भी अपरिमित सहयोग दिया। भ्रमणशील जैन मुनियों के नैतिक उत्थान के प्रयासों और धर्म में निहित आदर्शवाद, त्याग, सादा जीवन एवं ज्ञानमयी परम्परा के कारण, लोक कल्याणकारी कार्य बहुविध सम्पन्न होते रहे। वस्तुतः मध्यकालीन राजस्थान में जैन धर्म लोक जीवन को गति प्रदान करने वाली महत्त्वपूर्ण दार्शनिक, धार्मिक एवं सांस्कृतिक शक्ति रही है। जैन मतावलंबियों ने राज्याश्रय पाकर जैन धर्म को पुष्पित पल्लवित किया । यही नहीं, उन्होंने अपनी बौद्धिक प्रतिभा से राज्य की नीतियों को भी प्रभावित किया और कई शासकों को अपनी कूटनीति, रणचातुर्य और प्रशासनिक कुशलता से लाभान्वित कर अपूर्व स्वामिभक्ति का भी परिचय दिया। राजाओं और श्रावकों के अनुकूल सामं. जस्य के कारण जैन धर्म की प्रभावना में निरन्तर वृद्धि हुई तथा इस युक्ति के परिणाम स्वरूप मन्दिर निर्माण, मूर्तिकला, चित्रकला तथा साहित्य सृजन के क्षेत्र में अपार प्रगति हुई । जैन साहित्य धार्मिक होते हुये भी, अपने कलेवर में ऐतिहासिक, भौगोलिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक ज्ञानकोष समेटे हुये हैं। राजस्थान के विभिन्न मन्दिरों व उपाश्रयों में स्थित, ज्ञात व अज्ञात ग्रन्थ भण्डारों की विशाल व प्रचुर साहित्य-सम्पदा, शोध के विभिन्न आयाम प्रस्तुत करती है। बड़ी संख्या में ताड़पत्रीय ग्रन्थ, हस्तलिखित ग्रन्थ तथा प्राकृत, संस्कृत, अपभ्रंश एवं हिन्दी आदि भाषाओं में रचित ग्रन्थ भाषा के विकास के विभिन्न सोपान प्रदर्शित करते हैं तथा तत्कालीन समाज के विभिन्न पहलुओं Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २ : मध्यकालीन राजस्थान में जैनधमं को छुपाये हुये हैं । प्रस्तुत शोध प्रबन्ध में एतदर्थं निम्नलिखित ऐतिहासिक स्रोतों को आधार बनाया गया है (अ) पुरातत्त्व : पुरातात्त्विक सामग्री की उपलब्धि की दृष्टि से राजस्थान पर्याप्त समृद्ध रहा है । सामान्यतया, यह कल्पना की जाती है कि राजस्थान की भौगोलिक विशेषताओं एवं अतिशयताओं के कारण, यहाँ मानव की सांस्कृतिक उपलब्धियाँ नगण्य रही होंगी, लेकिन स्थानीय पुरातात्त्विक स्रोतों की विपुल उपलब्धि इस भ्रान्ति का निराकरण कर देती है । मध्यकालीन राजस्थान में जैन धर्म के विभिन्न सोपानों के अध्ययन और इतिहास सर्जन के लिये यह सामग्री विश्वसनीय व प्रामाणिक मानी जाती है, क्योंकि संशय की अवस्था में पुरातत्त्व ही इतिहास की अनेक शंकाओं का समाधान प्रस्तुत करता है । पुरातत्त्व सामग्री भी पुनः दो भागों में विभक्त की जा सकती है : (१) अभिलेख : अभिलेख अतीत के मूल्यांकन एवं परिणामों के दृष्टिकोण से सर्वाधिक प्रामाणिक एवं विश्वसनीय साधन हैं । यहाँ तक कि साहित्यिक स्रोतों में प्रदत्त तथ्यों की पुष्टि यदि अभिलेखों से होती है, तो वे तथ्य प्रामाणिक माने जाते हैं । अभिलेख इस प्रकार अन्य साधनों की प्रामाणिकता की कसौटी के रूप में प्रयुक्त किये जाते हैं । ये अभिलेख पाषाण शिलाओं, स्तम्भों, प्रस्तरपट्टियों, भवनों, दीवारों, पत्थर एवं धातु की मूर्तियों, ताम्रपत्रों, मन्दिरों के भागों एवं स्तूपों आदि स्थानों पर उत्कीर्ण मिलते हैं । ये संस्कृत, प्राकृत, राजस्थानी, हिन्दी और मिली-जुली भाषाओं में हैं । छठी शताब्दी तक के अभिलेख ब्राह्मी लिपि में, सातवीं से नौवीं शताब्दी तक के कुटिल लिपि में और तदनन्तर देवनागरी लिपि में मिलते हैं । इनमें से अधिकांश अभिलेख, विवेच्य काल की सांस्कृतिक, धार्मिक, आर्थिक, सामाजिक व राजनीतिक स्थितियों पर बृहद् प्रकाश डालते हैं । इसके साथ ही ये तत्कालीन शासकों के अस्तित्व, कार्य, वंशावलियों, उपलब्धियों, दान, विजय, मृत्यु, राजाज्ञाओं, निर्माण कार्यों, दुर्गों की स्थिति, शासकीय पदाधिकारियों, मुगल सम्राटों एवं अन्य राजाओं से राजनीतिक और सांस्कृतिक सम्बन्धों, ऐतिहासिक घटनाओं की तिथियों तथा साहित्यिक स्थिति के बारे में भी प्रामाणिक जानकारी प्रदान करते हैं । अभिलेखों से जैन धर्म के विस्तार, उन्नति एवं इतिहास के सम्बन्ध में भी पर्याप्त सूचनाएँ मिलती हैं। राजस्थान के अधिकांश जैन इससे स्पष्ट है कि राजस्थान में जैन धर्म को पर्याप्त लोकप्रियता प्राप्त हुई तथा स्थानीय शासकों की भी इस धर्म के प्रति सद्भावना रही थी । मन्दिर अभिलेख युक्त हैं । Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधन स्रोत : ३ यद्यपि किसी शासक के जैन मतावलम्बी होने का प्रत्यक्ष उल्लेख किसी अभिलेख मैं नहीं हुआ है, लेकिन किसी जैन मत विरोधी शासक का उल्लेख भी प्राप्त नहीं होता है | वस्तुतः स्थानीय शासन में जैन मतावलम्बियों को प्रतिष्ठित पद प्राप्त थे, अतः उनके द्वारा जैन धर्म को प्रोत्साहन दिया गया । इन्हीं के प्रभाव से जैन धर्म को राजकीय समर्थन पर्याप्त मात्रा में प्राप्त हुआ । इसका स्पष्ट उल्लेख जैन अभिलेखों से प्राप्त होता है । यहाँ प्राप्त होने वाले जैन अभिलेखों में प्रायः मुनियों के नाम, श्रावकों के नाम, मूर्तियों की प्रतिष्ठा, मन्दिर के निर्माण अथवा जीर्णोद्धार का उल्लेख मिलता है । इनमें मन्दिर के निमित्त दिये गये स्थायी दान तथा नियमित अनुदान का भी उल्लेख मिलता । इस नियमित अनुदान की व्यवस्था स्थानीय शासकों द्वारा भी की जाती थी । जैन अभिलेखों का राजस्थान में प्रचलित जैन मत के विभिन्न संघ, गण व गच्छ-भेदों का सतत् इतिहास निर्मित करने के सन्दर्भ में महत्त्वपूर्ण योगदान है । प्रमुख एवं प्रतिष्ठित जैन आचार्यों का नामोल्लेख एवं उनकी शिष्य परम्परा का उल्लेख भी अभिलेखों में उपलब्ध होता है । इसके अतिरिक्त, विभिन्न जातियों एवं गोत्रों के अस्तित्व एवं उत्पत्ति विषयक जानकारी भी प्राप्त होती है । मोटे तौर पर राजस्थान के जैन लेखों को निम्न भागों में विभक्त कर सकते हैं ' : (क) मन्दिरों के पुननिर्माण एवं प्रतिष्ठा सम्बन्धी लेख : मन्दिरों के निर्माण, प्रतिष्ठा एवं जीर्णोद्धार सम्बन्धी लेख महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक तथ्य प्रदान करते हैं । मध्यकाल में, ११वीं शताब्दी से ही जैन मन्दिरों को मुस्लिम विध्वंस का सामना करना पड़ा, किन्तु जैन श्रेष्ठियों एवं राज्य-शक्ति के धर्मानुराग के कारण इनका बार-बार नवीनीकरण होता रहा । कुछ मन्दिर पूर्णतः ध्वस्त कर दिये गये । उनकी जानकारी भी भग्नावशेषों व अवशिष्ट शिलाखण्डों से ज्ञात होती है । चित्तौड़ क्षेत्र में, गम्भीरी नदी के पुल में, अलाउद्दीन खिलजी के पुत्र एवं गवर्नर खिज्र खाँ द्वारा कुछ शिलालेख भी चुनवा दिये गये थे, जो महत्त्वपूर्ण जानकारी के स्रोत हैं । कई खण्डित एवं अखण्डित लेख पुरागारों में भी सुरक्षित हैं । पूर्ववर्ती काल में मन्दिर की निर्माण योजना सामान्य होती थी, किन्तु १०वीं शताब्दी के पश्चात् से इनमें त्रिक-मंडप, रंग मण्डप, देव कुलिकाएँ आदि भी बनवाये जाने लगे । अलंकरणों व सज्जा की प्रचुरता के कारण एक ही श्रेष्ठी द्वारा सम्पूर्ण रचना करवाना कठिन था, अतः विभिन्न व्यक्तियों द्वारा छोटे-छोटे निर्माण कार्य करवा कर लेख अंकित करवाने की प्रथा प्रारम्भ हो गई थी । पूर्व - मध्यकाल में लेख अंकित करवाने के कोई निश्चित मानदण्ड नहीं थे; बड़ा निर्माण कार्य करवाने के १. सोमाणी, आर० वी० - जैन इंस्क्रिप्शन्स ऑफ राजस्थान, पृ० ३ । Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ : मध्यकालीन राजस्थान में जैनधर्म उपरान्त छोटे से लेख में इसका सन्दर्भ देने का उदाहरण भी है जैसे - विमल वसहि में पृथ्वीपाल के द्वारा ११४९ ई० में वृहत नवीनीकरण व परिवर्द्धन का उल्लेख एक पंक्ति के लेख में ही है । इसी प्रकार लूण वसहि के जीर्णोद्धार को पेथड़ कुमार द्वारा सम्पन्न करवाने का भी छोटा अभिलेख उपलब्ध होता है । मध्यकाल व उत्तर मध्यकाल में ऐसे लेखों में अपेक्षाकृत अधिक विवरण दिये जाने लगे थे । (ख) प्रतिमा लेख : प्रतिमाओं के शिलापट्ट या चरण चौकी पर उत्कीर्ण लेखों में प्रारम्भ में 'श्री' या 'ह्रीं' लिखा देखने को मिलता है । तिथि या तो इसके पश्चात् या सबसे अन्त में दी होती है । तदनन्तर, बहुत कम प्रतिमाओं में शासकों के नाम देखने को मिलते हैं, अन्यथा प्रतिमा स्थापक श्रेष्ठी परिवार का विवरण और उसके बाद प्रेरक जैनाचार्य का नाम गण, गच्छ, व कभी-कभी गुरु-शिष्य परम्परा सहित देखने को मिलता है । कुछ प्रतिमा लेखों में सूत्रधार का नामोल्लेख भी असामान्य नहीं है । धातु प्रतिमाओं में अभिलेख पृष्ठ भाग पर उत्कीर्णं देखने को मिलते हैं । कतिपय लेखों में स्थानाभाव के कारण श्रेष्ठी, व्यवहारी, वास्तव्य, उपकेश, गच्छ आदि शब्दों का संक्षिप्त रूप में प्रयोग भी देखने को मिलता है । (ग) अनुदान सम्बन्धी लेख : राजाओं, श्रेष्ठियों एवं श्रावकों द्वारा प्रदत्त अनुदान सम्बन्धी लेख लम्बी प्रशस्तियों व छोटे लेखों के रूप में उपलब्ध होते हैं । राज्य परिवार - प्रदत्त अनुदान " सुरह" कहे जाते हैं, जिसकी उत्पत्ति "सुरभि " ( इच्छा पूर्ण करने वाली देवी गाय ) से हुई है । सुरह लेख के ऊपर सूर्य, चन्द्र तथा नीचे गाय व बछड़ा प्रतीकात्मक रूप में उत्कीर्ण मिलते हैं । सुरह लेख के प्रारम्भ या अन्त में तिथि, दानदाता या राजा का नाम, वंशवर्णन, अनुदान का उद्देश्य, लाभान्वित होने वालों का विवरण तथा अन्त में साक्षियों के नाम व अनुदान का उल्लंघन न करने की चेतावनी दो हुई होती है । अनुदान का उल्लेख सामान्यतः मन्दिर की दैनिक पूजा व्यवस्था, प्रबन्ध, रथयात्रा, अष्टाह्निका पर्व, कल्याणक पर्व, वार्षिक समारोह, धूप, तेल, दीप आदि की पूर्ति तथा तीर्थयात्रियों को करों से मुक्त करने सम्बन्धी देखने को मिलते हैं । अनुदान नकद या द्रव्य के रूप में होते थे । मंडपिका शुल्क का कुछ हिस्सा, वस्तुओं, पशुओं व व्यापारिक पदार्थों के आयात-निर्यात शुल्क का कुछ भाग निश्चित राशि या निश्चित राशि के ब्याज आदि अनुदान के विभिन्न स्वरूप लेखों में देखने को मिलते हैं । (घ) ऐतिहासिक लेख : जैन अभिलेखों का उद्देश्य ऐतिहासिक घटनाओं का अंकन करना नहीं होता था । किन्तु लेखन की परम्परा के मान्य सिद्धान्तों के अनुपालन १. अयं तीर्थं समुद्धारोअत्भुतो अकारि धीमता श्रीमदानंद पुत्रेण श्री पृथ्वीपाल मंत्रिणा " अ० जै० ले० सं०, क्र० ७२ । २ . वही, क्र० ३८२ । Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधन स्रोत : ५ में ऐतिहासिक तथ्य स्वयमेव समाविष्ट हो जाते थे। ऐसे लेख मुख्यतः बड़ी प्रशस्तियों और छिटपुट ऐतिहासिक तथ्यों वाले उपलब्ध होते हैं। बृहद् प्रशस्तियों में प्रारम्भ में तीर्थकर, शासन देवता या सरस्वती का स्मरण होता है। "विमल वसहि" का १३२१ ई० को शिव स्तुति' से प्रारम्भ होने वाला लेख एक अपवाद है। स्तुति के पश्चात् उस क्षेत्र के राजवंश का वर्णन, सम्बद्ध क्षेत्रों का भौगोलिक विवरण, जैनाचार्यों की गुरु शिष्य परम्परा, श्रेष्ठी वंश का विवरण, जाति, गोत्र, कुल, निवास स्थान का नाम, अन्य पुण्य कार्यों का विवरण तथा साधुओं के गण, गच्छ आदि दिये होते हैं । तत्पश्चात् अनुदान का स्वरूप, लेख के रचनाकार, लिपिकर्ता एवं सूत्रधार का नाम तथा सर्वांत में तिथि दी होती है । सभी प्रशस्तियों में उक्त क्रम का अनुपालन आवश्यक नहीं था। इनमें से कुछ तथ्य लुप्त भी देखने को मिलते हैं। पूर्व-मध्यकालीन अभिलेखों में केवल वर्ष अंकित होता था, किन्तु बाद में मास व तिथि भी अंकित की जाने लगी । लेख के अन्त में ''इतिशुभम्" या "छ" भी अंकित देखने को मिलता है । (ङ) संघ यात्रा संबंधी लेख : जैन तीर्थों की यात्रा के निमित्त चतुर्विध संघ के गठन एवं विभिन्न तीर्थों के नामोल्लेख सहित कई अभिलेख देखने को मिलते हैं । कई बार ऐसे उल्लेख स्वतंत्र अभिलेख में नहीं, अपितु किसी वंश विशेष की उपलब्धियों में वणित मिलते हैं । कतिपय छोटे लेख तीर्थों के व्यक्तिगत रूप से दर्शन करने सम्बन्धी भी मिलते हैं । आबू में इस प्रकार के १५वीं से १९वीं शताब्दी तक के कई लेख उपलब्ध है, जो सामान्यतः स्थानीय भाषाओं में हैं। इनसे संघपति, जैनाचार्य, विभिन्न धावकों, जातियों, गोत्रों एवं तत्समय के लोकप्रिय तीर्थों के नाम ज्ञात होते हैं। (च) अन्य लेख : जैन परम्पराओं में मन्दिर के सम्मुख कीर्ति स्तम्भ या मान स्तम्भ निर्मित करवाने के कई उदाहरण हैं। इनका सर्वप्रथम उल्लेख ८६१ ई० में मण्डोर और रोहिंसकूप में कीर्ति स्तम्भ निर्मित करवाने का मिलता है। बघेरवाल जीजा और इसके पुत्र पुण्यसिंह द्वारा निर्मित चित्तौड़ का जैन कीर्ति स्तम्भ राजस्थान के महत्त्वपूर्ण स्मारकों में से हैं । दिगम्बर जैनाचार्यों के अवशेषों पर निर्मित स्मारक "निषेधिका" कहलाते हैं। इनके ऊपर अंकित लेख राजस्थान में १० वीं शताब्दी से ही उपलब्ध हैं। इनमें दिवंगत आचार्य का नाम, विधि आदि अंकित होती है। सती लेख और जुझार १. अ० ज० ले० सं० क्र. १ । २. वही, क्र० १७४-१८३, ३७९-४०६ । ३. एइ, जि० ८. पृ० ८७ । ४. अने; अप्रैल, १९६९ । Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६ : मध्यकालीन राजस्थान में जैनधर्म लेख जैन अभिलेखों में बहुत कम देखने को मिलते हैं। १०वीं से १७वीं शताब्दी के मध्य के नैनवां व बीकानेर से ऐसे कुछ लेख प्राप्त हैं।' (छ) अभिलेखों में प्रयुक्त सन्, संवत् : राजस्थान के अधिकांश जैन अभिलेखों में "विक्रम संवत्" का प्रयोग हुआ है । जैसलमेर से १४वीं शताब्दी के पूर्व प्राप्त लेखों में "भट्रिक संवत्"२, तदनन्तर भट्टिक व विक्रम संवत् दोनों का तथा कुछ समय पश्चात् के लेखों में केवल विक्रम संवत् का प्रयोग देखने को मिलता है। चित्तौड़ से प्राप्त परमार नरवर्मा कालीन अभिलेख के अलावा "शक संवत्' का प्रयोग सामान्यतः जैन अभिलेखों में नहीं मिलता। गुजरात में लोकप्रिय रहे "सिंह संवत्' का भी कहीं-कहीं प्रयोग देखने को मिलता है। "सिंह संवत्" ३१ का नाडलाई अभिलेख प्रसिद्ध है । जैन परम्परानुसार “वीर निर्वाण संवत्" का प्रयोग भी कई लेखों में देखने को मिलता है । __जैन अभिलेखों की खोज, सम्पादन, प्रकाशन एवं संग्रह की दृष्टि से पूर्णचन्द्र नाहर, मुनि जिनविजय, मुनि जयन्त विजय, अगरचन्द नाहटा, दौलतसिंह लोढ़ा, महोपाध्याय विनयसागर, के० सी० जैन, रामबल्लभ सोमाणी आदि के नाम उल्लेखनीय हैं । इस प्रकार जैन अभिलेख पर्याप्त मात्रा में प्रकाश में लाये जा चुके हैं और निरन्तर लाये जा रहे हैं। (२) मंदिर, मूर्तियां एवं स्मारक : मध्ययुगीन जैन मन्दिर, मूर्तियाँ एवं स्मारक तत्कालीन धर्म, सभ्यता एवं संस्कृति के दर्पण है। विभिन्न प्रकार के भवन, प्रासाद, सभा मण्डप, आवासीय गृह, चैत्य, आदि अपने मूल रूप में या भग्नावशेष रूप में अपने पिछले इतिहास को प्रकाशित करते हैं । अपने साधारण स्वरूप में तो ये कलात्मकता ही दर्शाते हैं, किन्तु विशेष अध्ययन के उपरान्त तत्कालीन धार्मिक अवस्था का भी परिचय देते हैं । जैनपूजा-पद्धति और धार्मिक विश्वासों को जानने में ये बहुत सहायक हैं। मन्दिर और उनमें उत्कीर्ण अनेक मूर्तियां तत्कालीन सभ्यता, संस्कृति, धार्मिक विश्वास और कला के गौरव का सम्यक चित्रण करती हैं। इसी प्रकार कई नगरों के भग्नावशेष काल विशेष के वास्तु, नगर-निर्माण तथा शिल्प-शैलियों के साक्षी हैं। प्राचीन इमारतों की प्राचीरों, भित्तियों, पाषाणपट्टियों एवं मकानों के खंडहरों से, सामाजिक स्थिति का अच्छा बोध होता है । मन्दिर एवं मूर्तियां, वास्तुकला एवं मूर्तिकला का परिज्ञान ही नहीं कराते, वरन् अपने विकास की कहानी भी कहते हैं। इनसे जन-जीवन की झलक के साथ-साथ समाज की विचार१. वरदा, जि० १४, सं० ४, पृ० ११-१४ । २. इण्डियन हिस्ट्री क्वाटरली, सितम्बर, १९५९, पृ० २२७-२३८ । ३. सोमाणी, आर० वी०-वीरभूमि चित्तौड़, पृ० २१९-२२० । ४. प्राजेलेस, भाग २, क्र० ३२४ । Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधन स्रोत : ७ धारा का भी प्रतिनिधित्व होता है । ये स्मारक जैन देवालयों की समृद्धि, जैन समाज आर्थिक सम्पन्नता एवं उच्च सामाजिक प्रतिष्ठा के भी सूचक हैं | ( ब ) साहित्य : मध्यकालीन जैन साहित्य न केवल जैन धर्म के अवबोधन के लिये, अपितु राजस्थान के तिमिराच्छन्न अतीत को आलोक पथ पर लाने के लिये भी अति मूल्यवान है । भारतीय साहित्य - परम्परा के निर्माण में जैन मुनियों एवं रचनाकारों का योगदान निरन्तर एवं अक्षुण्ण रहा है । संस्कृत से लेकर प्राकृत, अपभ्रंश तथा अन्यान्य देश्यभाषाओं तक जैनों की सृजन सलिला का प्रवाह कभी नहीं सूखा । जैन साहित्य जितना प्रचुर है, उतना ही प्राचीन भी; जितना परिमार्जित है, उतना ही विषय वैविध्यपूर्ण भी; और जितना प्रौढ़ है, उतना ही विविध शैली सम्पन्न भी। जैन साधक सदैव देशकाल एवं तज्जन्य परिस्थितियों के प्रति जागरूक रहे हैं । उनकी ऐतिहासिक बुद्धि कभी सुषुप्त नहीं रही; और यही कारण है कि धार्मिक एवं सम्प्रदाय मूलक साहित्य सृजन करते हुये भी वे देशकाल से सम्बन्धित अपनी रचनाओं में सांस्कृतिक एवं ऐतिहासिक तथ्य दे गये हैं, जिनका यदि वैज्ञानिक पद्धति से अध्ययन किया जाय तो भारतीय इतिहास के कई तिमिराच्छन्न पक्ष आलोकित हो उठे । विविधतीर्थ - कल्प, प्रभावक चरित्र, प्रबन्ध कोश, कथाएँ, विज्ञप्ति पत्र, प्राचीन तीर्थं मालाएं, तीर्थ स्तवन, गच्छों एवं संघों की पट्टावलियों, प्रशस्ति संग्रह, प्रतिष्ठा लेख आदि ऐसी उपलब्धियाँ हैं, जो मध्यकालीन राजस्थान में जैन धर्म की सुदृढ़ एवं समृद्ध परम्परा की द्योतक हैं । साथ ही इनसे तत्कालीन भौगोलिक, सांस्कृतिक एवं राजनीतिक धारणाओं का प्रामाणिक विवेचन भी प्राप्त होता है । (१) साहित्यिक ग्रन्थ : परिपूर्ण है, जो जैन धर्म के ", " आचारांग सूत्र" और । राजस्थान में रचित जैन प्रारम्भिक जैन साहित्य पूर्णरूपेण धर्म एवं दर्शन से सिद्धान्तों की आधारभूमि निर्मित करता है । " कल्पसूत्र " उत्तराध्ययन सूत्र " जैन मत के आदिकाल के परिचायक हैं साहित्यिक कृतियाँ इनके उत्तरवर्ती काल को हैं । ये कृतियाँ राजस्थान में जैन धर्म की स्थिति पर अच्छा प्रकाश डालती हैं । बारां ( कोटा जिला ) में १०वीं शताब्दी में पद्मनन्दी रचित "जम्बूद्वीपपण्णत्ति", ७७९ ई० में जालौर में उद्योतनसूरि रचित " कुवलयमाला”, १३७० ई० में जयानन्द रचित "प्रवासगीति काव्य", १४८६ ई० में सोमचरित गणी रचित " गुरुगुण रत्नाकर काव्य" और १८वीं शताब्दी में मेघविजय रचित " दिग्विजय महाकाव्य" विशेष महत्त्वपूर्ण साहित्यिक कृतियाँ हैं ।" १. जैइरा, पृ० ४ । Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८ : मध्यकालीन राजस्थान में जैनधर्म (२) ऐतिहासिक कृतियाँ : मध्यकालीन राजस्थान के विभिन्न राजवंशों के उत्थान, पतन एवं अस्तित्व को निश्चित निष्कर्षों तक पहुँचाने में भी जैन ऐतिहासिक कृतियां महत्वपूर्ण हैं । हेमचन्द्र सूरि रचित "द्वयाश्रय" एवं "त्रिषष्टि शलाका पुरुष चरित्र" चालुक्य कालीन जैन धर्म के इतिहास के लिये उपयोगी हैं । १३०४ ई० में प्रभाचंद सूरि रचित "प्रभावक चरित्र" एवं अज्ञात आचार्य द्वारा संकलित “पुरातन प्रबन्ध संग्रह" में कई जैन शासकों एवं मुनियों से सम्बन्धित धारणाओं का रोचक वर्णन है। १५वीं शताब्दी में जिनहर्ष रचित "वस्तुपाल चरित्र" और १५११ ई० में लावण्य समय रचित "विमल चरित्र" इस काल के जैन सन्तों के इतिहास सम्बन्धी जानकारी के लिये विश्वसनीय स्रोत्र हैं । ८५२ ई० में देवसेन रचित "दर्शनसार," दिगम्बर सम्प्रदाय में संघों की उत्पत्ति पर प्रकाश डालता है। १३३६ ई० में लिखा गया "उपकेशचरित्र" जैन इतिहास के अनुशीलन के लिये उपयोगी है। १२४८ ई० में जिनपति उपाध्याय रचित "युगप्रधानाचार्य गुर्वावली" जैन सन्तों के जीवन सम्बन्धी तथ्यों के लिये विश्वसनीय स्रोत है। १७वीं शताब्दी में जयसोम रचित "करमचन्द्र वंशोत्कीर्तन काव्यम्" करमचन्द्र के जीवन सम्बन्धी विश्वसनीय सूचनाओं की खान है; तथा बीकानेर राज्य में जैन धर्म के अस्तित्व एवं प्रभाव पर काफी प्रकाश डालता है । १३४९ ई० में रचित राजशेखर के "प्रबन्ध कोश' में कई जैन साधु, कवि, राजा और अन्य व्यक्तियों का जीवन वृत्त है। इसके अतिरिक्त, हरिभद्र सूरि की "समराइच्चकहा" तथा हरिषेण का "बृहत्कथाकोष" आदि ऐसे प्रबन्ध हैं, जिनसे तत्कालीन धार्मिक, राजनीतिक एवं सामाजिक जीवन पर अच्छा प्रकाश पड़ता है। पूर्व-मध्यकालीन राजस्थान के इतिहास को समृद्ध बनाने के लिये भी इन प्रबन्धों का उपयोग अत्यन्त वांछनीय है। (३) प्रशस्तियाँ : इनकी महत्ता एवं उपयोगिता अभिलेखों के सदृश है । मध्यकाल में ८वीं एवं ९वीं शताब्दी से ही प्रशस्तियां लिखी जाने लगी थीं। उनमें से जो सुरक्षित रह पाई हैं, वे जैन इतिहास के पुननिर्माण में अत्यधिक महत्वपूर्ण स्रोत सिद्ध हुई हैं। जैन साहित्येतिहास निर्माण के सन्दर्भ में भी इनका योगदान है। १२वीं एवं १३वीं शताब्दी से इनका निर्माण सामान्य रीति से होने के कारण ये हमें मूल्यवान जानकारी से लाभान्वित कराती हैं। इनमें ग्रन्थ की निर्माण तिथि, तत्कालीन शासक का नाम, दानदाता व दानग्रहीता का नाम, उनके संघ, गण, गच्छ, गुरुओं के नाम, दानदाता की जाति, गोत्र, वंशावली आदि का उल्लेख होने से महत्वपूर्ण ऐतिहासिक तथ्य प्राप्त होते हैं। पाण्डु१. चौधरी, जी० सी०-पॉलिटिकल हिस्ट्री ऑफ इंडिया, पृ० ३-४ । २. वही, पृ० ३-४ । Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधन स्रोत : ९ लिपियों की कई-कई प्रतियां जन-औदार्य की भी सूचक हैं । विजयसिंहसूरि द्वारा ११३४ ई० में विरचित "उपदेशमाला वृत्ति" एवं चन्द्रसूरि द्वारा ११३६ ई० में विरचित "मुनिसुव्रतचरित्र" की प्रशस्तियों से ज्ञात होता है कि पृथ्वीराज प्रथम ने रणथम्भौर के जैन मन्दिरों पर स्वर्ण कलश चढ़ाये थे। “पंचाशक वृत्ति" को एक प्रति से ही हमें ज्ञात होता है कि कुमारपाल ने ११५० ई० के आसपास पाली को विजित किया था। आशाधर रचित "धर्मामृत टीका" की प्रशस्ति से ज्ञात होता है कि आशाधर ने मोहम्मद गोरी के आक्रमण के कारण माण्डलगढ़ छोड़कर धारा नगरी को प्रस्थान किया था। इसी प्रकार की जानकारी १२७८ ई० में रचित "जिनदत्त चरित्र" की प्रशस्ति से कवि लक्ष्मण के बारे में त्रिभुवनगिरी को छोड़ने के सन्दर्भ में मिलती है। समय सुन्दर को "अष्टलक्ष प्रशस्ति" से जिनभद्र सूरि द्वारा जैसलमेर, जालौर, नागौर आदि में ज्ञान भण्डारों की स्थापना की जानकारी मिलती है। इनके द्वारा चित्तौड़, मंडोर, तलवाड़ा आदि में प्रतिमाओं एवं मन्दिरों के प्रतिष्ठा-समारोह सम्पन्न करवाने की जानकारी भी १४४० ई० की "जैसलमेर जिनालय प्रशस्ति" से ज्ञात होती है। १४६१ ई० में रचित "वर्धमान चरित्र" की एकमात्र प्रति की प्रशस्ति से खंडेला के शासक उदयकरण के बारे में ज्ञात होता है । तिजारा और नागौर के खानजादा और खान शासकों के काल में रचित ग्रन्थों की प्रशस्तियां उनके इतिहास के पुननिर्माण के लिये महत्त्वपूर्ण हैं । १४९० ई० में रचित "आत्मप्रबोधन" की प्रशस्ति बयाना के बारे में तथा १५५१ ई० में रचित "होलि रेणुका चरित्र" की प्रशस्ति, सांभर व रणथम्भौर के इतिहास निर्माण की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण हैं ।° आमेर में १७१२ ई० में रचित "हरिवंश पुराण" की प्रशस्ति यहां के किले, बाजार, जनता आदि के बारे में महत्त्वपूर्ण तथ्य प्रदान करती है ।११४०७ ई० में मलयगिरि रचित "सप्तति टीका" की प्रशस्ति के श्लोक संख्या १२ में महाराणा १. गाओसि, जि० ७६, पृ० ३१२-३१६ । २. वही। ३. जैसाओइ, १० ३४४ । ४. अने, जि० ८, पृ० ४०० । ५. जैसप्र, जि० १६, पृ० १६ । ६. वही। ७. इस ग्रन्थ की प्रति ब्यावर के शास्त्र भण्डार में है। ८. एसिटारा, पृ० १५ । ९. इस ग्रन्थ को प्रति बयाना के शास्त्र भण्डार में है। १०. जैनप्रस, संख्या ४५ । ११. एसिटारा, पृ० १५ । Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० : मध्यकालीन राजस्थान में जैनधर्म लाखा के राज्य में जावर के उन्नति करने एवं देलवाड़ा (मेवाड़) के श्रेष्ठी कान्हा द्वारा "वीर विहार" व शान्तिनाथ मन्दिर निर्मित करवाने का उल्लेख है । १४९९ ई० की एक अप्रकाशित बृहत् प्रशस्ति के १२७वें श्लोक में, इसके रचयिता साधु राजशील का नाम है, जो अगरचंद नाहटा के अनुसार बाद में आचार्य पद पाने पर राजरत्न सूरि कहलाये। इसमें मेवाड़ के राजाओं तथा जन चैत्य निर्माता मन्त्री के वंश का विवरण होने के साथ-साथ खरतरगच्छ की पिप्पलक शाखा की आचार्य परम्परा का भी अच्छा विवरण मिलता है। इस प्रशस्ति के अनुसार, इस शाखा के प्रवर्तक जिनवर्द्धन सूरि के पट्टधर जिनचंद्र सूरि हये थे । उन्हीं के समय में १४९९ ई० में यह प्रशस्ति रची गई । “अष्टसप्ततिका", चित्तौड़ के मन्दिर की एक अन्य प्रशस्ति है, जिसमें खरतरगच्छ एवं चैत्य परिपाटी के विषय में पता चलता है। इस प्रकार अन्यान्य कई प्रशस्तियाँ जैनधर्म और भारतीय साहित्य के इतिहास निर्माण के लिये महत्त्वपूर्ण स्रोत हैं। (४) पट्टावलियां : ये भी इतिहास निर्माण की विश्वसनीय स्रोत हैं। जैन पट्टावलियों से, जैन गुरु परम्परा एवं धार्मिक स्थिति की जानकारी प्राप्त होती है। साथ ही इनसे कई राजाओं के नाम, नगरों के वर्णन, व्यापारिक स्थिति आदि पर भी अच्छा प्रकाश पड़ता है । महत्त्वपूर्ण पट्टावलियां-खरतरगच्छ पट्टावली, तपागच्छ पट्टावली, मूलसंघ पट्टावली, भट्टारक पट्टावली, नन्दिसंघ पट्टावली आदि हैं। इनमें विभिन्न जातियों एवं गोत्रों के उत्पत्ति विषयक वर्णन भी हैं। खरतरगच्छ पट्टावली से ही पता चलता है कि कई माहेश्वरी परिवारों को जैन धर्म में दीक्षित किया गया था। उपकेशगच्छ पट्टावली ओसियाँ के बारे में तथा कोरंटगच्छ पट्टावली कोरटा के बारे में उपयोगी जानकारी देती हैं। इन पट्टावलियों में जैन गुरुओं के धार्मिक कृत्यों के सम्बन्ध में तो तथ्य प्राप्त होते ही हैं, साथ ही तत्कालीन ऐतिहासिक जानकारी भी प्राप्त होती है। उदाहरणार्थ, जिनपाल उपाध्याय की "खरतरगच्छ बृहद गुर्वावली" में अर्णोराज, पृथ्वीराज, समरासिंह, जैसलमेर के कर्णदेव तथा सुल्तान कुतुबुद्दीन का भी वर्णन है । प्रसंगवश ११वीं से १४वीं शताब्दी तक के अन्य ऐतिहासिक विषयों की भी इसमें चर्चा की गई है। डूंगरपुर से प्राप्त एक प्राचीन पट्टावली में १. शोप वर्ष ३७, अंक २, अप्रैल-जून १९८६, रामबल्लभ सोमानी का लेख हरिकलश की तिथि, पृ० ३८ । २. सोमानी, वीरभूमि चित्तौड़, पृ० २७१-२७५ । ३. एसिटारा, पृ० १६ । ४. इए, जि० २०, इण्डियन हिस्टोरिकल क्वाटरली, जि० २६, पृ० २३३ । Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधन स्रोत : ११ * आचार्य भुवनकीर्ति को १४५१ ई० में भट्टारक होना स्वीकार किया गया है, जबकि कई पट्टावलियों में इन्हें भट्टारक होना स्वीकार नहीं किया गया ।" सोमकीर्ति रचित "गुर्वावली" से काष्ठा संघ के इतिहास का बोध होता है । यह कृति साहित्य के इतिहास की दृष्टि से बहुत मूल्यवान है । मूलसंघ पट्टावली से आचार्यों की विभिन्न नगरों में गतिविधियों का भी ज्ञान होता है । क्षेमेन्द्र कीर्ति रचित भट्टारक पट्टावली से भी महत्त्वपूर्ण जानकारी प्राप्त होती है । विविध गच्छों को पट्टावलियों के संग्रह के रूप में चार ग्रन्थ विशेष उल्लेखनीय हैं । प्रथम - मुनि दर्शन विजय द्वारा सम्पादित "पट्टावली समुच्चय", २ भागों में है । इसके प्रथम भाग में कल्पसूत्र, नन्दीसूत्र की स्थविरावलो, तपागच्छ की कई पट्टावलियाँ, उपकेश गच्छीय पट्टावली आदि तथा द्वितीय भाग में कच्छूलीगच्छ, पूर्णिमागच्छ, आगमगच्छ, बृहदगच्छ एवं केवलागच्छ की पद्यबद्ध भाषा पट्टावलियों का संग्रह है । द्वितीय ग्रन्थ---- - मोहन लाल देसाई के "जैन गुर्जर कवियों" के भाग २ व ३ के परिशिष्ट में विभिन्न पट्टावलियों का गुजराती में सारांश है । तृतीय प्रयत्न मुनि जिनविजय का "विविध गच्छीय पट्टावली संग्रह " है । इसमें प्राकृत, संस्कृत, राजस्थानी एवं गुजराती आदि भाषाओं की पट्टावलियों का संग्रह है । चतुर्थं प्रयास जैन इतिहासविद् मुनि कल्याणविजय का "श्री पट्टावली पराग संग्रह " है, जिसमें छोटी-बड़ी ६४ पट्टावलियों का सारांश है । " पट्टावली प्रबंध संग्रह" में लोंकागच्छ की सात पट्टावलियोंपट्टावली प्रबंध, गणी तेजसी कृत पद्य पट्टावली, संक्षिप्त पट्टावली, बालापुर पट्टावली, aster पट्टावली, मोटा पक्ष की पट्टावली और लोंका गच्छीय पट्टावली; तथा स्थानक -- वासी परम्परा की दस पट्टावलियों विनयचन्द कृत पट्टावली, प्राचीन पट्टावली, जीवराज जी की पट्टावली, खंभात पट्टावली, गुजरात पट्टावली, भूधरजी की पट्टावली, मरुधर पट्टावली, मेवाड़ पट्टावली, दरियापुरी संघ पट्टावली और कोटा परम्परा की पट्टावली आदि का संग्रह है । इनमें प्रदत्त सूचनाएँ जैनधर्म के इतिहास निर्माण की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण हैं । पट्टावलियों में दी गई जानकारी पूर्णरूपेण प्रामाणिक व स्पष्ट नहीं कही जा सकती है, फिर भी आलोचनात्मक परीक्षण के उपरान्त ये बहुत उपयोगी. साधन सिद्ध होती हैं । ५. वंशावलियाँ : वंशावलियाँ भी जैन इतिहास को जानने में बहुत उपयोगी सिद्ध हुई हैं । ये जैन समुदाय में उत्पन्न होने वाले प्रसिद्ध व्यक्तियों के जीवन पर तो प्रकाश डालती ही हैं.. १. तारा मंगल - महाराणा कुंभा और उनका काल, पृ० १५१ । २. कासलीवाल - राजस्थान के जैन संत व्यक्तित्व एवं कृतित्व, पृ० ४४ । ३. वही, पृ० ५० ॥ ४. नाहटा, अगरचंद - पट्टावली प्रबंध संग्रह की भूमिका, पृ० ३७ । Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ : मध्यकालीन राजस्थान में जैनधर्म साथ ही विभिन्न जातियों एवं गोत्रों की उत्पत्ति एवं विकास के सम्बन्ध में भी बताती हैं । इनसे राजनीतिक इतिहास का निर्माण करने में भी सहायता मिलती है । राजा मालदेव ने जोधपुर को शेरशाह से तेजागढय्या की सहायता से पुनप्ति किया था, यह तथ्य हमें एक वंशावली से ही ज्ञात होता है । १६वीं से १८वीं शताब्दी की ओसवाल वंशावलियां बीकानेर में अगरचंद नाहटा के संग्रहालय में हैं । ज्ञानसुन्दर के अधिकार में भी वंशावलियों का अच्छा संग्रह था।२ इनसे मंदिरों एवं प्रतिमाओं के निर्माण तथा तीर्थयात्रा के लिये गठित संघों का विवरण भी मिलता है । ६. तीर्थ माला और तीर्थ स्तवन : ये जैन मुनियों द्वारा लिखित एवं संग्रहीत विवरण हैं, जिन्हें वे विभिन्न तीर्थों की चातुर्विध संघ के साथ की गई धर्मयात्राओं के समय अंकित करते थे। कई बार वे अकेले भी यात्रा करते थे। इनमें तीर्थों के नाम, उनका इतिहास, सम्बद्ध चमत्कार, तीर्थ का महत्त्व, मन्दिरों व प्रतिमाओं आदि का वर्णन होता है। १४वीं शताब्दी के आसपास जिनप्रभसूरि रचित "विविधतीर्थकल्प" और सौभाग्यविजय तथा शीलविजय कृत "तीर्थमाला" कुछ जैन सन्तों की जीवन झाँकी प्रस्तुत करने की दृष्टि से भी महत्त्वपूर्ण हैं। इनमें मन्दिरों के निर्माण और प्रतिमाओं की स्थापना का विवरण भी मिलता है। धनपाल विरचित, कविता "सत्यपुरीय महावीर उत्साह" में सांचोर, आहड़, श्रीमाल, कोरटा और नरैणा आदि तीर्थ स्थानों का वर्णन है, जो १०वीं शताब्दी में अस्तित्व में थे। १२वीं शताब्दी के सिद्धर्षि के "सकल तीर्थ स्तवन" में तीर्थ स्थानों की सूची है।४ १४४६ ई० में रचित "उपदेश सप्ततिका" में भी कुछ तीर्थों का वर्णन है।" जिनवर्द्धन सूरि रचित “पूर्व देश तीर्थ माला", सिद्धसेन सूरि का "सकल तीर्थ स्तोत्र", शांतिकुशल विरचित "गौड़ी पाश्वं तीर्थमाला" भी तीर्थों के बारे में महत्त्वपूर्ण जानकारी देती है। धर्मघोष गच्छ के पद्मानंद सूरि के शिष्य हरिकलश ने कई देशों की यात्राएँ की। इनके द्वारा रचित निम्न तीर्थमालाएँ ज्ञात है-कुरुक्षेत्र तीर्थमाला, दक्षिण देश तीर्थमाला, गुर्जर सौरठ-देश तीर्थमाला, दिल्ली मेवाती देश चत्य परिपाटी, बागड़ देश तीर्थमाला, आदीश्वर बीनती, जीरावल्ला बीनती आदि। मध्यकाल में चैत्य १. अने०, भाग २, सं० ६, पृ० २४९ । २. एसिटारा, पृ० १६ । ३. जैसासन, अहमदाबाद, ३ पृ० १ । ४. गाओसि, जि० ७६, पृ० १५६ । ५. एसिटारा, पृ० १३ । । ६. शोप, वर्ष ३७, अंक २, पृ० ३८ । ७. ये ग्रन्थ अभय जैन ग्रन्थ भण्डार बीकानेर में हैं। Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधन स्रोत : १३ यात्रा पर जाने, वहाँ के संख्या भी अंकित की सूरि की " जैसलमेर परिपाटियाँ भी लिखी गईं। इनमें विभिन्न संघों के तीर्थ मन्दिरों, उनके नामों, अवस्थिति, दिशा, यहाँ तक कि मूर्तियों की जाती थी । इनमें नागषि की " जालौर चैत्य परिपाटी", जिनकुशल चैत्य परिपाटी", जयहेमसी की "चित्रकूट परिपाटी, पद्मानंद सूरि की " नागौर चैत्य परिपाटी" व " बदनौर चैत्य परिपाटी" तथा " मेड़तवाल परिपाटी" उल्लेखनीय हैं । " जीरावला, वर्द्धनपुर की चैत्य परिपाटियों से ज्ञात होता है कि ये दोनों स्थान कुंभा के राज्य में थे । कुंभा के समय " पार्श्वनाथ स्तवन" तथा " नाडलाई महावीर स्तवन"" रचे गये, जिनके रचनाकार अज्ञात हैं । कनकसोम के स्तवन से सिरोही में तुरासान खान द्वारा किये गये प्रतिमाओं के विध्वंस की जानकारी मिलती है । विनयप्रभ का "तीर्थयात्रा स्तवन" भी तीर्थों सम्बन्धी तथ्यों पर पर्याप्त प्रकाश डालता है । ७. सनद एवं पत्र : समकालीन इतिहास को जानने के लिये सनद एवं पत्र भी एक विश्वसनीय साधन हैं । मध्यकाल में राजपूताना के शासकों एवं जैन आचार्यों के बीच पत्र-व्यवहार होता था । शासकों ने मन्दिर निर्माण हेतु जैनाचार्यों को भूमि खण्ड आवंटित किये थे तथा पूजा, प्रक्षालन आदि के व्यय के लिये अनुदान इत्यादि भी दिये थे, जिनसे सम्बन्धित सनदें जैन मुनियों के अधिकार में रही हैं । साथ ही जैन राजनीतिज्ञों की सेवा से प्रभावित होकर, विभिन्न रियासतों के शासन प्रमुखों ने उनके धर्म से सम्बन्धित जो अनुदान व रियायतें प्रदान की थीं, उनकी सनदें भी उनके उत्तराधिकारियों के पास सुरक्षित हैं । स्थाई अनुदानों के दानपात्र, ताम्रपत्रों पर भी लिखे होते थे । पहले इनमें संस्कृत भाषा का प्रयोग किया जाता था, किन्तु बाद में स्थानीय भाषा का प्रयोग किया जाने लगा । दानपत्र में राजा का नाम, अनुदान पाने वाले का नाम, कारण, भूमि का विवरण, समय, दानदाता का नाम आदि का उल्लेख होता था । ८. विज्ञप्ति - पत्र : जो सम्प्रदाय विशेष कें व्यतीत करने के लिये ये जैन मुनियों को प्रेषित एक प्रकार के निमन्त्रण पत्र थे, जैन संघों द्वारा मुनियों को आगामी चातुर्मास निश्चित स्थान पर प्रेषित किये जाते थे । संघ के किसी सदस्य के कर्मों व कार्यकलापों के प्रायश्चित हेतु ये आदेश पत्र के रूप में, तथा सम्पूर्ण मानवता के प्रति सद्भावनाएँ सम्प्रेषित करने के लिये भी ये तैयार किये जाते थे । विज्ञप्ति व आदेश पत्रों को स्वतंत्र साहित्यिक रचना के रूप में स्थान नहीं दिया गया है, फिर भी ये पत्र भारतीय साहित्य की अमूल्य निधि १. एसिटारा, पृ० १४ । २ . तारा मंगल - महाराणा कुंभा और उनका काल, पृ० १५० । ४. वही, पृ० १५० । ५. बीजैलेस, पृ० २७ । Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ : मध्यकालीन राजस्थान में जैनधमं हैं । तत्कालीन पत्र साहित्य, संस्कृति और कला के अन्यतम प्रतीक हैं । समसामयिक - महत्त्व की राजनैतिक, सामाजिक और धार्मिक बातों का प्रामाणिक उल्लेख इनमें मिलता है । कतिपय पत्र तो महाकाव्य की संज्ञा से अभिहित किये जा सकते हैं । ये पत्र तत्कालीन परिस्थितियों के अच्छे निदर्शन तो हैं ही, साथ ही भाषा विज्ञान की दृष्टि से भी उपादेय हैं । अन्य कई दृष्टियों से भी ये महत्वपूर्ण हैं । ये सामान्यतया प्रेषक - समुदाय के बारे में सचित्र जानकारी भी देते हैं । स्थानीय इतिहास एवं घटनाओं को जानने के दृष्टिकोण से इनकी महती उपादेयता है । इनमें स्थानीय जनता के व्यापार, वाणिज्य, रोजगार, कला एवं उद्योग धंधों सम्बन्धी सामग्री होने से भी ये लाभकारी हैं । जैन कला के इतिहास की दृष्टि से भी ये अत्यन्त उपयोगी स्रोत हैं । विज्ञप्ति पत्र जैन समाज की सन्तों के प्रति श्रद्धा भावना के द्योतक हैं, तथा तत्कालीन परिस्थितियों पर विशद प्रकाश डालते हैं । इनसे स्थान विशेष की भौगोलिक विशेषताओं का ज्ञान भी प्राप्त होता है । ये मुख्य रूप से जैसलमेर, चित्तौड़, जोधपुर, बीकानेर, उदयपुर, सिरोही जैसे नगरों से प्रेषित किये जाते थे । सचित्र विज्ञप्ति पत्रों की परम्परा १६वीं शताब्दी से विजयसेन सूरि वाले पत्र से प्रारम्भ होती है । 3 अकबर, जहाँगीर एवं शाहजहाँ के समय -इनके निर्माण में शाही चित्रकारों का भी उपयोग किया जाता था । ९. सचित्र हस्तलेख : बीकानेर, जयपुर, नागौर, जैसलमेर आदि के जैन ग्रन्थ भण्डारों में कई सचित्र हस्तलिखित ग्रन्थ संग्रहीत हैं । ये जैन मतावलम्बियों की सुस्संकृत अभिरुचि एवं परिष्कृत - कला ज्ञान का दिग्दर्शन कराते हैं । राजस्थान में चित्रकला की समृद्धि में जैनों का अपरिमित योगदान है । निर्माण तिथि अंकित होने के कारण ये सचित्र ग्रन्थ जैन चित्र - कला एवं प्रकारान्तर से भारतीय चित्रकला का इतिहास उद्घाटित करते हैं, जिसका प्रारम्भ १२वीं शताब्दी की काष्ठ पट्टिकाओं और अलंकृत ताड़पत्रीय प्रतियों से माना जाता है । वस्त्रपट्ट पर तीर्थों का चित्रण करने की परम्परा होने से तत्कालीन तीर्थों की स्थिति भी स्पष्ट होती है । इन चित्रों से जैन-धर्म के सांस्कृतिक स्तर का बोध होने - के साथ-साथ चित्रकला के इतिहास, जैन धर्म का योगदान, कलाकारों के नाम, रंगों का प्रयोग एवं संयोजन आदि तथ्यों का भी ज्ञान होता है । भौगोलिक वस्त्र पट्ट भी विक्रम की १५वीं शताब्दी से बराबर बनते आ रहे हैं, जो जैन भौगोलिक मान्यताओं को जानने के लिये सचित्र एलबम हैं । १. मुहस्मृग, पृ० ८५५ । २. वही, पृ० ८५५ । ३. नाहटा, राजस्थान वैभव पृ० १२ । ४. वही, पृ० १२ । Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधन स्रोत : १५ (स) विदेशियों के कार्य एवं वृतान्त : १०वीं शताब्दी से पूर्व की स्थिति पर प्रकाश डालने वाले यूनानी, चीनी और अरब यात्रियों के वृतान्त हैं, जिनसे पश्चिमी भारत में जैन धर्म की भूमिका की स्वल्प जानकारी मिलती है । मध्यकाल में मुस्लिम व फारसी इतिहासकारों की कृतियों में भी जैन मत का यत्किचित सन्दर्भ है। उत्तर मध्यकाल में व उसके बाद कई विदेशी, विशेषतः यूरोपीय लेखकों ने भारत के धर्म, कला, साहित्य, स्थापत्य, समाज, रीतिरिवाज आदि के बारे में लिखा है, जिससे भी राजस्थान में जैन धर्म की ऐतिहासिकता पर कुछ प्रकाश पड़ता है । कतिपय विदेशी लेखकों ने तो जैन धर्म का अच्छा अध्ययन करके अपना महत्त्वपूर्ण योगदान भी दिया है। जर्मनी के हर्मन जेकोबी, विटरनिट्ज, पिशेल, ग्लाशनेप, शुब्रिग एवं एल्सडोर्फ विशेष रूप से उल्लेखनीय है । फ्रांसीसी विद्वान् गुर्नोट और ओलिविट लेकोम्बे के नाम भी महत्त्वपूर्ण हैं । अंग्रेजी लेखकों में श्रीमती स्टीवेंसन ने भी जैन धर्म का अध्ययन करके महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है। इटली के डॉ० एल० पी० कैसी तोरी राजस्थान और उसके साहित्य के प्रेमी थे। इनकी शोध का विवरण एशियाटिक सोसाइटी ने प्रकाशित किया। राजस्थान के साहित्य व इतिहास के सम्बन्ध में कुछ अंग्रेज अधिकारयों ने भी योगदान दिया जिनमें अलेक्जेण्डर किलोंक, फर्स, कनिंघम, कार्लाइल एवं गैरिक आदि मुख्य हैं । फर्स ने आबू ने कई शिलालेखों की नकले की और देलवाड़ा के दोनों जैन मंदिरों की कारीगरी का वृतान्त लिखा। भारत सरकार के पुरातत्त्व विभाग के तत्कालीन अध्यक्ष, कनिंघम ने राजपूताना के कई शिलालेखों एवं शिल्प आदि पर प्रकाश डाला है । अशोक के काल का बैराठ का लेख, महाराणा कुंभा सम्बन्धी कई तथ्यों तथा कई पुराने सिक्कों को प्रकाश में लाने का श्रेय इनको ही है। कार्लाइल ने भी कई शिलालेखों व सिक्कों का पता लगाया। गैरिक, चित्तौड़ के कीर्ति स्तम्भ को बची हुई दो शिलाओं तथा रावल समरसिंह के समय के १२७३ ई० के चित्तौड़ के शिलालेख का चित्र सर्वप्रथम प्रसिद्धि में लाये । नार्मन, ब्राउन, बिन्सेन्ट स्मिथ, लेपेल ग्रिफिन, मेकडोनेल, जी० एफ० मूर, जे० फर्ग्युसन, डा० गोएट्ज, हॉवेल आदि ने भी अपनी कृतियों में भारतीय जैन धर्म के पहलुओं को उजागर किया है। जर्मनी के डा० बुहलर ने भी इस प्रदेश के ऐतिहासिक शोध कार्य में अपना योगदान दिया । जर्मन विद्वान कीलहॉर्न, अंग्रेज विद्वान पीटर पीसन, डाँ० वेब, डॉ० फ्लीट एवं सेसिल बेडाल नामक विद्वानों ने भी राजस्थान के इतिहास की कई बातों को प्रकाश में लाने का कार्य किया, जिससे मध्यकालीन जैन धर्म की स्थिति पर अच्छा प्रकाश पड़ता है। १. जैसेस्कू पृ० १। २. राभा, अप्रैल १९५० । ३. मुहस्मृग, पृ० ६३०.६४० । Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्याय द्वितीय जैनधर्म की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि जैन धर्म की परम्पराओं, प्राचीन अभिलेखों और साहित्यिक प्रमाणों से ज्ञात होता है कि राजस्थान प्रदेश में जैन धर्म व्यापक रूप से प्रचलित था । ७वीं, ८वीं शताब्दी से, राजपूतों के उत्कर्ष से ही, इस भूप्रदेश में जैन मत बहुत समृद्ध और लोकप्रिय हुआ यद्यपि किसी राजपूत शासन के जैन मतावलम्बी होने का प्रत्यक्ष उल्लेख नहीं है, लेकिन किसी जैन मत विरोधी शासक का उल्लेख भी प्राप्त नहीं होता है । मूलतः शैव या वैष्णव धर्मी होते हुये भी, विभिन्न स्थानीय राजपूत शासक धर्म - सहिष्णु और जैन मत के उदार संरक्षक थे । स्थानीय शासन में जैन मतावलम्बियों को प्रतिष्ठित पद प्राप्त हुये । उनके पादविहार तथा विद्वान जैनाचार्यों के उपदेशों द्वारा, जैन मत निरंतर प्रचारित, प्रसारित होता रहा । पदाधिकारियों, व्यापारियों तथा धर्माचार्यों के प्रभाव से राजकीय समर्थन पाकर अनेकों मंदिर निर्मित हुये, असंख्य मूर्तियों के प्रतिष्ठा महोत्सव सम्पन्न हुये तथा विभिन्न भाषाओं में विपुल साहित्य , सृजित हुआ । पुष्टि होती है कि ११वीं अभिलेखीय एवं साहित्यिक प्रमाणों से इस तथ्य की शताब्दी के पश्चात् से सतत हिंसा, युद्ध, लूटपाट, आदि के बावजूद भी अहिंसक जैन धर्म इस प्रदेश में निरन्तर शान्ति की वृष्टि करता रहा और विद्वान जैनाचार्य अपने धर्मोपदेशों से जन-जीवन के नैतिक और आध्यात्मिक उन्नयन में लगे रहे। अनेक नई जैन जातियाँ एवं गोत्र निर्मित हुये । जैन संघ भी मध्यकाल में अलगाव की भावना से ग्रस्त होकर कई खण्डों में विभक्त हो गये, किन्तु इस टूटन से जैन धर्म के मतानुयायियों की संख्या में कमी नहीं हुई, अपितु जैन धर्म को जीवंत बनाये रखने की प्रतिस्पर्धा स्वरूप, अनेक नये मन्दिर निर्मित हुये, आचार्यों से मूर्तियाँ प्रतिष्ठित करवायी गई तथा महत्त्वपूर्ण ग्रन्थों की प्रतिलिपियाँ मुनियों को भेंट स्वरूप दी गई। जैनाचार्यों के प्रयासों से ग्रन्थ भण्डार अस्तित्व में आये, जिनमें अमूल्य साहित्य को सुरक्षित रखने के लिये, भारतीय संस्कृति, सदैव जैन धर्म के आचार्यों एवं श्रावकों को ऋणी रहेगी। जैनाचार्यों, जैन राजनीतिज्ञों एवं जैन श्रेष्ठी वर्ग के प्रभाव से राजपूत शासक ही नहीं, अपितु कति - पय मुगल शासक, जैसे अकबर, जहाँगीर आदि भी इस धर्म के प्रति सहिष्णु रहे और समय-समय पर जैनाचार्यों को सम्मान देते रहे । (अ) पूर्व मध्यकाल : राजस्थान के प्रारम्भिक राजपूत वंशों में मारवाड़ के प्रतिहार, मेवाड़ के गुहिल, शाकम्भरी के चौहान, भीनमाल तथा आबू के चावड़ा, सिरोही, जालौर मालवा क Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि : १७ वागड़ के परमार, जैसलमेर के भाटी, पूर्वी राजस्थान के शूरसेन, नागवंश, तंवर वंश, गौड़ वंश आदि थे। धर्म के सम्बन्ध में, इस समय के शासकों को "धर्म प्रतिपाल", "धर्म परायण" आदि कहा गया है । पूर्व मध्यकाल में, राजस्थान में दिगम्बर एवं श्वेताम्बर दोनों सम्प्रदाय लोकप्रिय थे । बयाना से प्राप्त १०४३ ई० के एक अभिलेख में, श्वेताम्बर आचार्य माहेश्वर सूरि का उल्लेख है। चित्तौड़ से प्राप्त ११५० ई० के एक अभिलेख में, दिगम्बर सम्प्रदाय के जयकीर्ति के शिष्य रामकीति का उल्लेख है। इस काल में अनेक अन्य गच्छों की स्थापना हुई और कई नगर जैन धर्म के केन्द्र बने । चातुर्मास में सभाओं एवं गोष्ठियों के आयोजन से धार्मिक वातावरण की संरचना हुई। जैनाचार्य हरिभद्र सूरि के प्रयासों से, चित्तौड़ जैन धर्म का मुख्य केन्द्र बन गया था। इन्होंने "अनेकांत जयपताका", "धर्मबिन्दु" आदि ग्रन्थों की रचना कर, जैन सिद्धान्तों को लोकप्रिय बनाने का प्रयास किया। इसके बाद उद्योतन सूरि, सिद्धर्षि आदि जैनाचार्यों ने भी जैन मत का बहुविध प्रचार किया। १. प्रतिहारों के अन्तर्गत जैन धर्म : ७वीं शताब्दी से ही पश्चिमी राजस्थान में प्रतिहारों के शक्ति सम्पन्न हो जाने और धर्म, कला, साहित्य के प्रति इनकी अत्यधिक उदारता के कारण, जैन धर्म की बहुविध प्रगति हुई। जालौर, उज्जैन व कन्नौज से सम्बन्धित प्रतिहारों की शाखा में, नागभट्ट प्रथम का जैन साधु यक्षदेव से प्रगाढ़ सम्बन्ध था। इस वंश के चौथे प्रतिहार शासक वत्सराज के समय में ओसिया का महावीर स्वामी मंदिर अस्तित्व में था । ९५६ ई० के ओसिया के लेख में, वत्सराज के पुर में वैश्य समाज का होना वणित है। इसके समय में, ७७८ ई० में जालौर में "कुवलयमाला" तथा ७८३ ई० में आचार्य जिनसेन ने "हरिवंश पुराण" की रचना की, जो उस समय की धार्मिक, राजनीतिक व सामाजिक स्थिति पर अच्छा प्रकाश डालते हैं । ७९४ ई० में वत्सराज की मृत्यु के उपरान्त नागभट्ट द्वितीय शासक हुआ, जिसका जन प्रसिद्ध नाम "आम" था। चन्द्रप्रभसूरि रचित "प्रभावक चरित्र" के अनुसार, आम या नागवलोक एक ही शासक था, जिसने वैश्य की पुत्री से विवाह किया था, जिसके वंशजों में से ही एक १. इए, १४, पृ० ८-१० । २. एइ, २, पृ० ४२१-४२४ । ३. राथ ए, पृ० ४२० । ४. आसइएरि, १९०८-०९, पृ० १०८ । ५. नाजैलेस, भाग १, क्र० ७८८ । ६. राथू ए, पृ० १२४-१३४ । Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ : मध्यकालीन राजस्थान में जैनधर्म जैन वंशज कर्माशाह ने १५३० ई० में शत्रुञ्जय तीर्थ को स्थापना की थी।' नागभट्ट जैनाचार्य बप्पसूरि का बहुत सम्मान करता था। उनके उपदेशों से उसने कई स्थानों पर जिन मंदिर बनवाये । लगभग ८४० ई० में मिहिर भोज शासक बना, जिसने बप्पसूरि के शिष्यों नन्न्सूरि और गोविन्दसूरि के सशक्त व्यक्तित्व के प्रभाव से जैन धर्म को संरक्षण दिया। मंडोर के प्रतिहार शासकों में कक्कुक, संस्कृत का बहुत विद्वान्, पराक्रर्मा एवं जैन मत का संरक्षक शासक था। ८६१ ई० के घटियाला अभिलेख से स्पष्ट है कि उसने रोहिंसकूप एवं मण्डोर में दो कीर्ति-स्तम्भ बनवाये थे । राजोगढ़ के प्रतिहार शासकों ने भी जैन धर्म को संरक्षण प्रदान किया। अलवर क्षेत्र में, राजोगढ़ से प्राप्त ९२३ ई० की सागरनन्दि और लोकदेव द्वारा रचित प्रशस्ति में उल्लेख है कि पुलीन्द राजा के आग्रह से, धर्कट वंश के शिल्पकार सर्वदेव ने, राजोगढ़ में शांतिनाथ मन्दिर व शांतिनाथ की प्रसिद्ध नौगजा प्रतिमा का निर्माण किया था। इस प्रशस्ति में राजा सावट का भी उल्लेख है । ९६० ई० के, यहीं से प्राप्त एक अन्य लेख में, राज्यपुर (राजोगढ़) पर, प्रतिहास गुर्जर सावट के पुत्र महाराजाधिराज मथनदेव के शासन होने का उल्लेख है, जो महीपाल का सामंत था । २. चौहानों के अन्तर्गत जैन धर्म : जैन धर्म को चौहान शासकों का भी संरक्षण प्राप्त हुआ। ११०५ ई० में, पृथ्वीराज प्रथम ने, अपने शासनकाल में, रणथम्भौर दुर्ग स्थित जैन मंदिरों पर स्वर्ण कलश बनवा कर चढ़ाये थे। इस उल्लेख से उनकी जैन धर्म के प्रति उदारता ही नहीं, अपितु रणथम्भौर पर आधिपत्य भी सिद्ध होता है। इनका पुत्र एवं उत्तराधिकारी अजयराज, परम शिव भक्त होते हुये भी जैन धर्म के प्रति अत्यधिक सहिष्णु रहा । उसने नवस्थापित अजमेर नगर में जैन मंदिर निर्माण हेतु स्वीकृति प्रदान की', एवं पार्श्वनाथ मंदिर के निमित्त एक स्वर्ण कलश भेंट किया । उसने श्वेताम्बर आचार्य धर्मघोष सूरि एवं दिगम्बर १. प्राजलेस, भाग २, क्र० १२ । २. राष ए, पृ० ४१६ । ३. द हिस्ट्री ऑफ इंडिया एज टोल्ड बाई इट्स ओन पीपुल, भाग १, पृ० ३१६ । ४. जैशिस, क्र. १५, पृ० १८ । ५. एइ, ३, पृ० २६६ । ६. एरिराम्यूअ, १९३४, क्र० ४। ७. कैटेलॉग ऑफ यैन्युस्क्रिप्ट्स इन द पट्टन भण्डासं, पृ० ३१६ । ८. जनमन, वर्ष १, अंक १, पृ० ४ । Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनधर्मं की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि : १९ मुनि गुणचन्द्र के मध्य शास्त्रार्थ में निर्णायक का भी कार्य किया था ।" इसके उत्तराधिकारी अर्णोराज अथवा आन्हलदेव की खरतरगच्छीय जिनदत्त सूरि के प्रति अगाध श्रद्धा थी, जो ११३३ ई० के पूर्व सिंहासनारूढ़ हो चुका था । उनके उपदेश से उसने जैन मंदिर बनवाने हेतु एक उचित स्थान भी प्रदान किया था । जिनदत्तसूरि की मृत्यु १९५४ ई०, अजमेर में हुई एवं उनका निर्वाण स्थल “दादाबाड़ी" के नाम से जाना जाने लगा। इसके पश्चात् राजस्थान के विभिन्न भागों में कई स्थानों पर इनकी स्मृति में दादाबाड़ियों का निर्माण हुआ । आन्हलदेव (अर्णोराज) ने, संडेरक गच्छ के नाडोल स्थित, महावीर मंदिर की पूजा के निमित्त धूप-दीप की व्यवस्था हेतु मण्डपिका की आय में से प्रतिमाह ५ भ्रम देने की घोषणा की थी । ३ ११५२ ई० में अर्णोराज का उत्तराधिकारी बीसलदेव विग्रहराज हुआ। इसने भी जैन धर्म को अपने पूर्वजों की भाँति उचित प्रश्रय दिया । उसने जैनियों के लिये बिहार बनवाये तथा धर्मघोष सूरि आदि जैनाचार्यों के आग्रह पर एकादशी के दिन जानवरों के वध पर रोक लगा दी । नाडौल से प्राप्त ११५६ ई० के ताम्रपत्र से ज्ञात होता है कि तीन जैन मंदिरों के निर्वाह के लिये, बादरी नगर की मण्डपिका से प्रतिदिन एक रूपक का दान दिया जाता था । ५ इसके बाद अपरगाग्य एवं फिर पृथ्वीराज द्वितीय क्रमशः शासक बने । ११६९ ई० के बिजौलिया अभिलेख से ज्ञात होता है कि पृथ्वीराज द्वितीय ने बिजौलिया के पार्श्वनाथ मंदिर के निमित्त, मौरकुरी नामक गाँव दान में दिया था । पृथ्वीराज द्वितीय का उत्तराधिकारी, उसका चाचा सोमेश्वर हुआ, जो अर्णोराज का पुत्र था, उसने स्वर्गं प्राप्ति की इच्छा से रेवा नदी के तट पर स्थित पार्श्वनाथ मंदिर को रेवाना ग्राम की सम्पूर्ण आय दान की थी। अपनी व्यक्तिगत शूरवीरता से, वह "प्रताप लंकेश्वर" नाम से भी प्रसिद्ध है । सोमेश्वर का उत्तराधिकारी, १९७९ ई० में पृथ्वीराज तृतीय हुआ । वह धार्मिक वाक्युद्धों को पसन्द करता था । उसके दरबार में १९८२ ई० में जिनपति सूरि और उपकेशगच्छीय चैत्यवासी पद्मप्रभु के मध्य एक वाद-विवाद का आयोजन हुआ जिसमें जिनपति सूरि विजयी रहे ।" जैन ग्रन्थों से ज्ञात होता है कि इनके एक मन्त्री था, १. कैटेलॉग ऑफ मेनु० इन द पट्टन भण्डार्स, पृ० ३१६ । २. खबृगु, पु० १६ । ३. एइ, ११, पृ० ४७ । ४. कैटेलॉग ऑफ द मेनु० इन द पट्टन भण्डार्स, पृ० ३७० । ५. इए, ४१, पृ० २०२ । ६. इए, ३१, पृ० १९ । ७. एइ, २४, पृ० ८४ । ८. खबुगु, पृ० २५-३३ । Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० : मध्यकालीन राजस्थान में जैनधमं रामदेव ने जैन संघ के संचालकों को एक सन्देश प्रसारित कर अनुरोध किया था कि वे जैन मूर्तियों को रेत के टीले में छिपाकर रखें, ताकि धर्मान्ध व्यक्तियों से उनकी रक्षा हो सके । चौहानों की एक शाखा ने नाडौल में ९६० ई० से १२५२ ई० तक था। चौहान अश्वराज, सोलंकी शासक कुमारपाल के अधीनस्थ था । स्वीकार कर लिया था और उसे संरक्षण प्रदान किया था । इसने अपने पालन के लिए कुछ निश्चित दिनों पर जीव हिंसा का निषेध घोषित कर रखा था । राज्य में अहिंसा अश्वराज ने अपने पुत्र कटुकराज को सेवाड़ी ग्राम जागीर के रूप में दिया, जहाँ का महावीर का जिन मंदिर ख्याति प्राप्त था । सेवाड़ी से प्राप्त १११० ई० के शिलालेख में, अश्वराज के राज्यकाल में प्रदत्त दान का विवरण है। इस अनुदान के अनुसार पद्राड़ा, मेंद्रचा, छेछड़िया एवं मेंद्दडी गाँव के प्रत्येक कुएँ वाले किसान को एक हारक यव (जौ) धर्मनाथ देव की दैनिक पूजा-अर्चना हेतु, महास्थानीय उप्पलराक द्वारा समीपाटी - मंदिर में देने का आदेश था । १११५ ई० में अंकित दूसरे शिलालेख में वर्णित है कि कटुकराज ने ८ द्रम वार्षिक का अनुदान थल्लक को दिया था, ताकि वह शिवरात्रि के दिन खत्तक में प्रतिष्ठित शांतिनाथ की पूजा कर सके । २ ११३० ई० के, नाडलाई के महावीर मंदिर के लेख के अनुसार, मोरकरा गाँव से घाणक तेल से चौहान पत्रा के पुत्र बिनसरा ने कलश के नाप का तेल अनुदान में दिया। चौहान राजा रायपाल भी जैन धर्म का महान् संरक्षक था । ११३२ ई० के नाडलाई शिलालेख से, रायपाल के दोनों पुत्रों, रुद्रपाल एवं अमृतपाल तथा उनकी माता, रानी मानलदेवी के द्वारा नाडलाई के बाहर के जैन सन्तों को, प्रति घाणी दो पल्लिका तेल अनुदान के रूप में दिये जाने का उल्लेख है । इसकी साक्षी में कुछ व्यक्तियों के नाम भी दिये हुये हैं तथा दान की अवहेलना करने वाले के लिये, एक हजार गाय तथा ब्रह्म हत्या पाप बताया गया है । * ११३८ ई० में, रायपाल के राज्यकाल के, नाडलाई से ही प्राप्त एक अन्य अभिलेख में, गुहिलवंशीय उद्धरण के पुत्र ठक्कुर राजदेव द्वारा नेमिनाथ की पूजा के निमित्त, नाडलाई में आने-जाने वाले लदे हुये वृषभों पर लिये जाने वाले कर का दशमांश प्रदान करने का उल्लेख है ।" ११४३ ई० का, नाडलाई के आदिनाथ मंदिर का लेख, यहाँ शासन किया इसने जैन धर्म १. कनयनयनिय महावीर प्रतिमा कल्प, सोमाणी - पृथ्वीराज चौहान ऐंड हिज टाइम्स, पृ० ८९ । २. एइ, ११, पृ० ३०-३२ । ३. नाजैलेस, १, क्र० ८४२, पृ० २१२ । ४. एइ, ११, पृ० ३४-३५ । ५. वही, पृ० ३७-४१ । Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनधर्म की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि : २१ सम्पन्न हुए उत्सव में रायपाल की उपस्थिति का वर्णन करता है, जिसके अनुसार राउल राजदेव ने उस समय अपनी माता के कल्याण तथा धर्म के निमित्त एक विंशोपक व दो पल्लिका तेल प्रदान किया तथा इस परम्परा को तोड़ने वाले को स्त्री हत्या व भ्रूण हत्या के पाप का भागी बताया। महाराजा रायपाल के ही शासनकाल के, ११४५ ई० के, नाडलाई के आदिनाथ मंदिर के शिलालेख में, ठाकुर रावत राजदेव के द्वारा महावीर चैत्य के साधुओं के निमित्त दान की व्यवस्था का उल्लेख है। किराडू के अभिलेख से पता चलता है कि सोलंकी कुमारपाल के सामंत, महाराजा आन्हलदेव ने ११५२ ई० में, अपने स्वामी के अनुग्रह से किरातकूप, लातरहद और शिवा गांव जागीर में प्राप्त किये। यह भी जैन धर्म के प्रति सहिष्णु था एवं अगाष श्रद्धा भी रखता था। एतदर्थ, उसने उक्त गांव में महाजनों तथा ताम्बूलिकों के सन्तोष तथा स्वयं के आध्यात्मिक उन्नयन के लिये, प्रतिमास अष्टमी, एकादशी एवं चतुर्दशी को पशु हिंसा का निषेध कर दिया था तथा इसका उल्लंघन कर, पशु वध करने या पशु हिंसा का कारण बनने वाले के लिये उसने गम्भीर दण्ड का प्रावधान घोषित कर दिया था। अहिंसा के इस आदेश का सम्मान और पालन करने के लिये ब्राह्मण, पुरोहित और मन्त्री भी प्रतिबद्ध थे। यदि इनमें से कोई अपराध करता है तो उसके ऊपर पांच द्रम का जुर्माना तथा यदि अपराधी राजा के निकट सम्पर्क का है तो उस पर एक द्रम जुर्माने का प्रावधान निश्चित किया गया था। अल्हण एवं केल्हण के नाडौल दान पत्र से विदित होता है कि उन्होंने राजपुत्र कीर्तिपाल को बारह गांव दिये थे तथा ११६० ई० में, नाडलाई में, सूर्य एवं माहेश्वर की आराधना कर, स्नानोपरान्त, कीर्तिपाल ने बारह गांवों में से प्रत्येक ग्राम की ओर से नाडलाई के महावीर मन्दिर हेतु, दो द्रम वार्षिक दान की घोषणा अंकित करवाई थी। ११७१ ई० के नाडोल अनुदान में विवरण मिलता है कि महाराजा अल्हणदेव ने, सूर्य एवं ईशान की पूजा करके तथा ब्राह्मण, गुरुओं को उपहार भेंट करके तदनन्तर, नागौर के संडेरक गच्छ के महावीर जैन मन्दिर को, नाडोल तलपट की शुल्क मंडपिका से पांच द्रम की राशि प्रतिमाह अनुदान के रूप में देने की घोषणा की थी। अल्हण के उत्तराधिकारी एवं पुत्र कल्हणदेव ने भी जैन धर्म के विकास में योगदान दिया था। सांडेराव के महावीर देवालय के ११६४ ई० के लेख से ज्ञात होता है कि कल्हणदेव की रानी आनल ने, मन्दिर के भोग के लिये एक हाएल का अनुदान दिया था।" ११६४ ई० का सांडेराव शिलालेख बताता १. एइ, ९, पृ०६३-६६ । २. एइ, ९, पृ० १५९ । ३. एइ, ११, पृ० ४३-४६ । ४. एइ, ९, पृ० ६६-७० । ५. नाजैलेस, भाग १, क्र० ८८३, पृ० २२९ । Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२: मध्यकालीन राजस्थान में जैनधर्म है कि कल्हणदेव की माता ने, महावीर मन्दिर के चैत्य में होने वाले कल्याणिक उत्सव के निमित्त, राजकीय भोज से एक हाएल ज्वार प्रदान की । इसके अतिरिक्त राष्ट्रकूट पान, कल्हण व उनके भतीजों-उत्तमसिंह, सद्रक, काल्हण आहड़, आसल, अणतिग आदि ने इसी निमित्त, तलारख की आय से एक द्रम दान दिया। इसी उत्सव के लिये रथकार धनपाल, सूरजपाल, जीपाल, सींगडा, अमियपाल, जिसहड़, दोल्हण आदि ने भी ज्वार का एक हाएल अर्पित किया।' कल्हण देव के शासनकाल के ११७६ ई० के लालराई के एक जैन मन्दिर के १८ पंक्तियों के लेख से ज्ञात होता है कि राजपुत्र लखनपाल व अभयपाल तथा रानी महादेवी ने, ग्राम पंचों के समक्ष, शान्तिनाथ की रथयात्रा के उत्सव के निमित्त, भादियात्र व ग्राम के पुरहारि रहट से गुजराती नाप के एक हारक यव प्रदान किये। लालराई के शान्तिनाथ के मन्दिर के ११७६ ई० के शिलालेख से विदित होता है कि नाणक ग्राम के स्वामी, राजपुत्र लखनपाल एवं अभयपाल के अधीनस्थ कृषक भींवड़ा, आशाधर व अन्यों ने, तीर्थंकर शान्तिनाथ से सम्बद्ध गुर्जरों के उत्सवों के लिये, ४ सेर जो अपने खेत खाडिसिरा से आत्म कल्याणार्थ भेंट किया था । ११७६ ई० के नाडौल के लेख के अनुसार, कल्हण के राज्य में, नाणक भौक्ता, राजपुत्र लखन आदि परिवार के द्वारा, प्रत्येक रहँट से पैदावार का कुछ भाग शान्तिनाथ की यात्रा के निमित्त, ग्राम के पंचकुल के सम्मुख अनुदान दिया गया।४ ११७९ ई० के, सांडेराव के पार्श्वनाथ मन्दिर के लेख में, कल्हणदेव की रानी जाल्हण देवी के द्वारा अपना घर पार्श्वनाथ को भेंट में देने का उल्लेख है।" ___कीर्तिपाल ने चौहानों की राजधानी नाडौल से जाबालिपुर (जालौर) स्थानान्तरित की, जहाँ से भी जैन धर्म के उत्थान के अनेक उल्लेख प्राप्त होते हैं । सत्ता में आने से पूर्व भी इसने जैन मन्दिरों को नियमित अनुदान दिये थे। महाराजा अल्हण के पौत्र एवं कीर्तिपाल के पुत्र, महाराजा समरसिंह के राज्यकाल के, ११८२ ई० के जालौर शिलालेख के अनुसार, श्रीमाल परिवार के सेठ यशोवीर ने, अपने भाई एवं गोष्ठी के समस्त सदस्यों के साथ एक मण्डप निर्मित करवाया था। यशोवीर समरसिंह के उत्तराधिकारी उदयसिंह का मन्त्री बना। चौहान महाराजा समरसिंह के आदेश से, १. एइ, ११, पृ० ४६-४७ । २. एइ, ११, पृ० ४९-५० । ३. वही, पृ० ५०-५१ । ४. नाजैलेस, १, क्र० ८९२, पृ० २३१ । ५. एइ, ११, पृ. ५१-५२ । ६. वही, पृ० ५२-५४ । . Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनधर्म की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि : २३ भण्डारी यशोवीर ने, कुमारपाल द्वारा निर्मित पार्श्वनाथ मन्दिर का पुनरुद्धार १९८५ ई० में जालौर में करवाया था । " ओसिया से प्राप्त ११८८ ई० के लेख के अनुसार यशोधरा नामक महिला ने महावीर की रथशाला के निमित्त अपना घर भेंट में दिया । 1 इस प्रकार चौहानों के उदार राज्यकाल में पूर्व मध्यकालीन राजस्थान के मारवाड़, अजमेर, बिजौलिया एवं साँभर के क्षेत्रों में जैन धर्म का उत्कर्ष और प्रसार हुआ था। चौहान शासकों ने जैनेतर धर्म के अनुयायी होने पर भी वे सहिष्णुता वश जैन तीर्थंकरों की भी अर्चना करते रहे तथा जैन मतावलम्बियों के उत्सवों में भाग लेकर जैन प्रजा के प्रति सौहार्द्र का परिचय देते रहे । (३) चावड़ा तथा सोलंकी राजवंश के अन्तर्गत जैन धर्म : चावड़ा तथा सोलंकी शासकों ने भी जैन मत को संरक्षण प्रदान किया । इन राजवंशों के काल में जैन धर्म का अत्यधिक प्रचार हुआ । यद्यपि, ये शासक मूलतः शाक्त थे, किन्तु जैनाचार्यों के प्रति अत्यधिक आदर व सहिष्णुता का भाव रखते थे । कतिपय शासकों ने स्वयं जैन धर्म के प्रचार में सक्रिय सहयोग दिया। प्रसिद्ध जैनाचार्य हेमचन्द्र के चरित्र, पांडित्य एवं प्रभाव के कारण जैन मत का गुजरात व राजस्थान में अत्यधिक प्रसार हुआ था । विद्वत्ता एवं जीवन में शुचिता की दृष्टि से हेमचन्द्र को शंकराचार्य के तुल्य माना जा सकता है । अन्हिलवाड़ा के संस्थापक, वनराज ने चावड़ा वंश की स्थापना की थी । वनराज ने शीलगुण सूरि को अपनी राजधानी में आमंत्रित किया तथा अपना सम्पूर्ण राज्य वैभव सूरि जी के श्रीचरणों में अर्पित करने की तत्परता व्यक्त की । शीलगुण सूरि के प्रति अत्यधिक श्रद्धा का कारण यह भी बताया गया कि वनराज बाल्यावस्था में जंगल में पालने में सोया हुआ था, तब सूरि जी ने उसके शारीरिक लक्षणों को देखकर, उसके राजा होने की भविष्यवाणी की थी । निःस्वार्थ, त्यागी और तपस्वी सूरि जी ने दान के इस प्रस्ताव को स्वीकार नहीं किया, किन्तु सूरिजी के आदेशानुसार वनराज ने अहिलपुर पाटन में पंचासर नामक मन्दिर का निर्माण करवाकर पार्श्वनाथ की प्रतिमा प्रतिष्ठित की थी । वनराज ने अपनी राजधानी में बसने के लिये श्रीमाल तथा मरुधर देश के अन्य स्थानों के जैन व्यापारियों को भी निमंत्रित किया था । अन्तिम वंशज से लगभग ९४२ ई० में मूलराज सोलंकी ने मूलराज शक्तिशाली शासक था, जिसके राज्य में सारस्वत, " वनराज चावड़ा के सत्ता हस्तगत कर ली । १. प्रोरिआसवेस, १९०८-०९, पृ० ५५ । २. नाजैलेस, १, क्र० ८०६, पृ० ९८ । ३. प्रबन्धचिन्तामणि, वनराज प्रबन्ध, पू० १५ । Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ : मध्यकालीन राजस्थान में जैनधर्म सत्यपुरमंडल, कच्छ एवं सौराष्ट्र के भाग सम्मिलित थे । यह जैन मत का महान् संरक्षक था तथा इसने “मूलराज वसहिका' नामक जैन मन्दिर निर्मित करवाया था।' सिद्धराज जयसिंह एवं कुमारपाल के जैन धर्म के प्रति अनुराग एवं उदात्त विचारधारा के कारण, जैन मत का उत्थान एवं प्रसार अधिक तेज हुआ। जयसिंह यद्यपि शैव था, तथापि जैन धर्म के प्रति उसकी उदारता प्रशंसनीय थी। जयसिंह के दरबार में दिगम्बर आचार्य कुमुदचन्द्र और श्वेताम्बर आचार्य देव सूरि के मध्य, ११२५ ई० में वाद-विवाद हुआ था, जिसे सुनने के लिये सम्पूर्ण राज्य के जैन धर्मावलम्बी एकत्रित हुये थे। जयसिंह विद्वानों का आश्रयदाता भी था । तत्कालीन उद्भट आचार्य हेमचन्द्र भी इसके दरबार में आते रहते थे। जयसिंह का उत्तराधिकारी, कुमारपाल, हेमचन्द्राचार्य के प्रभाव के कारण जैन धर्मानुयायी हो गया था। कुमारपाल ने जैन धर्म के प्रचार के लिये कई उपाय किये तथा अपने राज्य को एक आदर्श जैन राज्य के रूप में संस्थापित करने का प्रयास किया। जैन मतानुसार त्याज्य विलासप्रिय वस्तुओं को, न केवल स्वयं ने त्यागा, अपितु अपनी प्रजा को भी तदनुरूप आचरण करने का परामर्श दिया । उसने अपने राज्य में जीव वध पर पाबन्दी लगा दी तथा इसका कठोरता पूर्वक पालन भी करवाया। "द्वयाश्रय" काव्य के अनुसार, पाली देश के ब्राह्मणों को, यज्ञ में पशु बलि के स्थान पर अन्न का उपयोग करना होता था। मेरुतुग के अनुसार, सपादलक्ष के एक साधारण व्यापारी को एक मूषक को मारने के दण्ड स्वरूप अपनी समस्त सम्पत्ति यूक बिहार बनवाने में खर्च करनी पड़ी थी । यद्यपि यह विवरण अतिरंजनापूर्ण है, किन्तु इससे यह अवश्य सिद्ध होता है कि कुमारपाल अहिंसा के अनुपालनार्थ कटिबद्ध था। ___ कुमारपाल विद्यानुरागी और विद्वानों का आश्रयदाता भी था। उसने अपने राज्य में विभिन्न स्थानों पर शास्त्र भण्डारों की स्थापना की थी। क वह इतना धर्मानुप्राणित था कि मेरुतुग के अनुसार, उसने १४४० मन्दिर निर्मित करवाये थे। सम्भव है कि इस संख्या में लेखक अतिरंजना का समावेश कर बैठा हो, किन्तु उसके द्वारा बड़ी संख्या में मन्दिर निर्मित करवाना असंदिग्ध ही है। ११३४ ई० के अभिलेख से विदित होता है कि उसने जालौर में भी एक मन्दिर का निर्माण करवाया था।" कुमारपाल को मृत्यु १. प्रबन्धचिन्तामणि, मूलराज प्रबन्ध, पृ० २२ । २. प्रभावकचरित्र, पृ० १७१-१८२, प्रबन्ध चिन्तामणि, पृ० ७८-८२ । ३. प्रबन्ध चिन्तामणि, पृ० ११० । ३.क प्रभावक चरित्र, पृ० ९२ । ४. प्रबन्ध चिन्तामणि, पृ० ११५ । ५. प्रोरिआसवेस, १९०८-०९, पृ० ५५ । Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनधर्म की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि : २५ के पश्चात राजनीतिक अस्थिरता के कारण, जैनधर्म की सतत प्रगति कुछ अवरुद्ध अवश्य हुई, किन्तु जैनाचार्यों एवं जैन राजनयिकों के प्रभाव से जैनमत निरन्तर 'विकासोन्मुख रहा। जैन धर्म ने विमल, वस्तुपाल एवं तेजपाल जैसे महान मंत्रियों के नेतृत्व में अत्यधिक उन्नति की। ये महान् श्रावक अपने धर्म के प्रसारार्थ हमेशा तत्पर एवं उत्साही रहे । चालुक्य शासक भीम प्रथम ने विमल को अपना प्रान्तीय शासक नियुक्त किया था। इसने भीम एवं धंधुक के मध्य मैत्री स्थापित करवाई तथा धंधुक के आदेश से १०३२ ई० में आबू में आदिनाथ के एक सुन्दर, भव्य एवं विशाल मन्दिर का निर्माण करवाया। वस्तुपाल एवं तेजपाल पहले भीम द्वितीय के मंत्री थे, जिन्हें भीम ने वीरधवल के अनुरोध पर मैत्रीवश बाघेला राज्य की सेवार्थ भेज दिया था, अतः बाद में ये वीरधवल के मन्त्री रहे । सोमसिंह के शासनकाल में, वस्तुपाल के अनुज तेजपाल ने, १२३० ई० में अपने पुत्र लूणसिंह को स्मृति में, लूण वसहि नामक नेमिनाथ मन्दिर निर्मित करवाया। इस मन्दिर की पूजा के निमित समरसिंह ने सिरोही राज्य का दबाणी गाँव दान में दिया था। (४) परमार राजवंश के अन्तर्गत जैनधर्म : परमार शासकों ने भी जैन धर्म की उन्नति में अत्यधिक योगदान दिया था। “९५३ ई० में, ऋषभ जिन मन्दिर की प्रतिष्ठा करवाने वाले सर्वदेव सूरि ने चन्द्रावती के कुंकण नाम के मंत्री को दीक्षा प्रदान की थी और इस कुंकण ने चन्द्रावती में एक जैन मन्दिर बनवाया था। सिरोही राज्य के दियाणा ग्राम के जैन मन्दिर में, विष्टित परिवार के वर्तमान द्वारा महावीर की मूर्ति प्रतिष्ठित करने का विवरण है। ऐतिहासिक दृष्टि से दियाणा का यह जैन शिलालेख, कृष्णराज परमार का समय निश्चित करने की दृष्टि से अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है । कृष्णराज, आबु के परमार राजवंश में उत्पलराज का पौत्र एवं अरण्यराज का पुत्र था। आबू के परमार शासकों से सम्बन्धित यह प्राचीनतम अभिलेख है। झाड़ोली के महावीर जैन मन्दिर के ११९७ ई० के शिलालेख से ज्ञात होता है कि परमार राजा धारावर्ष की रानी शृङ्गार देवी ने मन्दिर निर्माण हेतु भूमि दान की १. राजपूताना का इतिहास, पृ० २०० । २. गुर्वावली, श्लोक सं० ५७-५८, पृ०६। ३. अप्रजैलेस, क्र० ४८६ । ४. वही, क्र० ३११ । Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ : मध्यकालीन राजस्थान में जैनधर्म थी । कासिन्द्रा के जैन मन्दिर के १०३४ ई० के लेख में भीनमाल की समृद्धि और प्राग्वाट वैश्यों के बाहुल्य का उल्लेख है ।' अथूणा के जैन मन्दिर को ११०९ ई० को प्रशस्ति से ज्ञात होता है कि इस समय वागड़ क्षेत्र परमारों के अन्तर्गत था। इस प्रशस्ति में मंडलीक, चामुण्डराज व उसके पुत्र विजयराज का अंकन है। इसी प्रकार ९९४ ई० के राजपूताना म्यूजियम के एक मूर्ति लेख में "जयति श्री वागट संघः" उल्लिखित है, अर्थात् १०वीं शताब्दी में वागड़ क्षेत्र में जैन मत का अत्यधिक प्रचार था। __धार (मालवा) के परमार शासकों ने भी जैनधर्म के प्रति सहिष्णु दृष्टिकोण अपनाया । राजस्थान के बहुत से क्षेत्र-मेवाड़, सिरोही, कोटा और झालावाड़ इनके शासनान्तर्गत थे। इन प्रदेशों में जैनधर्म की लोकप्रियता का ज्ञान, विस्तृत भग्नावशेषों से होता है। धार का परमार शासक नरवर्मन, शैव मतावलम्बी होते हुए भी, आचार्य जिनवल्लभ सूरि के कारण जैनधर्म के प्रति अत्यन्त श्रद्धालु था। खरतरगच्छ की परम्परा से ज्ञात होता है कि नरवर्मन के दरबार में दो दक्षिणात्य ब्राह्मण एक समस्या के निदान हेतु धार आये थे। धार के विद्वान् उस समस्या का सन्तोषप्रद हल नहीं कर सके, अतः राजा ने उन ब्राह्मणों को जिन वल्लभ सूरि के पास, चित्तौड़ भेज दिया, जिन्होंने तुरन्त सन्तोषप्रद हल निकाल दिया। जब जिनवल्लभ सूरि धारा नगरी आये, तो राजा नरवर्मन ने उनको राजमहल में आमन्त्रित किया तथा उनके सारगर्भित उपदेशों से अत्यन्त प्रभावित हुआ। नरवर्मन ने सूरि जी को ३ गाँव या ३० हजार द्रम दान देने की इच्छा व्यक्त की, जिसे उन्होंने अस्वीकार कर दिया। सूरि जी के उपदेशों से, नरवर्मन ने चित्तौड़ की मंडपिका से, वहाँ के खरतरगच्छ के मन्दिरों को २ द्रम दैनिक दिये जाने के आदेश दिये। (५) हस्तिकुण्डी के राष्ट्रकूटों के अन्तर्गत जैन धर्म : हथंडी, मारवाड़ में बीजापुर के निकट है। यहाँ १०वीं शताब्दी में राठौड़ों का शासन करना ज्ञात होता है। हथूडी के जैन मन्दिर से प्राप्त ९१६ ई०, ९३९ ई० और ९९६ ई० के अभिलेखों में राष्ट्रकूटों की राजवंशावली में हरिवर्मा, विदग्धराज, मम्मट, धवल और बालाप्रसाद के नाम वणित है। सामान्यतः, यह राठौड़ राजवंश १. श्री जैन तीर्थ सर्व संग्रह, भाग १, खण्ड २, पृ० २६१ । २. वीर विनोद, भाग २, पृ० ११९७-९८, ओझा-बांसवाड़ा राज्य, पृ० ३५ । ३. ओझा-डूंगरपुर राज्य, पृ० १। ४. खबृगु, पृ० १३ । ५. एइ, १०, पृ० १०-१८; नाजैलेस, भाग १, ऋ० ८९८; प्राजलेस, २, सं० ३०८।" Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनधर्म की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि : २७. जैन धर्मावलम्बी विदित होता है।' हस्तिकुण्डी से प्राप्त ९९६ ई० के, सूर्याचार्य विरचित प्रशस्ति लेख से ज्ञात होता है कि वासुदेवाचार्य के उपदेश से प्रभावित होकर हरिवर्मन के पुत्र, विदग्धराज ने हस्तिकुण्डी में एक जैन देवालय का निर्माण करवाया था। उसकी धर्मनिष्ठा का सबसे महत्त्वपूर्ण प्रमाण, संसार से विरक्त होना तथा अपने पुत्र बालाप्रसाद को राज्य भार सौंप देना था। इस प्रशस्ति में जैन मन्दिर के लिये राजकीय अनुदान देने की पद्धति तथा सभी धर्मावलम्बियों द्वारा उसमें योगदान देने की प्रवृत्ति, उस युग की धर्म सहिष्णुता के द्योतक हैं।विदग्ध के पुत्र मम्मट ने भी इस मन्दिर को कुछ दान दिये थे। मम्मट के पुत्र धवल ने, अपने पितामह द्वारा निर्मित इस मन्दिर का जीर्णोद्धार करवाया तथा जैन धर्म की कीर्ति स्थापित करने हेतु सभी प्रकार के प्रयत्न किये । हस्तिकुंडी की गोष्ठी ने इस मन्दिर को पुनः निर्मित करवाया था, तत्पश्चात् वासुदेवाचार्य के शिष्य, शान्तिभद्र के हाथों, १०५३ ई० में प्रतिमा को प्रतिष्ठा सम्पन्न करवाई थी, जिसमें कुछ जैन श्रावकों ने भी सहयोग प्रदान किया था । इन राठौड़ शासकों का स्वर्ण से तुलकर, उसे गरीबों में वितरित करवाने के भी उल्लेख मिलते हैं । (६) शूरसेन राजवंश के अन्तर्गत जैन धर्म : आधुनिक भरतपुर रियासत के क्षेत्रों पर प्राचीन काल में, ६वीं से १२वीं शताब्दी तक शूरसेन राजवंश ने शासन किया था। इनके शासनकाल में भी जैन धर्म की तगप्रि के कई प्रमाण उपलब्ध होते हैं। विभिन्न शासकों ने जैन मत को संरक्षण प्रदान कर कई मूर्तियों की प्रतिष्ठा करवाई। कई जैनाचार्य समय-समय पर इस क्षेत्र में आते रहे। शूरसेन जनपद की प्राचीन राजधानी मथुरा, जैन धर्म की प्रसिद्ध केन्द्र थी। मुस्लिम विध्वंस के कारण अब अधिक प्रमाण उपलब्ध नहीं होते हैं, पर भरतपुर क्षेत्र में जैन धर्म से संबद्ध उल्लेख १०वीं शताब्दी से मिलते हैं, किन्तु इस क्षेत्र से खोजी गई, एक आदिनाथ सर्वतोभद्र प्रतिमा से प्रमाणित होता है कि यहाँ जैन मत गुप्तकाल या उससे पूर्व भी अस्तित्व में था। मेवाड़ के राजा अल्लट ने समकालीन प्रद्युम्न सूरि को, सपादलक्ष एवं त्रिभुवनगिरि के राज दरबारों में सम्मानित किया था। प्रद्युम्न सूरि के शिष्य, अभयदेव सूरि ने, धनेश्वर सूरि को जैन साधु होने की प्रेरणा दी थी । धनेश्वर सूरि 'त्रिभुवनगिरि १. जैहरा, पृ० २७ । २. नाजैलेस, भाग १, क्र० ८९८, पृ० २३३-२३८ । ३. वही। ४. वही । ५. वही। ६. पीटरसन्स रिपोर्ट स ३, पृ० १५८-१६२ । Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ : मध्यकालीन राजस्थान में जैनधर्म के कर्दम भूपति" के नाम से प्रसिद्ध हैं। धनेश्वर सूरि ने "राजगच्छ" की स्थापना की थी तथा ये धार के परमार शासक वाक्पति मुंज के समकालीन माने जाते हैं ।' मुंज की अन्तिम तिथि ९९७ ई० थी। इस कदमभूपति की पहिचान ११५५ ई० के अनंगपाल देव के थाकरदा (इंगरपुर) अभिलेख में उल्लिखित, राजा पृथ्वीपाल देव उर्फ भर्तृपट्ट से की जाती है। इस अभिलेख में पृथ्वीपाल देव के पुत्र त्रिभुवन पाल देव, पौत्र विजयपाल एवं प्रपौत्र सूरपाल देव के भी उल्लेख हैं । यद्यपि इनमें राजवंश का नाम नहीं है, परन्तु ये शूरसेन शासक ही रहे होंगे। दिगम्बर जैन कवि दुर्गदेव ने, अपनी कृति "ऋष्ट समुच्चय" की रचना १०३२ ई० में राजा लक्ष्मी निवास के शासनकाल में, कुंभनगर के शांतिनाथ मंदिर में पूर्ण की थी। इस कुंभ नगर की पहिचान भरतपुर के निकटवर्ती कामा से की जाती है । इसमें उल्लिखित, राजा लक्ष्मी निवास की पहिचान १०१२ ई० के बयाना अभिलेख में वर्णित, चित्रलेखा के पुत्र लक्ष्मणराज से की जाती है। राजा विजयपाल के शासनकाल के, श्वेताम्बर काम्यक गच्छ के विष्णु सूरि एवं महेश्वर सूरि के नामोल्लेख युक्त, बयाना के १०४३ ई० के शिलालेख" में महेश्वर सूरि के निर्वाण का विवरण है। इसी विजयपाल को, दुर्ग का पुननिर्माण एवं विस्तार कर, विजय मंदिर गढ़ नाम देने का श्रेय दिया जाता है। काम्यकगच्छ की स्थापना, भरतपुर के निकटवर्ती कामा से मानी जाती है तथा इसी क्षेत्र में श्वेताम्बरों के इस गच्छ का विस्तार भी ज्ञात होता है। बयाना से प्राप्त अभिलेखों में नगर का नाम 'श्रीपथ' दिया है, जो कि बयाना का प्राचीन नाम था । बयाना तहसील के नारौली ग्राम से भी ११३६ ई० की लेखयुक्त जैन प्रतिमाएँ मिली हैं, जिससे यह क्षेत्र जैन धर्म का महान् केन्द्र प्रकट होता है। बयाना का अन्तिम शूरसेन शासक कुमारपाल था, जो १९५४ ई० में सिंहासन पर बैठा। इस कुमारपाल को जैनाचार्य जिनदत्त सूरि ने धार्मिक शिक्षा दी थी। यहाँ के शांतिनाथ मंदिर पर स्वर्ण कलश एवं ध्वज, जिनदत्त सूरि द्वारा प्रतिष्ठित करवाने का समारोह बड़े उत्साह से मनाया गया था। जिनदत्त सूरि के दो शिष्यों-जिनपालगणि एवं धर्मशीलगणि ने यशोभद्राचार्य के निकट अध्ययन किया था। अपने गुरु जिनदत्त १. जैन साहित्यनों संक्षिप्त इतिहास, पृ० १९७-१९८ । २. एरिराम्यूअ, १९१५.१६, पृ० ३ । ३. सिंघी जैन सिरीज, २१, भूमिका । ४. एइ, २२, पृ० १२० । '५. इए, २१, पृ० ५७। ६. प्रोरिआसवेस, १९२०-२१, पृ० ११६ । 49. खबृगु, पृ० १९ । Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनधर्म की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि : २९ सूरि की आज्ञा मिलने पर १९८८ ई० में, त्रिभुवन गिरि के संघ को लेकर इन्होंने तीर्थयात्रा की, तथा अन्य संघों के साथ जिनदत्त सूरि से भेंट की । त्रिभुवन गिरि के दुर्ग में १२वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में, वादिदेव सूरि ने किसी प्रकाण्ड विद्वान् को वाद-विवाद में परास्त करने का गौरव अर्जित किया था । त्रिभुवनगिरि में उपकेश गच्छ से सम्बद्ध एक प्राचीन मंदिर भी था । 3 उपर्युक्त विभिन्न उल्लेखों से भरतपुर के निकटवर्ती क्षेत्रों में शूरसेन राजवंश के शासन के अन्तर्गत जैन धर्म की प्रतिष्ठा एवं प्रसार का ज्ञान होता है । (७) मेवाड़ क्षेत्र में जैन धर्म : मेवाड़ क्षेत्र में अत्यन्त प्राचीन काल से जैन धर्म का अस्तित्व रहा है । ८वीं शताब्दी से ही विभिन्न शासकों ने जैन धर्म के प्रसार व उन्नति के लिये स्तुत्य प्रयास किये । मंदिर निर्माण, मूर्तियों की प्रतिष्ठा, अहिंसा पालन की उद्घोषणा तथा जैनाचार्यों का हार्दिक एवं सम्माननीय स्वागत तथा प्रवचन श्रवण द्वारा, मेवाड़ में, जैनेतर धर्मावलम्बी होते हुये भी, राजाओं ने जैन धर्म के प्रति सहिष्णुता एवं श्रद्धा बनाये रखी । ९४३ ई० * राजा भर्तृभट्ट का शासन था, जिसने अपने नाम पर भरतरिपुर बसाया था । इन्होंने "गुहिल - विहार" निर्मित करवा कर उसमें चैत्यपुरिया गच्छ के बुदगणी के माध्यम से आदिनाथ की प्रतिमा स्थापित करवाई थी । " इनके पुत्र राजा अल्लट के मन्त्री ने, करवाई गई थी । आहड़ की एक राजा अल्लट, नरवाहन एवं शक्ति समय का प्रतीत होता है । ऐसा घाट (आहड़ ) में एक जैन मंदिर निर्मित करवाया था, जिसमें संडेरक गच्छ के आचार्य (3 यशोदव सूरि के द्वारा पार्श्वनाथ की प्रतिमा स्थापित देवकुलिका के ९७७ ई० के खण्डित लेख में, मेवाड़ के कुमार का नाम उल्लिखित होने से, यह शक्ति कुमार के प्रतीत होता है कि शक्ति कुमार के अक्ष-पटलाधीश के द्वारा बनवाये गये किसी मंदिर का यह लेख है । अब यह लेख आहड़ के जैन मंदिर की देवकुलिका के छबने में खण्डित रूप में लगा हुआ है । ९७७ ई० के ही आहड़ के एक अन्य शिलालेख में शक्तिकुमार का नामोल्लेख तथा आहड़ में विपुल - वैभव सम्पन्न वैश्यों के निवास का वर्णन है ।" १२वीं १. खबृगु, पृ० ३४ । २. भारतीय विद्या, २, पृ० ६२ । ३. भारतीय विद्या, २, पृ० ६२ । ४. एरिराम्यूअ १९१४, क्र० १ । ५. जैसा, ७, पृ० १४६-१४७ । ६. ओझा - उदयपुर राज्य, भाग १, पृ० १२४ -१३३ । ७. राइस्त्री, पृ० ६६ ॥ ८. इए, ३९, पृ० १९१ । Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३० : मध्यकालीन राजस्थान में जेनधमं शताब्दी के चित्तौड़ से प्राप्त एक खंडित लेख में खुमाण वंश के राजा जैत्र सिंह का उल्लेख है ।" इस लेख में चित्तौड़ के प्रावाट यशोनाग के वंश का वर्णन तथा चाहमान, परमार तथा गुर्जरों द्वारा पूजित, आचार्य शुभचन्द्र का भी वर्णन है । इस लेख की रचना संस्कृत भाषा में शुभकीर्ति ने, जैन मंदिर के निर्माण के समय की थी । " (८) दक्षिणी-पूर्वी राजस्थान में जैन धर्म : वर्तमान में कोटा बून्दी और झालावाड़ क्षेत्र में जैन धर्म का अस्तित्व प्राचीन काल से माना जाता है। कोटा के निकट, केशोराय पाटन में गुप्तकाल में भी जैन मंदिर के अस्तित्व की संभावना मानी गई है । वस्तुतः यह क्षेत्र प्रारम्भ से ही जैन धर्म की गति'विधियों का केन्द्र रहा । कुछ समय पूर्व ही दरा ( कोटा ) में दूसरी शताब्दी ईस्वी पूर्व के लेख खोजे गये हैं । एक अभिलेख में आवर ( मंदसौर) निवासी श्रमण सिल्पीसेन का - संदर्भ है । द्वितीय अभिलेख में कलाविद आपभसेन का नामोल्लेख है स्पष्ट है कि ईसा से दूसरी शताब्दी पूर्व, यहाँ कतिपय श्रमण निवास या विचरण करते होंगे । किन्तु इस क्षेत्र में जैन धर्म के अस्तित्व का निश्चित प्रमाण, शेरगढ़ से प्राप्त ७९० ई० के अभिलेख हैं ।" इस क्षेत्र में कई प्राचीन जैन मंदिरों के अवशेष प्राप्त होते हैं, जिनमें अटरू, बारां, शेरगढ़, झालरापाटन, रंगपट्टन, केशोरायपाटन, भीमगढ़, कांकोणी, केलवाड़ा आदि महत्वपूर्ण हैं, किन्तु इन मंदिरों में अभिलेख बहुत कम उपलब्ध होते हैं । अटरू में १०वीं शताब्दी के दो जैन मंदिर ध्वस्त अवस्था में हैं । इस क्षेत्र में कई प्रतिमाएँ खोजी गई हैं, जो कोटा संग्रहालय में रखी हुई हैं, इनमें से दो प्रतिमाओं पर परमार नरवर्मा के शासनकाल के अभिलेख अंकित हैं । ६ ११०८ ई० के प्रतिमा लेख में शुभंकर के शिष्य, लोकनंदी के उपदेश से श्रेष्ठी सहदेव द्वारा चतुर्विंशति मूल पट्ट स्थापित करने का उल्लेख है । " दूसरी प्रतिमा, अग्रवाल जिनपाल के पुत्र रामदेव के द्वारा स्थापित की गई थी । 'कोटा संग्रहालय' की १०वीं शताब्दी की एक पार्श्वनाथ प्रतिमा के लेख में "श्री सर्वनंद्याचार्य - और श्रावका - नंदि विहार" उल्लिखित है ।" पद्मनंदि ने " जम्बूद्वीपपण्णत्ति" बारों में ही लिखी । इस कृति से ज्ञात होता है कि बारों में कई जैन मंदिर एवं बहुसंख्यक श्रावक 9 १. नाजैलेस, क्र० ११३, १०५२ । २. राइस्त्रो, पृ० ७७ । ३. जैड़रा, पृ० १११ । ४. वरदा, २१, सं० ४, पृ० ३-४ । ५. इए, १४, पृ० ४५ । . ६ वरदा, जि० १६, सं० २, पृ० ३४ । ७. वही । -८. वही । Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनधर्म की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि : ३१ थे। यह शहर "पारियात्र" में था और शक्ति नामक राजा के द्वारा शासित था, जो उत्कृष्ट चरित्र एवं सद्ज्ञान का स्वामी था।' इस क्षेत्र के प्राचीन मंदिरों को देखने से ज्ञात होता है कि पूर्वकाल में यह जैन धर्म का बहुत बड़ा केन्द्र था। यह स्थान मूलसंघ के भट्टारकों की पीठ भी रहा ।२ शक्ति कुमार के पितामह भर्तृभट्ट का राज्य दक्षिणपूर्व में प्रतापगढ़ की सीमा तक था। इनका पुत्र अल्लट भी शक्तिशाली शासक था, तत्पश्चात् शक्ति कुमार ने अपने साम्राज्य का और अधिक विस्तार किया। उसके राज्य में सम्भवतः कोटा क्षेत्र का कुछ हिस्सा भी सम्मिलित था। शेरगढ़ के ११३४ ई० के एक अभिलेख से ज्ञात होता है कि नरवर्मन के राज्यकाल में नये चैत्य में नेमिनाथ महोत्सव मनाया गया था । शेरगढ़ में ११वीं शताब्दी में एक राजपूत सरदार देवपाल के द्वारा, तीन विशाल जैन प्रतिमाएं स्थापित करवाई गई थीं, जो वर्तमान में एक ध्वस्त मकान में रखी हुई हैं । एक अन्य अभिलेख में वीरसेन और सागरसेन का नामोल्लेख है, जिससे स्पष्ट होता है कि यह दिगम्बर सम्प्रदाय का भी केन्द्र था। प्रतिमाओं के अभिलेख के अनुसार उस समय इस नगर का नाम "कोषवर्द्धन" था । अटरू तहसील की सीमा पर भीमगढ़ कांकोणी का जैन मंदिर भी पूर्णतः ध्वस्त है। ११७० ई० के एक प्रतिमा लेख में आचार्य वृषभसेन के उपदेशों से, धरकट श्रेष्ठी पासड़ के पुत्र डाल और बिल्ह द्वारा प्रतिमा स्थापित करने का उल्लेख है । बारा क्षेत्र में ही रामगढ़ से तीन मील दूर, ८वीं व ९वीं शताब्दी की जैन गुफाएं हैं। प्राचीन काल में इसका नाम "श्रीनगर" था। यह क्षेत्र सघन वनसम्पदा व पर्वतीय धरातल के माध्यम से एलोरा तुल्य वातावरण का सृजन कर, जैन मुनियों के लिये अनुकूल एकांतिक वातावरण की सृष्टि करता रहा। गुफाओं के निकट ही जैन तीर्थंकरों की कतिपय मूर्तियों एवं मंदिरों के भग्नावशेष हैं। इसी क्षेत्र में अटरू में, १२वीं शताब्दी के दो जैन मन्दिरों के भग्नावशेष हैं। १२वीं शताब्दी में यहाँ सम्भवतः परमार शासकों का शासन था। अटरू से ही १२ मील पूर्व में "कृष्ण विलास" है, जो वर्तमान में "विलास" ही कहलाता है। इस स्थान के खण्डहर और १. पुरातन जैन वाक्य सूची, पृ० ६७ । २. इए, २१, पृ० ५७ । ३. एरिराम्यूअ, १९१६, पृ० २। ४. इए, ३२, पृ० १८६ । ५. एइ, २१, पृ० ८०। ६. एनुरिपो; इए, १९४२-४३, पृ०७० । ७. कोटा राज्य का इतिहास, पृ० २८ । ८. जैरा, पृ० १५१ । Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२ : मध्यकालीन राजस्थान में जैनधर्मं अवशेषों का निरीक्षण करने पर यह विदित होता है कि ८वीं से ११वीं शताब्दी के य अवशेष विभिन्न जैन एवं हिन्दू मंदिरों के हैं । विलास से २५ मील पूर्व में, शाहबाद नामक प्राचीन कस्बे से ५ मील दूर तालाब के निकट भी हिन्दू व जैन मंदिरों के खण्डहर हैं । बून्दी जिले में नवाँ का संघियों का मन्दिर ११वीं शताब्दी का है । इसमें १०५२ ई० का लेख अंकित है । यहीं के बघेरवाल मन्दिर में शांतिनाथ की ११४५ ई० की मूर्ति है, जिसकी प्रतिष्ठा धरकट जाति के महीद पुत्र जाल्हा ने आचार्य सगरसेन के द्वारा करवाई थी । इसी मन्दिर में १०८८ ई०, ११५२ ई० और ११७१ ई० की प्रतिष्ठित प्रतिमाएँ भी विद्यमान हैं । संघियों के मन्दिर में १०९० ई० की अनन्तनाथ की प्रतिमा प्रतिष्ठित है । नैनवां के शमशान के पास ९ निषेधिकाएँ हैं, जिनमें से कतिपय ११वीं व १२वीं शताब्दी की भी हैं । झालरापाटन में शांतिनाथ जैन मन्दिर १०४६ ई० में शाहपीपा द्वारा निर्मित करवाया गया था, जिसकी प्रतिष्ठा भावदेव सूरि ने की थी । उक्त सभी तथ्यों से स्पष्ट सिद्ध होता है कि यह क्षेत्र जैन धर्म का एक महत्त्वपूर्ण केन्द्र था । यह क्षेत्र दक्षिण में मालवा से उत्तर-पश्चिम व उत्तर के व्यापारिक मार्ग में स्थित होने के कारण हमेशा आवागमन का केन्द्र रहा, अतः धर्म प्रसार भी इसी क्षेत्र से प्रारम्भ होकर उत्तर की ओर सम्भव हुआ तथा उत्तर से आने वाले मुस्लिम आक्रमणकारियों के दक्षिण- गमन के मार्ग में होने के कारण अत्यधिक विध्वंस का क्षेत्र भी रहा है । (९) माड क्षेत्र में जैन धर्म : भाटी राजपूतों के द्वारा जैसलमेर नगर की स्थापना से पूर्वं भी, यह प्रदेश जैन धर्मं का महत्वपूर्ण केन्द्र था । रेगिस्तान के हृदय में अवस्थित व मुस्लिम आक्रमणों से सुरक्षित, इस क्षेत्र की प्राचीन राजधानी "लुद्रवा " थी । लगभग ९९४ ई० में राजा सागर के राज्यकाल में खरतरगच्छ के वर्द्धमान सूरि के शिष्य जिनेश्वर सूरि लुद्रवा आये थे । उनके उपदेशों से प्रभावित होकर, सागर के श्रीधर एवं राजघर नामक दो पुत्रों ने श्रावक बनना स्वीकार किया था एवं लुद्रवा में 'चिंतामणि पार्श्वनाथ मन्दिर' का निर्माण करवाया था, इसी मन्दिर का नवीनीकरण १६१८ ई० में श्रेष्ठी थारूशाह के द्वारा करावाया गया" । उस समय इस क्षेत्र का विक्रमपुरा (बिकमपुरा) भी जैन धर्म का एक पृ० ५३ । १. कासलीवाल - केशोरायपाटन, २ . वही । ३. अने, १३, पृ० १२५ । ४. नाजैलेस, ३, सं० २५४३ । ५. वही, क्र० २५४४ । Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनधर्म की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि : ३३ महत्त्वपूर्ण केन्द्र था। विशेष रूप से खरतरगच्छ का यहाँ अधिक प्रभाव रहा। इस गच्छ के आचार्य बहुधा यहाँ आकर धार्मिक गतिविधियों का संचालन करते रहते थे । ११११ ई० में जिनवल्लभ सूरि विक्रमपुरा आये थे', जिनपति सूरि का ११५३ ई० में यहीं जन्म हुआ था, तदनन्तर ११६० ई० में सन्यासी जीवन में प्रवेश की प्रेरणा तथा ११६६ ई० में वे इसी स्थान पर पट्टधर हुये थे । विक्रमपुर के कतिपय जैन श्रावकों ने जिनपति सूरि से विभिन्न अवसरों पर दीक्षा ली थी तथा ११७५ ई० में इन्होंने "भाण्डागारिक" गुणचन्द्र गणि के स्तूप का प्रतिष्ठा समारोह सम्पन्न करवाया था। साथ ही जिनपति सूरि के नेतृत्व में अन्हिलपट्टन से ११८५ ई० में, अभय कुमार के नेतृत्व में निकलने वाले संघ में सम्मिलित होकर तीर्थ यात्राएँ की थीं। (ब) मध्यकाल: १२वीं शताब्दी के पश्चात् भी कतिपय चौहान व सोलंकी राजाओं के अन्तर्गत राजस्थान के कुछ क्षेत्रों में जैन धर्म प्रगतिशील रहा। चाहमान शासक चाचिग देव के शासनकाल में १२४५ ई० में, तेलिया ओसवाल नरपति ने महावीर मन्दिर के भण्डार में ५० द्रम दिये। १२७५ ई० के एक अन्य शिलालेख से ज्ञात होता है कि सामन्त सिंह के राज्यकाल में नरपति ने पार्श्वनाथ मन्दिर में कुछ भेंट अर्पित की थी। चंद्रावती के शासक आल्हणसिंह के शासनकाल में, पार्श्वनाथ मन्दिर को भेंट देने का विवरण १२४३ ई० के अभिलेख में वर्णित है । चन्द्रावती के महाराज बीसलदेव और सारंगदेव के शासनकाल में दत्ताणी के परमार ठाकुर प्रताप व हेमदेव ने पार्श्वनाथ मन्दिर के व्यय के निमित्त, २ खेत १२८८ ई० में दान दिये थे। १२४३ ई० के कलागरा के नष्टप्राय पार्श्वनाथ मन्दिर के लेख में, चन्द्रावती के परमार राजा आल्हण का उल्लेख है । रावल महिपाल देव के पुत्र सुहड़सिंह ने भी इसी मन्दिर को धामिक महोत्सव मनाने के लिये, ४०० द्रम दान में दिये थे। दियाणा से प्राप्त १३३४ १. खबृगु, पृ० १३ । २. वही, पृ० २४ । ३. वही, पृ० ३४। ४. प्रोरिआसवेस, १९०८-०९, पृ० ५५ । ५. वही। ६. अप्रजैलेस, क्र० ५५ । ७. वही, क्र० ४९० । ८. जैन तीर्थ सर्व संग्रह, भाग १, खण्ड २, पृ० २५४ । Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४ : मध्यकालीन राजस्थान में जैनधर्म ई० के शिलालेख में वर्णित है कि महाराज तेजपाल और उनके मन्त्री कृपा ने एक हौज बनवाकर महावीर मन्दिर को भेंट किया था । १२८७ ई० के किशनगढ़ के चिंतामणि पार्श्वनाथ मन्दिर की पंचतीर्थी के लेख के अनुसार, बाहउग के राज्य में उक्त मूर्ति की प्रतिष्ठा रत्नप्रभ सरि के शिष्य द्वारा सम्पन्न हुई थी। १३वीं एवं १४वीं शताब्दी में अधिकांश राजपूत राजवंश राजस्थान में सुस्थापित हो गये थे। विभिन्न स्थानों में राजधानियाँ स्थापित कर ३-४ शताब्दी के संवर्ष के उपरान्त, अपनी रियासतें स्थापित कर उन्होंने कुछ स्थिरता प्राप्त की थी। अतः मध्यकाल में विभिन्न आपसी संघर्ष एवं मुस्लिम आक्रमण का सामना करती रहीं । धर्मसहिष्णु राजपूत शासक फिर भी धर्म विमुख नहीं हये । इस काल में जैन धर्म पूर्ववर्ती शताब्दियों की अपेक्षा और अधिक उन्नतिशील हुआ। आन्तरिक साम्प्रदायिक विखण्डन के अनन्तर भी अनेक मन्दिर निर्मित हये, असंख्य मूर्तियों की प्रतिष्ठा की गई तथा सहस्त्रों ग्रन्थों की प्रतिलिपियाँ व मौलिक ग्रंथ निबद्ध किये गये । राजाओं, राजनयिकों एवं कतिपय मुगल शासकों ने भी जैनाचार्यों को आदर की दृष्टि से देखा । राजपूत शासकों के औदार्य के फलस्वरूप जैन धर्म एवं अहिंसा का प्रभाव अक्षुण्ण बना रहा। ( १ ) मेवाड़ में जैनधर्म : मेवाड़ क्षेत्र जैन धर्म के दिगम्बर एवं श्वेताम्बर दोनों ही सम्प्रदायों का महत्त्वपूर्ण केन्द्र था। इससे सिद्ध होता है कि यहाँ के शासक इस धर्म के प्रति अत्यधिक उदार थे। चित्तौड़ के निकट निर्मित गंभीरी नदी के पुल में लगे विभिन्न मंदिरों के अवशेषों के मध्य लगे हुये, १२६८ ई० के लेख में वर्णित है कि चैत्र गच्छ के आचार्य रत्नप्रभ सूरि के उपदेश से तेजसिंह के प्रधान, राजपुत्र कांगा के पुत्र ने किसी भवन का निर्माण करवाया था। चीरवा गाँव से प्राप्त १२७३ ई० के शिलालेख में, गुहिलवंशीय शासन परम्परा के अतिरिक्त तत्कालीन चैत्र गच्छ के आचार्यों-भद्रेश्वर सूरि, देवभद्र सूरि, सिद्धसेन सूरि, जिनेश्वर सूरि, विजयसिंह सूरि और भुवनसिंह सूरि का भी उल्लेख है। ये आचार्य धर्म और विद्या के क्षेत्र में लब्ध-प्रतिष्ठ थे। भुवनसिंह सूरि के शिष्य रत्नप्रभ सूरि ने चित्तौड़ में इस शिलालेख को रचना की और उनके मुख्य शिष्य पावचन्द्र ने इसे लिपिबद्ध किया । जिन प्रबोध सूरि चित्तौड़ के महारावल क्षेत्रसिह के समकालीन १. खबृगु, पृ० १३ । २. जैइरा, पृ० २६ । ३. प्रलेस, क्र० १५ । ४. ओझा-उदयपुर राज्य, १, पृ० ३७० । ५. वही, पृ० १७३-१७५ । ६. राइस्त्रो, पृ० १११ । Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनधर्म की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि : ३५ थे। जिनप्रबोध १२७७ ई० के आसपास जब चित्तौड़ में आये, तब राज्य के ब्राह्मणों, संन्यासियों, राजपुत्र क्षेत्रसिंह और कर्णराज, सभी ने इनका भव्य स्वागत किया था । १२७७ ई० में उत्कीर्ण, चित्तौड़ में नवलख भण्डार की दीवार के लेख में, रत्नसिंह श्रावक के द्वारा निर्मित शांतिनाथ के चैत्य में, समदा के पुत्र महण सिंह की भार्या साहिणी की पुत्री कुमारिला श्राविका के, पितामह पूना और मातामह धाडा के श्रेयार्थ, देवकूलिकाएँ बनवाने का उल्लेख है । ___मेवाड़ के शासक समरसिंह और उनकी माता जयतल्ला देवी, देवेन्द्र सूरि के उपदेशों से प्रभावित होकर उनके भक्त बन गये थे। चित्तौड़ के १२७८ ई० के लेख से सूचना मिलती है कि भरतरिपुरीय गच्छ के जैनाचार्य के उपदेश से, राजा तेजसिंह की रानी जयतल्ला देवी ने चित्तौड़ में एक श्याम पार्श्वनाथ का मंदिर बनवाया। इसमें यह भी उल्लेख है कि इसी मंदिर के पृष्ठ भाग में उसी गच्छ के आचार्य प्रद्युम्न सूरि को महारावल समरसिंह ने मठ के लिये भूमिदान दिया। लेख में यह भी वर्णित है कि इस मंदिर के लिये चित्तौड़ की तलहटी, आहड़, खोहर और सज्जनपुर की मंडपिकाओं से कई द्रम घी, तेल आदि वस्तुओं के मिलने की व्यवस्था की गई। मुहिल राजा समरसिंह के काल के अन्य अभिलेख में वर्णित है कि भरतरिपुरिय गच्छ के जैन मंदिर को भी कुछ भमि अपनी माता के आध्यात्मिक कल्याण हेतु प्रदान की गई थी तथा इस दान की प्रेरणा साध्वी सुमला के धार्मिक उपदेशों से, जयतल्ला देवी को हुई थी। इसके अतिरिक्त सूरि जी के उद्बोधन से समरसिंह ने एक अध्यादेश जारी कर, अपने राज्य में प्राणी हिंसा का निषेध करवा दिया था। उक्त अध्यादेश में जनता से शराब का त्याग तथा धर्म और न्याय के नियमों का कठोरता से पालन करने की भी अपेक्षा की गई थी। गम्भीरी नदी के पुल में ही प्रयुक्त, १२७३ ई० के एक शिलालेख में उल्लेख है कि रावल समरसिंह ने भरतरिपुरीय गच्छ के आचार्यों को पोषधशाला के निमित्त कुछ भूमि दी तथा अपनी माता के द्वारा निर्मित मंदिर के लिये हाट तथा बाग की भूमि भी दान में दी थी। चित्तौड़ की तलहटी एवं सज्जनपुर की मंडपिकाओं से कुछ द्रम अनुदान के रूप में दिये जाने को भी आज्ञा दी। रतनपुर के १२८६ ई० के जैन मंदिर के एक लेख में, महणदेवी द्वारा द्रमों का दान एवं उनके ब्याज से जैनोत्सव मनाने का उल्लेख है।' १. जैसासइ, पृ० १९३ । २. खबृगु, पृ०.५६ । ३. राइस्त्रो, पृ० ११३ । ४. एइ, ११, पृ० ३०-३२ । “५. एरिराम्यूअ, १९२२-२३, क्र०९। ६. ओझा-उदयपुर राज्य, १, पृ० १७८ । ७. नाजैलेस, २, क्र० १७०६, पृ० १६३ । Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६ : मध्यकालीन राजस्थान में जेनधमं प्रतापगढ़ के मंदिर की प्रतिमा पर उत्कीर्ण १३०६ ई० के अभिलेख से ज्ञात होता है कि जयतल्ला देवी के कल्याणार्थं, राजपुत्र तेजाक ने अपनी भार्या रतनादेवी और पुत्र विजयसिंह के साथ जैन प्रतिमा की स्थापना की ।' १३०० ई० के चित्तौड़ के एक खण्डित लेख में धर्मचन्द्र, उनकी गुरु परम्परा तथा एक मान स्तम्भ की स्थापना का वर्णन है । इस प्रशस्ति में तत्कालीन जैनाचार्यों की परम्परा तथा शिक्षा के स्तर का उल्लेख है । लेखानुसार, कुंदकुंद - आचार्य - परम्परा में केशवचन्द्र, देवचन्द्र, अभयकीर्ति, वसन्तकीर्ति, विशालकीर्ति, शुभकोर्ति और धर्मचन्द्र थे । केशवचन्द्र को तीनों विधाओं का विशारद व १०१ शिष्यों का गुरु बताया गया है लेख की प्रथम पंक्ति में पुण्यासह का भी नाम है ।२ १३वीं शताब्दी के ही चित्तोड़ के जैन कीर्ति स्तम्भ के तीन लेख प्राप्त होते हैं। तीनों लेखों का सम्बन्ध चित्तौड़ के जैन कीर्ति स्तम्भ से है, क्योंकि तीनों में स्तम्भ के संस्थापक साह जीजा तथा उनके वंश का विवरण है। वैसे इन लेखों में समय अंकित नहीं है, किन्तु १३०० ई० की उक्त प्रशस्ति में वर्णित जैनाचार्यों की परम्परा के सन्दर्भ में, ये लेख भी १३वीं शताब्दी के ही हैं । प्रथम लेख के प्रारम्भ में दीनाक तथा उसकी भार्या वांछी के पुत्र, नाथ के द्वारा एक मंदिर के निर्माण का वर्णन है । नाथ की पत्नी नागश्री और उसका पुत्र जीजू थे, जिन्होंने चित्तौड़ में चन्द्रप्रभ मंदिर और खोहर नगर में भी एक मंदिर बनवाया था । जीजू के पुत्र पूर्णसिंह ने अपने धन का उपयोग दान के द्वारा किया । इनके गुरु विशालकीर्ति के शिष्य शुभकीर्ति के शिष्य धर्मचन्द्र थे । ये महाराणा हम्मीर द्वारा सम्मानित थे तथा इन्होंने मान स्तम्भ की स्थापना भी की थी। दूसरे लेख की अन्तिम पंक्ति में बघेरवाल जाति के सानाय के पुत्र जीजा द्वारा स्तम्भ निर्माण का उल्लेख है । तीसरे लेख के अन्तिम भाग में जीजा युक्त संघ की मंगल कामना की गई है । इन तीनों लेखों को चित्तौड़ के १३०० ई० के लेख के साथ पढ़ने पर जैन कीर्ति स्तम्भ का निर्माण १३वीं शताब्दी में हुआ माना जाना चाहिये । जैन कीर्ति स्तम्भ के अन्य दो लेखों के अनुसार जीजा द्वारा स्तम्भ निर्माण व पुण्यसिंह द्वारा इसकी प्रतिष्ठा का वर्णन है । 4 ऋषभदेव मंदिर, धुलेव के खेला मंडप की दीवार में अनुसार काष्ठा संघ के भट्टारक धर्म कीर्ति के उपदेश से १. एरिराम्यूअ १९२१-२२, क्र० ३ । २. जैशिस, पृ० ६३-६४ । ३. जैशिस, पृ० ६४ -७० । ४. राइस्त्रो, पृ० १२१ । ५. वरदा, ९, अंक १ | लगे १३७४ ई० के लेख के साह जीजा के बेटे हरदान ने Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनधर्म की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि : ३७ इस मंदिर का जीर्णोद्धार करवाया।' राणा खेता के काल में जैन मंदिर के निमित्त आयोजित एक प्रतिष्ठा महोत्सव के अवसर पर, संस्कृत में तत्सम्बन्धी एक विज्ञप्ति लेख की रचना हुई, जिसकी पुष्पिका से प्रतीत होता है कि इसकी रचना केलवाड़ा ग्राम में हुई थी। खेता की परम्परा का निर्वाह उसके पुत्र एवं उत्तराधिकारी, राणा लाखा द्वारा भी किया गया। इनके समय तक देलवाड़ा तथा चित्तौड़ के ज्ञान-केन्द्र सुसमृद्ध हो चुके थे तथा देलवाड़ा में तो एक ग्रन्थ भण्डार की स्थापना भी हो चुकी थी। देसूरी गांव के निकट, कोट-सोलंकियों के एक जीर्ण मंदिर के १४१८ ई. के अभिलेख में, राणा लाखा के विजय काल में, पार्श्वनाथ के चैत्य के मण्डप के जीर्णोद्धार का वर्णन है। जावर गाँव के पार्श्वनाथ मंदिर में उत्कीर्ण १४२१ ई० की प्रशस्ति में वर्णित है कि राणा मोकल के समय, प्राग्वाट साह नाना ने उसकी भार्या फनी और पुत्र साहरतन आदि के साथ विभिन्न तीर्थों की यात्रा की थी, तथा संघपति साह धनपाल ने भी पुत्र एवं पुत्र-वधुओं के साथ शांतिनाथ का मंदिर बनवाया था।" इस प्रशस्ति में कई जैनाचार्यों के नाम भी अंकित हैं । राणा मोकल के खजांची (कोषाध्यक्ष), गुणराज ने १४२८ ई० में राणा के आदेशों से महावीर का एक मंदिर निर्मित करवाया । नागदा में १४२९ ई० में पोरवाड़ जाति के एक व्यापारी ने पार्श्वनाथ मंदिर निर्मित करवाया। मोकल के पश्चात् उनके पुत्र कुम्भकर्ण राजा हुये, जो जैनमत के बहुत बड़े समर्थक थे। उनके शासनकाल में न केवल प्रतिमाओं और मंदिरों की स्थापना हुई, अपितु इन्होंने स्वयं सादड़ी में एक भव्य जैन मंदिर निर्मित करवाया। इनके शासन में ही, रणकपुर और कमलगढ़ के प्रसिद्ध चौमुख जैन मंदिर निर्मित हुये थे। देलवाड़ा के एक जैन आश्रम में उपेक्षित पड़े हुये प्रस्तर पर उत्कीर्ण १४३४ ई० के अभिलेख में, उनके विजयपूर्ण शासन में धर्म चिंतामणि मंदिर की पूजा के लिये १४ टंका आवंटित करने का उल्लेख है । १४३४ ई० के ही नागदा के जैन मंदिर के एक लेख में, श्रेष्ठी रामदेव के परिवारजनों की धर्मनिष्ठा व जैनाचार्यों का नामोल्लेख है । देलवाड़ा के १४३६ ई० के लेख में वर्णित है कि स्था १. ओझा-उदयपुर राज्य, १, ५० ४१-४२ । २. विज्ञप्ति लेख संग्रह, सं० मुनि जिनविजय । ३. तारामंगल-महाराणा कुंभा और उनका काल, पृ० १४१ । ४. मरू भारती, अप्रैल १९६७, पृ० १। ५. ओझा-उदयपुर राज्य, १, पृ० २७९ । ६. मध्यप्रांत, मध्यभारत और राजपूताना के प्राचीन जैन स्मारक, पृ० १३७ । ७. प्रोरिआस वेस, १९०४-५, पृ० ६२ । ८. हिस्ट्री ऑफ इंडियन आर्किटेक्चर, पृ० २४० । ९. एरिराम्यूअ, १९२३-२४, क्र० ७ । Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८ : मध्यकालीन राजस्थान में जैनधर्मं नीय पोरवाड़ पण्डित लक्ष्मणसिंह ने पार्श्वनाथ जिनालय में, पार्श्वनाथ की दो कायोत्सर्ग प्रतिमाएँ प्रतिष्ठित करवाई ।" लक्ष्मणसिंह, काछोलीवालगच्छीय आचार्य भद्रेश्वर सूरि, रत्नप्रभ सूरि के पट्टालंकार सर्वानन्द सूरि का श्रावक था । देलवाड़ा के ही एक अन्य १४३७ ई० के अभिलेख में पिछोलिया जाति के हासा द्वारा एक कायोत्सर्ग प्रतिमा की प्रतिष्ठा करवाने का उल्लेख है 13 देलवाड़ा के ही १४३७ ई० के दूसरे लेख में, वत्सराज के पुत्र वीसल द्वारा "क्रियारत्नसम्मुच्चय" की दस प्रतियाँ लिखवाने का वर्णन है । * नागदा के अद्भुत जी के मन्दिर में १४३७ ई० में एक व्यापारी सारंग के द्वारा, कुम्भा के शासनकाल में ही शान्तिनाथ की विशाल प्रतिमा स्थापित करवाई गई थी । " चित्तौड़ से ही प्राप्त १४३८ ई० के एक विस्तृत शिलालेख में कई सूचनाएँ हैं । इसमें एक जैन मन्दिर के निर्माण, उसके निर्माता साघु गुणराज की वंशावली, १४२० ई० की शत्रुंजय यात्रा में सोम सुन्दर सूरि के नेतृत्व में श्रेष्ठी का सहयोग तथा बादशाह के फरमान से यात्रा में सुविधाएँ प्राप्त करने, राणा मोकल की आज्ञा से मन्दिर निर्मित करवाने तथा प्रशस्ति के रचनाकार जैन साधु चारित्र्य रत्नगणि आदि तथ्यों का उल्लेख है । १४३९ ई० की कुम्भाकालीन राणकपुर मन्दिर की प्रशस्ति में मेवाड़ राजवंश, मन्दिर निर्माता धरणा श्रेष्ठी का वंश, प्रतिष्ठाकारक आचार्यों जैसे जगचन्द्र सूरि, देवेन्द्र सूरि व सोमसुन्दर सूरि तथा सूत्रधार देपाक आदि के नाम वर्णित हैं ।" चित्तौड़ दुर्ग स्थित शृंगार चँवरी' के जैन मन्दिर के १४४८ ई० के स्तम्भलेख के अनुसार, कुम्भा के एक विशिष्ट अधिकारी साहकोला के पुत्र भण्डारी वेला ने इस शान्तिनाथ मन्दिर का निर्माण करवाया था । मन्दिर के स्थापत्य के आधार पर यह और भी प्राचीन प्रतीत होता है । सम्भवतः वेला ने तो मुस्लिम विध्वंस के उपरान्त इसका जीर्णोद्धार व प्रतिष्ठा ही करवाई थी ।° कुम्भा के काल के ही आबू के १४४९ ई० के सुरह लेख में, दिलवाड़ा के मन्दिरों के लिये यात्रा करने वालों से मंडपिका कर याण, १. राइस्त्रो, पृ० १३६ ॥ २. वही । ३. वही । ४. राइस्त्रो, पृ० १३७ ॥ ५. प्रोरिआसवेस, १९०५, पृ० ६१ । ६. वरदा, वर्ष ११, अंक २ । ७. वही । ८. भावनगर इन्स्क्रिप्शन्स, क्र० ८, पृ० ११४ । ९. एरिराम्यूअ १९२० -२१, क्र० १० । १०. राइस्त्रो, पृ० १४२ । Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनधर्म की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि : ३९ बलावी, रखवाली, गाड़ियों और बैलों पर लिये जाने वाले कर, आगे से नहीं लेने का आदेश है । १४५० ई० के राणकपुर के लघु लेख में, कुछ श्रावकों द्वारा प्रासाद और देवकुलिकाएं निर्मित करवाने का उल्लेख है ।२ नाडोल के १४५१ ई० के अभिलेख में, स्थानीय जगसी परिवार द्वारा चतुर्विशति जिन-प्रतिमाओं के निर्माण व उनकी प्रतिष्ठा, देवकुल पाठक में, रत्नशेखर सूरि द्वारा करवाने का उल्लेख है। बसन्तगढ़ के जैन मन्दिर में एक प्रतिमा लेख से ज्ञात होता है कि धनसी के पुत्र भादाक ने यह प्रतिमा स्थापित करवाई और मुनि सुन्दरसूरि से १४५३ ई० में इसका प्रतिष्ठा समारोह करवाया गया। माउण्ट आबू में, अचलगढ़ में, आदिनाथ प्रतिमा पर उत्कीर्ण १४६२ ई० के अभिलेख से ज्ञात होता है कि जब कुम्भलमेर पर महाराणा कुम्भा का शासन था, तब यह प्रतिमा डूंगरपुर में रावल सोमदास के शासनकाल में बनवाई गई थी और तपागच्छ संघ के द्वारा आबू लाई गई थी। यहां की एक अन्य पीतल की आदिनाथ को प्रतिमा के १४७३ ई० के लेख में भी, प्रतिमा का डुगरपुर में ही निर्मित होने का उल्लेख है । कुम्भाकाल में मेवाड़ में तपागच्छ व खरतरगच्छ का विशेष प्रभाव रहा । तपागच्छ के आचार्य सोमसुन्दर सूरि, मुनि सुन्दर, सोमदेव, जयशेखर सूरि, जिनहर्षगणि, रत्नशेखर, माणिक्यरत्नगणि, खरतरगच्छ के जिनराज, जिनवद्धन, जिनचन्द्र, जिनसागर, जिन सुन्दर तथा दिगम्बर आचार्य सकलकीर्ति, भुवनकीर्ति, ब्रह्म जिनदास आदि ने चित्तौड़ में विपुल साहित्य सृजन किया। __ जैन धर्म राणा कुम्भा के पुत्र एवं उत्तराधिकारी, राणा रायमल के शासनकाल में भी फलता-फूलता रहा । इनके काल के १४८१ ई० के लेख में, खरतरगच्छीय परम्परा के आचार्यों की नामावली, शान्तिनाथ मन्दिर और जयकीर्ति का उल्लेख मिलता है।' उदयपुर के १४९९ ई० के एक अभिलेख से सूचना मिलती है कि विजयी राजा राणा रायमल के शासनकाल में महावीर, अम्बिका आदि के मन्दिर निर्मित हुये थे । रायमल के काल की १५०० ई० की, नाडलाई के आदिनाथ मन्दिर की स्तम्भ-प्रशस्ति विशेष १. राइस्त्रो, पृ० १४२ । २. वही, पृ० १४३ । ३. वही। ४. एरिराम्यूअ, १९२३-२४, सं०८। ५. वही, १९२५-१६, क्र० ८। ६. ओझा-डूगरपुर राज्य, पृ० ७१ । ७. तारा मंगल-महा० कुम्भा, पृ० १४५-१५२ । ८. राइस्त्रो, पृ० १५३ ।। ९. प्रोरिआसवेस, १९०५-०६, पृ० ६० । Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४० : मध्यकालीन राजस्थान में जैनधर्म महत्त्वपूर्ण है। इसमें उकेश वंश के सीहा और समदा द्वारा, महाराणा रायमल के काल में, उनके पुत्र कुंअर पृथ्वीराज की आज्ञा से, आदिनाथ की मूर्ति की स्थापना का उल्लेख है । आचार्य ईश्वरसूरि कृत और सूत्रधार सोमा द्वारा उत्कीर्ण, इस लेख में संडेरक गच्छ के आचार्य यशोभद्र सूरि द्वारा ९०७ ई० में इस मन्दिर को बनवाने का उल्लेख है । यशोभद्र सूरि का धार्मिक प्रभाव क्षेत्र गौडवाड़, मेवाड़ व चित्तौड़ तक भी था। चित्तौड़ के 'सतबीस देवरी' के १०वीं शताब्दी के खण्डित लेख में भी यशोभद्र सूरि-परम्परा के आचार्य का उल्लेख है। राजपूतों के अप्रतिम नायक महाराणा प्रताप ने मुनि हीरविजय को एक पत्र लिखकर धर्म प्रचारार्थ मेवाड़ में आने का निवेदन किया था । १५७८ ई० में प्राचीन मेवाड़ी भाषा में लिखित यह पत्र, जैन इतिहास का एक महत्त्वपूर्ण दस्तावेज है। इससे यह भी सिद्ध होता है कि राणा प्रताप अकबर के विरुद्ध निरन्तर युद्धरत रहते हुये भी धर्म-तत्व एवं प्रजा को भावनाओं को उपेक्षा नहीं करते थे तथा महान् जैन सन्तों का समादर करते थे। वे धर्मानुरागी एवं जैन मत के प्रति बहत स्नेहशील थे। १५८३ ई० की राणकपुर प्रशस्ति में उल्लेख है कि हीरविजय सूरि के उपदेश से, प्राग्वाट जाति के साह खेता आदि ने, ४८ सुवर्ण माणक प्रतोली के निमित्त अनुदान दिया था। (२) वागड़ प्रदेश में जैन मत : डूगरपुर, बाँसवाड़ा और प्रतापगढ़ राज्यों का सम्मिलित नाम वागड़ प्रदेश था । यहाँ के शासकों के संरक्षण में जैन मत बहुत समृद्ध हुआ। इस क्षेत्र में दिगम्बर जैनों का अधिक प्रभाव था । अभिलेखीय प्रमाणों के अनुसार डूंगरपुर, गलियाकोट, सागवाड़ा, नौगाम आदि दिगम्बर जैनों के केन्द्र थे, किन्तु वागड़ "प्रवासगीतिका' के अनुसार इस प्रदेश में श्वेताम्बर जैनियों ने भी कुछ मन्दिर बनवाये थे। इस प्रदेश में कई मंत्रियों एवं आचार्यों ने मन्दिर निर्मित करवाये और उनके स्थापना तथा प्रतिष्ठा समारोह धूमधाम से सम्पन्न करवाये। इनके संरक्षण में अनेक हस्तलिखित ग्रन्थ भी तैयार करवाये गये । यहाँ जैन मत के प्रचार के लिये अनुकूल परिस्थितियाँ थीं, अतः तेली आदि अन्य जातियों के लोग भी सम्मानवश अहिंसा के सिद्धान्त का पालन करते थे। इस क्षेत्र की प्राचीन राजधानी वटप्रदा (बड़ौदा) थी। इस क्षेत्र में पार्श्वनाथ मन्दिर की एक शिला पर २४ तीर्थंकरों को आकृतियाँ उत्कीर्ण हैं । इस शिला का १३०७ ई० का लेख, खरतरगच्छ के जिनचन्द्र सूरि द्वारा इसकी स्थापना का वर्णन करता १. भावनगर इन्स्क्रिप्शन्स, सं० १२, पृ० १४३-१४५ । २. राइस्त्रो, १५८ । ३. राजपूताना के जैन वीर, पृ० ३४१-४२ । ४. नाजैलेस, भाग-१, सं० ७१४ । Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनधर्म की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि : ४१ है। मेवाड़ में, धुलेव में स्थित केसरियाजी की प्रतिमा, मूलतः इस स्थान से ही ले जाई गई थी। डूंगरपुर से लगभग आठ मील दूर "उपर", नामक ग्राम के, दिगम्बर जैन आम्नाय के श्रेयांसनाथ मन्दिर की १४०४ ई० की प्रशस्ति में, दिगम्बर आम्नाय के काष्ठा संघ और नन्दितटगच्छ के आचार्यों की परम्परा, मन्दिर निर्माण-कर्ता नरसिंह'पुरा जाति के प्रह्लाद के पूर्वजों एवं भाइयों के नाम, डूंगरपुर के रावल प्रतापसिंह तथा रत्नकीर्ति के उपदेश से मन्दिर बनवा कर ५२ मूतियाँ स्थापित करने का उल्लेख है। डूगरपुर का प्राचीन नाम "गिरिवर" था, जिसकी स्थापना लगभग १३५८ ई० में हुई थी। १३७० ई० में जयानंद विरचित "प्रवास गीतिकात्रय" से ज्ञात होता है कि यहाँ पर पाँच जैन मंदिर और लगभग ९०० जैन परिवार निवास करते थे । रावल प्रतापसिंह के उत्तराधिकारी गजपाल के शासन में भी जैन मत प्रगतिशील रहा। इनके शासनकाल की चार हस्तलिखित प्रतियाँ उपलब्ध हैं, जो इस प्रकार हैं१४२३ ई० की "पंच प्रस्थान विषम पद व्याख्या", १४२८ ई० की "द्वयाश्रय महाकाव्य सटीक", १४२९ ई० का "द्वितीय खण्डग्रंथाग्रत्रियसकल ग्रन्थ" और १४३० ई० का "कथाकोष" । आन्तरी के जैन मंदिर की दीवार के १४६९ ई० के अभिलेख से यह स्पष्ट है कि अमात्य सांभा ने शांतिनाथ मंदिर निर्मित करवाया था एवं १४३८ ई० में आँतरी में एक भिक्षागृह भी बनवाया था। इस मंदिर में उसने शांतिनाथ को पीतल को प्रतिमा स्थापित करवाई थी। गजपाल के पश्चात् उसका पुत्र सोमदास शासक हुआ। माउंटआबू में अचलगढ़ में आदिनाथ की पीतल की प्रतिमा के १४६१ ई० के लेख में इस प्रतिमा के डूंगरपुर में रावल सोमदास के शासनकाल में निर्मित होने का उल्लेख है । यह मूर्ति तपागच्छ संघ द्वारा आबू में लाई गई थी तथा सांभा ने अपनी पत्नी करणादे और पुत्रों साल्हा और माल्हा के साथ मिलकर स्थापित करवाई, जिसका प्रतिष्ठा समारोह तपागच्छ के लक्ष्मीसागर सूरि के द्वारा सम्पन्न हुआ था।' सांभा के पश्चात् उसका पुत्र साल्हा सोमदास का अमात्य बना, जिसने उदारता पूर्व दान दिये । १. ओझा-डूगरपुर राज्य, पृ० १ । २. वही, पृ० १५ । ३. राइस्त्रो , पृ० १२९ । ४. ओझा-मेवाड़ राज्य, पृ० ४२ । ५. एरिराम्यूअ, १९१५-१६ । ६. वही। १७. श्री महारावल अभि० ग्रन्थ, पृ० ३९८ । ८. एरिराम्यूअ, १९२९-३०, क्र० ३ । Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२ : मध्यकालीन राजस्थान में जैनधर्म १४६४ ई० में दुष्काल के समय वह प्रतिदिन २००० लोगों को भोजन करवाता था।" उसने गिरिपुर के पाश्वनाथ मंदिर का जीर्णोद्धार करवाया तथा अपने पिता द्वारा निर्मित आंतरी के मंदिर में एक मण्डप और देवकुलिका का निर्माण करवाया। उसने वहां पर मरुदेवी की एक गजारूढ़ प्रतिमा भी बनवाई। इस पुननिर्मित मंदिर का प्रतिष्ठा-समारोह १४६८ ई० में सोमविजय सूरि के द्वारा सम्पन्न करवाया गया था। उसने अपने जन्म स्थान डूंगरपुर से ५ मील दूर थाना में एक जैन मंदिर का निर्माण कार्य भी प्रारम्भ करवाया, जो पूर्ण नहीं हो सका।२ साहित्यिक प्रमाणों से ज्ञात होता है कि "सिद्ध-हेम-बृहद वृत्ति अष्टम", "श्री सुकमालस्वामी चरित्र", और "काव्य-कल्पलताकवि-शिक्षावृत्ति" नामक ग्रन्थ-रावल सोमदास के शासनकाल में हो लिखे गये थे। इनके काल का एक जैनाचार्य का स्मारक भी उपलब्ध है।४ इन्हीं के राज्यकाल में १४६२ ई० और १४७३ ई० में कतिपय जैन प्रतिमाओं का प्रतिष्ठा समारोह भी सम्पन्न हुआ था।५ रावल सोमदास के पुत्र गंगदास थे व गंगदास के उत्तराधिकारी उदयसिंह हुए। बाँसवाड़ा राज्य के नौगामा में शांतिनाथ जैन मंदिर की दीवार पर उत्कीर्ण १५१४ ई० के शिलालेख में उल्लेख है कि यह राजा उदयसिंह के शासनकाल में हुम्मड़ जाति के दोशी चम्पा के पुत्र और पौत्रों के द्वारा निर्मित करवाया गया था । परवर्ती काल में भी जैन मत यहाँ निरन्तर उन्नतिशील रहा, जो पश्चातवर्ती काल में यहाँ खोजी गई प्रतिमाओं से प्रमाणित होता है । प्रतापगढ़ राज्य में भी जैन धर्म उन्नतिशील स्थिति में था, जिसका प्रमाण १४वीं व १५वीं शताब्दी की देवली, झाँसदी और प्रतापगढ़ के जैन मंदिरों की प्रतिमाओं के लेखों से स्पष्ट होता है। देवलो के जैन मंदिर में पीतल की प्रतिमा के पृष्ठ पर उत्कीर्ण १३१६ ई० के अभिलेख में, धन्धलेश्वर वातक कस्बे के निवासी श्रीमालजातीय ठाकुर खेताक के द्वारा पार्श्वनाथ की प्रतिमा अपने पिता ठाकुर फम्पा और माता हाँसला. देवी के आध्यात्मिक कल्याण के निमित्त स्थापित करवाने का उल्लेख है। १. एरिराम्यूअ, १९२५-२६, क० ८। २. ओझा-डूंगरपुर राज्य, पृ० ५८ । ३. श्री महारावल अभि० ग्रन्थ, पृ० ३९९ । ४. एरिराम्यूअ, वर्ष १९१६-१७ । ५. ओझा-डूंगरपुर राज्य, पृ० ७०-७१ । ६. एरिराम्यूअ, १९१६-१७, क्र० ५। ७. वही, १९१४-१५ । ८. वही, पृ० १९२१-२२ । ९. वही, १९२१-२२, क्र० ६ । Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनधर्म की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि : ४३ (३) हाड़ोती क्षेत्र में जैनधर्म : मध्यकाल में हाड़ौती क्षेत्र में जैन मत श्रावकों में पर्याप्त लोकप्रिय था किन्तु यहाँ राज्याश्रय प्राप्त करने के अधिक अभिलेखीय प्रमाण उपलब्ध नहीं होते हैं। १३वीं शताब्दी में बून्दी में हाड़ौती राज्य की स्थापना हो चुकी थी तथा कोटा व झालावाड़ के क्षेत्र भी इसी के अन्तर्गत थे। मध्यकाल में यह प्रदेश मुगल सम्राटों के दिल्ली से मालवा जाने के मार्ग में था । मुगल अभियानों का इन शताब्दियों में इस प्रदेश में. बाहुल्य रहा, अतः जैन मत व्यापक रूप से राजाओं का संरक्षण ग्रहण नहीं कर पाया, किन्तु स्थानीय शासक जैन धर्म के विरोधी भी नहीं थे। इसका स्पष्ट प्रमाण हमें हाड़ौती की राजधानी बन्दी में देखने को मिलता है, जहाँ वर्तमान में १२ दिगम्बर जैन मन्दिर, एक नसियाँ व २ श्वेताम्बर जैन मन्दिर हैं। इनमें बहुत से मंदिर मध्यकाल में निर्मित हुये। गढ़ के निकट ऋषभदेव जैन मन्दिर, अभिनन्दन स्वामी मन्दिर, शांतिनाथ, पार्श्वनाथ, नेमिनाथ आदि के मन्दिर रचना शैली से अतीव सादगीपूर्ण तथा मध्यकालीन प्रतीत होते हैं । ऋषभदेव मन्दिर में १२५७ ई० की काष्ठासंघीय भट्टारक द्वारा प्रतिष्ठित सम्भवनाथ की प्रतिमा है । यहाँ के जैन मन्दिरों में मध्यकाल में प्रतिष्ठित अनेकों प्रतिमाएं हैं। हाड़ौती का प्रसिद्ध जैन तीर्थ केशोरायपाटन १४वीं शताब्दी में बून्दी रियासत के अन्तर्गत आ गया था । यहाँ अनेक सन्तों एवं आचार्यों का बिहार होता रहता था । नेमिचन्द्र सिद्धान्ति-देव जैसे तपस्वी मुनि का यह स्थान साधना केन्द्र था। उन्होंने २६६ "गाथात्मक पदार्थ-लक्षण रूप लघु द्रव्य संग्रह" एवं विशेष तत्व ज्ञान के लिये "बृहद् द्रव्य संग्रह" की इसी मन्दिर में रचना की थी। यह नगर उस समय मालवा शासन के अन्तर्गत था एवं मालवा एवं धाराधिपति परमारवंशीय भोजदेव के प्रांतीय शासक, परमारवंशीय श्रीपाल द्वारा शासित था। सोम नामक राजश्रेष्ठी श्रीपाल का विश्वसनीय अधिकारी था। इसी धर्मानुरागी श्रेष्ठी के अनुरोध पर उक्त ग्रन्थों की रचना हुई थी। इस मन्दिर में कई मध्यकालीन जैन प्रतिमाएं हैं और कुछ तो १२७० ई०, १२९३ ई० को भी है। इसी प्रकार इस क्षेत्र में नैनवां प्राचीनकाल से ही जैनधर्म का केन्द्र रहा। यहाँ के मन्दिरों में शास्त्र भण्डार भी हैं, जिनमें १४१२ ई० की 'प्रद्युम्न चरित्र" की प्रति प्राचीनतम है। केशवसिंह नामक कवि ने “भद्रबाहु चरित्र" की रचना यहीं समाप्त की थी। जैनवां में ६ जैन मन्दिर व एक नसिया है । यहां से प्राप्त १२९४ ई० के एक अभिलेख में दिगम्बर भट्टारक प्रतापदेव का सन्दर्भ है। १. अने०, वर्ष १९, अंक १-२, पृ०७० । २. वही, कासलीवाल, के० पाटन, पृ० १३ । ३. वही, पृ० ५२। ४. वरदा, १४, पृ० २२-२५ । Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४ : मध्यकालीन राजस्थान में जैनधर्म यहीं के एक १२७६ ई० के प्रस्तर लेख में पद्मनन्दी के एक शिष्य का उल्लेख मिलता है।' नगर की नौ निषेधिकाओं में से अधिकांश १३वीं से १६वीं शताब्दी तक की हैं । "सिद्ध चक्र कथा" ग्रन्थ की प्रशस्ति से ज्ञात होता है कि जब यह ग्रन्थ नैनवां में १४५८ ई० में लिखा गया था, तब वहाँ मालवा के सुल्तान अलाउद्दीन का राज्य था । झालावाड़ क्षेत्र के बकानी ग्राम में आदिनाथ की १४८८ ई० की प्राचीनतम प्रतिमा उपलब्ध है । झालरापाटन के शान्तिनाथ जैन मन्दिर में कुछ प्रतिमाएँ १४३३ ई० से १५६३ ई० तक की हैं, जिनकी प्रतिष्ठा बलात्कारगण के ईडर शाखा के विभिन्न भट्टारकों ने करवाई थी। १४वीं शताब्दी में, मुस्लिम सेनाओं द्वारा शांतिनाथ मंदिर ध्वस्त होने के बाद कोटा के महाराव उम्मेदसिंह के शासनकाल में इसका पुननिर्माण हुआ था। ( ४ ) सिरोही राज्य में जैन मत : ____ अर्बुद मण्डल का यह प्रदेश प्राचीन परम्पराओं के अनुसार जैन मत का समृद्ध व उत्कर्षशील केन्द्र रहा है। मुस्लिम आक्रमणों एवं विध्वंस के बावजूद जैनाचार्यों की प्रेरणा व राजकीय संरक्षण से मन्दिरों का जीर्णोद्धार होता रहा और यह क्षेत्र जैन धर्म को समृद्ध बनाता रहा । धनारी के जैन मन्दिर के १२९१ ई० के लेख में परमार वंश के नये राजा सालासुत जैतमाल का नाम है। सम्भवतः यह लेख मन्दिर के जीर्णोद्धार से सम्बन्धित है। सिरोही क्षेत्र के वधिना के शान्तिनाथ मन्दिर के १३०२ ई० के लेख में महाराज सामन्त देव सिंह के कल्याणविजय राज्य में, शान्तिनाथ देव की यात्रा महोत्सव के निमित्त कुछ सोलंकियों द्वारा सामूहिक रूप से गाँव, खेत और कुए के हिसाब से कुछ अनुदान की व्यवस्था का उल्लेख है।" जूना, बाड़मेर से प्राप्त १२९५ ई० के आदिनाथ मन्दिर के लेख में भी सामन्तसिंहदेव का उल्लेख है । इस लेख में मन्दिर की व्यवस्था के निमित्त कुछ करों का उल्लेख है। १३३२ ई० के "कालन्द्री अभिलेख" से ज्ञात होता है कि एक सम्पूर्ण संघ ने यहां आमरण उपवास किया था। इस प्रकार अमरत्व प्राप्त करने वाले सभी लोगों के नाम इस अभिलेख में हैं। यह वर्णन १४वीं शताब्दी में जैन धर्म और इसके सिद्धान्तों के प्रति लोगों की निष्ठा और आस्था का प्रमाण है । सिरोही के शासकों के राज्यकाल में जैन धर्म निरन्तर प्रवद्धित १. वरदा, १४, पृ० २२-२५ । २. यह ग्रन्थ जयपुर के बिरधीचन्द जैन मन्दिर के शास्त्र भण्डार में संग्रहीत है। ३. जैरा, पृ० १५३ । ४. जैन तीर्थ सर्व संग्रह, पृ० २५३ । ५. नाजैलेस, भाग १, क्र० ९५९ । ६. वही, क्र० ९१८, पृ० २४४ । ४७. जैइरा, पृ० ३७ । Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनधर्म की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि : ४५ और प्रसारित होता रहा । पिंडवाड़ा के महावीर मन्दिर में १४०८ ई० के अभिलेख में वर्णन मिलता है कि राजकुमार सोहज के शासनकाल में स्थापना की गई थी ।' वर्द्धमान की प्रतिमा की आबू देलवाड़ा के पित्तलहर मन्दिर के १४६८ ई० के लेख में "श्री अर्बुद गिरी देवड़ा श्री राजधर सागर श्री डूंगरसिंह राज्य " अंकित है, जिससे इस क्षेत्र में राजनीतिक उथल-पुथल होने का आभास होता है, क्योंकि ये नाम इस काल की सिरोही की राज्य - परम्परा से मेल नहीं खाते । १४५८ ई० के खर्तरवसहि मन्दिर के लेख के सन्दर्भ में, इस समय यहाँ राणा कुम्भा का राज्य होना चाहिये । 3 आबू रोड स्टेशन से तीन मील दूर ऋषभ मन्दिर में प्रस्तर पर उत्कीर्ण अभिलेख से इस तथ्य की पुष्टि होती है कि १५४२ ई० में रायसिंह के शासनकाल में ऋषभ आश्रम का निर्माण रायमल ने करवाया था । १५४६ ई० में दुर्जन साल के राज्यकाल में लच्छलदे" और तेज -- पाल ६ की स्मृति में दो मूर्तियाँ बनवाई गई थीं । तेजपाल द्वारा निर्मित मूर्ति १५६५ ई० में बनी थी । इसी प्रकार पिंडवाड़ा के महावीर मन्दिर में बाई गौरांगदे और लक्ष्मीकी स्मृति में दो मूर्तियाँ निर्मित हुई थीं । अकबर के निमन्त्रण पर फतेहपुर सीकरी जाते समय हीरविजय सूरि सिरोही में रुके थे, जहाँ उनका स्वागत राजा सुरताण सिंह के द्वारा किया गया था । इस अवसर पर राजा ने शराब न पीने, आखेट न करने, मांस न खाने एवं अनियमित सेक्स जीवन व्यतीत न करने की प्रतिज्ञा ली थी । सूरि जी के उपदेशों से उसने कुछ कर भी समाप्त कर दिये थे । सिरोही के मन्दिर के अभिलेख से ज्ञात होता है कि नगर का चतुर्मुख जैन मन्दिर १५७७ ई० में सुरताण सिंह के पुत्र महाराजा राजसिंह के शासनकाल में निर्मित हुआ था । १० सिरोही क्षेत्र में मध्यकाल में विपुल जैन साहित्य का सृजन हुआ । नागेन्द्र गच्छ के उदयप्रभ सूरि ने आबू में "धर्माभ्युदय" महाकाव्य, १. एरिराम्यूअ, १९०९-१०, क्र० ३ । २. अप्रलेस, सं० ४०७, पृ० १६१ । ३. वही, सं० ४४१, पृ० १७३ । ४. एरिराम्यूअ, १९२४-२५, क्र० ११० । ५. अप्रजैलेस, क्र० ३७९ । ६. वही, क्र० ३८० । ७. वही, क्र० ३८३ । ८. वही, क्र० ३८३-८४ ९. सूरीश्वर और सम्राट् अकबर, पृ० १८८ | १०. अप्रजैलेस, क्र० २५० । १२३३ ई० में १२३० ई० में Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -४६ : मध्यकालीन राजस्थान में जेनधमं " - इसी गच्छ के विजयसेन सूरि ने "रेवंतगिरि रास" की रचना आबू में की । चन्द्रावती एवं आबू में ही १२२५ ई० में सोमेश्वर ने "कीर्तिकौमुदी" एवं "सुरतोत्सव", कोरटा में १३०६ ई० में प्रज्ञातिलक सूरि ने "कच्छुली रास ", चंद्रावती में १३वीं शताब्दी में उदयसूरि ने "पिडविशुद्धि विवरण", धर्मप्रवृत्ति" एवं "चंत्य वंदन दीपिका ", जिनप्रभ सूरि ने आबू में १२२१ ई० में "तीर्थकल्प", सोमसुन्दर सूरि के शिष्यों ने आबू में " गुरुगुणरत्नाकर काव्य", जीरावला में माणिक्यसुन्दर सूरि ने १४२१ ई० में “पृथ्वीचन्द्र चरित्र” की रचना, जीरावला में ही १४२८ ई० में पिप्पलगच्छ के हीरानन्द सूरि ने "विद्याविलास चरित्र पवाड़े" व आबू में " वस्तुपाल • तेजपाल रास", जीरावला में १४४६ ई० में तपागच्छीय पंडित सोमधर्मगणि ने " उपदेश सप्ततिका" तथा यहीं पर १४६७ ई० में " सोमसौभाग्य काव्य" की रचना हुई । ' (५) जैसलमेर क्षेत्र में जैनधर्म : मध्यकाल में जैसलमेर में भाटी राजपूतों के शासनकाल में जैन धर्मं अत्यधिक उन्नतिशील हुआ । कई राजाओं ने धार्मिक समारोहों में सम्मिलित होकर धार्मिक गतिविधियों में अपनी रूचि प्रदर्शित की । यहाँ कई कलात्मक मन्दिरों के निर्माण हुये, संघ यात्राएँ आयोजित हुईं तथा असंख्य ग्रन्थ मौलिक रूप से लिखे गये या प्रतिलिपि किये गये । १३वीं शताब्दी के पूर्वाद्ध में जैसलमेर नगर भाटियों की राजधानी के रूप में अस्तित्व में आया । जैसलमेर भण्डार में संग्रहीत १२२८ ई० की कृति "धन्यशालिभद्र चरित्र" में इस नगर का नामोल्लेख है, जिससे स्पष्ट सिद्ध होता है कि यह नगर निर्माण के तुरन्त बाद से ही जैन धर्म का केन्द्र रहा होगा । २ १२८३ ई० में जिन प्रबोध सूरि के जैसलमेर आगमन पर महाराजा कर्ण ने अपनी सेना के साथ उनका हार्दिक स्वागत किया था । महाराजा के आग्रह पर सूरिजी ने चातुर्मास वहीं व्यतीत किया । जैत्रसिंह प्रथम के राज्यकाल में जैनाचार्य जिनचन्द्रसूरि जैसलमेर आये थे, उस समय यहाँ अनेक धार्मिक आयोजन हुये थे । जैसलमेर में १४१६ ई० में राजा लक्ष्मण सिंह के शासनकाल में जिनेश्वर सूरि के उपदेशों से चिन्तामणि पार्श्वनाथ का मन्दिर निर्मित करवाया गया । लुद्रवा से लाई गई पार्श्वनाथ की प्रतिमा को इस मन्दिर में स्थापित किया गया और इस मन्दिर को "लक्ष्मण विलास" नाम दिया । यह नामकरण जैन धर्मावलम्बियों की राजा के प्रति कृतज्ञता तथा राजा के जैनधर्म के प्रति स्नेह का द्योतक है। १. असावे, पृ० ४८-५१ । २. सोमाणी - राजस्थान के ऐतिहासिक शोध लेख, पृ० १४८ । ३. खबृगु, पु० ५८ । ४. नाजैलेस, ३, क्र० २११२ । Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनधर्म की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि : ४७ लक्ष्मण का उत्तराधिकारी वयरसिंह हआ। १४३६ ई० में पासद ने अपने परिवार के सदस्यों के साथ चिन्तामणि मन्दिर में सुपार्श्वनाथ की प्रतिमा की स्थापना, वयरसिंह के राज्यकाल में ही करवाई थी।' साह हेमराज और पूना ने १४३७ ई० में सम्भवनाथ का मन्दिर निर्मित करवाया था। इस मन्दिर का प्रतिष्ठा महोत्सव हर्षोल्लास 'पूर्वक १४४० ई० में आयोजित हुआ था। जिनभद्र सूरि ने सम्भवनाथ सहित अन्य ३०० मूर्तियों की स्थापना व प्रतिष्ठा यहाँ की थी। राजा वयरसिंह भी इस उत्सव में सम्मिलित हुये थे। इनके शासन काल में शाह लोला ने अपने परिवार के कई -सदस्यों के साथ पार्श्वनाथ को एक कायोत्सर्ग प्रतिमा १४४० ई० में स्थापित की । ३ चाचिगदेव, वयरसिंह का पुत्र एवं उत्तराधिकारी, १४४८ ई० में सिंहासनारूढ़ हुआ । इनके शासन काल में १४६१ ई० में सजाक, सचोहराज" और सज्जा ने क्रमशः नन्दीश्वर पट्टिका, शत्रुजय गिरनारावतार पट्टिका का प्रतिष्ठा महोत्सव जिनचन्द्र सूरि के द्वारा आयोजित करवाया। देवकर्ण के शासन काल में भी जैन धर्म का तीव्र संवर्धन हुआ। इसके काल में सांवलेचा गोत्र के खेता और चोपड़ा गोत्र के पाँचा ने शान्तिनाथ और अष्टापद के दो प्रसिद्ध मन्दिर १४७९ ई० में निर्मित करवाये । सम्भवतः ये दोनों श्रेष्ठी परिवार आपस में सम्बन्धी थे। संघवी खेता ने अपने परिवार के साथ शत्रुजय गिरनार आदि तीर्थों की कई बार यात्रा की। उसने सम्भवनाथ मन्दिर की प्रसिद्ध तपपट्टिका का प्रतिष्ठा-समारोह भी सम्पन्न करवाया था। १४७९ ई० में पाटण के श्रेष्ठी धनपति ने इनके राज्यकाल में ही शान्तिनाथ की प्रतिमा का प्रतिष्ठा महोत्सव आयोजित कर, इसे पार्श्वनाथ मन्दिर में प्रतिष्ठित करवाया। इसी मन्दिर में १४७९ ई० में हेमा और भीमसी ने "जिनवरेन्द्र पट्टिका' निर्मित करवाई। इसी समय ऋषभदेव मन्दिर में मरूदेवी की प्रतिमा निर्मित करवाई गई। १५२४ ई० में रावल जैत्र सिंह के आदेश से किये गये निर्माण कार्यों का उल्लेख १. नाजैलेस, क्र० २११४ । २. वही, क्र० २१३९ । ३. वही, क्र० २१४५ । ४. वही क्र० २११६ । ५. वही, क्र. २११७ । ६. वही क्र. २११९ । ७. वही, क्र० २१५४। ८. वही, क्र० २१२० । ९. वही, क्र० २४०४ । Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८ : मध्यकालीन राजस्थान में जैनधर्म है, जिसमें एक कूप तथा दशावतार की प्रतिमाओं के निर्माण का भी उल्लेख है ।" १५२३ ई० की जैसलमेर की शान्तिनाथ मन्दिर की प्रशस्ति में, जयन्तसिंह के राज्यकाल में, उकेशवंशीय संघवाल गोत्र के संघी अम्बा के पुत्र संघी कोचर आदि के द्वारा संघ के साथ धर्म स्थानों की यात्रा की तथा उसके उपलक्ष्य में 'लहण' देने का उल्लेख है | 'कल्पसिद्धान्त' आदि धार्मिक ग्रंथों के लिखवाने व दान देने का भी इसमें वर्णन है । १५२६ ई० की जैसलमेर के शान्तिनाथ मन्दिर की एक अन्य प्रशस्ति में राजा जयन्तसिंह और कुंवर लूणकर्ण की दुहाई के पश्चात् उकेशवंशीय संखवाल आम्बा के पुत्र कोचर के द्वारा कोरंट नगर और संख्वाली गाँव में ऊंचे तोरण वाले प्रासाद बनवाने और आबू की संघ यात्रा में जाने का उल्लेख है । इसने अपना समस्त धन लोगों को दान देकर 'कर्ण' का स्थान प्राप्त किया। इसी के वंशज खेता ने जैसलमेर दुर्ग में अष्टापद तीर्थ प्रासाद १४७९ ई० में बनवाया था । इसने सुनहरी अक्षरों में कल्पसिद्धान्त की पुस्तकें भी लिखवाई थीं । १५९३ ई० में भीमसेन के शासनकाल में संघवी पासदत्त के द्वारा जिनकुशल सूरि की पादुका निर्मित करवाई गई ।" ( ६ ) जोधपुर और बीकानेर राज्यों में जैन मत : । जोधपुर और बीकानेर राज्यों में, मुख्यतः राठौड़ शासकों के संरक्षण में, इस काल में जैन मत बहुत पुष्पित एवं पल्लवित हुआ । इन क्षेत्रों के शासक जैनाचार्यों के प्रति श्रद्धालु एवं धर्म सहिष्णु थे । शासक आदर भाव से उनसे मिलते थे और राज्य में उनके आगमन पर उनका हार्दिक स्वागत किया जाता था जालौर की एक मस्जिद, जो मुसलमानों द्वारा तोड़े मन्दिरों की अवशिष्ट सामग्री से निर्मित है, में १२११ ई० का एक शिलालेख प्राप्त हुआ है । छः पंक्तियों वाले इस लेख में कांचनगिरि पर स्थित विहार और जैन मन्दिर के निर्माण का ब्यौरा है । लेख के अनुसार चालुक्य राजकुमार पाल द्वारा यहाँ एक विहार का निर्माण देवाचार्य की अध्यक्षता में १९६४ ई० में हुआ था । इसके पश्चात् १९८५ ई० में चहमानवंशीय समरसिंह देव की आज्ञा से भण्डारी यशोवीर ने इसका पुनर्निर्माण करवाया था । ११९९ ई० में यहाँ ध्वजारोहण, तोरण १. नाजैलेस, पृ० ३५-४० । २. वही, क्र० २१५४ । ३. गाओस, २१, अपे० ५ । ४. वही । ५. नाजैलेस, ३, क्र० २४९४ । ६. राइस्त्रो, पृ० १०० । Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनधर्म की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि : ४९ आदि की प्रतिष्ठा हुई और फिर १२११ ई० में दीपोत्सव पर पूर्ण देव सूरि के शिष्य रामचन्द्राचार्य ने स्वर्ण कलश की प्रतिष्ठा की । " महाराजा चाचिगदेव के शासनकाल के, जालौर के महावीर मन्दिर के १२६६ ई० के लेख में, मठपति गोष्ठिक के समक्ष मन्दिर के निमित्त अनुदान का उल्लेख है । जालौर से ही प्राप्त महावीर मन्दिर के १२६३ ई० के लेख में भी मन्दिर को दिये गये दान का उल्लेख है । 3 जसोला से ३ मील दूर स्थित, नगर में जैन मत अत्यधिक लोकप्रिय था । यह नगर जोधपुर राज्य की प्राचीन राजधानी खेडा के शासक मल्लिनाथ के उत्तराधिकारियों द्वारा शासित होता था । इस स्थान के राठौड़ शासक उदार दृष्टिकोण वाले थे । अतः जैन मत उन्नतिशील रहा । १४५९ ई० में रादुंद के शासनकाल में गोविन्दराज ने मोदराज गणि के उपदेशों से प्रभावित होकर महावीर मन्दिर के लिये अनुदान दिया था । रावल कुशकण के शासनकाल के ऋषभदेव मन्दिर से प्राप्त १५११ ई० के अभिलेख में वर्णित है कि विमलनाथ मन्दिर के रंगमण्डप का निर्माण वीरमपुरा के संघ के द्वारा करवाया गया था ।" जोधपुर में सुमतिनाथ एवं शीतलनाथ की प्रतिमाओं के १५०८ ई० के लेखों में, भण्डारी गोत्र के साहू नरा एवं परिवार द्वारा, संडेरगच्छ के शांति सूरि के माध्यम से सुमतिनाथ बिम्ब प्रतिष्ठा और उपकेशवंशीय सांडा एवं परिवार द्वारा, सिद्धान्तिगच्छ के देवसुन्दर सूरि द्वारा शीतलनाथ की बिम्ब प्रतिष्ठा करवाने का उल्लेख है । रावल मेघविजय राजा के शासनकाल में शांतिनाथ मन्दिर के नली मण्डप का निर्माण कार्य पूर्ण हुआ था । ७ १५८० ई० के अभिलेख में वर्णित है कि इस मन्दिर का रावल मेघविजय के शासनकाल में जीर्णोद्धार किया गया था, जो अकबर प्रतिबोधक हीरविजय सूरि के द्वारा सम्पन्न हुआ था । लगभग १४८८ ई० में बीकाजी ने अपने समर्थकों के साथ जोधपुर नगर त्याग कर बीकानेर की स्थापना की थी । उन्होंने व उनके उत्तराधिकारियों ने जैन धर्म की प्रभावना को पुष्ट करने में अत्यधिक उत्साह प्रदर्शित किया । अकबर का समकालनी महाराजा रायसिंह, जिनचन्द्र सूरि का शिष्य बन गया था । अपने मंत्री कर्मचन्द्र के निवेदन व सहयोग से १५८२ ई० में वह अकबर की आज्ञा से, सिरोही जैन मन्दिर से तुरासानखान १. राइस्त्रो, पृ० १०१ । २. नाजैलेस, १, क्र० ९०३, पृ० २३८ । ३. वही, क्र० ९०१ । ४. वही, ३, क्र० ९३१ । ५. प्रोरिआसवेस, १९११-१२, पृ० ५४ । ६. नाजैलेस, भाग १, क्र० ५९६ । ७. प्रोरिआसवेस, १९११-१२, पृ० ५४ । ४ Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५० : मध्यकालीन राजस्थान में जैनधर्मं द्वारा लूटी गई १०५० प्रतिमाएँ वापस लाया था । सम्भवतः इस वक्तव्य में किंचित अतिशयोक्ति है, क्योंकि तुरासानखान का सम्भवतः अकबर से कोई लेना-देना नहीं था । बीकानेर दुर्ग के द्वार के पार्श्व में महाराजा रायसिंह के समय की, १५९४ ई० की एक प्रशस्ति में, रचयिता क्षेमचन्द्र का शिष्य जयिता नामक एक जैन मुनि वर्णित है तथा दुर्ग-निर्माण मन्त्री कर्मचन्द्र के निरीक्षण में सम्पन्न होने का भी उल्लेख है । कर्मचन्द्र ने लाहौर में जिनचन्द्र सूरि का 'युग प्रधान पदोत्सव' आयोजित करवाया था, जिसमें महाराजा रायसिंह ने कुंअर दलपतसिंह के साथ भाग लिया था और सूरि जी को बहुत से धार्मिक ग्रन्थ भेंट में दिये थे । जिनचन्द्र सूरि के पट्टधर जिनसिंह सूरि से महाराजा रायसिंह के अच्छे सम्बन्ध थे । इन्हीं के शासनकाल में हम्मीर ने अपने परिवार के सदस्यों के साथ नेमिनाथ की प्रतिमा स्थापित की थी । (७) जयपुर राज्य में जेनधमं : जयपुर राज्य में कछावा शासकों के अन्तर्गत जैन धर्म उन्नति और समृद्धि को प्राप्त हुआ । राज्य में लगभग ५० जैन दीवान कार्य करते थे, जिनके संरक्षण में धार्मिक पुस्तकों की प्रतियाँ, मन्दिरों का निर्माण और प्रतिमाओं के प्रतिष्ठा आयोजन सम्पन्न हुये । इस काल में जयपुर राज्य की विभिन्न छोटी-छोटी रियासतों में शक्तिशाली ठाकुरों की जागीरदारी में भी जैन धर्म को पर्याप्त संरक्षण और प्रवर्द्धन प्राप्त हुआ । हिण्डौन के श्रेयांसनाथ मन्दिर की आदिनाथ एकतीर्थी के १४८५ ई० के लेख में राजा मानसिंह राउल का नामोल्लेख है ।४ १५३८ ई० में कर्मचन्द्र के शासनकाल में " भविष्यदत्त चरित्र" की प्रति लिखी गई थी ।" १५५९ ई० में नेमिनाथ मन्दिर में "पाण्डव पुराण" और "हरिवंश पुराण' ७ की प्रतिलिपियाँ तैयार की गई थीं । भारमल के उत्तराधिकारी भगवानदास के शासनकाल में मालपुरा में " वर्धमान चरित्र" की एक प्रति की रचना की गई थी ।" मानसिंह के शासनकाल में भी जैन धर्म ने निरन्तर प्रगति की । इनके शासनकाल में १५८८ ई० में मालपुरा के आदिनाथ मन्दिर में १. बीजैलेस, पृ० २७ ॥ २. ओझा, बीकानेर राज्य, १, पृ० १७९ । ३. बीजैलेस, पृ० ७। ४. प्रलेस, क्र० ८३३ । ५. प्रस, पृ० १४८ । ६. वही, पृ० १२६ । ७. वही, पृ० ७७ । ८. वही, पृ० १७० । Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनधर्म की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि : ५१ "हरिवंश पुराण" की प्रति तैयार की गई थी । १५९१ ई० में खण्डेलवाल जाति के थानसिंह ने बिहार में पावापुरी में " षोडशकारण यंत्र" का स्थापना समारोह सम्पन्न करवाया था । सांगानेर की दादाबाड़ी में जिनकुशल सूरि की पादुका के १५९९ ई० के अभिलेख में मानसिंह के विजयराज्य में व महामंत्री कर्मचन्द्र के काल में खरतरगच्छ के युगप्रधान जिनचन्द्र सूरि के विजय राज्य में, जिनकुशल सूरि की पादुका सर्व संघ के कल्याणार्थं स्थापित करने का उल्लेख है । 3 अकबर के काल में बैराठ में १५८७ ई० में श्रीमाल इन्द्रराज के द्वारा पार्श्वनाथ मन्दिर निर्मित करवाने का उल्लेख है । विमलनाथ को अर्पित इस मन्दिर का नाम " महोदयप्रासाद" और " इन्द्रविहार" दोनों ही रखे गये थे । इस समय बैराठ इन्द्रराज नामक सामंत द्वारा शासित था । सोलंकी राजाओं द्वारा शासित टोडारायसिंह में १५३६ ई० में सोलंकी राजा सूर्यसेन के शासनकाल में उनियारा के निकट आव में संघवी कालू ने प्रतिमाओं का प्रतिष्ठा समारोह आयोजित किया था 14 जब टोडारायसिंह के ऊपर रावरामचन्द्र का शासन था, तब “यशोधर चरित्र" की पृथक्-पृथक् दो प्रतियाँ क्रमश: १५५३ ई० और १५५५ ई० में लिखो गई । ७ इस काल में चातसू जैन धर्म का प्रमुख केन्द्र था । यहाँ पर ग्रंथों की कई प्रतियाँ तैयार हुई । १५२५ ई० में "सम्यक्त्व कौमुदी १५२५ ई० में " राजवार्तिक ९, १५२६ ई० में "चन्द्रप्रभ चरित्र १०, १५३७ ई० में “शतपाहुड' ११ और १५५६ ई० में " उपासकाध्ययन १२ लिखी गई थी। इन ग्रंथों की प्रशस्तियाँ ऐतिहासिक महत्त्व की हैं । "चंद्रप्रभ चरित्र" की प्रशस्ति से ज्ञात होता है कि चातसू राजा संग्राम सिंह के अधिकार में था और उनके सामन्त टोडारायसिंह के राव रामचन्द्र, यहाँ राज्य कर रहे थे । " शतपाहुड" १. प्रस, पृ० ७३ । २. जैइरा, पृ० ४५ । ३. प्रलेस, क्र० १०७० । ४. प्रोरिआसवेस, १९०९-१०, पृ० ४४-४५ । ५. पृ० १०९-१० । वीरवाणी - ४, ६. प्रस, पृ० १६८ । ७. वही, पृ० १६३ । ८. वही, पृ० ६३ ॥ ९. वही, पृ० ५४ । १०. वही, पृ० ९९ । ११. वही, पृ० १७५ । १२. वही, पृ० ९४ । Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२ : मध्यकालीन राजस्थान में जैनधर्म की प्रशस्ति से ज्ञात होता है कि इसके पश्चात् यह प्रदेश मेड़ता के राठौर शासक वीरमदे के नियन्त्रण में आ गया था। अन्त में आमेर के राजा भारमल ने यहाँ शासन किया, जैसा कि उनके शासन काल में लिखित "उपासिका-अध्ययन' से ज्ञात होता है । (८) अलवर राज्य में जैनधर्म : अजबगढ़', नौगामा और राजगढ़ से प्राप्त जैन प्रतिमाओं के अभिलेखों तथा कतिपय प्राचीन जैन-स्मारकों के अभिलेखीय अध्ययन से यह सिद्ध होता है कि इस प्रदेश में जैन धर्म प्राचीन काल से ही अस्तित्व में था । गुर्जर प्रतिहारों के पश्चात् खानजादाओं के शासनकाल १५वीं व १६वीं शताब्दी में भी, यहाँ जैन मत लोकप्रिय बना रहा। खानजादा मूलतः हिन्दू थे, जो १४वीं शताब्दी में फिरोज तुगलक के शासनकाल में धर्मान्तरित होकर मुसलमान हो गये थे, अतः स्वभाव एवं संस्कारवश ये सहिष्णु थे एवं जैन धर्म के प्रति आदर भाव रखते थे। मध्यकाल में अलवर तीर्थ स्थान के रूप में प्रसिद्ध हो गया था और असंख्य तीर्थयात्री यहाँ आते रहते थे। मध्यकाल में लिखित तीर्थमालाओं में यह स्थान 'रावण पार्श्वनाथ तीर्थ' के रूप में उल्लिखित है । सम्भवतः रावण ने उस स्थान पर कभी पार्श्वनाथ पूजन किया होगा। यद्यपि यह तथ्य काल्पनिक व पारम्परिक है, किन्तु अलवर क्षेत्र में जैन धर्म का प्राचीनता को तो सिद्ध करता ही है। यह भी सम्भव है कि अलवर के निकट "पारा नगर" कस्बे का नामकरण जैन तीर्थंकर पार्श्वनाथ के नाम पर ही हुआ हो, क्योंकि यहाँ असंख्य जैन भग्नावशेष उपलब्ध हैं और सम्भवतः प्राचीनकाल में इस स्थान का तीर्थकर पार्श्वनाथ से कोई सम्बन्ध रहा हो ।' तीर्थ क्षेत्र होने के कारण भ्रमणशील जैन सन्त और विद्वान् यहाँ आते रहते थे। अलवर क्षेत्र में कतिपय महत्त्वपूर्ण ग्रन्थों, जैसे-१५६७ ई० में साधु कीर्ति के द्वारा "मौन एकादशी स्तवन", १५४३ ई० में "लघुसंघत्रयी" व "हंसदूत" और १५४६ ई० में "लघुक्षेत्रसमास वृत्ति" की प्रतियाँ तैयार की गई। खानजादाओं के शासनकाल में तिजारा और बहादुरपुर में भी हस्तलिखित ग्रन्थों की कई प्रतियाँ निबद्ध की गई। १. एरिराम्यूअ, १९१८-१९, क्र० ४, ९एवं १० । २. वही, १९१९-२०, क्र० ३ एवं ४ । ३. आसरि, २०, पृ० १२४ । ४. जैसप्र, १०, पृ० ९९ । ५. जैइरा, पृ० ५०। ६. श्री प्रशस्ति संग्रह, पृ० ९६, १०८, ११५ एवं १२५ । ७. वही, पृ० ३५ एवं ५४ । Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनधर्म की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि : ५३ १५वीं व १६वीं शताब्दी में खानजादाओं के शासनकाल में मन्दिर भी निर्मित हुये और उनमें मूर्तियाँ भी प्रतिष्ठित को गई। १५१६ ई० के एक जैन अभिलेख में वर्णित है कि बहुद्रव्यपुर के आदिनाथ चैत्य का निर्माण श्रीमाल संघ के द्वारा करवाया गया था और उसमें एक प्रतिमा की स्थापना पुण्यरत्न सूरि के द्वारा की गई थी।' १५३१ ई० में अलवर के उपकेश जाति के एक श्रावक ने सिद्धसूरि के माध्यम से सुमतिनाथ की प्रतिमा स्थापित करवाई थी। (स) उत्तर मध्यकाल : १७वीं व १८वीं शताब्दी में भी जैन धर्म की राजस्थान में बहुत सुदृढ़ स्थिति रहो एवं यह प्रगतिशील रहा । यद्यपि इस काल तक जैन मत विभिन्न संघों एवं गच्छों के अतिरिक्त लोकप्रिय पंथों में भी विभक्त हो चुका था, जिनमें से कुछ पूर्ववर्ती शताब्दियों के मुस्लिम विध्वंस के प्रभाव के कारण अमूर्तिपूजक भी थे, फिर भी मन्दिरों को स्थापना और प्रतिष्ठाओं का क्रम राजकीय संरक्षण में निरन्तर जारी रहा। अकबर के धर्म सहिष्णु विचारों के परिणामस्वरूप १६वीं शताब्दी के अन्त तक एवं १७वीं शताब्दो के पूर्वाह्न में जहाँगीर के काल तक जैनाचार्यों को अत्यधिक सम्मान प्राप्त था, किन्तु तत्पश्चात् से हो मुस्लिम कट्टरता के पुनर्जागृत होने से, १७वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में अर्थात् औरंगजेब के शासनकाल में, जैनधर्म के प्रतिमानों को मूर्ति भंजक विप्लव का सामना करना पड़ा। १८वीं शताब्दी में मुगल सल्तनत के ह्रास के साथ ही जैन धर्म को निर्बाध प्रगति में नयी प्रवृत्तियाँ विकसित होने लगी एवं समाज में जैन मत की लोकप्रियता व वर्चस्व अक्षण्ण बना रहा । (१) मेवाड़ में जैनधर्म : महाराणा प्रताप के उत्तराधिकारी उनके पुत्र अमरसिंह हुये । १६०२ ई० के मेवाड़ी भाषा के एक विस्तृत अभिलेख में अमरसिंह के द्वारा विशाल धनराशि के अनुदान का उल्लेख है। इसी वर्ष के नाणा गांव के अभिलेख में राणा अमरसिंह द्वारा नाणा गांव मोहता नारायण को दिये जाने का उल्लेख है। इसी गांव से नारायण ने महावीर पूजा के लिये एक रहट अनुदान दिया था। नाणा गाँव उस समय मेवाड़ राज्य के अन्तर्गत था। महाराणा जगतसिंह के काल में जैन धर्म को विशेष राजकीय संरक्षण प्राप्त हुआ । नाडौल में १६२९ ई० में एक प्रतिमा जयमालती द्वारा स्थापित की गई थी।" १. आसरि, २० पृ० ११९ । २. नाजैलेस, १, क्र० १४६४ । ३. प्रोरिआसवेस, १००७-८, पृ० ४८-४९ । ४. नाजैलेस, १, क्र० ८९० पृ० २३० । ५. प्रोरिआस, वेस, १९०८-९ पृ० ४६ । Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४ : मध्यकालीन राजस्थान में जेनधमं इसी वर्ष नाडलाई में सम्पूर्ण संघ के द्वारा एक प्रतिमा स्थापित की गई थी ।' आचार्य देवसूरि की गुण कीर्ति सुनकर महाराणा जगतसिंह ने अपने प्रधानमंत्री झाला कल्याण सिंह के द्वारा उन्हें उदयपुर में चातुर्मास व्यतीत करने हेतु निमन्त्रित किया था । " दिग्विजय महाकाव्य" से विदित होता है कि आचार्य देवसूरि ने निमन्त्रण स्वीकार किया और उदयपुर आगमन पर उनका राजकीय सम्मान के साथ भव्य स्वागत किया गया । उनके व्याख्यानों से अत्यन्त प्रभावित होकर राणा ने वरकाणा नामक स्थान पर प्रतिवर्ष होने वाले लोगों से वसूल किये जाने वाले कर और चुंगी आदि के लिये निषेधाज्ञा जारी कर दी । एक अन्य अध्यादेश के अनुसार पिछौला और उदयसागर झील से मछली या अन्य किसी जीवित प्राणी को पकड़ने की मनाही थी । प्रतिवर्ष भाद्रपद माह, महावीर जन्म माह और महाराणा के राज्यारोहण दिवस के दिनों में पशु वध का निषेध था । उसने राणा कुम्भाकालीन मनीचन्द दुर्ग पर निर्मित जैन मन्दिरों के जीर्णोद्धार का भी आदेश दिया एवं उदयपुर के जैन मन्दिर में ऋषभदेव की प्रतिमा का पूजन का आयोजन भी किया। महाराणा जगतसिंहकालीन मेवाड़ के देलवाड़ा ग्राम में १७४१ ई० में हेमराज ने एक जैन उपाश्रय बनवाया था । महाराणा राजसिंह के मुख्यमन्त्री दयाल शाह ने राजनगर में सुन्दर जैन मन्दिर निर्मित करवाया और १६७५ ई० में उसका प्रतिष्ठान समारोह विजयसागर सूरि से सम्पन्न करवाया ।" इन्हीं के शासनकाल में श्वेताम्बर सम्प्रदाय में स्थानकवासी शाखा में एक क्रान्तिकारी परिवर्तन हुआ । जोधपुर राज्य के कंटालियाँ ग्राम निवासी भोखणजी, रघुनाथ के शिष्य थे । उस समय राजनगर के श्रावकों में रघुनाथ जी के आचार-विचार सम्बन्धी मान्यताओं को लेकर काफी अन्तर्द्वन्द था । उनको समझाने के लिये १७५८ ई० में रघुनाथ जी ने भीखणजी के नेतृत्व में एक दल भेजा, किन्तु भीखणजी भी अपने गुरु के आचरण पर सहमत नहीं थे तथा शास्त्र सम्मत दृष्टि से विचार करने पर उन्हें आपत्ति प्रतीत हुई और इन्होंने अपने गुरु से सम्बन्ध विच्छेद कर १७६० ई० में "तेरापंथ " की स्थापना की । महाराणा अरिसिंह के काल में भीषण जी ने तेरापंथ के आचार्य के रूप में केलवा में १७६३ ई० में, राजानगर में १७६४ ई० में तथा पुनः केलवा में ही १७६८ ई० में चातुर्मास व्यतीत कर तेरापंथ का प्रचार-प्रसार किया १. प्रोरिआस, वेस, १९०८-९, पृ० ४६ । २. सिजैसि ग्रन्थ १४ भूमिका । J ३. राजपूताना के जैन वीर, पृ० ३४१ । ४. ओझा मेवाड़ राज्य, पृ० ३०३ । ५. केसरिया जी तीर्थ का इतिहास, पृ० २७ । ६. तेरापंथ का इतिहास, पृ० ४०-६६ । Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनधर्म की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि : ५५ इस काल में मेवाड़ क्षेत्र में कीर्तिसुन्दर कान्हजी ने "आपत्तिकुमार चोढालिया", "मॉकडदास कौतुक पच्चीसी" आदि ग्रन्थ तथा महाकवि दौलतराम कासलीवाल ने उदयपुर में रहते हुये १७३८ ई० में "जीवन्धरस्वामी चरित्र", १७४१ ई० में "अध्यात्म बारहखड़ो", "विवेकविलास" आदि रचनाएँ लिखीं। उदयपुर प्रवास के समय में हो इन्होंने कई ग्रन्थों के टब्बे, टीकाएँ आदि भी लिखीं।' (२) डूंगरपुर, बांसवाड़ा और प्रतापगढ़ राज्यों में जैनधर्म : ____ वागड़ प्रदेश में पश्चातवर्ती काल में भी जैन धर्म पर्याप्त समृद्ध रहा । देवली के एक जैन मन्दिर की दीवार पर उत्कीर्ण शिलालेख से ज्ञात होता है कि १७१५ ई० में महारावल पृथ्वीसिंह के शासनकाल में कस्बे के समस्त तेली, महाजन समुदाय के सारैया और जीवराज के आग्रह पर ४४ दिनों तक अपनी घाणियों को बन्द रखने के लिए तैयार हो गये थे। देवली के ही मल्लिनाथ मन्दिर के १७१७ ई० के अभिलेख में वर्णित है कि जब महाराजाधिराज महारावल पृथ्वीसिंह देवगढ़ पर शासन कर रहे थे और पहाड़सिंह उनके होने वाले उत्तराधिकारी थे, तब मल्लिनाथ का मन्दिर सिंघवी श्रीवर्ष के पुत्र वर्द्धमान और उसकी भार्या रुक्मिणी के द्वारा बनवाया गया था। महारावल सामन्तसिंह के शासनकाल में १७८१ ई० में आदिनाथ का मन्दिर धनरूप, मनरूप और अभयचन्द्र के द्वारा निर्मित करवाया गया ।४ (३) कोटा क्षेत्र में जैन धर्म : १७वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में औरंगजेब दक्षिण जाने के लिये इस क्षेत्र से होकर ही गुजरा था और उसकी फौज ने अपार विध्वंस लीला की थी। उसके बावजूद स्थानीय राजनयिकों के संरक्षण में जैन धर्म की प्रगति निरन्तर होती रही। दिगम्बर संघ के विभिन्न भट्टारक समय-समय पर इस क्षेत्र को अपने आगमन से पावन करते रहे । कोटा में श्वेतांबर सम्प्रदाय के स्थानकवासी मुनियों की गादी भी रही । १६८९ ई० में औरंगजेब के शासनकाल में कोटा का राजा, सामन्त किशोरसिंह चौहान था। इनके काल में कोटा क्षेत्र में सांगोद के एक धनी व्यापारी कृष्णदास ने खानपुर के निकट १६८९ ई० में एक जैन मन्दिर निर्मित करवाया और अपनी पत्नी व पुत्रों के साथ प्रतिष्ठा समारोह आयोजित करवाया।" इस समय औरंगजेब दक्षिण में १. महाकवि दौलत राम कासलीवाल, व्यक्तित्व एवं कृतित्व, पृ० ४२-४६, ८०, १५०-२५२। २. एरिराम्यूअ, १९२१-२२ । ३. वही, १९३४-३५, क्र० १८ । ४. वही, क्र० २० । ५. जयपुर के जै० म० के यन्त्र का अभिलेख । Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६ : मध्यकालीन राजस्थान में जैनधमं था, जहाँ किशोर सिंह पूरी निष्ठा से उसकी सेवा में था, तो भी बार-बार उनसे जवाब तलब किया गया कि शाही नीति के विरुद्ध मंदिर क्यों निर्मित करवाया जा रहा है, किन्तु स्थानीय अधिकारी मुगल साम्राज्य का अन्त निकट जानते हुये उसे वंचनापूर्ण प्रत्युत्तर भेजते रहे । बून्दी दिगम्बर एवं श्वेताम्बर दोनों सम्प्रदायों का क्षेत्र था । इस काल में यहाँ अनेक हस्तलिखित ग्रन्थों को प्रतिलिपियाँ तैयार की गयीं, जो यहाँ के ६ शास्त्र भण्डारों में सुरक्षित । यहाँ का पार्श्वनाथ मन्दिर, ओसवाल जाति के चोपड़ा रामलाल के द्वारा १६७७ ई० में निर्मित करवाया गया था । इस मन्दिर में अन्य स्थानों से लायी प्रतिमाएँ भी सुरक्षित रखी हुई हैं, जिनमें से प्राचीनतम १२७४ ई० की है । ऋषभदेव मन्दिर बाफना परिवार द्वारा बनवाया गया था । (४) सिरोही क्षेत्र में जैन धर्म : उत्तरमध्य काल में सिरोही क्षेत्र में जैन मत सदा की भाँति प्रगतिशील रहा । अखईराज के शासनकाल में वीरवाड़ा में १६६७ ई० में धर्मदास ने सिंहविजय की पादुका की स्थापना चातुविध संघ के साथ मिलकर करवाई । वीरवाड़ा "ब्राह्मणवाड़ा" का प्राचीन नाम है । १६६४ ई० में उदयमान और जगमाल ने इनके शासनकाल में क्रमश: आदिनाथ और शीतलनाथ की प्रतिमाओं का प्रतिष्ठा समारोह आयोजित करवाया । इसी समय सम्पूर्ण संघ ने पेसुवा नामक स्थान पर कुन्थुनाथ की मूर्ति का स्थापना समारोह धूमधाम से मनाया एवं १७१४ ई० में मानसिंह के शासनकाल में सूरि जी की पादुकाएँ पीथा के द्वारा स्थापित की गयीं ।" इन्हीं के शासनकाल में १७३० ई० में भट्टारक चक्रेश्वर सूरि ने अन्य आचार्यों के साथ मिलकर मदार में स्थापना समारोह सम्पन्न करवाया ।" सिरोही के माँकरोरा ग्राम के १७३३ ई० के लेख में रत्नसूरि, कमल विजय आदि साधुओं द्वारा मॉकरोरा में चातुर्मास व्यतीत करते समय श्रावक-श्राविकाओं द्वारा उनके प्रति की गई भक्ति का उल्लेख है । १° १७वीं १. प्रलेस, २, क्र० ४३८ । २. जैरा, पृ० १५३ ॥ ३. वही, पृ० १५४ ॥ ४. अप्रजैलेस, क्र० २९८ । ५. वही, क्र० २४३ । ६. वही, क्र० २५७ । ७. वही, क्र० ५०४ । ८. वही, क्र० १०१ । ९. वही, क्र० १०३ । १०. नाजैलेस, १, क्र० ९७०, पृ० २४९ । Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनधर्म की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि : ५७ शताब्दी के प्रारम्भ में अंचल गच्छ के कवि जगलाभ ने "जिनाज्ञा हुण्डी' सिरोही में, १६२६ ई० में सिरोही के आदीश्वर मन्दिर में तपागच्छीय गुणविजय ने "विजय प्रकाश रास'' तथा १६९० ई० में सिरोही में मेघविजयोपाध्याय ने “अहंदगीता" नामक संस्कृत रचना का प्रणयन किया ।' (५) जैसलमेर क्षेत्र में जैन धर्म भाटियों के उदार संरक्षण में १७वीं व १८वीं शताब्दी में भी इस क्षेत्र में जैन धर्म प्रगतिशील एवं समृद्ध रहा । १६०६ ई० में पार्श्वनाथ मन्दिर के स्तम्भ की प्रतिष्ठा सम्पन्न हुई। १६१५ ई० में कल्याणदास के विजयी शासनकाल में जिनसिंह सूरि ने जिनचन्द्र सूरि की पादुका निर्मित करवाई।३ १६१६ ई० में मन्त्री टोडरमल ने एक उपासरा निर्मित करवाया।४ १६२१ ई० में जिनसिंह सूरि जैसलमेर आये और लोद्रवा से लाई गई चिंतामणि पार्श्वनाथ की प्रतिमा को समारोहपूर्वक "लक्षणविहार' मन्दिर में प्रतिष्ठित किया।" बुद्धसिंह के शासनकाल में गंगाराम ने अपने परिवार के साथ १७१२ ई० में तत्त्वसुन्दर गणि के सदुपदेशों के प्रभाव से प्रतिमाओं की स्थापना की अखईसिंह के शासनकाल में १७४९ ई० और १७५५ ई० में जिन उदय सूरि को पूज्य पादुका का निर्माण, उनके शिष्यों के द्वारा करवाया गया । मूलराज भाटी ने भी जैन मत को संरक्षण दिया। १७६८ ई० में जिनयुक्त सूरि का स्तूप बनवाया गया । १७३३ ई० के अभिलेख में जिनकुशल सूरि के स्त्प के पास दीविकाओं के निर्माण का उल्लेख है। यह स्तप जिनचन्द्र सूरि की सत्प्रेरणा से संघ के द्वारा स्थापित किया गया था।° १७८६ ई० में धम्म पादुका बनवाई गई, जिसका स्थापना समारोह पं० रूपचन्द्र के द्वारा सम्पन्न करवाया गया ।११७८४ ई० में पण्डित वर्धमान के अवशेषों १. असावै, पृ० ४८-५१ । २. नाजलेस, ३, क्र० २५९५ । ३. वही, क० २४९७ । ४. वही, क्र० २४४७ । ५. वही, क्र०२४९८ । ६. वही, क्र० २५०१। ७. वही, क्र० २५०८ एवं २५०९ । ८. वही, क्र० २५०३।। ९ जैलेस, पृ० १२५ । १०. नाजैलेस, ३, क्र० २५०२ । ११. वही, क्र० २५१०। Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८ : मध्यकालीन राजस्थान में जैनधमं पर स्तम्भ निर्मित करवाया गया। इस प्रकार जैन धर्म का प्रारम्भिक काल से ही यहाँ काफी प्रभाव रहा । भौगोलिक विशेषताओं, शुष्क प्रकृति व आवागमन के सुलभ साधनों के अभाव के फलस्वरूप जैसलमेर प्रदेश सामान्यतः बाह्य आक्रमणकारियों के प्रभाव से बचा रहा । यह क्षेत्र शान्ति व सुरक्षा का क्षेत्र था, इसी से प्रभावित होकर जैन श्रेष्ठियों ने यहाँ अपना निवास चुना; अतः यह जैनाचार्यों की धर्मस्थली बन गया । सुरक्षा की दृष्टि से जैनाचार्यों ने प्राचीन ताड़पत्रीय ग्रंथादि साहित्य, यहाँ संग्रहीत किया । जैसलमेर ग्रंथ भण्डारों के लिये सारे देश में प्रसिद्ध है । यहाँ दुर्लभ, प्राचीन एवं हस्तलिखित ग्रन्थों एवं चित्रों का अनुपम संग्रह है । (६) जोधपुर एवं बीकानेर राज्यों में जैन धर्म : जोधपुर एवं बीकानेर राज्यों में भी उत्तर मध्यकाल में जैन धर्म अविरल फलताफूलता रहा । १६०९ ई० के कोकिन्द के पार्श्वनाथ मन्दिर के लेख में महाराजा शूरसिंह, कुमार गजसिंह व जैन आचार्य विजयकुशल, सहजसागर, विजय जयसागर आदि का उल्लेख हैं । रावल तेजसिंह के शासनकाल में संघ के द्वारा शांतिनाथ मन्दिर का जीर्णोद्धार सम्पन्न हुआ । ऋषभदेव मन्दिर के अभिलेख में वर्णित है कि रावल तेजसिंह के शासनकाल में भट्टारक विजयदेव सूरि ने अपने उपदेशों से १६१० ई० में इस मन्दिर का कुछ भाग पुनर्निर्मित करवाया । इस स्थान के जैन समुदाय ने रावल जगमाल के शासनकाल में नाकोड़ा पार्श्वनाथ तीर्थ के निमित्त १६२९ ई० में चतु:शिकीका का निर्माण करवाया । १६२४ ई० में पार्श्वनाथ मन्दिर में रावल जगमाल के शासनकाल में ही जैन समाज के द्वारा एक निर्गम चतुःशिकीका, जिसमें तीन खिड़कियाँ भी थीं, का निर्माण करवाया गया । जोधपुर के राठौर शासकों ने धार्मिक सहिष्णुता की नीति का निरन्तर पालन किया । १६१२ ई० में सूर्यसिंह के शासनकाल में वस्तुपाल ने अपनी भार्या और पुत्र सहित पार्श्वनाथ की प्रतिमा का स्थापना समारोह सम्पन्न किया । गजसिंह के शासनमें १६२९ ई० में भामा ने कापड़ में अपनी पत्नी, पुत्रों एवं पौत्रों के साथ पार्श्वनाथ १. नाजैलेस, ३ क्र० २५११ । २. वही, १, क्र० ८७४ । ३. प्रोरिआसवेस, १९११-१२, पृ० ५४ । ४. वही । ५. वही । ६. वही । ७. नाजैलेस, क्र० ७७३ । Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनधर्म की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि : ५९. की प्रतिमा स्थापित की।' यह अभिलेख ऐतिहासिक दृष्टि से भी महत्त्व रखता है, क्योंकि इससे सिद्ध होता है कि सिरोही राज्य का अंग कापर्डी, उस समय जोधपुर राठौड़के शासकों के अन्तर्गत था । सम्भवतः राठौड़ों का इस पर अधिकार सूर्यसिंह द्वारा सुरताणसिंह के समर्पण के उपरान्त हुआ होगा । अभिलेख से यह भी स्पष्ट है कि आदिनाथ, महावीर और पार्श्वनाथ के मदिरों में 14 ई० में जालौर के शासक गणसिंह के शासनकाल में जयमल के द्वारा नई प्रतिमाएं निर्मित करवाई गई। जालौर के १६२४ ई० के महावीर मन्दिर के लेख में बल्लेख है कि महावीर बिम्ब की प्रतिष्ठा विजयदेव सूरि द्वारा हुई थी। जालौर के ही १६२६ ई० के लेख में मुहणोत परिवार द्वारा गजसिंह के राज्य में धर्मनाथ की बिम्ब प्रतिष्ठा का उल्लेख है। इनके शासनकाल में ही मेड़ता" और पाली में १६२९ ई० में कतिपय प्रतिमाएं स्थापित की गई थीं। मेड़ता की प्रतिमा के लेख से ज्ञात होता है कि बाई पूर्णा मनिया ने अपने पुत्रों के साथ सुमति नाथ की प्रतिमा की स्थापना की थी। पाली की पार्श्वनाथ की प्रतिमा के लेख में गजसिंह के शासनकाल व उनके कवर अमरसिंह का उल्लेख है तथा पाली पर जसवंत के पुत्र जग्गनाथ चौहान का अधिकार होने का उल्लेख है। यह प्रतिमा पाली निवासी श्रीमाल जातीय दो भाई डूनीगर और भवार के द्वारा बनवाई गई थी। ऐसा प्रतीत होता है कि पाली के चौहान राजा जग्गनाथ ने जोधपुर के राठौड़ शासकों का प्रभुत्व स्वीकार कर लिया था एवं जैन मत को संरक्षण दिया। १६२९ ई० के पाली के प्रतिमा लेख में जगत् गुरु तथा गच्छाधिपति हीरविजय सूरि एवं विजयसेन सूरि का उल्लेख है । १६२९ ई० के नाडौल लेख में महाराज गजसिंह और विजयदेव सूरि का उल्लेख है । १६२९ ई० के पाली के नौलखा मन्दिर के लेख में महावीर की प्रतिमा की प्रतिष्ठा किये जाने का उल्लेख है। १६२९ ई० के ही महाराजा गजसिंह के शासनकाल के जालोर के लेख में, राज्य के प्रमुख न्यायाधीश जयमल्ल के पुत्र जैसा द्वारा चन्द्रप्रभु के बिम्ब की प्रतिष्ठा का उल्लेख है, जो जहाँगीर प्रदत्त महातपा के विरुद को १. नाजैलेस, क्र० ९८१ । २. प्रोरिआसवेस, १९०८-०९, पृ० ५५ । ३. नाजैलेस, १, क्र० ९०४, पृ० २४१ । ४. वही, क्र० ९०५ । ५. वही, क्र० ७८३ । ६. प्रोरिआसवेस, १९०७-०८, पृ० ४५ । ७. नाजैलेस, १, क्र० २२९, पृ० २०३ । ८. वही, क्र० ८३७, पृ० २०७ । ९. वही, क्र० ८२६, पृ० २०३ । Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६० : मध्यकालोन राजस्थान में जैनधर्म धारण करने वाले विजयदेव सूरि के नेतृत्व में सम्पन्न हुई थी। १७३७ ई० में महाराणा अभयसिंह के शासनकाल में जब बख्तासिंह और बैरीसाल मारोठ के ऊपर राज्य कर रहे थे, तब साहा के मन्दिर एवं प्रतिमाओं का प्रतिष्ठा समारोह आयोजित हुआ था। यह उत्सव दोवान रामसिंह के द्वारा आयोजित करवाया गया था। मारोठ जोधपुर के राठौड़ों के अधिकार में था यह तथ्य इस अभिलेख से सिद्ध होता है, अतः इसका ऐतिहासिक महत्त्व भी है । अभयसिंह के पुत्र रामसिंह के शासनकाल में १७४६ ई० में गिरधरदास ने बिलाड़ा का मन्दिर बनवाया था। १७६७ ई० में इनके ही एक सामन्त हुक्मसिंह नामक मेड़तिया राजपूत के शासन में हर्षोल्लास पूर्वक एक रथयात्रा महोत्सव मनाया गया, इस अवसर पर मारोठ में भट्टारक विजयकीर्ति भी उपस्थित हुये थे। बीकानेर क्षेत्र में भी वहाँ के उत्तरवर्ती शासकों ने जैनमत को प्रोत्साहन देने का क्रम प्रारम्भ रखा। १६३१ ई० में कर्णसिंह ने जैन उपाश्रय के निर्माण हेतु भूमि का अनुदान दिया था। महाराजा अनुपसिंह के जिनचन्द्र सूरि और जैन कवि धर्मवर्द्धन से बड़े सुमधुर एवं आत्मीय सम्बन्ध थे । कवि धर्मवद्धन सूरि ने राजा अनूपसिंह के राज्यारोहण के अवसर पर एक स्तुति पद्य की रचना की थी, जिसमें राजा की कला, साहित्य एवं धर्म के बहुचचित संरक्षक के रूप में प्रशंसा की थी। जिनचन्द्र सूरि एवं बीकानेर के महाराजाओं, जैसे-अनूपसिंह, जोरावरसिंह, सज्जनसिंह व गजसिंह के मध्य सम्मानजनक पत्र व्यवहार होता रहता था। १७६५ ई० में जैन मुनियों के प्रशंसक एवं भक्त, महाराजा सूरतसिंह बीकानेर के शासक बने । वे जिनसागर मुनि का सम्मान नारायण के अवतार के रूप में करते थे। इन्होंने कतिपय जैन उपाश्रयों के निर्माण हेतु भूमि अनुदान में दी थी। इनका दादाजी के प्रति भी बहुत आदर भाव था, एतदर्थ पूजा के व्यय संचालन हेतु उन्होंने १५० बीघा जमीन दान में दी थी। (७) जयपुर राज्य में जैन धर्म : १७वीं व १८वीं शताब्दी में जयपुर क्षेत्र में भी जैन धर्म अत्यन्त उन्नतिशील अवस्था में था। जयपुर मुस्लिम विध्वंस की आशंका की दृष्टि से सौभाग्यशाली रहा, क्योंकि यहाँ के राजाओं के मुगल बादशाहों से अच्छे सम्बन्ध थे। इस काल में जयपुर क्षेत्र में दिगम्बर आचार्यों का अधिक वर्चस्व रहा। राजा मानसिंह के काल में १६०५ ई० १. नाजैलेस, १, क्र० ८३७, पृ० २०७ । २. मारोठ के मंदिर का एक स्तम्भ लेख । ३. नाजैलेस, १, क्र० ९३७ । ४. जैइरा, पृ० ४५ । Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनधर्म की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि : ६१ में चातसू में भट्टारक चन्द्रकीति के द्वारा एक स्तम्भ निर्मित करवाया गया था।' इनके ही शासनकाल में राजमहल और संग्रामपुर में १६०४ ई० में, १६०५ ई० में "हरिवंश" की दो प्रतियों की रचना की गई थी। १६०७ ई० के अभिलेख से विदित होता है कि मानसिंह के शासनकाल में अमात्य नानू गोधा के समय, जेता ने अपने पुत्रों एवं पौत्रों के साथ मौजमाबाद में विशाल स्तर पर प्रतिमाओं का प्रतिष्ठा समारोह आयोजित करवाया था ।४ १६०५ ई० में महाराजाधिराज रायसिंह के विजय राज्य में जयपुर के मसुतिनाथ मन्दिर में मूल नायक प्रतिमा की प्रतिष्ठा युग-प्रधानजिनचन्द्र सूरि के द्वारा सम्पन्न हुई थी। जयपुर के पंचायती मन्दिर की पार्श्वनाथ प्रतिमा के एक लेख में महाराजा राजसिंह के राज्य में प्रतिष्ठा सम्पन्न होने का उल्लेख है। मिर्जा राजाजयसिंह के शासनकाल में भी जैनधर्म निरन्तर प्रगति करता रहा। मुगल सम्राट शाहजहाँ एवं जयपुर के राजा जयसिंह के शासन का १६५४ ई० का एक लेख सांगानेर के गोधा जैन मन्दिर के शिला-फलक पर उत्कीर्ण है। आमेर के जैन मन्दिर के अभिलेख से विदित होता है कि जयसिंह के प्रधानमन्त्री खण्डेलवाल मोहनदास ने आमेर में विमलनाथ का एक मन्दिर निर्मित करवा कर उसे स्वर्ण-कलश से सुशोभित किया था। इसी अभिलेख में आगे यह भी वर्णित है कि इस समय ही उक्त मन्दिर में मोहनदास ने और भी निर्माण कार्य सम्पन्न करवाया था। सवाई जयसिंह एक विद्वान् शासक था, उनके राज्य में तीन जैन दीवान पद पर रहे-रामचन्द्र छाबड़ा, राव कृपाराम व विजयराम छाबड़ा । इस समय इन राजनयिकों ने जैन धर्म के उन्नयन में प्रशंसनीय योगदान दिया। रामचन्द्र छाबड़ा ने जयपुर और रामगढ़ के मध्य शाहबाद में एक जैन मन्दिर का निर्माण करवाया था । ये अपने पुत्र किशनसिंह के साथ भट्टारक देवेन्द्र कीति के पट्ट समारोह में भी सम्मिलित हुये थे। इस तथ्य की पुष्टि नेमिचन्द्र रचित भट्टारक देवेन्द्र कीर्ति की "जकरी" से होती है। मन्त्री कृपाराम की भी धार्मिक गतिविधियों में गहन रुचि १. एरिराम्यूअ, १९२७-२८, क्र० ११ । २. प्रस, पृ० ७२। ३. वही, पृ० ७२ । ४. जैइरा, पृ० ४५ । ५. प्रलेस, क्र० १०८१ । ६. प्रलेस, ११६१। ७. ऐरिराम्यूअ, १९२५-२६, क्र० ११ । ८. वही, १९३३, ३४, क्र० १३ । ९. जयपुर के पाटोदी जैन मन्दिर में गुटका सं० १८९ । Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२: मध्यकालीन राजस्थान में जैनधर्म एवं आस्था थी। इन्होंने चातसू में एक जैन मन्दिर बनवाया तथा जयपुर का "चातसू का चौक" नामक विशाल जैन मन्दिर भी इनके द्वारा ही निर्मित करवाया गया था। अपनी हवेली में भी इन्होंने एक चैत्यालय निर्मित करवाया था। ये महेन्द्र कीर्ति के पट्टसमारोह एवं अभिषेक में भी सम्मिलित हुये थे। इसकी पुष्टि अखईराम द्वारा लिखित महेन्द्र कीर्ति की ‘जकरी' से होती है।' १७४० ई० में मन्त्री विजयराम छाबड़ा ने 'सम्यक्त्व कौमुदी' लिखवा कर पण्डित गोवर्धन को भेंट स्वरूप प्रदान की थी। जयसिंह के शासनकाल में ही "कर्मकाण्ड सटीक" को प्रति भी निबद्ध की गई थी। सवाई माधोसिंह के संकटपूर्ण शासनकाल में भी जैन धर्म की प्रगति सतत प्रवाहमान रही । जयसिंह के राज्यकाल की भांति कई राजनीतिज्ञों ने इन्हें भी निष्ठापूर्वक सेवाएँ प्रदान की। १७६१ ई० में बालचन्द छाबड़ा सवाई माधोसिंह के प्रधानमन्त्री बने । इनके पूर्व, इस पद पर श्यामराम नामक असहिष्णु ब्राह्मण था, जिसने प्रतिशोध के कारण कई जैन मन्दिरों को नष्ट करवा दिया था। बालचन्द के काल में जैन धर्म को एक नया जीवन प्राप्त हुआ। उसने पुराने मन्दिरों का जीर्णोद्धार करवाया तथा कई नये मन्दिर भी निर्मित करवाये । १७६४ ई० में बालचन्द्र के सत्प्रयासों के फलस्वरूप जयपुर में इन्द्रध्वज पूजा महोत्सव मनाया गया। राज्य ने इस महोत्सव के लिये हर सम्भव सुविधाएँ और सहायता प्रदान की। दीवान रतनचन्द्र साह ने भी एक जैन मन्दिर बनवाया और इन्द्रध्वज पूजा महोत्सव में सम्मिलित हुये । नन्दलाल ने जयपुर एवं सवाई माधोपुर में जैन मन्दिर निर्मित करवाया। इसने १७६९ ई० में पृथ्वीसिंह के शासनकाल में सवाई माधोपुर में भट्टारक सुरेन्द्र कीर्ति के परामर्श पर विशाल स्तर पर प्रतिमाओं का स्थापना समारोह आयोजित करवाया। दीवान केसरीसिंह कासलीवाल ने जयपुर में सिरमौरिया का एक सुन्दर जैन मन्दिर निर्मित करवाया। माधोसिंह के काल में जयपुर में कन्हैयाराम ने “वैद्यों का चैत्यालय" नामक जैन मन्दिर निर्मित करवाया।६ १७७० ई० के सांभर के एक फारसी लेख में जैन मन्दिरों को भी अन्य ठाकुर-द्वारों के साथ ही पैमाइश से मुक्त करने का उल्लेख है।" १. जयपुर के पाटोदी जैन मन्दिर में गुटका सं० १८९ । २. इस हस्तलिखित ग्रन्थ की प्रति आमेर शास्त्र भण्डार में है। ३. प्रस, पृ० ७ । ४. वीरवाणी, पृ० २९-३० । ५. जैइरा, पृ० ४७ । ६. वही। ७. एन्युअल रिपोर्ट, इ० ए०, १९५५-५६, क्र० डी० १४८ । Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनधर्म की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि : ६३ बालचन्द के पुत्र रामचन्द्र ने प्रधानमन्त्री के रूप में अपनी सेवाएँ महाराजा जगतसिंह को प्रदान की। अपने गहन धार्मिक विचारों के कारण उसने तीर्थों को जाने वाले कई संघों का नेतृत्व किया, एतदर्थ उन्हें संघपति की उपाधि से भी सम्मानित किया गया था। भट्टारक सुरेन्द्र कीति के उपदेशों के सुलाभ से इन्होंने १८०१ ई० में जूनागढ़ में यन्त्र प्रतिष्ठा सम्पन्न की थी।' जयपुर राज्य के अन्य भागों में भी जैनधर्म का संवर्द्धन होता रहा । १६९४ ई० में विजयसिंह के शासनकाल में जोबनेर के जैसा ने अपने पुत्रों के साथ प्रतिमाएं स्थापित की ।२ १६५३ ई. के एक अभिलेख से विदित होता है कि शाहजहाँ के शासनकाल में जब मालपुरा पर अर्जुन गौड़ का राज्य था, तब संघी नाडा, भीखा, सम्भु और लालचन्द ने एक 'बृहद दस लक्षण यन्त्र' का स्थापना समारोह सम्पन्न करवाया था। यह अभिलेख मालपुरा के आधिपत्य के सम्बन्ध में इस महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक तथ्य की ओर इंगित करता है कि जयपुर के कछावों के स्थान पर इस समय यहाँ पर मारोठ के शासक अर्जुन गौड़ का नियन्त्रण था। १६०४ ई० के सीकर क्षेत्र के रेवांसा के एक अभिलेख में वर्णन मिलता है कि बादशाह अकबर के शासनकाल में महाराजाधिराज रायसाल के मुख्यमंत्री देवीदास के दो पुत्रों, साहजीतमल एवं भाई नथमल के द्वारा आदिनाथ का मन्दिर निर्मित करवाया गया था। मन्त्री देवीदास खण्डेलवाल जाति का श्रावक था एवं मन्दिर निर्माण की पृष्ठभूमि में मूलसंघ के भट्टारक यशकीर्ति की उपदेशों की सत्प्रेरणा थी।४ १६०७ ई० में महाराजा जग्गनाथ के शासनकाल में टोडारायसिंह के आदिनाथ मन्दिर में "आदिनाथ पराण" की एक प्रति नान के द्वारा लिखवाई गई थी। इसी कस्बे के राजा राजसिंह के मन्त्री वादिराज ने १६७२ ई० में “वाग-भट्टालंकाराव चूरि'' तथा “कवि चन्द्रिका" लिखी थी।६ १७२६ ई० के एक अभिलेख में चूहड़सिंह के शासनकाल में हृदयराम के द्वारा जयपुर के निकट बाँसखोह में प्रतिमाओं के स्थापना समारोह सम्पन्न करवाये जाने का उल्लेख है । चूहड़सिंह सम्भवतः इस स्थान का कोई क्षेत्रीय सामन्त प्रतीत होता है । (८) अलवर राज्य में जैन धर्म : उत्तरवर्ती काल में भी अलवर में जैनधर्म निरन्तर लोकप्रिय धर्म बना रहा । १६२४ १. जैइरा, पृ० ४७ । २. वही, पृ० ४८ । ३. वही, पृ० ४८। ४. एरिराम्यूअ, १९३४-३५, क्र० ११ । ५. प्रस, पृ० ८९ । ६. जैग्रप्रस, क्र० १४१ । ७. जैइरा, ४९। Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४ : मध्यकालीन राजस्थान में जैनधर्म ई० में शिवचन्द्र ने “विदग्ध-मुखमण्डन-वृत्ति" व १६२५ ई० में लालचन्द्र के द्वारा "देवकुमार चौपई' की रचना की गई । अलवर में १६१९ ई० में काष्ठासंघ के भट्टारक भूषण ने एक प्रतिमा का स्थापना समारोह सम्पन्न करवाया । १६२८ ई० के एक जैन मन्दिर की दीवार पर उत्कीर्ण प्रस्तर लेख में वर्णित है कि मूलरूप से दिल्ली निवासी एवं वर्तमान में आगरा के निवासी ओसवाल जाति के हीरालाल के द्वारा मन्दिर में एक प्रतिमा का प्रतिष्ठा महोत्सव सम्पन्न हुआ था। वर्तमान समय में यह मन्दिर एक ठाकुर के निवास स्थान के रूप में प्रयुक्त है। इसी लेख में रावण पार्श्वनाथ के मन्दिर निर्माण का भी उल्लेख है ।२ (द) मुस्लिम शासक और जैन धर्म : (१) मुसलमानों द्वारा किया गया विध्वंस : राजपूत शासकों के संरक्षण में जैन धर्म मुस्लिम आक्रमणों से बहुत कुछ सुरक्षित रहा, फिर भी मुस्लिम धर्मान्धता के विनाशकारी दुष्परिणामों से बच नहीं पाया । ११वीं से १७वीं शताब्दी के मध्य मुस्लिम विध्वंस के बवंडर में अनेक जैन मन्दिर ध्वस्त हुए, सुन्दर प्रतिमाएँ टुकड़े-टुकड़े कर दी गईं, अमूल्य ग्रन्थों को जला दिया गया और असंख्य धर्मानुरागी व्यक्तियों को यातनायें दी गईं। ध्वस्त जैन मन्दिरों के ऊपर ही या उनकी अवशिष्ट सामग्री से मस्जिदें बना दी गईं, जिनसे झाँकती हुई सुन्दर नक्काशी, गुम्बद, स्तम्भ आदि अभी भी मुस्लिम पाश्विकता की गवाही दे __ महमूद गजनी अपने आक्रमणों के मध्य राजस्थान से होकर गुजरा और उसने बहुत विध्वंस किया। १००९ ई० में उसने नरैना में मूर्तियों व मन्दिरों को निर्दयतापूर्वक तोड़ा। १०२४ ई० के आक्रमण के समय उसकी सेनाएँ राजस्थान के मरु प्रदेश से होकर गुजरी, जिन्होंने लोद्रवा, साँचौर, चन्द्रावती आदि मार्ग के नगरों को लूटा और मन्दिरों एवं मूर्तियों को धन प्राप्ति की आशा से टुकड़े-टुकड़े कर दिया। इसी प्रकार अजयराज चौहान के समय से ही तुरुष्कों के आक्रमण प्रारम्भ हो गये थे और मुहम्मद बहलीम ने १११२ ई० के पश्चात् नागौर को अपने विध्वंस का केन्द्र बनाकर यहां सत्ता स्थापित कर ली थी। ये लोग अजमेर तक भी पहुँच गये थे। अतः इन्होंने बहुत विध्वंस लीला की होगी। फलौदी पार्श्वनाथ तीर्थ के बारे में जिनप्रभ सूरि ने "विविधतीर्थकल्प" में १. भट्टारक सम्प्रदाय, क्र० ६८६ । २. एरिराम्यूअ, १९१९-२०, क्र० १५ । ३. एसिटारा, पृ० ५७५ । Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनधर्म की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि : ६५ महत्त्वपूर्ण सूचना दी है, कि शहाबुद्दीन गोरी ने इस मन्दिर में विराजमान मूल नायक प्रतिमा को भंग किया, मन्दिर को नहीं; एवं अधिष्ठायक देव की इच्छा नहीं होने से दूसरी मूर्ति स्थापित नहीं की जा सकी।' यह घटना लगभग ११७८ ई० में घटित हुई थी। किराड के ११७८ ई० के अभिलेख में तुरुष्कों द्वारा मूर्ति विध्वंस का विशेष रूप से उल्लेख है। २ साँचौर से अचलगढ़ में लाई गई जैन प्रतिमाओं के ११७९ ई० के लेखों से स्पष्ट होता है कि मन्दिर के ध्वस्त कर दिये जाने के परिणाम स्वरूप, १०७७ ई० में स्थापित प्रतिमाओं की पुनर्स्थापना की गई थी और मन्दिर का भी ११७९ ई० में जीर्णोद्धार किया गया था । पाली के मन्दिर के अभिलेख से ज्ञात होता है कि वर्तमान में मूलनायक पार्श्वनाथ का मन्दिर मूलतः महावीर के निमित्त निर्मित करवाया गया था। यह परिवर्तन सम्भवतः मुसलमानों के पाली पर हये आक्रमण में प्रतिमा को ध्वस्त करने के उपरान्त हुआ होगा। तारीख-ए-फरिश्ता से भी यह सिद्ध होता है कि मोहम्मद गोरी का दास ही एकमात्र मुस्लिम शासक था, जिसने पाली को अधिकार में लिया था। ११९६ ई० में कुतुबुद्दीन ऐबक ने अन्हिलवाड़ा जाते समय पाली और नाडौल के किले अधिकार में लिये थे। निश्चित रूप से इसी अवसर पर मूर्ति भंजन का दुष्कृत्य सम्पन्न हुआ होगा। जीर्णोद्धार के पश्चात् नयी मूर्ति की प्रतिष्ठा करते समय इस तथ्य को कि यह मन्दिर मूलतः महावीर स्वामी को समर्पित था, भुला दिया गया। मोहम्मद गोरी के ११९५ ई० के आक्रमण के समय इसकी सेनाएँ किराडू को ध्वस्त करती हुई बढ़ी थीं। इसने नाडौल में पृथ्वीराज तृतीय को परास्त करके चौहान साम्राज्य के समस्त नगरों को निर्दयतापूर्वक विध्वंस किया था ।" "उपकेश गच्छ प्रबन्ध" से ज्ञात होता है कि मोहम्मद गोरी की सेनाओं ने ११९५ ई० में इधर से गुजरते हुये ओसिया में विध्वंस लीला मचाई थी और स्थानीय जनता भयग्रस्त होकर नगर छोड़ गई थी। आशाधर रचित "धर्मामृत टीका" की प्रशस्ति से ज्ञात होता है कि आशाधर ने मुस्लिम आक्रमण के भय के कारण माण्डलगढ़ से धारा नगरी को प्रस्थान किया था। चौहानों की पराजय के कारण सांभर, नाडौल, नरैणा, नरहद आदि अनेक स्थानों पर मुस्लिम विध्वंस का ताण्डव हुआ था । बयाना क्षेत्र में भी बहाउद्दीन तुगरिल ने जैन मन्दिरों को १. वितीक, पृ० १०६ । २. इए, ६२, पृ० ४२ । ३. अजैलेस, क्र० ४६५-४६६ । ४. प्रोरिआसवेस, १९०७-८, पृ० ४३-४४ । ५. एसिटारा, पृ० ५७६ । ६. एइ, ९, पृ० १२ । ७. जैसाओइ, पृ० ३४४ । Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६ : मध्यकालीन राजस्थान में जैनधर्म बहुत क्षति पहुँचाई और उनके अवशेषों पर कई मस्जिदें बनवाईं ।' १२१८ ई० में रचित "जिनदत्त चरित्र" की प्रशस्ति से ज्ञात होता है कि कवि लक्ष्मण त्रिभुवन गिरी से "कृष्ण विलास " इन्हीं कारणों से आये २ आबू पर अलाउद्दीन खिलजी के आक्रमण व मन्दिरों को क्षति पहुँचाने का उल्लेख ओझा जी ने किया है । १३३२ ई० में लिखित, जिनप्रभ सूरि के "विविध तीर्थ कल्प" के " अर्बुदकल्प" में विमल वसहि तथा लूण वसहि दोनों मन्दिरों का भंग, मुसलमानों के द्वारा किये जाने का उल्लेख है । एक समकालीन रचना "नाभिनन्दन जिनोद्धार प्रबंध " में भी अलाउद्दीन के द्वारा किये गये विध्वंस का वर्णन मिलता है । विमल वसहि की देहरी संख्या ५२ के १३२१ ई० के लेख में "मन्दिर के विध्वंस" सूचक वाक्यांश का उपयोग हुआ है । विमल वसहि में बहुत सी देव कुलिकाओं, शिखर, मंडोवर, मुख्य मन्दिर, गर्भगृह आदि अलाउद्दीन के आक्रमण के दौरान ध्वस्त कर दिये गये थे, जिनका जीर्णोद्धार १३२१ ई० से १३३८ ई० के मध्य सम्पन्न हुआ । " १२०० ई० के पूर्व तक " अढ़ाई दिन का झोंपड़ा" एक सुन्दर जैन मन्दिर था जो ११९२ ई० में मोहम्मद गोरी की अज्ञानता, धर्मान्धता व पैशाचिक संस्कारों की बलि बन गया । उसकी सेना ने इसे ध्वस्त कर इसे मस्जिद के रूप में परिवर्तित कर दिया । १२०० ई० के फारसी लेख में स्पष्ट उल्लेख है कि अजमेर विजय के साथ ही इमारतों के परिवर्तन का कार्य भी प्रारम्भ कर दिया गया था । इसमें कुछ नई मेहराबें, मीनार और दीवार आदि बनवा दी गईं । श्वेत संगमरमर से बनी इमामगाह ११९९ ई० में एवं आगे की दीवार, इल्तुतमिश के शासनकाल में १२१३ ई० में निर्मित करवाई गई है । १३वीं शताब्दी में मुस्लिम शासन सुस्थापित हो जाने के पश्चात् भी विध्वंस लीला समाप्त नहीं हुई । इल्तुतमिश ने मेवाड़ को रौंद डाला तथा गुहिल राजधानी नागह्रद ( नागदा ) को नष्ट कर दिया । इस समय असंख्य जन-धन की हानि भी हुई । १२२६ ई० में रणथम्भौर और मण्डोर तथा १२२८ ई० में इसने जालौर को ध्वस्त किया । १२२४ ई० में फिरोजशाह खिलजी ने भी विनाश लीला की । १३०१ ई० में अलाउद्दीन खिलजी ने रणथम्भौर को हस्तगत कर नगर के मन्दिरों को नष्ट कर दिया । जैसलमेर १. एसिटारा, पृ० ५७७ । २. अने०, ८, पृ० ४०० । ३. ओझा, सिरोही राज्य, पृ० ७० । ४. अर्बुदकल्प, पृ० १५ । ५. जैरा, पृ० ३१-३२ । ६. एपिग्राफिका इंडो मोहस्लेमिका, १९११-१२, पृ० १५, ३०, ३३ आदि । ७. एसिटारा, पृ० ५७७ ॥ Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनधर्म की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि : ६७ भी दो बार इसके विध्वंसक आक्रमण का शिकार हुआ। १३०३ ई० में अलाउद्दीन ने चित्तौड़ को जीतकर दुर्ग स्थित मन्दिरों को ध्वस्त किया। जालौर, भीनमाल, बाड़मेर, आबू आदि निकटवर्ती क्षेत्रों को भी विनाश सहना पड़ा। दो संस्कृत एवं दो फारसी अभिलेखों से स्पष्ट है कि सांचौर की जामा मस्जिद, अलाउद्दीन खिलजी के उत्तराधिकारी और पुत्र नासिरुद्दीन के शासनकाल में, महावीर जैन मन्दिर के ध्वंस की प्राप्त सामग्री से बनाई गई थी। जिनप्रभ सूरि के "तीर्थकल्प" से स्पष्ट है कि सांचौर में एक भव्य जैन मन्दिर विद्यमान था और तीन बार इस पर मुस्लिम आक्रमण का खतरा मंडराया था तथा अन्त में १३१० ई० के आक्रमण में यह नष्ट कर दिया गया। यही नहीं, बल्कि ध्वंस का तथाकथित नायक अलाउद्दीन खिलजी प्रतिमा को दिल्ली ले गया और उसके टुकड़े-टुकड़े कर दिये। तारीख-ए-फरिश्ता में भी इस घटना का वर्णन है। ___ मारवाड़ में जालौर की मस्जिद के स्तम्भ लेखों से यह स्पष्ट है कि इसका निर्माण कम से कम चार मन्दिरों के विध्वंस से प्राप्त सामग्री से किया गया था, जिनमें से एक हिन्दू मन्दिर और शेष तीन जैन मन्दिर थे, जो तीर्थंकर आदिनाथ, महावीर और पार्श्वनाथ के निमित्त बने हये थे।२ सिरोही राज्य में जीरावला के नेमिनाथ मन्दिर के लेख से विदित होता है कि यह मन्दिर मूलतः पार्श्वनाथ को समर्पित था। इसके नाम परिवर्तन के सम्बन्ध में प्रचलित अनुश्रुति के अनुसार 'बोकड़ पातशाह" नामक मुस्लिम शासक के राज्यकाल में कुछ मुसलमान सैनिकों के द्वारा पार्श्वनाथ प्रतिमा तोड़-फोड़ दी गई एवं लूटपाट भी की गई। ३ जीरावला पाश्वनाथ स्तवन के ७वें श्लोक में अलाउद्दीन द्वारा भी १३११ ई० में मन्दिर को ध्वस्त करने का विशेष रूप से वर्णन है।। १५७६ ई० में अकबर के सिरोही आक्रमण के समय लगभग १०५० जैनप्रतिमाएँ मुगलों द्वारा लूट ली गई थीं, जो बाद में बीकानेर के राजा रायसिंह को लौटा दी गई थीं। हुमायं के भाई कामरान ने बीकानेर आक्रमण के समय जैन मन्दिर भी ध्वस्त किये थे। बीकानेर के चिन्तामणि मन्दिर में १५३५ ई० के एक प्रतिमा लेख से विदित होता है कि मूर्ति का परिकर भी उसके द्वारा नष्ट किया गया था। कनक सोम के १. प्रोरिआसवेस, १९०७-८, पृ० ३४-३५ । २. वही, १९०८-९, पृ० ५४-५७ । ३. वही, १९१६-१७, पृ० ६७ । ४. बीजैलेस-भूमिका । ५. बीजलेस, क्र० २ । ६. वही । Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८ : मध्यकालीन राजस्थान में जैनधर्म स्तवन में तुरासानखान द्वारा सिरोही में किये गये प्रतिमाओं के विध्वंस का जीवंत चित्रण है। मध्यकाल में राजस्थान के कुछ नगरों जैसे-नागौर, बयाना, जालौर, सांचौर, डीडवाना, नरहद, चातसू आदि में मुस्लिम गवर्नरों का शासन था। अतः स्वाभाविक रूप से इनके शासन के समय में प्राचीन मन्दिरों को क्षति पहुंची ही होगी। शेरशाह ने अपने मालवा अभियान के दौरान कोषवर्धन (शेरगढ़) के जैन मन्दिरों को व नगर को ध्वस्त ही नहीं किया, अपितु इसका नाम तक परिवर्तित कर दिया। अकबर और औरंगजेब के आक्रमणों के मध्य विध्वंस लीला से चित्तौड़ के धार्मिक प्रतिमान भी प्रभावित हुये थे। औरंगजेब की धार्मिक कट्टरता ने तो अटरू, रामगढ़, बघेरा, बयाना आदि का निर्दयतापूर्वक ध्वंस किया था। चित्तौड़ से प्राप्त १४३८ ई० की "महावीर प्रासाद-प्रशस्ति" में गुहिलोत हम्मीर व मुस्लिम सेनाओं के मध्य हुये युद्ध का वर्णन मिलता है।' इस युद्ध में अलाउद्दीन की सेनाओं ने कई हिन्दू एवं जैन मन्दिरों को नष्ट किया था, जिसके स्पष्ट प्रमाण उसके पुत्र एवं मेवाड़ के गवर्नर खिज्र खाँ द्वारा बनवाये गये गम्भीरी पुल के निर्माण में प्रयुक्त सामग्री व १२६७ व १२७३ ई० के शिलालेख हैं । इस आक्रमण के दुष्प्रभावों से दिगम्बर जैन कीर्ति स्तम्भ एवं उसके सामने का मन्दिर भी प्रभावित हुआ था। केसरियाजी व धुलेव के मन्दिर को भी मुस्लिम सेनाओं ने क्षति पहुँचायी थी, यह तथ्य १३७४ ई० के जीर्णोद्धार सम्बन्धी लेख से स्पष्ट है ।२ रणकपुर मन्दिर के अभिलेख भी विभिन्न विध्वंसों की जानकारी प्रदान करते हैं। १५५४ ई० में निर्मित मण्डप, ३६ वर्ष उपरान्त ही, १५९१ ई० में, उस्मानपुर के उसी परिवार के द्वारा पुननिर्माण करवाया गया था। इससे स्पष्ट है कि अकबर का राज्यकाल भी लूटपाट एवं विध्वंस से एकदम अछूता नहीं था। १६२१ ई० में श्रेष्ठी वीरद ने भी कुछ पुननिर्माण करवाया था। १६११ ई० में राणा अमरसिंह के काल में मेवाड़ और मुगलों के बीच रणकपुर में हुये युद्धों में भी मन्दिर के कतिपय भाग ध्वस्त हुये थे। फारसी स्रोतों के अनुसार मालवा और गुजरात के सुल्तानों ने भी १५वीं व १६वीं शताब्दी में मेवाड़ व दक्षिणी राजस्थान में विध्वंस लीला मचाई थी। देवकुलपाटक, नागदा, सिरोही, आबू, जावर व हाड़ौती के मन्दिर इनके द्वारा नष्ट किये गये ।। १. जबाबाराएसो, २३, पृ० ५० । २. मरूभारती, अग्रवाल द्वारा सं० । ३. प्राजैलेस, २, क्र० ३०८, ३०९ । ४. जैरा, पृ० ३२। Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनधर्म की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि : ६९ दक्षिण में जाते समय रखा कोटा राज्य के शाहबाद कस्बे का नाम औरंगजेब ने था । अपने एक दिन के पड़ाव में ही उसने इस क्षेत्र के कई जैन व हिन्दू मन्दिर ध्वस्त किये एवं आगरा की जामा मस्जिद के प्ररूप पर ध्वंस से प्राप्त सामग्री से एक मस्जिद बनवाई | यह मस्जिद अभी भी मौजूद है, जिसमें प्रयुक्त सामग्री स्पष्ट रूप से मन्दिरों की ही है । (२) मुस्लिम शासकों की जैन धर्म के प्रति सहिष्णुता : ११वीं से १७वीं शताब्दी के मध्य जैन धर्म के कतिपय प्रतिमानों को मुसलमानों द्वारा ध्वस्त किये जाने के पर्याप्त प्रमाण उपलब्ध हैं, किन्तु सभी मुस्लिम शासक अमानवीय या धर्मान्ध नहीं थे । कुछ मुस्लिम शासकों ने जैन जैनाचार्यों को अत्यधिक सम्मान प्रदान कर अपनी सहिष्णुता का भी परिचय दिया । धर्म के महान् आदर्शों व विद्वान् धर्म - गत- उदारता और पर-धर्म अलाउद्दीन खिलजी वैसे तो एक कट्टर धर्मान्ध शासक था, फिर भी अपने राज्यकाल में दिगम्बर आचार्य माधव सेन की विद्वत्ता, तपस्या एवं चमत्कार की ख्याति सुनकर उसने नगर श्रेष्ठी पूर्ण चन्द्र अग्रवाल के माध्यम से उनको दरबार में आमंत्रित किया । माधवसेन ने दरबार में हुये शास्त्रार्थ में बादशाह के दो पंडितों राधो और चेतन को हराया एवं इस प्रकार ऐसे कट्टर मुस्लिम बादशाह के शासनकाल में भी जैनधर्म की प्रभावना स्थापित की। इसी बादशाह के शासनकाल में नन्दिसंघ के आचार्य प्रभाचन्द ने दिल्ली में अपने संघ की गादी स्थापित की थी । १३१८ ई० में कुतुबुद्दीन से तीर्थं का निर्विरोध फरमान प्राप्त कर जिनचन्द्र सूरि ने संघ सहित तीर्थ यात्रा की थी । गयासुद्दीन तुगलक ने १३२३ ई० में तीर्थयात्रा का फरमान प्राप्त कर जिन कुशल सूरि संघ सहित तीर्थयात्रा को गये थे । ३ १४४६ ई० में सोमधर्मं रचित " उपदेश सप्ततिका" में जिनप्रभ सूरि द्वारा बादशाह मोहम्मद बिन तुगलक को प्रतिबोध एवं कई चमत्कारों को दिखाने का विवरण है । १४६४ ई० में तपागच्छीय शुभशील गणी के ‘“प्रबन्ध पंचशती” में भी एतद्- संदर्भित विवरण है, किन्तु महत्वपूर्ण घटना का समकालीन विवरण “ विविध तीर्थ - कल्प" के कनयनयनीय महावीर प्रतिमा कल्प और उसके कल्प परिशेष में प्राप्त है। इसके अनुसार जिनप्रभ सूरि ने मुहम्मद तुगलक से बहुत बड़ा सम्मान प्राप्त किया था । उन्होंने कन्नाणा की महावीर प्रतिमा सुल्तान से प्राप्त कर दिल्ली के जैन मन्दिर में स्थापित करायी थी । इसके बाद मुहम्मद तुगलक ने १. वीशाप्रआ, पृ० ११६ । २. जिनचन्द्र स्मृग, पृ० २९ । ३. वही, पृ० ३० । ४. सोमधर्म, उपदेश सप्ततिका, तृतीय गुरूत्वाधिकार, पंचम उपदेश । Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७० : मध्यकालीन राजस्थान में जैनधर्म इनके शिष्य जिनदेव सरि को "सुरजान सराय" दी थी, जिसमें ४०० श्रावकों के घर, पौषधशाला व मन्दिर बनाये गये व उसी में उक्त प्रतिमा की प्रतिष्ठा भी की गई ।' "कनयनयनीय-महावीर-प्रतिमा-कल्प" के लिखने वाले "जिनसिंह सूरि शिष्य" बतलाये गये हैं, अतः जिनप्रभ सूरि या उनके किसी गुरु भाई ने इस कल्प की रचना की है। १३२८ ई० में हाँसी के सिकदार ने श्रावकों को बन्दी बनाकर इस प्रतिमा को दिल्ली में तुगलकाबाद के शाही खजाने में रख दिया था। विहार करते हुये जिनप्रभ सूरि दिल्ली आये तथा राज्यसभा में पंडितों की गोष्ठी में सुल्तान को प्रभावित किया व प्रतिमा पुनः प्राप्त की । तुगलक ने अर्द्धरात्रि तक सूरिजी के साथ गोष्ठी की । प्रातः सन्तुष्ट सुल्तान ने १००० गायें, विपुल द्रव्य, वस्त्र, चन्दन, कर्पूरादि भेंट में देने चाहे, जिन्हें मुनि जी ने अस्वीकृत कर दिया। सुल्तान ने महोत्सव के साथ उन्हें पौषधशाला पहुँचाया। समय-समय पर सूरि एवं उनके शिष्य जिनदेव सूरि की विद्वत्तादि से चमत्कृत होकर सुल्तान ने शत्रुजय, गिरनार, फलौदी आदि तीर्थों की रक्षा के लिये फरमान जारी किये । भट्टारक प्रभाचन्द्र (१२५७ ई०-१३५१ ई०) ने फिरोजशाह तुगलक का प्रारम्भिक शासन देखा था। जैन पारम्परिक अनुश्रुतियों के अनुसार इनके चमत्कार की कई अविश्वसनीय घटनाएँ ज्ञात होती हैं। फिरोजशाह तुगलक के प्रमुख मंत्री, चाँदा गूजर पापड़ीवाल ने दिल्ली में प्रतिष्ठा समारोह को सम्पन्न करवाने के लिये भट्टारक प्रभाचंद्र को निमन्त्रित किया जो बड़े चमत्कारिक रूप से दिल्ली पहुँचे और उनका भव्य स्वागत हुआ। स्वयं बादशाह उन्हें लिवाने आया, दरबारी पण्डित राधो व चेतन ने ईर्ष्या से प्रेरित होकर उनकी प्रतिष्ठा को आघात पहँचाने के लिये पालकी को कीलना, कमण्डल में मदिरा बताना, आदि दुष्चक्र किये, जिनसे आचार्य चमत्कारिक ढंग से निपटे । उन्होंने न केवल शास्त्रार्थ में दोनों पण्डितों को हराया, अपितु अमावस्या को भी चन्द्रोदय सिद्ध कर दिया। उनके सुयश के कारण बेगमों ने भी उनके दर्शन की उत्कट इच्छा बादशाह के सामने प्रकट की। आचार्य ने देश-कालानुसार लंगोट पहनकर हरम में जाकर बेगमों को प्रबोध प्रदान किया। उक्त दोनों धर्मान्ध बादशाहों के काल की ये पारम्परिक अतिरंजित घटनायें अधिक प्रामाणिक एवं विश्वसनीय नहीं मानी जा सकतीं, फिर भी यह सुस्पष्ट है कि उस काल खंड में भी जैनाचार्यों का सम्मान होता था। मुगल सम्राटों में अकबर ही एकमात्र शासक था, जिसके शासन में जैनाचार्यों का १. जिनचन्द्रस्मृग, पृ० ३४ । २. वही, पृ० ३५। ३. वीशाप्रआ, पृ० १२२-१२५ । Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनधर्म की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि : ७१ अत्यधिक सम्मान हुआ और उसके स्वयं के जीवन पर भी जैन धर्म के अहिंसात्मक दर्शन का अत्यधिक प्रभाव पड़ा। १५६८ ई० में उसने जैन धर्म के दोनों सम्प्रदायों के मध्य शास्त्रार्थ कराया था।' नागौर के १५५२ ई० के फारसी शिलालेख में भट्टारक कीर्तिचन्द्र की पौशाल, जो पहले बन्द कर दी गई थी, को पुनः चालू करने का उल्लेख है । इससे मुगल बादशाह की उदारता प्रकट होती है । अकबर के काल के सबसे महत्त्वपूर्ण जैन सन्त तपागच्छीय हीरविजय सूरि थे । १५८२ ई० में गुजरात के गवर्नर के माध्यम से इनको निमन्त्रित किया गया। जैन परम्परानुसार ये पैदल ही फतहपुर सीकरी की तरफ रवाना हो गये तथा वहाँ मुस्लिम विद्वान् अबुल-फजल से विचार-विनिमय के उपरान्त सम्राट अकबर से मिले । सम्राट ने इनका भव्य एवं हार्दिक स्वागत किया। शत्रुञ्जय पहाड़ी पर आदिनाथ मन्दिर के पूर्वी प्रवेश द्वार के बरामदे में उत्कीर्ण १५९३ ई० के हेमविजय लिखित अभिलेख से ज्ञात होता है कि हीरविजय ने १५९२ ई० में बादशाह को एक आदेश जारी करने को प्रेरित किया, जिसमें छः महीने जीवहिंसा को बन्द करने, मृत व्यक्ति की सम्पत्ति को जब्त करने की प्रथा को समाप्त करने, सजिजि कर एवं शुल्क, बन्दियों की रिहाई, शत्रुञ्जय तीर्थ को जैनियों को भेंट देने आदि के आदेश जारी करवाये थे । इस समय फतहपुर सीकरी में मछली मारने का भी निषेध हो गया था। इनके अगाध ज्ञान, गम्भीर चिन्तन तथा साधु स्वभाव से प्रभावित होकर अकबर ने वर्ष में कुछ दिनों के लिये स्वयं मांस भक्षण बन्द कर दिया। ये मुगल राजदरबार में २ वर्ष रहे तथा अकबर ने इन्हें "जगतगुरु" की उपाधि प्रदान की । अबुल-फजल ने अकबर के दरबार के सर्वोच्च २१ विद्वानों में इन्हें भी सम्मिलित किया है, जिनके लिये कहा जाता था कि ये लोग "दोनों लोकों का रहस्य" जानते हैं। जालौर के महावीर मन्दिर के १६२४ ई० के लेख से भी हीरविजय सूरि के सन्दर्भ में उक्त तथ्यों की पुष्टि होती है । पाली की महावीर प्रतिमा पर अंकित १६२९ ई० के लेख" और नाडलाई की आदिनाथ मूर्ति के १६२९ ई० के लेख में भी अकबर बादशाह द्वारा हीरविजय को "जगतगुरु" का विरुद प्रदान करने का उल्लेख है । अकबर से सम्मान प्राप्त होने पर १. श्रीवास्तव, भारत का इतिहास, पृ० ४६८ । २. एनुअल रिपोर्ट, इए, १९५२-५३, क्र० सी-१०७ । ३. श्रीवास्तव, भारत का इतिहास, पृ० ४६८ । ४. नाजैलेस, १, क्र० ९०५ । ५. वही क्र० २२९, ८२६, ८२७ आदि । ६. राइस्त्रो , पृ० १८० । Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२ : मध्यकालीन राजस्थान में जैनधर्म गुजरात में गवर्नर आजम खान, जामनगर के जाम साहिब, खान मुहम्मद आदि कई मुस्लिम अधिकारी इनके प्रति सम्मान प्रदर्शित करने आये । इनके पश्चात् कुछ अन्य जैनाचार्यों ने भी सम्राट् से भेंट की, जिनमें शांतिभद्र, विजयसेन सूरि, भानुचन्द्र उपाध्याय, हर्ष सूरि और जयसोम उपाध्याय प्रमुख थे । कुछ उच्चकोटि के जैनाचार्य तो दरबार में स्थायी रूप से रहने लगे थे।' आचार्य जिनहंस सूरि के बारे में ऐसा उल्लेख है कि इन्होंने आगरा में भव्य राजकीय स्वागत के उपरांत, अपनी दैविक शक्ति से बादशाह का मनोरंजन करके ५०० कैदियों को छुड़वा कर 'अभय घोषणा" करवायी थी। खरतरगच्छ के जैनाचार्य जिनचन्द्र सूरि की विद्वत्ता एवं साधु स्वभाव की महिमा सुनकर अकबर ने मन्त्री कर्मचन्द्र बच्छावत को आदेश देकर आचार्य जी को लाहौर पधारने का निमन्त्रण, खंभात प्रेषित किया था। आचार्यजी वृद्धावस्था के बावजूद पदविहार करते हुये, सिरोही होकर जालौर पहुँचे। बादशाह की ओर से शीघ्रता का फरमान पाकर इन्होंने महिमराज वाचक के साथ ६ शिष्यों को आगे भेजा तथा स्वयं चातुर्मास समाप्त होने पर पाली, सोजत, मेड़ता, नागौर, रिणी होते हुए, ३१ साधुओं सहित लाहौर पहुँचे, जहां बादशाह ने इनका भव्य स्वागत किया। सम्राट् इनके धर्मोपदेशों से बहुत प्रभावित हुआ और प्रतिदिन महल में बुलवाकर उपदेश श्रवण प्रारम्भ किया। सम्राट ने इनको स्वर्ण मुद्राएँ आदि भेंट भी देनी चाहीं, जो निस्पृह आचार्य ने अस्वीकार कर दी। शहजादा सलीम के मूल नक्षत्र में पुत्री उत्पन्न होने पर, ज्योतिषियों द्वारा इसे अशुभ और पिता के लिये अनिष्टकारी बताये जाने पर, इन्होंने जैन विधि से ग्रहशांति एवं अनुष्ठान करने का, मन्त्री कर्मचन्द्र को आदेश दिया । मन्त्री ने सोने, चाँदी के घड़ों में, १ लाख रुपये व्यय करके, वाचक महिमराज के द्वारा, सुपार्श्वनाथ मन्दिर में, शान्ति-स्नान करवाया। मंगल दीप व आरती के समय सम्राट् व शहजादा सलीम ने स्नान जल को नेत्रों से लगाया तथा अन्तःपुर में भी भेजा, और प्रभु भक्ति में १०,००० रुपये भेंट किये। सम्राट अकबर सूरि जी को “वृहद गुरु" नाम से पुकारता था। __नौरंगखान द्वारा द्वारिका के जैन मन्दिरों के विनाश की सूचना पाकर इन्होंने सम्राट् को तीर्थ-महात्म्य बताते हुए, उनकी रक्षा का उपदेश दिया। सम्राट ने तुरन्त फरमान जारी करके समस्त जैन तीर्थ मन्त्री कर्मचन्द्र के अधीन कर दिए। गुजरात के सूबेदार आजम खान को तीर्थ रक्षा के लिए सख्त हुक्म भेजा गया। काश्मीर विजय के निमित्त जाते हुए सम्राट ने सूरिजी को बुलाकर आशीर्वाद प्राप्त किया और आषाढ़ शुक्ला नवमी से पूर्णिमा तक बारह सूबों में जीवों को अभय १. श्रीवास्तव, भारत का इतिहास, पृ० ४६८ । २. खरतरगच्छ का इतिहास, १९० । Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनधर्म की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि : ७३ दान देने के लिये बारह फरमान लिख भेजे' । इसके अनुसरण में सभी राजाओं ने अपनेअपने राज्यों में दस, पन्द्रह, बीस दिन, महीने या दो महीने तक के लिये जीवों के अभयदान की उद्घोषणायें की। सम्राट् ने काश्मीर प्रवास में धर्म गोष्ठी व जीव दया प्रचार के लिये, वाचक महिमराज को भेजने की प्रार्थना की। मंत्रीश्वर एवं श्रावकों के भी साथ में होने के कारण सूरि जी ने मुनि हर्ष विशाल, पंचानन महात्मा, समय सुन्दर आदि के साथ वाचक जी को भी भेजा । मार्ग में एक विशाल सभा में समय सुन्दर ने "राजानौ ददते सौख्यम" वाक्य का विभिन्न अर्थों वाला 'अष्टलक्षी ग्रन्थ' पढ़कर सुनाया। सम्राट् ने उसे अपने हाथ में लेकर रचयिता को समर्पित करके प्रमाणीभूत घोषित किया। आचार्यों के उपदेशों के सुप्रभाव से मार्गवर्ती तालाबों के जलचर जीवों का मारना निषिद्ध हुआ। सम्राट्, काश्मीर यात्रा के दौरान, साधुओं के कठिन जीवन को देखकर बहुत प्रभावित हुआ। विजय प्राप्त करने पर सम्राट् ने श्रीनगर में ८ दिन तक अमारि उद्घोषणा करवाई । १५९२ ई० में लाहौर लौटने पर सम्राट् ने मंत्री कर्मचन्द्र से परामर्श करके महिमाराज वाचक को "सिंह सूरि" की उपाधि तथा बड़े गुरु जिनचन्द्र सूरि को "युग प्रधान" की उपाधि प्रदान की, जिसके उपलक्ष्य में कर्मचन्द्र ने विशाल महोत्सव आयोजित किया। सम्राट ने लाहौर में तो अमारि घोषणा की ही, किन्तु सूरिजी के उपदेशों के सुप्रभाव से, खम्भात के समुद्र के असंख्य जलचर जीवों को भी वर्षावधि अभयदान देने का फरमान जारी किया। युग प्रधान गुरु के नाम पर मंत्री कर्मचन्द्र ने सवा करोड़ रुपये का दान किया। राजा राजसिंह ने इस शुभ अवसर पर सूरि जी को आगमादि अनेक ग्रन्थ भेंट किये, जिन्हें बीकानेर ज्ञान भण्डार में रखा गया । १५९४ ई० में सूरि जी ने अकबर को निरन्तर धर्मोपदेश देने के लिये चातुर्मास लाहौर में ही व्यतीत किया। अभिलेखीय प्रमाणों से ज्ञात होता है कि जिनचन्द्र सूरि के उपदेशों से प्रभावित होकर, सम्राट ने कुल मिलाकर वर्ष में छः माह अपने राज्य में जीव हिंसा निषिद्ध की; सर्वत्र गोवध बन्द कर, गौरक्षा की; एवं शत्रुजय तीर्थ को करमुक्त किया । अनुश्रुतियों के अनुसार सम्राट् के आग्रह से इन्होंने पाँच नदियों के पाँच पीरों, मणिभद्र, यक्ष, खोडिया, क्षेत्रपाल आदि को भी वश में किया था। जहाँगीर की आत्मजीवनी, विन्सेंट ए० स्मिथ, पुर्तगाली यात्री पिन हेरो, ईश्वरी प्रसाद आदि के उल्लेखों से स्पष्ट है कि जिनचन्द्र के सम्पर्क से अकबर बहुत दयालु हो गया था। सम्राट् के प्रतिष्ठित दरबारी व्यक्तियों जैसे-अबुल फजल, आजमखान, खानखाना इत्यादि पर भी सूरिजी का अत्यधिक प्रभाव था। सम्राट अकबर विजय सेन सूरि से भी अत्यधिक प्रभावित था और उसने उन्हें भी 'जगतगुरु' की उपाधि १. जिनचन्द्रस्मृग, पृ० ४८ । Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४ : मध्यकालीन राजस्थान में जैनधर्म प्रदान की थी। १६२९ ई० के, पाली की महावीर प्रतिमा पर अंकित लेख में, अकबर के द्वारा विजयसेन सूरि को जगतगुरु-विरुद धारक वर्णित किया गया है।' इस प्रकार जैन मुनियों के उपदेशों का अकबर के जीवन पर बहुत प्रभाव पड़ा । उसने शिकार खेलना एवं मांस खाना भी लगभग बन्द कर दिया । निषिद्ध दिनों पर पशु-पक्षियों का वध करने पर मौत की सजा देने का प्रावधान रखा । इन आज्ञाओं का कठोरता पूर्वक पालन करने के लिये समस्त अधीनस्थ अधिकारियों को फरमान जारी किये गये थे । जहाँगीर की दष्टि में भी जिनचन्द्र सूरि का बहुत उच्च स्थान था । १६११ ई० में दर्शनी के दुराचरण से क्रुद्ध होकर जहाँगीर ने न केवल उसे ही देश से नहीं निकाला, अपितु जैन पंथ के अन्य लोगों को भी राज्य से बाहर जाने का आदेश दिया। इससे जैन धर्म के सभी घटकों में भय व्याप्त हो गया। जब यह समाचार जिनचन्द्र सूरि तक पहुँचा तो वे पाटण से आगरा आकर जहाँगीर से मिले। धर्म पर लम्बे वाद-विवाद के उपरान्त सूरि जी बादशाह से आदेश वापस लेने में सफल हुये। १६१२ ई० का चातुमसि सूरिजी ने आगरा में ही व्यतीत किया, जिसमें सूरिजी का बादशाह जहाँगीर से अच्छा सम्पर्क रहा । शाही दरबार में भट्ट को शास्त्रार्थ में परास्त कर इन्होंने "सवाईयुग-प्रधान' भट्टारक नाम से प्रसिद्धि प्राप्त की। जहाँगीर पर जिनसिंह सूरि का भी अच्छा प्रभाव था । इनकी अनुनय पर बादशाह ने सभी जीवित प्राणियों के प्रति सुरक्षा का आश्वासन दिया। बादशाह ने इनको "युग प्रधान" की उपाधि भी प्रदान की । १६२४ ई० में श्रीसार रचित “जिनराज सूरि रास" में स्पष्ट उल्लेख है कि जहाँगीर इनसे मिलने के लिये बहुत उत्सुक था और उसने इन्हें निमंत्रित करने के लिये बीकानेर एक अधिकारी भी भेजा था। अभिलेखीय प्रमाणों से सिद्ध होता है कि तपागच्छीय विजयदेव सूरि से जहाँगीर बहुत अधिक प्रभावित था और उसने उन्हें “महातपा" को उपाधि प्रदान की थी। १६२९ ई० के नाडोल के लेख में विजयदेव सूरि को जहांगीर द्वारा "महातपा" की उपाधि देने का उल्लेख है। इसी प्रकार नाडलाई के १६२९ ई० के आदिनाथ मन्दिर की मूर्ति के छः पंक्तियों वाले लेख तथा १६२९ ई० के जालौर के, जोधपुर के गजसिंह के शासनकाल में रचित लेख में भी महातपा विजयदेव सूरि का उल्लेख है । उपाध्याय गुणविजय से भी जहाँगीर अत्यधिक प्रभावित था। इनकी असाधारण काव्यप्रतिभा से प्रभावित होकर सम्राट ने इनको कविराज की उपाधि प्रदान की थी। यह १. नाजैलेस, १, क्र० २२९, पृ० २०३ । २. वही, क्र० ८३७, पृ० २०७ । ३. राइस्त्रो, पृ० १८० । ४. नाजैलेस, १, क्र० ८३७, पृ० २०७ । Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनधर्म की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि : ७५. तथ्य इनके शिष्य मतिकीति रचित "नियुक्ति-स्थापन" प्रश्नोत्तर ग्रन्थ की प्रशस्ति से ज्ञात होता है ।' जहाँगीर अपने शासन के पश्चात्वर्ती काल में जैन मत एवं मतावलम्बियों से क्रुद्ध एवं असन्तुष्ट हो गया था, जिसका कारण सम्भवतः राजनीतिक ही था। बीकानेर के मन्त्री व जैनियों के मार्गदर्शक मानसिंह ने खुसरो के विद्रोह के समय यह भविष्यवाणी की थी कि दो वर्ष में जहांगीर का शासन समाप्त हो जायेगा; इससे चिढ़कर ही १६१६ ई० की अपनी गुजरात यात्रा के समय उसने जैनाचार्यों पर अनैतिक व्यवहार का एवं जैन मन्दिरों पर उपद्रव एवं असन्तोष के केन्द्र होने का आरोप लगा कर जैनियों को अपने साम्राज्य से निर्वासित करने की भी घोषणा की, जो बाद में वापस भी ले ली गई थी। अपने शासन के पूर्ववर्ती काल में तो वह अपने पिता की भाँति जैनाचार्यों को अत्यधिक सम्मान करता रहा ।। सम्राट शाहजहाँ के शासनकाल में १६२९ ई० में आचार्य जिनराज सूरि आगरा में सम्राट् से मिले थे और वहाँ वाद-विवाद में ब्राह्मण विद्वानों को पराजित किया था। इन्होंने सम्राट से आग्रह करके कुछ निषेध हटवाये थे । तत्कालीन मुगल अधिकारी भी इनके प्रशंसक थे, जैसे खान एवं आलम दीवान आदि । १६४५ ई० के आसपास, सिन्धु देश में विहार करते समय, उपाध्याय समय सुन्दर ने सिद्धपुर के मखनूम महमूद शेख को प्रतिबोध देकर पंचनदीय जलचर जीवों तथा गौरक्षा की “अमारि" घोषणा करवाई थी। १. बल्लभ भारती, पृ० १७० । २. खरतरगच्छ का इति०, पृ० १९६ । ३. बल्लभ भारती, पृ० १६९ । Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्याय तृतीय जैनधर्म भेद और उपभेद पृष्ठभूमि : महावीर के समय से ही जैन धर्म ने प्रचारित, प्रसारित होकर विभिन्न प्रवृत्ति एवं 'विचारों वाले जन समुदायों को आत्मसात कर लिया था। अतः भिन्न-भिन्न वैचारिक धरातल के व्यक्तियों के मिलन की प्रतिक्रियास्वरूप जैन संघ में नये-नये मतमतांतरों, "फूट, विलगाव आदि का पैदा होना स्वाभाविक था और कालान्तर में यह जैन मत के दो वृहत् संप्रदाय या परम्पराओं-दिगम्बर एवं श्वेतांबर के रूप में अस्तित्व में आ गया । श्वेताम्बर एवं दिगम्बर में निम्नलिखित मतभेद हैं : १. श्वेताम्बर नग्न रहने को मोक्ष के लिये अनिवार्य नहीं समझते जबकि दिगम्बर वस्त्रों को परिग्रह का रूप समझकर मोक्ष में बाधक मानते हैं। २. श्वेताम्बर स्त्रियों को इसी जीवन में मोक्ष की अधिकारी मानते हैं, दिगम्बर इसका निषेध करते हैं। ३. श्वेताम्बरों का विचार है कि कैवल्य ज्ञान की प्राप्ति के बाद भी मनुष्य को भोजन की आवश्यकता रहती है। दिगम्बर दर्शन के अनुसार वह निराहार रह सकता है। ४. श्वेताम्बर परम्परा के अनुसार महावीर ने यशोदा से विवाह किया और उनके प्रियदर्शना नाम की पुत्री हुई । दिगम्बरों के अनुसार वे अविवाहित रहे। ५. श्वेताम्बर १९वें तीर्थंकर मल्लिनाथ को स्त्री मानते हैं, जब कि दिगम्बर पुरुष । ६. श्वेताम्बर पुरानी वाचनाओं के अनुसार १२ अंग, १२ उपांग, १० प्रकीर्णक, ६ छेदसूत्र, ४ मूल सूत्र, २ अन्य ( नन्दी और अनुयोग द्वार ) इन ४६ आगमों को मानते हैं । दिगम्बर इन्हें स्वीकार नहीं करते। इनके अनुसार प्राचीन आगम का केवल एक अंश 'षट्खंडागम" के रूप में बचा है। इन भेदों के होने पर भी दोनों सम्प्रदायों का दार्शनिक आधार एक ही है। दोनों उमास्वामी के "तत्वार्थाधिगम सूत्र" में प्रतिपादित दर्शन को प्रामाणिक मानते हैं। गुप्तकाल के पश्चात् ७वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध से ही केन्द्रीय राजनीतिक सत्ता के विध्वंस से शासन में विकेन्द्रीकरण प्रारम्भ हुआ। संस्कृति एवं जीवन के सभी क्षेत्रों में प्रादेशिकता एवं व्यक्तिवाद का वर्चस्व प्रारम्भ हुआ। इससे सभी धर्मों में भी विभिन्न पंथ, विलगाव एवं भेद-प्रभेद दृष्टिगत होने लगे। राजस्थान में सम्पूर्ण मध्यकाल में Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनधर्म भेद और उपभेद : ७७ जैनाचार्यों के व्यक्तिगत वर्चस्व एवं व्यक्तित्व के मूल्यांकन की कसौटी उनके द्वारा स्थापित पंथ एवं अनुयायियों की संख्या बन गई । बहुसंख्यक गच्छ, संघ, जाति भेद एवं असंख्य गोत्र इसी प्रवृत्ति की देन है। पौराणिक धर्म के उदय व शंकराचार्य के प्रभाव से बौद्ध धर्म का पश्चिमी भारत से उच्छेद हो गया था । बाह्य आक्रमणों का सदैव भय बना रहता था, फिर भी राजस्थान में राजपूतों के शासन के कारण अपेक्षाकृत शांतिपूर्ण वातावरण था। कई शासक विद्वानों के आश्रयदाता थे। जैन मतावलंबियों की आर्थिक स्थिति अच्छी थी। सारा धन नगरों व मन्दिरों में एकत्र हो गया था। समाज में स्त्रियों की अच्छी प्रतिष्ठा थी। पर्दा प्रथा नहीं थी। राजपूतों का प्रभाव उत्तरोत्तर बढ़ रहा था, अतः ब्राह्मणों ने सामाजिक बन्धन कठोर कर दिये थे । __ जैनाचार्यों को समाज के सभी वर्गों में अप्रतिहत गति थी। वैदिक धर्म की ओर अनिच्छा पूर्वक आकृष्ट होने वाले सामान्य जनों को इस समय जैनाचार्यों की वाणी से अवलम्ब मिला । जैनाचार्य सभी को समान रूप से प्रतिबोध देते थे तथा राजदरबार से लेकर गरीब वर्गों तक में वे समान रूप से आदरणीय थे । जैन मतावलम्बियों को शासन में उच्च पद प्राप्त थे । भोज, विग्रहराज, कुमारपाल आदि उदार शासकों ने जैन मत को प्रश्रय देकर स्वर्ण काल की पराकाष्ठा तक पहुँचाया । समकालीन बहुविध कारणों के परिणाम स्वरूप जैन धर्म के उक्त २ वृहत् संप्रदाय भी कालक्रम में गण या गच्छ, संघ, कुल, शाखा, सम्भोग, पढय्या, समुदाय, आम्नाय, अन्वय, वंश, मण्डलि आदि भेदोपभेदों में विभाजित होने लगे। इस टूटन के उत्तरदायी कारक सैद्धांतिक मतभेद, व्यक्तिगत महत्वकांक्षा या कतिपय स्थानीय कारण थे। साधुसाध्वियों की विलगाववादी प्रवृत्ति श्रावक वर्ग में भी प्रतिबिम्बित होकर कई जातियों और गोत्रों की उत्पत्ति का प्रेरक हेतु बनी। पूर्व मध्यकाल में जैन मत में विभिन्न भेद-उपभेद नैमित्तिक हेतुओं से उद्भत होकर गच्छों एवं संघों के रूप में अस्तित्व में आये । चैत्यवास का अवसान तथा सुविहित पक्ष का उदय हुआ। जैनाचार्यों की धर्मप्रसारक प्रभावना एवं उद्बोधन से विभिन्न जातियाँ मुख्यतः क्षत्रिय जैन मत में दीक्षित हुये । मध्यकाल में साधु एवं श्रावकों की इन लघु इकाइयों ने चरमोत्कर्ष देखा। इसी काल में राजनीतिक अवस्थाओं की विडम्बना, मूलतः शासन शक्ति के सहयोग से मुस्लिमों द्वारा विध्वंस एवं धर्म प्रचार, की व्यापक सामाजिक प्रतिक्रिया के कारण जैन धर्म में भी कुछ नये अमूर्ति-पूजक एवं विरोधी पंथ अस्तित्व में आये। श्रावक वर्ग छोटे दायरों में विभक्त होता गया । उत्तर मध्यकाल में उपभेदों में से भी शाखायें, प्रशाखायें निकलना प्रारम्भ हुईं और मतगत दायरों की संकीर्णता श्रावकों की मानसिकता को भी प्रभावित करने लगी। सामंजस्य बुद्धि का अभाव तथा धार्मिक कट्टरता में वृद्धि होने लगी। Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -७८ : मध्यकालीन राजस्थान में जैनधर्मं (अ) चैत्यवासी प्रथा : (१) श्वेताम्बर संम्प्रदाय में चैत्यवासी प्रथा : राजस्थान में श्वेताम्बर सम्प्रदाय में चैत्यवासी प्रथा सफल और लाभकारी ढंग से विद्यमान थी । जैन सूत्रों में वर्णित आचार के नियमानुसार कोई भी साधु किसी गाँव में एक रात्रि और किसी नगर में पाँच रात्रि से अधिक नहीं ठहर सकता । यह प्रथा जैन एवं बौद्ध श्रमण संस्कृति की विरासत है । किन्तु धीरे-धीरे मुनियों के आचार में शिथिलता आने लगी । श्वेताम्बर सम्प्रदाय के यति या श्रीपूज्य जिन मन्दिरों में रहते थे, उनको प्रायः चैत्य-गृह कहा जाता था । आचार्य धर्मसागर ने ३५५ ई० में चैत्यवासी प्रथा प्रारम्भ होना बताया है ।" मुनि कल्याण विजय के अनुसार यह इससे पूर्व ही स्थापित हो गई थी और ३५५ ई० तक तो एक सुस्थापित परम्परा हो गई थी । पूर्वकालीन कुछ मुनियों ने इस कुप्रथा का विरोध करके वनवास को प्राथमिकता दी जिससे " वनवासी गच्छ" नाम प्रारम्भ हुआ । किन्तु रागातिरेक से मुनियों में स्थिरवास की प्रवृत्ति बढ़ने लगी जो क्रमिक रूप से " बसतिवास" व तदनन्तर चैत्यवास में परिवर्तित हो गई । राजस्थान में चैत्यवासी प्रथा लगभग ८वीं है । राजस्थान के जैनाचार्यों, जैसे हरिभद्रसूरि - ध्यान इस शिथिलाचरण की तरफ आकृष्ट प्रकरण" में उल्लेख है कि शताब्दी से और जिन किया था । "ये कुसाधु चैत्यों और मठों में रहते हैं । पूजा करने का ढोंग करते हैं । देव-द्रव्य का उपभोग करते हैं । जिन मन्दिर और शालायें बनवाते हैं । रंग-बिरंगे, सुगन्धित धूपवासित वस्त्र पहनते हैं । बिना नाथ के बैलों के सदृश स्त्रियों के आगे गाते हैं । आर्यिकाओं द्वारा लाये गये पदार्थ खाते हैं और तरह-तरह के उपकरण रखते हैं । सचित्त जल, फल, फूल आदि द्रव्य का उपभोग करते हैं । दिन में २-३ बार भोजन करते और ताम्बूल, लवंगादि भी खाते हैं । ये लोग मुहूर्त निकालते हैं, निमित्त बतलाते हैं तथा भभूत देते हैं । ज्योनारों में मिष्ठ आहार प्राप्त करते हैं । आहार के लिये खुशामद करते हैं और पूछने पर भी सत्य धर्म नहीं बतलाते । स्वयं भ्रष्ट होते हुये भी आलोचनप्रायश्चित आदि करवाते हैं । स्नान करते, तेल लगाते, शृंगार करते और इत्र फुलेल १. जैसाऔइ, पृ० ३५१ । २. वही । ३. सम्बोध प्रकरण, ४. संघ पट्टक, श्लोक, ७, ११, १२, १५, २१ आदि । विकसित हुई प्रतीत होती बल्लभ सूरि ने जनता का हरिभद्रसूरि कृत " संबोध श्लोक - २७, ३४, ४६-४९, ६१, ६३, ६८ आदि । Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनधर्म भेद और उपभेद : ७९ का उपयोग करते हैं । अपने होनाचारी मृत गुरुओं की दाहभूमि का स्तूप बनवाते हैं । स्त्रियों के समझ व्याख्यान देते हैं और स्त्रियाँ उनके गुणों के गीत गाती हैं। सारी रात सोते, क्रय-विक्रय करते और प्रवचन के बहाने व्यर्थ बकवाद में समय नष्ट करते हैं। चेला बनाने के लिये छोटे-छोटे बच्चों को खरीदते, भोले लोगों को ठगते और जिनप्रतिमाओं का क्रय-विक्रय करते हैं । उच्चाटन करते और वैद्यक, मंत्र, यन्त्र, तन्त्र, गण्डा, ताबीज आदि में कुशल होते हैं । ये सुविहित साधुओं के पास जाते हुये श्रावकों को रोकते हैं । शाप देने का भय दिखाते हैं । परस्पर विरोध रखते हैं और चेलों के लिये आपस में लड़ पड़ते हैं।" चैत्यवास का यह चित्र तो ८वीं शताब्दी का है। इसके पश्चात् तो इनका आचार उत्तरोत्तर शिथिल होता गया और चैत्यालय भ्रष्टाचार के अड्डे बन गये। उत्तरवर्ती स्थिति के बारे में मुनि जिनविजय लिखते हैं : "चैत्य ही उनका मठ या वास स्थान था। उनके आचार-विचार जैन शास्त्रों में वणित निर्ग्रन्थ जैन मुनि के आचारों से असंगत दिखाई देते थे । वे एक तरह से मठपति थे । शास्त्रकार शान्त्याचार्य, महाकवि सूराचार्य, मंत्रवादी वीराचार्य आदि प्रभावशाली, प्रतिष्ठा सम्पन्न और विद्वान् चैत्यवासी यति जन उस समय जैन समाज के धर्माध्यक्षकत्व का गौरव प्राप्त कर रहे थे। जैन समाज के अतिरिक्त आम जनता में और राज दरबार में भी इनका बड़ा प्रभाव था। जैन गृहस्थों के बच्चों की व्यवहारिक शिक्षा का काम प्रायः इन्हीं के अधीन था। इनका यह सब व्यवहार जैन शास्त्र की दृष्टि से यति मार्ग के सर्वथा विपरीत और हीनाचार का पोषक था ।" अनहिलपुर पाटण के राजा वनराज चावड़ा (७६५-८२५ ई०) द्वारा उनके गुरु शीलगुण सूरि ने यह आज्ञा प्रसारित करवा दी थी कि नगर में चैत्यवासी साधुओं के अतिरिक्त अन्य वनवासी आदि साधु प्रवेश नहीं कर सकेंगे। इस अनुचित आज्ञा को निरस्त करवाने के लिये १०१७ ई० में जिनेश्वर सूरि और बुद्धिसागर सूरि ने राजा दुर्लभ देव की सभा में चैत्यवासियों के साथ शास्त्रार्थ कर उन्हें पराजित किया, तब कहीं पाटण में विधि मागियों का प्रवेश हो सका। चैत्यवासी, जैन साधुओं के पारम्परिक मार्ग से विचलित होकर जैन मन्दिरों और प्रतिमाओं की स्थापना करने लगे थे, जो कि जन सामान्य की प्रथा थी न कि साधुओं की । चैत्यवासी इसमें हानि नहीं मानते थे और इसके लिये अनुचित तर्क भी देते थे। राजस्थान में चैत्यवासियों की गतिविधियों के बारे में जानकारी देने वाले कई अभिलेख हैं । १३५४ ई० में जीरापल्ली गच्छ के रामचन्द्र सूरि ने जीरापल्ली में देवकुलिका १. संबोध प्रकरण, युग प्रधान जिनदत्त सूरि प्रकरण, पृ० ८-९ । २. कथा कोष प्रकरण, पृ० ३ । Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८० : मध्यकालीन राजस्थान में जैनधर्म का निर्माण करवाया था। हेमतिलक सूरि ने गुरु-भक्ति के कारण १३८९ ई० में वरमाण में मन्दिर का रंगमण्डप निर्मित करवाया था। १३९७ ई० में वाचक सोम प्रभसूरि, जो पिप्पलाचार्य गच्छ के थे, ने अजारी में सुमतिनाथ की प्रतिमा निर्मित करवाई थी । वीरप्रभ सूरि ने वीरवाड़ा गाँव में १४१८ ई० में मण्डप निर्मित करवाया था। १४६४ ई० में काछोलीवाल गच्छ के विजयप्रभ सूरि ने सिरोही में अजितनाथ के मन्दिर में गुणसागर सूरि की स्मृति में देवकुलिका का निर्माण करवाया ।' भद्रेश्वर सूरि ने जीरापल्ली में आदिनाथ मन्दिर में तिलकसूरि की स्मृति में देवकुलिका बनवाई। काछोलीवाल गच्छ के उदयवर्द्धन सूरि ने सिरोही में देवकुलिका बनवाई थी। नानक गच्छ के पार्श्वदेव सूरि ने अपने शिष्य वीरचन्द्र के साथ बिलाड़ा में "लगिका" निर्मित करवाई थी। इस प्रकार चैत्यवास का अस्तित्व राजस्थान में १५वीं शताब्दी तक रहा। उसके बाद यह यति समाज में परिवर्तित हो गया । (२) दिगम्बर सम्प्रदाय में चैत्यवासी प्रथा : श्वेताम्बर सम्प्रदाय की तरह दिगम्बर सम्प्रदाय में भी चैत्यवासी प्रथा प्रवर्तन में रही। भट्टारकों की गादियाँ चैत्यवास और मठवास की ही प्रतिनिधि कही जा सकती हैं । दिगम्बर जैन साहित्य में चैत्यवासी प्रथा के प्रारम्भ होने के निश्चित समय का कोई उल्लेख नहीं है। किन्तु ८वीं शताब्दी में यह दक्षिण में अस्तित्व में थी। आचार्य कुन्दकुन्द के "लिंगपाहुड" से प्राप्त सूचनानुसार पता चलता है कि उस समय ऐसे भी जैन साधु थे, जो गृहस्थों के विवाह जुटाते और कृषि-कर्म, वाणिज्य आदि हिंसा कर्म करते थे। चैत्यवास के समर्थक मुनि शिवकोटि ने अपनी "रत्नमाला" में लिखा है कि उत्तम मुनियों को कलिकाल में वनवास नहीं करना चाहिये । जिन मन्दिर और विशेषकर ग्रामादि में रहना ही उनके लिये उचित है । यह भी अनुमान है कि दिगम्बर मुनियों ने ४१५ ई० में वनवास छोड़कर "निसीहि' आदि में रहना प्रारम्भ किया हो एवं उसमें १. अप्रजैलेस, क्र० ११९ । २. वही, क० ११३ । ३. वही, क्र० ४३२ । ४. वही, क्र० २७८ । ५. वही, क्र० २४६-२४८ । ६. वही, क्र० ११६ । ७. वही, क्र० २४९ । ८. वही, क्र० ३३७ । ९. "जो जोडेज्ज विवाहं, किसिकम्मवाणिज्ज जीवधादं च" । (लिंग पाहुड) Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनधर्म भेद और उपभेद : ८१ विकृति होने पर ११६२ ई० के पश्चात् मठवास चालू किया हो और उनमें रहने वाले मठवासी भट्टारक ही कहे जाने लगे हों। राजस्थान में भट्टारक कई गांवों और उद्यानों के स्वामी होते थे। वे मन्दिरों का पुननिर्माण करवाते और धर्मशालायें बनवाते थे, यहाँ तक कि अन्य मुनियों को भोजनादि भी देते थे। ऐसा प्रतीत होता है कि चैत्यवासी होने के बावजूद प्रारम्भिक भट्टारक नग्न ही रहते थे। सम्भवतः श्वेताम्बर मुनियों से अपनी पृथकता सिद्ध करने के लिये यह आवश्यक भी था। वर्तमान समय में भट्टारकों में केवल भोजन करते समय वस्त्र उतारने की परम्परा है। शेष समय वे वस्त्र धारण किये हुये रहते हैं । स्पष्ट है कि भूतकाल में वे नग्न ही रहते थे व वस्त्र धारण की परम्परा पश्चात्वर्ती है । १६वीं शताब्दी के भट्टारक श्रुतसागर लिखते हैं कि कलिकाल में यतियों को नग्न अवस्था में देखकर मुसलमानों ने उनके साथ दुर्व्यवहार प्रारम्भ किया, इसलिये मंडपदुर्ग में बसंतकीर्ति ने निर्देश दिये कि चर्या (भिक्षा के लिए जाना) के समय सन्तों को अपना शरीर चटाई या अन्य किसी चीज से ढक लेना चाहिए । मूल संघ की पट्टावली में चित्तौड़ के भट्टारकों के नाम हैं। उनमें से एक बसंतकीर्ति के समय में (१२०७ ई०) मुसलमानों का अत्यधिक भय था। १३वीं शताब्दी और उसके पश्चात् से कुछ दिगम्बर सन्त बाहर जाते समय चटाई या अन्य चीजों का प्रयोग नग्नता को ढकने के लिये करने लगे। धर्म शासन में भट्टारक ऐसे अध्यात्म गुरु थे, जिनके अधीन बहुत से पंडित और आचार्य थे। ये श्रावकों से विभिन्न तरीकों से धन वसूल करते थे और सुख सुविधायें भोगते थे। इनके पास संघ की प्रशासनिक शक्तियाँ होती थीं तथा वे आचार्यों और पंडितों की नियुक्ति, विभिन्न स्थानों पर धार्मिक वृत्तियों को संपन्न करने के लिए करते थे । (ब) भेद एवं उपभेद : ८वीं से १८वीं शताब्दी तक जैन मत कई छोटी-छोटी इकाइयों में विभक्त होता रहा । शास्त्र सम्मत व्याख्याओं तथा व्यक्तिगत नाम और प्रसिद्धि के आधार पर समयसमय पर विभिन्न पंथ एवं मत अस्तित्व में आते रहे। इनमें सामंजस्य बनाये रखने वाला कोई केन्द्रीय संगठन जैन संघ में नहीं था। संघ व गण मूलतः राजनीतिक शब्द हैं । महावीर का जन्म गणतांत्रिक वातावरण में होने के कारण जैन धर्म में संघ, गण आदि अस्तित्व में आये । वृहत् संख्या में संघों एवं गच्छों का अस्तित्व इस बात का १. जैनधर्म का मौलिक इतिहास, २, पृ० ६२८ । २. जैसाआई, पृ० ३६३ । ३. इए, २०, पृ० ३४७ । Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८२ : मध्यकालीन राजस्थान में जैनधर्म संकेत देता है कि जैन धर्म राजनीतिक और सांस्कृतिक दृष्टि से अत्यधिक जागरूक व संगठित था । संगठन कौशल के कारण ही सम्भवतः जैन धर्म सभी परिवर्तनों के मध्य भी जीवित रहा। प्रयुक्त शब्दावली : गण, गच्छ--विभिन्न समाचारी साधुओं या संभोगियों के मिलने से बनने वाली इकाई गण कहलाती है। "गण"२ ही कालान्तर में “गच्छ'' कहलाने लगे । जेकोबी का अभिमत है कि आधुनिक गच्छ प्राचीन गणों के समतुल्य दिखाई देते हैं । “गच्छ" का शाब्दिक अर्थ, एक ही श्रेणी के मुनियों द्वारा विशिष्ट सैद्धांतिक पथ अभिप्रेत है । गच्छ-सन्दर्भ-उपांग, नियुक्तियों और प्रकीर्णकों में भी देखने को मिलते हैं। "गण" शब्द से "गच्छ" शब्द का नामान्तरण "महानिसीह" में भी देखा जा सकता है । गच्छ एक समाचारी साधुओं का समूह है, जो उस समूह विशेष के नियमों का शुद्धतापूर्वक पालन करते हैं । “गच्छ" शब्द पूर्वकाल में ३-४ से लेकर हजारों साधुओं की टुकड़ियों के अर्थ में प्रचलित था। धीरे-धीरे इसका अर्थ पांच अधिकारियों से बने हुये समूह तथा कालान्तर में "गण व्यवस्थापक मंडल" के अर्थ में प्रचलित हुआ और फिर यह "गण" का पर्याय बन गया। १२वीं शताब्दी की सूत्र टीकाओं में उनके रचयिताओं ने "गच्छ'' का अर्थ "कुलों का समूह" किया है, जो तत्कालीन स्थिति के अनुरोध से ठोक कहा जा सकता है, सिद्धान्त के अनुसार नहीं । गण का प्रमुख आचार्य, गणस्थविर कहलाता था। कुल-एक ही आचार्य का शिष्य परिवार श्रमण परिभाषा में "कुल" कहलाता था । राजस्थान में इसे "संघाड़ा" भी कहते हैं। दो या दो से अधिक कुलों से गण निर्मित होते थे। "कुल'' का प्रमुख आचार्य "कुल स्थविर" कहलाता था । शाखा-आचार्य विशेष से शिक्षा प्राप्त करने वाले शिष्य, चाहे वे एक ही कुल के हों या नहीं, शाखायें कहलाती थीं। १. बृहत्कल्प, ४, १८-२० । २. शुब्रिग, डॉक्ट्रीन ऑफ द जैन्स, पृ० ६७ । ३. बृहत्कल्प भाष्य, ५, पृ० १४८६ । ४. सेबुई, २२ । ५. शुकिंग, महानिसीह, पृ० ७६ । ६. औपपातिक सूत्र, पृ०७४ । ७. मुहस्मृग, पृ० ५४५ । ८. औपपातिक सूत्र-टीका, पृ० ८१ । ९. सेबुई, २२, कल्पसूत्र, पृ० २८६ । Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनधर्म भेद और उपभेद : ८३ इनके अतिरिक्त गुम्म और पढय्या भी साधुओं को विशिष्ट समूह बोधक संज्ञाएँ थीं' । मुनियों को योग्यतानुसार युगप्रधान, आचार्य, उपाध्याय, गणी, प्रवर्तक, स्थविर, गणावच्छेदक आदि पद दिये जाते थे। दिगम्बर सम्प्रदाय के भेदों व उपभेदों के सन्दर्भ में, श्वेताम्बर सम्प्रदाय को तुलना में भिन्न शब्दावली प्रयुक्त हुई है। सभी गणों का संयुक्त मंडल संघ कहलाता था । संघ के अन्तर्गत आम्नाय, अन्वय, बलि, समुदाय, गच्छ, गण, वंश आदि शब्दों का प्रयोग देखने को मिलता है, जो श्वेताम्बर सम्प्रदाय के लेखों में दृष्टिगत नहीं होता। (१) पूर्व मध्यकाल : (क) श्वेताम्बर सम्प्रदाय के भेद-प्रभेद : (क-१) प्रवर्तमान गच्छ : जैन परम्परा के अनुसार, ६५ ई० में जिनदत्त के चार पुत्रों चन्द्र, नागेन्द्र, निवृत्ति और विद्याधर सहित श्रमण धर्म की दीक्षा वज्रसेन के आचार्यत्व में ग्रहण करने के उपरान्त, क्रमशः चन्द्रकुल, नागेन्द्र कुल (नाइली शाखा) निवृत्ति कुल व विद्याधर कुल प्रकट हुए । चन्द्रगच्छ से सम्बन्धित पट्टावली एवं टिप्पणों के अनुसार चन्द्र, नागेन्द्र आदि चारों आचार्यों में से प्रत्येक ने अपने सुविशाल शिष्य समूह में से २१-२१ सुयोग्य श्रमणों को पृथक्-पृथक् रूप से आचार्य पदों पर नियुक्त किया, जिनसे ८४ ई० में ४ गणों और ८४ गच्छों की उत्पत्ति हुई । सम्भवतः चारों गणों का महत्त्व जताने के लिए इस प्रकार का उल्लेख किया गया है। उपाध्याय धर्मसागरकृत पट्टावली में इनका क्रमिक अस्तित्व में आना वर्णित है । तथाकथित ८४ गच्छों या उनमें से कुछ का भी कहीं नामोल्लेख नहीं मिलता है। कुछ पट्टावलियों में ९३७ ई० में ८४ गच्छों के अस्तित्व में आने का उल्लेख है। यह आंशिक रूप से असत्य प्रतीत होता है, क्योंकि खरतरगच्छ, अंचलगच्छ, तपागच्छ आदि कई महत्त्वपूर्ण गच्छ बाद में अस्तित्व में आये ऐसा प्रमाण उपलब्ध है। कुछ पट्टाबलियाँ इनका क्रमिक रूप से अस्तित्व में आना भी वणित करती है। ८४ की संख्या १. औपपातिक सूत्र, पृ० ८६ । २. मुहस्मृग, पृ० ५४६ । ३. जैसंशो, २, अंक ४, विचार श्रेणी, परिशिष्ट, पृ० १० । ४. तपागच्छ पट्टावली, भाग १, पृ० ७१ ( स्वोपज्ञ वृत्ति-कल्याण विजय ) ५ जैसंशो, खंड २, अंक ४, विचार श्रेणी परिशिष्ट, पृ० ७० । ६. "तस्माच्च क्रमेणानेक गणहेतवोअनेके सूरयो बभूवांस'' तपागच्छ पट्टावली, पृ०७१ । ७. पप्रस, पृ० ९१ एवं ९७ । ८. वही, पृ० १०१ एवं १३४ । Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८४ : मध्यकालीन राजस्थान में जैनधर्म केवल पारम्परिक प्रतीत होती है, क्योंकि मध्यकाल में ही ८४ से कहीं अधिक गच्छों के अस्तित्व में होने के प्रमाण हैं । संख्या वृद्धि का यह प्रयास ११वीं शताब्दी के बाद से शुरू हुआ । ये गच्छ अधिकतर सिरोही, मारवाड़, जैसलमेर और मेवाड़ राज्यों में प्रचलित थे। समय विशेष पर गच्छ का अस्तित्व, अनुयायियों की अच्छी संख्या व गच्छ की लोकप्रियता का द्योतक है। १. खरतरगच्छ-खरतरगच्छ राजस्थान में सर्वाधिक प्रभावशाली, लोकप्रिय और प्रसिद्ध गच्छ रहा । १०१७ ई० में जिनेश्वर सूरि ने दुर्लभ राज सोलंकी के राज दरबार पाटण में चैत्यवासियों को पराजित कर "खरतर" की पदवी प्राप्त की तथा "सुविहित" या "विधि-पक्ष" की स्थापना की। इन्हीं से "खरतर गच्छ” प्रारम्भ हुआ ।' यद्यपि इसकी उत्पत्ति राजस्थान से बाहर हुई, किन्तु राजस्थान में इसके बहुत अनुयायी हुये। __कालक्रम में यह भी कई शाखाओं में विभक्त हो गया ।२ मधुकर खरतर शाखा १११० ई० में जिनवल्लभ सूरि ने, रुद्रपल्लीय खरतर शाखा १११२ ई० में जयशेखर सूरि ने, लघु खरतर शाखा १२७४ ई० में जिनसिंह सूरि ने, वैकट खरतर शाखा १३६५ ई० में जिनेश्वर सूरि ने, पिप्पलक खरतर शाखा १४०४ ई० में जिनवर्धन सूरि ने, आचाबिया खरतर शाखा १५०७ ई० में शान्तिसागर सूरि ने, भावहर्षीय खरतर शाखा १५५५ ई० में भावहर्ष ने, लघु आचार्थिया खरतर शाखा १६२९ ई० में जिनसागर सूरि ने, रंगविजय खरतर शाखा १६४३ ई० में रंगविजय गणी ने और सारीय खरतर शाखा उपाध्याय सूरि ने स्थापित की। आचार्य महेन्द्र कीर्ति ने, १८३५ ई० में खरतरगच्छ की एक उपशाखा मंडोवरा में प्रारम्भ की। इसके अतिरिक्त अभिलेखों में खरतरगच्छ की निम्न शाखायें भी देखने को मिलती हैं—जिनचन्द्र सुरि द्वारा स्थापित साधु शाखा, माणिक्य सूरि शाखा", क्षेमकीर्ति शाखा, जिनरंग सूरि शाखा, खरतरगच्छ का चन्द्रकुल', खरतरगच्छ का नन्दिगण', वर्धमान स्वामी १. इए, ९, पृ० २४८। २. प्राजैलेस, २, “खरतर" सूची। ३. एइ, १, पृ० ११९, बुहलर के अनुसार जिनशेखर सूरि ने ११४७ ई० में स्थापित की। ४. नाजैलेस, ३, क्र० २१९९, भाग १. क्र० १९६-१९७ । ५. वही, क्र० ५२७। ६. वही, क्र० २०६४। ७. वही, भाग १, क्र० २०६ । ८. एइ, २३, क्र० ७७७ । ९. वही, क्र० १८५३ । Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनधर्म भेद और उपभेद : ८५ अन्वय' जिनवर्धन सूरि शाखा, रंग विजय शाखा । इस गच्छ के विभिन्न आचार्यों ने अनेकों मूर्तियों की स्थापना की और विपुल साहित्य सृजित किया। राजस्थान के विभिन्न भागों में इसके उल्लेख के अभिलेख पाये जाते हैं । किन्तु जैसलमेर व पश्चिमी राजस्थान में यह विशेष लोकप्रिय रहा । वर्तमान में बीकानेर व जयपुर में इसकी गादियाँ हैं। इस गच्छ के अभिलेखीय प्रमाण १०९० ई० से उपलब्ध होते हैं । ____२. बृहद् गच्छ-अर्बुद पर्वत पर स्थित तेली गांव में एक वट वृक्ष के नीचे, उद्योतन सूरि ने देवसूरि सहित मुनियों को सूरि पद प्रदान किया। कुछ विद्वानों का अभिमत है कि यह उपाधि केवल सर्वदेव सूरि को ही दी गई थी। चूंकि यह पद वट वृक्ष के नीचे प्रदान किया गया था अतः निर्ग्रन्थ गच्छ को वट गच्छ कहा जाने लगा। चट गच्छ ही कालक्रमेण बृहदगच्छ के रूप में जाना जाने लगा। इस गच्छ के १०४६ ई० के प्रारम्भिक अभिलेख, सिरोही राज्य में कोटरा में उपलब्ध हैं। ११५८ ई० के अभिलेख नाडौल (मारवाड़) में भी पाये गये हैं। सिरोही व मारवाड़ राज्यों में यह विशेष रूप से प्रचलन में था। इस गच्छ का प्राचीनतम अभिलेख ९५४ ई० का, सिरोही में दयाणा चैत्य स्थित कायोत्सर्ग प्रतिमा का है, जिसमें बृहदगच्छ के परमानन्द सूरि के शिष्य यक्षदेव सूरि का उल्लेख है।' ३. उपकेश गच्छ-इस गच्छ की उत्पत्ति राजस्थान में ओसिया या उपकेश नगर से मानी जाती है । इस गच्छ के देवगुप्त सूरि ने सिरोही में लोटाणा तीर्थ में धातुपंचतीथी की प्रतिष्ठा ९५४ ई० में, प्राग्वाट साह सिंहदेव के पुत्र नल द्वारा करवाई थी।१० अतः ९५४ ई० के पूर्व यह उत्पन्न हो गया होगा। ४. संडेरक गच्छ -इस गच्छ की उत्पत्ति मारवाड़ में स्थित संडेरा या संडेरक स्थान से यशोदेव सरि के द्वारा की गई। मुस्लिम आक्रमण के कारण काठियावाड़ से १. भावनगर इंस्क्रि०, ७, पृ० ११२-११३ । २. नाजैलेस, २, क्र० १९९६ । ३. वही, क्र० १००५ । ४. वहो, भाग ३, क्र० २१२४ । ५. श्रभम, ५, २, स्थविरावली, पृ०२। ६. प्रालेस, १, क्र० ३ । ७. नाजैलेस, क्र० ८३३, ८३४ । ८. अप्रजैलेस । ९. श्री प्रलेस, क्र० ३३१ । १०. वही, क्र० ३२१ । Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८६ : मध्यकालीन राजस्थान में जैनधर्म लौटते समय एक तालाब के किनारे साँड व शेर के युद्ध में, सांड को विजयी देखकर, गाँव व गच्छ का नाम संडेरा रखा गया। यह गच्छ राजस्थान के विभिन्न भागों में प्रसारित हुआ। १२वीं शताब्दी में नाडौल में यह अस्तित्व मे था।' इस गच्छ के शान्तिसूरि ने ११४७ ई० में सिरोही राज्य में धराद में पार्श्वनाथ की एक प्रतिमा स्थापित करवाई। ५. मल्लधारी गच्छ-इस गच्छ के प्रीतिसूरि के उल्लेख का महावीर मुछाला (घाणेराव) में ११५७ ई० का लेख उपलब्ध है। ६. ब्रह्माण गच्छ—यह गच्छ सिरोही राज्य में ब्रह्माणक (वरमाण तीर्थ) से उत्पन्न हुआ। इस गच्छ के प्रद्युम्न सूरि का ११६० ई० का धराद में और ११८५ ई० का सिरोही के वरमाण तीर्थ में उल्लेख प्राप्त है। इसी गच्छ का उल्लेख ११६६ ई० के सिरोही के अजितनाथ मन्दिर के एक प्रतिमा लेख में भी है। ७. निवृत्ति गच्छ-निवृत्ति कुल एवं शेखर सूरि के उल्लेख का १०७३ ई० का लेख लोटाणा तीर्थ से प्राप्त होता है । ८. बृहत्तपा गच्छ-इस गच्छ के हेमचन्द्राचार्य का उल्लेख, ११६३ ई० के सिरोही राज्य में धराद के एक प्रतिमा लेख में प्राप्त होता है। इस गच्छ को तपागच्छ की एक शाखा माना जाता है। किन्तु तपागच्छ के १२२८ ई० में उत्पन्न होने से पूर्व भी यह अस्तित्व में था। सम्भवतः मध्यकाल में इस गच्छ के आचार्य तपागच्छ में सम्मिलित हो गये । इस गच्छ का नाम “वृद्धतपा" भी देखने को मिलता है । ९. वायट गच्छ :-इस गच्छ का उत्पत्ति स्थल अज्ञात है । सिरोही में अजितनाथ मन्दिर में १०७८ ई० के प्रतिमा लेख में इस गच्छ का उल्लेख है।' १०. पारा गच्छ :-इस गच्छ की उत्पत्ति मालवा में धारा नगरी में हुई माना १. प्रालेस, क्र० ५ एवं २३ । २. श्री जैप्रलेस, क्र० १७३ । ३. वही, क्र० ३२४ । ४. वही, क्र० २०० । ५. वही, क्र० ३२८ । ६. प्रलेस, क्र० ३२ । ७. श्री जैप्रलेस, क्र० ३१८ । ८. वही, क्र० ८५ । ९. प्रलेस, क्र० ७ । Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनधर्म भेद और उपभेद : ८७ जाना चाहिये। सिरोही के अजितनाथ मन्दिर में ११७७ ई० की इस गच्छ के उल्लेख की प्रतिमा है। ११. चन्द्र गच्छ--चन्द्र कुल से काल क्रम में उत्पन्न इस गच्छ के लेख ११८२ ई० के जालौर से' व ११२५ ई० के सिरोही से प्राप्त होते हैं। १२. यश सूरि गच्छ-इस गच्छ की उत्पत्ति आचार्य यश सूरि से हुई। अजमेर से प्राप्त ११८५ ई० के लेख में इसका उल्लेख है। १३. भावदेवाचार्य गच्छ-भावदेवाचार्य के नाम से इस गच्छ का प्रारम्भ हुआ। सेलाना के मुनि सुव्रत मन्दिर में ११५७ ई० के मूर्ति लेख में इस गच्छ का उल्लेख है।" १४. भावहर्ष गच्छ-मुनि भावहर्ष से इस गच्छ की उत्पत्ति हुई। बालोतरा से प्राप्त ९५२ ई० के प्रतिमा लेख में इस गच्छ का नामोल्लेख है।६ १५. धनेश्वर गच्छ-धनेश्वर सूरि के नाम पर इस गच्छ की उत्पत्ति की गई होगी। घटियाला से प्राप्त ८६१ ई० के अभिलेख में इस गच्छ का उल्लेख है। १६. काम्यक गच्छ-श्रीपथ ( बयाना) से प्राप्त १०४३ ई० के लेख में इस गच्छ का नामोल्लेख है। इस गच्छ की उत्पत्ति वर्तमान कामा से हुई। १७. ओसवाल गच्छ-ओसवाल जाति से सम्बन्धित इस गच्छ का उल्लेख १०४३ ई० के प्रतिमा लेख में मिलता है। १८. ब्राह्मी गच्छ-इस गच्छ का उत्पत्ति स्थान व कारण अज्ञात है। पाली से प्राप्त १०८७ ई० के अभिलेख में इस गच्छ का नाम उपलब्ध है। १९. देवाभिदित गच्छ-देलवाड़ा ( मेवाड़ ) से प्राप्त ११४४ ई० के लेख में इस गच्छ का नामोल्लेख है ।११ १. प्रलेस, क्र० ३६ । २. नाजैलेस, क्र० ८९९ । ३. अप्रजेलेस । ४. जैसेस्कू, पृ० ५९ ॥ ५. प्रलेस, क्र० २४ । ६. नाजैलेस, १, क्र० ७३६ । ७. वही, क्र० ९४५ । ८. जेसेस्कू, पृ० ५३ । ९. प्राजैलेस, २, क्र० ३१६ । १०. एइ, १, पृ० ११९, ३१९-२४ । ११. नाजलेस, २, क्र० १९९८ । Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८८ : मध्यकालीन राजस्थान में जैनधर्म २०. पिशपालाचार्य गच्छ-इसी नाम के आचार्य से इस गच्छ की उत्पत्ति हुई। सिरोही राज्य से प्राप्त ११५१ ई० के प्रतिमा लेख में इस गच्छ का उल्लेख मिलता २१. आम्रदेवाचार्य गच्छ-निवृत्ति कुल के आम्रदेवाचार्य से सम्बन्धित यह गच्छ सिरोही के अजारी और लोटाणा में ११वीं शताब्दी में प्रचलन में था । २२. भरतरिपुरा गच्छ-मेवाड़ के भटेवर स्थान से यह गच्छ १०वीं शताब्दी में राजा अल्लट के पिता भरतरिभट्ट के द्वारा उत्पन्न किया गया । २३. जलयोधर गच्छ-यह गच्छ जोरोद्र नामक गाँव से उत्पन्न हुआ। सिरोही राज्य के अजारी तीर्थ से प्राप्त ११५६ ई० के प्रतिमालेख में इस गच्छ का नाम है। २४. वातपीय गच्छ-जैसलमेर क्षेत्र में खोजे गये ११०५ ई० के अभिलेख में इस गच्छ का नामोल्लेख है। २५. आरासणा गच्छ-थारापद्र गच्छ के आचार्य यशोदेव सरि (११२७ ई०) से आरासणा गच्छ का प्रारम्भ किया गया प्रतीत होता है। आरासणा स्थान का आधुनिक नाम कुंभेरिया है । इस गच्छ के आचार्य देवचन्द्र सूरि ने दिलवाड़ा, विमल वसहि मंदिर की बहुत-सी मूर्तियों की प्रतिष्ठा करवाई थी। २६. कासहृद गच्छ—यह विद्याधर गच्छ का उपगच्छ है और सिरोही राज्य के कासिन्द्रा गाँव से उत्पन्न हुआ। इस गाँव के जैन मन्दिर से प्राप्त १०३४ ई० के अभिलेख में इसका उल्लेख है। (ख) दिगंबर सम्प्रदाय में भेद-प्रभेद (ख-१) प्रवर्तमान संघ : दिगम्बर परम्परा में अनेक संघों, गणों एवं शाखाओं के उत्पन्न होने का उल्लेख मिलता है । परम्परानुसार, आचार्य अर्हबलि तक मूल संघ अविच्छिन्न रूप से चलता रहा । ६६ ई० में अर्हद्बलि ने मूल संघ को कई संघों, जैसे नंदी संघ, वीर संघ, अपराजित संघ, पंचसूप संघ, सेन संघ, भद्रसंघ, गुणधर संघ, गुप्त संघ, सिंह संघ, १. अप्रजैलेस, जैइरा, पृ० ६२ ।। २. अप्रजलेस, क्र० ३९६, ४७०, ४७१, ४७२, ४७३ । ३. वही, क्र० ४०८। ४. जैइरा, पृ० ६८। ५. असाव, पृ० २२५ । ६. अप्रजलेस, असावं, पृ० २२६ । Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनधर्म भेद और उपभेद : ८९ चन्द्र संघ इत्यादि में विभाजित कर दिया। पश्चातवर्ती काल में कतिपय संघों में शिथिलाचार आने से उनकी गणना जैनाभासों में की जाने लगी। दिगम्बर परम्परा के अनुसार मूल संघ से ही अन्य सभी संघों की उत्पत्ति मानी गई है। अतः मूल संघ को भिन्न न मानकर सामान्य दिगम्बर संघ ही बताया गया है। बाद में कई नये संघ भी प्रकट हुये व दिगम्बर परम्परा में भी शाखाओं और कुलों का काफी विस्तार हुआ । "जैनेन्द्र सिद्धान्त कोष" के अनुसार दिगम्बर परम्परा के शास्त्रीय उल्लेखों के आधार पर अनेक संघ गवेषणा हेतु स्वीकार किये गये हैं-अनन्त कीर्ति संघ, अपराजित संघ, काष्ठा संघ, गुणधर संघ, गुप्त संघ, गोपुच्छ संघ, गोप्य संघ, चन्द्र संघ, द्राविड़ संघ, नंदि संघ, नंदितट संघ, निष्पिच्छिक संघ, पंचस्तूप संघ, पुन्नाट संघ, बागड़ संघ, भद्र संघ, भिल्लक संघ, माघनंदि संघ, माथुर संघ, यापनीय संघ, लाडवागड़ संघ, वीर संघ और सेन संघ । राजस्थान में पूर्ववर्ती काल में आचार्यों के नाम संघों से सम्बद्ध नहीं किये जाते थे। जहाँ कहीं भी आचार्यों के संदर्भ हैं, वहाँ बिना किसी संघ और गण के उल्लेख के केवल उनका नाम वर्णित किया गया है । राजस्थान के विभिन्न स्थानों से प्राप्त अभिलेखों से पूर्व मध्यकाल की यह प्रवृत्ति स्पष्ट है। किशनगढ़ से डेढ़ मील दक्षिण में रूपनगर में ३ जैन स्मारक हैं । ९६१ ई० के स्तम्भ लेख में उल्लेख है कि यह मेघसेनाचार्य की निषेधिका है, जो उनकी मृत्यु के पश्चात् उनके शिष्य विमलसेन ने निर्मित करवाई थी । दूसरे स्तम्भ लेख से पद्मसेनाचार्य के १०१९ ई० में दिवंगत होने और चित्रनन्दी द्वारा इस स्तम्भ को निर्मित करवाने का उल्लेख है। झालरापाटन में भी १००९ ई० का नेमिदेवाचार्य और बलदेवाचार्य का स्मारक है।४ अलवर राज्य में नौगावाँ के दिगम्बर जैन मन्दिर में अनन्तनाथ की खड्गासन प्रतिमा के अभिलेख से ज्ञात होता है कि यह १११८ ई० में विजयकीर्ति के शिष्य नरेन्द्रकीर्ति द्वारा स्थापित की गई थी।" इसी मन्दिर में शान्तिनाथ प्रतिमा के ११३८ ई० के लेख में वर्णित है कि पं० गुणचन्द्र ने आचार्य गुप्तनन्दो के लिये यह प्रतिमा बनवाई थी। इसी प्रकार जयपुर से ३ मील दूर, पुराना घाट के बालाजी के मन्दिर के निकट, मूल रूप से जैन मन्दिर प्रतीत होने वाले, किन्तु वर्तमान में शिव मन्दिर के दरवाजे के ऊपरी हिस्से में उत्कीर्ण लेख से ज्ञात होता है कि यह ११६० ई० का है और इसमें आचार्य वेज्रक व उनके शिष्य १. धवला, भाग १, प्रकरण १४ । २. जैनधर्म का मौलिक इतिहास, २, पृ० ६१४ । ३. प्रोरिआसवेस, १९१०-११, पृ० ४३ । ४. एरिराम्यूअ, १९१२-१३ । ५. वही, १९१९-२०, क्र० ३ । ६. वही, १९१९-२०, क्र० ४ । Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९० : मध्यकालीन राजस्थान में जैनधर्म चतरसेन और धर्मभाई अम्बरसेन का उल्लेख है ।' उक्त उदाहरणों से स्पष्ट होता है कि पूर्वकाल में आचार्य किसी संघ से सम्बद्ध नहीं थे । दिगम्बर सम्प्रदाय के सभी संघ राजस्थान से बाहर मुख्यतः दक्षिण में स्थापित हुए थे और वहीं प्रचलन में थे। उत्तरी भारत में ये बाद में प्रकट हुए। सम्भवतः शैवों के त्रास के कारण दिगम्बर संत दक्षिण से गजरात और राजस्थान की तरफ प्रवासित हुए, जहाँ उन्होंने संघों की गादियाँ स्थापित की। यह भी सम्भव है कि उत्तर के दिगम्बर मतावलम्बियों ने दक्षिण के संघों की नकल की हो। राजस्थान में पूर्व मध्यकाल में निम्नलिखित संघों, अन्वयों, गच्छों, गणों आदि का उल्लेख अभिलेखीय व साहित्यिक प्रमाणों से उपलब्ध होता है । १२वीं शताब्दी के अभिलेखों में इनका उल्लेख होने से सिद्ध होता है कि इसी शताब्दी में राजस्थान में संघों का प्रचार हुआ। राजस्थान से प्राप्त अभिलेखों में संघ, गण, गच्छ, अन्वय और आचार्य का नाम, इस क्रम में अधिकांश देखने को मिलते हैं। १. मूलसंघ-यह दिगम्बर सम्प्रदाय का प्राचीनतम संघ है। ११०० ई० के अभिलेख के अनुसार यह कुन्दकुन्द के द्वारा स्थापित किया गया। किन्तु यह लेख पश्चात्वर्ती होने के कारण अधिक विश्वसनीय नहीं है । पट्टावलियों से प्राप्त जानकारी के अनुसार आचार्य माघनन्दी ने इस संघ की स्थापना की थी। चौथी और पाँचवी शताब्दी के अभिलेखों के अध्ययन से, मूल संघ की स्थापना ईसा की दूसरी शताब्दी में श्वेताम्बर व दिगम्बर सम्प्रदायों के अस्तित्व में आने के समय हुई।" मूल संघ में निम्न उपभेद पाये जाते हैंआम्नाय-- १. चन्द्रकीर्ति आम्नाय २. दिगम्बर आम्नाय ३. काकोपल आम्नाय ४. कुन्दकुन्दादि आम्नाय ५. नन्दि आम्नाय० ६. सद आम्नाय१ १. एरिराम्यूअ, १९२०-२१, क्र० ३ । २. भादिजैती, ४, पृ० १२२ । ३. जैशिस, १, क्र० ५५ । ४. इए, २०, पृ० ३४१ । ५. जैइरा, पृ० ६९ । ६. नाजैलेस, २, क्र० ११३२ । ७. जैसिभा, १४, अंक २, पृ० ५६-६१ । ८. इए, ७, पृ० २०९। ९. जैसिभा, १४, अंक २, पृ० ५६-६१ । १०. वही। ११. नाजैलस, १, क्र० ३२५ । Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अन्वय बलि गच्छ १. चन्द्रकवात अन्वय ' ३. द्रविड़ अन्वय ५. खण्डेलवाल अन्वय" ७ ७. नन्दि संघ अन्वय ९. पुस्तक अन्वय ११. तालकोल अन्वय १. हंसोजी या पंसोजी बलि' .११ .१३ ३. वाणद बलि १. चित्रकूट गच्छ ३. होतजी गच्छ १८ .२० ५. पराब गच्छ ७. पोगरी गच्छ२२ -१६ ५. वही, क्र० ३८८ । ६. जैसिभा, ७, अंक १, पृ० १३ । ७. एइ, १५, पृ० ३४५ । ८. गुर्नाट, पृ० १९३; जैसेस्कू, पृ० १२६ | ९. वही, पृ० १२६ । जैनधर्मं भेद और उपभेद : ९१ २. चित्रकूट अन्वय २ ४. जैसवाल अन्वय ४ ६. कुन्दकुन्द अन्वय ८. पाषाण अन्वय १०. सेन अन्वय १० १२. बघेरवाल अन्वय १२ २. इंग्यूलेश्वर बलि १४ १. एइ, १६, पृ० ५३ । २. इए, ९, पृ० ६५-६६ । ३. एप्रिग्राफिका कर्नाटका, ६, क्र० १८; जैसेस्कू, पृ० १२६ | ४. नाजैलेस, १, क्र० ४७२ । २. होजरी गच्छ १७ ४. मेष पाषाण गच्छ . १९ ६. पारिजात गच्छ २१ R3 ८. पुष्कर गच्छ १०. एइ, १३, पृ० १९० । ११. एपिग्राफिका कर्नाटका, ७, पृ० १३६; जैसेस्कू, पृ० १२७ | १२. नाजैलेस, २, क्र० १५९४ । १३. जबाबाराएसो, १०, पृ० १७३ - १७५ । १४. एपिग्राफिका कर्नाटका, ३, पृ० ६३, ३२, १२३ आदि; जैसेस्कू, पृ० १२७ ॥ १५. वही, पृ० ५१ । १६. जैसेस्कू, पृ० १२७ । १७. नायक, ए० वी०, आर्कियोलोजी ऑफ द डेकन, पृ० ४१२ | १८. एपिग्राफिका कर्नाटका, ४, २६, जैसेस्कू, पृ० १२७ । १९. वही, ५ । २०. वही, ११, १३ । २२. इए, १९, ० २६८ । २१. गुर्नाट, भूमिका, पृ० ४४ । २३. जेए, १३, अंक २, पृ० १९-७ । Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "९२ : मध्यकालीन राजस्थान में जैनधर्म -गण ९. पुस्तक गच्छ' १०. सरस्वती गच्छर ११. सेन गच्छ १२. तगरी जल गच्छ १३. तिन्त्रिणिका गच्छ" १४. वाक गच्छ १५. वक्र गच्छ १. देशी या देशीय गण २. देव गण ३. द्रविड़ गण ४. कालोन गण१ ५. काणूर गण१२ ६. नन्दि गण ७. पंकुर गण१४ ८. पोगरिया गण१५ ९. सुरस्त गण। १०. उदार गण१७ ११. वरसेन या वीरसेन गण कुल कृह कुल१९ समदाय- श्री समुदाय२० वंश- १. चन्द्रिका वट वंश२१ २. नन्न वंश२२ १. एइ, ६, पृ० २६ । २. इए, २०, पृ० ३४१; नाजैलेस, १, क्र० ५०५, ५५१, ५९०, ६९६ आदि । ३. गुर्नाट पृ० ५३८; जैसेस्कू, पृ० १२७ । ४. एपि० कर्नाटका, ५, पृ० ९९ । ५. एइ, २०, पृ० ९५ ।। ६. जैसिभा, १४, अंक १, पृ० २६ । ७. एपि० कर्नाटका, २, ६९ । .८. वही, ४,१५० । ९. एइ, ६, पृ० ८१ । १०. एपि० कर्नाटका, ६,१८; जैसेस्कू, पृ० १२७ । ११. वही, ४,१४८, १६१ । १२. जैसेस्कू, पृ० १२८ । १३. वही। १४. जैसिभा, ७, अंक १, पृ० १६ । १५. एइ, १०, पृ० ६९ । १६, जैसेस्कू, पृ० १२८ । १७. वही। १८. एइ, १७, पृ० १२१ । १९, वही, १३, पृ० १६६ । २०. जैसेस्कू, पृ० १२८ । २१, वही। २२. वही। Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनधर्म भेद और उपभेद : ९३ राजस्थान में उक्त सभी भेद प्रचलन में नहीं थे । मूल संघ के अस्तित्व का राज - स्थान में प्रथम अभिलेख ११वीं शताब्दी का मिलता है, किन्तु इससे पूर्व भी यह अस्तित्व में था । बाद में यह "सरस्वती" शब्द द्वारा पृथक् से जाना जाने लगा, जो संभवतः १४वीं शताब्दी में हुआ होगा, जबकि पद्मनन्दी ने सरस्वती की प्रस्तर प्रतिमा को बुलवाने का चमत्कार दिखाया था । 2 बेंतेड़ में विमलनाथ मन्दिर की पार्श्वनाथ एकतीर्थी पर अंकित ११७७ ई० के लेख में मूल संघ का उल्लेख है । 3 अजमेर म्यूजियम में रखी सरस्वती मूर्ति के ११९७ ई० के लेख में भी केवल मूल संघ का उल्लेख है २. माथुर संघ : - इसे काष्ठा संघ का माथुर गच्छ भी बताया जाता है । " किन्तु राजस्थान से प्राप्त कुछ अभिलेखों में '' माथुर संघ" का उल्लेख है । संभवतः पश्चात् - वर्ती काल में यह संघ काष्ठा संघ में मिलकर उसका एक अन्वय या गच्छ बन गया । "दर्शन - सार" के अनुसार माथुर संघ एक धर्मं विरोधी संघ था, जो काष्ठा संघ की स्थापना के २०० वर्ष बाद, ८९६ ई० में अस्तित्व में आया । यह संघ आचार्य रामसेन के द्वारा स्थापित किया गया था। इस संघ का नामकरण " मथुरा" नगर के नाम पर हुआ । ७ के० सी ० जैन ने इसे मदुरा ( दक्षिण ) से उत्पन्न बताया है, जो सही प्रतीत नहीं होता ।" इस संघ की मान्यतानुसार पिच्छी रखना आवश्यक नहीं होता । I राजस्थान में ११वी व १२वीं शताब्दियों में माथुर संघ दिगम्बर सम्प्रदाय में बहुत लोकप्रिय था । इस काल में इस संघ के आचार्यों द्वारा विभिन्न स्थानों पर मूर्तियाँ स्थापित करवाई गईं । बघेरा के जैन मन्दिर में ब्रह्माणी की प्रस्तर प्रतिमा के ११५८ ई० के लेख में माथुर संघ के पण्डित महासेन का उल्लेख है । वर्तमान में सांगानेर में सिन्धी जी के मन्दिर में प्रतिष्ठित एक श्वेत प्रस्तर प्रतिमा के ११६७ ई० के लेख में इस संघ के यशकीर्ति का नामोल्लेख है । इसी प्रकार ११७५ ई० की माथुर संघ के उल्लेख १. जैशिस, क्र० २०८ । २. जबाबा राएसो, सं० ४४, भाग, १७, पृ० १६३ एवं पीटरसन रिपोर्ट १८८३-८४ ३. प्रलेस, क्र० ३७ । ४. वही, क्र० ४५ । ५. जैसेस्कू, पृ० ११२; नाजैलेस, १, क्र० १४५, ३२६-३२७, ३३६ । ६. दर्शनसार, पृ० १७ । ७. जैसस्कू, पृ० ११२ । ८. जैइरा, पृ० ७० । ९. एरिराम्यूअ, १९१९-२०, क्र० ४ । १०. वीरवाणी, ५, पृ० ४१ । Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९४ : मध्यकालीन राजस्थान में जैनधर्म की श्वेत संगमरमर की पद्मप्रभु की प्रतिमा वर्तमान में मारोठ में है ।' ११७५ ई० में हेत्या और उसके पुत्र विल्हण ने मारोठ में एक प्रतिमा इस संघ के यशकीर्ति द्वारा ही प्रतिष्ठित करवाई।२ ११७० ई० के बिजौलिया शिलालेख के लेखक माथुर संघ के गुणभद्र थे । उदयपुर के निकट रूपाहेली के जैन मन्दिर में ११७६ ई० के चौकोर जैन स्तम्भ पर उत्कीर्ण अभिलेख से ज्ञात होता है कि यह स्तम्भ माथुर संघ के एक आचार्य की अजिका की शिष्या पद्मश्री के द्वारा निर्मित करवाया गया था। अजमेर म्यूजियम में रखी पार्श्वनाथ प्रतिमा के ११७४ ई० के लेख में माथुर संघ का उल्लेख है ।" इसी प्रकार यहीं रखी एक सरस्वती मूर्ति के ११७९ ई० के लेख में माथुर संघ के आचार्य चारुकीति का उल्लेख है।६ ३. लाडोवागड़ संघ :-अजमेर म्यूजियम में रखी हुई एक प्रतिमा के ११७९ ई० के अभिलेख में इस संघ का नामोल्लेख है । यह संघ सम्भवतः दक्षिणी राजस्थान में वागड़ प्रदेश से सम्बन्धित था। मध्यकाल में यह संघ काष्ठा संघ में विलीन होकर उसका एक गच्छ बन गया। (२) मध्यकाल : ( क ) श्वेताम्बर सम्प्रदाय में भेद-प्रभेद : (क-१ ) प्रवर्तमान गच्छ : १३वीं से १६वीं शताब्दी तक राजस्थान में निम्नलिखित गच्छों का अस्तित्व देखने को मिलता है। १. अंचल गच्छ-इसका पूर्वनाम विधि पक्ष था जिसका उद्देश्य शुद्ध एवं शास्त्रोक्त सिद्धान्तों का पालन करना था। एक बार कोती नामक व्यापारी ने पाटण में प्रतिक्रमण के समय मुँहपत्ती के स्थान पर अपने ही वस्त्र ( अंचल ) का प्रयोग किया । कुमारपाल ने अपने गुरु विजयचन्द से इसका कारण पूछा। गुरु ने उसे नये विधि पक्ष के बारे में १. संवत् १२३२ फाल्गुन सुदी १० माथुर संघे पण्डिताचार्य श्री यशकीर्ति भक्त श्रेष्ठी मनोरथ सुत कुलचन्द्र लक्ष्मीय श्रीयसे करितेय । २. संवत् १२३२ फाल्गुन सुदी १० माथुर संघे पण्डिताचार्य श्री यशकीर्ति भवतेन साह हेत्याकेन पुत्र वील्हण हुतेन श्रेय संकारितेय । ३. एइ, २४, पृ० ८४ ।। ४. एरिराम्युअ, १९२५-२६, क्र० ३ । ५. प्रलेस, ३४ । ६. वही, ३८। ७. वही, ३९। Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनधर्म भेद और उपभेद : ९५ समझाया, तभी से कुमारपाल भी अपने आँचल का प्रयोग प्रणाम करते समय करने लगा !' यह गच्छ ११५६ ई० में राजस्थान के बाहर प्रारम्भ हुआ, किन्तु मध्यकाल में राजस्थान में जैसलमेर व सिरोही राज्यों में बहुत प्रचलन में रहा। राजस्थान में इसका सर्वप्रथम उल्लेख १२०६ ई० में धर्मघोष सूरि द्वारा प्रतिष्ठित जीराउला तीर्थ की एक प्रतिमा पर मिलता है ।२ १३९२ ई० से १४९५ ई० तक के २१ प्रतिमा लेख, अंचल गच्छ के विविध आचार्यों के उल्लेख सहित सिरोही के विविध स्थानों से प्राप्त हुये हैं। इसी प्रकार ३४ अन्य प्रतिमा लेख राजस्थान के विविध भागों से विभिन्न मन्दिरों से १३७६ ई० से १५९७ ई. तक के भी उपलब्ध हैं। २. आगमगच्छ या आगमिक गच्छ-पूणिमिया गच्छ के शीलगुण सूरि और देवभद्र सूरि ने आँचलगच्छ की सदस्यता ग्रहण कर ली। किन्तु कुछ ही समय में इसे भी छोड़कर उन्होंने नया गच्छ निर्मित कर लिया। इनके अनुसार क्षेत्रपाल की पूजा नहीं की जानी चाहिये । इन्होंने कुछ नये सिद्धान्त भी प्रतिपादित किये और अपने पंथ को आगमिक गच्छ नाम दिया ।" यह गच्छ ११५७ ई० या ११९३ ई० में उत्पन्न हुआ, किन्तु राजस्थान में यह १४वीं शताब्दो से अस्तित्व में आया प्रमाणित होता है। यह सिरोही, मारवाड़, ओसिया, जैसलमेर, अजमेर, जयपुर, नागौर और बाड़मेर क्षेत्रों में प्रचलन में था। इस गच्छ का सर्वप्रथम नामोल्लेख १३६४ ई० के जीराउला तीर्थ के प्रतिमा लेख में उत्कीर्ण मिलता है । इस गच्छ के उल्लेख के १४१४ ई० से १५२४ ई० तक के ११ अन्य अभिलेख भी विविध क्षेत्रों से प्राप्त हैं। ३. तपागच्छ :--जगचन्द्र सूरि महान् विद्वान् व तपस्वी मुनि थे। उन्होंने अपने जीवनकाल में १२ वर्ष तक आयम्बिल साधना मृत्यु पर्यन्त की और इस प्रकार १२ वर्ष गुजारे । उनकी कठोर साधना को देखकर १२२८ ई० में मेवाड़ के राजा जैत्रसिंह ने उन्हें “तपा" ( वास्तविक संन्यासी) की उपाधि दो। तभी से निर्ग्रन्थ गच्छ को १. श्रभम, ५, खण्ड २, स्थविरावली, पृ० ६५ । २. श्रीजैप्रलेस, क्र० ३०८। ३. वही, क्र ० ३४७, २९४, २९५, ३०१, २७७, २३७, १६, २०९, ६४, २५४, १९५, २६३, २७२, २३९, २६, १४६, ३६१, ६३ आदि । ४. प्रलेस, परिशिष्ट २, पृ० २२२ । ५. श्रभम, ५, खण्ड २, पृ० ६६ । ६. श्री जैप्रलेस, क्र० ३०४ अ । ७. वही, क्र ० ७५, १,८२, २४७; प्रलेस , क्र० २१५, ४२०, ५३१, ५७२, ६३९, ७४५, ८८७। Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९६ : मध्यकालीन राजस्थान में जैनधर्म "तपा" नाम मिला।' कर्नल माइल्स ने तपागच्छ की निम्न शाखायें बताई हैं ।विजय देव सूरि तपा शाखा १६७५ ई० में, विजयराज सूरि तपा शाखा १५३४ ई० में, कमलकलश तपा शाखा १५३४ ई० में, वृहतपोसाल तपा शाखा १५२६ ई० में, लघु पोसाल तपा शाखा १५२६ ई० में, सागरगच्छ तपा शाखा १५५७ ई० में, कुतुबपुरागच्छ तपा शाखा, विजयानन्द सूरि तपा शाखा १६०० ई० में, विजयरत्न सूरि तपा शाखा, आगमीय तपा शाखा १३०० ई० में, ब्राह्मी तपा शाखा तथा नागौरी तपा शाखा १५७६ ई० में अस्तित्व में आईं। इनके अतिरिक्त अभिलेखों में निम्न शाखाओं का और उल्लेख है-वृद्ध तपा शाखा, विजय तपा शाखा", चन्द्रकुल तपा शाखा', कुतुबुपुरा तपा शाखा, संविघ्न तपा शाखा ।' राजस्थान में यह गच्छ मुख्यतः सिरोही', मेवाड़ और जैसलमेर, में अधिक प्रभावशाली रहा । इस गच्छ के आचार्यों द्वारा स्थापित मूर्तियाँ राजस्थान के विभिन्न भागों में पाई जाती है। मध्यकाल में १३५६ ई० से १६०० ई० तक की, तपागच्छ के आचार्यों द्वारा प्रतिष्ठित १५८ प्रतिमाओं के लेख राजस्थान के विभिन्न मन्दिरों से प्राप्त हैं।१। ४. पूर्णिमिया गच्छ या पूर्णिमा गच्छ या सारधा पूर्णिमिया गच्छ :-इस गच्छ की उत्पत्ति पूर्णिमा के दिन होने से ऐसा नाम हुआ। सारधा पूर्णिमिया गच्छ ११७९ ई० में प्रारम्भ हुआ१२ । एक अन्य मत के अनुसार इसकी उत्पत्ति ११०२ ई०१3 में हुई । कुमारपाल ने हेमचन्द्र मुनि के द्वारा पूणिमिया गच्छ के आचार्य को बुलवाकर उनके शास्त्र-सम्मत आचरण के बारे में प्रश्न किया। संतोषप्रद उत्तर न मिलने पर इस गच्छ १. नाजैलेस, क्र० ११९४ । २. जैसेस्कू, पृ० ६० । ३. इए, २३, पृ० १७९ । ४. नाजैलेस, २, क्र० १७५३ । ५. वही, भाग १, क्र० ६३ । ६. इए, १९, पृ० २३४ ।। ७. नाजैलेस, १, क्र० ८४९ एवं ८५१ । ८. वही, क्र० १७९९ । ९. अप्रजैलेस। १०. नाजैलेस, भाग १, २-३ एवं प्रलेस । ११. प्रलेस, परिशिष्ट २, पृ० २२४-२२५ । १२. जैइरा, पृ० ५९ । । १३. श्रभम, ५, खंड २, पृ० २३ । Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनधर्म भेद और उपभेद : ९७ के साधुओं को देश निकाला दे दिया गया। कुमारपाल की मृत्यु के उपरान्त आचार्य सुमति सिंह पाटन आये। उन्होंने अपने आपको सारधा पूणिमिया गच्छ से संबंधित बताया। इस गच्छ के अनुयायी फलों से पूजन नहीं करते हैं। राजस्थान से बाहर उत्पन्न होने पर भी यहाँ इस गच्छ के अनुयायी थे । मध्यकाल में यह सिरोही, मारवाड़, जैसलमेर, जोधपुर, नागौर, अजमेर और उदयपुर क्षेत्रों में प्रचलित रहा । इस गच्छ में ३ शाखाएं निर्मित हुई3-प्रधान शाखा, भीमपल्लीय शाखा और साधु शाखा । सिरोही क्षेत्र से इस गच्छ के उल्लेख के ४३ प्रतिमा लेख देखने को मिले हैं, जो १३४७ ई० से १५६७ ई० तक के हैं । ५. पूर्णिमा पक्षीय--पूर्णिमा गच्छ से ही यह शाखा सम्भवतः संबद्ध रही होगी। इस गच्छ का उल्लेख १३२९ ई० से १५४७ ई० तक राजस्थान के विभिन्न जैन मंदिरों से प्राप्त २८ मूर्ति लेखों में मिलता है। ६. पूर्णिमापक्षे भीम पल्लीय गच्छ-पूर्णिमा गच्छ की भीमपल्लीय शाखा का उल्लेख १४५६ ई०९, व १५१९ ई०१० के लेखों में द्रष्टव्य है। ७. पूर्णिमापक्षे कच्छोलीवाल-पूर्णिमा गच्छ की इस शाखा का उल्लेख १४५६ ई०११, १४७४ ई०१२, १४६८ ई०१३ और १४७० ई०१४ के ही एक अन्य प्रतिमा लेख में देखा जा सकता है। १. श्रभम, ५, खण्ड २, पृ० ६५ । २. नाजैलेस भाग १, २, ३ एवं अप्रजैलेस । ३. जैसेस्कू, पृ० ५६ । ४. नाजैलेस, ३, क्र० २२९४, २४८४ । ५. वही, क्र० २३०९, २३४२ । ६. वही, क्र० २४६९, २४५७ । ७. श्री जैप्रलेस, क्र० १७८, ७०, २७३, ५४, १३९, ३६०, ११९, २२१, १८, ९४, १२१, ३५६, ३६३, २८, २, ३६८, ५६, २६२, ३२, १४०, १४१, ९३, ७१, ८, २६१, ७९, १६८, ११, ९५, १२६, २१७, १६६, २०७, ३१, २४६, १०१, २९, २०७, २६७, ५३, ३६२, २२६ । ८. प्रलेस, परि० २, पृ० २२६ । ९. प्रलेस, क्र० ५२१ । १०. वही, क्र० ९६२ । ११. वही, क्र० ५२३ । १२. वही, क्र० ६५७ ॥ १३. वही, क्र० ८४ । १४. वही, क्र० ६८५ । Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९८ : मध्यकालीन राजस्थान में जैनधर्म ८. पूर्णिमा पक्षे वटपद्रीय-पूर्णिमा गच्छ से संबंधित रही इस शाखा का उल्लेख १४६६ ई० की सांगानेर के महावीर मंदिर को मूर्ति के लेख में मिलता है।' ९. उपकेश गच्छ-उपकेश नगर ( ओसिया ) से उत्पन्न इस गच्छ का नामोल्लेख १२८७ ई० से १५३५ ई० तक की ५८ प्रतिमाओं के लेखों में देखने को मिलता है। १०. कृष्णषि गच्छ--इस गच्छ का उल्लेख १४१६ ई०, १४४४ ई०, १४६७ ई० और १४७७ ई० के मूर्ति लेखों में उपलब्ध है। इसके अतिरिक्त सिरोही क्षेत्र में १४२६ ई० की २ मूर्तियों में भी इसका उल्लेख द्रष्टव्य है।४ ११. कृष्णषि तपा गक्ष-तपागच्छ की इस शाखा का उल्लेख १४२६ ईस्वी, १४५० ईस्वी, १४६८ ईस्वी, १४७३ ईस्वी और १४७७ ईस्वी के प्रतिमा लेखों में देखने को मिलता है।" १२. कोमल गच्छ ---इस गच्छ का नाम देरासर के जड़ाऊ पाश्वनाथ मन्दिर की अजितनाथ पंचतीर्थी के १४७७ ई० के लेख में उपलब्ध होता है। १३. खडायथ गच्छ-सिरोही आदिनाथ मन्दिर के चतुर्विंशति पट्ट के १२३६ ई० के अभिलेख में इस गच्छ का उल्लेख है। १४. खरतर गच्छ-मध्यकाल में यह गच्छ राजस्थान का सर्वाधिक लोकप्रिय गच्छ था । मध्यकाल में इस गच्छ के आचार्यों द्वारा अनेक प्रतिमाएं स्थापित करवाई गईं । राजस्थान के विभिन्न क्षेत्रों के १२५१ ई० से १५९९ ई० तक के १५२ प्रतिमालेखों में इस गच्छ के आचार्यों व श्रावकों का नामोल्लेख देखने को मिलता है। १५. खरतर मधुकर गच्छ—यह खरतर गच्छ की एक शाखा थी। मेड़ता के धर्मनाथ मन्दिर को शीतलनाथ पंचतीर्थी पर अंकित १४९०ई० के लेख में इस गच्छ का उल्लेख है। १६. कोरंट गच्छ-इस गच्छ की उत्पत्ति राजस्थान के प्राचीन नगर व जैन १. प्रलेस, क्र० ६२६ । २. वही, परि० २, पृ० २२२ । ३. वही, क्र० २११, ३५१, ६४८, ७८२ । ४. श्री जैप्रलेस, क्र. २८८, २९१ । ५. प्रलेस, क्र० २४१, ४१६, ६५९, ७२२, ७८० । ६. वही, क्र० ७७०। ७. वही, क्र० ५६ । ८. वही, परि० २, पृ० २२३ एवं श्री जैप्रलेस ३३९, १३६, ६६, ७३, ९७, ४८, ८४, ७२। ९. प्रलेस, क्र०८४८ । Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनधर्म भेद और उपभेद : ९९ तीर्थ कोरटा से हई । इस गच्छ का नामोल्लेख विविध क्षेत्रों से प्राप्त १३३५ ई० से १५११ इं० तक की १८ मूर्तियों के लेखों में उपलब्ध हआ है। १७. जगदेव संतानीय गच्छ-सिरोही राज्य में धराद से प्राप्त २ मूर्तियों१४६५ ई० और १५२६ ई०२ तथा जीराउला से प्राप्त १३६४ ई० की प्रतिमाओं के लेखों में इस गच्छ का उल्लेख मिलता है। १८. काछोली गच्छ-सिरोही राज्य के काछोली गांव से इस गच्छ को उत्पत्ति हुई। इसी गाँव की १२४६ ई० की एक प्रतिमा के लेख में इस गच्छ के मेरू मुनि का नाम है। १९. चैत्रगच्छ-चैत्रगच्छ का नामोल्लेख १२५२ ई० से १५२५ ई० तक की २२ मतियों के अभिलेखों में दृष्टव्य है। २०. जीरापल्ली गच्छ-सिरोही राज्य के जीरापल्ली तीर्थ (जीराउला) के नाम से यह गच्छ प्रसिद्ध हुआ। इस गच्छ का नाम सिरोही राज्य से प्राप्त १३५४ ई० से १४७० ई० तक के ६ मूर्तिलेखों तथा साथां में प्राप्त वासुपूज्य पंचतीर्थी के १४२६ ई० के लेख में मिलता है। २१. जीराउला गच्छ-पूर्वोक्त गच्छ का अपभ्रंश रूप ही जीराउला गच्छ है । इसके उल्लेख वाले १४९२ ई० व १५०० ई० के अभिलेख द्रष्टव्य हैं। २२. वृहत्तपा या वृद्धतपा गच्छ—यद्यपि अभिलेखीय प्रमाणों के आधार पर यह तपागच्छ से भी प्राचीन है, किन्तु विवेच्य काल में इसका तपागच्छ में विलय हो गया प्रतीत होता है । राजस्थान में यह बहुत लोकप्रिय गच्छ था, जिसकी पुष्टि अधिक संख्या में प्राप्त अभिलेखों से होती है । राजस्थान के विविध क्षेत्रों की १४२४ ई० से १५८० ई० के मध्य की प्रतिष्ठित ६३ मूर्तियों के लेखों में इसका उल्लेख द्रष्टव्य है ।१० १. प्रलेस, परि० २, पृ० २२३ एवं श्री जैप्रलेस क्र० ७, २०५ । २. श्री जैप्रलेस, क्र० ४० । ३. वही, क्र० १०। ४. वही, क्र० ३०३ अ । ५. वही, क्र० ३३२ । ६. प्रलेस, परि० २, पृ० २२४ तथा श्री जैप्रलेस, क्र० १०६, ६७, १७, १५५, ३७, २१३, २६७ । ७. श्री जैप्रलेस, क्र० ३०९, ३१०, ९९, ६२, २६६, १३८ । ८. प्रलेस, क्र० २४५ ।। ९. प्रलेस, क्र० ८५५ एवं ८९२ । १०. श्री जैप्रलेस, पृ० ४३-४५ की तालिका । Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .. १०० : मध्यकालीन राजस्थान में जैनधर्म २३. चिरापद्रीय गच्छ-इस गच्छ का उल्लेख सिरोही क्षेत्र के विभिन्न स्थानों से प्राप्त १४१३ ई० से १४७५ ई. तक के ८ मूर्ति लेखों में मिलता है। २४. धर्मघोष गच्छ-आचार्य धर्मघोष के नाम से यह गच्छ प्रसिद्ध हुआ। राजस्थान के विभिन्न जैन मन्दिरों के १२५२ ई० से १५२० ई. तक के ५३ प्रतिमा लेखों में इस गच्छ का उल्लेख देखने में आता है। २५. नागेन्द्र गच्छ—यह गच्छ नागेन्द्र कुल से उत्पन्न हुआ। राजस्थान के विविध प्रदेशों में इस गच्छ के उल्लेख वाले २२ मूर्तिलेख १२३८ ई० से १५६० ई० के मध्य के उपलब्ध हुये हैं । २६. निगम प्रभावक गच्छ-इस गच्छ का उल्लेख १५२४ ई० के २ अभिलेखों में मिलता है जो सिरोही राज्य की प्रतिमाओं से प्राप्त हुए।४ २७. निवृत्ति कुल या गच्छ-निवृत्ति कुल से निवृत्ति गच्छ उत्पन्न हुआ। इसका उल्लेख १४७२ ई० और १५१० ई० के मूर्तिलेखों में है।" २८. पिष्पल गच्छ-इस गच्छ के नामोल्लेख वाले ५१ लेख १२३४ ई० से १५०४ ई० के मध्य के सिरोही क्षेत्र के विभिन्न स्थानों से प्राप्त हुये हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि यह एक स्थानीय गच्छ था जो सिरोही क्षेत्र में ही विशेष प्रचलन में था। २९. बृहद गच्छ-पूर्व मध्यकाल में आबू से उत्पन्न यह गच्छ मध्यकाल में राजस्थान में पर्याप्त लोकप्रिय था। इस गच्छ के १२५९ ई० से १५०२ ई० तक के ३९ मूर्ति लेख सिरोही क्षेत्र में देखने को मिलते हैं । ३०. ब्रह्माण गच्छ-सिरोही राज्य में ब्रह्माण (वरमाण) तीर्थ से पूर्व मध्यकाल में उत्पन्न इस गच्छ का उल्लेख १२८४ ई० से १५११ ई० तक के ४८ प्रतिमा लेखों में भी है। १. श्री जैप्रलेस, क्र० २०६, २६८, ६५, १४२, २२९, ६१, १६५, १७२ एवं प्रलेस, परि० २, पृ० २२७ । २. श्री जैप्रलेस, क्र० १९९, २९०, ९८,२६९, १२३, एवं प्रलेस, परि० २, पृ०२२५ । ३. श्री जैप्रलेस, क्र० ५७, ६, १८३, ३६९, २१८, ९६, १९७, ३६५, ३९, २१५, १२२, २७ एवं प्रलेस क्र० २२, ५८, १५१, १६७, ३६६, ६९६, ८८३, ९३१, ९४६, ९५१ । ४. श्री जैप्रलेस, क्र० ८०, २४१ । ५. प्रलेस, क्र० ७१२, ९३७ । ६. श्री जैप्रलेस, पृ० ४०-५० तक की सूची । ७. श्री जैप्रलेस, क्र० २९२ अ, २१९,२२ एवं प्रलेस परि० २, पृ० २२६ । ८. श्री जैनलेस, पृ० ५३ एवं ५४ पर सूचीबद्ध; प्रलेस, परि० २, पृ० २२६ । Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनधर्मं भेद और उपभेद : १०१ -- - इस गच्छ का उल्लेख १२९२ ई० से १५८० ई० तक के ३१. भावडार गच्छ लगभग २५ मूर्ति लेखों में उपलब्ध होता है' | ३२. मडाहड गच्छ — इस गच्छ का उद्भव मदाहद या मदार नामक स्थान से हुआ । इस गच्छ के १३१० ई० से १५२६ ई० तक के ९ मूर्ति लेख सिरोही राज्य से उपलब्ध होते हैं । ३३. मडाड रत्नपुरीय गच्छ - इस गच्छ के नामोल्लेख के १४२८ ई०, १४४४ ई० व १५०० ई० के लेख प्राप्त हैं । ३४. मल्लधारी गच्छ— इस गच्छ के उल्लेख के १४०१ ई० से १५२७ ई० तक के ३० प्रतिमा लेख सिरोही राज्य में उपलब्ध होते हैं । ३५. विमल गच्छ — इस गच्छ के नामोल्लेख का एक मूर्तिलेख सिरोही क्षेत्र में लुआणा के जैन मन्दिर में अजितनाथ पंचतीर्थी पर मिला है । ३६. संडेरक गच्छ — पूर्व मध्यकाल उद्भूत में इस गच्छ का उल्लेख १२११ ई० से १५३१ ई० तक के ३८ मूर्ति लेखों में भी मिलता है । ३७. सरस्वती गच्छ — इस गच्छ के उल्लेख वाले १४५६ ई० व १५६३ ई० के प्रतिमा लेख सिरोही राज्य के धराद गाँव में प्राप्त हैं । ३८. सिद्धान्ति गच्छ - इस गच्छ के १४४४ ई० से १५४१ ई० तक के ७ मूर्ति लेख देखने को मिलते हैं ।" ३९. चित्रापल्लीय गच्छ - इस गच्छ के नामोल्लेख का १२७७ ई० का प्रतिमा लेख जयपुर पंचायती मंदिर की पंचतीर्थी पर अंकित है । १४६० ई० का उत्कीर्ण देखने को १. श्री जैप्रलेस, क्र० २०, ११३; १७६,२५५, १५०, २३५, १२४, एवं प्रलेस, क्र० १६९, ३४२, ३६२, ५४५, ५७८, ५८३ आदि । २. श्री जैप्रलेस, क्र० ३३४, १०३, प्रलेस, क्र० २१०, ६०३, ६७२, ७८८, ७८९ आदि । १६२, ८८, १५७, ९, १९१, ३६३, ४०२, ४६३, ५२७, ३. प्रलेस, क्र० २५३, ३३९, ८९१ । ४. श्री जैप्रलेस, क्र० २९२ब, एवं प्रलेस, परि० २, पृ० २२७ ॥ ५. श्री जैप्रलेस, क्र० ३५९ । ६. वही, क्र० २०८ एवं प्रलेस, परि० २, पृ० २२८ । ७. श्री जैप्रलेस, क्र० १७४, २६४ ॥ ८. वही, क्र०४, १५३, १४५, २५२, १९, २१२, एवं प्रलेस, क्र० ९९९ । ९. प्रलेस, क्र० ८६ । Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२ : मध्यकालीन राजस्थान में जैनधर्म ४०. चित्रावाल गच्छ-इस गच्छ के उल्लेख के १४४४ ई०, १४४६ ई०, १४४८ ई०, १४५१ ई० व १४५६ ई० के मूर्ति लेख उपलब्ध हैं। ४१. चित्रावाला धारापद्रीय गच्छ-दो गच्छों के सम्मिश्रण से निर्मित इस गच्छ का नाम नागौर के महात्मा जेठमल उपाश्रय में मुनि सुव्रत पंचतीर्थी के १५०४ ई० के लेख में प्राप्त होता है । ४२. छहितरा गच्छ-जयपुर में सुमतिनाथ मंदिर की अनंतनाथ पंचतीर्थी पर १५५५ ई० के लेख में इस गच्छ का सन्दर्भ दिया गया है। '४३. जाखडिया गच्छ-इस गच्छ का उल्लेख नागौर के बड़ा मंदिर की शीतलनाथ पंचतीर्थी के १४७७ ई० के लेख में है। ४४. जालोहरीय गच्छ-मालपुरा के मुनि सुव्रत मन्दिर की पार्श्वनाथ पंचतीर्थी के लेख में इस गच्छ का उल्लेख है ।" ४५. डेकात्रीय गच्छ-कोटा में चन्द्रप्रभु मन्दिर की पार्श्वनाथ पंचतीर्थी पर १३५१ ई० के लेख में इस गच्छ का नाम है। ४६. द्विवंदनीक गच्छ-इस गच्छ का उल्लेख १३९० ई०, १४६६ ई० और १४६८ ई० के प्रतिमा लेखों में देखने को मिलता है। ४७. नागर गच्छ-इस गच्छ की उत्पत्ति राजस्थान के प्राचीन नगर “नगर" के नाम पर हुई । इस गच्छ का नामोल्लेख केकड़ी के चन्द्रप्रभु मन्दिर की पार्श्वनाथ पंचतीर्थी पर अंकित है, जो १२३६ ई० का है। ४८. नागोरी तपागच्छ-तपागच्छ की यह शाखा नागौर में अस्तित्व में आई। १४९४ ई० के एक मूर्ति लेख में इसका उल्लेख प्राप्त है। ४९. नाणकोय या ज्ञानकोय गच्छ-इसकी उत्पत्ति नाणा नामक प्राचीन तीर्थ से हुई । इस गच्छ का उल्लेख नाणकीय नाम से १२५३ ई० से १४७३ ई० के मध्य के ४ १. प्रलेस, क्र. ३४६, ३७०, ३९७, ४३४, ५०५ । २. वही, क्र० ९१३ । ३. वही, क्र० १०१० । ४. वही, क्र० ७७३। ५. वही, क्र० २३ । ६. वही, क्र० १४६ । ७. वही, क्र० १७३, ३७२, ६५२ । ८. वही, क्र० ५७ । ९. वही, क्र०८६५। Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनधर्म भेद और उपभेद : १०३ मूर्ति लेखों और ज्ञानकीय नाम से १४४४ ई० से १५०४ ई० तक के ११ मूर्ति लेखों में देखने को मिलता है। ५०. नाणावाल गच्छ-इस गच्छ की प्रसिद्धि भी नाणा तीर्थ के नाम से हुई । इसके उल्लेख के १४७२ ई० से १५१३ ई० तक के ७ प्रतिमा लेख प्राप्त होते हैं। ५१. पल्लो गच्छ-~पाली नगर से यह गच्छ उत्पन्न हुआ। १३७८ ई० से १५१८ ई० तक के ११ लेखों में इसका नाम देखने को मिलता है । ५२. पल्लीवाल गच्छ-इस गच्छ की उत्पत्ति पल्लीवाल जाति से सम्बन्धित है । इसके नामोल्लेख के १४५३ ई० से १५२६ ई. तक के ५ प्रतिमालेख उपलब्ध होते हैं ।४ ५३. काशद्रह गच्छ-कोटा के खरतरगच्छ आदिनाथ मन्दिर में १५६५ ई० के प्रतिमा लेख में इस गच्छ का नाम उपलब्ध है। ५४. पिप्पल गच्छ-इस गच्छ का उत्पत्ति स्थान अज्ञात है। इसका उल्लेख १४५९ ई०, १४७३ ई० और १४८० ई. के मूर्ति लेखों से प्राप्त होता है। ५५. पिप्पलगच्छेतलाजीय-हरसूली के पार्श्वनाथ मन्दिर की सुमतिनाथ पंचतीर्थी पर इस गच्छ का नामोल्लेख है। ५६. पिप्पलगच्छे त्रिभवीया-पिप्पल गच्छ से सम्बद्ध इस शाखा का उल्लेख १४१९ ई०, १४६७ ई० और १४६८ ई० के प्रतिमा लेखों में देखने को मिलता है।' ५७. वृहद गच्छे जिनेरावटंके-नागौर बड़ा मन्दिर की सुविधिनाथ पंचतीर्थी पर १४५६ ई० के लेख में वृहद गच्छ की इस शाखा का उल्लेख है। ५८. वृहदगच्छे जीरापल्ली गच्छ-सम्भवतः यह जीरापल्ली में विकसित वृहदगच्छ की एक शाखा है। सवाई माधोपुर के विमलनाथ मन्दिर में मनि सुव्रत पंचतीर्थी के १४६२ ई० के लेख में इस गच्छ का नाम है ।१० १. प्रलेस, क्र० ६८, ८९, १३९, ३०१ एवं ३४९, ३८१, ४६७, ५१९, ६७५, ६९७ आदि। २. वही, क्र० ७१३, ७८३, ८१९, ९३०, ९३२, ९३४, ९४३ । ३. वही, क्र० १६२, १७७, १८३, २६१, २६२, १९७, ४३०, ७५९,८६३, ९०१, ९५६ । ४. वही, क्र० ४७०, ४७२०, ७२३, ८२३ एवं ९७३ । ५. प्रलेस, क्र० १०२१ । ६. वही, क्र० ५५३, ७२३, ८१३ । ७. वही, क्र० ७७८ । ८. वही, क्र० २१७, ६४०, ६७७ । ९. वही, क्र. ५१४ । १०. वही, क्र० ५९४ । Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ : मध्यकालीन राजस्थान में जैनधर्म ५९. बोंकड़िया गच्छ—इस गच्छ का नामोल्लेख १४३९ ई० से १५०५ ई० तक के ४ मति लेखों से उपलब्ध होता है।' ६०. बोंकड़या वहद गच्छ-वृहदगच्छ से सम्बन्धित इस शाखा का नामोल्लेख पनवाड़ के महावीर मन्दिर की धर्मनाथ पंचतीर्थी के १४७३ ई० के लेख में प्राप्त होता है। ६१. भीनमाल गच्छ--भीनमाल से उत्पन्न इस गच्छ का नाम भिनाय के केसरिया नाथ मन्दिर में सुविधिनाथ पंचतीर्थी पर १४५६ ई० के लेख में उपलब्ध होता है। ६२. राज गच्छ-१४४७ ई०, १४५२ ई० व १४५३ ई० के प्रतिमा लेखों में इस गच्छ का नाम देखने को मिलता है। ६३. रामसेनीय गच्छ-नागौर बड़ा मन्दिर को पद्मप्रभु पंचतीर्थी के १४०१ ई० के मूर्ति लेख में इस गच्छ का नाम है।" ६४. रुद्रपल्लीय गच्छ-१४४९ ई० से १४९६ ई० के मध्य के १२ प्रतिमा लेखों में इस गच्छ का नाम उपलब्ध है। ६५. विद्याधर गच्छ--इस गच्छ की उत्पत्ति विद्याधर कुल से हुई। नागौर बड़ा मन्दिर, कुंथुनाथ चतुर्विंशति पट्ट के १४६३ ई० के लेख में इस गच्छ का नाम है। ६६. वृत्राणा गच्छ--मेड़ता के युगादीश्वर मन्दिर की शांतिनाथ पंचतीर्थी के १४५० ई० के लेख में इस गच्छ का नाम दिया गया है। ६७. वृद्ध थारापद्रीय गच्छ--थारापद्रीय गच्छ से सम्बन्धित इस शाखा का उल्लेख १३८३ ई० व १४७० ई० के प्रतिमालेखों में देखने को मिलता है। ६८. सतीशली गच्छ-इस गच्छ का सन्दर्भ मालपुरा के मुनि सुव्रत मन्दिर की आदिनाथ पंचतीर्थी के १४७७ ई० के लेख में है। १. प्रलेस, क्र० ३१५, ७१४, ७१६, ९१६ । २. वही, क्र० ७२५ । ३. वही, क्र० ५०९ । ४. वही, क्र० ३७९, ४४१, ४५८ । ५. वही, क्र० १८२। ६. वही, क्र० ४०१, ४३८, ४५४-४५६, ५२०, ५७०, ६६९, ७४१, ८३०, ८४०, ८७३। ७. वही, क्र०६०८ । ८. वही, क्र० ४२६ । ९. वही, क्र० १६६, ६८७ । १०. वही, क्र० ८७५ । Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनधर्म भेद और उपभेद : १०५ ६९. साधुपूर्णिमा गच्छ-यह पूर्णिमा गच्छ की एक शाखा है । १३७५ ई० से १४७६ ई० के मध्य के ५ प्रतिमालेखों में इस गच्छ का नामोल्लेख है।' ___ ७०. सीतर गच्छ-सवाई माधोपुर के विमलनाथ मन्दिर की आदिनाथ पंचतीर्थी के १४०५ ई० के लेख में इस गच्छ का उल्लेख है ।२ ७१. सुविहित पक्ष गच्छ--चैत्यवास के विरोध स्वरूप उत्पन्न इस गच्छ का उल्लेख कोटा के माणिक्यसागर मन्दिर की सुविधिनाथ पंचतीर्थी के १५५५ ई० के लेख में है। ७२. सुधर्म गच्छ--भेंसरोड़ गढ़ स्थित ऋषभदेव मन्दिर की अजितनाथ पंचतीर्थी के १६०० ई० के मूर्ति लेख में इस गच्छ का नामोल्लेख है ।। ७३. हर्षपुरीय गच्छ-इस गच्छ की उत्पत्ति हरसूर (हर्षपुरा) से हुई। नागौर बड़ा मन्दिर की अजितनाथ पंचतीर्थी के १४९८ ई० के लेख में इस गच्छ का उल्लेख है।" ७४. हारोज गच्छ- हरसूली के पार्श्वनाथ मन्दिर की महावीर पंचतीर्थी के १३८८ ई० के लेख में इस गच्छ का सन्दर्भ दिया गया है ।। ७५. वापडीय गच्छ--यह गच्छ जैसलमेर क्षेत्र में १३वीं शताब्दी में प्रचलन में था। ७६. देवाचार्य गच्छ--पाली से प्राप्त एक अभिलेख में इस गच्छ के महेश्वराचार्य आम्नाय का उल्लेख है । १३वीं शताब्दी के अभिलेखों में इसका उल्लेख हैं।' ७७. प्रभाकर गच्छ--मेड़ता से खोजे गये एक अभिलेख में इस गच्छ का सन्दर्भ दिया गया है। ७८. व्यवसिह गच्छ-रत्नपुर, मारवाड़ से प्राप्त १२८६ ई० के एक लेख में इस गच्छ का उल्लेख है ।११ १. प्रलेस, क्र० १५८, ३५९, ३६१, ७०९, ७६५ । २. वही, क्र. १८६ । ३. वही, क्र० १०११ । ४. वही, क्र० १०७४ । ५. वही, क्र० ८७९ । ६. वही, क्र० १७० । ७. नाजलेस, ३, क्र० २२१८ । ८. वही, क्र ० ८१३ (भाग १)। ९. प्राजैलेस, २, सूची देखें । २०. नाजैलस, ३, क्र० ७६४ । ११. प्राजैलेस, २, क्र० ४७४ एवं ४७७ । Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६ : मध्यकालीन राजस्थान में जैनधर्म ७९. हुम्मड़ गच्छ-यह गच्छ १५वीं शताब्दी में उदयपुर क्षेत्र में अस्तित्व में था।' ८०. पालीकोय गच्छ-प्रकारान्तर से पाली नगर से सम्बन्धित इस गच्छ का उल्लेख १४२५ ई० के लेख में है। ८१. पुरन्दर गच्छ-यह गच्छ वृहत्तपा गच्छ से उत्पन्न हुआ । रेनपुर, मेवाड़ से प्राप्त १४३९ ई० के लेख में इस गच्छ का सन्दर्भ दिया गया है। ८२. कुतुबपुरा गच्छ-यह तपागच्छ की एक शाखा थी जो, १६वीं शताब्दी में मारवाड़ में प्रचलन में थी। इसकी उत्पत्ति कुतुबपुरा से हुई। ८३. ज्ञानकप्प गच्छ-जयपुर से प्राप्त १४४४ ई० के अभिलेख में इस गच्छ का उल्लेख है।" ८४. तावकीय गच्छ या ज्ञानकीय गच्छ-सम्भवतः ज्ञानकीय गच्छ को इस रूप में पढ़ लिया गया है । नाणा से प्राप्त १४४८ ई० के लेख में इस गच्छ का उल्लेख है।६ ८५. नागपुरीय गच्छ-इस गच्छ की उत्पत्ति नागपुर या नागौर से हुई। ८६. उद्योतनाचार्य गच्छ—पाली ( मारवाड़ ) से प्राप्त अभिलेख में इसका उल्लेख है। इसी लेख में इसकी उत्पत्ति पल्लिकीय गच्छ से बताई गई है। ८७. सागर गच्छ-यह तपागच्छ से राजसागर सूरि द्वारा पृथक् किया गया । ओसिया से प्राप्त लेख में इसका सन्दर्भ मिलता है। ८८. चंद्र गच्छ-इस गच्छ की उत्पत्ति चन्द्रकुल से हुई । अभिलेखीय प्रमाणों के अनुसार यह सिरोही राज्य में १४३५ ई० में भी अस्तित्व में था। १० ८९. हस्तिकुण्डी गच्छ-इसकी उत्पत्ति हस्तिकुण्डी मारवाड़ में हुई। उदयपुर से प्राप्त १३९६ ई० के लेख में इसका वर्णन है।" १. नाजलेस, ३, क्र० १०५९ । २. वही, १, क्र०८२५ब । ३. वही, ३, क्र० ७०० । ४. वही, १, क्र० १४९-१५१ । ५. वही, २, क्र० ११४३ । ६. वही, १, क्र० ८८७ । ७. वही, २, क्र० १६०६ । ८. वही, १, ८२५ । ९. वही, क्र० ३०४ । १०. अप्रजैलेस । ११. प्रालेस, क्र. ४३ । Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनधर्म भेद और उपभेद : १०७. ९०. भरतरिपुर गच्छ-मेवाड़ में पूर्व मध्यकाल में उत्पन्न इस गच्छ का १३वीं शताब्दी के एक अभिलेख में उल्लेख है।' ९१. रतनपुरिया गच्छ--मूल रूप से यह मडाहड गच्छ को शाखा है। मेवाड़ में रतनपुर में यह एक पृथक् गच्छ हो गया। उदयपुर के जैन मंदिर की धातु प्रतिमा के १४५३ ई० के लेख में इसका वर्णन मिलता है ।२ . ९२. भीमपल्लीय गच्छ-भीमपल्ली नामक गाँव से पूर्णिमा गच्छ की यह शाखा उत्पन्न हुई । जोधपुर से प्राप्त १५४१ ई० के अभिलेख में इसका वर्णन है ।' ९३. जापदाना गच्छ--इसका उल्लेख नागौर के १४७७ ई० के अभिलेख में. मिलता है। ९४. तावदार गच्छ-जोधपुर के मुनि सुव्रत मन्दिर में १४४२ ई० के प्रतिमा लेख में इस गच्छ का नाम है। ९५. वातपोय गच्छ-जैसलमेर से प्राप्त १२८१ ई० के लेख में इस गच्छ का उल्लेख है। ९६. सरवाला गच्छ---यह गच्छ भी १३वीं शताब्दी में जैसलमेर क्षेत्र में अस्तित्व में रहा प्रतीत होता है। ९७. चंचला गच्छ-जयपुर से प्राप्त १४७२ ई० के अभिलेख के अनुसार इस गच्छ के ब्रजेश्वर सूरि के द्वारा पद्मप्रभु की प्रतिमा स्थापित की गई थी। ९८. प्राया गच्छ-यह एक स्थानीय गच्छ था। १३१७ ई० के उदयपुर से प्राप्त लेख में इस गच्छ का उल्लेख है। ९९. निथ्थति गच्छ-मेवाड़ क्षेत्र के १४३९ ई० के लेख में इसका उल्लेख है ।१० १००. बेगड खरतर गच्छ-यह गच्छ धर्म बल्लभ, जिनका एक नाम जिनेश्वर सूरि भी था, के द्वारा १३५५ ई० में प्रारम्भ किया गया था। इस गच्छ के जिनचन्द्रसूरि १. एरिराम्यूअ, १९२३, क्र० ९ । २. प्रालेस, क्र० ४९, १२४ एवं २५६ । ३. नाजैलेस, क्र० ६०४ । ४. वही, क्र० १२८८ । ५. वही, क्र० ६१६ । ६. जैइरा, पृ० ६८ । ७. नाजलेस, ३, क्र० २२२०, २२२१, २२२२ आदि । ८. वही, क्र० ११५९ । ९. जैइरा १०६८।। १०. नाजैलेस, क्र० १०७८ । Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८ : मध्यकालीन राजस्थान में जैनधर्म के आचार्यत्व में देवभद्र ने “कातंत्रव्याकरण" की प्रतिलिपि १५३१ ई० में तैयार की थी। १०१. कासहद गच्छ-कासिंद्रा से उत्पन्न इस गच्छ का उल्लेख इसी गांव के जैन मन्दिर के १२४२ ई० के लेखों में है। (क-२) नवीन सम्प्रदाय व पन्थ : १. लोंका संप्रदाय-मुस्लिम आक्रमणों के प्रभाव से १५वीं-१६वीं शताब्दी वैचारिक क्रान्तियों का युग रही । जैनधर्म में इसके परिणामस्वरूप विभिन्न जैन पंथ, आत्म सुरक्षा हेतु परस्पर निकट आये । साथ ही कुछ लोग मूर्ति पूजा से बिल्कुल पृथक हो गये। अमूर्तिपूजक वर्ग मूर्ति पूजा की कटुतापूर्वक आलोचना करने लगे। लोकाशाह सिरोही जिले के अरठवाड़ा ग्राम के निवासी थे, जो अहमदाबाद में यति ज्ञानजी के उपाश्रय में प्रतिलिपि लेखन कार्य से जीविकोपार्जन करते थे । प्रतिलिपि-करण के दौरान इन्हें यह जानकर आश्चर्य हुआ कि शास्त्रों में मूर्ति पूजा का कहीं वर्णन नहीं था। इन्होंने यह तथ्य ज्ञानजी व अन्य विद्वानों के समक्ष रखा। इससे मूर्ति पूजा के औचित्य के सम्बन्ध में तीखा विवाद पैदा हो गया। अन्ततोगत्वा १४५१ ई० में लोकाशाह ने अपने ही नाम पर एक पृथक् वर्ग या पंथ संगठित कर लिया। इन्होंने न केवल प्रतिमाओं की स्थापना व पूजन का निषेध किया, अपितु पौषध, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान आदि के प्रति भी अविश्वास घोषित किया। हिंसा या परपीड़न से सम्बन्धित सभी धार्मिक संस्कारों का इन्होंने कड़ा विरोध किया। चूंकि इस काल में मुसलमान मन्दिरों एवं प्रतिमाओं का विध्वंस कर रहे थे, अतः इन्हें अपनी विचारधारा और सिद्धान्तों के प्रचार का सुअवसर मिला । जैन भिक्षुओं में भी शिथिलता व तात्त्विक विकार पैदा हो गये थे तथा वे पुस्तके, वस्त्र व धन का परिग्रह करने लग गये थे। उनकी आपसी कलह से जन सामान्य भी उनका आलोचक हो गया था । लोकाशाह ने इन परिस्थितियों का लाभ उठाकर विभिन्न स्थानों का भ्रमण करके अपना सैद्धांतिक अभियान युद्ध स्तर पर चलाये रखा। लोकाशाह ने अपना सैद्धान्तिक आधार ३१ सूत्रों या शास्त्रों को घोषित किया और इनकी नयी शास्त्र सम्मत व्याख्यायें दी, जो मूर्तिपूजा विरोधी थीं। इन्होंने "आवश्यक सूत्र" की भिन्न व्याख्यायें देकर उसका स्वरूप ही पूर्णतः बदल दिया । १४७६ ई० में सिरोही के निकट "आरा-घट-पाटक" के निवासी भाण से मिलने पर, उसे स्वयं अदी'क्षित होते हुए भी दीक्षा दिला दी । भाण ने अपना नाम धंधक रख लिया और १५११ १. जैरा, पृ० १९४ । २. अप्रजैलेस-कासिंद्रा ग्रामस्य लेख । Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनधर्म भेद और उपभेद : १०९. ई० में इन्हें रूपक नामक शिष्य तथा १५३० ई० में वरसिंह नामक शिष्य भी मिल गये। पट्टावलियों के प्रमाणों से ज्ञात होता है कि सात पाट पश्चात् लोंका गच्छ के दो मुख्य भेद-गुजराती और नागौरी लोंका हुए । नागौरी लोंकागच्छ १५२३ ई० में हीरागर और रूपचन्द से प्रकट हुआ । गुजराती लोंकागच्छ की भी नानीपक्ष, मोटी पक्ष और लाहोरी लोंका गच्छ, तीन शाखायें बनीं । इस प्रकार लोंका गच्छ के अनुयायी १६वीं शताब्दी के अन्त तक अत्यधिक संख्या में हो गये। २. बीजामत या विजयगच्छ-१५१३ ई० में लोंकागच्छ के अनुयायी मुनि बीजा ने एक पृथक् गच्छ विजय गच्छ के नाम से स्थापित कर लिया। पहले यह बीजा मत के नाम से प्रसिद्ध था। इन्होंने मूर्ति पूजा को पुनः स्वीकार कर अपना स्वतंत्र अस्तित्व बना लिया। यहाँ तक कि अपनी पट्टावलो में लोंकाशाह का उल्लेख तक नहीं किया। ३. कडुआ मत--कडुआ शाह नाडलाई में १४३८ ई० में पैदा हुआ था। पहले वह नागर जाति का था किन्तु बाद में जैन हो गया और अंचल गच्छ का अनुयायी बना। १४६७ ई० में वह अहमदाबाद गया, जहाँ लोकाशाह के विचारों से प्रभावित होकर उसकी बौद्धिक तृष्णा जाग्रत हुई । वहाँ वह आगमिक गच्छ के पन्यास हरिकीर्ति से भी मिला और उनसे आगमों का अध्ययन करने के बाद उसको दीक्षा लेने की प्रेरणा हुई। हरिकीति ने उसे बताया कि इस युग में शास्त्र सम्मत आचरण करने वाले गुरु बिरले ही है । अतः शास्त्रीय दीक्षा सम्भव नहीं हो सकती । इस तथ्य को जानकर उसने अपना पृथक् मत स्थापित कर लिया, जिसका मूल उद्देश्य यही प्रचारित करना था कि साधुओं की संस्था व्यर्थ है, क्योंकि कोई सच्चा साधु नहीं है। उन्होंने गृहस्थों का पक्ष लिया और इस प्रकार “कडुआ मत" की स्थापना की। यह मत मूर्ति पूजा विरोधी नहीं है। राजस्थान के भी कुछ क्षेत्रों में कडुआ मत का प्रभाव रहा। कडुआ शाह ने अपने कई अनुयायी बनाये, जिनमें से अधिकांश गुजरात के थे । उसने १४६६ ई० में इस पंथ को स्थापित कर ४० वर्षों तक इसका प्रचार किया। १५०७ ई० में इनकी मुत्यु के बाद, इनके उत्तराधिकारी क्रमशः खेमाशाह, वीरशाह, शाहजीव राज, तेजपाल, शाह रत्नपाल जिनदास और शाह तेजपाल द्वितीय, १६वीं शताब्दी की समाप्ति तक हुए। १. पप्रस-भूमिका। २. वही, भूमिका, पृ० ३४ । ३. जैसेस्कू, पृ० ७८ । ४. वही। Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११० : मध्यकालीन राजस्थान में जैनधर्म (ख) दिगम्बर सम्प्रदाय में भेद-प्रभेद : (ख-१) प्रवर्तमान संघ : १. काष्ठा संघ : ___ "दर्शनसार" के अनुसार द्रविड़ संघ की भाँति यह भी एक धर्म विरोधी व अलगाववादी पंथ था। कुमारसेन ने मर्यादा से च्युत होने पर पुनः साधु जीवन ग्रहण नहीं किया, अपितु ६९६ ई० में "काष्ठा संघ" नामक एक पृथक् संघ स्थापित किया। इस संघ की स्थापना नान्देड़ में हुई । काष्ठा संघ का नाम दिल्ली के निकटवर्ती 'काष्ठा' नामक ग्राम के आधार पर रखा गया। सुरेन्द्र कीर्ति ने काष्ठा संघ के ४ भेद बताये हैं--१. काष्ठा संघ का माथुर गच्छ, २. काष्ठा संघ का बागड़ गच्छ, ३. काष्ठा संघ का लाड़वागड़ गच्छ और ४. काष्ठा संघ का नंदी तट गच्छ । सुरेन्द्र कीति स्वयं नंदीतट गच्छ के आचार्य थे। ऐसा प्रतीत होता है कि प्रभेद पहले से ही अस्तित्व में थे और बाद में काष्ठा संघ के ही अंग बन गये । कुमार सेन के समय में यह संघ बागड़ प्रदेश में बहुत प्रचलित हुआ । इस संघ की परम्परायें मूल दिगम्बर संघों से बहुत भिन्न हैं। काष्ठा संघ के निम्नलिखित भेद-प्रभेद हैं :-- आम्नाय : १. जिनकीर्ति आम्नाय २. लोहाचार्य आम्नाय५ ३. रामसेन आम्नाय अन्वय: १. अग्रोतक अन्वय २. खण्डेलवाल अन्वय ३. लोहाचार्य अन्वय ४. माथुर अन्वय ५. रामसेन अन्वय१ १. पुष्कर गच्छ१२ १. पुष्कर गण १. दर्शनसार, पृ० १४ । २. जैसेस्कू, पृ० ११२ । ३. वही। ४. जैसिभा, १२, अंक २, पृ० ६-८ । ५. नाजैलेस, १, क्र० १४५-३२७ । ६. वही, क्र० ६४१ । ७. वही, क्र० १४५ एवं ३२७ । ८. जैसिभा, १२, अंक २, पृ० ६.८ । ९. नाजैलेस, १, क्र० ३२६ । १०. वही, भाग २, क्र० १४८३ । ११. वही, १, क्र. ५४१ । १२. जैसेस्कू, पृ० १२५ । १३. नाजैलेस, भाग २, क्र. ११३५ । "गच्छ : Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनधर्म भेद और उपभेद : १११ राजस्थान में कुछ स्थान ऐसे थे, जो इस संघ से अत्यधिक सम्बन्धित थे। उदयपुर के पास धुलेव के प्रसिद्ध ऋषभदेव मन्दिर में इस संघ के भट्टारकों की गादी रही है । काष्ठा संघ के भट्टारकों ने इस मन्दिर में बहुत सा निर्माण कार्य और प्रतिष्ठा कार्य सम्पन्न करवाया । यहाँ से प्राप्त लेखों में काष्ठा संघ के भट्टारकों के सम्बन्ध में गच्छगणादि का विवरण इस क्रम में दिया गया है-काष्ठा संघ, नंदीतट गच्छ, विद्यागण, रामसेनान्वय । किसी मूर्ति लेख में लोहाचार्यान्वय भी मिलता है । १६९६ ई० के शिलालेख में लाड़बागड़ गच्छ और भट्टारक प्रतापकीर्ति आम्नाय का भी उल्लेख है। ऋषभदेव में काष्ठा संघ की शाखा, नंदी तट गच्छ के भट्टारकों का प्रभाव प्रारम्भ से ही रहा है। कई शताब्दियों से इस क्षेत्र को व्यवस्था भी इनके हाथ में रही । इस संघ के प्रारम्भिक उल्लेख का १३७४ ई० का शिलालेख यहाँ उपलब्ध है, जिसमें भट्टारक धर्मकीर्ति के पदेश से मंदिर के जीर्णोद्धार का उल्लेख है। इस अभिलेख में यह भी उल्लेख है कि साह बीजा के पुत्र हरदान ने यह जीर्णोद्धार करवाया था। इस क्षेत्र में उपलब्ध शिलालेखों और मूर्तिलेखों में काष्ठा संघ की एक शाखा नंदीतट गच्छ विद्यागण के निम्नलिखित भट्टारकों का उल्लेख मिलता है भट्टारक रामसेन, धर्मकीर्ति, यशकीति, विश्वभूषण, त्रिभुवनकोति, भीमसेन, गोपसेन, राजकीर्ति, लक्ष्मीसेन, इंद्रभूषण, सुरेन्द्र कीर्ति, प्रतापकीर्ति, श्रीभूषण, शुभचंद्र, जयकीति, सुमति कीर्ति, देवेन्द्र कीर्ति, ज्ञान कीर्ति आदि । । काष्ठा संघ के माथुर गच्छ के मध्यकालीन आचार्य : ललित कीर्ति (११७७ ई०), माधवसेन, उद्धर सेन, देवसेन, विमल सेन, धर्म सेन, भावसेन, सहस्त्रकीर्ति, गुणकीर्ति (१४११ ई०-१४१६ ई०), यशकीर्ति (१४२९ ई०१४४० ई०), मलय कीर्ति (१४४५ ई०-१४५३ ई०), गुणभद्र (१४५३ ई०-१५३३ ई०), गुणचन्द्र (१५१९ ई०), भानुकीति (१५४९ ई०), कुमारसेन (१५५८ ई०-१५७५ ई०), विजयसेन । काष्ठा संघ के लाड़बागड़ गच्छ के मध्यकालोन आचार्य : अनंतकीर्ति, विजयसेन, चित्रसेन, पद्मसेन, त्रिभुवन कोति, धर्मकीति (१३७४ ई०), मलय कीर्ति (१४३६ ई०), नरेन्द्र कीति, प्रताप कीति, त्रिभुवन कीर्ति । १. भादिजैती, ४, पृ० १२४ । २. वही। ३. वही। ४. वही। ५. जैसेस्कू, पृ० ११७ । ६. वही, पृ० १२० । Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२ : मध्यकालीन राजस्थान में जैनधर्म काष्ठा संघ के बागड़गच्छ के मध्यकालीन आचार्य' : सूरसेन, यशकीति, ( यह संघ बाद में लाड़बागड़ संघ में मिल गया ) काष्ठा संघ के नंदी तट गच्छ के मध्यकालीन आचार्य : रत्नकोति, लक्ष्मीसेन, भीमसेन व धर्मसेन, सोमकीर्ति (१४६९ ई०-१४८३ ई०) क विमलसेन, विजयसेन व विशालकीति, यशकीर्ति व विश्वसेन (१५३९ ई०), उदयसेन क विजयकीर्ति तथा विद्याभूषण (१५४७ ई०-१५७९ ई०), त्रिभुवन कीर्ति, श्रीभूषण (१५७७ ई०-१६७९ ई०)। काष्ठा संघ के भट्टारक यशकीति ने १५१५ ई० में सभामंडप और नौचौकी की प्रतिष्ठा ऋषभदेव में करवाई। शिलालेखों और प्रशस्तियों से ज्ञात होता है कि वागड़ प्रदेश इस संघ का मुख्य प्रभाव क्षेत्र था। जयपुर के पंचायती मन्दिर के चतुर्विंशति पट्ट के १३३३ ई० के लेख में काष्ठा संघ, लाड़वागड़ गण के आचार्य त्रिभुवनकीर्ति का नामोल्लेख है। इसी मन्दिर में सुमतिनाथ पंचतीर्थी पर १३३८ ई० के लेख में केवल काष्ठा संघ का नाम है। जयपुर के पार्श्वचन्द्र उपाश्रय में स्थित सुमतिनाथ पंचतीर्थी के १४३३ ई० के लेख में काष्ठा संघ, नंदी तट गण का उल्लेख है।५ कर्मदी आदिनाथ मन्दिर की चंद्रप्रभ पंचतीर्थी के १४४७ ई० के लेख में काष्ठा संघ वागड़ गच्छ के हेमकीर्ति का उल्लेख है। ___ हिण्डोन के श्रेयांसनाथ मंदिर में आदिनाथ एकतीर्थी के १४८५ ई० के लेख में काष्ठा संघ माथुर अन्वय के कमलकीर्ति के पट्टधर शुभचन्द्र के पट्टधर हंससेनदेव का वर्णन है । जयपुर पंचायती मंदिर की अनंतनाथ पंचतीर्थी के १४५९ ई० के लेख में काष्ठा संघ बागड़गच्छ नंदीगण के धर्मसेन का वर्णन है। जयपुर पदमप्रभ मंदिर की सुमतिनाथ पंचतीर्थी के १४६५ ई० के लेख में काष्ठा संघ सरस्वती गच्छ के भट्टारक सोमकीर्ति का नाम है। मेड़ता के चिंतामणि पार्श्वनाथ मंदिर की आदिनाथ पंचतीर्थी के १५४० ई० के लेख में काष्ठा संघ के सोमकीर्ति का उल्लेख है। १. जैसेस्क, पृ० १२१ । २. भादिजैती, ४, पृ० १११ । ३. प्रलेस, क्र० १३३ । ४. वही, क्र० १४१ । ५. वही, क्र० २७९ । ६. वही, क्र० ३८३ । ७. वही, क्र० ८३३॥ ८. वही, क्र० ५५१ । ९. वही, क्र० ६२५ । १०. वही, क्र० ९९६ । Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनधर्मं भेद और उपभेद : ११३ २. देवसेन संघ- नागौर में आदिनाथ मन्दिर हीराबाड़ी की सम्भवनाथ प्रतिमा के १४९६ ई० के लेख में इस संघ का उल्लेख है । इसी मन्दिर की १४९६ ई० की एक अन्य मूर्ति पर भी इस संघ का नामोल्लेख मिलता है | ३. मूल संघ - राजस्थान में दिगम्बर सम्प्रदाय में मूलसंघ हो १३वीं से १६वीं शताब्दी तक अधिक प्रचलन में रहा । इसके अनुयायी मुख्यतः खण्डेलवाल जैन थे । राजस्थान से प्राप्त विभिन्न अभिलेखों के अध्ययन से ज्ञात होता है कि मूल संघ के साथ बलात्कार गण, नन्दि संघ और सरस्वती गच्छ भी अंकित किया जाता था । कुछ अभिलेखों में इस परिचय के अतिरिक्त "कुन्दकुन्दाचार्यान्वय" भी देखने को मिलता है । राजस्थान में मूल संघ के बलात्कार गण की उत्तर शाखा आचार्यों का वर्चस्व रहा । इन्हीं आचार्यों की परम्परा में राजस्थान में प्रवेश के पश्चात् से विभिन्न स्थानों पर गादियाँ स्थापित कर कई शाखाओं की स्थापना की गई। इनके निवास, प्रवास व उत्तराधिकार के सम्बन्ध में पट्टावलियों में परम्पराओं की विविधता देखने को मिलती है । ४ पट्टावलियों में मुख्य बिन्दुओं पर एकरूपता है, किन्तु ५वीं पट्टावली भिन्न परम्परा बतलाती है । ५वीं पट्टावली १४४३ ई० तक शुभचन्द्र के आचार्यत्व के उल्लेख के साथ समाप्त होती है और प्राचीनतम है, अतः यह पर्याप्त विश्वसनीय है। पट्टावलियों के अनुसार प्रथम २६ आचार्य भद्द्द्दलपुर में हुए, जो प्रथम चार पट्टावलियों के अनुसार मालवा में है, जबकि वस्तुतः यह दक्षिण में है, जो ५वीं पट्टावली से ज्ञात होता है । २७वें आचार्य ने अपनी गादी भद्दलपुर से उज्जैन स्थानांतरित कर ली । सभी पट्टावलियाँ इस तथ्य की पुष्टि करती हैं । उज्जैन से १०८३ ई० में ५३वें आचार्य माघचन्द्र ने अपनी गादी कोटा क्षेत्र के बारों नगर में स्थापित कर ली । ६३वें या ६४वें आचार्य बारों में ही हुये । इसके पश्चात् ७७वें क्रम तक के आचार्य ग्वालियर में रहे । ६३ से ७७वें अर्थात् १४ आचार्यों के बारे में उक्त तथ्य ४ पट्टावलियों में उल्लिखित है, किन्तु ५वीं पट्टावली के अनुसार १० आचार्य चित्तौड़ में और ४ बघेरा में प्रतिष्ठित हुए, जो सत्य प्रमाणित होता है । इसकी पुष्टि इस तथ्य से भी होती है कि कुमारपाल के समय चित्तौड़ दुर्ग में दिगम्बर जैनों की एक सम्पन्न बस्ती अस्तित्व में थी । " १. प्रलेस, क्र० ८७१ । २. वही, क्र० ८७२ । ३. जैसे स्कू, पृ० ९४ । ४. प्रथम पट्टावली १८८३-८४ की पीटरसन रिपोर्ट में प्रकाशित हुई थी, द्वितीय, तृतीय एवं चतुर्थ पट्टावलियाँ इ० ए०, जिल्द २० में दी गई हैं तथा पाँचवीं पट्टावली इए जिल्द २१ के पृ० ५८ पर दी गई है । ५. प्रोरिआसवेस, १९०३-४, पृ० ४६ । ८ Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४ : मध्यकालीन राजस्थान में जेनधमं इसी समय बघेरा में धर्मांतरण के कारण बघेरवाल अस्तित्व में आये तथा ११वीं शताब्दी में बघेरा में जैन मन्दिर निर्मित हुए จ ७८वें आचार्य बसन्तकीर्ति से हो यह गादी १२०८ ई० के लगभग अजमेर स्थानां - तरित हो गई । इस तथ्य की सभी पट्टावलियाँ - पुष्टि करती हैं । बसन्तकीर्ति का पट्टाभिषेक १२०७ ई० में हुआ । श्रुतसागर सूरि के अनुसार मुसलमानों के दुर्व्यवहार कारण इन्होंने ही दिगम्बर साधुओं के लिये चर्या के समय शरीर आच्छादन का प्रावधान मंडपदुर्ग ( मांडलगढ़) में किया था । ये बघेरवाल जाति के अजमेर निवासी थे । बिजौलिया अभिलेख में भी इनका उल्लेख है । इनके पश्चात् १२०९ ई० में विशालकीर्ति पट्टधर हुए । विशालकीर्ति के पश्चात् शुभकीर्ति पट्टधर हुए । बिजौलिया अभिलेख में इनका दूसरा नाम दमनकीर्ति भी दिया हुआ है ।" शुभकीर्ति ने १२१३ ई० में कई प्रतिमाओं की प्रतिष्ठा करवाई। इनके उत्तराधिकारी १२१४ ई० में धर्मचन्द्र हुए, जो हुम्बड़ जातीय अजमेर निवासी थे । १२३९ ई० में इनके पट्टधर रत्नकीर्ति हुये, जो १४ वर्षों तक रहे । ये भी हुम्बड़ जातीय अजमेर निवासी थे । इनके पश्चात् १२५३ ई० से १३२७ ई० तक प्रभाचन्द्र पट्टधर रहे । प्रभाचन्द्र के पश्चात् १३२८ ई० से १३९३ ई० तक पद्मनन्दी पट्टधर रहे । ४ पट्टावलियों के अनुसार १३२८ ई० में पद्मनन्दी से ही यह गादी अजमेर से दिल्ली स्थानान्तरित हो गई । किन्तु ५वीं पट्टावली से प्राप्त सही जानकारी के अनुसार यह ईडर में स्थानान्तरित हुई, क्योंकि पद्मनन्दी बागड़ प्रदेश से सम्बन्धित थे । बागड़ के एक श्रावक ने अजमेर के प्रभाचन्द्र द्वितीय को प्रतिमाओं की प्रतिष्ठा हेतु निमंत्रित किया । उनके न आ सकने के कारण पद्मनन्दी को ही सूरिमंत्र दे दिया गया और श्रावक ने उन्हें भट्टारक की उपाधि प्रदान की । इस प्रकार ईडर में १३२८ ई० में प्रथम भट्टारक पद्मनन्दी हुये जो १३९३ ई० तक रहे । भट्टारक शब्द से अभिप्राय उन विशेष दिगम्बर जैन सन्यासियों से है, जो मुनियों से विपरीत एक तरह से धार्मिक शासकों की तरह से होते थे और धार्मिक मामलों में इनकी सर्वोच्च सत्ता होती थी । १. एइ, २४, पृ० ८४ ( बिजौलिया अभिलेख, श्लोक ८२-८३) । २. जैसेस्कू, पृ० ९५ । ३. वही । ४. एइ, २४, पृ० ८४ । ५. वही । ६. जैसे स्कू, पृ० ९५ । Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनधर्म भेद और उपभेद : ११५ भट्टारक गादियों का स्थानान्तरण : पूर्वोक्त विवरण से स्पष्ट है कि मूल संघ के आचार्यों की गादी बारी से चित्तौड़ व बघेरा, वहाँ से अजमेर तथा अजमेर से ईडर स्थानान्तरित हुई और भट्टारक गादी बन गई। भट्टारक पद्मनन्दो (१३२८ ई०-१३९३ ई०) के ३ शिष्यों से ३ शाखाएँ अस्तित्व में आई-१. शुभचन्द्र से दिल्ली-जयपुर शाखा, २. सकलकीति से ईडर शाखा और ३. देवेन्द्रकीति से सूरत शाखा । दिल्ली शाखा में शुभचन्द्र (१३९३ ई०-१४५० ई०) के पश्चात् जिनचन्द्र (१४५० ई०-१५१४ ई०), इनके पश्चात् प्रभाचन्द्र (१५१४ ई०) हये । प्रभाचन्द्र के काल में १५१५ ई० में दिल्ली से यह गादी चित्तौड़ आ गई। प्रभाचन्द्र के गुरु भाई रत्नकीर्ति ने इसी समय नागौर की गादो पृथक् से स्थापित कर ली। नागौर में पुनः मतभेद उभरने पर एक भाग तो अजमेर चला गया व दूसरा नागौर में ही रहने लगा । इसी प्रकार चित्तौड़ से प्रभाचन्द्र के उत्तराधिकारी चन्द्रकीर्ति के समय गादी चातसू स्थानान्तरित हुई। इसके बाद यह क्रमशः सांगानेर, आंवा, आमेर और अन्त में जयपुर स्थानान्तरित हो गई। ईडर शाखा के मध्यकालीन भट्टारक' : १. पद्मनन्दी-उत्तर शाखा २. सकल कीर्ति (१३९३ ई०-१४५३ ई०) ३. भुवन कीर्ति (१४५१ ई०-१४७० ई०) ४. ज्ञान भूषण (१४७७ ई०-१५०३ ई०) इनके समय में ज्ञानकीति ने भानपुरा शाखा पृथक् से स्थापित की। ५. विजय कीर्ति (१५०० ई०१५११ ई०) ६. शुभचन्द्र (१५१६ ई०-१५५६ ई०) ७. सुमतिकीर्ति (१५६५ ई०१५६८ ई०) ८. गुणकीर्ति (१५७४ ई०-१५८२ ई०) वादिभूषण (१५९५ ई०१५९९ ई०)। नागौर शाखा के मध्यकालीन भट्टारकर १. जिनचन्द्र के काल में दिल्ली-जयपुर शाखा से चित्तौड़ में पृथक् होकर स्थापना २. रत्लकीर्ति १५२४ ई० ३. भुवनकीर्ति १५२९ ई० ४. धर्मकीर्ति १५३३ ई० ५. विशाल कीति १५४४ ई० ६. लक्ष्मीचन्द्र १५५४ ई० ७. सहस्त्र कीर्ति १५७४ ई० ८. नेमीचन्द्र १५९३ ई०।३ अजमेर शाखा के मध्यकालीन भट्टारक : १. विशालकीर्ति १२०९ ई० २. शुभकीर्ति ३. धर्मचन्द्र १२१४ ई० ४. रत्नकीर्ति १२३९ ई० ५. प्रभाचन्द्र १२५३ ई०-ये दिल्ली में रहे । इनके पश्चात्वर्ती पद्मनंदी से ईडर शाखा प्रारम्भ हुई। १. जैसेस्कू, पृ० १०५ । २. वही, पृ० १००। ३. वही, पृ० १०१ । Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११६ : मध्यकालीन राजस्थान में जैनधर्म दिल्ली-जयपुर शाखा के मध्यकालीन भट्टारक चित्तौड़ सहित' : १. पद्मनन्दी के शिष्य शुभचन्द्र ( १३९३ ई०-१५४० ई० ) ने दिल्ली में इस शाखा को प्रारम्भ किया। ये ५६ वर्ष पट्टारूढ़ रहे। २. जिनचन्द्र ( १४५० ई०१५१४ ई० ) ३. प्रभाचन्द्र ( १५१४ ई०-१५२३ ई० )-इनके गुरुभाई रत्नकोति ने १५२४ ई० में नागौर में गादी स्थापित की। ४. धर्मचन्द्र-१५१८ ई० में भट्टारक हुए, इन्होंने १५२४ ई० में गादी चित्तौड़ में स्थानांतरित कर ली। ५. ललितकीर्ति १५४६ ई०-इनके काल में गादी आमेर स्थानांतरित हो गई। ६. चन्द्रकीर्ति ने १५७५ ई० में चातसू में गादी स्थानान्तरित की। १३वीं से १६वीं शताब्दी तक मूल संघ की उक्त गादियों के भट्टारकों ने विविध प्रतिष्ठा कार्य, मूर्ति स्थापना एवं साहित्य सृजन करवाया। सवाई माधोपुर के विमलनाथ मन्दिर के आदिनाथ चतुर्विशति पट्ट के १२६३ ई. के लेख में केवल "मूलसंघ" का उल्लेख है । मालपुरा के मुनि सुव्रत मन्दिर की आदिनाथ पंचतीर्थी के १३२३ ई० के लेख में भी केवल "मूलसंघ" का उल्लेख है। जयपुर के पंचायतो मन्दिर स्थित पंचतीर्थी के १४०५ ई० के लेख में "मूलसंघ के पद्मनन्दी देव गोमाराडान्वय" का उल्लेख है।४ सांगानेर स्थित महावीर मन्दिर की संभवनाथ पंचतीर्थी के १४२३ ई० के लेख में “मूलसंघ, सरस्वती गण कुंदकुंदाचार्यान्वय" वर्णित है।" संभवतः १५वीं शताब्दी से ही मूलसंघ के साथ अन्वय, आम्नाय, संघ, गण, गच्छ जोड़ने की परम्परा प्रारम्भ हुई। अजमेर के संभवनाथ मन्दिर के पद्मप्रभु चतुर्विशति पट्ट के १४३३ ई० के लेख में "मूलसंघ के नन्दि संघ, बलात्कार गण, सरस्वती गच्छ कुन्दकुन्दाचार्यान्वय" के भट्टारक पद्मनन्दी द्वारा प्रतिष्ठा का उल्लेख मिलता है। भेंसरोडगढ़ केसरियानाथ मन्दिर की वासु-पूज्य पंचतीर्थी के १४४२ ई० के लेख में मूलसंघ के पद्मनन्दो अन्वय के सकलकीर्ति के शिष्य भुवनकीति द्वारा प्रतिष्ठा का वर्णन है। इसी प्रकार कोटा के माणिक्य सागर मन्दिर की शान्तिनाथ पंचतीर्थी के १४६८ ई० के लेख में मूलसंघ के भुवनकीर्ति १. जैसेस्कू, पृ० ९८ । २. प्रलेस, क्र० ७४ । ३. प्रलेस, क्र० १२० । ४. वही, क्र० १८७ । ५. वही, क्र० २२६ । ६. वही, क्र० २७८ । ७. वही, क्र० ३३१ । Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनधर्म भेद और उपभेद : ११७ का उल्लेख है। सागोदिया ऋषभदेव मन्दिर की आदिनाथ पंचतीर्थी के १४७४ ई० के लेख में मूलसंघ के भुवनकीर्ति के शिष्य ज्ञानभूषण का नामोल्लेख है । । सवाई माधोपुर विमलनाथ मन्दिर की संभवनाथ पंचतीर्थी के १४७८ ई० के लेख में भी उक्त आचार्यों के नाम हैं। किशनगढ़ शान्तिनाथ मन्दिर की पार्श्वनाथ प्रतिमा पर १४९१ ई० के लेख में मूलसंघ के साथ केवल सरस्वती गच्छ का उल्लेख है। किशनगढ़ के यति स्वरूपचन्द्र उपाश्रय की पार्श्वनाथ एकतीर्थी के १५२८ ई० के लेख में मूलसंघ के विजयकीति का वर्णन है। इसी उपाश्रय में एक पंचतीर्थी के १५४५ ई० के लेख में मूलसंघ के भट्टारक लाभचन्द्र का उल्लेख है। दाहोद पाश्वनाथ मन्दिर के शान्तिनाथ चतुविशति पट्ट के १५५९ ई० के लेख में मूलसंघ, सरस्वती गच्छ, बलात्कार गण, कुन्दकुन्दाचार्यान्वय के सकलकीर्ति का उल्लेख है । भेंसरोडगढ़ में उपलब्ध पार्श्वनाथ प्रतिमा के १५६२ ई० के लेख में मूलसंघ के शुभचन्द्र के पट्टधर सुमतिकीर्ति का उल्लेख है।' मेड़ता के चिंतामणि पार्श्वनाथ मन्दिर के नवपट्ट यन्त्र के १५६३ ई० के लेख में सुमतिकीर्ति का उल्लेख है । अजमेर म्यूजियम की मुनिसुव्रत मूर्ति के १५६८ ई० के लेख, और जयपुर सुमतिनाथ मन्दिर के पार्श्वनाथ मूर्ति के १५७१ ई० के लेख में सुमतिकीर्ति का उल्लेख है। हरसूली के पार्श्वनाथ मन्दिर के श्रेयांसनाथ चतुर्विंशति पट्ट के १५७५ ई० के लेख में केवल मूलसंघ का उल्लेख है।११ अजमेर म्यूजियम की आदिनाथ प्रतिमा के लेख और चॅदलाई शान्तिनाथ मन्दिर की शान्तिनाथ प्रतिमा के १५९४ ई० के लेख में भी मूलसंघ का उल्लेख है ।१२ १. प्रलेस, क्र० ६६२ । २. वही, क्र० ७३२ । ३. वही, क्र० ७९१ । ४. वही, क्र० ८५१ । वही, क्र० ९५७ । वही, क्र० १००३ । ७. वही, क्र० १०१५ । ८. वही, क्र० १०१७ । ९. वही, क्र० १०१९ । १०. वही, क्र० १०२४, १०२६ । २१. वही, क्र. १०२८ । १२. वही, क्र. १०३८, १०४९ । Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११८ : मध्यकालीन राजस्थान में जैनधर्म भट्टारकों का योगदान : मध्यकालीन भट्टारकों ने धर्म, साहित्य एवं संघ यात्राओं के क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया, जिसके कतिपय उदाहरण इस प्रकार हैं । १४०० ई० में पद्मनन्दी के उपदेश से प्रतिमा स्थापित की गई। १४१३ ई० में विल्हण और उसके पुत्र ने विशालकीर्ति के द्वारा कई मूर्तियाँ स्थापित करवाई। इन्हीं के उपदेश से असपाल ने १४१५ ई० में पाश्वनाथ की प्रतिमा बनवाई। इस प्रतिमा का प्रतिष्ठा समारोह इनके शिष्य नेमीचन्द्र द्वारा आपा ने करवाया। आबू के दिगम्बर जैन मन्दिर की प्रतिमा के १४३० ई० के लेख में सकलकीर्ति का नामोल्लेख है।५ इन्हीं के उपदेशों से १४३३ ई० में आदिनाथ चौबीसी और १४३५ ई० में चंपा ने शान्तिनाथ प्रतिमा बनवाई। १४४३ ई० में त्रिमूर्ति का स्थापना समारोह मूलसंघ के भुवनकीर्ति के द्वारा करवाया गया । १४५५ ई० में सारा के पुत्र नाहया के द्वारा इनके उपदेशों से "दशलक्षण यन्त्र" की प्रतिष्ठा तथा १४५९ ई० में इसी वंश के सूरा के द्वारा प्रतिष्ठा समारोह करवाया गया। चापा और उसकी पत्नी गंगा ने १४७१ ई० में एक यन्त्र का स्थापना समारोह मनाया ।१० १३७७ ई० में मूलसंघ के ज्ञानभूषण ने एक यन्त्र प्रतिष्ठित करवाया, जो उदयपुर के जैन मन्दिर में है। इन्होंने ही १३८७ ई० में महावीर प्रतिमा भी स्थापित करवाई।" १५१३ ई० में विजयकीर्ति के उपदेश से श्रेष्ठी मेला ने आदिनाथ के समवशरण की प्रतिष्ठा करवाई।१२ १५१५ ई० से १५५६ ई० के मध्य मूलसंघ के आचार्यों की प्रेरणा से विपुल साहित्य सृजित हुआ। १५३८ ई० में धन्नादे और उसकी पत्नी ने पार्श्वनाथ की धातु १. नाजलेस, क. १००९ । २. वीरवाणी-७। ३. अने० १३, पृ० १२६ । ४. वही। ५. जैनप्रस, भूमिका, पृ० १० । ६. जैइरा, पृ० ७५ । ७. अने० १३, पृ० १२६ । ८. जयपुर के जैन मन्दिर में । ९. जैइरा, पृ० ७६ । १०. जैइरा, पृ० ७६ । ११. अने० १२, पृ० १२६ । १२. बैदरा, पृ० ७६ । Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनधर्म भेद और उपभेद . ११९ प्रतिमा शुभचन्द्र के उपदेश से बनवाई।' १५५१ ई० में शान्तिनाथ प्रतिमा तथा १५५० ई० में ज्ञान निर्वाण समारोह इन्हीं के उपदेशों से सम्पन्न हुए।२ १५६३ ई० में सुमतिकीर्ति के उपदेश से पद्मप्रभु की मूर्ति स्थापित हुई। इन्होंने ही मुनि सुव्रत और अनन्तनाथ' की प्रतिमाएँ क्रमशः १५६२ ई० और १५७० ई० में स्थापित करवाई। ईडर के आसा ने अपनी पत्नी और पुत्री के साथ नेमिनाथ की प्रतिमा स्थापित करवाई।६ मौजीपुरा के श्वेताम्बर जैन मन्दिर की शीतलनाथ प्रतिमा के १५९७ ई० के लेख में मूलसंघ के वादिभूषण का उल्लेख है। चित्तौड़ के प्रसिद्ध जैन कीर्ति स्तम्भ का प्रतिष्ठा समारोह भट्टारक धर्मचन्द्र के द्वारा सम्पन्न हुआ। बिजौलिया में एक प्रस्तर स्तम्भ के एक पाश्वं में भट्टारक पद्मनन्दी और दूसरी तरफ शुभचन्द्र का नाम उत्कीर्ण है । आँवा में शुभचन्द्र की निषेधिकाएँ हैं। भट्टारक जिनचन्द्र के समय में १४५० ई० के पश्चात् विपुल साहित्य सृजित हुआ। १४६० ई० में मूलसंघ के श्रावक हरराज ने एक चौबीसी प्रतिष्ठित करवाई। १४६६ ई० में एक प्रतिष्ठा समारोह भी सम्पन्न हुआ ।' पार्श्वनाथ की धातु प्रतिमा का स्थापना समारोह १४८५ ई० में शुभचन्द्र के द्वारा सम्पन्न हुआ। १४६१ ई० में रावल शिवसिंह के शासनकाल में मन्दासा स्थान पर जीवराज पापड़ीवाल ने इन्हीं के निर्देशों पर कई प्रतिमाओं का प्रतिष्ठा समारोह आयोजित करवाया।° १५१४ ई० में शुभचन्द्र ने एक यंत्र की प्रतिष्ठा करवाई।११ आंवा में जिनचन्द्र की निषेधिका उपलब्ध है। १५१८ ई० में प्रभाचंद्र की प्रेरणा से बाई पार्वती ने "यशोधर चरित्र" को प्रति लिखवाकर उनको भेंट में दी ।१२ उन्होंने कई प्रतिमाओं और यन्त्रों की प्रतिष्ठा १५१५ ई० में करवाई। प्रभाचन्द्र के उपदेश से १५१६ ई० में "चारण यन्त्र"१3 और इसी १. जैइरा, पृ० ७६ । २. वही। ३. वही, पृ०७७। ४. नाजैलेस, क्र. १६३६ । ५. वही, क्र० ६३१ । ६. अने० १३, पृ० १२६ । ७. प्रोरिआसवेस, १९०४-५, पृ० ५७ । ८. जैइरा, पृ० ७८। ९. वही, अन्य लेख । १०. वही, अन्य लेख। ११. वही, अन्य लेख । १२. प्रस, पृ० १६३ । १३. बैहरा, पृ०७१। Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२० : मध्यकालीन राजस्थान में जैनधर्म 39 वर्ष " सम्यक चरित्र यन्त्र " " की प्रतिष्ठा भी हुई । इनकी निषेधिका आँवा में है । १५१८ ई० के पश्चात् धर्मचन्द्र के काल में कई ग्रन्थों को प्रतिलिपियाँ तैयार की गई । १५३२ ई० में मूलसंघ के श्रावक तालू और वालमीता के द्वारा " सम्यक् दर्शन यन्त्र" और " षोडषकारण यन्त्र' का प्रतिष्ठा समारोह करवाया गया । १५३६ ई० में साह पासा और हेमा ने "अरहम-यन्त्र स्थापित करवाया । भट्टारक धर्मचन्द्र ललितकीर्ति और चन्द्रकीति के काल में अनेकों ग्रन्थों की प्रतिलिपियाँ मूलसंघ के श्रावकों ने तैयार करवाई | चन्द्रकीर्ति ने १५८४ ई० में साहमोका", साहकालू, साहचेला' और साहरत्ना' को उपदेशों से प्रेरित कर क्रमशः " सम्यक् दर्शन यन्त्र", " ऋणकार यन्त्र', 'करकंडु पार्श्वनाथ यन्त्र", और " दशलक्षण यन्त्र " की प्रतिष्ठा करवाई । यही नहीं, १५९१ ई० में थानसिंह ने पावापुरी में " षोडषकारण यन्त्र" की प्रतिष्ठा चन्द्रकीर्ति के उपदेश से करवाई । १५९१ ई० में ही चोखा ने अपने कुटुम्ब के साथ “सम्यक् चरित्र यन्त्र" और " सम्यक् ज्ञान यन्त्र" स्थापित करवाया । १० ( ख - २ ) नवीन संप्रदाय व पंथ : १. तारण पंथ या समैया पंथ - दिगंबर संप्रदाय में यह एक अमूर्तिपूजक वर्ग है । लोकाशाह की तरह इन्होंने भी मूर्ति पूजा की भर्त्सना की । यह पंथ तारण स्वामी के द्वारा प्रारम्भ किया गया । तारण स्वामी का जन्म १४४८ ई० और मृत्यु १५१५ ई० में हुई । तारणपंथी केवल अपने १४ शास्त्रों की पूजा करते हैं, अतः यह पंथ सिख अनुयायियों जैसा प्रतीत होता है । ये १४ शास्त्र तारण स्वामी ने स्वयं लिखे थे । इस पंथ के अनुयायी एक सरस्वती मन्दिर निर्मित करवा कर उसमें प्रतिमा के स्थान पर शास्त्रों को स्थापित करते हैं । इनका जाति भेद में भी विश्वास नहीं है तथा शूद्रों और मुसलमानों को भी इस पंथ में प्रवेश की अनुमति थी । तारण स्वामी का स्वयं एक १. जैइरा, अन्य लेख । २. वही, पृ० ८० । ३. वही, पृ० ८० । ४. वही, अन्य लेख । ५. वही, पृ० ८१ । ६. वही, पृ० ८१ । ७. वही, अन्य लेख । ८. वही, अन्य लेख । ९. वही, अन्य लेख । १०. वही, अन्य लेख । , Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनधर्म भेद और उपभेद : १२१ मुसलमान शिष्य था । बाह्य सज्जा और दिखावट के स्थान पर ये आत्मिक उन्नयन को महत्त्व देते हैं । मुसलमानों के विध्वंस से त्रस्त होकर प्रतिक्रिया स्वरूप यह पंथ उत्पन्न हुआ । राजस्थान में इसका बहुत कम प्रचार रहा । २. बोसपंथी वर्ग-इस पंथ के अस्तित्व में आने का उल्लेख १३वीं शताब्दी में मिलता है। किन्तु यह मत सत्य प्रतीत नहीं होता। सम्भवतः इस मत को उत्पत्ति तारण पंथ के प्रचार-प्रसार के समय भट्टारकों का विरोध होते समय, भट्टारक समर्थक लोगों ने की होगी । ग्लासनेप का अभिमत है कि बसन्त कीर्ति ने, एक वस्त्र से मुनियों के चर्यार्थ जाते समय आच्छादन का जो प्रावधान स्थापित किया था, उसको मानने वाले "विश्वपंथी' या 'बोसपंथी" कहलाने लगे। यह पंथ भट्टारकों के नेतृत्व में रहता है। ये भैरव आदि क्षेत्रपालों सहित तीर्थंकरों की मूर्तियाँ स्थापित करवाते हैं। ये प्रतिमाओं का पूजन फल, फूल, जल, दीप, चंदन आदि से करते हैं । बुहलर का मत है कि इस पंथ के भट्टारक भोजन करते समय पूर्णतः नग्न रहते हैं और उस समय उनका एक शिष्य घंटी बजाता रहता है, ताकि सामान्य जन वहाँ से दूर रहें । इस पंथ के अनुयायी मुख्यतः जयपुर, अजमेर, नागौर और मारोठ में पाये जाते हैं । ३. विधि मार्ग--बीसपंथी भट्टारकों के आचरण की प्रतिक्रिया स्वरूप एक नया वर्ग-विधि मार्ग अस्तित्व में आया । कुछ विद्वान् इसे तेरापंथ की संज्ञा से अभिहित करते हैं, जो उचित प्रतीत नहीं होता। वस्तुतः तेरापंथ १७वीं शताब्दी में अस्तित्व में आया। इससे पूर्व यह सुविहित विधि मार्ग ही, १५२८ ई० से प्रचलन में रहा । इस पंथ का उद्देश्य आध्यात्मिक उन्नयन तथा बीसपंथी भट्टारकों की गतिविधियों का विरोध करना था। ये मूर्ति पूजक हैं, किन्तु तीर्थङ्कर मूर्तियों के अलावा क्षेत्रपाल की मूर्ति स्थापित नहीं करते । (३) उत्तर मध्यकाल : (क) श्वेताम्बर सम्प्रदाय में भेद-प्रभेद : (क-१) प्रवर्तमान गच्छ : १. कडुआमति गच्छ-यह गच्छ कडुआशाह द्वारा १५वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में स्थापित किया गया था। इस गच्छ का उल्लेख सिरोही राज्य में थराद के जैन मन्दिरों में १६०४ ई०, १६२६ ई०, १६५१ ई० और १७२८ ई० के मूर्ति लेखों में १. जैसेस्कू, पृ० १३७ । २. इए, ७, पृ० २८॥ ३. जैसेस्कू, पृ० १३७ । Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२ : मध्यकालीन राजस्थान में जैनधर्म मिलता है।' १६२६ ई० के ओसिया अभिलेख में भी इसका नाम है । २. वृहत्तपागच्छ-इस गच्छ का उल्लेख १६०८ ई० में सिरोही राज्य में लुआणा, १७०० ई० में थराद, १७७६ ई० में जेतड़ा और १७८० ई० के भीलड़िया तीर्थ की प्रतिमाओं के लेखों में है। ३. अंचल गच्छ--अंचल गच्छ का नामोल्लेख १६०६ ई० के ३ मूर्ति लेखों में उपलब्ध हुआ है, जो सवाई माधोपुर, जयपुर और अजमेर नगरों में प्राप्त हुआ है। ४. खरतर गच्छ--राजस्थान के सर्वाधिक लोकप्रिय, इस गच्छ का उल्लेख १६०३ ई० से १६१२ ई० तक के ३ मूर्ति लेखों में भी दृष्टिगत होता है । ५. धर्मघोष गच्छ--इस गच्छ का उल्लेख उत्तरवर्ती काल में मालपुरा में मुनि सुव्रत प्रतिमा पर १६३४ ई० के मूर्ति लेख में है। ६. नागोरी तपागच्छ--हिण्डोन में श्रेयांसनाथ मन्दिर में मूलनायक प्रतिमा के १६१० ई० के लेख में इस गच्छ के चन्द्रकीति सूरि का उल्लेख है।' ७. विजय गच्छ- लोंका गच्छ से पृथक् होकर विजय मुनि ने बोजा मत स्थापित किया । उन्हीं के नाम पर विजय गच्छ प्रसिद्ध हुआ। इन्होंने कालान्तर में मूर्ति पूजा पुनः स्वीकार कर ली थी। इस गच्छ के आचार्यों द्वारा प्रतिष्ठित ३ मूर्तियाँ १६१० ई० की तथा एक १६२७ ई० की वजीरपुर, बामणवास, हिण्डोन आदि क्षेत्रों में मिलती हैं। इसके अतिरिक्त सिरोही राज्य के भारज से प्राप्त १६४२ ई० के लेख और बालोतरा से १६६१ ई० के मूर्ति लेख में भी इसका उल्लेख है ।१०।। ८. वेगड़ शाखा--खरतर गच्छ की १३६५ ई० में धर्म बल्लभ गणी द्वारा स्थापित १. श्री जैप्रलेस, क्र० २६५, १०९, १०८, २२३ एवं प्रलेस, क्र० ११६३, ११६४ ॥ २. जैइरा, पृ० ६२ । ३. श्री जैप्रलेस, क्र. ३६६, ४१, ३७०, ३७१, ३३६, ३३७ । ४. प्रलेस, क्र० १०८२, ११००-११०२। ५. प्रलेस, क्र० ११५०-११५५, ११६१, ११९६ । ६. वही, क्र० ११८७ । ७. वही, क्र० १०९२ । ८. वही, क्र० १०८९-१०९१, ११६८ । ९. नाजलेस, क्र० ७३८ । १०. वही। Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनधमं भेद और उपभेद : १२३: इस शाखा का उल्लेख १७वीं - १८वीं शताब्दी में जैसलमेर क्षेत्र में देखने को मिलता है । ९. ब्रह्माण गच्छ-- राजस्थान में इस गच्छ के उल्लेख के १६०६ ई० तक के अभिलेख प्राप्त हुए हैं । १०. रुद्रपल्लीय गच्छ - - खरतर गच्छ की इस शाखा का उल्लेख १७वीं शताब्दी अभिलेखों से भी प्राप्त होता है । अ ११. चैत्र गच्छ--- इसके नामोल्लेख के अभिलेख १७वीं शताब्दी के भी प्राप्त होते हैं । बाद में इस गच्छ की २ शाखाएँ शार्दूल शाखा और राज गच्छ अन्वय हो गईं । " १२. पालिकीय गच्छ - - पाली से उत्पन्न इस गच्छ का उल्लेख १६८६ ई० के अभिलेख में भी है । ૬ १३. विवन्दनिक गच्छ - - इसका नाम द्विवन्दनिक भी मिलता है । १७वीं व १८वीं शताब्दी के अभिलेखों में भी इसका उल्लेख है । १४. लघुपोसाल गच्छ——- देवेन्द्र सूरि द्वारा प्रवर्तित इस गच्छ का नामोल्लेख १७५८ ई० के अभिलेख में है । " १५. खरतर पिप्पल गच्छ-- खरतर गच्छ की इस शाखा का उल्लेख १७९७ ई० के एक अभिलेख से प्राप्त होता है । " १६. आचार्य गच्छ-- १८६६ ई० के जैसलमेर से प्राप्त लेख में इसका वर्णन है । १°यह भी खरतर गच्छ की एक शाखा थी । (क-२) नवीन सम्प्रदाय व पंथ : स्थानक वासी पंथ -- लोंका पंथ की स्थापना के ८ पाट तक मुनियों का शुद्धाचरण. चलता रहा । ये मुनि क्रमेण भाणा, भीदा, नूणा, भीमा, जगमाल, रिख सखोजी, . रूपजी और जीवाजी रहे । १७वीं शताब्दी के अन्त में आचरण शैथिल्य प्रारम्भ हो १. नाजैलेस, भाग ३ | २. वही, भाग २, क्र० २०९७ । ३. वही, क्र० २०२९ । ४. ए २२, पृ० २९१ । ५. जैसेस्कू, पृ० ६२ । ६. नाजैलेस, भाग १, क्र० ८२५ । ७. वही, भाग २, क्र० १६५८ । ८. जैसेस्कू, पृ० ६७ । ९. नाजैलेस, भाग २, क्र० १८२८ । १०. वही, भाग ३, क्र० २४४५ । Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४ : मध्यकालीन राजस्थान में जैनधर्म गया और चैत्यवास जैसी बुराइयाँ प्रविष्ट होने लगीं । सूरत निवासी लवजी जो मूलतः लोका गच्छ के अनुयायी थे, ने जैन मत में मुनि दीक्षा ग्रहण की। शास्त्रों के प्रतिकूल आचरण को देखकर, उन्होंने अपने गुरु से विरोध प्रकट किया। अन्ततः शास्त्रोक्त संयम पालन की प्रतिज्ञा लेकर वे अपने दो साथियों थोभण व सखिया के साथ लोंका गच्छ से पृथक् हो गये । एक ढूंढे में ठहरने के कारण लोग इन्हें 'दंढिया" कहने लगे। ये टूढिया साधु ही स्थानक में वास करने के कारण स्थानकवासी कहलाने लगे। ___इस पंथ के मुनियों ने स्वयं के जीवन में कठोर संयम पालन का आदर्श प्रस्तुत कर व्यवहारिक शिक्षा दी, जिससे यह बहुत लोकप्रिय हुआ । लोंका गच्छ के बहुत से अनुयायी स्थानकवासी हो गये। लवजी ने यह अमूर्तिपूजन पंथ १६५७ ई० में स्थापित किया । इस पट्ट की आचार्य परम्परा में धर्मदास ने स्वयं ही दीक्षा ग्रहण की। इनके ९९ शिष्य कालान्तर में २२ शाखाओं ( टोलों ) में विभक्त हो गये। अतः यह पंथ "बाईसा -सम्प्रदाय" या "बाईस टोला" भी कहलाने लगा। ये टोले इस प्रकार थे लालचन्द टोला, धनाजी टोला, मनाजी टोला, प्रीथाजी टोला, बालचन्द टोला, लोहोडा पीथाजी टोला, रामचन्द टोला, मूलचन्द टोला, ताराचन्द टोला, खेमजी टोला, पंदारथजी टोला, खेमाजी टोला, तलोकजी टोला, पदारथजी टोला, भाण्दास टोला, परसराम टोला, भवानीदास टोला, मुकुट राम टोला, मनोहर टोला, सामीदास टोला, सागजी टोला और समरथ टोला । कालान्तर में स्थानकवासियों व टोलों से भी कई शाखाएँ पृथक् होती गई । जैसे 'धनाजी टोले में रघुनाथ सम्प्रदाय, जयमल, सम्प्रदाय, रतनचन्द्र सम्प्रदाय, चौथमल सम्प्रदाय अलग-अलग हये। इसी प्रकार अन्य टोले भी कई शाखाओं में विभक्त हो गये । राजस्थान में स्थानकवासी सम्प्रदाय १७वीं व १८वीं शताब्दी में अत्यधिक लोक'प्रिय हुआ और अनेक स्थानों पर स्थानक व उपाश्रय निर्मित हुए । २. तेरापंथी समुदाय-स्थानकवासी सम्प्रदाय से ही यह तेरापंथ अलग हुआ । आचार्य धर्मदास के २२ शिष्यों में से एक धन्नोजी थे। इनकी गादी के तृतीय उत्तराधिकारी आचार्य रघुनाथ हुए। इस पंथ के संस्थापक भीखण ने रघुनाथ से ही दीक्षा प्राप्त की। पंथ के कतिपय सिद्धान्तों के सम्बन्ध में गुरु शिष्य में मतभेद पैदा हुआ, जो अन्ततोगत्वा १७६० ई० में आषाढ़ की पूर्णिमा के दिन एक नये पंथ के रूप में अस्तित्व में आया। प्रारम्भ में इस पंथ में १३ मुनि और १३ व्यक्ति थे, अतः यह तेरापंथ कहलाया। आचार्य भीखण ने तेरापंथ का अभिप्राय, "ईश्वर यह तेरा ही मार्ग है" ऐसा १. पप्रस, पृ० १४६ । २२. वही, पृ० ३११ । Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनधर्मं भेद और उपभेद : १२५ । बताया । शास्त्रों के आलोचनात्मक अध्ययन के पश्चात् इन्होंने निष्कर्ष निकाला कि जैन साधु शास्त्रोक्त नियमों के अनुसार जीवन व्यतीत नहीं करते थे । भीखण जी ने स्थानकों के अलावा अन्य स्थानों पर भी ठहरना प्रारम्भ कर दिया । एक बार कुछ साधु और उनके अनुयायी, जो संख्या में कुल १३ थे, एक दूकान में ठहरे हुए थे । इसे देखकर सेवग जाति के एक कवि ने इनका उपहास करते हुए एक दोहा रचा आप आपरो गेलो करई, ओ तेरापंथी मंत | सुण जो रे शहर रा लोगों, ओ तेरापंथी मंत ॥ किन्तु भीखण ने इसकी समुचित व्याख्या दी और कहा कि तेरह के अन्तर्गत ५ प्रतिज्ञायें ( महाव्रत ), ५ आचरण के नियम ( समिति ) और ३ गुप्तियाँ सम्मिलित हैं । तेरहपंथी मूर्तिपूजक नहीं हैं । उनके अनुसार मूर्ति पूजा से मोक्ष प्राप्त नहीं होता । वे ध्यान पर जोर देते हैं । कर्म बन्धन से मुक्त हो चुकी आत्माओं का मानसिक पूजन करते हैं । इनका विश्वास उन जीवित प्राणियों की पूजा व सम्मान में है, जिन्होंने संसार को त्याग कर पंचमहाव्रत का पालन करते हुए कठोर त्यागपूर्ण जीवन व्यतीत करने का निश्चय किया है । सभी साधु-साध्वी आचार्य के आदेशों का पालन करते हैं । इनके गणवेश स्थानकवासी साधुओं की तरह ही है, केवल मुँहपत्ती की लम्बाई में अन्तर है । इस पंथ की लोकप्रियता राजस्थान में बहुत रही तथा बीकानेर, सरदार शहर, जोधपुर, मेवाड़ आदि क्षेत्रों में यह विशेष रूप से लोकप्रिय रहा । तेरापंथ का अभ्युदय १८वीं शताब्दी तक हुये, श्वेताम्बर सम्प्रदाय के भेद-उपभेद में अन्तिम भेद माना जा सकता है | (ख) दिगम्बर सम्प्रदाय में भेद-प्रभेद : ( ख - १ ) प्रवर्तमान संघ : १. काष्ठा संघ :-- - १७वीं व १८वीं शताब्दी में यह संघ राजस्थान में अधिक प्रचलन में नहीं था । इन शताब्दियों के इस संघ के उल्लेख के बहुत कम लेख प्राप्त होते हैं | आदिश्वर मन्दिर गागरडू में स्थित अनन्त यन्त्र के १६०८ ई० के लेख में काष्ठा संघ के भट्टारक विश्वसेन के शिष्य विद्याभूषण व उनके पट्टधर श्री भूषण द्वारा सागवाड़ा में प्रतिष्ठा का उल्लेख है । १६९७ ई० में सुरेन्द्रकीर्ति के उपदेश से एक छोटा मन्दिर बनवाने का उल्लेख भी प्राप्त होता है। केसरिया जी के मन्दिर में इस संघ के उल्लेख के १६४७ ई०, १६७७ ई०, १६९१ ई०, १६९६ ई०, १६९९ ई०, १७०६ ई०, १७०७ ई०, १७०८ ई०, १७११ ई० और १७९२ ई० के १. प्रलेस, क्र० १०८४ । २. ओझा, उदयपुर राज्य, पृ० ४१ । १७०३ ई०, शिलालेख एवं Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६ : मध्यकालीन राजस्थान में जैनधर्म - मूर्तिलेख हैं, जिनमें इस संघ के कई भट्टारकों का वर्णन है । इस मन्दिर के १६२९ ई० "के लेख में काष्ठा संघीय कोडिया भीमा के पुत्र जसवन्त के द्वारा जिन मन्दिर पर कलश और ध्वजादण्ड चढ़ाने का उल्लेख है । १७०९ ई० के शिलालेख में काष्ठा संघ, नंदीतट गच्छ, विद्यागण, रामसेनान्वय के भट्टारक राजकीर्ति के शिष्य सुमतिकीर्ति के पट्टधर प्रतापकीर्ति का उल्लेख है । इसी प्रकार १६९६ ई० के लेख में काष्ठा संघ, लाड़ बागड़ गच्छ, लोहाचार्यान्वय के प्रतापकीर्ति तथा काष्ठा संघ नंदीतट गच्छ विद्यागण रामसेनान्वय के भट्टारक भीमसेन, चन्द्रकीर्ति, राजकीर्ति, लक्ष्मीसेन, इन्द्रभूषण, कमल मधुकर और - सुरेन्द्रकीर्ति का उल्लेख है । ' काष्ठा संघ के माथुर गच्छ के उत्तर मध्यकालीन आचार्य : २ सहस्त्रकीर्ति १६०६ ई०, महीचन्द्र १६८२ ई०, देवेन्द्र कीर्ति १७१३ ई०, जगत्कीर्ति - १७८५ ई० । • काष्ठा संघ के नंदीतट गच्छ के उत्तर मध्यकालीन आचार्य : १. रत्नभूषण ( १६१७ ई० ) व चन्द्रकीर्ति ( १५९७ ई० - १६२४ ई० ) २. जयकीर्ति (१६२९ ई०) व राजकीर्ति, ३. केशवसेन व लक्ष्मीसेन ( १६३९ ई० - १६४६ ई० ) ४. विश्वकीर्ति ( १६३९ ई० - १६४३ ई० ) व इन्द्रभूषण ( १६५८ ई० - १६७९ ई० ), ५. सुरेन्द्रकीर्ति ( १६८७ ई० - १७१६ ई० ) ६. लक्ष्मीसेन व विजयकीर्ति ( १७५५ ई० ) ७. सकलकीति ( १७५९ ई० ) ८. देवेन्द्र कीर्ति ( १८२४ ई० ) । २ मूलसंघ: - १७वीं व १८वीं शताब्दी में दिगम्बर सम्प्रदाय में यही सर्वाधिक लोकप्रिय संघ रहा। इसकी विभिन्न शाखाओं के कई आचार्यों ने मंदिर निर्माण, प्रतिमा निर्माण व यन्त्र प्रतिष्ठाएँ करवाई तथा अनेकों हस्तलिखित ग्रन्थों की 'प्रतिलिपियाँ तैयार करवा कर शास्त्र भण्डारों को समृद्ध किया । ईडर शाखा के उत्तर मध्यकालीन भट्टारक : १. रामकीर्ति १६०० ई० - १६१५ ई० २. पद्मनन्दी १६२६ ई० - १६४५ ई० ३. देवेन्द्रकीर्ति १६५६ ई०-१६६८ ई० ४. क्षेमकीर्ति १६७७ ई० ५. नरेन्द्रकीर्ति १७०५ ई० ६. विजयकीर्ति ७ नेमीचन्द्र ८ चन्द्रकीर्ति १७५५ ई० ९. रामकीर्ति १०. यशकीर्ति १८०६ ई० । १. भादि जैती, ४, पृ० १२४ । २. वही, पृ० १२४ । ३. वही । ४. जैसे स्कू, पृ० १०५ । Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नागौर शाखा के उत्तर मध्यकालीन भट्टारक 9: १. यशकीर्ति १६१५ ई० २. भानुकीर्ति १६३३ ई० ३. भूषण १६४८ ई० ४. धर्मचन्द्र १६५५ ई० ५. देवेन्द्रकीर्ति १६७० ६. सुरेन्द्र कीर्ति १६८१ ई० ७. रत्नकीर्ति १६८८ ई० । ई० अजमेर पट्ट के उत्तर मध्यकालीन भट्टारक' : १. रत्नकीर्ति १. विद्यानन्द १७०९ ई० ३. अनन्तकीर्ति १७१६ ई० ५. भवन भूषण १७४० ई० ७. ज्ञान भूषण ८. चन्द्र कीर्ति ९. पद्मकीर्ति १०. पद्मनन्दी दिल्ली जयपुर शाखा के उत्तर मध्यकालीन भट्टारक : १. जैसे स्कू, पृ० १०० ॥ २. वही, पृ० १०१ । ३. वही, पृ० ९८ । ४. प्रलेस, क्र० १०२७, १०७३ । जनधर्मं भेद और उपभेद : १२७ १. देवेन्द्रकीर्ति १६०६ ई० २. नरेन्द्रकीर्ति १६३४ ई० ३. सुरेन्द्रकी र्ति १६६५ ई० ४. जगत्कीर्ति १६७६ ई० ५. देवेन्द्र कीर्ति द्वितीय १७१३ ई० ६. महेन्द्रकीर्ति १७३३ ई० ७. क्षेमेन्द्रकीर्ति १७५८ ई० ८. सुरेन्द्रकीर्ति द्वितीय १७६५ ई० सुखेन्द्र कीर्ति १७९५ ई० । जयपुर के सुमतिनाथ मन्दिर में पार्श्वनाथ की दो प्रतिमाएँ हैं, जिन पर १६०१ के लेख हैं । पहली प्रतिमा पर केवल मूल संघ व दूसरी पर मूल संघ के भट्टारक चन्द्रकीर्ति का उल्लेख है ।४ १६०४ ई० में हंस ने अपनी पत्नी व पुत्र के साथ षोडष- कारण यन्त्र की स्थापना करवाई ।" मूल संघ के पद्मनन्दी द्वितीय के उपदेश से रतना ने प्रतिष्ठा समारोह आयोजित करवाया था । १६३९ ई० में क्षेमकीर्ति के उपदेश से - मूल संघ के श्रावकों ने शांतिनाथ की प्रतिमा बनवाई । १६०३ ई० में साह जूटा ̈ और साह जुंगा' ने चन्द्रकीर्ति के द्वारा घातु प्रतिमा की प्रतिष्ठा और षोडषकारण यन्त्र की स्थापना पृथक्-पृथक् करवाई । १६०१ ई० में अजमेर के बोहित ने अपने पुत्र और पोतों के साथ चौबीसी स्थापित की । १६०४ ई० में आसानाथ ने चन्द्रकीर्ति से ॠणकार ५. जैइरा, पृ० ७७ । ६. अने, १३, पृ० १२७ ॥ ७. जैइरा, पृ० ८१ । ८. वही, पृ० ८२ । ९. वही, पृ० ८२ । महेन्द्रकी र्ति १७१२ ई० ४. ६. विजयकीर्ति १७४५ ई० ११. सकल भूषण । Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८ : मध्यकालीन राजस्थान में जेनधमं यन्त्र की प्रतिष्ठा करवाई । चन्द्रकीर्ति चातसू में थे । २ लिखित प्रतियाँ भेंट में दो । ३ १६४९ ई० में नरेन्द्रकीर्ति ने चातसू के नेमिनाथ मन्दिर में एक स्तम्भ स्थापित करवाया । १६५२ ई० में नेवता के संघी तेजसो और उदयकरण ने गिरनार में यन्त्र की प्रतिष्ठा नरेन्द्र कीर्ति के माध्यम से सम्पन्न की । १६५३ ई० में संघी शंभु और नादा ने दश लक्षण यंत्र की प्रतिष्ठा इनसे करवाई । १६५४ ई० में जगतसिंह ने हस्तिनापुर के सम्यक यंत्र की स्थापना की । १६५९ ई० में जगत सिंह ने ऋणकार यंत्र का स्थापना समारोह आयोजित करवाया ।" आमेर के मूल संघी श्रावक खेमसिंह ने हस्तिनापुर में ऋणकार यन्त्र की प्रतिष्ठा नरेन्द्रकीति से सम्पन्न करवाई । " १६७२ ई० में संघी नरहरिदास और पूर्वानन्द ने सम्मेद शिखर में दशलक्षण यन्त्र का स्थापना समारोह सुरेन्द्रकीर्ति की प्रेरणा से करवाया । १६७५ ई० में उन्होंने ही परर्श्वनाथ यन्त्र की प्रतिष्ठा की ।" सुरेन्द्रकीर्ति के उत्तराधिकारी जगत्कीर्ति ने कई ग्रन्थों की प्रतिलिपियाँ करवाई । १२ १६८९ ई० में संघी सोनपाल ने करवर में इनसे यन्त्र की प्रतिष्ठा करवाई । १३१६८९ ई० में ही चांदखेड़ी में संघी कृष्णदास द्वारा कई प्रतिमाओं का प्रतिष्ठा समारोह इन्हीं के माध्यम से आयोजित करवाया गया । १४ १७१६ ई० में धोलेता नामक स्थान पर कुछ प्रतिमाओं का स्थापना समारोह देवेन्द्रकीति १० १६०४ ई० के स्तम्भ लेख से ज्ञात होता है कि उस समय देवेन्द्रकीति को कई श्रावकों ने विभिन्न ग्रन्थों की हस्त १. जैइरा । २. एरिराम्यूअ १९२७-२८, पृ० ११ । ३. प्रस, पृ० ७६, ८९, २८, १८९-९० । ४. एरिराम्यूअ १९२७-२८, क्र० १२ । ५. जैइरा, पृ० ८२ । ६. वही । ७. वही, पृ० ८३ ॥ ८. वही । ९. वही । १०. वही । ११ वही । १२. प्रस, पृ० ४२९, १७४ ॥ १३. जैइरा, पृ० ८४ । १४. वही । Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनधर्म भेद और उपभेद : १२९ के द्वारा छीहद और सगमल नामक श्रावकों ने करवाया ।' १७२६ ई० में बाँसखोह नामक स्थान पर हृदयराम द्वारा प्रतिमाओं का प्रतिष्ठा समारोह इन्हीं की प्रेरणा से आयोजित किया गया । देवेन्द्र कीर्ति के पश्चात् महेन्द्र कीर्ति ने सांगानेर से अपनी पीठ आमेर में स्थापित की। इनके भक्तों ने १७३६ ई० में "जम्बू स्वामी चरित्र" और १७४१ ई० में त्रिलोकदर्पण' को प्रतिलिपियाँ तैयार करवाई। १७६९ ई० में सवाई माधोपुर में सुरेन्द्र कीर्ति के उपदेशों से संघो नन्दलाल द्वारा बड़े पैमाने पर प्रतिमाओं का प्रतिष्ठा समारोह आयोजित हुआ। मूल संघ के नागौर पट्ट के भट्टारक यशकीर्ति के उपदेश से १६०४ ई० में रेवांसा में आदिनाथ मन्दिर रायसाल के प्रधानमन्त्री देवीदास के दो पुत्रों, साह जीतमल और नथमल ने बनवाया था। १६१५ ई० में रेवांसा के पंचों द्वारा यशकीर्ति को एक सिंहासन भेंट में दिया गया था। १६९४ ई० में अजमेर पट्ट के रत्नकीति के उपदेश से जोबनेर में संघी जेसा के द्वारा प्रतिमाओं का प्रतिष्ठा समारोह इन्हीं के द्वारा करवाया गया। १७३७ ई० में रामसिंह द्वारा आचार्य अनन्तकीर्ति से प्रतिमाओं का प्रतिष्ठा समारोह आयोजित करवाया गया। १७९५ ई० में धर्मदास ने भट्टारक भुवनकीर्ति से बड़े पैमाने पर प्रतिमाओं का प्रतिष्ठा समारोह सम्पन्न करवाया।" केसरियाजी तीर्थ पर मूल संघ के भट्टारकों की गादी रही है। इस मन्दिर में मूल संघ के आचार्यों ने अनेकों मूर्तियों की प्रतिष्ठा करवाई। यह तथ्य १६५४ ई०, १६८५ ई०, १६८९ ई०, १७१० ई०, १७११ ई०, १७१२ इं०, १७१६ ई० और १८०६ ई० की मूर्तियों के लेखों से ज्ञात होता है ।१२ १. जैइरा, जयपुर चौधरी मन्दिर का लेख । २. वही, पृ० ८४ । ३. प्रस, पृ० ४८ एवं ५६ । ४. वही, पृ० २१४ । ५. वही, पृ० २१९ । ६. जैइरा, पृ० ८४ । ७. एरिराम्यूअ, १९३४-३५ । ८. जैइरा, पृ० ८५ । ९. वही, पृ० ४८। १०. वही, पृ० ४३ । ११. वही, पृ० ८६ । १२. भादिजैती, पृ० १२४ । Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३० : मध्यकालीन राजस्थान में जैनधर्म (ख-२) नवीन सम्प्रदाय व पंथ : १. तेरापंथ---मध्यकाल में विधि मार्ग नाम से प्रचलित पंथ ही सम्भवतः कालांतर में तेरापंथ के नाम से जाना जाने लगा। यह पंथ सांगानेर के निवासी पं० अमरचन्द बड़जात्या के द्वारा १७वीं शताब्दी में स्थापित किया गया है, जो राजस्थान में तेजी से लोकप्रिय हुआ। तेरापंथियों ने भट्टारकों के अत्यधिक संस्कारों और कर्मकांडों के प्रति विरोध प्रकट किया। बनारसीदास, जो आगरा के अप्रतिम विद्वान् और समाज सुधारक थे, ने इस पंथ को प्रचारित करने में बहुत सहयोग दिया। यहाँ तक कि यह बनारसी मत भी कहा जाने लगा । तेरापंथ को व्याख्या यह कहकर की जाती है कि यह पंथ आत्मानुशासन और चरित्र निर्माण के १३ बिन्दुओं पर जोर देता है। जबकि अन्य लोगों ने यह मत व्यक्त किया है कि यह नाम विरोधियों ने उपहास के रूप में दिया था। तेरापंथियों को भट्टारक वर्ग नीची दृष्टि से देखता है, ठीक वैसे ही जैसे कि श्वेताम्बर तेरापंथियों को यति व श्रीपूज्य वर्ग हेय मानता है। बख्ताराम ने "बुद्धिविलास" में लिखा है कि इस पंथ के, मूल धार्मिक मत से १३ बिन्दुओं पर विचार पार्थक्य रखने से इसका नाम तेरापन्थ हुआ। तेरापंथी, भट्टारकों के शासन और उच्चस्थिति को अस्वीकार करते हैं । दिगम्बर तेरापंथी मूर्ति पूजक वर्ग है। ये मूर्ति पूजा में पुष्प, फल, चंदन, प्रक्षाल आदि का प्रयोग नहीं करते, क्योंकि इनमें हिंसा निहित है। ये मूर्ति पूजा चावल, लौंग, बादाम, खोपरा आदि शुष्क मेवों से करते हैं। नाथूराम प्रेमी के अनुसार श्वेताम्बर तेरापंथ के साथ ही दिगम्बर तेरापंथ का उदय हुआ। जिस प्रकार स्थानकवासियों से श्वेताम्बर तेरापंथी उदित हुए, उसी प्रकार भट्टारकों से दिगम्बर तेरापंथ उदित हुआ । दिगम्बर और श्वेताम्बर तेरापंथ एक दूसरे से पूर्णतया भिन्न हैं । दिगम्बर पंथ मूर्तिपूजक है । इसी प्रकार दिगम्बर तेरापंथ नग्नता का पक्षधर है, जबकि श्वेताम्बर तेरापंथ नहीं ।२ २. गुमानपंथी वर्ग-यह पंथ जयपुर निवासी पंडित टोडरमल के पुत्र गुमानी राम के द्वारा प्रवर्तित किया गया। इस पंथ के अनुसार जैन मन्दिरों में दिया-बत्ती करना पूर्णतः निषिद्ध है, क्योंकि यह कृत्य जैनधर्म के अहिंसा के मूलभूत सिद्धान्त के विपरीत है । इस मत के अनुयायी केवल मन्दिर जाते हैं और मूर्तियों को देखते हैं, कोई भेट नहीं चढ़ायी जाती । यह पंथ लगभग १७६१ ई० में अस्तित्व में आया और इस शताब्दी में ही खूब प्रचारित हुआ । यह शुद्ध आम्नाय के नाम से भी प्रसिद्ध हुआ, क्योंकि इसके अनुयायी आत्मानुशासन, आचरण की पवित्रता और नियमों पर अत्यधिक जोर देते हैं। १. जैसाओइ, पृ० ३६७ । २. वही Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनधर्म भेद और उपभेद : १३१ यह पंथ राजस्थान के कई भागों विशेषतः जयपुर, मारोठ, भादवा आदि क्षेत्रों में फैला । ३. तोतापंथी वर्ग-बीस पंथ और तेरापंथ के संघर्ष के परिणामस्वरूप इस पंथ का उदय हुआ। बीस पंथ और तेरापंथ में समझौते के कई प्रयास किये गये, जिससे यह मध्य मार्ग अर्थात् साढ़े सोलह पंथ या तोतापंथ पैदा हुआ। इस पंथ के अनुयायी बीस पंथ और तेरापंथ दोनों के थोड़े-थोड़े सिद्धान्त मानते हैं । यह वर्ग केवल नागौर तक ही सोमित रहा। निष्कर्ष एवं समालोचना : १. श्वेताम्बर सम्प्रदाय के पूर्वोक्त गच्छ भेदों के अध्ययन से ज्ञात होता है कि ये मूलतः निम्न कारणों से अस्तित्व में आये : (क) प्रान्तों या क्षेत्रों के नाम पर, जैसे-गुजरातो लोंका आदि । (ख) स्थानों के नामों के आधार पर, जैसे-मदार से मदाहड गच्छ, नाणा से नाणावाल गच्छ, काछोली से काछोली गच्छ, भीनमाल से भीनमाल गच्छ, पाली से पल्ली गच्छ आदि । (ग) जातियों के आधार पर, जैसे-ओसवाल गच्छ, पल्लीवाल गच्छ, हुँबड गच्छ आदि । (घ) संस्थापक आचार्यों के नाम पर, जैसे-देवाचार्य गच्छ, धर्मघोष गच्छ, धनेश्वर गच्छ, लोंका गच्छ आदि । (ङ) विशिष्ट घटना या संयोग से उद्भूत, जैसे-वड गच्छ, तपा गच्छ, खरतर गच्छ आदि । (च) विशिष्ट धार्मिक संस्कारों के आधार पर, जैसे-अंचल गच्छ, विधि पक्ष, आगमिक गच्छ आदि । - २. गच्छों का निर्माण व साम्प्रदायिक विभेद की प्रक्रिया पूर्व मध्यकाल में प्रारम्भ हुई, जो निरन्तर वृद्धिशील रही। इस काल में गच्छोल्लेख के अभिलेखीय प्रमाण कम उपलब्ध होते हैं, अतः यह गच्छों का उत्पत्ति काल रहा। ३. मध्यकाल में १३वीं से १६वीं शताब्दी तक गच्छों के विपुल अभिलेखीय प्रमाण उपलब्ध होते हैं, जिससे सिद्ध होता है कि इनके अनुयायी अधिक संख्या में थे तथा ये लोकप्रिय भी थे । गच्छों की अधिक संख्या यह इङ्गित करती है कि राजस्थान में जैन मतावलम्बो अधिक संख्या में थे, तभी इतने गच्छभेद पोषित होते रहे और जीवित रह सके । यह गच्छोत्कर्ष काल रहा । ४. मध्यकाल में उत्पन्न लोंका गच्छ अत्यधिक लोकप्रियता के कारण पृथक पंथ ही बन गया जबकि इसी से पृथक हुआ "बीजा मत" विजय गच्छ के रूप में सीमित हो गया। मुस्लिम विध्वंस व धर्मान्तरण के कारण शताब्दियों से चली आ रही मूर्तिपूजा Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३२ : मध्यकालीन राजस्थान में जैनधर्म की परम्परा का विरोध हुआ और अमूर्ति पूजक सम्प्रदाय अस्तित्व में आये, जिन्हें के० सी० जैन ने "प्रोटेस्टेन्ट" समुदाय को संज्ञा से अभिहित किया है।' ५. उत्तर मध्यकाल में स्थानकवासी मत व तेरापंथी मत अस्तित्व में आकर राजस्थान में अत्यधिक प्रभावशाली रहे, क्योंकि इस काल में मूर्तियों की प्रतिष्ठा में कमी आ गई तथा मध्यकाल में अस्तित्वमान गच्छों का उल्लेख भी लेखों में मिलना कम हो गया। इस काल को गच्छों का ह्रास काल व नवोदित पंथों का प्रसार काल माना जा सकता है। ६. गणों के स्थान पर गच्छों का प्राधान्य रहा व गण शब्द लुप्तप्राय हो गया। ७. गच्छों की उत्पत्ति के कारणों पर प्रकाश डालने वाले अभिलेखीय व साहित्यिक साक्ष्य बहुत कम हैं। ८. विभिन्न गच्छों में सैद्धान्तिक, शास्त्रीय या दार्शनिक आधारों पर भेद करना कठिन है, जबकि सम्प्रदाय या पंथों के सन्दर्भ में यह सम्भव है। ९. अधिकांश गच्छ राजस्थान व उत्तरी गुजरात में उत्पन्न हुए। १०. विविध गच्छों के आचार्यों ने जैन साहित्य और संस्कृति-प्रसार के क्षेत्र में विशिष्ट योगदान दिया । सम्भवतः विविध गच्छों में परस्पर प्रतिस्पर्धा होने से भी एतदर्थ जागरूकता रही। ११. मध्यकालीन साहित्य एवं अभिलेखों में उल्लिखित यापनीय संघ का राजस्थान में उल्लेख प्राप्त नहीं होता। १२. पूर्व मध्यकाल में दिगम्बर सम्प्रदाय में माथुर संघ, देवसेन संघ व मूल संघ का ही अस्तित्व देखने को मिलता है। यद्यपि ये पहले से ही अस्तित्व में थे, किन्तु राजस्थान में इनका प्रचलन ११वीं शताब्दी से हुआ। अतः इस काल को संघों का उदयकाल या परिचय काल माना जा सकता है। १३. मध्यकाल में अनेकों संघ भेदों में से राजस्थान में केवल मूल संघ व काष्ठा संघ ही अस्तित्व में थे। माथुर संघ की लोकप्रियता उत्तरोत्तर क्षीण हुई और यह काष्ठा संघ का एक गच्छ बनकर रह गया । काष्ठा संघ भी वागड़ प्रदेश और केसरिया जी में गादी होने के कारण अस्तित्व में रहा । मूल संघ दक्षिणी, पूर्वी व मध्य राजस्थान में ही प्रचलन में रहा । अरावली के पश्चिम में, इस उत्कर्ष काल में भी इसका अस्तित्व स्थापित नहीं हुआ। १४. सामान्य मतभेदों के अतिरिक्त मुस्लिम आक्रमण भी विभिन्न संघों की गादियों के स्थानान्तरण के लिये उत्तरदायी था। १५. मध्यकाल में मुस्लिम आक्रमणों, विध्वंस एवं बलपूर्वक धर्म प्रचार की प्रतिक्रिया स्वरूप दिगम्बर सम्प्रदाय में भी तारणपंथ आदि अस्तित्व में आये । १. जैइरा, पृ० ९० । Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनधर्म भेद और उपभेद : १३३ १६. मध्यकाल में भट्टारकों, आचार्यों व पंडितों ने महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह किया। इस काल में अराजकता, हिंसात्मक वातावरण, लूटपाट व विध्वंस के बावजूद भी धर्म प्रचार जारी रहा। इनमें से कुछ, सकलकीर्ति और शुभचन्द्र आदि उद्भट विद्वान् थे । इनका सबसे अमूल्य योगदान पांडुलिपियों को सुरक्षित बचाये रखने और एतदर्थ ग्रन्थों की कई-कई प्रतियां तैयार करवाने की दृष्टि से रहा । १७. भट्टारकों के मठ सांस्कृतिक केन्द्र थे, जहाँ संगीत, चित्रकला, मूर्तिकला, नृत्य आदि शास्त्रीय कलाओं को संरक्षण प्राप्त था । १८. उत्तर मध्यकाल में तेरापंथ, गुमानपंथ, तोतापंथ आदि के उदय से भट्टारक परम्परा को क्षति हुई और संघों का वर्चस्व कुछ कम हो गया। १९. श्वेताम्बर सम्प्रदाय की भाँति राजस्थान में दिगम्बर सम्प्रदाय में अधिक भेद देखने को नहीं मिलते । इससे सिद्ध होता है कि राजस्थान में श्वेताम्बर मतानुयायी अधिक थे । दिगम्बर सम्प्रदाय का प्रचलन यहाँ प्रारम्भ से ही कम रहा प्रतीत होता है क्योंकि सभी संघ भेद यहाँ कभी अस्तित्व में नहीं रहे। श्वेताम्बर सम्प्रदाय में चैत्यवासियों के विरुद्ध जो विद्रोह ११वीं व १२वीं शताब्दी में प्रारम्भ हो गया था, वह भट्टारकों के विरुद्ध १६वीं व १७वीं शताब्दी में पराकाष्ठा पर देखने को मिलता है । २०. श्वेताम्बर आचार्यों की तुलना में दिगम्बर आचार्यों में व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा और वर्चस्व कायम रखने की भावना कम दिखाई देती है, क्योंकि दिगम्बर सम्प्रदाय में व्यक्तिगत नामों पर आधारित भेद-प्रभेद बहुत कम अस्तित्व में आये, जबकि श्वेताम्बर गच्छों में इनकी भरमार है। (स) जैन जातियाँ एवं गोत्र : उत्तरी भारत में जैन मतानुयायियों में पाई जाने वाली अधिकांश जातियों का उत्पत्ति स्थान राजस्थान है । इनमें से भी अधिकांश का उत्पत्ति स्थान, तरीका और काल, रहस्य के आवरण में छुपा हुआ है एवं इनकी प्राचीनता को सिद्ध करने वाली मात्र अनुश्रुतियाँ ही हैं । वस्तुतः जातियों एवं गोत्रों का नामोल्लेख ७वीं शताब्दी के पूर्व कहीं देखने को भी नहीं मिलता है। पृष्ठभूमि : ऐतिहासिक दृष्टिकोण से ये जातियां ८वीं से १३वीं शताब्दी के मध्य अस्तित्व में आई होंगी, क्योंकि यह काल ही राजस्थान में जैन धर्म का स्वर्णयुग था। इस काल में कई प्रभावशाली जैनाचार्य हुए, जिन्होंने असंख्य राजपूतों, ब्राह्मणों और वैश्यों को जैन मत में धर्मान्तरित किया। यह युग राजस्थान में प्रचुर सम्पन्नता का था। ओसियां, मंडोर, खंडेला, किराडू, भीनमाल, जालौर, आहड़, चित्तौड़, बसन्तगढ़, दोहद, चन्द्रावती, बयाना, नगर, शेरगढ़, अटरू, सांभर, चातसू, लाडनू, नागौर, डीडवाना, मेडता Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३४ : मध्यकालीन राजस्थान में जैनधर्म आदि श्री सम्पन्न एवं व्यापारिक महत्व के नगर थे । हरिभद्र सूरि को "समराइच्चकहा " (८वीं शताब्दी) और उद्योतन सूरि की " कुवलयमाला" (७७८ ई०) में इस काल की व्यापारिक समृद्धि का अच्छा वर्णन है । जैन राजनीतिज्ञों जैसे – विमल, वस्तुपाल आदि ने भी जैन मत का प्रचार, प्रसार किया । व्यापारियों एवं श्रेष्ठी वर्ग ने आर्थिक सहयोग देकर मन्दिर, मूर्तियाँ आदि निर्मित करवाई और जैन धर्म की प्रभावना एवं प्रसार में जैनाचार्यों को सहयोग दिया । भिन्न-भिन्न कालखंडों में जैन मत में दीक्षित होकर आये जनसमूह, विभिन्न आधारों पर जातियों एवं गोत्रों का सृजन करते रहे । पूर्व मध्यकाल में जातियों के उत्पन्न होने के लिये बहुत उपयुक्त वातावरण भी था । जैन मत के आचार्य स्वयं व्यक्तिगत आकांक्षाओं एवं छोटी-छोटी बातों के आधार पर अलगाव के शिकार हो रहे थे । नये-नये गण-गच्छ पैदा हो रहे थे । अतः स्वाभाविक है कि श्रावक समूह पर इसका प्रभाव रहा हो, जो कई जातियों एवं गोत्रों के रूप में परिलक्षित होता है । धार्मिक भेदों की तरह जातियाँ एवं गोत्र भी शनैः शनैः अस्तित्व में आये । मध्यकाल में मुस्लिम विध्वंस की पराकाष्ठा के कारण धर्मान्तरण व आवासप्रवास अधिक होने से विभिन्न व्यवसाय, स्थानों एवं कुलों के समूहों ने इन आधारों पर ही अपने गोत्रों का नामकरण कर लिया । मध्यकाल में गोत्रों की उत्पत्ति बहुसंख्य एवं पराकाष्ठा पर रही। उत्तर मध्यकाल में अधिकांश गोत्र एवं जातियाँ सुस्थापित एवं दृढ़ हो गई थीं, अतः नये गोत्रादि कम पैदा हुये । राजपूत मूलतः क्षत्रिय जाति रही है, जिसका धर्म ही युद्धरत रहना रहा है । मध्यकाल में हिंसा व युद्ध की विभीषिका से बचने का सुगम उपाय अहिंसक जैन मत की शरण ग्रहण करना था, अतः अधिसंख्य क्षत्रिय जैन बने । यहीं नहीं, जैन एक श्रीसम्पन्न समुदाय व वाणिज्यिक कर्मी वर्ग था, जिसकी समाज व राजदरबारों में उत्तम प्रतिष्ठा भी थी । जैनाचार्यों की राजाओं एवं समाज में अच्छी छवि थी, अतः ऐसे उत्तम धर्म व समाज से जुड़ना अन्य वर्गों के लिये कतई हानिप्रद नहीं था, अपितु लाभदायक ही था । सामाजिक, राजनैतिक, धार्मिक, आर्थिक और पारिस्थितिक अनुकूलता के धरातल पर जैनाचार्यों के प्रयासों से जिन जातियों के बीज पूर्व मध्यकाल में बोये गये, वे मध्यकाल में गोत्रों के रूप में पुष्पित, पल्लवित हुये, जिनका सौरभ असंख्य अभिलेखों व प्रशस्तियों में बिखरा पड़ा है । उत्तर मध्यकाल में भी यह सौरभ चिरस्थायी बना रहा । (१) ओसवाल : यह राजस्थान में ही नहीं अपितु सम्पूर्ण भारत में श्वेताम्बर सम्प्रदाय की प्रमुख जाति है । अभिलेखों में इसके लिये उपकेश, उवेश, उवेशवाल, उपकेश वंश, उसवाल आदि शब्दों का प्रयोग भी देखने को मिलता है । वाणिज्यिक, प्रशासनिक, राजनैतिक Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनधर्म भेद और उपभेद : १३५ और जीवन के विविध क्षेत्रों में यह वर्ग उच्च स्थानों पर प्रतिष्ठित है । इसकी उत्पत्ति मारवाड़ के ओसियाँ नामक स्थान से मानी जाती है। श्रीमाल के राज्य परिवार के एक वंशज उप्पलदेव यहाँ के प्रतिहार शासक के पास शरणागत होकर आये और कालान्तर में यहीं के शासक हो गये । संयोग से जैन मुनि रत्नप्रभ सूरि इस स्थान पर आये, उस समय उप्पलदेव के एकमात्र पुत्र को सर्प ने डस लिया था । राजा ने मुनि से प्रार्थना की और आचार्य ने चमत्कारिक ढंग से राजकुमार को स्वस्थ कर दिया । कृतज्ञ राजा ने अपनी प्रजा के साथ जैन धर्म ग्रहण कर लिया और रत्नप्रभ सूरि ने उस समूह को ओसवाल जाति की संज्ञा प्रदान की। इस घटना के काल निर्धारण और ओसवाल जाति की उत्पत्ति के सम्बन्ध में विभिन्न मत हैं।' (क) "नाभिनंदनोद्धार-प्रबंध" और "उपकेश गच्छ चरित्र" के अनुसार पार्श्वनाथ अनवय के सातवें पट्टधर रत्नप्रभ सूरि ने ओसवंश की स्थापना ईसा पूर्व ४५७ में की। (ख) भाटों की राय के अनुसार ओसवाल जाति अठारह गोत्रों के साथ रत्नप्रभ सूरि के उपदेशों के प्रभाव से मारवाड़ में उपकेश नगर में १६५ ई० में स्थापित की गई थी। (ग) “पट्टावलि-प्रबन्ध" के अनुसार ११२४ ई० में उचित सूरि हुये, इनके समय से धर्मघोषीय गण उचितवाल कहा जाने लगा और इनसे प्रतिबोध पाये गये श्रावक इस समय ओसवाल कहलाते हैं ।२ (व) उक्त तीनों मत सही प्रतीत नहीं होते, क्योंकि ८वीं शताब्दी के पूर्व इस जाति का कहीं उल्लेख नहीं मिलता और “पट्टावलि-प्रबन्ध" बहुत बाद में लिखी गई थी। उचित मत यही है कि राजा उप्पलदेव और उसको प्रजा रत्नप्रभ सूरि के द्वारा जैन मत में धर्मान्तरित किये गये और ओसवाल जाति ८वों से १०वीं शताब्दी के मध्य निर्मित हुई। ओसवालों के गोत्र : धर्मान्तरण के पश्चात् ओसवाल संख्या में बढ़ते गये । यह संख्या वृद्धि तेजी से हुई, क्योंकि अब ये युद्ध प्रिय जाति में नहीं थे तथा युद्ध न होने के कारण जनक्षति भी नहीं हुई थी। खरतर गच्छ के विभिन्न आचार्य मुख्यतः वर्धमान सूरि, जिनेश्वर सूरि, अभयदेव सूरि, जिनवल्लभ सूरि, जिनदत्त सूरि, जिनचन्द्र सूरि, जिनपति सूरि, जिन कुशल सूरि, जिनभद्र सूरि आदि १२वीं से १४वीं शताब्दी के मध्य विभिन्न परिवारों १. जैइस, पृ० ९४॥ २. पप्रस, पृ० १४ । ३. जैइरा, पृ० ९४ । Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३६ : मध्यकालीन राजस्थान में जैनधर्म को जैन मत में दीक्षित किये गये जन समूहों के माध्यम से नये गोत्रों का सृजन करते रहे । प्रारम्भ में ओसवाल जाति के कुल अठारह गोत्र थे, जो इस प्रकार हैं तातहड़, बाफना, करणाट, बलहारा, मोराक्ष, कूलहट, बिरहट, श्री श्रीमाल, श्रेष्ठी, सुचिन्ती आइचनांग, भूरि, भाद्र, चिंचट, कुम्मट, डिन्डू, कनौज और लघु श्रेष्ठी। इन अठारह गोत्रों से कालान्तर में अनेक शाखाएं निकलीं, जिनकी संख्या इस प्रकार है तातेड़ से २२, बाफना से ५२, करणाट से १४, बलहारा से २६, मोराक्ष से १७, कुलहट से १८, बिरहट से १७, श्री श्रीमाल से २२, श्रेष्ठी से ३०, संचेती से ४४, आदित्यनाग से ८५, भूरि से २०, भद्र से २९, चिंचट से १९, कुम्मट से १९, डिन्डू से २१, कनौजिया से १७ और लघु श्रेष्ठी से १६ । इस प्रकार कुल ४९८ गोत्र हुये । यह भी कहा जाता है कि ओसवालों के १४४४ गोत्र हैं, वस्तुतः ये गोत्र नहीं हैं, अपितु शाखाएँ व उपशाखाएँ हैं । यति श्रीपाल की पांडुलिपि के अनुसार ६०९ गोत्र वणित हैं । १८वीं शताब्दी के कवि रूपचन्द्र ने अपनी पुस्तक "ओसवाल रास" में ४४० गोत्रों का वर्णन किया है।४ इन बहुसंख्यक गोत्रों में से कुछ स्थानाधारित, कुछ व्यक्ति निष्ठ और कुछ व्यवसायिक हैं । (क) क्षेत्रीय-प्रादेशिक या स्थानिक गोत्र : कुछ गोत्र उत्पत्ति स्थान के आधार पर नामांकित किये गये । १११६ ई० में जिनदत्त सूरि ने जैसलमेर के भंडसाल के भाटो रावल सागर के दो पुत्रों-श्रीधर और राजधर को वासक्षेप देकर महाजन वंश और भंडसाली गोत्र में स्थापित किया, जिससे भंसाली गोत्र अस्तित्व में आया ।५ १५४२ ई० में इस गोत्र के साह वीद्रक ने जैसलमेर में चन्द्रप्रभु की प्रतिष्ठा समारोह जिनप्रभ सूरि के द्वारा आयोजित करवाया था। सिरोही के कांछोला गाँव के आधार पर १३वीं शताब्दी के प्रारम्भ में कांछोली गोत्र निर्मित हुआ । १२८६ ई० में इस गोत्र के अजयसिंह ने स्थानीय मन्दिर में पार्श्वनाथ प्रतिमा स्थापित करवाई थी। मारवाड़ के कोरंत नामक स्थान से कोरंत गोत्र उत्पन्न १. जैसंशि, पृ० ६२० । २. ज्ञान सुन्दर, जैन जाति महोदय, पृ० २५ । ३. जैसंशि, पृ० ६५६ । ४. जैन भारती, ११, सं० ११ । ५. नाजैलेस, ३, पृ० २८ । ६. वही, क्र० २३२८ । ७. अप्रजलेस, क्र० ६११ । Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनधर्म भेद और उपभेद : १३७ हुआ। १४५० ई० में इस गोत्र के साह वीसल ने सुमतिनाथ की प्रतिमा की प्रतिष्ठा कक्क सूरि के द्वारा करवाई थी।' पूंगल क्षेत्र के कुछ ओसवाल अन्यत्र प्रवासित होकर बस गये और पंगल ही कहलाने लगे। मेड़तवाल गोत्र मेड़ता नगर के नाम पर अस्तित्व में आया । इस गोत्र के उल्लेख के १६वीं शताब्दी के लेख मेड़ता और उदयपुर में उपलब्ध हैं। कन्नौज से आने वाले ओसवाल कन्नौजिया गोत्र के हुये । १५०२ ई० में इस गोत्र के साखेड़ा ने अपने पिता की स्मृति में शीतलनाथ बिम्ब की प्रतिष्ठा करवाई। कांकरिया गोत्र कांकरावत के रहने वाले भीमसी के द्वारा उत्पन्न किया गया ।४ ये उदयपुर के महाराणा के सामन्त थे और खरतर गच्छ के जिन वल्लभ सूरि द्वारा जैन धर्म में दीक्षित हुए थे। अलवर से प्राप्त १४४२ ई० के एक लेख में इस गोत्र का उल्लेख मिलता है।" (ख) व्यावसायिक गोत्र : कतिपय गोत्र व्यवसायों के आधार पर उत्पन्न हये । ११५५ ई० में जिन वल्लभ सूरि के प्रतिबोध से खींची राजपूत डोंडो, जिसका व्यवसाय धाड़ा मारना था, महाजन वंश में दीक्षित हुआ, जिससे धाड़ीवाल गोत्र स्थापित हुआ । रावचूड़ा ने अपना कोठार ठाकरसी को संभलाया, अतः ठाकरसी के वंशज कोठारी कहे जाने लगे। १४५६ ई० के अभिलेख के अनुसार इस गोत्र के मेघ ने वासुपूज्य बिम्ब विनयप्रभ सूरि के माध्यम से स्थापित किया। खजाने के प्रभारी खजान्चो गोत्र के हो गये । भण्डारियों के पूर्वज द्रदराव थे। ९९२ ई० में इन्होंने संडेरक गच्छ के यशोभद्र सूरि से जैनधर्म ग्रहण किया। भण्डार के अधिकारी होने के कारण इनके वंशज भण्डारी गोत्र के हुये । ११३२ ई० के नडलाई से प्राप्त इस गोत्र के प्रारम्भिक लेख में भण्डारी नानाशिव के किसी अनुदान की गवाही देने का उल्लेख है। ११८४ ई० के लेख में पल्लगाँव के मालिक भण्डारी यशोवीर का उल्लेख है।' ११८५ ई० के जालौर लेख के अनुसार महाराजा सामन्तसिंह के आदेश पर पासु के पुत्र भण्डारी यशोवीर ने जैन मंदिर का जीर्णोद्धार करवाया था। १. नाजैलेस, ३, क्र० २३२५ । २. वही, क्र० ११३१, १२९५ । ३. वही, क्र० ११०१। ४. औजाइ, पृ० ३५३ । ५. नाजैलेस, क्र. ९८८ । ६. जैसंशि, पृ० ६२६ । ७. नाजैलेस, क्र० २०८४, जैसंशि, पृ० ६२५ । ८. समडिस्टिग्वश्ड जैन्स, पृ० ३६ । ९. वही। Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३८ : मध्यकालीन राजस्थान में जैनधर्म महाजन व्यवसाय से इसी प्रकार घी का व्यापार करने वाले व्यक्ति और उनके वंशज घिया कहलाये । १५६९ ई० में इस गोत्र के नरबद ने तपागच्छ के हीर विजय के आदेशानुसार संभवनाथ की प्रतिमा स्थापित करवाई थी । अनुश्रुति के अनुसार वैद्य गोत्र के किसी पूर्वज ने उदयपुर की किसी रानी की आँख का इलाज किया था, अतः उन्हें व उनके वंशजों को वैद्य गोत्र की संज्ञा दी गई । २ १४५५ ई० में इस गोत्र के भादाक ने उपकेश गच्छीय कुकड़ाचार्य के द्वारा विमलनाथ की प्रतिमा स्थापित करवाई थी । महाजनी गोत्र उदित हुआ । इस गोत्र के नाल्हा ने कक्क सूरि के माध्यम से शांतिनाथ की प्रतिमा १४५७ ई० में प्रतिष्ठित करवाई थी । ओसवालों में चाण्डालिया और बाम्बी गोत्र भी पाये जाते हैं । चूँकि इनका व्यवसाय चाण्डालों और बाम्बियों के साथ था, अतः उनका गोत्र यही हो गया । १७४५ ई० में चण्डालिया गोत्र के रतनपाल ने मलधारी गच्छ के पुण्यनिधान सूरि के माध्यम से अपने पिता की स्मृति में सुविधिनाथ की प्रतिमा स्थापित करवाई थी । " (ग) व्यक्तियों के नामों पर आधारित गोत्र : कतिपय गोत्रों का नामकरण प्रसिद्ध व्यक्तियों के नामों पर हुआ । राठौड़ राव रायपाल के पुत्र छाजड़ के वंशज छाजेड़ जैन ओसवाल कहलाये । राव रायपाल के दूसरे पुत्र मोहण के वंशज मुहणोत ओसवाल कहलाये । मुहणोत नैनसी इसी वंश के थे । आदित्यनाग गोत्र की उत्पत्ति प्रसिद्ध व्यक्ति आदित्यनाग के नाम पर हुई, जो महान दानी, उदार और परोपकारी था । इस गोत्र के उल्लेख के १४वीं १५वीं और १६वीं शताब्दी के कई उल्लेख जोधपुर, नागौर, बालोतरा आदि स्थानों पर पाये गये हैं ।" १११० ई० में पंवार राजपूत लालसिंह के नाम पर जिनवल्लभ सूरि ने लालाणी गोत्र स्थापित किया । लालसिंह के ७ पुत्र थे जिनमें सबसे बड़ा बाठा बहुत शक्तिशाली था और उससे बाठिया गोत्र की उत्पत्ति हुई । लालसिंह के अन्य चार पुत्रों के नाम से १. नाजैलेस, ३, क्र० ५३७२ । २. औजाइ, पृ० १६६ । ३. नाजैलेस, १, क्र० २३३४ । ४. वही, क्र० २५७७ । ५. जैइरा, पृ० ९६ ॥ ६. आसोपा, मारवाड़ का मूल इतिहास, पृ० ७६ । ७. वही । ८. नाजैलेस, १ एवं २ | ९. जैसंशि, पू० ६२६ । Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनधर्म भेद और उपभेद : १३९, विरमेचा, हरखावत, साह और भल्लावत गोत्र उत्पन्न हुये।' १४४४ ई० में लालाणी गोत्र के जयवद ने अंचलगच्छ के जयकेश सूरि के माध्यम से धर्मनाथ की प्रतिमा स्थापित करवाई।२ १४१९ ई० में बाठिया गोत्र के साह व्हामा ने जिनचन्द्र सूरि के माध्यम से जिनवरेन्द्र पट्ट का समारोह करवाया । अनुश्रुति के अनुसार गदासाह के वंशज गया कहलाये । १४११ ई० में इस गोत्र के साह आना ने अपनी पत्नी की स्मृति में उपकेश गच्छीय देवगुप्त सूरि से शान्तिनाथ प्रतिमा का प्रतिष्ठा समारोह सम्पन्न करवाया ।" लूणिया गोत्र का नाम लूणसिंह के नाम पर हुआ, जिसने जिनदत्त सूरि से जैनमत स्वीकार किया था। १४५६ ई० में इस गोत्र के गेशक ने खरतरगच्छीय जिनभद्र सूरि से पार्श्वनाथ की प्रतिमा की प्रतिष्ठा करवाई थी।६ ११४८ ई० में हेमचन्द्र सूरि के उपदेश से पंवार राजपूत जगदेव, जैन मत में दीक्षित हुआ।७. जगदेव के दो पुत्र सूर व सांवल थे । सूर के वंशज सुराणा और सांवल के वंशज सांखला कहलाये । १४४४ ई० में सुराणा गोत्र के सोनपाल ने धर्मघोष गच्छ के विजयचन्द्र सूरि से सुमतिनाथ की प्रतिष्ठा करवाई थी।९ १४३८ ई० में सांखला गोत्र के लाखा ने विजयचन्द्र सूरि से ही सुमतिनाथ की प्रतिमा की प्रतिष्ठा करवाई थी।१०।। दुगड़ और सुगड़ नाम के दो भाइयों ने जिनचन्द्र सूरि से जैन मत स्वीकार किया था।' दुगड़ के वंशज दुग्गड़ और सुगड़ के वंशज सुग्गड़ कहलाये । १४६० ई० में इस गोत्र के वंशज नागराज में रुद्रपल्ली गच्छ के सोमसुन्दर से श्रेयांसनाथ की प्रतिमा की प्रतिष्ठा सम्पन्न करवाई थी।१२ देलवाड़ा के राजा सागर के पुत्र बोहित के नाम पर बोथरा गोत्र उत्पन्न हुआ। 13 इसकी कई शाखाएँ हुईं, जैसे--बोहिथरा, फोफलिया, १. जैसंशि, पृ० ६२६ । २. नाजलेस, क्र० २३१७ । ३. वही, क्र० २४०४ । ४. जैसंशि, पृ० ६२८ । ५. नाजैलेस, क्र० १०६२ । ६. जैसंशि, पृ० ६३५-३७ । ७. नाजैलेस, क्र० २१८६ । ८. जैसंशि, पृ० ६३७ । ९. नाजैलेस, क्र० १०७९ । १०. वही, क्र० १८७७ । ११. जैसंशि, पृ० ६३८ । १२. नाजैलेस, क्र० १२६७ । १३. जैसंशि, पृ० ६३९-६४१ । Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४० : मध्यकालीन राजस्थान में जैनधर्म बच्छावत, दसवाणी, डूंगराणी, मुकीम, साह, रताणी व जैणावत । १४७७ ई० में बोथरा गोत्र के थाहा ने जिनचन्द्र सूरि से श्रेयांसनाथ की प्रतिमा की स्थापना सम्पन्न करवाई थी । १४९५ ई० में जिनचन्द्र सूरि ने गहलोत राजपूत गिरधर को प्रतिबोध देकर गेलड़ा गोत्र स्थापित किया । 3 लाखनसिंह चौहान से लोढ़ा गोत्र उत्पन्न हुआ, जिसकी चार खाँदें – टोडरमलोत, छजमलोत, रतनपालोत और भाव सिन्धो हुई । दुधेरा नामक व्यक्ति से दुधेरिया गोत्र प्रसिद्ध हुआ । जिन कुशल सूरि के उपदेशों से चौहान राजपूत डूंगरसिंह ने जैन मत स्वीकार किया, अतः इनके वंशज डागा गोत्र के हुये 14 8 (घ) कुलों से परिवर्तित गोत्र : कतिपय कुल भी कालक्रम में गोत्रों से सम्बन्धित होकर परिवर्तित हो गये । प्राचीन कश्यप कुल कालान्तर में कश्यपगोत्र हो गया । १४५८ ई० के लेख के अनुसार इस गोत्र के चूडा ने संडेरक गच्छ के ईश्वर सूरि से नेमिनाथ की प्रतिष्ठा करवाई थी । १३वीं शताब्दी में कर्णसिंह के पुत्र श्रवण ने यशोभद्र सूरि से जैन मत स्वीकार किया था । उनके वंशज सीसोदिया गोत्रीय हुये । (ङ) विशेष कार्यों के उपरान्त निर्मित गोत्र : कुछ गोत्र विशिष्ट कार्यों के सम्पन्न होने के कारण अस्तित्व में आये । बरड़िया गोत्र की उत्पत्ति लगभग ११वीं शताब्दी में हुई । एक अनुश्रुति के अनुसार एक नाग व्यन्तर ने नारायण नामक व्यक्ति को वर दिया था । यह " वर दिया" शब्द कालक्रम में " बरडिया " हो गया । १५२७ ई० में इस गोत्र के साह टोडर ने शान्तिनाथ प्रतिमा को प्रतिष्ठा करवाई थी ।" पांसु हीरे जवाहरात का बहुत बड़ा परीक्षक था, अतः उसके वंशज पारख कहलाये ।९ १४६१ ई० में इस गोत्र के सुरपति ने जिनचन्द्र से सुविधिनाथ की प्रतिमा प्रतिष्ठित करवाई थी । ११२० ई० में जिनचन्द्र सूरि ने जोबन १. जैसंशि, पृ० ६५१ । २. नाजैलेस, क्र० १३१७ । ३. जैसंशि, पृ० ६५१ ॥ ४. वही, पृ० ६५३ । ५. जैइरा, पृ० ९८ । ६. नाजैलेस, क्र० १३१७ । ७. औजाइ, पृ० ३९३ । ८. नाजैलेस, क्र० ११९२ । ९. जैसंशि, पृ० ६२८ । Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनधर्म भेद और उपभेद : १४१ और सच्च को प्रतिबोध दिया और बाफना गोत्र की स्थापना की। जिनके वंशज युद्ध क्षेत्र से नहीं हटते थे, वे नाहटा कहलाये । बाफना गोत्र के लिये यह भी कहा जाता है कि यह "बप्पनाग" के नाम से अस्तित्व में आया।' १३२९ ई० के लेख से ज्ञात होता है कि इस गोत्र के मोखल ने अपने माता-पिता की स्मृति में कक्क सूरि से सुमतिनाथ की प्रतिमा स्थापित करवाई थी। १४३९ ई० में नाहटा गोत्र के मांजण ने नरहद में विमलनाथ के मन्दिर में देवकुलिका निर्मित करवाई थी। ११२४ ई० में सोनगरा चौहान रत्नसिंह के पुत्र धनपाल द्वारा जैन मत स्वीकारने पर रत्नपुरा गोत्र उत्पन्न हुआ, जिसकी दस शाखाएँ-रत्नपुरा, कोचेटा, नराण, सापद्राह, मलाणिया, सांभरिया, रामसेन्या, बलाई व बोहरा गोत्र हुये। माण्डलगढ़ का सुल्तान, झाँझणसिंह के गुणों से अत्यधिक प्रभावित हुआ और उसने उन्हें शाही दरबार में कटार रखने के लिये अधिकृत कर दिया, अतः उनके वंशज कटारिया गोत्र के हुये ।" १४२६ ई० में भुवन सुन्दर के उपदेशों से कटारिया गोत्र के संघी तुकादे, पासदे, पुनांसी और मूला ने जीरापल्ली के मन्दिर में देव-कुलिका निर्मित करवाई थी।६ ११५७ ई० में भाटी जोसल सिंह को जिनचन्द्र सूरि ने प्रतिबोध देकर आधरिया गोत्र स्थापित किया। संघवी की उपाधि तीर्थ यात्रा का नेतृत्व करने वालों को दी जाती थी, जिनके वंशज कालान्तर में सिंघवी गोत्र के हुये । काकू नाम के एक व्यक्ति को नगर सेठ की उपाधि दी गई, अतः उसके वंशज सेठिया गोत्र के कहलाने लगे। १०९५ ई० में जिनवल्लभ सूरि नान दे पड़िहार राजा के शासस काल में मण्डोर आये, राजा का पुत्र कूकड़देव कुष्ठ रोग से ग्रस्त था। राजा द्वारा मुनि से पुत्र को ठीक करने की प्रार्थना करने पर, मुनि ने गाय की घी मँगवा कर राजपुत्र के शरीर पर मला, तीन दिन के उपचार से राजपुत्र स्वस्थ हो गया। राजा ने अपने कुटुम्ब के साथ जैन मत स्वीकार कर लिया और सूरिजी ने इस प्रकार कुकड़ा-चोपड़ा गोत्र की स्थापना की। परिहार राजा के मंत्री गणधर ने भी जैन मत स्वीकार कर लिया और इस प्रकार गणधर चोपड़ा १. भपाइ, पृ० ११०९। २. नाजलेस, क्र० २२५३ । ३. वही, क्र. १९५७ । ४. जैसंशि, पृ० ६३३ । ५. वही, पृ० ६३४ । ६. अप्रजैलेस, क्र० ११३ । ७. जैसंशि, पृ० ६३७ । ८. वही, पृ० ६३४ । ९. ओजाइ, पृ० ४२७ । Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४२ : मध्यकालीन राजस्थान में जैनधर्म गोत्र स्थापित हुआ । १४७९ ई० के एक लेख में कुकड़ा-चोपड़ा गोत्र' और १४३६ ई० के एक लेख में गणधर चोपड़ा गोत्र का उल्लेख है ।२ खरतरसिंह राठौड़ ने जिनदत्त सूरि के प्रतिबोध से जैन मत स्वीकार किया, इनके बड़े पुत्र अम्बदेव ने चोरों का मुकाबला करके उनको पकड़ लिया, कालान्तर में इनके वंशज चोरडिया कहलाये । चोरडियों की १७ शाखाएँ तेजाणी, धन्नाणी, पोपाणी, नोलाणी, गल्लाणी, देवसपाणी, नाणी, श्रवणी, सद्दाणी, कक्कड़, मक्कड़, भक्कड़, लूटक्कण, संसारा, कोबेरा, भटारकिया और पीतलिया हुई । इन्हीं के पौत्र साह सूखा से सावण सूक्खा गोत्र, गेलों से गोलेच्छा, बुच्चों से बुच्चा और पांसुजी से पारख अस्तित्व में आये।४ १११८ ई० में जिनदत्त सूरि के प्रतिबोध से सिंध देश में भाटी अभयसिंह से आयरिया गोत्र तथा इसी वंश के लूणे नामक बुद्धिमान व्यक्ति से लूणावत गोत्र अस्तित्व में आये ।" गच्छ एवं गोत्रों के अन्तर्सम्बन्ध : प्रतिमाओं के कुछ लेखों से यह ज्ञात होता है कि कतिपय गोत्र विशेष गच्छों से ही सम्बन्धित थे। इन गोत्रों के व्यक्ति प्रतिमाओं की प्रतिष्ठा आदि निश्चित गच्छ के आचार्यों से ही करवाते थे। आदित्य नाग गोत्र के सभी व्यक्तियों के प्रतिमाओं के प्रष्तिठा समारोह उपकेश गच्छ के आचार्यों द्वारा ही सम्पन्न हुये। इसी प्रकार गधैया गोत्र, बाफना गोत्र, रांवका गोत्र के व्यक्तियों ने उपकेश गच्छ के आचार्यों से ही प्रतिष्ठाएँ सम्पन्न करवाई। गणधर चोपड़ा, डागा, दोषी एवं लूणियाँ गोत्र के व्यक्ति खरतर गच्छ के आचार्यों से ही प्रतिष्ठा व स्थापना समारोह सम्पम्न करवाते थे । घांग्घा गोत्र और चण्डालिया गोत्र के व्यक्ति मलधारी गच्छ के आचार्यों से प्रतिमाएं स्थापित करवाते थे । छाजड़ा गोत्र विशेष रूप से पल्लीवाल गच्छ से सम्बन्धित था। सिसोदिया गोत्र के व्यक्ति संडेरक गच्छ के गुरुओं से सम्बन्धित थे । दुग्गड़ गोत्र और मिठडिया गोत्र के श्रावक बृहद् गच्छ और अंचल गच्छ के आचार्यों से प्रतिमाएं स्थापित करवाते थे। कभी-कभी एक ही गोत्र के व्यक्ति दो गच्छों के गुरुओं से भी प्रतिमाओं की स्थापना करवा लेते थे। जैसे साँखवलेचा गोत्र के व्यक्ति कोरंटक गच्छ और खरतर गच्छ दोनों के आचार्यों से स्थापना करवाते थे। १. नाजैलेस, क्र० २१३६ । २. वही, क्र० २११४ । ३. ओजाइ, पृ० ५०९ । ४. जैसंशि, पृ० ६२८ । ५. वही, पृ० ६३१ ।। ६. जैइरा, पृ० १०० । Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनधर्म भेद और उपभेद : १४३ (२) श्रीमाल : जैनधर्म में श्रीमालों की उत्पत्ति श्रीमाल ( भीनमाल ) से हुई। कालक्रम में संख्या वृद्धि होने पर ये जोधपुर, सिरोही उदयपुर तथा अन्यत्र फैलते गये । समाज में इनका प्रभावशाली स्थान था । इनकी उत्पत्ति ८वीं शताब्दी के पूर्व की मानी जाती है । १३०८ ई० की 'कालकाचार्य कथा" को प्रशस्ति' से जानकारी मिलती है कि इस जाति के एक श्रावक दीदा ने शान्ति सूरि के उद्बोधन से ६४७ ई० में नवहर में आदिनाथ चैत्य का निर्माण करवाया था। श्रीमाल जाति की प्राचीनतम वंशावली के अनुसार इस जाति के भारद्वाज गोत्र के एक व्यापारी टोड़ा को ७३८ ई० में एक जैन सन्त ने उपदेश दिया था । अतः स्पष्ट है कि ८वीं शताब्दी में श्रीमाल जाति में जैन मत प्रचलन में था। विजयन्त नामक श्रीमाल राजा ने उदयप्रभ सूरि से जैनधर्म स्वीकार किया, उसके साथ ही ब्राह्मण मतानुयायी बासठ सेठों ने भी जैनधर्म अंगीकार किया । ये सब श्रीमाल कहलाये। कवि उदयरत्न द्वारा लिखित -"पंचपतरास", जिसमें उपकेश गच्छ की द्विवंदनिक शाखा के आचार्यों का इतिहास है, से ज्ञात होता है कि ७०० शक सम्वत् में रत्नप्रभ सूरि इस कस्बे में आये और उन्होंने श्रीमाल जाति की स्थापना की। उक्त सभी प्रकरणों से स्पष्ट प्रमाणित है कि श्रीमाल जाति ७वीं या ८वीं शताब्दी में अस्तित्व में आई। कालान्तर में यह जाति लघु शाखा और वृहद शाखा में विभक्त हो गई । १४८८ ई० के लेख से ज्ञात होता है कि श्रीमाल जाति की लघु शाखा के सहसकरण द्वारा अपनी मां की स्मृति में अंचल-गच्छीय सिद्धान्त सागर से आदिनाथ की प्रतिमा प्रतिष्ठित करवाई थी।" वृहद शाखा से सम्बन्धित एक पश्चात्वर्ती लेख भी उपलब्ध है। इस जाति की कई शाखाएँ हुई, जो प्राचीन राज्यों के नामों पर आधारित हैं। जैसे-टाक श्रीमाल, हरियाणा श्रीमाल, सोनगरिया श्रीमाल आदि । बीकानेर से प्राप्त कतिपय अभिलेखों में ताम्बी श्रीमाल, धन्डनिया श्रीमाल और कुमकुमलोत श्रीमाल का भी उल्लेख मिलता है। इस जाति के विभिन्न गोत्र, व्यवसाय, स्थान के नामों एवं अन्य आधारों पर निर्मित हुये। १. जैन पुस्तक प्रशस्ति संग्रह, क्र० ३५ । २. जैन साहित्य संशोधन एवं जैनाचार्य आत्माराम शताब्दी स्मा० ग्रन्थ, पृ० २०४ । ३. श्री जैन गोत्र संग्रह, पृ० १३-२९ । ४. प्राग्वाट इतिहास, भूमिका, पृ० १२ । ५. नाजैलेस, क्र० ११६६ । ६. वही, क्र० २९५ । ७. प्रलेस, क्र० ९८२, ४५४ । ८. बीजैलेस, क्र० १६२८, २७३६, १६९६, २२१८, १६०९ आदि । Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४४ : मध्यकालीन राजस्थान में जैनधर्म श्रीमालों के गोत्र : इस जाति में विभिन्न विधियों से गोत्र उत्पन्न हुए । अम्बिका गोत्र देवी अम्बिका से उत्पन्न हुआ प्रतीत होता है । १४७७ ई० में इस गोत्र के एक श्रेष्ठी ने अपने पूर्वजों की स्मृति में लक्ष्मी सागर सूरि से शान्तिनाथ की प्रतिमा स्थापित करवाई थी।' अईलहर गोत्र का उल्लेख १४४२ ई० के अभिलेख में उपलब्ध होता है। गोवलिया गोत्र और घेवरिया गोत्र के अभिलेख भी उपलब्ध हैं। १४५२ ई० के अभिलेख के वर्णन के अनुसार गांधिक गोत्र के जावद ने धर्मनाथ की प्रतिमा स्थापित की।" १४७६ ई० में गौतम गोत्र के पासद के द्वारा शान्तिनाथ की प्रतिमा का प्रतिष्ठा समारोह आयोजित किया गया था। इस गोत्र की उत्पत्ति गौतम नाम के सन्त के कुल से उत्पन्न हुई प्रतीत होती है। चण्डालेया गोत्र" और दशुदा गोत्र का भी अभिलेखों में उल्लेख मिलता है। दोसी गोत्र', नलूरिया, जूनीवाल गोत्र, झुंगरिया गोत्र, नावर गोत्र"", भाँडिया गोत्र १२, मूथिया गोत्र, मांथलपुरा गोत्र ४, वहगटा गोत्र१५, श्रेष्ठी गोत्र ६, सिंघड गोत्र', फोफलिया गोत्र, भाण्डावत गोत्र, मूसल गोत्र२०, और १. नाजैलेस, क्र० ११६३ । २. वही, १६७६ । ३. वही, ४१२। ४. वही, ४१३ । ५. वही, २३२९ । ६. वही, २४६४ । ७. वही, ८३० । ८. वही, ३८। ९. वही, ३९१ । १०. वही, १९९३ । ११. वही, १९७४ । १२. वही, १९५६ । १३. वही, १९६७ । १४. वही, १९३२ । १५. वही, २०८५ । १६. वही, १२२४ एवं १२२७ । १७. वही, ७३७, ८२३ । १८. वही, ५७७ । १९. वही, ५७७ । २०. वही, २३३३ । Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनधर्म भेद और उपभेद : १४५ सिद्ध गोत्र' का उल्लेख १५वीं शताब्दी के अभिलेखों से मिलता है। धीना गोत्र, पाटनी गोत्र और मुहवना गोत्र भी १६वीं शताब्दी के अभिलेखों में उल्लिखित हैं। (३) पोरवाल : यह जाति भी ८वीं शताब्दी में श्रीमाल नगर से श्रीमाल जाति के साथ ही उत्पन्न हुई, ऐसा माना जाता है। नगर के पूर्वी द्वार के लोग जिन्होंने जैनाचार्यों से जैनधर्म स्वीकार किया-पोरवाढ़, पोरवाड़ या पोरवाल कहलाने लगे।५ "प्रबन्ध पट्टावली" के अनुसार ११७८ ई० में प्रौढ़ सूरि ने प्लेग की बीमारी दूर कर दी थी, अतः पूढ़वाल जाति अस्तित्व में आई, जो पोरवाड़ या प्राग्वाटक कहलाये । पट्टावली का यह मत सही प्रतीत नहीं होता है, क्योंकि इस काल के पूर्व भी पोरवाल अस्तित्व में थे। इसीप्रकार श्रीमाल नगर से इनकी उत्पत्ति का विचार भी सही प्रतीत नहीं होता है। प्राचीन अभिलेखों एवं ग्रन्थों में पोरवाल के लिये 'प्राग्वाट' शब्द प्रयुक्त हुआ है। प्राग्वात, मेवाड़ ( मेदपात ) का दूसरा नाम था । ऐसा प्रतीत होता है कि प्राग्वात प्रदेश के लोग ही जैन मत स्वीकार कर लेने पर प्राग्वात या पोरवाल कहलाने लगे। पोरवाल अपनी उत्पत्ति मेवाड़ के 'पुर" नामक गाँव से बताते हैं । सामान्यतः यह विश्वास किया जाता है कि इस जाति को चित्तौड़ में हरिभद्र सूरि ने प्रतिबोधित किया था। उसके बाद से ही यह जैन जाति हुई। अभी तक इस जाति का १०वीं शताब्दी से पूर्व का कोई लेख उपलब्ध नहीं था । इन्द्रगढ़ से प्राप्त ७१० ई० के लेख में पाशुपत शैव से सम्बन्धित प्राग्वाट जाति के कुमार द्वारा दान देने का उल्लेख है।' सम्भवतः उस समय के पूर्व तक यह जाति शैव मतानुयायी रही होगी। इस जाति के उल्लेख सम्बन्धी अधिकांश अभिलेख पश्चिमी राजस्थान व उत्तरी गुजरात से प्राप्त होते हैं । अतः इनका प्रारम्भिक अधिवासन इन क्षेत्रों में ही रहा होगा ।१ १०३४ ई० के कासिन्द्रा अभिलेख में श्रेष्ठी १. नाजलेस, २२९२ । २. वही, २४२९ । ३. वही, ७५० । ४. वही, २३७०। ५. श्री उज्जगोत्र संग्रह, पृ० १३-२३ । ६. पप्रस, पृ० १४ । ७. ओझा निबन्ध संग्रह, पृ० २५ । ८. जेकोबी, "समराइच्चकहा" की भूमिका । ९. एइ, २२, पृ० ११२ । १०. शोप, वर्ष ३५, अंक १, पृ० ५५ । ११. जैरा, पृ० ६१ । Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४६ : मध्यकालीन राजस्थान में जैनधर्म गोलनच्छी के परिवार का भीनमाल से प्रवास का उल्लेख मिलता है। विमलशाह भी इसी जाति के थे एवं रणकपुर मन्दिर के निर्माता धरणाशाह भी इसी जाति के थे। श्रीमाल जाति की तरह पोरवाल जाति भी लघु शाखा और बृहद् शाखा में विभक्त थी, पोरवाल जाति की लघु शाखा का १६५३ ई० के अभिलेख में उल्लेख है ।२ १५३४ ई० में प्राग्वाटजातीय बृहद् शाखा के मंत्री विकास ने सुमतिनाथ की प्रतिमा स्थापित की थी। - ___ अभिलेखीय एवं साहित्यिक प्रमाणों के आधार पर पोरवाल जाति के विभिन्न गोत्र देखने को मिलते हैं। जैसे-झूलर, मुन्थालिया, लिम्बा, मंडालिया, पटेल, नरवत, लोलानिया, पोसा, कोठारी, भण्डारी, अम्बी, कोडकी और नाग । १५४६ ई० में पोरवाल जातीय कोठारी गोत्र के तेजपाल, रायपाल, रत्नसी और रामदास ने सिरोही राज्य के पिंडवाड़ा में महावीर मन्दिर का निर्माण करवाया था। १४४७ ई० में इस जाति के भण्डारी गोत्र के शान्ति ने मुनि सुव्रतनाथ को प्रतिमा स्थापित करवाई थी। १५७१ ई० में अम्बई गोत्र के व्यवहारी खीमा ने धर्मनाथ की प्रतिमा स्थापित करवाई। १५८६ ई० में कौडकी गोत्र के मूल ने तपागच्छीय विजयसेन सूरि से आदिनाथ की प्रतिमा प्रतिष्ठित करवाई थी। कुछ गोत्र ख्याति प्राप्त पूर्वजों से भी उद्भूत हुये, जैसे-साहिलसन्तानिया (साहिल के वंशज) इसी प्रकार का गोत्र है।' (४) पल्लीवाल : दिगम्बर एवं श्वेताम्बर दोनों सम्प्रदायों में पायी जाने वाली पल्लीवाल जाति सम्भवतः मारवाड़ के पाली नामक स्थान से उत्पन्न हुई। पाली का प्राचीन नाम पल्लिका था। ऐसा माना जाता है कि ८वीं शताब्दी में रत्नप्रभ सूरि द्वारा यहाँ के लोगों को जैन धर्म में धर्मान्तरित किया गया और पल्लीवाल जाति की स्थापना हुई। पल्लीवालों द्वारा समय-समय पर मूर्तियों के प्रतिष्ठा महोत्सव आयोजित करने के प्रमाण १. अप्रजैलेस, क्र० ६२१ । २. नाजलेस, क्र० १६१४ । ३. वही, क्र० २१५१ । ४. श्री जैन गोत्र संग्रह, भूमिका, पृ० ५० । ५. नाजैलेस, क्र० ९४७, ९४८, ९५० । ६. वही, ६२१ । ७. वही, १२१४। ८. वही, १३०८। ९. अप्रजैलेस, क्र० २४३ । : Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जेन मं भेद और उपभेद : १४७ उपलब्ध होते हैं । १२५३ ई० में इस जाति के दीदा ने चन्द्रगच्छीय यशोभद्र से मल्लिनाथ की प्रतिमा स्थापित करवाई थी । इस जाति के लोग समय-समय पर पाली से विभिन्न तीर्थ स्थानों को जाने वाली संघ यात्राओं का नेतृत्व भी करते थे । (५) खण्डेलवाल जाति : खण्डेलवाल जाति की उत्पत्ति खण्डेला नामक स्थान से मानी जाती है । जैन परम्परा के अनुसार खण्डेलगिरी नामक चौहान राजा ने खण्डेला नगर बसाया, जो वर्तमान में 'जयपुर राज्य में है । एक बार महामारी फैलने पर ब्राह्मणों के कहने से एक जैन मुनि की यज्ञ में आहुति दे दी गई, जिससे राजा की बहुत बदनामी हुई तथा महामारी ने भी भयंकर रूप धारण कर लिया । सन्त अपराजित के मत के जिनसेनाचार्य के प्रतिबोध से राजा को ज्ञान हुआ, तब राजा सहित ८२ क्षत्रिय गाँवों के जागीरदार तथा २ स्वर्णकार गाँवों के समूह ८४ जातियों के रूप में धर्मान्तरित हुए । इस प्रकार खण्डेलवाल जाति जैन धर्म की जाति के रूप में अस्तित्व में आई । इस मत के अनुसार वीर संवत् एक में खण्डेलवाल जाति की स्थापना हुई । एक अन्य मत के अनुसार विक्रम संवत् १७३ (११६ ई० ) में खण्डेला के ८४ गाँवों के क्षत्रिय जैन बने, जिनमें दो सुनार भी थे । इन प्रकरणों में दिया गया उत्पत्ति काल सही प्रतीत नहीं होता है । इस जाति के ८वीं शताब्दी के पूर्व अस्तित्व में होने के कोई ठोस प्रमाण उपलब्ध नहीं हैं । इस जाति का सर्वप्रथम उल्लेख शेरगढ़ से प्राप्त ११०५ ई० के अभिलेख में मिलता है । सांगानेर के ११७३ ई० के जैन मन्दिर के लेख में भी इस जाति का नामोल्लेख है । इस जाति का उल्लेख १९९७ ई० के अभिलेख में भी देखने को मिलता है । शेरगढ़ खण्डेला से पर्याप्त दूर है, अतः उत्पत्ति स्थान से यहाँ तक प्रसारित होने में इस जाति को पर्याप्त समय लगा होगा । इस आधार पर भी इसकी उत्पत्ति ८वीं शताब्दी के लगभग ही होनी चाहिये । इसी प्रकार ८४ गाँवों के आधार पर ८४ गोत्रों की एक ही समय, एक ही साथ उत्पत्ति सही प्रतीत नहीं होती है । ८४ की संख्या रूढ़िवादी प्रतीत होती है । मूल रूप १. नार्जलेस, क्र० १७७८ । २. भाइ, पृ० ५४४ । ३. गुणार्थी, राजस्थानी जातियों को खोज, पृ० ५३ । ४. अजमेर के शास्त्र भण्डार में संग्रहीत हस्तलिखित ग्रन्थ । ५. सेंसस रिपोर्ट मारवाड़, १८९१, पृ० २३० । ६. एइ, ३१, पृ० ८९ । ७. जैहरा, पृ० १०३ । Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४८ : मध्यकालीन राजस्थान में जैनधमं से ये गोत्र कम रहे होंगे, जो धीरे-धीरे बढ़ गये । जाति के विभिन्न गोत्र गाँवों के नामों, व्यवसायों एवं उपनामों पर आधारित प्रतीत होते हैं । इस क्षेत्र में अधिकांश क्षत्रिय राजपूत थे अतः उनके विभिन्न वंशों एवं गाँवों के आधार पर गोत्रों के नाम हुए । (क) क्षत्रिय वंशोत्पन्न गोत्र : खण्डेला के चौहानवंशीय राजाओं का शाह गोत्र बना । पाटनी गाँव के तँवर राजपूत पाटनी गोत्र के, पापड़ी गाँव के चौहान पापड़ीवाल गोत्र के, दौसा के राठौर दोसा गोत्र के, सेठानी के सोमवंशीय क्षत्रिय सेठी गोत्र के, भैंसा के चौहान बड़जात्या गोत्र के, गोधानी गाँव के गोधड़वंशीय क्षत्रिय गोधा या ठोलिया, चन्द्रवाड़ के चन्देला राजपूत चन्द्रवाड़ गोत्र के, मोठिया गाँव के ठीमर राजपूत मोठिया तथा अजमेर के गौड़ राजपूत अजमेरा गोत्र के हुये । इसी प्रकार दरड़िया, गधैया, पांड्या, छाबला गोत्र चौहानों से, भूच सूर्यवंशी क्षत्रियों से बज और महराया हेमवंशियों से, रॉका सोमवंशियों से, पाटौदी तेंवर वंशियों से, गंगवाल कछवाहों से, सोनी सोलंकियों से, बिलाला सोमवंशियों से, बिरलाला कुरूवंशियों से, बिनायका गहलोत वंशीय, बाकलीवाल व कासलीवाल मोहिल वंशीय, पापड़ीवाल परमारवंशीय, सोगानी सूर्यवंशीय, झांझरी और कटारिया कछुवाहों से, बंद सोरठ वंशीय, टोंगिया पंवारों से, बोहरा सोढ़ा क्षत्रियों से, काला कुशवंशियों से, लुंगिया सूर्यवंशियों से, लुहाड़िया मोरठ वंशीय, भण्डसाली और दगड़ावत सोलंकियों से तथा चौधरी तँवरवंशीय क्षत्रियों से उत्पन्न हुये हैं । यहीं खण्डेला का कुल श्रावक वर्ग प्रसिद्ध है, जिसको " सरावगी " भी कहते हैं ।" (ख) प्रादेशिक गोत्र कुछ गोत्र क्षेत्रीय व स्थानों से सम्बन्धित हैं । अजमेरा गोत्र सम्भवतः अजमेर के नाम पर हुआ । इस गोत्र के अजमेर के साह सुर्जन की पत्नी ने १५३८ ई० में "प्रद्युम्न चरित्र" की प्रति लिखवा कर साध्वी विजयश्री को भेंट में दी थी । १५९४ ई० के अभिलेख में भी इस गोत्र का उल्लेख है । पाटौदी गोत्र शेखावाटी में पाटौती गाँव से उत्पन्न हुआ । १७६४ ई० की एक प्रशस्ति में इसका उल्लेख हैं । दोसी गोत्र जयपुर राज्य के दौसा नामक स्थान से उत्पन्न हुआ इस गोत्र के अजमेर निवासी बोहित ने १६०१ ई० में चौबीसी प्रतिमा स्थापित करवाई थी । कासलीवाल गोत्र जयपुर राज्य में सीकर के निकट कासली गाँव से अस्तित्व में आया । इसका उल्लेख १५२४ ई० की । १. गुणार्थी, पृ० ५३ । २. वही, पृ० ५३ । ३. प्रस, पृ० १३८ । ४. वही, पृ० १७५ । Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनधर्म भेद और उपभेद : १४९ एक प्रशस्ति में देखने को मिलता है ।" पाटनी गोत्र खण्डेला के निकट पाटन नामक गाँव से प्रारम्भ हुआ । इस गोत्र की नागौर निवासी पहराज की पत्नी पाटनदे ने १५२० ई० में " आदि पुराण" की एक प्रति धर्मचन्द्र को भेंट में दी । २ १५९४ ई० के अभिलेख में भी इस गोत्र का उल्लेख है । 3 टोंगिया गोत्र सम्भवतः टोंक में उत्पन्न हुआ । इसका उल्लेख १५२२ ई० की प्रशस्ति में मिलता है । काला गोत्र जयपुर राज्य में चौमूं के निकट काला देवा नामक स्थान से उत्पन्न हुआ प्रतीत होता है । १५७६ ई० में इस गोत्र के रोहों ने एक प्रतिमा प्रतिष्ठित करवाई थी ।" १६०७ ई० की एक प्रशस्ति में भी इस गोत्र का उल्लेख है । (ग) व्यावसायिक गोत्र : कतिपय गोत्र व्यवसायों के आधार पर विकसित हुये । औषधियों का व्यापार करने वाले व्यक्ति और उनके वंशज कालान्तर में वैद गोत्र के हुये । १५८४ ई० में इस गोत्र के मोथा ने अपनी पत्नी और पुत्रों के साथ " सम्यक् दर्शन यन्त्र” की स्थापना की थी । परम्परागत अनुश्रुतियों से स्पष्ट है कि मोहनाय बज और आम्नाय बज धर्मान्तरण के पूर्व सुनार थे । १६४६ ई० में बज गोत्र के हाथीनाथ ने " दसलक्षण यंत्र" की प्रतिष्ठा आयोजित की ।" १६८८ ई० को प्रशस्ति में भी इस गोत्र का उल्लेख है । सोनी गोत्र भी लोगों के व्यवसाय की तरफ इंगित करता है । इसका सर्वप्रथम उल्लेख १५८४ ई० के अभिलेख में मिलता है, जिसके अनुसार इस गोत्र के साहतेला ने " करकुंद पार्श्वनाथ यंत्र" को स्थापना की थी । १६८८ ई० की एक प्रशस्ति में भी इस गोत्र का उल्लेख है । १० बोहरा गोत्र धन उधार देने वाले लोगों से उत्पन्न हुआ । इस गोत्र के रत्न ने १४८४ ई० में अपने पुत्रों के साथ एक यंत्र की प्रतिष्ठा करवाई थी । " १. प्रस, पृ० ९६ । २. वही, पृ० २ । ३. जैइरा, पृ० ८१ । ४. प्रस, पृ० १७७ । ५. जैइरा, पृ० ७९ । ६. प्रस, पृ० ८९ । ७. जैइरा, पृ० ८१ । ८. संवत् १७०३ वैशाख मासे प्रतिष्ठताम -- बड़ा श्री हाथीनाथ प्रणमति । ९. जैइरा, पृ० ८१ । १०. प्रस, पृ० ४ । ११. जैइरा, पृ० ८१ । Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५० : मध्यकालीन राजस्थान में जैनधर्म (घ) पद एवं उपनामों पर आधारित गोत्र : चौधरी की पदवी दी जाती के कुछ गोत्र पदवियाँ और उपनामों से भी उद्भूत हुए । साह गोत्र उन व्यक्तियों से उत्पन्न हुआ प्रतीत होता है, जिन्हें आदरणीय मान कर "साह" कहा जाता था । इस गोत्र के साह ने अपनी पत्नी और पुत्रों के साथ १५३९ ई० में "अरहम यंत्र" की स्थापना की ।" इस गोत्र का नाम १५१८ ई० की प्रशस्ति में भी देखने को मिलता है । कर व लगान वसूल करने वाले लोगों को सरकार के द्वारा थी । कालक्रम में "चौधरी" गोत्र बन गया । इस गोत्र साह महाराजा ने १५५४ ई० में "पार्श्वनाथ चरित्र" की प्रतिलिपि तैयार करवा कर धर्मचन्द्र को भेट में दी 13 छावड़ा गोत्र सम्भवतः साह व बड़ा शब्दों के मिलने से अस्तित्व में आया । पहले यह शब्द "साबड़ा" रहा होगा, किन्तु समय के अन्तराल से छाबड़ा हो गया । इस गोत्र के साहमोटा ने “नागकुमार चरित्र" की प्रति तैयार करवा कर ललितकीर्ति को भेंट में दी थी । १५९१ ई० के एक अभिलेख में भी इस गोत्र का उल्लेख है ।" " भैंसा" गोत्र सम्भवतः भाई व साह शब्दों के मिलने से निर्मित हुआ होगा । इसका उल्लेख १६९४ ई० की प्रशस्ति में है । जब इस गोत्र के लोग संख्या में अधिक हो गये तो बड़जात्या कहलाने लगे । वर्तमान समय में दोनों गोत्र एक ही माने जाते हैं । सेठी गोत्र श्रेष्ठी शब्द से उत्पन्न हुआ । प्राचीन जैन साहित्य में यह शब्द बहुधा प्रयुक्त हुआ है । इस गोत्र का उल्लेख १५७५ ई० की एक प्रशस्ति में भी है । उपरोक्त गोत्रों के अतिरिक्त कुछ अन्य गोत्रों की जानकारी अभिलेखों व प्रशस्तियों से मिलती है । १४७३ ई० के अभिलेख में गोधा गोत्र का सर्वप्रथम उल्लेख मिलता है । इसके अनुसार इस गोत्र के विल्हण ने प्रतिमाओं का प्रतिष्ठा समारोह सम्पन्न किया था ।" अन्य गोत्रों में ठोलिया गोत्र, पहाड़िया गोत्र १०, बिलाला गोत्र ", गंगवाल गोत्र १२, गोदिका गोत्र १३, पांड्या गोत्र ४, १४ १. जैइरा, पृ० ८० । २. प्रस, पृ० ६३ । ३. जैसंशि, पृ० १२८ । ४. वही, पृ० ११३ । ५. जैइरा, पृ० ८१ । ६. प्रस, पृ० २९ । ७. वही, पृ० १९० । ८. वीरवाणी, भाग ७ । ९. जैइरा, पृ० १२ । १०. वही, पृ० १०५ । ११. वही १२. प्रस, पृ० ९९ । १३. प्रस, पृ० १६९ १४. वही, १७० । Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनधर्म भेद और उपभेद : १५१ रॉवका गोत्र' और सोगाणी गोत्र हैं। १५८४ ई० के अभिलेख में "कुरकुरा गोत्र" का भी उल्लेख है । इसके अनुसार इस गोत्र के कालू ने अपने पुत्रों एवं पौत्रों के साथ "ऋणकार यंत्र" स्थापित करवाया था । यह गोत्र खण्डेलवाल जाति के चौरासी गोत्रों की सूची में उपलब्ध नहीं होता । प्रशस्तियों एवं अभिलेखीय प्रमाणों से सिद्ध होता है कि खण्डेलवाल जाति के लोग सामान्यतः मूल संघ के आचार्यों से ही सम्बद्ध थे । यह तथ्य इङ्गित करता है कि राजस्थान में 'मल संघ' गतिविधियों का केन्द्र रहा । (६) बघेरवाल जाति: __इस जाति की उत्पत्ति केकड़ी के निकट पुरातन महत्त्व के स्थान बघेरा से ८वीं शताब्दी में मानी जाती है । कई प्राचीन जैन प्रतिमाओं, मंदिरों और शिलालेखों में इस जाति का उल्लेख है । बिजौलिया के ११७० ई० के शिलालेख में भी इसका उल्लेख है। बघेरा, १२वीं शताब्दी में मूल संघ के भट्टारकों की पीठ भी थी। ऐसा माना जाता है कि दिगम्बर आचार्य रामसेन और नेमसेन ने इस नगर के राजा को प्रजा सहित जैन मत में धर्मान्तरित किया", पण्डित आशाधर, जो १२वीं शताब्दी में मोहम्मद गोरी के आक्रमण के भय से माण्डलगढ़ से धारा नगरी को चले गये थे, बघेरवाल जाति के ही थे । पुण्यसिंह, जिसने १५वीं शताब्दी के कुंभकर्ण के शासनकाल में चित्तौड़ के प्रसिद्ध जैन कीर्ति स्तम्भ को पूर्ण करवाया था, इस जाति का ही था । विभिन्न अभिलेखों एवं प्रशस्तियों के अनुसार इस जाति के विभिन्न गोत्र इस प्रकार है-राय भण्डारी, शांखवाल', शानापति', ढोला'', कोटवा'', प्रभा२ और सिवांड्या ।१3 (७) अग्रवाल जाति : राजस्थान में अग्रवाल बड़ी संख्या में हैं तथा समाज में इनका बहुत सम्मानजनक १. प्रस, पृ० १७७ । २. वही, पृ० ४४ एवं ७७। ३. एइ, २४, पृ० ८४, श्लोक ८२-८३ । ४. इए, २०, पृ० ५७ । ५. अजमेर के शास्त्र भण्डार में संग्रहीत । ६. जैसाओइ, पृ० १३४ । ७. नाजैलेस, क्र० ४३८ । ८. वही, क्र० ७२७। ९. वही, क्र० ६२८ । १०. प्रस, पृ० १४७ । ११. वही, पृ० ९८॥ १२. जैइरा, पृ० १०५। १३. जैइरा, पृ०७२ Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२ : मध्यकालीन राजस्थान में जैनधर्म स्थान है । ये उच्च शिक्षित व प्रगतिशील हैं । अग्रवाल वैष्णव व जैन मतावलम्बी दोनों प्रकार के हैं। यह मध्यम-वर्गीय व्यापारिक जाति प्राचीनकाल में जैनमत की अत्यधिक समर्थक थी। इन्होंने असंख्य प्रतिमाओं की स्थापना और ग्रन्थों की प्रतिलिपियाँ तैयार करवाई थीं। जैन परम्परानुसार, अग्रवाल जाति की उत्पत्ति १६० ई० में जैनाचार्य लोहित्याचार्य द्वारा अगरोहा नगरी (पंजाब) से हुई। आचार्य ने नगर के संस्थापक राजा अग्रसेन व उनके पुत्रों को अहिंसा का उपदेश दिया और जैन मत में धर्मान्तरित किया। पट्टावलियों के अनुसार' लोहित्याचार्य ने राजा दिवाकर सहित प्रजा को व अन्य राजाओं को जैन मत में परिवर्तित किया। मुनि के अहिंसा-उपदेशों से प्रेरित होकर राजा ने पुनः यज्ञ किया, जिसमें भारत के कई राजा आमंत्रित थे, किन्तु पूर्वी राजपूताना के १७ राजा ही आये जो कि पृथक्-पृथक् गोत्रों के क्षत्रिय थे। ये सब उपदेश के सुप्रभाव से वैश्य बन गये । नागेन्द्रनाथ वसु के अनुसार यह अग्रसेन वह उग्रसेन है, जिसका उल्लेख समुद्रगुप्त के इलाहाबाद अभिलेख में देखने को मिलता है । लोहित्याचार्य, देवद्धिगणी के शिष्य थे, जिन्होंने ४५३ ई० में वल्लभी में वाचना का आयोजन करवाया था । लोहित्याचार्य का काल निर्धारण देवद्धिगणी के ३० वर्ष पूर्व किया जा सकता है। इस प्रकार आचार्य ने अग्रवालों को ४२३ ई० में धर्मान्तरित किया होगा किन्तु यह विचार विश्वसनीय नहीं है । प्रथम तो यह कि यह उग्रसेन उत्तरी भारत का राजा था, जबकि इलाहाबाद अभिलेख में वर्णित राजा दक्षिण में शासन करता था। अन्ततः हमारे पास ऐसा कोई निश्चित प्रमाण नहीं है, जो कि ८वीं शताब्दी से पूर्व इस जाति के अस्तित्व को सिद्ध करे । प्रारम्भ में १७ देशों के राजाओं के यज्ञ में आने के कारण, उनके । ७ गोत्रों की उत्पत्ति मानी जाती है। कुछ विद्वानों के अनुसार अग्रसेन के १८ पुत्र थे, जिनके नाम पर १८ गोत्र बने, किन्तु यह अनुमान गलत है, क्योंकि एक ही पिता के पुत्र परस्पर विवाह नहीं करते हैं । सम्भवतः राजाओं ने राजा अग्रसेन को पितृवत् मानकर अग्रवाल समाज में प्रविष्ट होना स्वीकारा होगा। अग्रवालों के १८ गोत्र विभिन्न राजाओं के नाम तथा उनके असली क्षत्रिय गोत्र के आधार पर नव-सृजित हुये। गुलाबदेव के मूल क्षत्रिय गर्ग गोत्र से गर्ग, गेंदूमल के गोभिल से गोहिल गोत्र, करण के कश्यप गोत्र से कंछल, मणिपाल के कौशिक गोत्र से कांसल, यन्देव के वशिष्ठ गोत्र से विदल, द्राहकदेव १. भपापइ, पृ० ५५० । २. गुणार्थी, पृ० ५६ । ३. भपापइ, पृ० ५४८ । ४. गुणार्थी, पृ० ५६ । ५. वही Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनधर्म भेद और उपभेद : १५३ के धौम्य गोत्र से ढेलन, सिंधुपाल के शांडिल्य से सिंघल, जैत्र संध के जैमिनी गोत्र से जिंदल, मंत्रपति के मैत्रेय गोत्र से मित्तल, तंबोलकर्ण के तांडव गोत्र से सिंगल, ताराचंद्र के तेतरिय गोत्र से तायल, वीरभान के वत्स गोत्र से बंसल, वासुदेव के धान्यान गोत्र से टेरण, नारसेन के नागेन्द्र गोत्र से नागिल, अमृत सेन के मांडव्य गोत्र से मंगल, इन्द्रसेन के ओर्व गोत्र से ऐरन, माधवसेन के मुकुल गोत्र से मधुकुल और गोधर के गौतम गोत्र से गोइन गोत्र अस्तित्व में आये ।' प्रशस्तियों एवं अभिलेखों में गोशल', गर्ग३, सिंघल, बंसल' आदि गोत्र देखने को मिलते हैं । राजस्थान के अग्रवाल मूलतः काष्ठा संघ से ही सम्बन्धित रहे। (८) नरसिंहपुरा एवं जायसवाल जातियाँ : नरसिंहपुरा व जायसवाल जातियाँ दिगम्बर सम्प्रदाय में मध्यकाल में मेवाड़ के नरसिंहपुरा और जैसलमेर स्थानों से प्रारम्भ हुई। विभिन्न दिगम्बर जैन सन्त इन स्थानों पर जैन मत के प्रचार के लिये गये और लोगों के द्वारा स्वीकार कर लेने पर ये जातियां अस्तित्व में आईं। इन जातियों का नामकरण स्थान के आधार पर हुआ। (९) चित्तौड़ा व नागदा जातियाँ : दिगम्बर जैनों में चित्तौड़ा और नागदा जातियाँ क्रमशः चित्तौड़ा और नागदा से उत्पन्न हुई। ये जातियाँ क्रमशः मध्यकाल में सम्भवतः एक के बाद एक अस्तित्व में आई। इन जातियों के लोगों ने मध्यकाल में कई ग्रन्थों की प्रतिलिपियाँ करवा कर जैनाचार्यों को भेंट की। इन्होंने मन्दिर एवं मूर्तियों के विशाल स्थापना महोत्सव भी आयोजित करवाये । ये मुख्यतः बागड़ के मूलसंघ के भट्टारकों से सम्बन्धित थे । इनके काष्ठा संघ से सम्बन्धित होने के भी प्रमाण मिलते हैं। १५वीं शताब्दी में भट्टारक जिनभूषण ने नागदा जाति पर "नागदहरास" लिखा । (१०) हुम्मड़ जाति : ___ इस जाति का उत्पत्ति स्थान ज्ञात नहीं है। संभवतः अन्य जातियों की तरह यह १. गुणार्थी, पृ० ५६ । २. प्रस, पृ० ८५। ३. वही, पृ० ११९ । ४, वही, पृ० ८२ । ५. वही, पृ० ९७ । ६. जैइरा, पृ० १०७ । •७. उदयपुर के बडा बाजार के संभवनाथ दि० जै० म० के शास्त्र भण्डार में संग्रहीत । Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५४ : मध्यकालीन राजस्थान में जेजनमं भी राजस्थान के ही किसी स्थान से उत्पन्न हुई होगी। राजस्थान में इस जाति के लोग डूंगरपुर, बाँसवाड़ा और प्रतापगढ़, जो कि प्राचीन बागड़ प्रदेश में हैं, पाये जाते हैं । ये दिगम्बर एवं श्वेताम्बर दोनों सम्प्रदायों में पाये जाते हैं ये अधिकांशतः काष्ठा संघ के भट्टारकों से सम्बन्धित रहे, न कि मूल संघ के साथ। यह जाति भी अन्य जातियों की तरह ८वीं शताब्दी में अस्तित्व में आई प्रतीत होती है । इस जाति के लोगों ने कई प्रतिमाओं और मन्दिरों के स्थापना समारोह सम्पन्न करवाये । झालरापाटन का प्रसिद्ध शान्तिनाथ जैन मन्दिर हुम्मड़ जाति के साह पीपा के द्वारा ही निर्मित बताया जाता है । " २ हुम्मड़ जाति कालान्तर में कई शाखाओं और गोत्रों में विभक्त हो गई । इस जाति की तीन शाखाएँ - लघु शाखा, बृहद शाखा व वर्षावत शाखा ज्ञात हुई हैं । वर्षावत शाखा संभवतः महारावल हरिसिंह के मन्त्री वर्षाशाह से उत्पन्न हुई | महारावल के आदेशानुसार उसने इस जाति के १००० परिवारों को सागवाड़ा से कोथल में आमन्त्रित किया । उसने देवलिया में दिगम्बर जैन मन्दिर का निर्माण कार्य भी प्रारम्भ करवाया । इसका स्थापना समारोह उसकी मृत्यु के पश्चात् उसके पुत्र वर्धमान और दयाल के द्वारा १७१७ ई० में सम्पन्न हुआ । इस जाति के १८ गोत्र हैं : ३खेरजू, कमलेश्वर, ककड़ेश्वर, उत्तरेश्वर, मंत्रेश्वर, भीमेश्वर, भद्रेश्वर, गणेश्वर, विश्वेश्वर, संख्येश्वर, अम्बेश्वर, चांचनेश्वर, सोमेश्वर, रजीयानो, ललितेश्वर, कांसवेश्वर, बुधेववर और संघेश्वर । (११) धर्कट वंश : दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों सम्प्रदायों में धरकट जाति के लोग पाये जाते हैं ! रामचन्द्र राय ने सवाई माधोपुर जिले में १०वीं शताब्दी के दिगम्बर मतानुयायी धर्कट - परिवारों द्वारा खुदवाये गये कुछ अभिलेख देखे थे । ४ " धम्म परीक्खा” के लेखक हरिषेण इस जाति के ही थे, जो १०वीं शताब्दी में हुये । " पश्चिमी राजस्थान में रहने वाले धर्कट परिवार अधिकांशतः श्वेताम्बर थे । १०वीं शताब्दी के मण्डोर म्यूजियम के एक अभिलेख में मारवाड़ के एक श्वेताम्बर धर्कट जैन परिवार का वर्णन है । मरुकोट का १. अने०, १३, पृ० १२४ । २. वही, पृ० १२४ । ३. वही । ४. वरदा, १४, अंक २, पृ० ५६ । ५. जैसाऔइ, पृ० ४६८ । ६. जैरा, पृ०५८ । Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनधर्म भेद और उपभेद : १५५ श्रेष्ठी गोलक भी श्वेताम्बर धर्कट जैन था।' आबू से प्राप्त १९८६ ई. के लेख में एक धर्कट श्वेताम्बर परिवार व इसी वर्ष के एक अन्य लेख में जालौर के प्रसिद्ध धर्कट मंत्री यशोवीर का नामोल्लेख है। इस जाति का नामोल्लेख १२३० ई० के दिलवाड़ा के अभिलेख में भी मिलता है। आबू के दो अन्य अभिलेखों में भी इस जाति का उल्लेख है।५ प्रारम्भ में यह जाति राजस्थान में ही उत्पन्न हुई प्रतीत होती है, किन्तु अब दक्षिण में भी यह देखने को मिलती है । "सिरिउजपुरिया थक्कड कुल" आदि हरिषेण द्वारा प्रयुक्त शब्दों से पं० नाथूराम प्रेमी का अभिमत है कि यह जाति टोंक के आसपास सरोंज स्थान पर उत्पन्न हुई। अगरचन्द नाहटा के अनुसार इसकी उत्पत्ति धाकडगढ़ से हुई, जहाँ से महेश्वरी जाति की धाकड़ शाखा की भी उत्पत्ति हुई है। इस स्थान के निर्धारण के सम्बन्ध में इन्होंने दो प्रशस्तियों के प्रमाण प्रस्तुत किये हैं। (१२) श्रीमोढ़ जाति : श्रीमोढ़ आज भी बड़ी संख्या में हैं । कुछ श्रीमोढ़ ब्राह्मण भी हैं, जो अपने आपको "श्रीमोढ़" स्थान का होना बताते हैं। अन्हिलवाड़ा के निकट मोधेरा नामक स्थान से संभवतः यह नाम अस्तित्व में आया। हेमचन्द्र सूरि इसी जाति में पैदा हुये थे । इस जाति के नामोल्लेख के अभिलेख १२वीं शताब्दी में देखने को मिलते हैं । (१३) गुर्जर जैन जाति : ___ यद्यपि यह जाति अधिकांशतः गुजरात में पाई जाती है, किन्तु राजस्थान में भी इस जाति के उल्लेख के कुछ लेख प्राप्त होते हैं। बीकानेर के चिन्तामणि मन्दिर और मन्दिर के भूगृह में सुरक्षित १३०० ई०, १३४९ ई०, १४०० ई० और १४२७ ई० के चार प्रतिमा लेखों में गुर्जर जाति का उल्लेख है ।१० ये धातु प्रतिमाएं सिरोही की हैं। १४६९ ई० के आरासण जैन मन्दिर के एक स्तम्भ लेख में भी इस जाति का उल्लेख्न है ।११ विमलवसहि के १५४६ ई० के एक संघ यात्रा लेख में पालनपुर के संघ १. पृथ्वीराज चौहान एवं उनका काल, पृ० १६० । २. अप्रजैलेस, ५५, ५७, १२५, १५० । ३. वही, क्र० २५१, २७७ । ४. अने०, ३, प्र० १२४ ।। ५. वही। ६. जैसाऔइ, पृ० ४६८ । ७. अने०, ४, पृ० ६१० । ८. जैन पुस्तक प्रस, क्र० ५२ एवं ९३ । ९. जैइरा, पृ० १०८ ॥ १०. बीजैलेस, क्र० २३०, ४०७, ४७०, ५८१ । ११. जरा, पृ० ६२ । Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५६ : मध्यकालीन राजस्थान में जैनधर्म के साथ एक गुर्जर जैन परिवार के भी आने का उल्लेख है।' महोपाध्याय विनय सागर द्वारा खोजे गये पंचायती मन्दिर जयपुर के १२८३ ई० जयपुर के पद्मप्रभु मन्दिर के १४६३ ई० और सांगानेर महावीर के मन्दिर के १४८२ ई० प्रतिमा लेखों में भी इस जाति का उल्लेख है। अभिलेखों में वणित कतिपय अन्य जातियाँ : राजस्थान में प्राप्त विभिन्न अभिलेखों में निम्न जातियों, कुलों एवं वंशों का उल्लेख भी देखने को मिलता है(क) श्वेताम्बर सम्प्रदाय के अन्तर्गत : दीसावाल, मोढ़वाल, मोढ़', वीरवंश, श्रीकुल, श्रीवंश', श्री श्रीवंश', कच्छक, क्षत्रपकुल११,गडाकवंश१२,नाग'3,नागर, श्री श्रीमाल१५,परबड़ी६,भहेडरा, भावसार, मंत्रिदलीय", वायडर, वृद्धहुम्बड़२१, श्री वीरव ज्ञातीय२२, सिमड़ २३, १. अप्रजैलेस, सं० २१५ । २. प्रलेस, क्र० ९२, ४२०, ८२० । ३. श्री जैप्रलेस, क्र० ५४, ३४५, एवं प्रलेस क्र० १४७ । ४. श्री जैप्रलेस, क्र० ३६४ । ५. प्रलेस, क्र० ६०८, ८६१ । ६. श्री जैप्रलेस, क्र० ६४, १३७, १७५ । '७. वही, क्र० ३२९ । ८. वही, क्र० २६, ४४, १८९, ३३९, ३२४, ३६१ । ९. प्रलेस, क्र० ५४७, ५६१, ६९२, ७४७, ९५१ । १०. वही, क्र० २८० । ११. वही, क्र० ६७६ । १२. वही, क्र० ८९५ । १३. वही, ६२६ । १४. वही, क्र० १०२६ । १५. वही, परिशिष्ट ६, पृ० २५०-२५१ । १६. वही, क्र० २२१ । १७. वही, क्र० ८२१ १८. वही, क्र० ४७८ । १९. वही, क्र० ५९६, ५९७ । २०. वही, क्र० ६४५, ७४५, ८८७ । २२. वही, क्र० ९९९। २१. वही, क्र० १०३१ । २३. वही, क्र० ९१ । Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनधर्म भेद और उपभेद : १५७. खहोडान्वय', छोहरियान्वय', श्रावकान्वय', सोखुलान्वय ।। (ख) दिगम्बर सम्प्रदाय के अन्तर्गत : अग्रोतकान्वय", गोमाराडान्वय', नरसिंह, नागद्रह, नागभट्ट जातीय ,भद्रान्वय', सिंहपर' आदि। अभिलेखों में वर्णित कतिपय अन्य गोत्र : विवेच्य काल में महत्त्वपूर्ण जैन जातियों में प्रचलित गोत्रों के अतिरिक्त अन्य गोत्र भी अभिलेखों में उपलब्ध होते हैं ।१२ (क) श्वेताम्बर जैन जातियों के गोत्र : अटकर, अंबाई, आइरी, आचाइमान, आकदूधिया, इटोटिया, उच्छवाल, उजरसुर, उपरणमि, उसभ, उहवडेचा, उहस, कच्छग, कठवालिया, कठियारा, कनउज, करमदीया, काकलवाड्या, काठड़, खटवड़, खाटड़, खाटड़ा, खारड, खाबही, खाहड़, खाहरडा,. गुहउचा, जूंगलिया, गोदुड, गुहिलवाल, गुंदोचा, घाघ, चड़चह्या, चणगीया, चाण, चिणालिया, चीपू, चींचट, चुपड़, चोवलदग, छींछोड़ी, छोहर्या, जंडिया, जाइलवाल, जांडलवाज, जावड़, जोहाणेचा, टप, टॉक, ठाकुर, डीडावत, डीवउड़ा, डेडाणा, डोमेल, ठोर, तातरटीला, तेलहर, थामलेचा, थिरूत, थूल्ल, दरड़ा, दुसाश, देसलहर, दोसी बोहड़, धनाणेचा, नडवीया, नगडियाना, नवल, नहुनेचा, नावियाड़ा, नांदेचा, परिघल, प्राज्ञेचा, पल्हवड़, पहाणेचा, पंचुली, पंचाणेचा, पाटदड़, पाताणी, पापड़, पोरसाणी, पालडेचा, पाल्हाउत, पहिल, बडाहडा, बलहि, बलाहडिया, बहकड़ा, बहुरा, बातरूणरू, बावल, बाहिया, बूटाड़ा, भरटाणा, भरदब, बहकटा, भांडिया, भूरा, भेलडिया, महरोल, १. प्रलेस, क्र० १०१ । २. वही, क्र० १०० । ३. वही, क्र० २२२ । ४. वही, क्र० १०७ । वही, क्र० ८३३ । ६. वही, क्र० १८७। ७. वही, क्र० २७९, ९९६ । ८. वही, क्र० ६६२ । ९. वही, क्र० ४५। १०. वही, क्र० ८३३ । ११. वही, क्र० १२० । १२. देखें, प्रलेस, परि० ७ । Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५८ : मध्यकालीन राजस्थान में जैनधर्म मंडलेचा, मंडोरेचा, बहुरा, मादडेचा, माल्हू, मांडुत्र, मुसल, मूंधा, मुंडलेह, मोहणेचा, रेखाणी, रोटागण, रोहरीया, रोहिणेय, राव्ही, लंडिका, लाभू, लालण, लिगा, लूसड़, लेतिया, लोलस, वच्छश, वडालंबिया, वणवट, वढाला, बलटउण, विणेलिया, वरलव, वहकटा, विनायकीया, वीचूहस, वीरेचा, स्वयम्भ, साउल, साउलेचा, सामकठ, साली, साहिडवाख, साहूला, साहू साख, सांड, सांपुडा, सीखनो, सिंघड़, सिंघाड़िया, सींधुड, सीतोरेचा, सरूआ, सेथाल, सोढ़वाल, सोन, सोपरा, हंगड आदि । (ख) दिगम्बर जैन जातियों के गोत्र : उत्रेश्वर, कासिन, काकडेश्वर, गंगाधा, गिरिलव, दानीपत, नंदकेरतर, परवेसई, बुध, कोठेचा, कासिल, संपडिया, सावड़ आदि । जैनोपजीवी जातियाँ : (क) भोजक या सेवग : ___ भोजक या माग ब्राह्मण, जैनियों द्वारा मान्यता प्राप्त महत्त्वपूर्ण जाति थी और इस जाति के ही पुजारी मुख्यतः नियुक्त किये जाते थे। ११७९ ई० के ओसिया अभिलेख में मन्दिर में नियुक्त किये गये भोजक जाति के लोगों का उल्लेख है।' इस जाति के लोग लम्बी संघ यात्राओं में भी जैनों के साथ जाते थे। इस तथ्य की पुष्टि आबू के १५६० ई० के लेख से भी होती है। मारवाड़ से प्राप्त कई ताम्रपत्रों में भोजकों को दिये गये अनुदानों के उल्लेख मिलते हैं । जिसमें लोटाणा से महाराजा अजित सिंह का १६९६ ई० का लोटाणा का ही १७०४ ई० का और महाराजा जसवन्त सिंह का १६९२ ई० का ताम्रलेख विशेष महत्त्वपूर्ण है। भोजक जाति के लोग ओसवाल जैनियों से घनिष्ठ रूप से सम्बन्धित थे और विवाहादि अवसरों पर उनके लिये पौरोहित्य कर्म करते थे। (ख) महात्मा या मथण : __ यह जाति भी जैनियों से अत्यधिक घनिष्ठ रही। इस जाति की उत्पत्ति का स्पष्ट उल्लेख नहीं मिलता है । मथेण जाति के लोग कुशल लेखक होते थे व जैन ग्रन्थ भंडारों के अधिकांश ग्रन्थों की प्रतिलिपियाँ व कलाकृतियाँ इन्हीं के द्वारा रची हुई प्राप्त होती हैं । बीकानेर के चिंतामणि पार्श्वनाथ मन्दिर के १६२७ ई० और १७२१ ई० के लेखों में मथेण जाति के व्यक्तियों के नामोल्लेख है । १४२६ ई० के आबू के लेख में मथेण १. नाजैलेस, १, क्र० ८९४ । २. जैरा, पृ० ६२। ३. बीजैलेस, क्र. २४, २५ । Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनधर्म भेद और उपभेद : १५९ परिवार के आबू में आने का उल्लेख है।' बीकानेर के १७०३ ई० के सामीदास के समाधि लेख में उसके श्वेताम्बर जैन पंथ के खरतर गच्छ के मतानुयायी होने का उल्लेख है। 'निष्कर्ष एवं समालोचना : १. जैन मत में प्रचलित अधिकांश महत्त्वपूर्ण जातियों की उत्पत्ति राजस्थान में पूर्व। मध्यकाल में हुई। २. जातियों के नामकरण का आधार सामान्यतः उत्पत्ति स्थान रहा । ३. जातियों की उत्पत्ति के साथ ही गोत्र भी उत्पन्न हुए। प्रारम्भ से इनकी संख्या बहुत कम थी, किन्तु धीरे-धोरे स्थान, व्यक्तियों व व्यवसायों के आधार पर इनकी संख्या वृद्धि होती गई। ४. मूलतः विभिन्न क्षत्रिय वंशों से जैन जातियाँ उत्पन्न हुई, किन्तु बहुसंख्य गोत्रों को देखने पर आभास होता है कि अन्य जातियाँ भी जैन मत में दीक्षित हुई होंगी। सम्भवतः मुसलमानों के अत्याचारों से त्रस्त होकर बहुत सी जातियों ने हथियार बाँधन छोड़कर, वाणिज्य एवं व्यवसाय को अपनाया । गुणार्थी ने अपनी पुस्तक में लिखा है। कि “मीन पुराण" भूमिका के लेखक मुनि मगन सागर के अनुसार मुसलमानों और अन्य राजपूतों के अत्याचारों के कारण तंग आकर कई मीणे मुसलमान हो गये और कई ओसवाल समाज में परिवर्तित हो गये, जो "बड़गोत्या" ओसवाल के नाम से प्रसिद्ध हैं । "जाति भास्कर', 'जाति अन्वेषण" व "शुद्धि चन्द्रोदय'' में लिखा है कि ओसवाल समाज में कई गोत्र उनकी असलियत के प्रमाण हैं जैसे-चोरडिया (चोरी, डाका डालने वाले), सोनी (सुनार), बिरहट (बारेठ व दमामी), छाजिया (सूप बनाने वाले), तेलिया (तेली), चंडालिया (भंगी) और कूकरा (कुत्ते पालने वाले) थे । इसी प्रकार कतिपय गोत्रों के बारे में कई नई उत्पत्ति विषयक व्याख्याएँ भी उप-लब्ध होती हैं । कृषि से सम्बन्धित जातियाँ व गोत्र खेतपालिया, धान्य को कोठार में संचित करने वाले कोठारी व न्याती, अन्य भण्डारों के स्वामी भण्डशाली, संचेती व कोठारी कहलाते थे। इसी प्रकार वस्त्र का व्यापार करने वाले 'दोषी", कपास के "कपासी", गोंद के व्यापारी "कुम्मट", स्वर्ण के व्यापारी सोनी व हिरण, सोने के कावडिया, फदिया व गधैया सिक्कों के व्यापारी क्रमशः कावड़िया, फिरोदिया व गदैया, सभी सिक्कों के व्यापारी नानावटी, घी के घिया, नमक के लूणिया, हींग के हींगड़, १. अजैलेस, क्र० १७६ । २. बीजलेस, क्र० १९७३, १९७४ । ३. गुणार्थी, पृ० ५९ । ४. जैसरा, पृ० ३५२-३५३ । Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .१६० : मध्यकालीन राजस्थान में जैनधर्म जहाजों से व्यापार करने वाले बोथरा, रंकू नामक बकरी के बालों के कम्बलों के व्यापारी रांका व जरी के व्यापारी पटना हुये । ५. गोत्रों के अतिरिक्त सभी जातियों में, दस्सा व बीसा या लघुशाखा एवं बृहत्त शाखा, छोटे साजन व बड़े साजन, बड़ा साथ व लोढ़ा साथ नामक प्रभेद भी दृष्टिगत होते हैं। जाति से पृथक् अपेक्षाकृत नीची जाति की स्त्री से विवाह करने पर उनकी संतति “दस्सा" (आधे जैन) तथा शुद्ध समूह स्वयं को बीसा या बड़ा मानने लगा । शूद्र जातियों की स्त्रियों से विवाहोपरान्त उत्पन्न संतति पांचा (चौथाई जैन) भी कहलाती थी। ६. अभिलेखीय प्रमाणों से सिद्ध होता है कि नये गोत्रों की उत्पत्ति के साथ ही कालक्रमेण कतिपय गोत्र लुप्त भी हो गये, जैसे-ओसवाल जाति में धोर, चाँद, बिकाडिया, भरतरा, गुंडालिया, भूरा आदि । अन्य जातियों में भी यही स्थिति रही । ७. अभिलेखीय प्रमाणों से यह भी सिद्ध होता है कि कतिपय गोत्रों के व्यक्ति अधिक अर्थ सम्पन्न एवं धर्मनिष्ठ थे। सुराणा, कांकरिया, तातेड़, वरडिया, नाहर, बाफना, रांका, चंडालिया, नवलखा, डांगी, नाहटा, संचेती, कटारिया, पामेचा, लोढ़ा, चोपड़ा, बछावत, भण्डारी, कोठारी, बोथरा, सेठिया, मुहनोत, सिंघवी आदि के उल्लेख के अधिक अभिलेख उपलब्ध होते हैं। ८. पूर्ववर्ती काल में माहेश्वरी जाति के कुछ गोत्र जैनों से सम्बद्ध थे, जिन्होंने पाश्चात्वर्ती काल में पुनः शैव मत ग्रहण कर लिया । खरतर गच्छ पट्टावली के अनुसार जिनदत्त सूरि ने बीकमपुर में कई महेश्वरी परिवारों को जैन मत में दीक्षा दी थी। मंडोवरा, देवपुरा, मंत्री, खाटोद, न्याती आदि गोत्र वाले पहले जैन ही थे, क्योंकि कई प्रतिमालेखों में इनका उल्लेख मिलता है। ९. जैन मत में जातियों का उदय राजकीय प्रश्रय में हुआ। अधिकांश उदाहरणों में राजा ने जैन मत स्वीकार किया, तदनन्तर प्रजा ने भी जैन मत में दीक्षित होकर विभिन्न गोत्रों का निर्माण किया। १०. भण्डारी, कोठारी आदि गोत्र विभिन्न जातियों में पाये जाते हैं । इससे स्पष्ट है कि व्यवसाय व कार्य गोत्र निर्माण का प्रमुख आधार था। आवास, प्रवास के कारण भी पूगल से आने वाले पूंगलिया, मेड़ता के मेड़तिया आदि कहलाये । कतिपय क्षत्रिय जातियों ने धर्मान्तरण के बावजूद मूल गोत्र बनाये रखा, जैसे-सोनिगरा, सिसोदिया, हyडिया श्रावक आदि । ११. जैनमत में जातियों की उत्पत्ति का श्रेय जैनाचार्यों द्वारा दिये गये प्रतिबोध को है। चतुर्विध संघ में भेद-प्रभेद व फूट के कारण लघु समूहों में आपसी प्रतिस्पर्धा १. खरतर गच्छ पट्टावली, पृ० २४ । Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनधर्मं भेद और उपभेद : १६१ रहने से अधिकाधिक मन्दिरों व मूर्तियों की प्रतिष्ठा हुई तथा विपुल साहित्य सृजित हुआ । इससे मध्यकाल में जैनधर्म समृद्ध बना रहा । अपने-अपने मत को सत्य व धर्म के आदर्शों का रक्षक बताने के संघर्ष में, पार्थिव प्रतिमानों में अत्यधिक संख्या वृद्धि हुई । १२. जैनधर्म के भेदोपभेदों से जैन मान्यताओं या मुनि आचार में कोई विशेष परिवर्तन नहीं हुआ, किन्तु दिगम्बर- श्वेताम्बर आचार पर गम्भीर प्रभाव पड़ा । श्वेताम्बर सम्प्रदाय में मुनियों द्वारा न केवल वस्त्र ग्रहण की मात्रा बढ़ी, अपितु तीर्थंकरों की मूर्तियों में भी कौपीन का चिह्न प्रदर्शित किया जाने लगा तथा मूर्तियों का आँख, अंगी, मुकुट द्वारा अलंकरण भी प्रारम्भ हो गया । ये प्रवृत्तियाँ ८वीं शताब्दी के पूर्व नहीं थीं । १३. चैत्यवासी प्रथा प्रारम्भ में शास्त्रों के पठन-पाठन व साहित्य सृजन की सुविधा के लिए प्रारम्भ हुई प्रतीत होती है, किन्तु धीरे-धीरे यह साधु वर्ग की स्थायी जीवन प्रणाली बनने से परिग्रह मूलक और आचरण शैथिल्य का कारण बन गई । १४. चैत्यवासी प्रथा का एक बड़ा लाभ यह हुआ कि इन गादियों और मठों में विशाल शास्त्र भण्डार स्थापित हो गये और ये विद्याभ्यास के सुदृढ़ केन्द्र बन गये । ९ वी व १०वीं शताब्दी के पश्चात् इन्हीं स्थानों पर विपुल साहित्य विरचित हुआ । इसी उपयोगिता के कारण भट्टारक गादियाँ कई नगरों में स्थापित हुईं व अनेकों मंदिरों में शास्त्र भण्डार स्थापित हुये । १५. १५वीं शताब्दी के पश्चात् उत्पन्न पंथ जैनधर्म में क्रांतिकारी सिद्ध हुए, क्योंकि वर्तमान में अधिकांश जैन मतावलम्बी इन्हीं के अन्तर्गत विभक्त दिखाई देते हैं । ११ Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्याय चतुर्थ जैन तीर्थ मध्यकालीन राजस्थान में जैन धर्मानुयायियों में आत्मशुद्धि, आत्म कल्याण एवं पूज्य तीर्थंकरों की वंदनार्थ तीर्थ** यात्रा की मान्यता विशेष लोकप्रिय थी । तीर्थ शब्द से उन सबका व्यवहार होता है, जो पार करने में साधक हैं। कुछ प्राचीन जैनाचार्यों ने तीर्थ के स्थान पर "क्षेत्रमंगल" शब्द का प्रयोग किया है ।२ "तीर्थ" शब्द "तीर्थ क्षेत्र" या "क्षेत्रमंगल' के अर्थ में बहुप्रचलित एवं रूढ़ है। सम्पूर्ण तीर्थ क्षेत्रों को संरचना में भक्तों की पूज्य पुरुषों के प्रति कृतज्ञता की भावना ही मूल कारण है । जैन समाज में ३ प्रकार के तीर्थ क्षेत्रों की मान्यता का प्रचलन है ** तीर्थ शब्द "तृ" धातु से निष्पन्न हुआ है। "तृ" धातु के साय “थक्' प्रत्यय लगाने से तीर्थ शब्द की निष्पत्ति होती है । “तीयन्ते अनेन आस्मिन् वा" । अर्थात् जिसके आधार से तरा जाय । जैन शास्त्रों में तीर्थ शब्द का प्रयोग अनेक अर्थों में किया गया है, यथा : संसाराब्धेरपारस्य तरणे तीर्थमिष्यते । चेष्टितं जिननाथानां तस्योक्तिस्तीर्थसंकथा । -जिनसेनकृत आदिपुराण ४१८ अर्थात् जो इस अपार संसार-समुद्र से पार करे, उसे तीर्थ कहते हैं । ऐसा तीर्थजिनेन्द्र भगवान् का चरित्र ही हो सकता है। अतः उसके कथन करने को तीर्थआख्यान कहते हैं । 'बृहत्स्वयंभू-स्तोत्र" में मल्लिनाथ की स्तुति करते हुये आचार्य समन्तभद्र ने उनके तीर्थ को जन्म-मरण रूप समुद्र में डूबते हुए प्राणियों के लिए प्रमुख तरणपथ बताया है । पुष्पदंत भूतबलि प्रणीत “षट्खंडागम" (भाग ८, पृ० ९१) में तीर्थकर-को धर्मतीर्थ कर्ता बताया है । “आदिपुराण" में श्रेयांसकुमार को दान तीर्थ का कर्ता बताया है। "आदिपुराण' में (२/३९) मोक्ष प्राप्ति के उपायभूत सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक् चारित्र को तीर्थ बताया है । "आवश्यक-नियुक्ति" में चातुर्वर्ण अर्थात् मुनि, साध्वियों, श्रावक, श्राविका, इस चतुर्विध संघ को तीर्थ माना है। १. भादिजैती, ४, पृ० १० । २. षट्खंडागम, प्रथम खंड, पृ० २८ । Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन तीर्थ : १६३ १. सिद्ध क्षेत्र या निर्वाण क्षेत्र-वे क्षेत्र जहां किसी तीर्थकर या मुनि का निर्वाण ही हुआ है। २. कल्याणक क्षेत्र-जहाँ किसी तीर्थंकर का गर्भ, जन्म, दीक्षा और केवल्य ज्ञान कल्याणक हुआ हो। ३. अतिशय क्षेत्र या चमत्कारी तीर्थ-जहाँ किसी मन्दिर या मूर्ति में कोई चमत्कार दिखाई दे । सामान्यतः लोकभावना एवं अनुश्रुतियाँ ही इनकी मान्यता की कसौटी हैं। __मध्यकाल में तीर्थ यात्रा के लिये संघपति के नेतृत्व में, जैनाचार्यों के साथ, चातुर्विधसंघ यात्रायें हाथी, घोड़े, रथ, गाड़ी आदि के द्वारा सम्पन्न की जाती थीं। कभी-कभी इनका सम्पूर्ण व्यय बड़े श्रेष्ठियों के द्वारा भी वहन किया जाता था। राजस्थान में जैन तीर्थों का बाहुल्य देखने को मिलता है । अतः संघों द्वारा एक ही यात्रा-चक्र में विभिन्न तीर्थों के दर्शनों हेतु, छोटे क्षेत्रों के तीर्थों के समूह को 'पंचतीर्थी' की संज्ञा दे दी गई है। राजस्थान की कुछ पंचतीथियाँ निम्नलिखित हैं : १. मारवाड़ को बड़ी पंचतीर्थी--इसका केन्द्र स्थल सादड़ी (मारवाड़) है । इसके अन्तर्गत रणकपुर, मुंछाला महावीर, नाडलाई, नाडौल और वरकाणा पार्श्वनाथ तीर्थ हैं। २. मारवाड़ की छोटी पंचतीर्थी--आबू क्षेत्र में पिंडवाड़ा से मारवाड़ की छोटी और बड़ी पंचतीर्थी की जाती है । छोटी पंचतीर्थी में नाणा, दियाणा, नांदिया, वरमाण और अजारी तीर्थ हैं। ३. मेवाड़ की पंचतीर्थी--इसके अन्तर्गत केसरिया जी, नागदा, देलवाड़ा, दयालशाह का किला और करेड़ा तीर्थ माने जाते हैं। ४. जैसलमेर की पंचतीर्थी--इसके अन्तर्गत जैसलमेर, लुद्रवा, अमरसर, देवीकोट व बरसलपुर आते हैं। राजस्थान में न तो सिद्ध क्षेत्र हैं और न कल्याणक क्षेत्र ही, केवल अतिशय व चमत्कारिक तीर्थ हैं । कुछ जैन स्मारक एवं मंदिर कलात्मक मान्यता एवं भव्यता के कारण "कलातीर्थ" की संज्ञा से भी विभूषित किये जाते हैं। साम्प्रदायिक सौहार्द्र के पूर्ण अभाव के कारण कुछ तीर्थों पर श्वेताम्बर व दिगम्बर में अधिकार को लेकर विवाद है, जैसे-केसरिया जी आदि । पूर्व मध्यकाल के कतिपय बहु-लोकमान्य तीर्थ या तो मुस्लिम विध्वंस का शिकार हो गये या कालगर्त में लुप्त हो गये । आस्थावान् जैनाचार्यों एवं श्रावकों ने कतिपय को पुनर्प्रतिष्ठित भी करवाया । राजस्थान के जैन तीर्थ, प्रभावना की दृष्टि से ही नहीं, अपितु जैन मन्दिर निर्माण कला, मूर्तिकला, स्थापत्य, विविध जिनायतनों, शिलालेखों, मूर्तिलेखों, विभिन्न स्मारकों, साहित्यिक केन्द्रों, शिक्षा केन्द्रों एवं शास्त्र भण्डारों के १. जैसरा, पृ० १९६ । Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४ : मध्यकालीन राजस्थान में जैनधर्म लिये भी उल्लेखनीय हैं । राजस्थान के जैन तीर्थों को उपेक्षित करके इस प्रदेश के सांस्कृतिक इतिहास का सृजन नहीं किया जा सकता है । (अ) पूर्व मध्यकाल : १. आबू तीर्थ : सिरोही जिले के दक्षिणी भाग में, मरूथरा की दक्षिणी-पश्चिमी गोद में स्थित आबू एक पर्वतीय स्थल है, जो राजस्थान के रीढ़ स्तम्भ अरावली पर्वत की सिरमौर शाखा है: एवं गुरू शिखर ( ५६५३ " ) इसकी सबसे ऊँची चोटी है । ३० कि० मी० लम्बे व १२ कि० मी० चौड़े इस पर्वत के नाम पर, इस स्थान पर कालक्रम में एक बस्ती का आविर्भाव हुआ । द्वितीय शताब्दी पूर्व के साँची के अभिलेख में वर्णित "अबोद' सम्भवतः आबू ही था । पूर्व मध्यकाल से ही यह स्थान " देलवाड़ा" कहा जाने लगा | माउन्ट आबू की विशेष ख्याति देलवाड़ा के जैन मन्दिरों से है, जो यहाँ के बस स्टॉप से लगभग डेढ़ मील दूर है। कर्नल टॉड के अनुसार देलवाड़ा " देवलवाड़ा” का संक्षिप्त रूप है, जिसका अर्थ है "देवालयों" का स्थान; इसीलिये यहाँ के विश्वविश्रुत मन्दिरों के समूह को यह नाम दिया गया । यहाँ के मन्दिरों के समूह में ५ मन्दिर हैं, तथा कुछ दूरी पर स्थित अचलगढ़ में ४ मन्दिर हैं । आबू राजस्थान के इतिहास, संस्कृति और पुरातत्त्व का त्रिवेणी संगम है । यहाँ के मन्दिर अपनी तक्षण कला, धातु प्रतिमाओं, वास्तु कला तथा शिलालेखों की विशिष्टता के कारण महत्वपूर्ण हैं | "दीपार्णव'", शिल्पार्णव", शिल्परत्नाकर ", " प्रासाद मंडन " आदि शिल्प शास्त्र के प्रचलित ग्रन्थ इन मन्दिरों को आदर्श नमूने मानते हैं । आबू १०३२ ई० से पूर्व ही जैन तीर्थ था । आर्यभद्र बाहुस्वामी विरचित "बृहत् कल्पसूत्र” में इसका तीर्थं स्थान के रूप में उल्लेख है । "विविध तीर्थं माला " ( इसमें उल्लेख है कि महावीर के १० वें पट्टधर " आर्य सुस्थित" आबू की तीर्थयात्रा के लिये गये थे ।) एवं " उपदेश सप्ततिका" (इसमें उल्लेख है कि पहली शताब्दी ईस्वी में पादलिप्तसूरि नित्यप्रति आकाश गामिनी विद्या के द्वारा आबू सहित पाँच तीर्थ स्थानों की यात्रा करके दर्शन प्राप्त करते थे ।) में भी यह तीर्थ क्षेत्र के रूप में वर्णित है । १३६९ ई० के एक अभिलेख से ज्ञात होता है कि भगवान् महावीर अर्बुद भूमि पर पधारे थे। ऐसा विश्वास है कि बड़गच्छ के संस्थापक उद्योतनसूरि ९३७ ई० में १. एसिटारा, पृ० ४४९ । २. द मोन्यूमेंट ऑफ साँची, भाग १, पृ० ३०० ॥ ३. टॉड — ट्रेवल्स इन वेस्टर्न इंडिया, पृ० १०६ ( हिन्दी अनुवाद) | ४. एसिटारा, पृ० ४५० । Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन तीर्थ : १६५ बाबू आये थे ।' इन सब तथ्यों से प्रमाणित होता है कि आबू १०३२ ई० से पूर्व भी एक जैन तीर्थ के रूप में मान्यता प्राप्त था। आचार्य जिनप्रभ सूरि ने "अर्बुदाद्रिकल्प" की रचना की है, जिसमें अर्बुदाचल क्षेत्र का इतिहास और मन्दिर निर्माण का वर्णन है । भट्टारक ज्ञानसागर ने भो “सर्व तीर्थ वंदना" में आबू तीर्थ की अत्यधिक प्रशंसा की है। (क) विमल वसहि : यह मन्दिर १०३१ ई० में गुजरात के महाराजा भीमदेव सोलंकी के महामात्य पोरवाड़ वंशी विमलशाह ने बनवाया था। ये आबू मंडल (चन्द्रावती प्रान्त) के दण्डनायक थे एवं उस समय आबू पर राजा धुंघुक का शासन था, जो भीमदेव के सामन्त हो गये थे । विमलशाह निःसन्तान थे तथा जीवन की अन्तिम अवस्था में चन्द्रावती एवं अचलगढ़ ही इनका निवास स्थान रहा। अपने गुरु आचार्य धर्मघोष सूरि के उपदेश से इन्होंने यह प्रसिद्ध आदिनाथ मन्दिर बनवाया। इससे पूर्व भी इस स्थान पर कोई जैन तीर्थ रहा होगा, तभी तो आचार्य धर्मधोष सूरि ने इनको आदेश दिया कि “तू आबू तीर्थ का उद्धार कर ।"५ इस मन्दिर की प्रतिष्ठा १०३१ ई० में आचार्य वर्धमान सूरि के द्वारा सम्पन्न हुई, अतएव मन्दिर निर्माण कार्य बहुत पहले ही शुरू हो गया होगा। जैन मान्यतानुसार इस मन्दिर के निर्माण पर १८ करोड ५३ लाख रुपये व्यय हये । यह सम्भव भी है, क्योंकि ४ करोड़, ५३ लाख ६० हजार रुपये तो स्वर्ण मुद्राएँ बिछाकर जमीन प्राप्त करने में ही व्यय हो गये थे । मन्दिर का विस्तार १५५४९२ फीट है । इसमें निर्मित गर्भगृह, सभा मंडप, स्तम्भ, देवकुलिका, हस्तिशाला आदि ११वीं शताब्दी के शिल्प-सिद्धान्त के १. जैइरा, पृ० ५८ । २. वितीक, पृ० १५ । ३. आबूगढ़ अभिराम, काम त्रिभुवन माँ सारे । श्री जिन बिम्ब अनेक, समस्त भव जल तारे ॥ जिनवर भुवन विशाल, देखत पाप पणासे । कहे ताँ न लहूँ पार कर्म अनन्त विनासे ॥ आबूनी रचना प्रबल देखत जनमन उल्लेस । ब्रह्म ज्ञान सागर वदति मुझमन जिन चरणे बसे ।। ४. ओझा, सिरोही राज्य, पृ० ६१ । ५. जयन्त विजय, आबू, १, पृ० २९-३० । ६. वही, पृ० ३३ । Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६६ : मध्यकालीन राजस्थान में जैनधर्मं अनुरूप हैं, एवं इस शताब्दी के अधिकतम मन्दिरों की भाँति भुवनेश्वर प्रणाली के प्रतीक हैं । मुख्य दीवारों के अन्दर की ओर किनारे-किनारे देव कुलिकाएँ हैं, जो जैन स्थापत्य के अनुसार बावन जिनालय कहे जाते हैं । प्रत्येक जिनालय में प्रवेश द्वार के समक्ष ऊँची वेदी पर २४ तीर्थंकरों में से एक तथा उनके आश्रित देव / देवियों की अन्य प्रतिमाएँ स्थित हैं । दो-दो खम्भों के मध्य में स्तम्भों के अनुरूप टिकी हुई मेहराबों से प्रत्येक जिनालय के लिये पृथक एक मंडपिका सी बन जाती है । प्रत्येक विभाग पर मेहराबदार अथवा चपटी छतों के कारण ये और भी स्पष्ट दिखाई देती हैं । पर्वत के नीचे वाले भाग झालीवाब के श्वेत संगमरमर से सम्पूर्ण मन्दिर निर्मित है । मन्दिर का बाह्य स्वरूप सादगी पूर्ण है, किन्तु अन्तःभाग में स्तम्भ, छतें, मण्डप आदि की बारीक तक्षण कला सर्वोत्कृष्ट है । विभिन्न जैन मतावलम्बियों द्वारा भिन्न-भिन्न देवकुलिकाओं का निर्माण करवाने से प्रत्येक की सजावट में भिन्नता स्पष्ट दृष्टिगत होती है, परन्तु सम्पूर्ण निर्मित संरचना यह प्रमाणित करती है कि इसकी निर्माण योजना एक ही मस्तिष्क की उपज रही होगी । यद्यपि जिनालयों की वेदियाँ सादगीपूर्ण हैं, लेकिन स्तम्भों एवं छतों पर धन, श्रम, कौशल और अभिरुचि का खुलकर प्रयोग हुआ है । छतों के सूक्ष्म तक्षण को देखकर ऐसी प्रतीति होती है कि यह संगमरमर पत्थर की न होकर सफेद कागज या प्लास्टिक की हो, जिसे शिल्पकार ने छेनी से नहीं, अपितु कैंची से काटकर सुघड़ता से निर्मित किया हो । जिनालयों के सम्मुख चारों ओर दोहरे स्तम्भों की मंडपाकार प्रदक्षिणा हैं । इसके बाद विशाल प्रांगण के ठीक मध्य में मुख्य मन्दिर । पूर्व की ओर से प्रवेश करने पर हस्तिशाला (२५ x ३० फीट) है । इसके आगे २५ फीट लम्बा-चौड़ा मुख मण्डप हैं | उससे आगे देवकुलों की पंक्ति व भमिति और उपरोक्त वर्णित प्रदक्षिणा मण्डप है । तत्पश्चात् मुख्य मन्दिर का ४८ स्तम्भों की कुम्भिकाओं पर टिका हुआ रंगमण्डप मिलता है, जिसका गोल शिखर २४ स्तम्भों पर आधारित है । प्रत्येक स्तम्भ के अग्रभाग पर तिरछे शिलापट्ट आरोपित हैं, जो उस भव्य छत को धारण करते हैं । छत की पद्मशिला के मध्य में बने हुये लोलक की कारीगरी अद्वितीय और कला के इतिहास में विख्यात है । उत्तरोत्तर छोटे होते हुये चन्द्रमण्डलों (ददरी ) युक्त कंचुलक, कारीगरी सहित १६ विद्याधारियों की आकृतियां अत्यन्त मनोहारी है । रंगमण्डप को रचना व उत्कीर्णन का कौशल देवलोक जैसा आभास देता है । रंगशाला से आगे नवचौकी है । छत के (९) नौ विभागों के कारण यह नाम रखा गया है । इससे आगे गूढमण्डप है, जहाँ से मुख्य प्रतिमा का दर्शन-वन्दन किया जाता है । इसके सम्मुख गर्भगृह में एक ॐची वेदी पर सप्तधातु निर्मित मूल नायक आदिनाथ की विशाल मूर्ति है । इस प्रतिमा में नेत्र हीरों से निर्मित हैं, जो स्वयं ही प्रकाशवान् हैं । गर्भगृह एवं समस्त जिनालयों के के ऊपर शिखर बने हुये हैं, एवं सर्वत्र सूक्ष्म शिलांकन की छटा पुष्प, लतिकाएं, तीर्थंकर Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - - - जैन तीर्थ : १६७ की माता के १४ स्वप्न, नेमिनाथ की बारात, शासन देवताओं आदि के अंकन से मण्डित है। यहाँ को दुर्लभ पंचधातु प्रतिमाएँ, तीर्थंकर मूर्तियाँ, देवी-देवता, यक्ष, किन्नर, भैरव, गन्धर्व की मूर्तियाँ आदि मूर्तिकला के श्रेष्ठ नमूने हैं । छतों में पुष्पों के तक्षण का वैविध्य इतना कलात्मक, सुरुचिपूर्ण और सौन्दर्यमय है, कि निर्जीव पाषाण भी सजीव प्रतीत होते हैं। वस्तुतः यहाँ की कला में सोद्देश्यता दृष्टिगत होती है । मूलनायक के दाहिनी और आँगन के दक्षिण-पश्चिम कोने में अम्बिका का मन्दिर स्थित है, जो इस जिनालय से भी प्राचीन बताया जाता है । इसके बाहर भैरव, क्षेत्रपाल अपने वाहन श्वान के साथ चित्रित है। पास ही विशाल कक्ष में नेमिनाथ की विशाल मूर्ति है, जो एक ही संगमरमर के पत्थर से बनी हुई है । मन्दिर के सामने अश्वारूढ़ विमलशाह की मूर्ति है । पीछे विमलशाह का भतीजा बैठा है । मूर्ति के ऊपर वैभव का प्रतीक छत्र भी लगा हुआ है। मूर्ति के चारों ओर दस, कारीगरी एवं आभूषणों से युक्त, गजारोहियों की मूर्तियाँ निर्मित हैं। मन्दिर के दरवाजे पर ११४९ ई० में निर्मित हस्तिशाला है, जिसे विमलशाह के वंशज-वेढक, आनन्दक, पृथ्वीपाल, धीरक, लहरक एवं नीनक नामक पुरुषों ने बनवाया था। इसके अतिरिक्त एक हाथी परमार जगदेव ने तथा दूसरा ११८० ई० में महामात्य धनपाल ने बनवाया था। सभी हाथियों पर प्रारम्भ में मूर्तियां रही होंगी, किन्तु वर्तमान में केवल तीन ही अवशिष्ट हैं । इस हस्तिशाला के बाहर महाराव लूण्ढा (लुम्भा, लुढकर्ण-देवड़ा चौहान) के दो शिलालेख हैं। इस मन्दिर का कुछ हिस्सा १३११ ई० में मुसलमान आक्रमणकारियों ने तोड़ दिया था । अतः १२२१ ई० में मांडव्यपुर (मंडोर) के निवासी गोसल के पुत्र धनसिंह एवं भाई भीमा के पुत्रों बीजड़, महणसिंह आदि ने इस मन्दिर का जीर्णोद्धार करवाया। धर्मघोष सूरि की परम्परा के आचार्य ज्ञानसुन्दर सूरि ने इसकी प्रतिष्ठा की। गुजरात के राजा बघेल सारंगदेव के समय का १२९३ ई० का भी एक शिलालेख इस मन्दिर की दीवार पर है। विमलशाह के वंशज हेमरत्न और दशरथ ने ११४४ ई० में मन्दिर के कक्ष की मरम्मत करवाई।' पृथ्वीपाल ने ११४७ ई० और उसके पुत्र धनपाल ने ११८८ ई० में कई कक्षों का पुननिर्माण करवाया। इस मन्दिर में छोटे-बड़े कुल २४९ लेख हैं। इनमें सर्वाधिक महत्वपूर्ण १३२१ ई० को प्रशस्ति है । १. ओझा, सिरोही राज्य, पृ० ६२ । २. १३१५ ई० का लेख एवं १३१६ ई० सुरह लेख । ३. जिनप्रभसूरि, तीर्थकल्प । ४. तीर्थराज आबू, पृ० ४२ । ५. वही, पृ० ४१ । ६. वही। ७. इनका संग्रह अप्रजैलेस में है। ८. अप्रजैलेस, भाग १, क्र० ७ । ८. अत्र Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८ : मध्यकालीन राजस्थान में जैनधमं ४२ श्लोकों की इस प्रशस्ति में मन्दिर के जीर्णोद्धार एवं प्रतिष्ठा के अतिरिक्त नाडोल के चौहान राजा आसराव से लेकर महाराव लुम्भा एवं तेजसिंह तक का वंश - वृक्ष दिया गया है । आबू के चौहानों की वंशावली की इस जानकारी के अतिरिक्त इस लेख में गुजरात के सोलंकी राजाओं एवं आबू के परमार राजाओं के विषय में भी पर्याप्त जानकारी मिलती है । १२९३ ई० के लेख के अनुसार विमलवसहि एवं लूणवसहि मन्दिरों की व्यवस्था का सारा भार आबू के ठाकुरों पर डाला गया। संस्कृत मिश्रित राजस्थानी गद्य में लिखित इस लेख में, बघेला राजा सारंगदेव के माण्डलिक बीसलदेव ने हाथ जोड़कर यह लिखा है कि उनकी वंश परम्परा का कोई भी व्यक्ति इस दानपत्र का उल्लंघन न करे। यात्रियों की जान-माल की सुरक्षा की व्यवस्था तथा यात्रियों की सामग्री खो जाने पर पुनर्भरण का दायित्व भी सरकार का होगा । आज्ञापत्र सर्वसम्मति से सर्वग्राह्य बनाया गया था । (ख) लणवसहि ( लणसिंह वसति ) : आबू का जगत्प्रसिद्ध दूसरा मन्दिर इसके मूलनायक के नाम से नेमिनाथ मन्दिर भी कहलाता है । इसका निर्माण धोलका के सोलंकी राजा वीरधवल के महामंत्री वस्तुपाल और तेजपाल ने करवाया था । तेजपाल की धर्मपत्नी अनुपमा देवी चन्द्रावती के श्रेष्ठी गांगा के पुत्र धरणिग की पुत्री थी, जिससे तेजपाल के लावण्य सिंह नामक पुत्र था । उसी की स्मृति एवं कल्याण के लिये, गुजरात के सोलंकी राजा भीमदेव (द्वितीय) के सामंत, परमार राजा सोभासिंह की अनुमति से इस मन्दिर का निर्माण करवाया गया था । यह मन्दिर विमल वसहि के समीप ही स्थित है । मन्दिर की प्रतिष्ठा नागेन्द्र गच्छ के आचार्य विजयसेन सूरि ने १२३० ई० के मध्य करवाई । मन्दिर की लागत १२ करोड़ ५३ लाख रुपये थी । इस मन्दिर का विन्यास व रचना भी प्रायः आदिनाथ मन्दिर के सदृश है । यहाँ भी उसी प्रकार का प्रांगण, देवकुल तथा स्तम्भ मंडपों की पंक्ति विद्यमान है । पृथक्ता यह है कि इसकी हस्तिशाला प्रांगण के बाहर न होकर अन्दर ही है | रंगमंडप, नवचौकी, गूढमंडप और गर्भगृह की रचना पूर्वोक्त प्रकार की ही है, किन्तु यहाँ रंगमंडप के स्तम्भ कुछ अधिक ऊँचे हैं और प्रत्येक स्तम्भ की बनावट व कारीगरी भिन्न-भिन्न है । मंडप की छत छोटी है, किन्तु रचना व उत्कीर्णन का सौन्दर्य विमल सहि से किसी प्रकार भी कम नहीं है । इस मन्दिर के गूढ़ मण्डप के दोनों पावों में दो भव्य, नक्काशीदार गोखड़े हैं, जो देवरानी व जिठानी के गोखड़े कहलाते हैं । इन्हें तेजपाल ने अपनी दूसरी पत्नी सुहड़ा देवी के स्मरणार्थ, सवा लाख रुपये की लागत से १. अप्रजैलेस, पृ० ८-१० २. भादिजैती, ४, पृ० १३१-१३२ । Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन तीर्थ : १६९ तैयार करवाया था । गोखड़ों की प्रतिष्ठा १२४० ई० में हुई। मन्दिर के पृष्ठभाग के 'मुख मण्डप में १० खंड की हस्तिशाला है, जिसमें प्रत्येक में संगमरमर का एक एक हाथी है । हाथियों के पीछे वस्तुपाल, तेजपाल एवं अन्य परिवार जनों की आदम-कद मूर्तियां निर्मित हैं । मन्दिर के बाहर एक बगीचे में दादा साहब की पादुकाएँ और एक स्तम्भ निर्मित है । १३२१ ई० के अलाउद्दीन खिलजी के जालौर आक्रमण के समय, यहाँ भी कुछ क्षति हुई थी । पेथड़ ने १३२१ ई० में ही इसकी मरम्मत व जीर्णोद्धार करवाया। इस मन्दिर की १२३० ई० में सोमेश्वर द्वारा रचित ७४ श्लोकों की प्रशस्ति, सोमपुरा केलण के पुत्र, धांधल के पुत्र चन्द्रेश्वर के द्वारा उत्कीर्ण है। सरस्वती वन्दना व वीतराग वन्दना के पश्चात्, पाटण के सोलंकी राजाओं की प्रशस्ति, तत्पश्चात् मंदिर निर्माताओं का वंश वैभव, वशिष्ठ ऋषि का यज्ञ, परमार धूमराज की उत्पत्ति एवं वंश परम्परा, वस्तुपाल, तेजपाल के चरित्र की विस्तृत चर्चा अनुपमा देवी के वंश का वर्णन आदि हैं । इसके अतिरिक्त इसमें गुजरात के सोलंकी राजा कुमारपाल, मालवपति बल्लाल, कोंकणी राजा मल्लिकार्जुन के सन्दर्भ, परमार धारा-वर्ष व उसके छोटे भाई प्रहलादनदेव को वीरता तथा विद्वत्ता, मेवाड़ के सामन्त सिंह एवं गुजरात के सोलंको राजा अजयपाल के बीच युद्ध तथा तेजपाल को व्यापार-कुशलता, कूटनीति, प्रबन्ध ‘पटुता, एवं दानशीलता का परिचय मिलता है। यह लेख उस समय समाज के विद्या प्रेम, दानभाव, एवं धर्मनिष्ठा पर भी प्रकाश डालता है ।' १२३० के ही एक अन्य संस्कृत गद्य लेख में मन्दिर की व्यवस्था के निमित्त आबू के परिमण्डल के गांवों को जिम्मेदार बनाया गया है। तत्कालीन परिहार राजपुत्रों, आबू के तपोधनी गांगुली ब्राह्मणों एवं राठी लौकिकों पर रक्षा का भार डाला गया था। यह लेख तत्कालीन समाज व्यवस्था पर प्रकाश डालता है कि मन्दिर सभी समाज के लोगों के लिए रक्षणीय वस्तु होता है । इसके अलावा इस लेख में आबू के उस समय के आश्रमों, राजाओं, राजपुत्रों, प्रजा, गोष्ठियों के सदस्यों की नामावलियों, गाँवों के नामों, चन्द्रावती के श्रेष्ठियों तथा विभिन्न गांवों में ओसवालों एवं पोरवालों की बस्तियों का पता लगता है। लूणवसहि मन्दिर का सूत्रधार शोलनदेव था। मन्दिर के गुम्बजदार खेला मंडप, छतों पर त्रिषष्टिशलाकापुरुषों के आख्यान, फलफूल, बेल-बूटे, नर्तक-नर्तकियाँ, वादक दल, पशु-पक्षी, जलचर, राजदरबार, बारात, विवाह प्रसंग, संन्यास जीवन की गौरवमयी परम्परा, युद्ध विद्या के विभिन्न आयाम यथा मल्ल विद्या, शस्त्राभ्यास, १. तीर्थराज आबू, पृ० ११२ । २. असावै, पृ० १३-१८ । ३. वही। Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७० : मध्यकालीन राजस्थान में जेनधमं घुड़सवारी, गजारोहण, रथयात्रा, सैन्य संचालन के दृश्य, नृसिंह, अवतार, कालिया दमन, कृष्ण जन्म के प्राचीनतम उत्कीर्णन, मद्य गोष्ठी आदि दृश्यों के चित्रण, तक्षण-कला, कुराई की बारीकी की दृष्टि से अनुपम हैं । उपरोक्त दोनों मंदिर भुवनेश्वर शैली के हैं, जिसमें शिखरों की ऊँचाई कम होती है । सम्भवतः आबू पर भूकम्प के झटके आते रहने के कारण भी शिखर कम ऊँचाई के रखे गये । बाहर से ये मन्दिर अत्यन्त सामान्य, किन्तु अन्दर पाषाणी वैभव की भव्यता संजोये हुए हैं । विमलवसहि की कुराई में मनुष्य जीवन से सम्बन्ध रखने वाले श्रेष्ठ प्रसंग उकेरे गये हैं, तो लूणवसहि में अलंकरणों की प्रधानता है । इनके रचना सौन्दर्य की प्रशंसा करते हुए फर्गुसन ने लिखा है, "यहाँ संगमरमर पत्थर पर जिस परिपूर्णता, लालित्य और अलंकरण की शैली से काम किया गया है, उसकी अन्य कहीं भी उपमा मिलना कठिन है ।"" श्री एच० कोसेन ने लिखा है " संगमरमर का पतला और पारदर्शी छिलके की भांति, पत्थर की तक्षण कला अन्य जगहों की कला से कहीं आगे बढ़ जाती है, और उसमें उत्कीर्ण अंश सुन्दरता के स्वप्न दिखाई देते हैं । ऐसी सुन्दरता लाने का रहस्य यह बताया जाता है कि शिल्पकार को घिसकर निकाले गये चूर्णं के प्रमाण से वेतन दिया जाता था । मन्दिर की तक्षण मूर्तियों के आधार पर हम उस काल की वेष-भूषा, रीति-रिवाजों की जानकारी प्राप्त करते हैं । संगीत और नृत्य की मूर्तियाँ नाट्य शास्त्र के आधार पर निर्मित हैं | कर्नल टॉड ने इन मंदिरों को देखकर कहा था, "इनका वर्णन करना लेखनी को अपमानित करना है | किसी भी धैर्यवान कलाकार की वर्तनी कितना ही कर चुकाकर भी ऐसा कार्य नहीं कर सकती ।" वह आगे कहता है, कलात्मक सम्पन्नता की दृष्टि से गॉथिक वास्तुकला की शैली का कोई भी अलंकरण इसकी तुलना का नहीं है । यह अर्ध-निमीलित कमल पुष्पों के सदृश दिखाई देते हैं, जिनकी पंखुड़ियाँ इतनी पतली, इतनी पारदर्शी और इतनी पी तुली हैं कि ये दृष्टि को प्रशंसा के कोण पर स्थिर कर देती हैं । " ३ डा० जी०एन० शर्मा के अनुसार "यदि ताजमहल एक स्त्री का संस्मरण है, तो इन मन्दिरों के पीछे एक धर्मनिष्ठ उदारता मूर्तिमान दिखाई देती है ।"४ हैवेल और स्मिथ ने तो यहाँ लिख दिया है कि कारीगरी और सूक्ष्मता की दृष्टि से इन मन्दिरों की समता हिन्दुस्तान में कोई इमारत नहीं कर सकती । भारतीय शिल्पियों ने जो कला-कौशल व्यक्त किया है; उससे कला के क्षेत्र में भारत का मस्तिष्क सदैव गर्व से ऊँचा उठा रहेगा । सारांश १. हिस्ट्री ऑफ इंडियन ऐण्ड ईस्टर्न आर्किटेक्चर, पृ० ३६ । २. प्रोरिआसवेस, १९१०, पृ० ३ । ३. टॉड, ट्रेवल्स इन वेस्टर्न इण्डिया, पृ० ११३ । ४. जी० एन० शर्मा, राजस्थान का इतिहास, पृ० ५८७ । Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन तीर्थ : १७१ यह है कि इन मन्दिरों के निर्माण से, एच० जिम्मर के शब्दों में, “भवन ने अलंकार का रूप धारण कर लिया है, जिसे शब्दों में समझाना असम्भव है ।" ( ग ) पित्त - लहर या जैन मन्दिर, भीमाशाह : सहि के पीछे की ओर पित्त-लहर नामक जैन मंदिर है, जिसे गुर्जर वंश के भीमाशाह ने १५ वीं शताब्दी के मध्य में बनवाया । १४४० ई० के लेख से एवं सोमसुन्दरसूरिकृत "अर्बुदगिरिकल्प" के अनुसार यह मन्दिर १४३२ ई० के पूर्व ही प्रतिष्ठित हो चुका था । इसमें प्रथम जैन तीर्थंकर आदिनाथ की १०८ मन वजन वाली पीतल की धातु प्रतिमा प्रतिष्ठित है, जिसे श्रीमाल जातीय मंत्री सुन्दर एवं मंत्री गदा ने बनवाया था । " गुरुगुण- रत्नाकर - काव्य" के अनुसार ये अहमदाबाद के सुल्तान मुहम्मद बेगड़ा के दरबारी थे । सुन्दर व गदा ने १४६८ ई० में परिकर सहित ८ फीट ऊँची एवं साढ़े पाँच फीट चौड़ी ऋषभदेव की प्रतिमा की स्थापना की । इन पीतल की मूर्तियों के कारण ही इसे पित्तलहर मन्दिर कहा जाता है। किसी कारणवश यहाँ से मेवाड़ के कुम्भल मेरू नामक स्थान को पहुँचा दी गई थी । इस मन्दिर की बनावट भी पूर्वोक्त मंदिरों जैसा ही है । मूलगर्भ गृह, गूढ़ मण्डप और नवचौकी तो परिपूर्ण हैं, किन्तु रंग मण्डप और भमिति कुछ अपूर्ण ही रह गये हैं । गूढ़ ause में आदिनाथ को पंचतीर्थ की पाषाण प्रतिमा तथा अन्य तीर्थंकर प्रतिमाएँ हैं, एवं सबसे उल्लेखनीय यहाँ महावीर के प्रमुख गणधर गौतम स्वामी की पीले पाषाण को मूर्ति है । एक अन्य स्थान पर आदिनाथ के गणधर, पुण्डरीक स्वामी की प्रतिमा भी है । इससे पूर्व की प्रतिष्ठित मूर्ति इस मन्दिर के बाहर सुरभि पर १४३२ ई० का चौहानवंशी राजधर देवड़ा चुंडा का लेख है, जिसमें देवड़ा, सांडा, मंत्री नाथू एवं सामन्तों ने मिलकर विमल वसहि,. लूणवसहि एवं पित्तलहर मन्दिर के दर्शनार्थं आने वाले यात्रियों का कर हमेशा के लिए. माफ कर दिया था । इस लेख के लेखक सोमसुन्दरसूरि के शिष्य पण्डित सत्यराज गणी थे । यहाँ के १४२६ ई० के लेख में कुछ भूमि व ग्रामों को दान दिये जाने का भी उल्लेख है । (घ) चौमुखा या पार्श्वनाथ जैन मन्दिर : इस मन्दिर की प्रतिष्ठा खरतरगच्छ के आचार्य जिनचन्द्र सूरि ने की थी । अतः इस मन्दिर को " खरतरवसहि" भी कहते हैं । इस मन्दिर के सभा मण्डप के २३ स्तम्भों पर सिलावटों के नाम होने से लोग इसे "सिलावटों का मन्दिर" भी कहते हैं । चतुर्मुख १. अप्रजैलेस, क्र० ४०७, पृ० १६१ | २. श्रीमाता के मन्दिर का १४४० ई० का लेख ३. असावे, पृ० १३-१९ । Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७२ : मध्यकालीन राजस्थान में जैनधर्म 'प्रासाद होने के कारण यह "चौमुखा जी" के नाम से भी प्रसिद्ध है। मन्दिर सादा, विशाल तथा तिमंजिला है। पित्तलहर मन्दिर के सुरभिलेख से पता चलता है कि दिलवाड़ा में उस समय ३ मन्दिर ही थे। ऐसा अनुमान है कि १४५८ ई० में यह मन्दिर बनना प्रारम्भ हुआ होगा एवं संघवी मण्डलिक ने ही इसे बनवाया होगा। लेख में "राजाधिराज श्री कुंभकरण विजय राजे" लिखा हुआ है। मन्दिर के गंभारे के बाहर चारों तरफ सुन्दर कुराई की छटा है । इस अलंकृत खुदाई में खड्गासन प्रतिमाएँ तथा आचार्यों, श्रावकों, श्राविकाओं, यक्षों व देवी-देवताओं की मूर्तियाँ हैं। इस मन्दिर के दो तोरण बहुत ही कलात्मक हैं, जिसमें प्रत्येक में ५१ मूर्तियाँ उत्कीर्ण हैं, चारों दिशाओं के द्वारों के सम्मुख मण्डप हैं, जिनके शिखरों की छतें कलापूर्ण हैं । तीनों मंजिलों की प्रत्येक तल पर पार्श्वनाथ की चौमुखी प्रतिमा विराजमान है। (ङ) कुन्थुनाथ दिगम्बर जैन मन्दिर : दिलवाड़ा से अचलगढ़ जाने वाले मार्ग के मुख पर ही यह मन्दिर अवस्थित है । इस मन्दिर के १४३७ ई० के शिलालेख के अनुसार गोविन्द संघाधिपति यहाँ मूलसंघ, बलात्कारगण, सरस्वती गच्छ के भट्टारक पद्मनन्दी के शिष्य भट्टारक शुभचन्द्र सहित तीर्थ यात्रा को आये और समस्त दिगम्बर संघ ने इस मन्दिर का निर्माण कराया। उस समय आबू में राजधर देवराज चूंडा का राज्य था। मन्दिर में गर्भगृह, सभा मण्डप और अर्ध-मण्डप हैं। इसमें मूलनायक भगवान कुन्थुनाथ की २' फीट १०" ऊँची श्वेतवर्ण पद्मासन प्रतिमा है एवं दोनों पार्यों में एक-एक तथा आगे तीन मूर्तियाँ विराजमान हैं । सभी मूर्तियाँ श्वेत पाषाण की व पद्मासन मुद्रा में हैं। मूलमूर्ति सम्भवतः ११वीं-१२वीं शताब्दी की है। यह जमीन से उत्खनन द्वारा निकली थी, ऐसी लोकोक्ति है। (च) मन्दिर वर्धमान स्वामी : यह महावीर मन्दिर, दिलवाड़ा से पूर्वोत्तर दिशा में कोई साढ़े तीन मील दूर है । इसका निर्माण भी १५वीं शताब्दी में हुआ था। वर्तमान में इसके मूलनायक भगवान आदिनाथ हैं, जिनके पावों में पार्श्वनाथ और शान्तिनाथ तीर्थंकरों की मूर्तियाँ हैं, किन्तु मन्दिर की ख्याति महावीर के नाम से ही है। अनुमानतः बीच में कभी मूलनायक का स्थानान्तरण किया गया होगा। यह मन्दिर एक परकोटे के मध्य में स्थित है और गर्भगृह के सम्मुख शिखरयुक्त गूढ़मण्डप भी है । उसके सामने खुला चबूतरा है, जिस १. अप्रजैलेस, क्र० ४०७, पृ० १६१ । २. वही, क्र० ४४१, पृ० १७३ । ३. भादिजैती, ४, पृ० १२८ । Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन तीर्थ : १७३ पर या तो नवचौकी और सभामण्डप बनाये ही नहीं जा सके अथवा सम्भव है बनकर कभी विध्वस्त हो गये। (छ) अचलगढ़, मन्दिर चौमुखजी : दिलवाड़ा से ६ कि० मी० दूर अचलगढ़ के मन्दिरों में चौमुखा जी का मुख्य मन्दिर विशिष्ट है । इसे महाराणा जगमाल के शासनकाल में अचलगढ़ निवासी संघवी सालिग के पुत्र सहसा ने बनवाया था। इसमें प्रथम जैन तीर्थंकर ऋषभ देव की धातु की विशाल प्रतिमा है । इसे डूंगरपुर के मूर्ति शिल्पी वाच्छा के पुत्र देपा एवं देपा के पुत्र हरदास ने ढाला था। मूर्ति पर १५०९ ई० का लेख है। चौमुख जी की दूसरी मूर्ति डूंगरपुर के ही मूर्ति-शिल्पी लुभा एवं लांपा ने बनाई थी। चौमुखजी की चारों मूर्तियाँ डूंगरपुर के श्रावकों के आदेश पर वहीं के मूर्ति शिल्पियों ने आबू में ही आकर ढाली थीं एवं इनकी प्रतिष्ठा अलग-अलग समय में सम्पन्न हुई थी। मन्दिर में कुम्भलगढ़ से लायी हुई धातु की प्रतिमाएँ भी हैं। इस मन्दिर में ऊपर-नीचे मिलाकर धातु की कुल १४ मूर्तियाँ हैं, जिनका वजन १४४४ मन होने की अनुश्रुति है । चित्तौड़ के प्रसिद्ध जैनाचार्य हरिभद्र सूरि ने १४४४ प्रकरण लिखे थे। उनकी याद में रणकपुर के मन्दिर में १४४४ स्तम्भ बनाये गये एवं इस मन्दिर की धातु प्रतिमाओं का समन्वित वजन भी १४४४ मन रखा गया। (ज) आदिनाथ मन्दिर : यह अचलगढ़ का दूसरा साधारण मन्दिर है। इस मन्दिर की देहरी में चार हाथ वाली देवी की एक सुन्दर प्रतिमा है, जिसके एक हाथ में खड्ग, दूसरे में त्रिशूल, तीसरे में बीजोरा और चौथे में दर्पण जैसा कुछ है । व्याघ्र का वाहन होने से यह देवी अम्बा भवानी का सिद्धेश्वर रूप है, परन्तु यहाँ यह चक्रेश्वरी के नाम से पूजी जाती है, जिसके चारों हाथों में वरद, बाण, चक्र व पाश होते हैं तथा बाँये चारों हाथों में धनुष, वज्र, चक्र व अंकुश होते हैं। (झ) कुन्थुनाथ मन्दिर : अचलगढ़ के इस तीसरे मन्दिर की प्रतिष्ठा १४७० ई० में हुई। यहाँ कुन्थुनाथ की प्रतिमा पंचधातु की है। इस मन्दिर में पद्मासनस्थ एक विशिष्ट मूर्ति है, जिसके शरीर पर वस्त्र के चिह्न हैं। १. असावे, पृ० १७ । २. वही, पृ० १८। ३. वही। ४. वही, पृ० १९ । Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९७४ : मध्यकालीन राजस्थान में जेनधमं (ञ) शांतिनाथ मन्दिर : अचलगढ़ का चौथा जैन मन्दिर तीर्थकर शान्तिनाथ का है, जिसे कुमार पाल का मन्दिर भी कहा जाता है, यह अचलगढ़ की तलहटी में छोटी सी टेकरी पर बना हुआ है। जिनप्रभसूरि के "तीर्थं कल्प" में एवं सोमसुन्दरसूरिकृत " अर्बुद - गिरिकल्प" में इसे कुमारपाल निर्मित बताया गया है। पूर्व में यह महावीर मन्दिर था, किन्तु अब यह शान्तिनाथ का मन्दिर है, इस मन्दिर की प्रदक्षिणा की दीवार में जिन प्रतिमाएँ, आचार्यों · तथा साधुओं की मूर्तियों के अतिरिक्त पाँच पाण्डव, मल्लयुद्ध लड़ाई के दृश्य, सवारी तथा नाटक आदि के दृश्यों का उत्कीर्णन है । " अचलगढ़ से १३२० ई० की ३६ श्लोक वाली गद्य में रचित प्रशस्ति प्राप्त हुई हैं, जो बहुत ही खण्डित अवस्था में है । इसमें चन्द्रावती, अर्बुद, शाकम्भरी, अपरांत आदि 'प्रदेशों का वर्णन, चौहान वंश के विभिन्न राजाओं के नाम, अर्बुद मण्डल की भौगोलिक तथा ऐतिहासिक स्थिति एवं अचलेश्वर मन्दिर के जीर्णोद्धार व उसकी पूजा के लिये टुण्डी ग्राम के दान का उल्लेख है । १४४९ ई० के अचलगढ़ के सुरह लेख में महाराणा कुम्भा के समय की कर व्यवस्था पर प्रभूत प्रकाश पड़ता है । इसमें उल्लेख है कि देलवाड़ा के मन्दिरों के लिये यात्रा करने वालों से मण्डपिका कर दांपा, बलावी, रखवाली करों को राणा कुम्भा ने माफ कर दिया है । आगे इसमें यह भी लिखा है कि इधर यात्रा करने वालों से एक-एक फदियाँ व चार दुगाणी, मन्दिर का भण्डारी वसूल करेगा । आबू तीर्थ के उक्त मन्दिरों ने जहाँ तक्षण कला में चार चाँद लगाये हैं, वहीं मन्दिरों की धातु प्रतिमाओं ने मध्यकाल की धातु ढलाई कला में कीर्तिमान स्थापित किया है । इस " कला तीर्थ" के स्थापत्य ने उत्तरी भारत की मन्दिर निर्माण कला को प्रभावित किया है, एवं शिलालेखों ने इतिहास के तिथिक्रम को सुदृढ़ आधार प्रदान "किया है । जैन तीर्थ होने के कारण १४वीं शताब्दी के उपरान्त कई आचार्यों और जैन विद्वानों ने इस तीर्थ के बारे में यहाँ रहकर विभिन्न स्तवन, स्तोत्र, चैत्य परिपाटियाँ, तीर्थं मालाओं आदि की रचना की । तेजपाल ने मन्दिर के प्रतिष्ठा समारोह की वार्षिकी उत्सव आदि के लिये विविध व्यवस्थाएँ कर रखी थीं । एतदर्थ ट्रस्टी नियुक्त थे, तथा विभिन्न समुदायों व गाँवों के निवासियों के कार्यादि भी सुरक्षा राजा सोमसिंह देव और उसके पुत्र काल्हड देव, समस्त स्थान पति भट्टारक एवं पड़ोस के सुपुर्द थी । राजा स्वयेम सिंह ने नेमिनाथ के पूजार्थं में दवाणि गाँव का निर्धारित थे । 3 मन्दिर की १. असावे, पृ० १८ २. राइस्त्री, पृ० १४२ । ३. एइ, ८, पृ० २०४ | Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन तीर्थ : १७५ अनुदान दिया था।' १३वीं से १६वीं शताब्दी के मध्य दिलवाड़ा में विपुल संख्या में श्रावक रहते थे । मुनियों के बारम्बार यहाँ चातुर्मास व्यतीत करने से भी यह तथ्य सिद्ध होता है ।२ श्रावक वार्षिक समारोहों के अतिरिक्त प्रतिमाओं को स्थापना भी करवाते थे। विमल वसहि के मन्दिर में पार्श्वनाथ की प्रतिमा ११६५ ई० में देवचन्द्र के द्वारा स्थापित की गई थी।३ पार्श्वनाथ की ही दुसरी प्रतिमा आमवीर के द्वारा ११८८ ई० में स्थापित करवाई गई थी। इस स्थान के निवासी छाँजण द्वारा बनवाई गई महावीर की धातु प्रतिमा रोहिद के जैन मन्दिर में उपलब्ध है।" (२) लोद्रवा तीर्थ : जैसलमेर नगर से १० मील तथा अमरसर से ७ मील दूर स्थित, जैसलमेर पंचतीर्थी का प्राचीनतम व प्रसिद्ध जैन तीर्थ, लोद्रवा, जैसलमेर की प्राचीन राजधानी व लोद्र शाखा के राजपूतों का गढ़ था। भाटी रावल देवराज के द्वारा १०२५ ई० में लोद्र राजपूत्रों को हराने के पूर्व तक यह नगर बहुत समृद्धिशाली था और इसके चारों ओर १२ प्रवेश द्वार थे, किन्तु आज मन्दिरों के अतिरिक्त कुछ नहीं है । १०३४ ई० में सागर नामक राजा के शासन काल में वर्द्धमानसूरि के शिष्य जिनेश्वर सूरि यहाँ आये और उन्होंने सागर के पुत्रों श्रीधर एवं राजधर को पार्श्वनाथ मन्दिर निर्मित करवाने की प्रेरणा दी। यह मन्दिर ११वीं शताब्दी का है और स्थापत्य की दृष्टि से इसकी शैली, नीचे हिस्से में दक्षिण भारतीय हिन्दू व ऊपरी हिस्से में उत्तर-पश्चिम भारतीय प्रकार की दृष्टिगत होती है। यहाँ अजन्ता-ऐलोरा की तरह कम ऊँचाई के स्तम्भ तराशे हुए हैं। सम्भवतः मोहम्मद गोरी के आक्रमण के समय यह मन्दिर ध्वस्त कर दिया गया था, किन्तु बाद में इसकी मरम्मत खीमसी और उसके पुत्र पूनसी ने १६१८ ई० में करवाई, जैसाकि सहज कीति द्वारा लिखित "शतदल पार्श्वनाथ यन्त्र" प्रशस्ति से ज्ञात होता है । १६१८ ई० में ही खीमसी के वंशज थारूशाह ने इसे पुननिर्मित करवाया और जिनराज सूरि से स्थापना समारोह सम्पन्न करवाया । सम्भवतः इस अवसर पर ही १६२० ई० में रावजेठी ने "लोद्रवजी तीर्थ मण्डन श्री चिन्तामणि पार्श्वनाथ" की १. राइस्त्रो, पृ० २०४ । २. अप्रजैलेस, क्र० ५५ । ३. वही, क्र० १७१। ४. वही, क्र० ५५ । ५. वही । ६. एरिराम्यूअ, १९३५-३६, क्र० ८। १७. नाजैलेस, क्र० २५४३ । Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७६ : मध्यकालीन राजस्थान में जैनधर्म रचना की। १६३५ ई० में रावजेठी ने अपनी पत्नी कनकदेवी के कल्याणार्थ पार्श्वनाथ देवगृह की स्थापना जिनराज सूरि के द्वारा करवाई । मन्दिर के परिसर में मेरू पर्वत के भाव पर बने हुये मूल मन्दिर, चिन्तामणि पार्श्वनाथ के चारों ओर, प्रांगण में चारों कोनों में, ४ छोटे मन्दिर हैं, जो थारूशाह ने १६४० ई० में बनवाये, किन्तु इनमें प्रतिष्ठित मूर्तियों के अभिलेखों से विदित होता है कि प्रतिमाओं की प्रतिष्ठा मूल मन्दिर के साथ १६१८ ई० में ही हो गई थी। उत्तरपश्चिम व उत्तर-पूर्व कोनों के मध्य एक त्रिगढ़ा के ऊपर अष्टापद के भाव का धातु का दर्शनीय कल्पवृक्ष निर्मित है, जो नाना प्रकार के फल-फूलों से लदा हुआ बहुत सुन्दर लगता है । मूल मन्दिर के सभा मण्डप में सहजकीर्तिगणी रचित "शतदल पद्मयन्त्र" की प्रशस्ति का शिलालेख है, जो अलंकार शास्त्र को दृष्टि से अपूर्व है। इस यन्त्र में २५. चतुष्पद श्लोकों के १०० पंखुड़ियों के रूप में १०० चरण हैं और प्रत्येक चरण का अन्तिम अक्षर यन्त्र के मध्य स्थित ''मः" अक्षर है। पूर्णचन्द्र नाहर ने इस प्रशस्ति के बारे में लिखा है कि अद्यावधि जितने प्रशस्ति शिलालेख देखने में आये हैं, उनमें अलंकार शास्त्र का ऐसा नमूना नहीं मिलता है । मन्दिर का अन्य मुख्य आकर्षण प्रविष्ट होते ही चौक में एक भव्य २५ फीट ऊँचा कलात्मक तोरण द्वार है, जिस पर उत्कृष्ट कलाबिम्बों का रूपांकन हुआ है। मण्डप स्तम्भों की कुराई व गर्भगृह की सहस्रफण पार्श्वनाथ की श्याम मर्ति, जो कसौटी पत्थर की बनी हुई है, अपने आप में विलक्षण है। मति के ऊपर जड़ा हुआ हीरा, मूर्ति को अनेक रूपों में दर्शित करवाता है। मन्दिर में वह रथ अभी तक रखा हुआ है, जिस पर सेठ थारूशाह ने प्रभु-प्रतिमा को रखकर संघ के साथ सिंह क्षेत्र की यात्रा की थी। (३) बघेरा तीर्थ : श्री शान्तिनाथ दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र बघेरा केकड़ी से १७ कि० मी० पूर्व में स्थित है। बघेरा शब्द 'व्याघ्र" (बाघ) से व्युत्पन्न है। इस गाँव की स्थापना व प्राचीन मानों के बारे में कई काल्पनिक आख्यान हैं ।२ वास्तव में यह ग्राम प्रतिहार वंशीय मिहिर भोज ( ८४३-८८१ ई० ) के शासनकाल में अस्तित्व में आया । प्राचीन सिक्कों से भी यह प्रमाणित होता है।४ ११६९ ई० के बिजौलिया अभिलेख में भी व्याघ्र रक ( बघेरा ) का उल्लेख है ।" यह “वराह नगर'' के नाम से भी प्रसिद्ध १. जैसलमेर दिग्दर्शन, पृ० ५६ । २. आसरि, ६, पृ० १३६ । ३. एसिटारा, पृ० ३२६ । ४. ओझा, बीकानेर राज्य, पृ० १००-१०१ । ५. एइ, २६, पृ० ८४ । Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन तीर्थ : १७७ था। यहाँ वैष्णव धर्म के साथ-साथ जैन मत भी अत्यधिक लोकप्रिय था। बिजौलिया के ११६९ ई० के शिलालेख में लोलार्क के पूर्वज वैश्रवण द्वारा बघेरा एवं अन्य स्थानों पर कई जैन मन्दिर बनवाने का उल्लेख है । यह स्थान १२वीं शताब्दी में मूल संघ के भट्टारकों को गादी भी रहा। उन्होंने यहाँ के मन्दिरों में कई जैन प्रतिमाएं स्थापित करवाई। यहाँ से उपलब्ध अम्बिका, पद्मावती, ब्रह्माणी और सरस्वती की जैन देवियों की प्रतिमाएँ कलात्मक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण होने के साथ-साथ पूर्व मध्यकालीन मूर्ति कला के सुन्दर नमने हैं। बघेरा का महत्त्व इस तथ्य से और बढ़ जाता है कि ८वीं शताब्दी में यहाँ से जैन मत की बघेरवाल जाति की उत्पत्ति हुई। यह स्थान ऐतिहासिक व पुरातात्विक दृष्टि से भी विशेष महत्त्व का है। समय-समय पर यहाँ प्राचीन मूर्तियाँ भूगर्भ से निकाली जाती रही हैं, जो अधिकांशतः ११वीं से १३वीं शताब्दी के मध्य की जैन प्रतिमाएं हैं । मूर्तियाँ पाषाण एवं धातु निर्मित हैं तथा ८-९ इंच से लेकर ७-८ फीट तक ऊँची हैं। जैन प्रतिमाओं की निरन्तर अत्यधिक उपलब्धि के कारण ही संभवतः यह स्थान जैन तीर्थ के रूप में विख्यात हुआ। यहाँ शान्तिनाथ व आदिनाथ के दो मन्दिर हैं, एवं भूगर्भ से निकाली गई सभी जैन मूर्तियाँ इन्हीं मन्दिरों में रखी हुई हैं। इनमें से शान्तिनाथ मन्दिर अतिशय क्षेत्र कहलाता है, जो मनोकामना पूर्ति की दृष्टि से जैन-अजैन दोनों में ही लोकप्रिय है। मूलनायक शान्तिनाथ की प्रतिमा ८-९ फुट अवगाहना की है। एक किंवदंती के अनुसार यह भू-गर्भ से निकली थी। प्रतिमा लेख से विदित होता है कि "लाडवागड, साधु संघ" में पद्मसेन गुरु के द्वारा किसी श्रावक ने ११९७ ई० में प्रतिष्ठित करवाई थी। मन्दिर का निर्माण किसने करवाया, यह तथ्य अज्ञात है। बिजौलिया शिलालेख में उल्लिखित वैश्रवण द्वारा व्याघ्ररक आदि स्थानों पर जिनालय निर्मित करवाने के तथ्य से अनुमान होता है कि लोलक श्रेष्ठी की ८वीं पीढ़ो में वैश्रवण ने लगभग २०० वर्ष बाद यह मन्दिर निर्मित करवाया होगा। इस दृष्टि से यह मन्दिर १०वीं शताब्दी को निर्मिति है । मन्दिर की अनेक मूर्तियों में से कतिपय ११५६ ई०, ११४० ई०, ११७४ ई०, ११८८ ई०, ११३२ ई०, ११५८ ई०; ११४६ ई०, ११८८ ई०, ११७४ ई०, ११९३ ई०, ११०२ ई० की तथा कुछ १२वीं व १३वीं शताब्दी की हैं । बघेरा ग्राम के बाहर “पार्श्वनाथ टेकरी" है, जहाँ शिलाओं में उत्कीर्ण ५-६ फीट ऊँची कई पार्श्वनाथ १. एसिटारा, ३२६ । २. एइ, २४, पृ० ८४ । ३. इए, २१, पृ० ६१ । ४. अजमेर शास्त्र भण्डार के एक ग्रन्थ से प्राप्त सूचना । ५. भादिजैती, ४, पृ० ५६-५८ । ६. वही। १२ Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . १७८ : मध्यकालीन राजस्थान में जैनधर्म मूर्तियाँ हैं । पहाड़ी के ऊपर कई गुफाएँ एवं निषेधिकाएँ हैं । इनके समक्ष ही प्राचीन एवं अत्यधिक पुरातात्विक महत्त्व का नंदीश्वर जिनालय है। २५ जुलाई, १९७२ ई० को यहां भूगर्भ से नींव खोदते समय सर्वाधिक २४ मूर्तियाँ प्राप्त हुई थीं, जिसमें से पाँच श्याम वर्ण की व शेष श्वेत पाषाण की हैं । ये सभी मूर्तियाँ १२वीं शताब्दी की हैं एवं अधिकांश पद्मासन में तथा २-३ कायोत्सर्ग मुद्रा में हैं । ये सभी शान्तिनाथ मन्दिर अतिशय क्षेत्र में रखी हुई हैं। (४) नरैणा तीर्थ : नरैणा फुलेरा जंक्शन से १११ कि० मी० दूर दक्षिण की तरफ है। यह स्थान ऐतिहासिक दृष्टि से बहुत प्राचीन है तथा ११वी व १२वीं शताब्दी में अत्यधिक समृद्ध था। शिलालेखों एवं साहित्य में इसके प्राचीन नाम नरानयन, नराण और नराणक मिलते हैं । यहाँ सांभर और अजमेर के चौहानों का राज्य था तथा सैनिक दृष्टि से इसे अत्यधिक महत्त्वपूर्ण समझा जाता था। यहाँ पर भूगर्भ से १०वीं व ११वीं शताब्दी की मूर्तियाँ निकली हैं, जो इस बात को सिद्ध करती हैं कि इस स्थान पर मुसलमानों का आक्रमण हुआ था। चौहानों के राज्य में नरैणा जैन धर्म का बहुत बड़ा केन्द्र हो गया था। १२वीं शताब्दी के लेखक सिद्धसेन सूरि ने इसको अपने "सकल तीर्थ स्तवन" में जैनियों के प्रसिद्ध तीर्थ के रूप में वर्णित किया है ।५ जैनाचार्य भी यहाँ रहते थे, १०२६ ई० की पादुका पर एक जैनाचार्य का नाम अंकित है।६ ११७० ई० के बिजौलिया के शिलालेख के अनुसार प्राग्वाट जाति के लोलक के पूर्वज पुण्यराशि ने यहाँ पर वर्धमान स्वामी का मन्दिर बनवाया । १०७९ ई० के यहाँ से प्राप्त एक शिलालेख के अनुसार, प्राग्वाट जाति के मथन नाम के व्यक्ति ने अपने परिवार के सदस्यों सहित, मूर्तियों की प्रतिष्ठा की। इन शिलालेखों से यह विदित होता है कि यहां पर पोरवाल जैन रहते थे । यहाँ पार्श्वनाथ को खड्गासन प्रतिमा ९५२ ई० की है। यहाँ से प्राप्त जैन देवियों की १. भादिजैती । २. खबगु, पृ० २५ । ३. गाओसि, ७६, पृ० ३१२-३१६ । ४. एइ, २६, पृ० ९९ । ५. गाओसि, ७६, पृ० ३१२-३१६ । ६. एसिटारा, परि०, क्र० २३ । ७. एइ, २६, पृ० ८४ । ८. एसिटारा, परि०, क्र. २४ । ९. वही, परि० क्र० २५ । Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन तीर्थ : १७९ मूर्तियाँ कला की दृष्टि से उच्च स्तर की हैं। सरस्वती की प्रतिमा पर १०४५ ई० का लेख अंकित है।' इसके अतिरिक्त दो श्वेत पाषाण तथा एक काले पत्थर की सिंहारूढ़, बहुत ही कलापूर्ण एवं मनोज्ञ मूर्तियाँ हैं। ११वीं शताब्दी के लेखक धनपाल ने अपनी कविता "सत्यपुरीय महावीर उत्साह" में यहाँ के महावीर स्वामी के मन्दिर का उल्लेख किया है । सम्भव है, यहाँ के भैरव मन्दिर के पास से जो प्राचीन, स्तम्भ एवं तोरण द्वार प्राप्त हुये हैं, वे सब महावीर मन्दिर के प्राचीन अवशेष हों। ऐसा प्रतीत होता है कि यह सम्पूर्ण मन्दिर संगमरमर का बना हुआ था तथा अपनी मूल स्थिति में कला का अद्भुत नमूना रहा होगा। यह मन्दिर १२वीं शताब्दी में मुसलमानों द्वारा नष्ट कर दिया गया, क्योंकि इसके बाद की मूर्तियां इसमें नहीं मिलती।३ । __ नरैना में वर्द्धमान स्वामी का जो कलात्मक मन्दिर ११७० ई० में बना, वह ११९२ ई० में मुस्लिम विध्वंस की कोप-दृष्टि का शिकार हो गया। उत्खनन के समय जमीन से प्राप्त मूर्तियों की स्थिति को देखकर यह प्रतीत होता है कि नरैना के जैन समाज ने आक्रमण से पहले ही मूर्तियों को उसके समीप ही ११-१२ फीट गहरा गड्ढा खोदकर व्यवस्थित एवं अत्यन्त सावधानी पूर्वक गाड़ दिया था। मूलनायक वर्द्धमान की प्रतिमा इतनी भारी थी कि उसे शीघ्रता से मन्दिर से हटाया नहीं जा सका। इसके अतिरिक्त और भी २-४ प्रतिमाएँ मन्दिर में ही रह गईं; वे सब मन्दिर सहित विध्वंस का शिकार हो गई। १८९७ ई० में नरैना के श्रेष्ठी शाह अजीतमल लुहाड़िया ने स्वप्न के आधार पर खुदाई करवा कर ११ प्रतिमाएँ प्राप्त की। एक प्रतिमा पर चन्द्रमा का चिह्न है, शेष बिना चिह्न की हैं । चन्द्रमा चिह्नित तीर्थकर चन्द्रप्रभु की ३ फीट ऊंची प्रतिमा पद्मासन मुद्रा में है। एक छोटी, आकर्षक एवं श्वेत वर्ण की सरस्वती की प्रतिमा भी प्राप्त हुई, जिस पर १०४५ ई० का लेख है। खुदाई में एक चरण पादुका भी प्राप्त हुई, जिस पर १०२६ ई० का लेख है। इसके अतिरिक्त संगमरमर की ५ मूर्तियाँ भी हैं। इसके बाद लगभग २५-३० वर्ष के उपरान्त यहाँ फिर खुदाई की गई, जिसमें १ फुट ऊँचो श्वेत प्रतिमा प्राप्त हुई। १९७४ ई० में एक टीले की खुदाई में भी कुछ मूर्तियाँ प्राप्त हुई, जिसमें २ श्वेत संगमरमर की तथा एक चरण पादुका है । प्रतिमाओं की अवगाहना पौने तीन फीट है एवं इनका प्रतिष्ठा काल १४वीं शताब्दी का है । ये सभी मूर्तियाँ यहां के दिगम्बर जैन बड़े मन्दिर में रख दी गई हैं। मध्यकालीन युग में भी नरैना में श्रद्धालु जैन समाज था, अतः प्रायः जैन साधु यहाँ १. एसिटारा, परि०, क्र० २६ । २. जैन सा० संशो०, ३, पृ० १ । ३. एसिटारा, ३१८ । Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८० : मध्यकालीन राजस्थान में जैनधर्म आते रहते थे । १६९९ ई० में ईडर के भट्टारक क्षेमेन्द्र कीर्ति और चातसू के भट्टारक जगत्कीर्ति एक ही समय इस स्थान पर आये; इस उपलक्ष्य में यहाँ के समाज ने एक महोत्सव का आयोजन किया । नयनरुचि ने "भक्तामर स्तोत्र" की वृत्ति की प्रति इसी स्थान पर तैयार की। वैश्यों की १२३ जातियों में नरैना जाति का भी उल्लेख है, जैसा कि १६३६ ई० में लिखित "सिंहासन बत्तीसी" से पता चलता है । (५) बिजौलिया तीर्थ : बून्दी से २८ मील दूर भीलवाड़ा रोड़ पर स्थित, बिजौलिया नामक कस्बा सुन्दर दृश्यावली एवं चहरदीवारी से घिरा हुआ, अरावली पर्वत श्रृंखला के उच्च पठार ( ऊपर - माल ) पर बसा हुआ है । यह ऊपर माल पूर्ववर्ती काल में "उत्तमाद्रिशिखर" तथा आसपास के सघन जंगल " भीमवन" के नाम से जाने जाते थे । शिलालेखों में इसका प्राचीन नाम "विध्यवल्ली", "विजयवल्ली", "अहेचपुर", "मोराकुरा", "विध्यवल्ली" एवं "विद्युवल्ली" आदि मिलते हैं । इस नगर की स्थापना सम्भवतः हूण जाति के किसी राजा ने की थी । स्थानीय अनुश्रुति के अनुसार, नगर संस्थापक राजा का नाम " औन" या हूण था। चौहानों के शासनकाल में यह महत्त्वपूर्ण नगर जैन एवं शैवों के लिये पवित्र तीर्थ स्थान बन गया । १२वीं शताब्दी में पार्श्वनाथ मूर्ति के दृश्यमान होने के पूर्व भी बिजोलिया शैव मत का बहुत बड़ा केन्द्र था । " श्रेष्ठी लोलाक ने स्वप्न के निर्देशों पर रेवती नदी के किनारे से पार्श्वनाथ की प्रतिमा खोद कर निकाली तथा अपने गुरु जिनचन्द्र सूरि के परामर्श से यहाँ पार्श्वनाथ के विशाल जिनायतन का जीर्णोद्धार करवाया और इसके चातुर्दिक सात छोटे मन्दिर भी बनवाये । लेख के अनुसार लोलाक ने यह मन्दिर सप्त आयतन युक्त बनवाया, जिसके पूर्व में रेवती नदी और देवपुर, दक्षिण में मठ स्थान, उत्तर में कुण्ड और दक्षिणोत्तर में वृक्षों से भूषित वाटिका थी । वर्तमान मन्दिर लोलाक द्वारा निर्मित मन्दिर नहीं हो सकते, क्योंकि ये कलात्मकता एवं निर्माण की दृष्टि से थोड़े हल्के व आधुनिक प्रतीत होते हैं, तथा संख्या में भी ८ के स्थान पर ५ ही हैं । मन्दिर के सम्मुख निर्मित रेवती कुण्ड का नाम लोलाक ने रेवती नदी के आधार पर रखा होगा । मन्दिर की प्रतिष्ठा १. एसिटारा, परि०, क्र०, ३० । २. बून्दी के शास्त्र भण्डार का ग्रन्थ क्र० २४७ ॥ ३. जैगुक, १, पृ० २३५ । ४. एइ, २६, पृ० १०८ । ५. एसिटारा, पृ० ४०० । ६. एइ, २६, पृ० १०० । ७. वही । Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन तीर्थ : १८१ ११६९ ई० में हुई । मन्दिर के मुख्य शिल्पी आहड़ थे, जो हरसिंह के पौत्र एवं माल्हण के पुत्र थे। मन्दिर के चारों कोनों पर गोल गुम्बद युक्त चार देवरियां हैं । मन्दिर के गर्भगृह में वेदी के मध्य में शिखराकृति है एवं शिखर के मध्य द्वाराकृति बनी है, जो रिक्त है और इस बात का संकेत करती है कि मूलनायक पार्श्वनाथ की प्रतिमा पहले कभी यहाँ रही होगी। ऐसा प्रतीत होता है कि मूलनायक प्रतिमा को मुस्लिम आक्रमणों के समय सुरक्षा की दृष्टि से भूगर्भ में स्थापित कर दिया गया होगा। वेदी में कोने में एक छेद है, जिसमें से अभिषेक का जल नीचे जाता है व सिक्का डालने पर "खन्न" की ध्वनि होती है। शिखर पर चौबीस तीर्थंकरों की मूर्तियां हैं, जिसमें बीच में पार्श्वनाथ प्रतिमा है, जिसके ऊपर ३ छत्र व गजलक्ष्मी हैं, छत्रों के ऊपर पद्मावती, गजलक्ष्मी व देवयुगल उत्कीर्ण हैं। गर्भगृह के सामने फर्श पर "सोपानतना" शब्द अंकित है, जिससे यह अनुमान किया जाता है कि भूगर्भ के किसी कक्ष में मूर्तियां सुरक्षित हैं। १९०१ ई० में राजा कृष्णसिंह के आदेश से यहां खुदाई करने पर प्रस्तर हटाते ही एक श्वेत सर्प प्रकट हो गया एवं इस चमत्कार के उपरान्त खुदाई बन्द कर देनी पड़ी, परन्तु इसके बाद मन्दिर का अतिशय और भी बढ़ गया। सभा मण्डप में एक तरफ रेवती कुंड से निकाली गई पद्मावती, क्षेत्रपाल, अम्बिका, ज्वालामालिनी और धरणेन्द्र की मूर्तियाँ हैं । मन्दिर के उत्तर-पश्चिम में धरणेन्द्र (मानभद्र) की विशाल मूर्ति है, जो इस क्षेत्र के रक्षक क्षेत्रपाल है। जैन तीर्थ होने के कारण बहुधा जैन सन्त यहां आते रहते थे। पूर्वकाल में यह माथुर संघ के जैनाचार्यों की गादी थी। ११६९ ई० के बिजौलिया शिलालेख के लेखक गुणभद्र महामुनि माथुर संघ के ही थे। बाद में यह मूलसंघ की गतिविधियों का केन्द्र बन गया। १४०८ ई० व १४९६ ई. के शुभचन्द्र के जीवनकाल के दो शिलालेख उपलब्ध हैं। पहले शिलालेख में जैन साध्वी बाई आगमश्री की निषेधिका का उल्लेख है एवं दूसरे में शुभचन्द्र के शिष्य हेमचन्द्र की निषेधिका का उल्लेख है । इन निषेधिकाओं के बारे में यह इच्छा व्यक्त की गई है कि ये चन्द्र-सूर्य के रहने तक अस्तित्व में रहें। द्वितीय अभिलेख वाले स्तम्भ पर किसी सन्त के चरण-युगल उत्कीर्ण हैं। स्तम्भ के एक ओर भट्टारक पद्मनन्दी व दूसरी ओर भट्टारक शुभचन्द्र का नाम उत्कीर्ण है । रेवती कुण्ड के उत्तर की ओर दीवार के निकट एक बड़ी शिला पर ४२ पंक्तियों का मन्दिर की प्रतिष्ठा व दानादि का लेख, स्वमं श्रेष्ठी लोलाक ने उत्कीर्ण करवाया था। १. भादिजैती, ४, पृ० ६८ । २. एसिटारा, पृ० ४०३ । ३. प्रोरिआसवेस, १९०५-६, पृ० ५८ । Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८२: मध्यकालीन राजस्थान में जेनधर्म अजमेर के कुछ चौहान शासकों ने शव होते हुए भी बिजौलिया के पार्श्वनाथ मन्दिर को गांवों के दान दिये ।' ११६८ ई० में पृथ्वीराज द्वितीय ने मोरझरी गाँव का अनुदान दिया था। इनके चाचा सोमेश्वर ने स्वर्ग प्राप्ति की इच्छा से रेवाणा नामक गांव का पूर्णदान इस मन्दिर के निमित्त दिया। बिजौलिया अभिलेख में समीपवर्ती स्थानों के कई व्यक्तियों द्वारा दिये गये अनुदानों का उल्लेख है। गुहिल पुत्र रावल दधर और महात्मा धनसिंह ने कावा व रेवाणा गाँवों के मध्य स्थित एक क्षेत्र, दोहली दान में दिया। ग्राम खंडूवरा के निवासी गौड़ जातीय सोनिग और वासुदेव ने एक दोहालिका दिया। पाश्वंनाथ के गर्भगृह द्वार पर उत्कीर्ण ११६९ ई० के अभिलेख में महीधर के पुत्र मनोरथ का नमन लिखित है। यह स्थान जैन सन्तों एवं दिगम्बर जैनों के लिये इतना पवित्र हो गया था कि एक पौराणिक ग्रन्थ “उत्तम शिखर पुराण" रेवती नदी के किनारे विशाल शिला पर उत्कीर्ण करवाया गया, जिसमें पार्श्वनाथ के केवलज्ञान प्राप्त करने, कमठ शठ के दुष्कृत्यों और भीमवन का उल्लेख है। यहाँ के शिलालेखों का ऐतिहासिक महत्त्व भी अत्यधिक है। (६) नाणा तीर्थ : __ अहमदाबाद-अजमेर रेलवे लाइन पर नाणा नामक रेलवे स्टेशन से ३ कि० मी० को दूरी पर इसी नाम का एक गाँव है । इसका प्राचीन नाम नाणक था। इस स्थान के ९६० ई० के अभिलेख से ज्ञात होता है कि यह १०वीं शताब्दी में भी अस्तित्व में था। १०वीं शताब्दी से १५वीं शताब्दी तक यह निरन्तर फलता-फूलता रहा। "जीवित स्वामी" के तीर्थ के रूप में नाणा' कस्बा जैन धर्म में विशेष रूप से प्रसिद्ध रहा। कभी यहाँ पर महावीर की पुरुषाकार प्रतिमा का पूजन होता था, किन्तु यह सब किंवदंति-पूर्ण प्रतीत होता है। १०वीं शताब्दी में यहां एक महावीर मन्दिर अवश्य था। मन्दिर की वेदी के दरवाजे का ९६० ई० का एक छोटा खंडित अभिलेख स्पष्ट रूप से सिद्ध करता है कि इस काल में यहाँ जैन मत अस्तित्व में था । ११११ ई० में महादित्य की पत्नी ने इस मन्दिर का तोरण निर्मित करवाया था। ११४६ ई० में नागद्र और अन्य श्रेष्ठियों ने शांतिनाथ और नेमिनाथ की कायोत्सर्ग प्रतिमाएं निर्मित करवाईं और उनका स्थापना १. एइ, २६, पृ० ९६-९७ । २. प्रोरिओसवेस, १९०८, पृ० ४९ । ३. नाणा, दियाणा, नांदिया; जीवत स्वामी वांदिया ११ । ४. अप्रजैलेस, क्र० ३४१ । Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन तीर्ष : १८३ समारोह महेन्द्र सूरि ने सम्पन्न करवाया था। यहीं पर ११८३ ई० में धरकट वंश के जसघवल, विदन और अन्य श्रावकों तथा नानक गच्छ के भी कुछ श्रावकों ने मिलकर, शांति सूरि के उपदेशों से सम्भवनाथ का स्थापना समारोह आयोजित किया था। महावीर की प्रतिमा भी इन्हीं आचार्य के द्वारा १४४८ ई० में स्थापित की गई थी। १४४९ ई० में दूदा, वीरम, महीपा आदि ने अपने परिवार के सदस्यों के साथ, वीर के परिकर का निर्माण करवाया था।४ १६१२ ई० के अभिलेख में इस तथ्य का वर्णन है कि इस महावीर मन्दिर को मेवाड़ के राणा अमरसिंह के द्वारा एक अनुदान स्वीकृत किया गया था। नाणावाल और ज्ञानकीय गच्छ सम्भवतः एक ही गच्छ के दो नाम प्रतीत होते हैं । यह गच्छ प्रभाचन्द के द्वारा नाणा में स्थापित किया गया । ११वीं से १५वीं शताब्दी के सिरोही क्षेत्र के आसपास से खोजे गये असंख्य अभिलेख, इस तथ्य को प्रमाणित करते हैं कि लोगों पर उस समय इस गच्छ का बहुत प्रभाव था। इस गच्छ का सर्वप्रथम उल्लेख १०४५ ई० के अभिलेख में पाया गया है। महेन्द्र सूरि और शांति सूरि इस गच्छ के प्रभावशाली आचार्य प्रतीत होते हैं, क्योंकि इनके उपदेशों व निर्देशों से कई प्रतिमाएँ स्थापित की गई ज्ञात होती हैं। कालक्रम में नानक गच्छ के अनुयायी और आचार्य, अन्य स्थानों को प्रवास कर गये। यह गच्छ जैसलमेर में १३वीं से १५वीं शताब्दी तक काफी लोकप्रिय था। १५वीं व १६वीं शताब्दी में मेवाड़ में भी इसका प्रचलन पाया गया है। (७) मूंगथला तीर्थ : सिरोही जिले में आबू के निकट, मूंगथला एक प्राचीन गांव है। इसका प्राचीन नाम "मूंगस्थला" था। यहाँ ८३८ ई० में मोगदेश्वर नामक एक शव मन्दिर की पूजा होती थी। इससे सिद्ध होता है कि यह गांव ९वीं शताब्दी से पूर्व का है। यह स्थान जैनियों एवं ब्राह्मणों दोनों के लिये पवित्र तीर्थ था। १. अप्रजैलेस, क्र० ३४४ । २. वही, क्र० ३४६ । ३. वही, क्र० ३४९ । ४. वही, क्र० ३५१ । ५. वही, क्र० ३६२ । ६. वही, क्र. ३६७ । ७. वही, क्र० ३४६, ४०७, ४०९, ४१२, ४१३, ४२५ । ८. नाजैलेस, भाग ३। ९. वही, २, क्र० ११११, ११४३ एवं १०२१ । Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८४: मध्यकालीन राजस्थान में बनधर्म - मूंगथला, जैनियों के महातीर्थ के रूप में प्रसिद्ध रहा । जिनप्रभ सूरि ने १३३२ ई० में लिखित "विविध तीर्थ कल्प" में इस स्थान के महावीर मन्दिर का वर्णन किया है।' ऐसा विश्वास किया जाता है कि यहाँ महावीर छदमस्थ अवस्था में आये थे। महातीर्थ मूंगथला के "जीवित स्वामी श्री महावीर जैन मन्दिर" के मुख्य गम्भार के दरवाजे पर पाया गया १३६९ ई० का अभिलेख बताता है कि भगवान महावीर अर्बुद भूमि में आये थे और महावीर के जीवन की ३७वीं वर्षगाँठ पर, केशीगणधर के द्वारा एक प्रतिमा की प्रतिष्ठा आयोजित की गई थी। यह तथ्य साहित्यिक प्रमाणों से भी पुष्ट होता है । १३वीं शताब्दी के एक लेखक ने "अष्टोत्रयी तीर्थमाला"3 में वर्णन किया है कि महावीर के जीवन के ३७वें वर्ष में वीर मन्दिर का निर्माण हुआ था। जैन तीर्थमालाओं में यह महावीर मन्दिर "जीवित स्वामी के मन्दिर" के रूप में वर्णित किया गया है। जीवित स्वामी के मन्दिर से अभिप्राय है, कि वह मन्दिर जो महावीर के जीवन काल में निर्मित हुआ। उक्त सभी कथन पश्चातवर्ती समय के हैं। अतः आसानी से विश्वसनीय नहीं माने जा सकते हैं। मूंगथला का महावीर मन्दिर समय-समय पर पुननिर्मित होता रहा और इसमें प्रतिमाएँ स्थापित की जाती रहों। सभा मंडप के ४ स्तम्भ ११५८ ई० में बीसल के द्वारा बनवाये गये थे।४ १३३२ ई. में मंत्री धांधल ने इस मंदिर में जैन प्रतिमाओं के २ बड़े जोड़े रखवाये थे।" पोरवाल जाति के महीपाल के पुत्र श्रीपाल ने १३५९ ई० में इस मन्दिर का जीर्णोद्धार करवाया और इसी वर्ष सर्वदेव सूरि के द्वारा प्रतिमाओं का प्रतिष्ठा समारोह व कलश समारोह सम्मन्न हुआ । कान्हडदेव के पुत्र वीसलदेव ने इस मन्दिर के निमित्त १३८५ ई० में एक गांव और अन्य भेंट आदि दी थी। वीसलदेव सम्भवतः चन्द्रावती का शासक राजा देवड़ा चौहान प्रतीत होता है। मूंगथला में बड़ी संख्या में श्रावक रहते थे, वे नेमिनाथ के मन्दिर की वार्षिकी को समारोह पूर्वक मनाते थे । १४६० ई० में रत्नमन्दिर गणी द्वारा लिखित "उपदेश तरंगिणी" से ज्ञात होता है कि इस स्थान के श्रावक विमल वसहि मन्दिर के ध्वजारोहण और नित्य स्नान पूजा १. वितीक, पृ० ८६ । २. अप्रजैलेस, क्र० ४८। ३. वही, पृ० ४७ । ४. वही, क्र० ४४, ४५, ४६ एवं ४७ । ५. वहो, क्र० २५४, २५५ । ६. वही, क्र० ५० । ७. वही, क्र० ५१। ८. वही, क्र० २५१ । Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ... जैन तीर्थ : १८५ हेतु होने वाले व्यय को सहन करने के लिये अंशदान देते थे। मूंगथला में ही सुन्दर सूरि ने लक्ष्मी सागर को १४४४ ई० में वाचक उपाध्याय की पदवी प्रदान की और उनके भाई संघपति भीम ने इस अवसर पर एक भव्य समारोह का आयोजन किया था। ___इस प्रकार मूंगथला महातीर्थ होने के साथ-साथ जैन धर्म का बहुत महत्त्वपूर्ण केन्द्र भी था । सम्भवतः यह एक बड़ा कस्बा था, जैसा कि "महिमा" की तीर्थमाला से स्पष्ट होता है कि १६६५ ई० तक इस नगर की सम्पन्नता निर्बाध रूप से थी। इसके बाद इसका ह्रास प्रारम्भ हुआ और कालान्तर में यह केवल एक गाँव रह गया। (८) तलवाड़ा तीर्थ : बांसवाड़ा से १३ कि० मी० दूर, तलवाड़ा का प्राचीन नाम 'तलपाटक" था । १०वीं व ११वीं शताब्दी में यह कस्बा परमारों के द्वारा अथूणा से शासित होता था। तलवाड़ा जैनियों का प्रसिद्ध तीर्थ स्थान था। सिद्धसेन सूरि ने अपने "सकल तीर्थ स्तोत्र" में इस तीर्थ का वर्णन किया है।४ १४वीं शताब्दी के लेखक विनयप्रभ सूरि ने अपनी कृति "तीर्थयात्रा स्तवन" में इस तीर्थ का व यहाँ के शांतिनाथ मन्दिर का उल्लेख किया है ।" बालचन्द्र सूरि के "उपदेशकंदल वृत्ति" से ज्ञात होता है कि १०वीं शताब्दी में होने वाले प्रद्युम्न सूरि यहाँ भी आये थे और यहाँ के शासक को प्रतिबोधित किया था। भूषण का पूर्वज अंबट जिसने कि अथूणा में ११०९ ई० में जैन मन्दिर बनवाया था, तलपाटक का ही रहने वाला था। वह एक विद्वान् चिकित्सक और नागर परिवार का रत्न था । मध्यकालीन जैन धर्म के रक्षक एवं तत्कालीन प्रभावशाली आचार्य जिनभद्र सूरि के उपदेशों से इस स्थान पर जैन मन्दिर बनवाया गया था एवं उसमें मूर्तियाँ स्थापित की गई थीं। उदयनन्दी के शिष्य संघकलश गणि ने १४४८ ई० में अपनी कृति “सम्यक्त्व रास" की रचना यहीं पर की थी। वर्तमान समय में यहाँ पर संभवनाथ का एक विशाल मन्दिर है, जिसमें ११वी व १२वीं शताब्दियों की कुछ मूर्तियाँ भी हैं । जैन तीर्थ के अतिरिक्त यह स्थान वैष्णव तीर्थ भी रहा है । १. उपदेश तरंगिणी, पृ० २२४ । २. गुरुगुणरत्नाकरकाव्य, पृ० १, ९० । ३. प्राचीन तीर्थमाला, २, पृ० ६० । ४. गाओसि, ७६, पृ० १५६ । ५. जैसप्र, १८, पृ० १५ । ६. गाओसि, ७६, पृ० ३३१ । ७. एइ, २१, पृ० ५० । ८. जैसप्र, १६, पृ० १६ । ९. जैसासइ, पृ० ३८३-५५० । Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८६ : मध्यकालीन राजस्थान में जैनधर्म (९) मदार तीर्थ : मदार, आबू से ३२ कि० मी० दूर स्थित है । अभिलेखीय और साहित्यिक प्रमाणों के आधार पर इसके प्राचीन नाम मदहृत' और मडाहर थे। इस स्थान का नामकरण सम्भवतः मदार देवी के आधार पर हुआ। मदार देवी के मन्दिर की दीवार के १२३० ई० के लेख से ज्ञात होता है कि इस स्थान का नाम 'मडाहड" था। पूर्ववर्ती काल में यह स्थान एक पवित्र जैन तीर्थ के रूप में प्रसिद्ध था। मेघ द्वारा १४४२ ई० में रचित "तीर्थमाला" में इस स्थान के महावीर मन्दिर का वर्णन है। शीलविजय ने भी १६९१. ई० में अपनी "तीर्थमाला" में इस तीर्थ का वर्णन किया है। मदार में जैन धर्म बहुत प्राचीन काल से ही अस्तित्व में था। सिरोही के अजितनाथ मन्दिर की पीतल की प्रतिमा के पृष्ठ भाग पर उत्कीर्ण अभिलेख में वर्णित है कि घारापदीय गच्छ से सम्बद्ध देवचन्द्र के पुत्र धनदेव ने मदाहद नामक स्थान पर १०८१ ई० में स्वयं के आध्यात्मिक कल्याण के निमित्त, वर्धमान की एक प्रतिमा स्थापित की थी। प्रसिद्ध जैनाचार्य वादिदेव सूरि मदाहद में ही १०८६ ई० में पैदा हुये थे । इनके पिता पोरवाड़ जाति के थे और उनका नाम वीरनाग था । चक्रेश्वर सूरि ने ११५६ ई० में "तपश्चरण भेदस्वरूप प्रकरण" यहीं पर लिखा ।' आबू के नेमिनाथ मन्दिर की प्रतिष्ठा समारोह की वार्षिकी के लिये मनाये जाने वाले महोत्सव का कार्य पड़ोसी स्थानों के श्रावकों के सुपुर्द किया गया था। ८० दिन तक चलने वाले इस महोत्सव के विभिन्न संस्कारों में, ८वें दिन के संस्कार मदाहद के श्रावकों के सुपुर्द १२३० ई० में किये गये थे। जैनधर्म में प्रचलित मदाहृदीय या मदहद गच्छ, मदार गाँव से ही उत्पन्न हुआ। इस गच्छ का १२३० ई० का प्राचीनतम अभिलेख इसके उत्पत्ति स्थान मदार गाँव से ही प्राप्त किया गया है। इस क्षेत्र में खोजे गये विभिन्न अभिलेखों से. संकेत मिलता है कि इस गच्छ का इस क्षेत्र में अत्यधिक प्रभाव था। १४वीं व १५वीं १. एसिटारा, पृ० ४२२ । २. अप्रजैलेस, क्र० ६६ । ३. जैनतीर्थ सर्वसंग्रह, पृ० ३०१ । ४. जैसप्र, १०, पृ० १९१ । ५. प्राचीन तीर्थमाला संग्रह, पृ० १०५ । ६. एरिराम्यूअ, १९२८-२९, क्र० ३ । ७. प्रभावक चरित्र, पृ० १७१-१८२ । ८. जैसप्र, पृ० ५३ । ९. एइ, ८, पृ० २०६ । १०. अप्रजैलेस, क्र० ६६ । Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन तीर्थ : १८७ शताब्दियों में यह गच्छ चित्तोड़ और जैसलमेर क्षेत्र में भी प्रचलन में था । १४२५ ई० में सिरोही राज्य की स्थापना के पश्चात् इस गच्छ के आचार्य की गादी यहाँ से सिरोही स्थानांतरित कर दी गई ।" इस गच्छ के एक आचार्य ने सिरोही के अजितनाथ के मन्दिर में एक " भद्र प्रासाद" का निर्माण करवाया था, जिसका स्थापना समारोह १४६३ ई० में कमलप्रभा सूरि के द्वारा सम्पन्न करवाया गया था । जैन मन्दिरों के अतिरिक्त यहाँ मदार देवी और महादेव के प्राचीन मन्दिर भी हैं । (१०) मोरखानों तीर्थ : मोरखानों, बीकानेर जिले में देशनोक से लगभग १९ कि० मी० दक्षिण पूर्व में है । १६६६ ई० के एक अभिलेख के अनुसार इसका प्राचीन नाम " मोराखियाणा" था । मोरखानों का मुख्य आकर्षण स्थल, महाजनों के एक गोत्र " सुराणा " की कुल देवी का मन्दिर है, जिसका नाम " सुसाणी मन्दिर" है । इस मन्दिर में ११७२ ई० का एक अभिलेख है, जिससे यह स्पष्ट प्रमाणित होता है कि यह मन्दिर ११७२ ई० के पूर्व ही इस कस्बे में निर्मित हो गया था तथा यह कस्बा ११वीं शताब्दी से भी पूर्ववर्ती समय का है । कीर्ति स्तम्भ या गोवर्धन के अभिलेख से यह भी स्पष्ट है कि यह कस्बा ११ वीं शताब्दी से पूर्व का है ।" यह कीर्ति स्तम्भ एक लाल सैंडस्टोन पर चारों तरफ से खुदा हुआ एक अभिलेख है । यहाँ का सुसाणी मन्दिर पूर्ववर्ती काल में एक तीर्थं था । यह मन्दिर एक ऊँचे चबूतरे पर बना हुआ है, जिसमें एक कोठरी, खुला सभा मण्डप और सामने एक बरामदा है । यह जैसलमेरी पत्थर से निर्मित है। गर्भगृह की बाह्य दीवार देवी-देवताओं और नृत्य - मुद्राओं की आकृतियों से अलंकृत है । दरवाजा भी अलंकरण से रूपांकित | गर्भगृह का शिखर खोखला है एवं अंदर देवी की प्रस्तर प्रतिमा है, जो अन्य अलंकरणों से उकेरी गई है। गर्भगृह के चारों ओर एक कम ऊंचाई की दीवार है, जिससे एक खुली प्रदक्षिणा बनती है । सभा मण्डप १६ स्तम्भों व समतल छत वाला है । १२ स्तम्भ, मण्डप के सीमा प्रदेश में व ४ मध्य में हैं । ४ केन्द्रीय स्तम्भ तथा कोठरी के सामने के २ स्तम्भ घट- पल्लव शैली के हैं और बारीक नक्काशी से अलंकृत हैं, किन्तु पीछे के दो स्तम्भ अन्य स्तम्भों से भिन्न हैं । केन्द्रीय स्तम्भों में से एक पर १. जैसप्र १०, पृ० १९१ । २ . वही ३. एसिटारा, पृ० ४२३ ॥ ४. बीजैलेस, क्र० २६०३ । ५. ओझा, बीकानेर राज्य, पृ० ५८ । Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८८ : मध्यकालीन राजस्थान में जैनधमं पुरुषाकृति उत्कीर्ण है, जो स्थानीय परम्परानुसार नागौर के नवाब के रूप में पहचानी जाती है । १७७२ ई० के लेख के अनुसार सेबलाकोट नामक स्थान के एक आदमी ने यहाँ कुछ स्थायी दान दिया था । १५१६ ई० के एक अभिलेख से विदित होता है कि - शिवराज के पुत्र हेमराज ने इस मंदिर का जीर्णोद्धार करवाया था और सुराणा गोत्र के छाहद के पुत्र संघेश ने नन्दिवर्द्धन सूरि के द्वारा एक प्रतिमा स्थापित करवाई थी । (११) फलोधी तीर्थं : मारवाड़ में फलौधी नाम के दो स्थान हैं । एक पोकरण के निकट और दूसरा विवेच्य जो मेड़ता रोड़ स्टेशन से २ कि० मी० दूर है । अभिलेखीय एवं साहित्यिक प्रमाणों के आधार पर इसका प्राचीन नाम " फलवधिका " था । संभवतः इसी नाम की देवी के आधार पर फलोधी का नामकरण हुआ होगा । पूर्ववर्ती काल में यहाँ का वर्तमान ब्राह्मण मन्दिर ही " फलवद्धिका " मंदिर था । पार्श्वनाथ की चमत्कारी मूर्ति के प्रभाव के कारण फलोधी, कालक्रम में जैन तीर्थं बन गया । यह राजस्थान के, मध्यकाल के सर्वाधिक लोकप्रिय तीर्थों में से एक था । इस तीर्थ के सम्बन्ध में स्वतंत्र स्तवन एवं तीर्थ मालाएँ भी समय-समय पर रची गई । भारत के अन्य जैन तीर्थों में इसका भी उल्लेख विनय प्रभा उपाध्याय ने इस स्थान के पार्श्वनाथ मन्दिर का भव्य वर्णन किया है । ४ पूर्व मध्यकाल से ही फलौधी जैनियों का पवित्र तीर्थ स्थान माना जाता रहा है । 'फलोधी के निकटस्थ द्रोणगिरी पहाड़ी पर ही गुरुदत्त एवं अन्य मुनियों ने मोक्ष प्राप्त किया । " वर्तमान में कुछ विद्वान् द्रोणगिरी को बुन्देलखण्ड में ग्राम सेंधवा के निकट मानते हैं, जो संदिग्ध है, क्योंकि इसके निकट फलोधी नामक कोई स्थान नहीं है, तथा यहाँ उस काल में जैन धर्म के अस्तित्व में होने के भी प्रमाणों का अभाव है । जबकि यह फलौघी १२वीं शताब्दी से ही पार्श्वनाथ का प्रसिद्ध तीर्थ रहा, यही नहीं इसके पूर्व भी यह एक समृद्ध कस्बा था और यहाँ एक महावीर मन्दिर भी था । ६ " विविध तीर्थकल्प" में जिनप्रभसूरि ने किया है । इसी काल के अन्य विद्वान् समय के उतार-चढ़ाव के साथ-साथ बीच में फलोधी जनविहीन भी हुआ, किन्तु शान्ति काल में पुनः कुछ महाजन यहाँ आकर बस गये । संयोगवश यहाँ से ११२४ ई० १. बीजैलेस, क्र० २६०३ । २. एसिटारा, पृ० ४२६ ॥ ३. जैस, ८, पृ० २७ ॥ ४. जैस, १७, पृ० १५ । ༥་ जैसाऔ, पृ० ४४२-४४३ ॥ ६. एसिटारा, पृ० ४२५ । 19. वितीक, पृ० १०५-१०६ । Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन तीर्थ : १८९ में एक पार्श्वनाथ प्रतिमा प्रकट हुई और शीलभद्र सूरि के शिष्य धर्मघोष सूरि ने यहां तीर्थ की स्थापना की । वादिदेव सूरि सपादलक्ष का भ्रमण करते हुए फलौधी आये और उन्होंने ११४७ ई० में इस मन्दिर का प्रतिष्ठा महोत्सव सम्पन्न करवाया।' “विविध तीर्थ कल्प" से प्राप्त जानकारी के अनुसार इस समारोह में भाग लेने के लिए अजमेर और नागौर के श्रावक भी यहाँ एकत्रित हुये तथा महोत्सव का समस्त व्यय भार धांधल के द्वारा वहन किया गया । "पुरातन प्रबंध संग्रह" में ऐसा उल्लेख है कि धांधल के पारस पत्थर के साथ ही पैदा हुए थे। इन्होंने एक जैन मन्दिर भी बनवाया था। इसके पूर्व ही ११६४ ई० में पोरवाड़ रूपिमणी और भण्डारी दशाढ़ ने पार्श्वनाथ मन्दिर को एक चंडक तथा श्री चित्रकूटीय शिलाफट भेंट में दिया था। एक अन्य तिथि-विहीन अभिलेख के अनुसार, सेठ मुनिचन्द्र ने उत्तान-पट्ट निर्मित करवाया था। किन्तु शहाबुद्दीन गोरी के आक्रमण के समय ११७७ ई० या इसके पूर्व ही मन्दिर का भी विध्वंस हो गया और पार्श्वनाथ प्रतिमा को भी भंग किया गया, किन्तु खंडित मूर्ति ही प्रभावशाली व चमत्कार पूर्ण मानी जाती रही एवं दूसरी प्रतिमा स्थापित नहीं की गई। मन्दिर के जीर्णोद्धार की आवश्यकता होने के कारण ११७७ ई० में जिनपति सरि ने पार्श्वनाथ की प्रतिमा विधिचैत्य में स्थापित की। खरतर गच्छ का फलौधी से घनिष्ठ सम्पर्क रहा । ११८२ ई० में जिनपति सूरि के यहाँ आगमन पर उनको पद्मप्रभ के श्रावकों का विरोध सहन करना पड़ा। फलौधी से ये शास्त्रार्थ के निमन्त्रण के फलस्वरूप अजमेर गये, जहाँ पृथ्वीराज चौहान के दरबार में इन्होंने पद्मप्रभ को परास्त किया। फलौधी के श्रावकों ने जिनपति सूरि को पुनः आने के लिये बहुत आग्रह किया तथा संघ-पूजा और दानादि पर अपार राशि व्यय की । ११८५ ई० में जिनमतोपाध्याय यहीं देवलोक सिधारे । ११८७ ई० में अभय कुमार के नेतृत्व में एक संघ यात्रा सम्पन्न हुई, जिसमें जिनपति सूरि और यहाँ के श्रावक भी थे। १३२३ ई० में जिन कुशल सूरि के नेतृत्व में फलौधी आये संघ में दिल्ली से सेठ रायपति भी आये थे। इस आगमन पर भव्य स्वागत का आयोजन हुआ था, जिसे देखने आसपास के लोग भी आये थे । १३८० ई० में लिखे हुये "विज्ञप्ति पत्र महालेख" १. जैन तीर्थ सर्व संग्रह। २. प्रोरिआसवेस, १९१०, पृ० ६० । ३. वही । ४. वितीक पृ० १०६ । ५. खबृगु, पृ० २४ । ६. वही, पृ० ३४। ७. वही, पृ०७२। Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९० : मध्यकालीन राजस्थान में जैनधर्म से स्पष्ट है कि जिनोदय सूरि पार्श्वनाथ के प्रति श्रद्धा वश यहां आये थे। बीकानेर के शासक राजा रायसिंह के मंत्री कर्मचन्द्र ने जिनदत्त सूरि और जिनकुशल सूरि के स्तूप १७वीं शताब्दी में बनवाये थे । मध्यकाल में यहाँ बहुत से जैनाचार्य और विद्वान् आये । कतिपय विद्वानों ने अपनी साहित्यिक कृतियों की रचना यहीं की। १६३२ ई० में श्रीसार ने "मोतिकपासीवा" यहीं रहकर लिखी। इन्होंने "फलौधी पावं स्तवन" की भी रचना की। सुमति सुन्दर ने “सारस्वत व्याकरण टीका" की प्रतिलिपि अपने शिष्य सुमति हेमगिरी से १६५९ ई० में लिखवाई।४ जिनविजय ने यहीं पर अपना "चौबीसी जिन स्तवन" १६७४ ई० में लिखा ।" विनयलाभ ने भी १६९१ ई० में "सिंहासन बत्तीसी" और "विक्रम चौपाई" यहीं पूर्ण की। (१२) जीरावला तीर्थ : प्रसिद्ध जैन तीर्थ जीरावला पार्श्वनाथ, देलवाड़ा से ३२ कि० मी० दूर, अबुद पर्वत के पश्चिमी ढाल पर स्थित रेवदर से १० कि० मी० दुर स्थित है। जैन जगत में इस तीर्थ के कई नाम है, जैसे-जीरावली, जीरापल्ली, जीरिकापल्ली एवं जयराजपल्ली, किन्तु इसका नामकरण जयराज पर्वत के नाम पर हुआ। जयराज पर्वत की गोद में बसी बस्ती जयराजपल्ली, जिसका प्राकृत नाम "जइराउली" एवं अपभ्रंश रूप "जीराउली" "जीराउला" एवं तत्पश्चात् “जीरावला" नाम प्रतिष्ठित हुआ। प्राचीन काल में यह भीनमाल से पाटन जाने वाले मार्ग का मुख्य नगर एवं व्यापार का केन्द्र था । जैन परम्परा के अनुसार महावीर के अबुद प्रदेश बिहार के समय यह क्षेत्र भी पवित्र हुआ होगा। जैन परम्परा का इतिहास बताता है कि मौर्य सम्राट् सम्प्रति ने इस मन्दिर का जीर्णोद्धार करवाया था। जैनों को तीर्थ यात्राओं को मान्यताओं में इस तीर्थ की यात्रा अपरिहार्य मानी जाती है । सम्पूर्ण श्वेताम्बर मन्दिरों की प्रतिष्ठा एवं धार्मिक अनुष्ठान के प्रारम्भ में "ॐ श्री जीरावल पार्श्वनाथाय नमः" का मंत्राक्षर केसर से लिखा जाता है । इससे इस तीर्थ की महिमा प्रकट होती है। १. विज्ञप्ति पत्र महालेख संग्रह (अप्रका०) । २. एसिटारा, पृ० ४२७ । ३. जैगुक, पृ० ५३६ । ४. जैसप्र, पृ० ३२० । ५. जैगुक, पृ० १२८८ । ६. वही, पृ० १३१९ । ७. असावे, पृ० ८७ । ८. वही। Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन तीर्थ : १९१ एक मत के अनुसार जीरावला पार्श्वनाथ का यह मन्दिर कौडी नगर के सेठ अमरासा ने २६९ ई० में बनवाया था। जनश्रुति के अनुसार पार्श्वनाथ प्रतिमा स्वप्न के आधार पर जमीन से निकाली गई थी। जैनाचार्य देवसूरि ने २७४ ई० में जीरापल्ली में इसकी प्रतिष्ठा को।' ६०६ ई० में प्रथम बार सेठ जैतासा खेमासा ने इस मन्दिर का जीर्णोद्धार करवाया । वे १० हजार तीर्थ यात्रियों के साथ दर्शनार्थ आये थे। यह कार्य मुनि भैरू सूरीश्वर की प्रेरणा से सम्पन्न हुआ। गुप्तकाल के प्रसिद्ध जैनाचार्य हरिगुप्त सूरि के प्रशिष्य शिवचन्द्र गणी महत्तर ने इस मन्दिर की यात्रा की थी। उद्योतन सूरि कृत "कुवलयमाला" की प्रशस्ति के अनुसार उनके शिष्य यक्षदत्त गणी ने अपने प्रभाव से यहाँ कई जैन मन्दिरों का निर्माण करवाया था। ये मन्दिर आसपास के क्षेत्र में आज भी विद्यमान हैं । यक्षदत्त गणी के एक शिष्य बटेश्वर सूरि ने आकाशवप्र नगर में एक रम्य जैन मन्दिर का निर्माण करवाया था। यह आकाशवप्र सम्भवतः जीरावल ही था, क्योंकि जैन तीथं प्रशस्ति में इस तीर्थ को ही विशिष्ट स्थान प्राप्त है। बल्लभीपुर के राजा शिलादित्य को जैन मत में दीक्षित करने वाले धनेश्वर सूरि ने भी इस मन्दिर की यात्रा की थी। ८वीं शताब्दी के उद्भट विद्वान् जैनाचार्य हरिभद्र सूरि ने जीर्णोद्धार के पश्चात् इस मन्दिर की प्रतिष्ठा की थी। तत्त्वाचार्य वीरभद्र सूरि, "सिद्ध-सारस्वत-स्तोत्र" के रचयिता बप्पभट्ट सूरि, जैनाचार्य सिद्धर्षि और उनके गुरु दुर्गस्वामी ने भी यहाँ की यात्रा की थी। विमलशाह एवं वस्तुपाल-तेजपाल ने भी इस मन्दिर में अपना धर्म-द्रव्य लगाया था। मन्दिर का तीसरी बार जीर्णोद्धार ९७६ ई० में तैतलीनग के श्रेष्ठी हरदास ने करवाया एवं जैनाचार्य सहजनन्दि ने इसकी प्रतिष्ठा को । एक जनश्रुति के अनुसार १०५२ ई० में वरमाण स्थान के धांधल नामक श्रेष्ठी ने स्वप्न के आधार पर समीप के किसी स्थान से पार्श्वनाथ को मूर्ति को भूमि से निकाला था। इसी मूर्ति की प्रतिष्ठा जीरापल्ली में, धांधल द्वारा पुराने मन्दिर का जीर्णोद्धार करवा कर, ११३४ ई० में की गई । प्रतिष्ठा करवाने वाले आचार्य अजितदेव सूरि थे। इसके पश्चात् अलाउद्दीन खिलजी ने १३११ ई० में अपने आक्रमण में इस मन्दिर एवं मूर्ति को क्षति पहुँचायी, इस तथ्य की पुष्टि "श्री जीरापल्ली मण्डन पार्श्वनाथ विनती" नामक प्राचीन स्तोत्र से भी होती है । तेरहराई अड़सट्ठा (१३६८) वरिसिंह असुरहदलु । जीत उजिनि हरिसिहि मसय ग्रह विकरोल ॥ "कान्हडदे प्रबंध" एवं अन्य ऐतिहासिक तथ्यों से भी इस विध्वंस की पुष्टि होती है। इसके बाद १३८६ ई० में अहमदाबाद निवासी श्रेष्ठी रत्ना ने इस मन्दिर का १. असावे, पृ० ८८। २. उपदेश सप्ततिका, पृ० ३६-३७ । Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९२ : मध्यकालीन राजस्थान में जैनधर्म जीर्णोद्धार करवाया। १४वीं व १५वीं शताब्दियों में इस तीर्थ की सुख्याति से प्रभावित होकर विभिन्न स्थानों से लोग यहाँ आने लगे। माण्डवगढ़ के संघवी पेथड़ और झॉझण ने यहाँ की तीर्थयात्रा की और एक जैन मन्दिर बनवाया, जिसके भग्नावशेष उपलब्ध नहीं हैं ।२ झांझण के ज्येष्ठ पुत्र चाहड़ ने आबू और जीरापल्ली की तीर्थ यात्राओं पर अपार धन व्यय किया और अनेकों दान दिये । झांझण के ५वें पुत्र ने पार्श्वनाथ मन्दिर का मण्डप बनवाया और छठे पुत्र संघवी पाहु ने जिनभद्र सूरि के साथ तीर्थ यात्रायें कीं। लक्ष्मी सागर सूरि के सान्निध्य में संघवी समदाक भी इस तीर्थ के दर्शनार्थ आये । इसके अतिरिक्त रतलाम, सिरोही, जैसलमेर एवं विभिन्न स्थानों के श्रावक १४वीं एवं १५वीं शताब्दियों में इस तीर्थ पर आये एवं देवकुलिकाओं, शिखरों, रंगमण्डपों आदि का निर्माण करवाया । ऐसा प्रतीत होता है कि इस प्रदेश में ओसवाल, पोरवाल एवं श्रीमालों का विशाल जन समुदाय था । तपागच्छ के जयचन्द्र सूरि, भुवनचन्द्र सूरि एवं जिनचन्द्र आदि आचार्यों ने इस तीर्थ की लोकप्रियता के लिये बहुत प्रयत्न किये। १४२६ ई० के एक अभिलेख से ज्ञात होता है कि तपागच्छ के भुवनचन्द्र, कृष्णषि गच्छ के जयसिंह सूरि, धर्मघोष गच्छ के विजयचन्द्र सूरि और मल्लधारी गच्छ के विद्यासागर सूरि के विभिन्न श्रावकों ने एक ही दिन, अपने-अपने गच्छों के आचार्यों द्वारा नवनिर्मित देव कुलिकाओं का प्रतिष्ठा समारोह सम्पन्न करवाया । ऐसा प्रतीत होता है कि १४२६ ई० में इन आचार्यों ने चातुर्मास यहीं व्यतीत किया था। जीरावला गच्छ या जीरापल्ली गच्छ, जो बृहद गच्छ की एक शाखा है, इसी स्थान से उत्पन्न हुई। यह गच्छ सिरोही राज्य तक ही सीमित रहा। १४वीं शताब्दी में यह गच्छ इसके उत्पत्ति स्थान तक ही सीमित था। इस गच्छ के आचार्यों ने प्रतिमाओं के प्रतिष्ठा समारोह सम्पन्न करवाये । इसी गच्छ के रामचन्द्र सूरि ने पाश्वनाथ मन्दिर में १३५४ ई० में एवं १३५६ ई०९ में देव कुलिकाओं का निर्माण करवाया। वीरचन्द्र १. अप्रजैलेस, क्र० १६७, पृ० ५७ । २. उपदेश तरंगिणी पृ० १७८ । ३. गुरुगुणरत्नाकरकाव्य, ३, पृ० ३६ । ४. अर्बुदाचल प्रदक्षिणा, पृ० ३६ । ५. गुरुगुणरत्नाकरकाव्य, ३, पृ० ६५ । ६. गाओसि, २१, पृ० १०० । ७. अप्रजैलेस, पृ० ३६-६१ । ८. श्रीजैप्रलेस, क्र० ३०९ । ९. वही, क्र० ३१०! Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन तीर्थ: : १९३ सूरि ने १३७८ ई० में शांतिनाथ का प्रतिष्ठा महोत्सव आयोजित करवाया । ' वीरचन्द्र सूरि के पश्चात् शालिभद्र पट्टधर हुये, जिन्होंने १३९६ ई०२ में श्री चतुर्विंशति जिनपट्ट और १४०५ इ० में पार्श्वनाथ का स्थापना समारोह सम्पन्न करवाया । १४५९ ई० में उदयचन्द सूरि ने प्रतिमाएँ स्थापित करवाईं। इनके उत्तराधिकारी सागर चन्द्र सूरि ने १४७० ई० में समारोह पूर्वक मूर्तियाँ स्थापित की ।" कालप्रवाह में जीरावला, तीर्थ क्षेत्र के साथ-साथ जैन संतों व विद्वानों का भी केन्द्र रहा । यहाँ कई तीर्थ स्तोत्र व तीर्थ स्तवनों जैसे "जीरापल्ली मण्डन पार्श्वनाथ विनती६, "जीरावल्ली पार्श्वद्वात्रिंशतिका ७ एवं " जीरावल्ली पार्श्व स्तवन"" आदि की रचना हुई । १५वीं शताब्दी में प्रभाचन्द के शिष्य भट्टारक पद्मनन्दि ने "जीरावल्ली पार्श्वनाथ स्तोत्र" की रचना को ।" इससे स्पष्ट है कि श्वेताम्बर तीर्थों पर दिगम्बर जैन भी कभी-कभी जाते थे । विनयप्रभा सूरि, मेघ, शांतिकुशल १२, शील विजय आदि ने अपनी तीर्थं मालाओं में अन्य तीर्थों के साथ-साथ इस तीर्थ का भी भव्य वर्णन किया है | १४ १७९४ ई० के शिलालेख के अनुसार इस मन्दिर में मूलनायक पार्श्वनाथ ही थे । किन्तु इसके बाद किसी कारणवश नेमिनाथ को मूलनायक के रूप में प्रतिष्ठित किया गया । सम्भवतः मूर्ति मुसलमानों द्वारा विध्वंस कर दी गई या ऐसी भी मान्यता है कि अमूल्य प्रतिमा वहीं खंडित न कर दी जावे, अतः रामसीन (जालौर) में विराजमान कर दी गई, जो आज भी मौजूद है । उस समय अन्तरिम व्यवस्था के लिये नेमिनाथ को प्रतिष्ठित कर दिया गया होगा । अब इस मन्दिर में पार्श्वनाथ की नई मूर्तियाँ स्थापित हो गई हैं । १. श्रीजैप्रलेस क्र० ९९ । २. वही, क्र० ६२ ॥ ३. अप्रजैलेस, क्र० ७४ । ४. श्री जैप्रलेस, क्र० २५६ ॥ ५. वही, क्र० १३८ । ६. अर्बुदाचल प्रदक्षिणा, पृ० ९२ । ७. जैसप्र, १९, पृ० १६२ । ८. वही, ७, पृ० ५६३ । ९. अने, ९, पृ० २४६ ॥ १०. जैस, १७, पृ० १५ । ११. अर्बुदाचल प्रदक्षिणा, पृ० ९६ । १२. जैसिभा, ५, पृ० ३६६-६८ । १३. अर्बुदाचल प्रदक्षिणा, पृ० २४६ । १४. खंडेलवाल दिगम्बर जैन मन्दिर उदयपुर के शास्त्र भण्डार का ग्रन्थ संख्या ७२ । १५. असावे, पृ० ९१ । १३ Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९४ : मध्यकालीन राजस्थान में जैनधर्म (१३) किराडू तीर्थ : किराडू, जोधपुर संभाग में बाडमेर से २६ कि० मी० उत्तर-पूर्व में है। इसका प्राचीन नाम “किरातकूप" था। गढ़, मन्दिरों एवं भवनों में यत्र-तत्र फैले हुये भग्नावशेष बताते हैं कि किसी समय यह कला एवं संस्कृति का केन्द्र था तथा बड़ा नगर था। मूल रूप से यह परमार शासकों के अन्तर्गत था, किन्तु सम्पूर्ण रूप से मुस्लिम विध्वंस का शिकार हो गया। १२वीं शताब्दी के आचार्य एवं विद्वान् लेखक सिद्धसेन सूरि ने 'सकल तीर्थ स्तोत्र" में किराडू का जैन तीर्थ के रूप में उल्लेख किया है।' यद्यपि वर्तमान में यहाँ कोई मन्दिर नहीं है, किन्तु भूतकाल में उनके अस्तित्व के बारे में कोई सन्देह नहीं है । कनक सूरि द्वारा १३३८ ई० में रचित "नाभिनन्दन जिनोद्धार" से ज्ञात होता है कि श्रेष्ठी समरसिंह के आठवें पूर्वज वेसट, इस स्थान पर आकर बसे और उन्होंने कक्क सूरि के द्वारा नवनिर्मित जैन मन्दिर में पार्श्वनाथ की प्रतिमा की स्थापना करवाई। वंशावलियों से ज्ञात होता है कि इस स्थान पर यात्रा संघों में आने वाले श्रावकों के द्वारा कई जैन मन्दिर बनवाये गये थे । ११५३ ई० में नाडोल के शासक आन्हलदेव ने शिवरात्रि पर जीव हिंसा रोकने व पशओं की सुरक्षार्थ यह आदेश महाजनों, ताम्बलिकों और सामान्य प्रजा को जारी किया था कि जीवित प्राणियों का वध नहीं किया जावे । निश्चित रूप से यह आदेश श्रावकों को अधिक संख्या को देखते हुये उनकी भावनाओं के सम्मानार्थ ही जारी किया गया होगा। ब्राह्मण, पुजारी, मन्त्री एवं सभी को अहिंसा के इस आदेश का पालन करना अनिवार्य था, अन्यथा इसका उल्लंघन करने वाले को ५ द्रम का जुर्माना देना होता था। (१४) भीनमाल (श्रीमाल) तीर्थ : भीनमाल, जोधपुर से १६९ कि० मी० दक्षिण पूर्व में है । इसका प्राचीन नाम "श्रीमाल" था। नगर के नाम की उत्पत्ति के सम्बन्ध में विभिन्न मत हैं । वस्तुतः मूल नाम भीलों के आधिक्य के कारण "भिल्लमाल" था, जो कालान्तर में भीनमाल हो गया।६ पद्मनाभ ने इसे चौहानों को ब्रह्मपुरी कहा । यह राजस्थान का एक प्राचीन नगर है। सिद्धसेन सूरि ने "सकल तीर्थ स्तोत्र" में भीनमाल को "जैन तीर्थ" बताया १. गाओसि, ७६, पृ० १५६ । २. भपापइ, पृ० १५३-१६० । ३. वही, पृ० ४१६, ५११, ६२९ व ६६५ । ४. एइ, ११, पृ० ४३-४४ । ५. एसिटारा, पृ० १५६ । ६. निशीथचूणि, पृ० १०.२२५ । Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . जैन तीर्थ : १९५ है।' ११वीं शताब्दी के प्रसिद्ध कवि, धनपाल ने अपनी कविता "सत्यपुरिय महावीर उत्साह" में यहां की महावीर प्रतिमा का उल्लेख किया है। जिनप्रभ सूरि ने अपने "विविध तीर्थ कल्प" में इसे “वीरका तीर्थ" वर्णित किया है । इस तीर्थ पर कई जैन मन्दिर थे। यहां से प्राप्त १२७६ ई० के शिलालेख से ज्ञात होता है कि महावीर छद्मस्थ अवस्था में यहाँ आये थे। श्रीमाल में जैनधर्म के प्रसार सम्बन्धी विवरण की १३वीं शताब्दी की एक कृति, "श्रीमाल माहात्म्य" से भी इस तथ्य की पुष्टि होती है । गौतम गणधर जब काश्मीर से वापस श्रीमाल आये तो उन्होंने वैश्यों को जैनधर्म में दीक्षित किया तथा “कल्पसूत्र", "भगवती सूत्र", "महावीर जन्म सूत्र" आदि कृतियों की रचना की।" ये सभी प्रमाण पश्चाद्वर्ती हैं और आसानी से विश्वसनीय नहीं हैं, किन्तु इनसे यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि १२वीं शताब्दी तक श्रीमाल में जैनधर्म काफी प्राचीन व लोकप्रिय था । उद्योतनसूरि रचित 'कुवलयमाला" को ७७८ ई० को प्रशस्ति से ज्ञात होता है कि शिवचन्द्र गणी पंजाब से श्रीमाल तीर्थ यात्रा पर आये थे तथा उनके शिष्य यक्षदत्त सहित अन्य श्रावकों ने गुर्जर प्रदेश को मन्दिरों से सज्जित कर दिया था। यहाँ के महावीर मन्दिर को समय-समय पर अनुदान मिलते रहते थे। १२७६ ई० के, चौहान चाचिगदेव के शासनकाल के, एक अभिलेख से ज्ञात होता है कि महावीर देव के मन्दिर को कर्मसिंह, साँचौर के राज्यपाल, रतनपुरा; राधाधर आदि के द्वारा पूजार्थ कुछ भेटें दी गई थीं।' इस मन्दिर के अतिरिक्त श्रीमाल में शान्तिनाथ और पार्श्वनाथ के मन्दिर भी थे। "कल्पसूत्र" की १४८९ को प्रशस्ति से ज्ञात होता है कि शाह कुलधर ने १३वीं शताब्दी में यहां एक जैन मन्दिर निर्मित करवाया। "उपकेश गच्छ प्रबन्ध" के अनुसार यहाँ पर १४वीं शताब्दी में उपकेश गच्छ के दो मन्दिर थे। १६वीं शताब्दी में श्रेष्ठी टोडा के शान्तिनाथ मन्दिर का गोष्ठिक होने का उल्लेख भी मिलता है ।१० मध्यकाल में यहाँ १. गाओसि, ७६, पृ० १५६ । २. जैसंशो, ३ अंक । ३. वितीक, पृ० ८६ । ४. प्रोरिआसवेस, १९०८ पृ० ३९ । ५. श्रीमाल पुराण, पृ० ६३३-६३ । ६. जबिउरिसो, १९२३, मार्च, पृ० २८ । ७. एरि सरदार म्यूजियम जोधपुर, १९२२, क० २० । ८. श्री प्रशस्ति संग्रह, ४७ । ९. शोप, ३, क्र० १। १०. वही। Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९६ : मध्यकालीन राजस्थान में जैनधर्म का पार्श्वनाथ मन्दिर बहुत प्रसिद्ध था, जिसके चमत्कारों के वर्णन विभिन्न तीर्थ मालाओं में मिलते हैं।' इस मूलनायक की प्रशंसा में १६०५ ई० में पुण्य कमल ने "पार्श्वनाथ स्तवन" को रचना की ।२ महिमा ने अपनी "चैत्यपरिपाटी" में श्रीमाल के ६ जैन मन्दिरों का विवरण दिया है।3 मध्यकाल में रचित विभिन्न तीर्थ मालाओं से श्रीमाल की श्री सम्पन्नता के बारे में विविध जानकारी प्राप्त होती है। ___ श्रीमाल पूर्व मध्यकाल एवं मध्यकाल में महत्त्वपूर्ण साहित्यिक केन्द्र था। प्रसिद्ध खगोल शास्त्री ब्रह्मगुप्त ने "ब्रह्मस्फुट सिद्धान्त" की रचना यहीं पर ६२८ ई० में की। शिशुपाल वध के लेखक माघ भी ६८० ई० में यहीं रहते थे। श्रीमाल के ही मूल निवासी एवं उद्भट विद्वान् सिद्धर्षि ने ९०५ ई० में "उपमितिभवप्रपंचाकथा" की रचना की। इसी प्रकार १३२७ ई० में शान्ति चरित्र" की एक प्रति भी लिखी गई ५ गुण विजय ने "विजय प्रशस्ति काव्य" की टीका का कुछ भाग यहीं पर लिखा तथा १५९५ ई० में विजय गणी ने यहीं पर “जैन रामायण'' रची।६।। जैनियों एवं ब्राह्मणों में, श्रीमाल जाति यहीं से अस्तित्व में आयो। ८वीं शताब्दी में, श्रीमाल के कतिपय निवासियों को, जैन मत में परिवर्तित किया गया था । पोरवालों की उत्पत्ति भी ८वीं शताब्दी में यहीं से बताई जाती है। श्रीमाल नगर के पूर्वी द्वार के निवासी धर्मान्तरण के पश्चात् पोरवाल कहलाये । बिजौलिया जैन मन्दिर का निर्माता लोलाक पोरवाल वंशी व श्रीमाल पहन का निवासी था। (१५) ओसिया तीर्थ : ओसिया, जोधपुर से ५२ कि० मी० उत्तर-पश्चिम में है और मन्दिरों का नगर है। प्रशस्तियों एवं अभिलेखों के आधार पर इसके प्रारम्भिक नाम उवकेश', उपकेश', ज्ञात होते हैं। यह एक प्राचीन नगर है। ८वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में इस पर गुर्जर प्रतिहार वत्सराज का शासन था। यह तथ्य महावीर मन्दिर से खोजे गये एक अभिलेख से ज्ञात होता है। उस समय ओसिया मन्दिरों से वेष्टित, विभिन्न धर्मानुयायियों से पूर्ण, १. शोप । २. जैसप्र, ९, पृ० ११४ । ३. वही। ४. वही। ५. गाओसि, ७६, पृ० १५६ । ६. शोप, ३, क्र० १ । ७. एइ, २६, पृ० ९९ । ८. गाओसि, ७६, पृ० १५६ । ९. नाजैलेस, क्र० ७८८, श्लोक ९ । १०. वही। Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन तीर्थ : १९७: एक प्रगतिशील नगर था । ९वीं शताब्दी के मध्य में आभोरों के विध्वंस के फलस्वरूप यह नगर उजड़ गया । ८६१ ई० में कक्कुक ने आभीरों से इसे वापस हस्तगत किया | 2 कुछ समय पश्चात् श्रीमाल के राजकुमार ने यहाँ के प्रतिहार शासकों के पास शरण ली और इस नगर को पुनः आबाद करवाया । प्रतिहारों व चौहानों के शासन में ओसिया जैन व ब्राह्मण धर्म का गढ़ हो गया । यहाँ १८ जैन व ब्राह्मण मन्दिर हैं, जो दो क्षेत्रों में संकेन्द्रित हैं । पहले क्षेत्र में प्राचीन ११ मन्दिर व दूसरे क्षेत्र में पश्चाद्वर्ती मन्दिरौ का समूह है । प्राचीन मन्दिर एक जैसी शैली से निर्मित हैं तथा झालरापाटन, आवां के मन्दिरों जैसे शिल्प सौष्ठव वाले हैं । ये मन्दिर ७०० ई० के बाद व ८०० ई० के पूर्वं के प्रतीत होते हैं, जैसा कि महावीर मन्दिर के शिलालेख से भी प्रमाणित होता है कि यह वत्सराज प्रतिहार के काल ( ७८३ ई-७९२ ई० ) का निर्मित है। ये प्राचीन मन्दिर छोटी संरचनाएँ हैं, किन्तु सादगी और मनोरमता इनकी मुख्य विशेषता है । कोई भी दो मन्दिर, योजना की दृष्टि से एक जैसे नहीं हैं । प्रत्येक को अपनी मौलिकता है जो अन्यत्र देखने को नहीं मिलती । ओसिया मन्दिर समूह का सर्वश्रेष्ठ प्रतिनिधित्व महावीर जैन मन्दिर करता है । यह मन्दिर एक घेरे के बीच में जगती पर स्थित है । घेरे से सटे हुये अनेक कोष्ठ बने हुए हैं । मन्दिर सुन्दराकृति है तथा मंडप के स्तम्भों की कारीगरी दर्शनीय है । इसकी शिखरादि संरचना नागर शैली की है । मन्दिर में तोरण, सभा मण्डप, रंगमण्डप व गर्भगृह हैं । ८वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में निर्मित इस मन्दिर में समय-समय पर परिवर्द्धन, संशोधन व परिष्कार कार्य होता रहा, किन्तु उसका मौलिक रूप नष्ट नहीं होने पाया । उसका कलात्मक संतुलन बना हुआ है एवं ऐतिहासिक महत्व रखता है । महावीर मन्दिर में ८९५ ई० का अभिलेख -युक्त एक मानस्तम्भ था, जो अब क्षतिग्रस्त है । एक अन्य मन्दिर सच्चिय माता का है । इसकी स्थापना भी ८वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध की प्रतीत होती है, किन्तु इसका अधिकांश भाग जैसा अभी दृश्य है, के अनुसार १२वीं शताब्दी के मध्य का प्रतीत होता है । इस देवी को भी जैनियों में बहुत अधिक मान्यता है । 1 ओसिया जैन धर्म से विशेष रूप से संबद्ध रहा। जाति ओसवाल की उत्पत्ति यहीं से, के उपदेशों से हुई । 3 रत्नप्रभसूरि के और ओसिया, जो ब्राह्मण धर्म का गढ़ १. नाजैलेस । २. एइ, ९, १०२७९-२८१ । ३. एसिटारा, पृ० १८३ ॥ उत्तरी भारत की प्रमुख जैन सम्भवतः नवीं शताब्दी के पश्चात् रत्नप्रभसूरि उपदेशों से जैन धर्म की प्रभावना में वृद्धि हुई था, वहाँ जैन मत बहुत लोकप्रिय हो गया । Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८: मध्यकालीन राजस्थान में जैनधर्म महावीर मन्दिर निरन्तर तीर्थ क्षेत्र बना रहा। मन्दिर समिति के अनुनय पर ९५७ ई० में जिन्दक नाम के व्यापारी ने महावीर मन्दिर का जीर्णोद्धार करवाया ।' मन्दिर के तोरण का निर्माण ९७८ ई० में हआ।२ ९५४ ई० के अभिलेख युक्त एक भग्न घातु-प्रतिमा, निकट ही धर्मशाला की नींव के उत्खनन में प्राप्त हुई है । एक प्रतिमा का १०४३ ई० के लेख युक्त भग्न अंश भी प्राप्त हुआ है। १०११ ई० के अभिलेख से ज्ञात होता है कि कर्काचार्य के शिष्य देवदत्त द्वारा शान्तिनाथ की एक प्रतिमा उपकेशीय चैत्य में स्थापित की गई थी।३ ११८८ ई० के दो अभिलेखों से ज्ञात होता है कि पालिह्या की पुत्री और यशोधर की पत्नी ने अपना मकान महावीर का रथ रखने के लिए रथागार बनाने हेतु भेंट में दिया था। कक्क सूरि द्वारा १३३८ ई० में रचित "नाभिनन्दन जिनोद्धार" से ज्ञात होता है कि "नर्दम" नामक स्वर्णिम रथ, शहर में, वर्ष में एक बार घुमाया जाता था। कक्क सूरि की यह कृति ओसिया के निवासियों, ओसवालों के १८ गोत्रों, नगर के जल स्रोतों, कुण्डों आदि की महत्वपूर्ण जानकारी प्रदान करती है। १२वीं शताब्दी के आचार्य सिद्धसेन सूरि ने "सकल तीर्थ स्तोत्र" में ओसिया जैन तीर्थ का सन्दर्भ दिया है। १०३१ ई०, ११७४ ई०, ११७७ ई०, १२०२ ई०, १३८१ ई०, १४३३ १०, १४५६ ई०, १४७७ ई०, १४९२ ई०, १५५५ ई०, १६२६ ई०, १७०१ ई० आदि वर्षों के यहाँ से खोजे गये विभिन्न अभिलेखों से प्रमाणित होता है कि यह मन्दिर शताब्दियों से श्वेताम्बर जैनियों का पवित्र तीर्थ रहा है। श्वेताम्बर सम्प्रदाय में उपकेश गच्छ की उत्पत्ति ओसिया से हुई। १२०२ ई० का, उपकेश गच्छ के उल्लेख वाला अभिलेख ओसिया से ही खोजा गया है। इस गच्छ का उल्लेख सिरोही के अजारी गांव के ११३७ ई. के अभिलेख में भी मिलता है। यह गच्छ १३वीं शताब्दी से १६वीं शताब्दी तक जैसलमेर, उदयपुर व सिरोही राज्यों में विशेष १. बासइएरि, १९०८-०९, पृ० १०९। २. नालेस, क्र० ७८९ । ३. जैरा, पृ० ९७ । ४. नाजलेस, क्र० ८०६,८०७ । ५. भपापइ, पृ० १५९ । ६. गामोसि, ७६, पृ० १५६ । ७. आसइएरि, १९०८-०९, पृ० १०२। ८. नाजैलेस, १, क्र० ७९१ । ९. अप्रजैलेस, क्र० ४०४ । Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जेन तोयं : १९९ लोकप्रिय रहा । इन क्षेत्रों में इस गच्छ के उल्लेख वाले कई अभिलेख खोजे गये हैं।' मन्दिरों की नगरी ओसिया का मुस्लिम आक्रमणों से विध्वंस हो गया। "उपकेश गच्छ प्रबन्ध" से ज्ञात होता है कि ११९५ ई० में मुस्लिम सेनाओं ने, इधर से गुजरते समय, इस कस्बे को ध्वस्त कर डाला। सम्भवतः यह मुहम्मद गोरी के, अजमेर के पृथ्वीराज चौहान तृतीय के विरुद्ध आक्रमण के दौरान हुआ। (१६) मेड़ता तीर्थ जोधपुर से ११७ कि० मी० उत्तर-पूर्व में मेड़ता कस्बा स्थित है। इसके प्राचीन नाम "मेडांतक"3 और मेड़तपुर थे। मध्यकाल में यह "मेदिनीपुर" के नाम से जाना जाता था। इसका सर्वप्रथम उल्लेख ८३७ ई० के प्रतिहार सामन्त बाउक के काल के जोधपुर अभिलेख में मिलता है। शान्ति कुशल ने १६७० ई० में लिखी "श्रीगौड़ीपार्श्व-तीर्थमाला" में मेड़ता का जैन तीर्थ के रूप में उल्लेख किया है। धर्मनिधान के शिष्य धर्मकीर्ति ने अपनी “मेडता चैत्य परिपाटी" में यहाँ १० जैन मन्दिर होने का उल्लेख किया है। दयावर्धन ने भी यहाँ के मुख्य मन्दिर का वर्णन किया है। मेड़ता असंदिग्ध रूप से प्राचीन कस्बा है, किन्तु पुरातात्विक अवशेषों की दृष्टि से ११वीं शताब्दी के दो स्तम्भ व लक्ष्मी मंदिर की कुछ संरचनाएँ ही, मुगल काल से पूर्व की, अवशिष्ट हैं । जैन तीर्थ व जैन धर्म का केन्द्र होने का उल्लेख साहित्यिक प्रमाणों से ही प्राप्त है।९ ११वीं शताब्दी में अभयदेव सूरि ने मेडता में यक्ष, कदंब आदि, बड़ी संख्या में, ब्राह्मणों को जैन मत में धर्मांतरित करके, यहाँ मन्दिर का निर्माण करवाया। इनके शिष्य हेमचन्द्र ने १११३ ई० में यहां "भव भावना" की रचना की।१ १११३ ई० में ही उन्होंने "क्षत्रपल्ली" की स्वोपज्ञ टीका सहित रचना की। चौहान शासक मालदेव के आग्रह पर जिनचन्द्र सूरि १३२२ ई० में मेड़ता आये और २४ दिन तक १. नाजैलेस, २, ३ एवं अप्रजैलेस २. लहर, २, अंक ८, पृ० १४ । ३. पीटरसन रिपोर्ट, ३, पृ० २७४। ४. एइ, १८, १० ९८ । ५. वही। ६. जैसप्र, ५, पृ० २६६-२६८ । ७. जैन तीर्थ सर्व संग्रह, पृ० १९८ । ८. वही। ९. एसिटारा, पृ० १७८ । १०. सभा, ३, पृ० २७४ । ११. जैसप्र०, पृ० ८५ । Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . २०० : मध्यकालीन राजस्थान में जेनधमं यहाँ विहार किया ।" १३२३ ई० में दिल्ली के सेठ के साथ तीर्थयात्रा पर यहाँ आये थे, उस समय आयोजन किया गया था। 3 जैन धर्म की गतिविधियाँ मुस्लिमकाल में भी सतत रूप से चलती रहीं । जोधपुर के राठौर शासक मालदेव के शासनकाल में " षट्कर्म - ग्रन्थवचूरि ३ को प्रतिलिपि और १५३८ ई० में "अणुव्रत रत्नप्रदीप १४ लिखी गई । हीरविजय सूरि, जिनको अकबर ने " जगद्गुरु" की उपाधि से विभूषित किया था, भी यहाँ आये थे और मुस्लिम राज्यपाल सादिन ने उनका भव्य स्वागत किया था । एक भव्य समारोह के उपरान्त, हीरबिजय सूरि ने सिंह विजय सूरि को मेड़ता में हो उपाध्याय की पदवी दी थी ।" मालदेव के शासन काल में यहाँ कई हस्तलिखित ग्रंथों की प्रतिलिपियाँ की गईं । हीर कलश ने १५७९ ई० में यहीं पर "सिंहासन बत्तीसी” की रचना की । १६७० ई० में, शाहजहाँ के शासनकाल में आशाकरण ने शान्तिनाथ की प्रतिष्ठा अपने ही मन्दिर में स्थापित की । उसने संघपति के रूप में, आबू और विमलाचल की तीर्थ यात्राएँ आयोजित की तथा जिनराज सूरि को " सूरिपद" मिलने के उपलक्ष में "नंदि महोत्सव" आयोजित करवाया । मध्यकालीन उद्भट विद्वान् समयसुन्दर यद्यपि गुजरात के थे, किन्तु बाद में वे मारवाड़ में आ गये और मेड़ता में रहकर उन्होंने १६१५ ई० में " समाचार शतक", "विशेष शतक", प्रियमेलक रास", १६१६ ई० में " गाथा लक्षण" और १६२१ ई० में "सीता राम प्रबंध” की रचना की ।" कनक विजय के शिष्य गुणविजय ने "विजयसेन सरिनिर्वाण स्वाध्याय' की रचना मेड़ता में को ।" रायपति, जिन कुशल सूरि एवं संघ श्रावकों द्वारा भव्य उत्सव का भी सामाजिक एवं जातीय दृष्टि से मेड़ता का अत्यधिक महत्व इस कारण रहा कि यहाँ वैश्यों को १२३ जातियों में से एक " मेड़तवाल" जाति की उत्पत्ति हुई । १५२९ ई० में हीरकलश द्वारा रचित "सिंहासन बत्तीसी" में भी इसका उल्लेख मिलता है । १. खबगु, पृ० ६८ । २. वही, पृ० ७३ ॥ ३. श्री प्रशस्ति संग्रह, संख्या ३३४ । ४. भट्टारक संप्रदाय, क्र० २७९ । ५. जैन तीर्थसर्वसंग्रह, पृ० १९७-१९८ ॥ ६. जैगुक, १, पृ० २३५ । ७. प्रोरिआसवेस, १९१०, पृ० ६२ । ८. जैगुक, पृ० ३४७, ३६१, ३८९ । ९. वही, पृ० ५२१ । Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन तीर्थ : २०२ ( १७ ) जालोर या जाबालिपुर ( सुवर्णगिरि तीर्थ ) : जालौर, जोधपुर के १२० कि० मी० दक्षिण में, सूकड़ी नदी के बायें पार्श्व पर स्थित है । इसका प्राचीन नाम "जाबालिपुर" था। निकटवर्ती एक पहाड़ी के कारण यह "सुवर्णगिरि" और "कांचनगिरि' भी कहलाने लगा। 'कुवलयमाला" से यह स्पष्ट है कि ८वीं शताब्दी में यहाँ प्रतिहार वत्सराज का शासन था तथा यह एक भव्य, संपन्न एवं धार्मिक नगर था। पूर्व मध्यकाल में यह पवित्र जैन तीर्थ था। सिद्धसेन सूरि ने अपनी तीर्थमाला में जाबालिपुर जैन तीर्थ का ससम्मान उल्लेख किया है। यहाँ के आदिनाथ, महावीर, शांतिनाथ और पार्श्वनाथ जैन मंदिर प्रसिद्ध थे। इन मंदिरों का समय-समय पर जीर्णोद्धार होता रहा और श्रद्धालु, श्रावक दान और भेंट आदि देते रहे । यहाँ का प्राचीनतम मंदिर आदिनाथ का है, जो ७७८ ई० में भी अस्तित्व में था, क्योंकि उद्योतन सूरि ने "कुवलयमाला" इस मंदिर में ही रची थी। समरसिंह के राज्यकाल में, ११८२ ई. में, यशोवीर नामक श्रीलाली वैश्य ने अपने भाई यशराज, जगधर तथा गोष्ठी के समस्त सदस्यों के साथ आदिनाथ मंदिर में एक मंडप बनवाया था । दूसरा पार्श्वनाथ मंदिर है, जो ११६४ ई० में चालुक्य शासक द्वारा कांचनगिरी दुगं पर, हेमचन्द्र के उपदेशों से प्रेरित होकर बनवाया गया था। इसे कुमार विहार" भी कहा जाता है । महाराजा समरसिंह देव के आदेशों से भण्डारी यशोवीर ने ११८५ ई० में इसे पुननिर्मित करवाया । पूर्ण देवाचार्य द्वारा इस मंदिर के तोरण की प्रतिष्ठा और ध्वजारोहण संपन्न हुआ था। नाट्यशाला के सभामंडप पर स्वर्ण कलश चढ़ाने का उत्सव रामचंद्राचार्य द्वारा १२११ ई० में, दीपोत्सव के दिन सम्पन्न करवाया गया था ।। १२३९ ई० अभिलेख से ज्ञात होता है कि नागौर के लाहिड़ी ने आदिनाथ की एक प्रतिमा, पार्श्वनाथ मंदिर में स्थापित की थी।५ १२९६ ई० में नरपति ने, अपनी पत्नी नायक देवी के आध्यात्मिक कल्याण के निमित्त, अपने परिवार के सदस्यों एवं संघपति गणधर के साथ एक बाजार का भवन या गोदाम पार्श्वनाथ मंदिर को दिया था, ताकि उसके किराये की आय से गोष्ठी प्रतिवर्ष “पंचमी बली' का आयोजन करती रहे। १. जबिउरिसो, १९२८, मार्च, पृ० २८ । २. एइ, २६, पृ० ७३ । ३. एइ, ११, पृ० ५४ । ४. वही, पृ० ५५। ५. जैनतीर्थ सर्वसंग्रह, पृ० १८७ । ६. एइ, ११, पृ० ६०। Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०२ : मध्यकालीन राजस्थान में जैनधर्म तृतीय, महावीर मन्दिर या खन्दन विहार है, जो नानक गच्छ से सम्बन्धित रहा । १३वीं शताब्दी के आचार्य, महेन्द्र सूरि ने अपनी " अष्टोत्तरी तीर्थमाला" में "यक्ष क सति" का उल्लेख सम्भवतः इस मन्दिर के लिये ही किया है ।" वह मन्दिर प्रतिहार शासक नाइडराव द्वारा निर्मित बताया जाता है । इस महावीर मन्दिर में वरदेव ने एक भव्य पार्श्वनाथ कक्ष का निर्माण करवाया । १२६३ ई० के अभिलेखानुसार रावल लक्ष्मीधर ने इस मन्दिर को १०० द्रम की भेंट दी थी। १२२६ ई० में नरपति नामक तेलिया ओसवाल ने इस मन्दिर के लिये ५० द्रम का अंशदान दिया था । विजयप्रभ सूरि ने अपनी " तीर्थं माला" में इस मन्दिर का उल्लेख किया है । अतः यह मन्दिर १४वीं शताब्दी में भी अस्तित्व में था । १२२४ ई० में जिनेश्वर सूरि ने मन्दिर पर ध्वजा फहराई, तथा १२५३ ई० में चौहान शासक उदयसिंह एवं सभासदों की उपस्थिति में महावीर मन्दिर में तीर्थंकरों, आचार्यों एवं अन्य प्रतिमाओं का प्रतिष्ठा महोत्सव सम्पन्न करवाया गया, जिसे देखने पालनपुर और वागड़ के निवासी भी आये थे । जाबालिपुर में १३वीं शताब्दी में शांतिनाथ और अष्टापद मन्दिर भी थे । चाचिगदेव के शासन काल में १२५९ ई० में पदसू और मूलिंग ने शांतिनाथ जैन मन्दिर पर स्वर्ण कलश चढ़ाये थे । ७ मन्दिर में मूर्तियाँ जिनेश्वर सूरि द्वारा हर्षोल्लास के बीच रखवाई गई थीं । आबू के लूणवसहि जैन मन्दिर के १२५९ ई० के अभिलेख से ज्ञात होता है कि जालौर में अष्टापद मन्दिर था । देवचन्द्र ने यहाँ दो चबूतरे बनवाये थे तथा १५९४ ई० तक यह मन्दिर अस्तित्व में था, जैसा कि नागर्षि की "जालुर नगर पंच जिनालय: चैत्य परिपाटी" से ज्ञात होता है ।" जैनाचार्यों के बारम्बार आगमन से यहाँ "विधि चैत्य" आन्दोलन को बल मिला । यहाँ के शासकों ने भी स्वयं भाग लेकर इनको प्रोत्साहन एवं संवर्धन प्रदान किया - जिनपति सूरि को मृत्यु के बाद, जिनेश्वर सूरि जाबालिपुर से विशेष रूप से संबद्ध रहे । उनकी दीक्षा यहीं हुई व १२२१ ई० में आचार्य भी यहीं बने। उनके सम्मान में यहाँ १. जैनतीर्थं सर्वसंग्रह, पृ० १८७ । २. जैसप्र, पृ० १४३ । ३. प्रोरिआसवेस, १९०९, पृ०५५ । ४. वही । ५. जैसप्र १७, पृ० १५ । ६. खबगु, पृ० ५०-५१ । ७. वही, पृ० ५१ 1 ८. अप्रजैलेस, क्र० २७९ । ९. जैस, ७, दीपोत्सवांक । Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन तीर्थ : २०३ कई आयोजन होते रहने का वर्णन मिलता है । ११६८ ई० में जिनचन्द्र सूरि यहाँ श्रावकों में विविध प्रकार से विधि मार्ग का प्रचार करने आये । जालौर साहित्यिक केन्द्र भी रहा । उद्योतन सूरि ने वीरभद्र और हरिभद्र से शिक्षा प्राप्त की व ७७८ ई० में " कुवलयमाला” की रचना की । ९५३ ई० में जिनेश्वर सूरि ने हरिभद्र सूरि के " अष्टक संग्रह " पर टीका लिखी । उनके बड़े भाई बुद्धिसागर : ने “पंचग्रंथी व्याकरण यहीं पर लिखी । 2 । आसिग ने १२०० ई० के आसपास " जीवदयारास" और " चन्दनबाला रास” की रचना की। जिनेश्वर सूरि ने स्वरचितः "श्रावक-धर्माविधि" नामक संस्कृत रचना पर १२६० ई० में जालौर में टीका लिखी उदयसिंह का मंत्री यशोवीर, अपने समय का उद्भट एवं बहुश्रुत विद्वान् था । सोमेश्वर: ने इन्हें काव्य प्रतिभा में माघ और कालिदास से भी बढ़-चढ़ कर बताया है ।" वह न केवल कवि, अपितु कवियों, पंडितों एवं विद्वानों का संरक्षक भी था । उसकी कला मर्मज्ञता का अनुमान इस बात से लगाया जा सकता है कि उसने आबू में वस्तुपाल निर्मित लूणवसहि मन्दिर के निर्माण में १४ खामियां निर्दिष्ट की थीं । जिनभद्र सूरि ने १४वीं शताब्दी में अन्य स्थानों के साथ जालौर में भी शास्त्र भण्डार स्थापित किया । मध्यकाल में जैन विद्वानों ने पुरानी हिन्दी में रचनाएँ कीं । धर्म समुद्र गणी ने १५१० ई० में "सुमित्र कुमार रास" की रचना की ।" सांसा ने १५८२ ई० में " कवि विल्हण पंचाशिका चौपाई९, १५९४ ई० में " भोज प्रबन्ध चौपाई १० और १६१८ ई० में "भावषट् - त्रिशिका ” की रचना यहीं पर की । ११ १६१२ ई० में दामोदर ने "मदन कुमार ११२ रास १६३७ ई० में समय सुन्दर ने “व्रतरत्नाकरवृत्ति " ३, १६७८ ई० में धर्मवर्द्धन " १. खबगु, पृ० ५०-५१ । २. जैनतीर्थ सर्वसंग्रह, पू० १८८ । ३. भारतीय विद्या, ३, पृ० २०१ । ४. जैसास, पृ० ४१२ । ५. कीर्ति कौमुदी, १ २६ । 7 ६. जैन तीर्थं सर्व संग्रह, पृ० १९० । ७. जैसप्र १६, पृ० १६ । ८. जैगुक, १, पृ० ११७ । ९. वही, २, पृ० ८०१ । १०. वही, पृ० ९०६ । ११. अभय जैन ग्रन्थालय, ग्र० सं० ८०८९ । १२. जैगुक, २, पृ० ९०६ । १३. वही, १, पृ० ३७४, ३८९ । Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०४ : मध्यकालीन राजस्थान में जैनधर्म ने "परिहंबत्तीसी" व "अक्षर बत्तीसी"१, १८वीं शताब्दी में करमचन्द्र ने "रोहिणी चौपाई" एवं तिलकचन्द्र ने “देशी परदेशी चौपाई २ की रचना जालौर में ही की। ओसवाल, सरावगी व महेश्वरी जातियों में सोनी गोत्र का उद्भव जालौर के स्वर्णगिरि से ही हुआ, जो "सोनगरा" व कालक्रम में केवल सोनी रह गया । १३०० ई० के अभिलेख में उल्लिखित नरपति एवं उसके पिता आदि ओसवाल सोनी ही थे। सोनगरा राजपूत भी होते हैं। (१८) सांचौर तीर्थ : ___ साँचौर, जोधपुर से २१२ कि० मी० दक्षिण-पश्चिम में, लूणी नदी के किनारे अवस्थित है। इसके प्राचीन नाम "सत्यपुरा" और "सच्चपुरा" थे। मुस्लिम शासन में इसका नाम "महमूदाबाद' रख दिया गया था। यह कस्बा १०वीं शताब्दी में भी अस्तित्व में था। साँचौर, जैन एवं शैव धर्मों का केन्द्र था । महावीर मन्दिर के कारण यह जैन तीर्थ माना जाता था । “जगचितामणि" नामक प्राचीन चैत्यवंदन स्तोत्र में इस तीर्थ का अगाध भक्ति पूर्वक वर्णन किया गया है। मालवा के राजा भोज के दरबार के कवि धनपाल साँचौर आये थे। यहाँ उन्होंने महावीर प्रतिमा की भक्ति एवं सम्मान में अपभ्रंश कविता “सत्यपुरीय महावीर उत्साह" की रचना की। इस कविता में वर्णित है कि श्रीमाल, चन्द्रावती, अन्हिलवाड़ा और सोमनाथ ध्वस्त हो गये, किन्तु सत्यपुरा के वीर, जो मनुष्यों को प्रसन्नता है, ध्वस्त नहीं हये। यह प्रार्थना उनके द्वारा अन्य सभी स्थानों की प्रतिमाओं की तुलना में सर्वाधिक सुन्दर मानी गई है । जिनप्रभ सूरि द्वारा दिये गये एक विवरण के अनुसार यह प्रतिमा मण्डोर के नाहड़ के द्वारा बनाई गई थी। मूल प्रतिमा पोतल की थी, जो जाज्जिग सूरि के द्वारा स्थापित की गई थी । अलाउद्दीन खिलजी ने अपने १३१० ई० के आक्रमण में मन्दिर ध्वस्त कर दिया तथा मूर्ति को दिल्ली ले जाकर टुकड़े-टुकड़े कर दिये। यह जैन मन्दिर अब अस्तित्व में नहीं है। मुस्लिम धर्मान्धता ने इसका समूल नाश कर दिया, किन्तु कुछ अभिलेख मन्दिर के सम्बन्ध में फिर भी प्रकाश १. अभय जैन ग्रन्थालय, ग्र० सं० ८०४६, ८११३ । २. जैगुक, २, पृ० १३३०, १३३२ । ३. एसिटारा, पृ० १९८ । ४. प्रोरिआसवेस, १९०८, पृ० ३५ । ५. एसिटारा, पृ० १९८ । ६. जैनतीर्थ सर्वसंग्रह, पृ० ३०३ । ७. जैसंशो, ३, अंक १ । ८. वितीक, पृ० २८ । Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - जैन तीर्थ : २०५ डालते हैं । ११८५ ई० में, भण्डारी तोमा की पत्नी धस्की ने, सत्यपुरा में सोलंकी भीमदेव द्वितीय के शासन काल में चतुष्किका की मरम्मत करवाई। १२२० ई० में संघपति हरीशचन्द्र ने एक मंडप निर्मित करवाया।' १२६५ ई० के एक अभिलेख में उल्लेख है कि महावीर मन्दिर में ओसवाल भण्डारी छाधिका ने एक चतुष्किका का जीर्णोद्धार करवाया । गुर्जर राजा अजयपाल (११७२ ई०-७६ई०) के मंत्री अल्हड़ ने, इस मन्दिर में पार्श्वनाथ की एक प्रतिमा स्थापित की।3।। साँचौर में समय-समय पर जैनाचार्य आते रहते थे। १२२६ ई० में जिनकुशल सरि सांचौर आये और उनका हर्षोल्लासपूर्वक स्वागत किया गया। इसी प्रकार जब जिनपद्म सूरि वापस १३३४ ई० में साँचौर आये तब चौहान शासक राणा हरिपाल ने उनका भव्य स्वागत किया। महाराजा दूदा अपने नायकों के साथ तीर्थ यात्रा के दौरान यहाँ भी आये और एक दान भण्डार की १४३४ ई० में स्थापना की।६ १४६३ ई० में साँचौर के जावड़ रत्ना और कर मसी ने कक्क सूरि के द्वारा चन्द्रप्रभ की प्रतिमा की स्थापना की। जैन तीर्थ होने के कारण जैनाचार्य व कई विद्वानों ने यहाँ रहकर साहित्य सेवा की। हीरानन्द सूरि ने १४३८ ई० में "जम्बू स्वामिन विवाहलू" की रचना की। १४२८ ई० में रचित 'विद्याविलास पावड़ा' में साँचौर का सन्दर्भ है। जिनभद्र सूरि ने १४३१ ई० में "नन्दो सूत्र वृत्ति" का संशोधन किया तथा संघ के अध्ययन के लिये, उन्होंने महावीर की प्रशस्ति में "महावीर गीता" की रचना की। शांतिरत्न गणी ने, जिनसेन गणी की सहायता से १४४२ ई० में "दशवकालिक वृत्ति" में संशोधन यहीं रह कर किया।१२ १४४६ ई० में लब्धि विजय गणी ने "भुवन भानु केवलि चरित्र" की १. प्रोरिआसवेस, १९०८, पृ० ३५ । २. वही। ३. जैसासइ, पृ० ३४२ । ४. खबृगु, पृ० ८०। ५. वही, पृ० ८६ । ६. जैसप्र, पृ० ३६०। ७. नाजैलेस, २, क्र० ११२८ । ८. जैगुक, २, पृ० ४२९ । ९. वही, १, पृ० २५ । १०. जैसप्र, पृ० २५ । ११. जैगुक, २, पृ० १४७८ । १२. जैसप्र, पृ० ३३५ । Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०६ : मध्यकालीन राजस्थान में जैनधर्म 'प्रतिलिपि' तथा १५६७ ई० में मूषवाचक ने 'गजसुकुमाल सछिउ २ सांचौर में ही "लिखी । १४७२ ई० में रचित एक तीर्थमाला में, साँचौर तीर्थ भी वणित है । जिनहर्ष और कुशलधीर ने १६३५ ई० में "भृगपत्र चौपाई" की रचना की । यह समय सुन्दर की जन्मस्थली थी और १६२० ई० में उन्होंने यहाँ रह कर "सांचौर-मंडन-वीरस्तवन" रचा। (१९) नागदा, नागद्रह या अद्रभुदजी तीर्थ : एकलिंग की पहाड़ी की गोद में अवस्थित नागदा, पुरातन महत्व का स्थान है।" संस्कृत अभिलेखों के अनुसार, इसके प्राचीन नाम "नागहृद" और "नागद्रह" मिलते हैं । यह कस्बा ६४६ ई० में शिलादित्य के पिता नागादित्य के द्वारा स्थापित किया गया था। नागदा पूर्ववर्ती काल में जैन तीर्थ था। १३वीं शताब्दी में विशालकोर्ति के शिष्य मदन कीर्ति ने अपनी "शासन-चतुस्त्रिशटीका" में अन्य तीर्थंकरों के साथ नागद्रह के पार्श्वनाथ की भी वन्दना की है। जिनप्रभ सूरि द्वारा १३३२ ई० में लिखित "विविध तीर्थ कल्प" में भी इस तीर्थ का उल्लेख है ।' पश्चादवर्ती तीर्थ मालाओं में भी इस तीर्थ का वर्णन किया गया है । सुन्दर सूरि ने नागद्रह पार्श्वनाथ की स्तुति में एक स्वतन्त्र स्तोत्र की रचना की ।° तीर्थ स्थान होने के कारण यहाँ अनेक जैन सन्त आते रहते थे। १३८० ई० के "विज्ञप्ति महालेख" से ज्ञात होता है कि खरतरगच्छ के जिनोदय सूरि अपनी तीर्थ यात्रा के दौरान इस तीर्थ पर भी आये थे ।११ वर्तमान पद्मावती मन्दिर वस्तुतः पूर्वकाल का प्रसिद्ध पार्श्वनाथ मन्दिर था। यह मन्दिर इल्तुतमिश के आक्रमण के समय ध्वस्त किया गया । मन्दिर का जीर्णोद्धार करवाकर इसमें नयी प्रतिमाएं स्थापित की गईं । पासडदेव और संघाराम ने १२९९ ई०. १. जैगुक, २, पृ० ८३५ । २. वही, पृ० ९४१ । ३. एसिटारा, परि० क्र० ४ । ४. जंगुक, २, १२६६ । ५. एसिटारा, पृ० २१३ । ६. एइ, २०, पृ० ९७ । ७. जैसाऔइ, पृ० २४८ । ८. वितीक, पृ० ८६ एवं १०६ । ९. एसिटारा, परि० क्र. ९ । १०. जैसप्र, ४, पृ० २५ । ११. अगरचन्द नाहटा के पास है। Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन तीर्थ : २०७ में पाश्वनाथ की एक प्रतिमा यहाँ स्थापित करवाई थी।' १३३४ ई० में केल्हा ने पाश्वनाथ गर्भगृह का जीर्णोद्धार करवाया ।। १४२९ ई० में एक पोरवाल व्यापारी ने पार्श्वनाथ मन्दिर में एक देवकुलिका बनवाई । यह मन्दिर मूल रूप से दिगम्बर जैनों का था, किन्तु कुम्भकरण के शासन काल में खरतरगच्छ के अनुयायियों द्वारा परिवर्तित कर दिया गया। इस देवालय में एक बड़ी हो रुचिकर प्रतिमा है, जिसमें शिलाफलक के मध्य में आभा-मण्डल युक्त ध्यानस्थजिन, दोनों पाश्वों में तिकोनी टोपी वाले चवरी धारक, गणधर तया हवा में उड़ते हुये देवादि उत्कीर्ण हैं ।४ नागदा में जैन मन्दिरों के भग्नावशेष भी हैं, जिनमें से एक पार्श्वनाथ मन्दिर द्रष्टव्य है । इसमें गर्भगृह, सभामंडप और २ गुम्बदों सहित खुला बरामदा है। शिखर एवं गुम्बद यद्यपि आधुनिक हैं, किन्तु गर्भगृह की अलंकृत दीवारें और सभा मण्डर १३७३ ई० के सोलंकी कुमारपाल के काल के प्रतीत होते हैं। जैन मन्दिर अद्भुदजी का ऐसा नाम शान्तिनाथ की विशाल आश्चर्यजनक व चमत्कारी मूर्ति के कारण पड़ा । यह मन्दिर कुम्भकर्ण के राज्यकाल में १४३७ ई० में देवकूलपाटक के पोरवाल जाति के रामदेव के पुत्र सारंग नामक व्यापारी के द्वारा बनवाया गया था। इस मन्दिर में महाराणा कुम्भा के काल में १४३८ ई० में कुन्थुनाथ और अभिनन्दन-नाथ को विशाल अभिलेख युक्त प्रतिमाएं हैं। मध्यकाल में जैन धर्म के नागदा जाति के लोग बहुत धार्मिक मनोवृत्ति के थे। इन्होंने जैन मुनियों को भेंट में देने के लिये कई हस्तलिखित ग्रन्थों को प्रतिलिपियाँ तैयार करवाई । १५वों शताब्दी में हुये भट्टारक ज्ञान भूषण ने जैन मत की नागदा जाति के इतिहास विषयक "नागदारास" नामक रचना लिखी। (२०) आहड़ (आघाटपुर) तीर्थ : आहड़ नदी पर बसा, आहड़ नामक गांव उदयपुर से ३ कि० मी० पूर्व में है । जैन स्मारकों एवं अभिलेखों के अनुसार इसका प्राचीन नाम "आघाटपुर" और "आटपुर" है।६ १०वीं शताब्दी में यह मेवाड़ के राणाओं के पूर्वज गुहिलों की राजधानी और १. प्रोरिआसवेस, १९०५-०६, पृ० ६३ । २. वही, क्र० २२४३ । ३. वही, क्र० २२४२ । ४. वही, १९०५, पृ० ६१ । ५. एइ, ४, पृ० ३० । ६. एइ, ३९, पृ० १८७ । Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०८ : मध्यकालीन राजस्थान में जैनधर्म गंगोभेद तीर्थ के नाम से प्रसिद्ध था।' धनपाल ने अपनी कविता "सत्यपुरीय महावीर उत्साह" में इस स्थान के महावीर का भी संदर्भ दिया है ।२ १२वीं शताब्दी के आचार्य और लेखक सिद्धसेन सूरि ने "सकल तीर्थ स्तोत्र" में इस स्थान का उल्लेख किया है। जगचन्द्र सूरि महान तपस्वी जैन संत थे । उनके तप को देखकर १२२८ ई० में आघाट मेवाड़ के शासक जैसिंह ने उन्हें "तपा" की उपाधि प्रदान की। झांझण धर्मघोष सूरि के साथ अपनी तीर्थयात्रा के दौरान संघ सहित इस तीर्थ के दर्शनार्थ भी आया था।" उदार गुहिल शासकों के शासन में ब्राह्मण धर्म के साथ-साथ इस स्थान पर जैन धर्म भी पुष्पित, पल्लवित होता रहा । “राससंग्रह" नामक रचना से ज्ञात होता है कि अल्लट के मंत्री ने यहाँ एक जैन मन्दिर १०वीं शताब्दी के मध्य में बनवाया था और उसमें पार्श्वनाथ की प्रतिमा संडेरक गच्छ के यशोभद्र सूरि के द्वारा स्थापित की गई थी। यशोभद्र सूरि ९७२ ई० में दिवंगत हुए, इस तथ्य की पुष्टि जैन मन्दिर की देवकुलिका के अभिलेख से भी होती है। इस अभिलेख के अनुसार मयूर, श्रीपति और मत्तट क्रमशः अल्लट, नरवाहन और शक्ति कुमार के अक्षपटलिक वर्णित किये गये हैं । इन्होंने ही जैन मन्दिर निर्मित करवाया होगा। जैत्रसिंह और तेजसिंह के मुख्य अमात्य जगतसिंह और समुद्धार ने भी जैन धर्म को संरक्षण दिया । जैन सन्तों की प्रेरणा से यहाँ पर कई हस्तलिखित ग्रन्थों की प्रतिलिपियाँ राजकीय संरक्षण में लिखी गईं। जैत्रसिंह के शासनकाल में “ओघ नियुक्ति" और "पाक्षिक वृति" को प्रतिलिपियाँ ताड़पत्रों पर १२२८ ई० एवं १२५३ ई० में लिखी गईं। इन प्रतियों में जगतसिंह नामक मन्त्री का भी उल्लेख है । जगतसिंह के पुत्र तेजसिंह के शासनकाल में १२६१ ई० में आघाट में समुद्धार के मंत्रित्वकाल में "श्रावक प्रतिक्रमण चूणि"९ की सचित्र प्रति ताड़पत्रों पर तैयार की गई । इसमें ६ चित्र हैं। इनसे सिद्ध होता है कि आहड़ साहित्यिक केन्द्र भी था। १. एसिटारा, पृ० २१९ । २. जैसंशो, ३, अंक १ । ३. गाओसि, ७६, पृ० १५६ । ४. वही। ५. जैसासइ, पृ० ३९५ । ६. ओझा, उदयपुर राज्य, पृ० १३३ । ७. पीटर्सन रिपोर्ट, ३, पृ० ५२ । ८. वही, पृ० १३० । ९. वही, ५, पृ० २३ । Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन तीर्थ : २०९ (२१) नागौर तीर्थ : नागौर, जोधपुर संभाग में जिला मुख्यालय एवं पुरातन महत्व का एक प्रमुख नगर है। प्राचीन काल में इसके कई नाम थे जैसे-"नागपुरा", "नागउर", "नागपट्टन",3 "अहिपुर"४ और 'भुजंग नगर" ५ ओझा के अनुसार इसका प्राचीन नाम "अहिछत्रपुर" था और यह जांगलदेश की राजधानी था । नागौर के लम्बे समय तक मुस्लिम नियन्त्रण में रहने के कारण प्राचीन हिन्दू एवं जैन मन्दिर ध्वस्त कर दिये गये, किन्तु साहित्यिक प्रमाणों से सिद्ध होता है कि नागौर जैन धर्म का महत्त्वपूर्ण केन्द्र था। बहुत प्राचीन काल से ही नागौर की जैन तीर्थ के रूप में मान्यता है । १२वीं शताब्दी के प्रसिद्ध लेखक एवं आचार्य सिद्धसेन सूरि ने अपने "सकल तीर्थ स्तोत्र" में नागौर का जैन तीर्थ के रूप में उल्लेख किया है। यहाँ कई जैन मन्दिर थे । कृष्णर्षि के उपदेशों से श्रेष्ठो नारायण ने एक जैन मन्दिर बनवाया था और ८६० ई० में उसका स्थापना समारोह सम्पन्न हुआ था। यह मन्दिर "नारायण स्वामी' के मन्दिर के नाम से प्रसिद्ध हुआ। “नागौर चैत्य परिपाटी" से ज्ञात होता है कि १७वीं शताब्दी में भी यह मन्दिर अस्तित्व में था। ११०५ ई० में देव सूरि ने हेमचन्द्र सूरि को आचार्य की पदवी से विभूषित किया। इस उपलक्ष्य में आयोजित उत्सव में सेठ धन्ध ने अपार धन व्यय किया ।° नागौर के श्रावकों के निमन्त्रण पर खरतर गच्छ के जिन वल्लभ सूरि और जिनदत्त सूरि यहाँ आये और १२वीं शताब्दी में उन्होंने विधि चैत्य की स्थापना की ।।१ धनदेव नाम के एक श्रावक ने नेमिनाथ मन्दिर निर्मित करवाया और इसका स्थापनासमारोह जिनवल्लभ सूरि के द्वारा करवाया ।१२ नागौर में मुस्लिम शासन स्थापित होने के बाद भी जैन धर्म की गतिविधियाँ १. राभा, १, पृ० ४७ । २. गाओसि, ७६, पृ० १५६ । ३. एइ, १२, पृ० २५ । ४. पोटरसन रिपोर्ट, ४, पृ० १२ । ५. वही, २, पृ० ५४-५५ । ६. ओझा निबंध संग्रह, पृ० १९ । ७. गाओसि, ७६, पृ० १५६ ।। ८. कुमारपालचरित्र महाकाव्य प्रशस्ति । ९. जैसप्र, १२, पृ० १०२। १०. हेमचन्द्र का जीवन, पृ० ४२ । ११. खबृगु । १२. जैसासइ, पृ० २३३ । १४ Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१० : मध्यकालीन राजस्थान में जेनधमं ૨ 3 अनवरत चलती रहीं । यहाँ के श्रावकों ने भी विभिन्न धर्म संघों के साथ कई बार जैन तीर्थों की यात्राएँ सम्पन्न कीं ।" पेथड़शाह ने १३वीं शताब्दी में एक जैन मन्दिर बनवाया था, किन्तु उसमें प्रतिमाएँ १५वीं व १६वीं शताब्दी में स्थापित की गईं । १४६७ ई० में आदित्यनाग गोत्र के श्रीवन्त और शिवरत ने उपकेश गच्छ के कक्क सूरि के द्वारा शीतलनाथ की प्रतिमा का स्थापना -समारोह सम्पन्न करवाया, ३ १५०२ ई० में सांडक ने अपनी पत्नी के साथ देवगुप्त सूरि ( उपकेश गच्छ ) के द्वारा कुन्थुनाथ की प्रतिमा का स्थापना-समारोह आयोजित करवाया । १५३६ ई० में उपकेश गच्छ के सिद्धर्षि द्वारा आदित्यनाग गोत्र के कर्मसी ने शीतलनाथ की प्रतिमा का स्थापना - समारोह सम्पन्न करवाया ।" उक्त तथ्यों से संकेत मिलता है कि नागौर में उपकेश गच्छ के अनुयायी विपुल संख्या में थे । हीरविजय सूरि, जिनको अकबर ने “जगद्गुरु" की उपाधि दी थी, ने १५८७ ई० में चातुर्मास नागौर में ही व्यतीत किया था । जिनचन्द्र सूरि, जिनको अकबर ने " युगप्रधान " की उपाधि प्रदान की थी, वे भी अकबर के निमन्त्रण पर लाहौर जाते समय नागौर होकर गये थे । १६१० ई० में शान्ति कुशल सूरि द्वारा लिखित "गौड़ी - पाश्वं - तीर्थ माला" में भी नागौर का जैन तीर्थ के रूप में उल्लेख है । जैन तीर्थ होने के साथ-साथ नागौर साहित्यिक केन्द्र भी रहा । कृष्णषि के शिष्य जयसिंह सूरि ने ८५८ ई० में "धर्मोपदेशमाला विवरण" यहाँ के एक जैन मन्दिर में लिखी । चन्द्र सूरि ने ११७७ ई० में "उपदेशवृत्ति" नागौर में ही लिखना प्रारम्भ किया था । जिनवल्लभ के एक श्रावक पद्मानन्द ने " वैराग्य शतक" की रचना की । धनेश्वर, लाहड़ और देवचन्द्र ने १२३९ ई० में "पाक्षिकसूत्र चूर्णि वृत्ति" और १२४४ ई० में “पंचागी सूत्रवृत्ति" की प्रतियाँ विभिन्न शास्त्र भण्डारों को भेंट में देने के लिये तैयार करवाईं । १५वीं शताब्दी में जिनभद्र नागौर में भी शास्त्र भण्डार स्थापित किया ।" समय सुन्दर ने "शत्रुंजय रास" सूरि ने अन्य स्थानों के साथ १. खबृगु, पृ० ६३ । २. जैसासइ, पृ० ४०५ । ३. नाजैलेस, क्र० १२७४ । ४. बीजैलेस, क्र० २५३३ । ५. वही, क्र० २५३७ । ६, जैसप्र, ५, पृ० ३६६-३६८ । ७. जैसास, पृ० २४३ ॥ ८. वही, पृ० २३३ । ९. जैन पुस्तक प्रशस्ति संग्रह, पृ० १२२-१२३ । १०. जैसप्र १६, पृ० १६ । Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन तीर्थ : २११ और “क्षमाछत्तीसी" की रचना यहीं पर की। तपागच्छ की एक शाखा नागपुरिया गच्छ का उद्भव यहीं से हुआ। वादिदेव सुरि के एक शिष्य पद्मप्रभ सूरि ने १११७ ई० में नागौर में कठिन तप किया, अतः उन्हें "नागोरिया तपा" की उपाधि प्रदान की गई। १५वीं शताब्दी में लोंका गच्छ की एक शाखा नागौर के नाम से ही प्रसिद्ध हुई। मूलसंघ भट्टारक जिनचन्द्र के जीवन काल में इनके दो शिष्य प्रभाचन्द्र एवं रत्नकीर्ति ने १५वीं शताब्दी में नागौर में एक पथक् गादी स्थापित कर ली। सामाजिक एवं जातीय दृष्टि से नागौर का अत्यधिक महत्व रहा। ओसवाल वंशावलियों के अध्ययन से ज्ञात होता है कि नागौर में आदित्यनाग और बप्प नाग गोत्रों के जैन मतावलम्बी अधिक संख्या में रहते थे। अन्य कई जातियों में भी इस स्थान से सम्बन्धित गोत्र पाये जाते हैं । (२२) खंडेला तीर्थ : सीकर से ४५ किलोमीटर दूर खण्डेला कस्बा स्थित है। यह एक पुरातन महत्व का कस्बा है, जहाँ प्राचीन मन्दिरों एवं स्मारकों के कई भग्नावशेष बिखरे हुए हैं। साहित्यिक प्रमाणों के आधार पर इसके प्राचीन नाम "खण्डिल्ला" और "खण्डेलपरा" मिलते हैं। इस स्थान से ईसा पूर्व तीसरी शताब्दी के शिलालेख भी खोजे गये हैं। पूर्वकाल में यहाँ शैव धर्म का प्रचार अधिक था। जिनसेनाचार्य ने यहाँ के चौहान शासक को प्रजा सहित जैन मत में धर्मान्तरित करके खण्डेलवाल जाति को उत्पन्न किया। सम्भवतः यह ८वीं शताब्दी में हुआ। खंडेला प्रसिद्ध जैन तीर्थ था। सिद्धसेन सूरि कृत "सकलतीर्थ स्तोत्र" में जैन तीर्थ के रूप में इसका उल्लेख है । सम्भवतः जैन मत का खण्डेला गच्छ यहीं से उद्भूत हुआ। यहाँ का सरावगी मन्दिर अत्यधिक पुराना है, किन्तु खण्डित अवस्था में है और ध्वस्त है । यह १०वीं शताब्दी से भी अधिक पुराना है।' मध्यकाल की कई मूर्तियाँ भी १. अभय ग्रन्थ भण्डार, ग्रस० ४३५८, ४४५५ । २. जैग्रप्रस, पृ० ३ । ३. खबृगु, पृ० ९६ । ४. एरिराम्युअ, १९३४-३५, क्र०१। ५. यह खण्डेलवाल वंशावली के द्वारा प्राप्त सूचना पर आधारित है । ६. एसिटारा, पृ० २६२ । ७. गाओसि, ७६, पृ० १५६ । ८. प्रोरिआसवेस, १९१०, पृ० ५७ । Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१२ : मध्यकालीन राजस्थान में जैनधर्म यहाँ से खोजी गई हैं। ९९८ ई० की "धर्मरत्नाकर" की प्रशस्ति से ज्ञात होता है कि इसके लेखक जयसेन खण्डेला आये थे और उन्होंने धर्मोपदेशों से जनता को अत्यधिक प्रभावित किया था ।२ १२८९ ई० में जिनप्रभ सूरि भी खण्डेलपुरा आये और अपने उपदेशों से उन्होंने बहुत से लोगों को जैन मत में धर्मान्तरित किया । जैन धर्म के प्रचार प्रसार के लिये मूल संघ के भट्टारक जिनचन्द्र सूरि के शिष्य ब्राह्मणिक भी १४६१ ई० में आये । इस समय पल्ह के पुत्र शाह गुर्जर और जगसी ने उन्हें “वर्धमान चरित्र" की प्रति लिखवा कर भेंट की। ( २३ ) हथूण्डी (राता महावीर ) तीर्थ : हथंडी बीजापुरा से पाँच किलोमीटर दक्षिण-पूर्व में है। इसका प्राचीन नाम "हस्तिकंडी" था । १०वीं शताब्दी में यह राष्ट्रकूटों की राजधानी था। शीलविजय सूरि और जिन तिलक सूरि ने इस तीर्थ का उल्लेख अपनी तीर्थ मालाओं में किया है। हथूण्डी के राठौर शासक जैन मतावलम्बी थे। वासुदेवाचार्य के उपदेश से विदग्ध ने ऋषभदेव का एक मन्दिर हथूण्डो में बनवाया और इसे अनुदान भी दिया। राज्य को प्राप्त होने वाले करों का कुछ हिस्सा जिन मन्दिर के निमित्त निश्चित किया गया था। मम्मट के पुत्र धवल ने अपने दादा द्वारा बनवाये गये जैन मन्दिर का जीर्णोद्धार करवाया और अपने पुत्र बाला प्रसाद के साथ "पिप्पल" नामक कुएँ की भेंट मन्दिर को प्रदान की। हस्तिकुण्डी की गोष्ठी ने भी इस मन्दिर के पुननिर्माण में भाग लिया था एवं प्रतिमाओं का स्थापना-समारोह वासुदेवाचार्य के शिष्य शालिभद्र के द्वारा ९९७ ई० में सम्पन्न हुआ था । राष्ट्रकूटों के शासन के पश्चात्, मुगल आक्रमण एवं विध्वंस के परिणामस्वरूप, इस मन्दिर के मूलनायक ऋषभनाथ के स्थान पर महावीर हो गये । १२४२ ई० में पूर्णभद्र उपाध्याय ने दो कक्ष और शिखर निर्मित करवाये। संभवतः महावीर की प्रतिमा इसी समय यहाँ पर प्रतिष्ठित की गई जो "राता महावीर" के नाम से जानी जाती है । मूलनायक की प्रतिमा संभवतः लाल रंग की थी । धीरे-धीरे यह तीर्थ "राता महावीर" के नाम से ही प्रसिद्ध होने लगा। विभिन्न स्थानों से यहाँ तीर्थयात्री दर्शनार्थ आते थे। १२७८ ई. के एक लेख में इस मन्दिर के लिये "राता महावीर" १. प्रोरिआसवेस, पृ० ५६ । २. जैग्रप्रस, पृ० ३ । ३. ब्यावर के शास्त्र भण्डार में ग्रं० सं० १६ । ४. एसिटारा, पृ० २७० । ५. जैनतीर्थ सर्वसंग्रह, १, पृ० २०९ । ६. एइ, १०, पृ० २० । ७. प्रोरिआसवेस १९०८, पृ० ५२ । Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन तीर्थ : २१२ का उल्लेख है', जबकि इसी मन्दिर के १२८८ ई० के अभिलेख में इसे हथूण्डी महावीर का मन्दिर वर्णित किया गया है ।२ १२७८ ई०, १२७९ ई०, १२८८ ई०, व १२८९ ई० के अभिलेखों में इस मन्दिर के निमित्त दिये गये अनुदानों का उल्लेख है । १२८८ ई० के अभिलेख में वर्णित है कि सेवाड़ी के कर गृह से २४ द्रम का अनुदान दिया जावे। इसी समय के एक अन्य अभिलेख में उल्लेख है कि महावीर मन्दिर को साहूकार हेमाक ने २४ द्रम का वार्षिक अनुदान दिया ।' १२९९ ई० का एक अभिलेख बताता है कि राता महावीर के मन्दिर को कुछ विसल प्रिय ब्रह्म भेंट किये गये थे।६ १०वीं शताब्दी में इस स्थान के नाम पर ही वासुदेवाचार्य ने हस्तिकुण्डी गच्छ प्रारम्भ किया। यह गच्छ बाद में बहुत लोकप्रिय रहा। हथूण्डी के राठौरों की एक पृथक शाखा थी, जो जैन धर्म में दीक्षित होने के बाद हथूण्डिया श्रावक हुए।" ( २४ ) नाडौल तीर्थ : नाडौल, जवालिया रेलवे स्टेशन से तेरह किलोमीटर दूर व नाडलाई से ११ कि० मी० उत्तर-पूर्व में स्थित है । यह स्थान चौहान परिवार की मारवाड़ शाखा की राजधानी थी । चौहान शासकों के उदार संरक्षण में नाडौल में जैन धर्म की अत्यधिक प्रगति हुई। यह कस्बा, गोडवाड़ (मारवाड़) की जैन पंचतीर्थी का एक तीर्थ माना जाता है। यहाँ का महावीर जैन मन्दिर बहुत प्रसिद्ध रहा है। यहाँ से प्राप्त ९६७ ई० और ९८२ ई० के दो प्राचीन अभिलेखों से इस तीर्थ की प्राचीनता की पुष्टि होती है । कुमारपाल के सामंत राजा अश्वराज ने कुछ निर्दिष्ट दिनों में हिंसा के निषेध और अहिंसा पालन के आदेश दे रखे थे। मंदिर के गूढ़ मण्डप में नेमिनाथ और शांतिनाथ की दो कायोत्सर्ग प्रतिमाओं के ११५८ ई० के अभिलेख से ज्ञात होता है कि ये प्रतिमाएँ देव सूरि के शिष्य पद्मचन्द्र गणी द्वारा वेसड़ स्थान के महावीर मन्दिर में स्थापित की गई थीं। ११७७ ई० में अल्हणदेव ने स्नान और सूर्य पूजा के उपरान्त ब्राह्मणों एवं गुरुओं को दान देने के उपरान्त यहाँ के महावीर जैन मन्दिर को पाँच द्रम मासिक की राशि नाडौल के करगृह १. प्राजैलेस, २, क्र० ३१९ । २. वही, क्र० ३२० । ३. वही, क्र० ३२०-३२२ । ४. प्रोरिआसवेस, १९०८, पृ० ५२ । ५. वही। ६. इए रिपोर्ट, १९५५-५६, पृ० ३१ । ७. एसिटारा, पृ० २७३ । ८. वरदा, १६, अंक १-३, पृ० १९ । ९. प्राजैलेस, २, क्र० ३६४, ३६५ । Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१४ : मध्यकालीन राजस्थान में जेनधमं से चुकाने का अनुदान स्वीकृत किया । ११६० ई० में नाडूला में स्नान करके तथा सूर्य एवं महेश्वर की पूजा करके अल्हणदेव के पुत्र कीर्तिपाल ने महावीर जैन मन्दिर को उसके अन्तर्गत १२ गाँवों से एकत्रित करके दो द्रम वार्षिक का अनुदान स्वीकृत किया । जो जोधपुर के मन्दिर का नाम अनन्तनाथ की मुख्य वेदी पर ही १६२९ ई० की अभिलेख युक्त ३ मुहणोत जयमाल के द्वारा स्थापित करवाई गई थीं । "रायविहार" भी उल्लिखित है । 3 मन्दिर के दालान में प्रतिमा है, जिस पर १८३६ ई० का लेख है ।४ ( २५ ) कोरटा तीर्थ : कोटा, संडेरा से २६ किलोमीटर दक्षिण-पश्चिम में है । इसका प्राचीन नाम कोरंटकथा एवं यह एक बड़ा कस्बा रहा होगा । प्रतिमाएँ हैं, अभिलेख में एक वेदी पर । कोरटा जैन मतावलम्बियों का प्रसिद्ध तीर्थ था । १३१४ ई० में लिखित " उपकेश गच्छ चरित्र” के अनुसार यह स्थान लगभग २,००० वर्ष पुराना है ।" वस्तुतः इस स्थान की इतनी प्राचीनता विश्वसनीय नहीं है । रत्नप्रभ सूरि, जिन्होंने यहाँ के महावीर मन्दिर का स्थापना समारोह सम्पन्न करवाया था, का काल ८वीं शताब्दी के आसपास है, अतः ८वीं शताब्दी में यह तीर्थ अस्तित्व में था १०वीं शताब्दी में धनपाल ने अपनी कविता " सत्यपुरीय महावीर उत्साह" में कोरंट के महावीर मन्दिर का उल्लेख किया है । १०३२ ई० का एक अभिलेख, जो पिण्डवाड़ा गाँव के महावीर मन्दिर में पार्श्वनाथ प्रतिमा के पृष्ठ पर खुदा हुआ है, से ज्ञात होता है कि यह प्रतिमा चछा और सज्जन, जो श्यामनाग के पुत्र थे तथा कोरंटक के श्रावकों के द्वारा स्थापित की गई थी। सिद्धसेन सूरि के " सकल तीर्थ स्तोत्र" में भी इस तीर्थं का उल्लेख है ।" " प्रभावक चरित्र" के अनुसार सप्तशत देश का, कोरंटपुरा एक समृद्ध कस्बा था, जिसमें धनी लोग रहते थे, जो अत्यधिक धर्मप्रिय थे । यह तीर्थं मध्यकाल में भी अत्यधिक लोकप्रिय रहा । मेघशील १. एइ, ९, १० ६३ । २. प्राजैलेस, २, क्र० ३६६, ३६७ ॥ ३. यतीन्द्र विहार, २, पृ० ७७ । ४. जैरा, पृ० १०७ । ५. पट्टावली समुच्चय, पृ० ४९ । ६. जैसंशो, ३, अंक १ । ७. अप्रजैलेस, क्र० ३६६ | ८. गाओस, ७६, पृ० १५६ । ९. प्रभावक चरित्र - मानदेवप्रबन्ध, पृ० १९१ । Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जेन तीर्थ : २१५ विजय और जिन विमल सूरि ने भी अपनी-अपनी तीर्थ मालाओं में इस तीर्थ का वर्णन किया है । " जैसलमेर के शांतिनाथ मन्दिर की एक प्रशस्ति, जो १५२६ ई० में देवतिलक सूरि के द्वारा लिखी गई थी, से यह ज्ञात होता है कि उपकेश वंश के आम्बा के पुत्र कोचर ने कोरंट में एक बड़ा जैन मन्दिर निर्मित करवाया था । इस स्थान के कई लोगों ने तीर्थ यात्रा संघों का नेतृत्व भी किया। उन्होंने जैनाचार्यों के द्वारा प्रतिमाओं के स्थापनासमारोह भी सम्पन्न करवाये तथा यहाँ पर कई दीक्षा समारोह भी आयोजित हुए । कोरंट गच्छ की उत्पत्ति इस स्थान से ही हुई। यह उपकेश गच्छ की एक शाखा हैं । कोरंट गच्छ, सम्भवतः कनक प्रभा सूरि के द्वारा प्रारम्भ किया गया था । (२६) संडेरा तीर्थ : जोधपुर सम्भाग में, पाली से १६ किलोमीटर उत्तर-पश्चिम में, संडेरा स्थित है । इसकी स्थापना सम्भवतः १०वीं शताब्दी में यशोभद्रसूरि ने की थी । अनुश्रुति के अनुसार काठियावाड़ से लौटते समय यशोभद्रसूरि एक तालाब के किनारे रुके, जहाँ सिंह एवं साँड़ के युद्ध में, साँड़ को विजयी देखकर, उन्होंने इस स्थान का नाम " संडेराव" रख दिया । सिद्धसेन सूरि ने अपने "सकल तीर्थं स्तोत्र" में तीर्थ स्थानों की सूची में संडेरा का नाम भी दिया है । यहाँ पर संडेरक गच्छ के महावीर और पार्श्वनाथ के दो जैन मन्दिर थे । १०९२ ई० के अभिलेख के अनुसार इस कस्बे की एक गोष्ठी ने संडेरक गच्छ के मन्दिर में, जिनचन्द्र के द्वारा एक मूर्ति की स्थापना करवाई । " नाडौल के चौहान शासकों ने संडेरा में जैन धर्म की गतिविधियों को संरक्षण दिया । ११६४ ई० के कल्हण के शासन काल के अभिलेख में वर्णन है कि केल्हण देव को माता रानी आनलदेवी ने महावीर के कल्याणक को मनाने के लिये, राजा की व्यक्तिगत सम्पत्ति में से एक हाएल ज्वार का अनुदान स्वीकृत किया था। इसी कल्याणक के निमित्त पाटू, केल्हण उसके भाइयों, पुत्रों तथा अन्य राष्ट्रकूटों ने, कोटवाल गाँव के लगान में से एक द्रम का अनुदान दिया था । इसी प्रकार रथकारों आदि ने भी कल्याणक के अनुदान दिया था । केल्हण के राज्यकाल के ही १९७९ ई० के अभिलेख में वर्णित है कि ढांढा के पुत्र राल्हा और पाल्हा ने अपनी माता की स्मृति में स्तम्भ भेंट में दिया लिये १ द्रम का १. जैनतीर्थं सर्वसंग्रह, पृ० २२८ । २. नाजैलेस, ३, क्र० २१५४ । ३. भपापड, पृ० ४१४, ४१५, ४८०, ५०९, ६६३, ६८०, ६८१ आदि । ४. प्रभावक चरित्र मानदेवप्रबन्ध, पृ० १९१ । ५. नाजैलेस, १, क्र० ८८ । ६. एइ, ११, पृ० ४७ ॥ Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१६ : मध्यकालीन राजस्थान में जैनधर्मं था । ' उन्होंने अपना मकान भी पार्श्वनाथ मन्दिर को दे दिया था । संडेरक के श्रेष्ठी गुणपाल ने अपनी पुत्रियों के साथ महावीर जैन मन्दिर में १२वीं शताब्दी में एक चतुष्किका निर्मित करवाई । यह भी ज्ञात होता है कि पोरवाल जाति के पेथड़ के पूर्वज मोखू, संडेरक के ही मूल निवासी थे और महावीर के अनन्य उपासक थे । 3 पेथड़ और उसके ६ छोटे भाइयों ने संडेरक में दो जैन मन्दिर बनवाये । यह तथ्य १५१४ ई० में लिखित " अनुयोगद्वार वृत्ति सूत्रवृत्ति" की प्रशस्ति से ज्ञात होता है । " (२७) नाडलाई तीर्थं : १५ जोधपुर सम्भाग में, देसूरी से ६ कि० मी० उत्तर-पश्चिम में नाडलाई स्थित है । इसके प्राचीन नाम "नडुलडागिका "", " नन्दकुलवती", "नाडुलाई”", "नारदपुरी"" आदि थे । यह नगर १०वीं शताब्दी में भी अस्तित्व में था । यहाँ की "जयकाल” नामक पहाड़ी जैनियों के द्वारा "शत्रुंजय" के रूप में पवित्र मानी जाती है । प्राचीन काल में यहाँ १६ से अधिक मन्दिर थे । शांतिकुशल ने १६१० ई० में लिखी "गौड़ी पार्श्व तीर्थमाला" में यहाँ के पार्श्वनाथ मन्दिर का उल्लेख किया है । शील विजय ने भी अपनी तीर्थमाला में इस तीर्थं का उल्लेख किया है । १७वीं शताब्दी के कवि एवं आचार्य समय सुन्दर ने नाइलाई के नेमिनाथ मन्दिर का अपनी एक कविता में जीवन्त वर्णन किया है । १° यद्यपि यहाँ जैन धर्म प्राचीन काल से ही प्रचलन में था, किन्तु १०वीं शताब्दी से ही इसके पुष्ट प्रमाण मौजूद हैं । १५०० ई० के एक अभिलेख से ज्ञात होता है कि संडेरक गच्छ के जनक यशोभद्रसूरि ९०७ ई० में नाडलाई आये थे ।" यहाँ पर १२वीं शताब्दी में नेमिनाथ और महावीर के दो प्राचीन मन्दिर थे, जो मुस्लिमों के द्वारा ध्वस्त कर दिये गये और उनका जीर्णोद्धार बाद में हुआ । नेमिनाथ मन्दिर १३८६ ई० में, महाराजा वनवीर के १. एइ, पृ० ५१ । २. नाजैलेस, क्र० ८८२ । ३. जैन पुस्तक प्रशस्ति संग्रह, पृ० १८ । ४. श्री प्रशस्ति संग्रह, पृ० ७२-७३ | ५. प्रोरिआसवेस, १९०९, पृ० ४२ । ६. वही । ७. वही । ८. भपापड, पृ० ४१५, ६२९, ६३१, ६९७, ७०३ । ९. जैन तीर्थं सर्वं संग्रह, पृ० २२३ । १०. वही । १. जैसास, पृ० ५०९ । Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन तीर्थ : २१७ शासन काल में, विनयचन्द्र सूरि के उपदेशों से पुननिर्मित हुआ।' दूसरे जैन मन्दिर में, जो मूलतः मूलनायक महावीर का था, १५०० ई० में सिंहा और समदा के द्वारा आदिनाथ की प्रतिमा स्थापित करवाई गई। इनके प्रपिता सायर ने पहले कुछ कक्षों को पुनर्निर्मित करवाया था, अतः यह मन्दिर "सायर जिन वसति' के नाम से जाना जाने लगा। इसके अतिरिक्त १५१० ई० से १५१४ ई० के मध्य मुंजपुर, वीरमगांव, मेहमेद बाद और चांपानेर आदि गांवों के विभिन्न संघों ने भी मन्दिर के विभिन्न हिस्सों का जीर्णोद्धार करने में सहायता की। इन संघों के इस कार्य के लिये तपागच्छ के इन्द्र नन्दि, प्रमोद सुन्दर और सौभाग्यनन्दि ने प्रेरणा दी थी। प्रतिमा का नवीनीकरण भी सायर के वंशजों ने १६१७ ई० में करवाया, किन्तु स्थापना तपागच्छ के विजयदेव सरि ने करवाई। १६६४ ई० के एक अभिलेख में वर्णन है कि यह निर्माण नाडलाई के पोरवाड़ नाथाक ने विजयदेव सूरि के द्वारा करवाया । उस समय अभयराज का शासन था। नडलाई, मध्यकाल में भी जैन तीर्थ रहा । कडुआ पंथ के प्रवर्तक कडुआशाह १४४० ई० में यहीं पैदा हुये थे।५ विजयदान सूरि ने हीर विजय सरि को पण्डित की उपाधि नडलाई में प्रदान को। विजयसेन सूरि का जन्म स्थान भी यही था । संडेरक गच्छ के ईश्वर सूरि ने १५२४ ई० में "सुमति चरित्र" की रचना की और उन्होंने आदिनाथ मन्दिर के जीर्णोद्धार करवाने की प्रेरणा भी दी। चौहान शासकों के संरक्षण में जैन धर्म नडलाई में बहुत फला-फूला। विविध प्रकार के दान-अनुदान एवं भेंट मन्दिरों के निमित्त दी गईं। (२८) पाली तीर्थ : पाली, जोधपुर शहर से ७२ किलोमीटर दक्षिण-पूर्व में जिला मुख्यालय है। इसके प्राचीन नाम “पाल्लिका", "पल्लिका" और "पल्ली"९ थे। यह स्थान जैन एवं हिन्दू दोनों के लिये तीर्थ था । पल्लिवाल गच्छ को उत्पत्ति यहीं से हुई । इसी प्रकार जैन एवं ब्राह्मणों में पाई जाने वाली पल्लिवाल जाति की उत्पत्ति भी इसी स्थान से हुई । १. एइ, ११, क्र० २५। २. प्रोरिआसवेस, १९०९, पृ० ४४ । ३. वही। ४. वही, पृ० ४१ । ५. जैसासइ, पृ० ५०९ । ६. वही, पृ० ५३७ । ७. जैगुक, पृ० ३०३ । ८. नाजैलेस, क्र० ८०९, ८१३, ८१४, ८१५ । ९. जैसप्र, ३, पृ० ४३० । Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१८:मध्यकालीन राजस्थान में जैनधर्म पाली प्राचीनकाल से ही जैन तीर्थ रहा। १३वीं शताब्दी में मदनकीर्ति ने अपनी "शासन चतुस्त्रिशटीका" में पल्ली के जिनेश्वर का भी अन्य तीर्थों के साथ वर्णन किया है। किसी भट्टारक के ब्राह्मण शिष्य विश्वनाथ ने पाली शांतिजिन को तीर्थों की सूची में वर्णित किया है। इससे निश्चित रूप से सिद्ध होता है कि पाली में पूर्ववर्ती काल में अवश्य ही शांतिनाथ का दिगम्बर जैन मन्दिर रहा होगा। सिद्धसेन सरि ने अपने "सकल तीर्थ स्तोत्र" में इस तीर्थ को अत्यधिक सम्मान दिया है। यह स्थान पूर्णभद्र महावीर के रूप में विख्यात था। वर्तमान में जो पार्श्वनाथ मन्दिर है, वह मूलतः महावीर मन्दिर था। इस मन्दिर का सबसे प्राचीन हिस्सा गढ़ मण्डप है, जिसके स्तम्भ १०वीं शताब्दो या उसके पूर्व में निर्मित हैं। श्रावकों ने १२वीं शताब्दी में महावीर मन्दिर में मूर्तियां रखवाईं और उनका स्थापना समारोह सम्पन्न करवाया।३ ब्रह्मपति और रम्प्रदेवी के पुत्र जैजक ने १०८७ ई० में वीरनाथ की एक प्रतिमा स्थापित करवाई। १०९४ ई० के एक अभिलेख में उल्लेख है कि लक्ष्मण के पुत्र देशा ने अपने-अपने पुरखों भादा और भादाक के आध्यात्मिक कल्याण हेतु, देवालय में पार्श्वनाथ प्रतिमा बनवाई । १४४४ ई० में महामात्य पृथ्वीपाल ने इस मन्दिर को विमलनाथ और अनन्तनाथ की प्रतिमाओं का जोड़ा भेंट किया। मूलनायक प्रतिमा, महावीर के स्थान पर पार्श्वनाथ की होना, सम्भवतः मुस्लिम आक्रमण के कारण हुआ होगा। १६३१ ई० में मन्दिर का सम्पूर्ण जीर्णोद्धार श्रीमाल डूंगर भाखर ने ५००० रुपये व्यय करके करवाया था । पल्ली तीर्थ पर जैन सन्त अक्सर आते रहते थे । "उपदेशरत्नाकर" से ज्ञात होता है कि यशोभद्र सूरि ने आचार्य पद ९१२ ई० में यहीं प्राप्त किया था। बाद में उन्होंने पाली तीर्थ के लिये एक संघ यात्रा भी आयोजित की थी। जयसिंह के राज्यकाल में सिद्धराज, वीरसूरि आदि आचार्य पाली आये ।५ स्थिरचन्द्र गणी ने ११५० ई० में "पंचाशक वृत्ति" का प्रतिलिपिकरण यहीं प्रारम्भ किया। विजयसिंह सूरि ने ११५८ ई० में उमास्वामी वाचक के "जम्बू-द्वीप-समास" पर विजय जनहित टीका यहीं पर लिखी । गुणविनय उपाध्याय ने १५९४ ई० में जयशेखर की “संबोध सप्ततिका" पर एक टीका लिखी। १६१६ ई० में हेमरत्न सूरि ने "शीलवती कथा" लिखी। मूल१. ऐलक पन्नालाल सरस्वती भवन, बम्बई में एक गुटका । २. गाओसि, ७६, पृ० १५६ । ३. प्रोरिआसवेस, १९०८, पृ० ४५ । ४. वही, पृ० ४५-४६ । ५. जैसासइ, पृ० २३७ । ६. जैसलमेर ग्रन्थ भण्डार, सूची, पृ० ६। ७. जैसासइ, पृ० २७८ । ८. वही, पृ० ५९९ । ९. जैगुक, पृ० २०७ । Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जेन तीर्थ : २१९ संघ के भट्टारक क्षेमेन्द्र कीर्ति १६८० ई० एवं १६९९ ई० में पाली आये थे, उनके सम्मान में कई उत्सव आयोजित हुये थे । ' २९. खेड़ा तीर्थं : २ 3 मारवाड़ के राठौरों की प्राचीनतम राजधानी, खेड़ा नगर से ८ कि० मी० दूर, लूनी नदी के किनारे है । साहित्यिक एवं अभिलेखीय स्रोतों के आधार पर इसके प्राचीन नाम खेहा, खेड़ा और लवणखेड़ा थे । प्राचीन काल में यह समृद्ध कस्बा या नगर था । " साहित्यिक स्रोतों से ज्ञात होता है कि खेड़ा पूर्वकाल में जैन धर्म का बहुत बड़ा केन्द्र और तीर्थ था । १२वीं शताब्दी के कवि एवं आचार्य, सिद्धसेन सूरि ने इसका तीर्थ स्थान के रूप में उल्लेख किया है । जैन मान्यता एवं अनुश्रुति के अनुसार यशोभद्रसूरि एक जैन मन्दिर खेड़ा से नाडलाई लाये थे । इस पर विश्वास करें या नहीं, किन्तु यह तथ्य असंदिग्ध है कि जैनधर्मं इस स्थान पर पूर्वकाल से ही अस्तित्व में था । तालाब की खुदाई में प्राप्त " परिकर" में अंकित एक अभिलेख से ज्ञात होता है कि वैद्य मनोरथ ने अपने परिवार के सदस्यों के साथ, वैद्य जसपाल के कल्याणार्थं ऋषभदेव मन्दिर का एक तोरण निर्मित करवाया था और इसका स्थापना - समारोह भावहड गच्छ के विजयसिंह सूरि द्वारा, १९८० में सम्पन्न करवाया गया था । यह सिद्ध करता है कि १२वीं शताब्दी में यहाँ ऋषभदेव का जैन मन्दिर था । १९८८ ई० में जिनपति सूरि के उपदेशों के प्रभाव से, उद्धर्ण शाह खरतर गच्छ का अनुयायी हो गया । वह एक ख्याति प्राप्त व्यक्ति था । जिनपति सूरि के आग्रह पर अजमेर के चौहान राजा पृथ्वीराज, प्रसिद्ध व्यापारी रामदेव के साथ उद्धर्ण से मिलने खेड़ा आये थे । उद्धर्ण ने खेड़ा में शान्तिनाथ का एक बहुत सुन्दर जैन मन्दिर बनवाया, जिसका प्रतिष्ठा महोत्सव जिनपति सूरि के द्वारा १२०१ ई० में सम्पन्न करवाया गया ।" यह तथ्य " कल्पसूत्र " की एक प्रति की प्रशस्ति से भी प्रमाणित होता है ।" इस मन्दिर में प्रतिष्ठा १. एसिटारा, परि० १७ । २. जैसप्र १८, पृ० १८७ । ३. खबृगु, पृ० ८१ । ४. वही, पृ० ४४ एवं ८० । ५. एसिटारा, पृ० २९७ ॥ ६. गाओस, ७६, पृ० १५६ । ७. जैसप्र १८, पृ० १८७ । ८. खबुगु, पृ० ४४॥ ९. श्री प्रशस्ति संग्रह, पृ० ४६ । Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२० : मध्यकालीन राजस्थान में जैनधर्म महोत्सव पर "शान्तिरास" की कविताएँ भी रची गई। १४वीं शताब्दी के कवि लक्ष्मीगणी ने अपनी कृति "शांतिनाथ देवरास" में उसका उल्लेख किया है। यह मन्दिर १३२६ ई० में भी अस्तित्व में था, क्योंकि जिनकुशल सूरि बाड़मेर से जालोर जाते समय खेड़ा तीर्थ के दर्शनार्थ यहाँ रुके । ये सभी तथ्य इंगित करते हैं कि यहां का जैन मन्दिर, प्रसिद्ध तीर्थ था। मूलतः खेड़ा से लाये गये, जसोल के प्राचीन अवशेषों से ज्ञात होता है कि खेड़ा में पूर्वकाल में एक महावीर मन्दिर भी था । ११८९ ई० के अभिलेख में सहदेव के पुत्र सोनिग द्वारा खेड़ा के महावीर मन्दिर में तीर्थंकर संभवनाथ की दो प्रतिमाएँ भेंट करने का वर्णन है । स्तम्भ पर उत्कीर्ण ११५३ ई० के अभिलेख में उल्लेख है कि विजयसिंह नामक व्यक्ति ने वालिग अनुदान किया था । ये प्राचीन मन्दिर सम्भवतः मुस्लिम आक्रामकों ने ध्वस्त कर दिये और अभी अस्तित्व में नहीं हैं। जिनपति सूरि, बहुधा खेड़ा आते रहते थे। ११८६ ई० में उन्होंने चातुर्मास यहीं व्यतीत किया। ११८७, ११९० ई० और ११९१ ई० में उन्होंने जैन सन्तों को उपाधि प्रदान कर सम्मानित किया। राणा केल्हण के विशेष निमन्त्रण पर ११९७ ई० में पुनः खेड़ा आये और "दक्षिणावरतारत्रिका वातावरण उत्सव" सम्पन्न करवाया ।" सोम सूरि द्वारा १२७५ ई० में रचित "जिनेश्वर सूरि संयम श्री विवाह वर्णन रास" से यह ज्ञात होता है कि जिनपति सूरि ने नेमिचन्द भण्डारी के पुत्र अंबड कुमार को शांतिनाथ मंदिर में दीक्षित किया और वीरप्रभ नाम दिया । आचार्य बनने के पश्चात् वीरप्रभ जिनेश्वर सूरि के नाम से जाने जाने लगे। यह रचना मुख्यतः खेड़ा तीर्थ और वहां के वर्णनों से ही सम्बन्धित है। (३०) हरसूर तीर्थ : हरसूर-नागौर जिले में पुष्कर डेगाना बस मार्ग पर स्थित है और पुरातन महत्त्व का स्थान है। इसका पूर्व नाम सम्भवतः "हर्षपुरा" था। यह नवीं शताब्दी के पूर्व समृद्ध अवस्था में अस्तित्व में था। जैन साहित्य में इस नगर का वर्णन इस प्रकार १. जैसप्र, १८, पृ० २१४ । २. वही। ३. खबृगु, पृ० ८० । ४. वही, पृ० ३४-४४ । ५. वही, पृ० ४४। ६. जैसप्र, १८, पृ० १८७ । ७. इए, ३९, पृ० १८६ । ८. शाह, एन्शेन्ट इंडिया, ३, पृ० १४० । Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - जैन तीर्थ : २२१ मिलता है-"प्रिय ग्रन्थ के समय ईसा पूर्व प्रथम शताब्दी में इस नगर में ३०० जैन मन्दिर, ४०० विहार, १८०० ब्राह्मणों के घर, ३६,००० वणिकों के गृह, ९०० उद्यान, ९०० कुएँ और ७०० दान गृह थे।" राजा का नाम सुभट पाट दिया हुआ है, किन्तु इतिहास में अन्यत्र इसका उल्लेख नहीं मिलता। १७वीं शताब्दी की रचना से उद्धृत उक्त कथन को विश्वसनीय नहीं माना जा सकता। उक्त कथन यद्यपि नगर के बारे में अतिशयोक्तिपूर्ण है, किन्तु इस बात के पर्याप्त प्रमाण हैं कि यह नगर पूर्वकाल में समृद्ध अवस्था में था । यहाँ चौहानों के संरक्षण में जैनधर्म उत्कर्षशील रहा । सिद्धसेन सरि ने इस स्थान का नाम अपनी १२वीं सदी की कृति "सकलतीर्थ स्तोत्र" में दिया हुआ है।' श्री पाश्वनाथकुल की एक शाखा हर्षपुरा गच्छ, सम्भवतः इस स्थान से ही उत्पन्न हुई। इस गच्छ के कुछ आचार्य अत्यधिक प्रभावशाली थे और समकालीन शासकों पर अच्छा प्रभाव रखते थे । अभयदेव सूरि के आग्रह पर, शाकंभरी के चौहान शासक, पृथ्वीराज प्रथम ने ११०५ ई० के आसपास रणथम्भौर के जैन मन्दिर पर स्वर्ण कलश स्थापित करवाये थे । इनके शिष्य हेमचन्द्र मलधारी का गुजरात के सिद्धराज जयसिंह पर अत्यधिक प्रभाव था । यहाँ पर 'ओसवालों का मन्दिर" नामक वसि मुहल्ले में स्थित पूर्वाभिमुख एक प्राचीन जैन मन्दिर है। निःसन्देह यह १३वीं शताब्दी का है, किन्तु इसका कुछ हिस्सा दर्शाता है कि यह और भी पूर्व का निर्मित होना चाहिए। इस स्थान से एक जैन प्रस्तर प्रतिमा खोजी गई है, जिस पर ९९६ ई० का अभिलेख अंकित है।३ मध्यकाल में भी यहाँ जैनधर्म अस्तित्व में था, क्योंकि रत्नभूषण सूरि ने १७४३ ई० में "जिनदत्तरास" हरसूर में हो रची थी। किसी समय हरसूर अधिक जनसंख्या वाला कस्बा अवश्य रहा होगा, क्योंकि महाजनों की एक जाति "हरसूरा" यहीं से उत्पन्न हुई ।" अवशिष्ट स्मारकों एवं भग्नावशेषों से स्पष्ट ही प्रमाणित होता है कि हरसूर का विध्वंस किया गया, जो सम्भवतः मुगल काल में ही हुआ होगा और नगर ह्रासमान हो गया। (३१) रणथम्भौर तीर्थ : ___ रणथम्भौर, भारत के सुदृढ़ दुर्गों में से एक है, जो सवाई माधोपुर के निकट अवस्थित है । यह नगर ११वीं शताब्दी में अस्तित्व में था और शाकंभरी के चौहान राजाओं १. गाओसि, ७६, पृ० १५६ । २. वही, पृ० ३१२ । ३. एसिटारा, परि० क्र० ३२ । ४. सम्भवनाथ जै० म० उदयपुर, ग्र० स० ९६ । ५. गुरुगुणरत्नाकरकाव्य, १, पृ० २३२ । Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -२२२ : मध्यकालीन राजस्थान में जैनधर्म १ -का इस पर शासन था । पृथ्वीराज प्रथम ने ११०५ ई० में रणथम्भौर के जैन मन्दिर पर स्वर्ण कलश स्थापित करवाये थे । अतः यहाँ का जैन मन्दिर पूर्व मध्यकालीन प्रतीत होता है । सिद्धसेन सूरि ने रणथम्भौर को भी अपनी तीर्थों की सूची में सम्मिलित किया है | काल के ऐतिहासिक प्रवाह में यह दुर्ग विभिन्न शासकों के अन्तर्गत रहा । मुस्लिम शासकों ने अपने विध्वंस अभियानों में यहाँ के जैन मन्दिरों को भी नहीं बख्शा । अकबर ने जब यह किला जग्गनाथ को सौंपा, तब जैन धर्म को थोड़ा संबल मिला । १५०७ ई० में साह चोखा और उसको पत्नी पार्वती ने " शतकर्मोपदेशमाला" की एक प्रति तैयार करवाई और इसे रूपचन्द को भेंट में दी । एक अज्ञात कवि ने साह चोखा के आग्रह "पर "सीता प्रबन्ध" नामक कृति यहीं पर रची ।" जग्गनाथ ने टोडानगर के खीमसी को अपना मंत्री बनाया, जिसने एक सुन्दर जैन मन्दिर बनवाया और इसमें मल्लिनाथ की प्रतिमा हर्षोल्लास पूर्वक स्थापित करवाई । कनकसोम, जो कि युग प्रधान जिनचन्द्र - के साथ अकबर के दरबार में गये थे, ने अपनी "नेमिफाग रचना" रणथम्भौर में ही -लिखी । (३२) बरोदा (वाटपद्रक) तीथं : वागड़ की पुरानी राजधानी बरोदा-डूंगरपुर से ४५ कि० मी० दूर अवस्थित है । प्राचीन अभिलेखों एवं रचनाओं के अनुसार, इसका पुराना नाम " वाटपद्रक" था । 'पूर्ववर्ती काल में बरोदा जैन धर्म का एक अच्छा केन्द्र था । विनयप्रभ सूरि', जो कि १४वीं शताब्दी के आचार्य थे, ने अपने “तीर्थ यात्रा स्तवन" में यहाँ के आदिनाथ मन्दिर का वर्णन किया है । यहाँ प्राचीन जैन मन्दिरों के कई भग्नावशेष हैं । उनमें से एक पार्श्व - नाथ मन्दिर है । इसका निचला हिस्सा प्राचीन है, किन्तु ऊपरी हिस्सा नवनिर्मित है । इसमें मूलनायक की प्रतिमा देवेन्द्र सूरि के द्वारा १८४७ ई० में ही स्थापित की गई है, किन्तु वेदी पर १५१६ ई० का अभिलेख उत्कीर्ण है । प्राचीन अवशेषों में से ३ बड़ी जैन प्रतिमाएं अभी ही प्राप्त हुई हैं, जिनमें से दो पर १३०२ ई० और १३०७ ई० के १. एरिराम्युअ, १९३३ ३४, क्र० ४, पृ० ३ ॥ २. गाओस, ७६, पृ० ३१२, ३१६ । ३. वही, पृ० १५६ । ४. राजेशाग्रसू, ३, पृ० १६९ । ५. अने० ८, क्र० १२ । ६. वही । ७. वही । ८. जैसप्र १७, पृ० १५ । Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन तीर्थ : २२३ अभिलेख भी उत्कीर्ण है। ऐसा विश्वास है कि धुवेल में वर्तमान में प्रतिष्ठित प्रतिमा, यहीं से ले जाई गई थी। मन्दिर के पृष्ठभाग पर २४ तीर्थंकरों और उनके पंचकल्याणकों को प्रतिमाएँ उकेरी हुई हैं। इस दीवाल का स्थापना-समारोह खरतरगच्छ के जिनचन्द्र सरि द्वारा १३०८ ई० में किया गया था । जैन हस्तलिखित ग्रन्थों को कई प्रतियाँ यहाँ १२वीं शताब्दी से १५वीं शताब्दी के मध्य तैयार की गई थीं। (३३) जूना तीर्थ : रेगिस्तान के अंचल में बसा, यह स्थान बाड़मेर नगर से १४ मोल दुर जसाई के पास पहाड़ियों की गोद में स्थित है। वर्तमान में जूना के नाम से विख्यात ऐतिहासिक स्थल, प्राचीन समय में “जूना बाहडमेर", "बहडमेरू", "बाहडगिरी", "बाप्पडाई" आदि अनेक नामों से जाना जाता रहा है। इस नगर की स्थापना परमार, धरणीवराह या धरणीधर राजा के पुत्र बाहड़ (वागभट्ट) १००२ ई ० के पश्चात् की । मुता नैणसी ने भी धरणी वराह के पुत्र बाहड़-छाहड़, दोनों का उल्लेख किया है । वागभट्ट मेरूशाह का उल्लेख, चौहान चाचिगदेव के संघमाता मन्दिर के १२६२ ई० के शिलालेखों में मिलता है। १६वीं शताब्दी के मध्य तक यह स्थान बाहडमेर के नाम से जाना जाता रहा। १५८३ ई० तक इस नगर के आबाद होने के कारण, वर्तमान जूना ही बाडमेर कहलाता था।५ १५५१ ई० में रावत भीमा ने स्वतंत्र बाडमेर बसाया, जो वर्तमान में जिला मुख्यालय है । इस ऐतिहासिक स्थल पर निर्माण कला के आदर्श नमूनों के रूप में कुएँ, तालाब, पगबाब, मन्दिर, किला आदि अब भी विद्यमान हैं। जूना स्थित जैन मन्दिरों से प्राप्त १६३६ ई० के शिलालेख में, इस स्थान के जैन तीर्थ स्थान होने की महत्ता बताई गई है। यहाँ के जैन मन्दिर अति प्राचीन हैं, जिनका उल्लेख क्षमाकल्याण कृत "खरतरगच्छ पट्टावली' में भी किया हुआ है। विजयप्रभ सरि ने अपनी "तीर्थमाला" में यहाँ के ऋषभनाथ एवं शान्तिनाथ मन्दिर का उल्लेख किया है। जूना को प्राचीन तीर्थ स्थान मानने के कारण, आज भी बाड़मेर नगर व आसपास के कई जैन परिवार इसको यात्रा का तीर्थ लाभ उठाते हैं। यहाँ पर आज भी १. जैरा, पृ० १३४ । २. ओझा-डूंगरपुर राज्य, पृ० १६ । ३. गाओसि, २१, पृ० २१ । ४. विनिस्मा, १९७५, पृ० २-२० । ५. वही, पृ० २-२२।। ६. वही, पृ० २-१८ । ७. वही। ८. जैसप्र, १७, पृ० १५ । Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२४ : मध्यकालीन राजस्थान में जैनधर्म जैन धर्मावलम्बियों के कई परिवार शादी, विवाह, केश मुंडन आदि शुभ अवसरों पर यहाँ की यात्रा करते हैं, मनौती मनाते हैं ।' यहाँ बने हुए तीर्थ रक्षक क्षेत्रपाल का प्रमुख स्थान, दर्शनीय एवं पूजनीय बना हुआ है। वर्तमान में तो इस पाषाणी नगरी की आबादी शून्य मात्र ही है। यह प्राचीन स्थल १०वीं से १७वीं शताब्दी तक आबाद रहा । कर्नल टॉड के अनुसार यहाँ १०२७ ई० में महमूद गजनवी ने, ११७८ ई० में मोहम्मद गोरी ने व बाद में भी मुस्लिम विध्वंस का ताण्डव नृत्य हुआ । ___ इन्हीं खण्डहरों की बस्ती में भग्नावशेष रूप में तीन जैन मन्दिर अभी भी विद्यमान हैं, जो अति प्राचीन हैं । “खरतरगच्छ पट्टावली" के अनुसार उद्धर्ण मंत्री ११६६ ई० के आसपास हुआ। इसके पुत्र कुलधर ने जूना नगर में उत्तुङ्ग तोरण का जैन मन्दिर बनवाया।३ जूना स्थित जैन मन्दिर में चार शिलालेख अभी भी विद्यमान हैं, जिसमें १२३९ ई० के शिलालेख में, जालौर के महाराजा चौहान सामंत सिंह के राज्य का उल्लेख है। दूसरे १२९५ ई० एवं तीसरे १२९९ ई० के शिलालेख में इस मन्दिर को ऊँचे तोरण कला आदिनाथ का जैन मन्दिर होना बताया है। इस मन्दिर की प्रतिष्ठा एवं निर्माण पर गुजरात के सोलंकी भीमदेव के समय चलने वाली धनराशि भीम प्रियविश्वा के खर्च होने का उल्लेख है। चौथे, १६३६ ई. के लेख में इस तीर्थ की महत्ता वर्णित है। ११६६ ई० में उद्धर्ण के पुत्र कुलधर द्वारा बनवाये गये आदिनाथ मन्दिर पर, आचार्य जिनेश्वर सरि ने १२२६ ई० में ध्वजा फहराई। इनके ही द्वारा १२५२ ई० में पालनपुर में प्रतिष्ठा महोत्सव आयोजित हुआ और सहजाराम के पुत्र बाछड़ ने जूना आकर उत्सव पूर्वक दो स्वर्ण कलशों की प्रतिष्ठा करवा कर आदिनाथ मन्दिर पर शिखर चढ़वाये ।' १२५५ ई० में चण्डतिलक ने "अभय कुमार चरित्र महाकाव्य" जूना में ही लिखना प्रारम्भ किया । १२७८ ई० में जिनप्रबोध सूरि ने जूना में पद्यवीरि, सुधा कलश, तिलक कीर्ति, लक्ष्मी कलश, नेमिप्रभु, हेमतिलक और नेमितिलक और नेमितिलक को समारोह पूर्वक दीक्षित किया। यहां कई आचार्यों ने चातुर्मास किये और कई धार्मिक ग्रंथों की रचना की । कुशल सूरि ने १३२५ ई० में जूना में चातुर्मास किया । आचार्य पद्म सूरि के यहाँ आगमन पर चौहान राजा शिखरसिंह एवं कई श्रावकों ने उनक १. विनिस्मा, १९७५, पृ० २-१९ । २. वही, पृ० २-१७ । ३. जैन तीर्थ सर्व संग्रह, पृ० १८१ । ४. खबृगु, पृ० ४९ । ५. वही। ६. गाओसि, ७६, पृ० ३९४ । Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - जैन तीर्थ : २२५ भव्य स्वागत किया।' यहाँ ओसवाल, पारख गोत्रीय देकोशाह के पुत्र ने, १४६४ ई० में दीक्षा ग्रहण की, जो बाद में जिनसमुद्र सूरि कहलाये । १० दिसम्बर १९७० ई० को जूना की एक पहाड़ी पर वन विभाग के श्रमिकों द्वारा वृक्ष लगाते समय कुछ जैन प्रतिमाएँ मिलीं, जो अति प्राचीन एवं खण्डित अवस्था में थीं । यह स्थान जूना दुर्ग से एक फलांग दूर पहाड़ी पर है। इसका अवलोकन करने से ज्ञात होता है कि यहाँ पर विशाल एवं सुन्दर शिल्पकलाकृतियों का जैन संग्रह रहा होगा । अवशेषों को देखने से मन्दिर का प्रवेश द्वार, श्रृंगार चौकी, रंग मण्डप, सभा मण्डप, मूल गंभारा, परिक्रमा स्थल, चारों ओर प्राचीरें व पहाड़ी से उतरने की पक्की पगडंडी अब भी छिन्न-भिन्न अवस्था में दृष्टिगत है। यहाँ के मन्दिरों को शिल्पकला, रणकपुर व दिलवाड़ा के मन्दिरों की भाँति भरे पाषाण पर उकेरी हुई है। शिल्प-सौन्दर्य युक्त, छतें एवं गुम्बद अभी भी विद्यमान हैं। खम्भों, प्राचीरों, गर्भगृह आदि सभी पर कला के उत्कृष्ट नमूने तराशे हुये हैं । आदिनाथ मन्दिर में लक्ष्मी, सरस्वती एवं शक्ति की प्रतिमाएँ दृष्टव्य हैं। जूना का प्राचीन वैभव वस्तुतः खण्डहरों में ही दिखाई देता है । (३४) वरमाण तीर्थ : वामनवाड़ महावीर तीर्थ, सिरोही रोड रेलवे स्टेशन से ७ कि. मी. दूर, अरावली पर्वत की उपत्यका में स्थित है । अभिलेखों एवं साहित्य के आधार पर इसके प्राचीन नाम "ब्राह्मणवाडा", "ब्रह्माण", "ब्राह्मवाटक", "बम्मनवाड़" आदि मिलते हैं। यह तीर्थ एक तरफ पहाड़ व तीन तरफ विशाल परकोटे से घिरा है, जिसमें तीन विशाल गजद्वार हैं । पहाड़ी पर शान्तिसूरि को ध्यान कुटी है एवं सम्मेदशिखर तीर्थ की सुन्दर रचना की हुई है । श्रमण परम्परा एवं जैन इतिहास के अनुसार महावीर ने छद्मस्थ अवस्था में यहाँ विचरण किया था तथा इस तीर्थ की स्थापना, उनके जीवन के ३७वें वर्ष में ही हो गई थी, अतः इसे "जीवित स्वामी तीर्थ' भी कहते हैं। इस सन्दर्भ में मूंगथला (११५९ ई०) तथा भीनमाल (१२७७ ई०) के शिलालेख उल्लेखनीय हैं। सिद्धसेन कृत 'सकल तीर्थ स्तोत्र" में इस तीर्थ का उल्लेख किया गया है। १४५३ ई० में रचित मेघ को “तीर्थमाला" में भी इस तीर्थ की प्रभावना वर्णित है । लावण्यसमय की १६८९ ई०, शीलविजय की १६९३ ई०, सौभाग्यविजय व ज्ञानविमल की १६९८ ई० की तीर्थमालाओं से इस तीर्थ को भारत के मुख्य तीर्थों में माने जाने का उल्लेख है। कवि लावण्यसमय ने १४७२ ई०, विशाल सुन्दर ने १६२८ ई० में तथा क्षेम कुशल आदि ने भी स्तोत्र के रूप में इस तीर्थ की महिमा गाई है। १. खबृगु, पृ० ८६ । २. गाओसि, ७६, पृ० १५६ । १५ Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२६ : मध्यकालीन राजस्थान में जैनधर्म जैन परम्पराओं में ऐसा विवरण मिलता है कि पूर्णराज नामक राजा ने भक्तिवश, उनके जन्म के ३७वें वर्ष में उनकी प्रतिमा का निर्माण करवाया था, जिसे बामनवाड़ा मंदिर में स्थापित किया गया। इस मंदिर की प्रतिष्ठा, पार्श्वनाथ के संतानीय केशी गणधर ने की ।' मूलनायक मन्दिर का जीर्णोद्धार विभिन्न वर्षों में होता रहा । वरमाण से ही, ब्रह्माणक गच्छ की उत्पत्ति हुई है । इस गच्छ का सर्वप्रथम उल्लेख भी यहीं पर मिलता है । इस गच्छ का महावीर जैन मन्दिर ११८५ ई० में निर्मित हुआ था। सम्भवतः यह पहले भी अस्तित्व में था। ११८५ ई० के अभिलेख में उल्लेख है कि पूनिग एवं अन्य श्रावकों ने ब्रह्माणक गच्छ के महावीर मन्दिर में पद्मशिला बनवाई। यहाँ कुबेर को सुन्दर तराशी हुई प्रतिमा भी है। सभामण्डप के पूर्वी स्तम्भ युक्त क्षेत्र में ११८५ ई० में तराशी हुई छत निर्मित करवाई गई थी। इसमें केन्द्रीय आकृति गजलक्ष्मी है, जिसपर हाथी जल उँडेल रहे हैं । १२९४ ई० में, मदाहद के निवासी पद्मसिंह ने, यहाँ ब्रह्माणक गच्छ के मन्दिर के लिये, जैन प्रतिमाओं का एक जोड़ा बनवाया । हेमतिलक सूरि ने १३८९ ई० में, इस गच्छ के पूर्व भट्टारकों के कल्याणार्थ, इस मंदिर में एक रंगमण्डप निर्मित करवाया। भूतपूर्व सिरोही राज्य के महारावल शिवसिंह को महावीर की कृपा से राजगद्दी मिली थी, अतः उन्होंने इस मन्दिर को आधा वीरवाड़ा गाँव एवं बहुत सी जमीन अर्पण की थी। उनकी विशाल हाथी से उतरी अंजलिबद्ध खड़ी प्रतिमा आज भी मुख्य मंदिर के सामने है ।। यहाँ के महावीर मन्दिर को कलात्मकता व शिल्प तो दर्शनीय है ही, पर इसकी शृंगार चौकी, खेला मंडप एवं प्रदक्षिणा में उत्कीर्ण मानसी की खुदाई बहुत प्रभावशाली है । मुख्य मन्दिर के बाहर अभय मुद्रा में खड़े गौतम स्वामी एवं सुधर्मा स्वामी की मूर्तियाँ बहुत ही आकर्षक हैं एवं मूर्तिकला का प्रतिमान स्थापित करती हैं । यहाँ पर महावीर के पूर्व २७ भवों का पोरबन्दर के पत्थर पर श्रेष्ठ उत्कीर्णन हुआ है। राजसभा, महल, साधु-विहार एवं वानस्पतिक वैभव, सुन्दर ढङ्ग से उकेरे हुए हैं। इस कुराई एवं रंगकारी को काँच से ढंक दिया गया है। इस मन्दिर के परकोटे में ही ११९२ ई० १. अंचलगच्छीय पंचप्रतिक्रमणसूत्र, पृ० ८१ । २. अप्रजैलेस, पृ० ११० । ३. जैन तीर्थ सर्व संग्रह, पृ० ३०७ । ४. अप्रजैलेस, क्र० ११२ । ५. वही, क्र० ११३ । ६. असावे, पृ० २८ । ७. वही। Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन तीर्थ : २२७ का, परमार धारावषं द्वारा निर्मित, धारेश्वर महादेव का मन्दिर है, जिसकी पूजा, जैन मन्दिर की तरफ से होती है । धर्म समन्वय का यह सुन्दर उदाहरण है । ( ३५ ) चन्द्रावती तीर्थ : चन्द्रावती, जो एक प्राचीन नगर था, आब के निकट, बनास नदी के किनारे अवस्थित है । इसके प्राचीन नाम, "चट्टावली", "चड्ढाउली", "चढाउलि", आदि थे । अपने समद्धि काल में यह विशाल नगर था और वर्तमान कई ग्राम जैसे-दत्ताणी, किवेरली, खराड़ी, शान्तपुरा आदि इसके भाग थे। विस्तृत क्षेत्र में बिखरे हुए मंदिरों, तोरणों, प्रतिमाओं और इमारतों के भग्नावशेष इसके विगत वैभव के प्रमाण हैं। नगर का वैभव काल, १०वीं से १५वीं शताब्दी रहा होगा, जबकि यह देवड़ा चौहानों और परमारों की राजधानी था। चन्द्रावती में प्रारम्भ से ही जैन तीर्थ होने के कारण जैन सन्त एवं विद्वान आते रहते थे। उनकी कृतियां नगर के भूतकालीन वैभव पर अच्छा प्रकाश डालती हैं। जिनसेन सूरि कृत "सकल तीर्थ स्तोत्र" में इस तीर्थ का भी उल्लेख है ।२ जिनप्रभ सूरि द्वारा १३८९ ई० में रचित "विविध तीर्थकल्प" में यहाँ के चन्द्रप्रभु मन्दिर का वर्णन है और नगर को श्री सम्पन्न वणित किया गया है।3 मेघ द्वारा १४४३ ई० में रचित "तीर्थमाला" में नगर की सम्पन्नता का वर्णन किया गया है और इसकी लंका से तुलना की गई है। मेघ के अनुसार यहाँ लगभग १८०० जैन मन्दिर थे और उनमें प्रमुख मन्दिर ऋषभ का था । १४४६ ई० में सौधर्म द्वारा लिखी गई "उपदेश सप्तति" में वर्णित है कि चन्द्रावती में ९९९ शिव मन्दिर और ४४४ जैन मन्दिर थे।" शीलविजय ने भी, १६८९ ई० में लिखी "तीर्थमाला" में यहां पर १८०० सुन्दर जैन मन्दिर होने का सन्दर्भ दिया है, जो विमल के काल में अस्तित्व में थे। ये कथन सिद्ध करते हैं कि यहाँ भूतकाल में अत्यधिक जैन मन्दिर थे । पद्मसेन सूरि से पूर्व हुए आचार्य, जो कि १२३५ई० में जीवित थे, ने चन्द्रप्रभु का जैन मन्दिर बनवाया था। पेथड़ कुमार और संघाराम जो मालवा के सुल्तान के मन्त्री थे, ने भी अपनी तीर्थयात्रा के मध्य १४वीं व १५वीं शताब्दी में यहां जैन मन्दिर निर्मित करवाये थे। १. एसिटारा, पृ० ३४१ । २. गाओसि, ७६, पृ० १५६ । ३. वितीक, पृ० १६ एवं ८५ । ४. जैन तीर्थ सर्व संग्रह, १, पृ० २७९ । ५. वही, २, पृ० ४-५ । ६. वही, १, पृ० २७९ । ७. एसिटारा, पृ० ३४५ । ८. पीटरसन रिपोर्ट, १,२०, पृ० ११ । Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२८ : मध्यकालीन राजस्थान में जैनधर्म धार्मिक गतिविधियों के आधिक्य के परिणामस्वरूप, चौहान व परमार शासकों के अन्तर्गत, कला एवं साहित्य की अत्यधिक प्रगति हुई और चन्द्रावती कला केन्द्र बन गया था। यहां बड़ी संख्या में मन्दिर, द्वार, तोरण एवं प्रतिमाएँ थीं। यह सम्पन्न नगर मुस्लिम सेनाओं द्वारा हमेशा लूटा जाता रहा और कालक्रम में परित्यक्त एवं नगण्य जनसंख्या वाला अधिवास रह गया । १०३८ ई० में धनेश्वर सूरि ने प्राकृत में “सुर सुन्दरी कथा" यहीं पर लिखी ।" १२४६ ई० में अजितप्रभ सूरि द्वारा रचित "शांतिनाथ चरित्र" की प्रशस्ति से ज्ञात होता है कि चन्द्र गच्छ के विजय सिंह सूरि की "उपदेशमालावृत्ति" और पंचाशक वृत्ति" की प्रतियाँ क्रमशः ११८६ ई० और १२३१ ई० में रची गई थीं । १२५६ ई० में उदय सूरि ने चन्द्रावती के रावल धन्धुक के दरबार में अपने प्रतिद्वन्द्वियों को शास्त्रार्थ में हराया। उन्होंने यहाँ “पिण्डविशुद्धि विवरण", "धर्मविधि वृत्ति" और "चैत्यवंदन दीपिका" भी लिखी। चन्द्रावती में विशाल संख्या में श्रावक रहते थे, जिनमें से कइयों को महत्त्वपूर्ण पद भी प्राप्त थे। लूणगवसहि के निर्माता तेजपाल को पत्नी अनुपमादेवी चन्द्रावती के श्रेष्ठी घरणिग की पुत्री थी । महामात्य तेजपाल ने खीबा सिंह, आबासिंह और ऊदल नाम के अपने तीन सालों को मन्दिर का ट्रस्टी बनाया था । १२३० ई० के अभिलेख से ज्ञात होता है कि यहाँ के श्रावकों ने आबू के अष्ट दिवसीय वार्षिकी समारोह में भाग लिया था । ( ३६ ) मीरपुर तीर्थ : मीरपुर तीर्थ, अनादरा-सिरोही मार्ग पर सिरोही से २० कि० मी० दूर है । सिरणवा पहाड़ की गोद में तीन तरफ पहाड़ों से घिरा हुआ, यह सिंह दुर्ग की परिकल्पना प्रस्तुत करता है । प्राचीनकाल में इसका नाम "हमीरपुर" था। यहाँ मुख्य मंदिर के अलावा चार मन्दिर और हैं । हमीरपुर की स्थापना ७५१ ई० में हुई थी। प्राचीन तीर्थमालाओं में इसका नाम "हमीरगढ़" मिलता है। ज्ञानविमल सूरि द्वारा १. अबुदाचल प्रदक्षिणा, पृ० ४३ । २. वही। ३. वही । ४. जैसासइ, पृ० २४०-३३० । ५. गाओसि, ७६, पृ० २३, ९८, २०८ । ६. जैसाइस, पृ० ४३४-६३८ । ७. एइ०८, पृ० २१७ । ८. वही, पृ० २२० । ९. वही, पृ० २०६ । १०. असावै, पृ० ३२ । Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन तीर्थ : २२९ मूलनायक के १६९८ ई० में रचित तीर्थमाला में यहाँ चार मंदिर होने का वर्णन है । अशोक के पौत्र सम्प्रति ने हमीरगढ़ में “पार्श्वनाथ का मन्दिर" बनवाया था । इस मन्दिर का जीर्णोद्धार ७६४ ई० में प्राग्वाट मन्त्री, सामन्त ने करवाया एवं आचार्य श्री ने उसकी प्रतिष्ठा की । इस कला मन्दिर की खुदाई, पीठिका की गजमाल और प्रत्येक पाषाण की कलात्मकता को देखकर यह सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है कि यह मन्दिर जगत्प्रसिद्ध देलवाड़ा के मन्दिर एवं रणकपुर के त्रैलोक्य दीपक धरणी विहार से प्राचीन है एवं उनके निर्माण का आदर्श रहा है । १४वीं शताब्दी में यह नगर अपने वैभव के लिए प्रसिद्ध था । मूल मंदिर की दीवारों पर १४९३ ई० से १४९९ ई० तक के ८ लेख खुदे हुए हैं, जिससे इसकी प्राचीनता सिद्ध होती है । शिलालेखों से ज्ञात होता है कि इस मन्दिर में रूप में पहले " जीरावला पार्श्वनाथ" की मूर्ति की स्थापना हुई थी । १६१० ई० में रचित "गौड़ी पार्श्वनाथ स्तवन" में इस गाँव का नाम मीरपुर एवं मूलनायक पार्श्वनाथ लिखा हुआ है । १४९९ ई० के पश्चात् किसी कारणवश यहाँ की गौड़ी पार्श्वनाथ की मूर्ति बम्बई के पायधुनी समाज में स्थित गौड़ी पार्श्वनाथ के मन्दिर में स्थापित की गई, ऐसी जनश्रुति है । १८वीं शताब्दी से ही यह नगर उजड़ना शुरू हो गया और यहाँ के श्रावक सिरोही एवं गुजरात चले गये । यहाँ के बावन जिनालय मन्दिर में वर्धमान सूरि द्वारा स्थापित दो खड्गासन प्रतिमाएँ हैं, जिन पर १२८९ ई० के लेख हैं । जिनचौबीसी के एक संगमरमर के पट्ट पर १९६२ ई० का एक लेख है । यह मन्दिर बहुत कलात्मक बना हुआ है । " एन्साइक्लोपीडिया ऑफ वर्ल्ड आर्ट” में विश्व के कलात्मक मन्दिरों में इसका उल्लेख है । ૪ ( ३७ ) नरहद तीर्थं : नरहद, झुंझुनू जिले में पिलानी से ८ कि० मी० दूर अवस्थित है । इसका प्राचीन नाम " नरभट" था ।" यहाँ के मन्दिरों और प्रतिमाओं के भग्नावशेषों को देखकर स्पष्ट प्रतीत होता है कि प्राचीन काल में यह एक समृद्ध बस्ती थी । " खरतर गच्छ पट्टावली" में नरहद को वागड़ प्रान्त का महत्त्वपूर्ण नगर बताया गया है । ६ १४वीं शताब्दी के १, जैसंशो, १, अंक ३, पृ० ८ । २. असाव, पृ० ३२ । ३. वही । ४. वही, पृ० ३३ ॥ ५. एसिटारा, पृ० ३२३ | ६. खबगु, पृ० ६५ ॥ Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३० : मध्यकालीन राजस्थान में जैनधमं २ आचार्य विनयप्रभ सूरि ने अपने 'तीर्थयात्रा उपवन" में इस स्थान के पार्श्वनाथ बिम्ब का वर्णन करते हुए, इस तीर्थ का उल्लेख किया है ।" यहाँ पर चौहानों के शासनकाल में जिनदत्त सूरि ने पार्श्वनाथ की एक नौफणी प्रतिमा स्थापित की थी, जो कालक्रम में एक चामत्कारिक मूर्ति सिद्ध हुई और यह स्थान जैन तीर्थ के रूप में प्रसिद्ध हुआ । इस क्षेत्र से उत्तर गुप्त काल की नेमिनाथ और शांतिनाथ की दो प्रतिमाएँ खोजी गई हैं | इससे सिद्ध होता है कि यहाँ जैन मत प्राचीनकाल से ही अस्तित्व में था । १३१८ ई० में यहाँ के श्रावकों ने नागौर में जिनचन्द्र सूरि के तत्वावधान में हुए " नन्दि महोत्सव" में भाग लिया था । पूर्व मध्यकाल में यहाँ विभिन्न क्षेत्रों से तीर्थयात्री आते रहते थे । जिनचन्द्र सूरि के साथ १३१८ ई० में हस्तिनापुर जाने वाला बृहद् यात्रा संघ यहाँ भी दर्शनार्थ एवं पूजार्थं रुका था, जिसका भव्य स्वागत किया गया था । " कुछ स्थानीय श्रावक भी इस संघ में तीर्थ यात्रा के लिए शामिल हो गये थे । १३१९ ई० में दिल्ली से मेड़ता लौटते समय जिनचन्द्र सूरि नरहद में रुके थे । १३२३ ई० में उज्जयन्त आदि तीर्थों की यात्रा पर जाते समय जिनकुशल सूरि नरहद में, जिनदत्त सूरि द्वारा १२वीं शताब्दी में प्रतिष्ठित पार्श्वनाथ प्रतिमा के दर्शन के लिए रुके थे ।७ नरहद का पार्श्वनाथ मन्दिर सम्भवतः फिरोज तुगलक के द्वारा हिसार का किला स्थापित करवाते समय, १४वीं शताब्दी में ध्वस्त किया गया था ' ( ३८ ) आरासण तीर्थ : इसका नाम कुम्भेरिया तीर्थं भी है । कुम्भेरिया गाँव का असली नाम आरासण था, जिसकी पुष्टि प्राचीन शिलालेखों में भी होती है । यह अर्बुद मण्डल की तलहटी में है | यहाँ पाँच भव्य मन्दिर हैं । नेमिनाथ का मन्दिर सबसे बड़ा है । इसका शिखर उन्नत एवं प्रशस्त है । मन्दिर के तोन दरवाजे हैं । इसमें तीर्थकर नेमिनाथ की श्वेत संगमरमर की १६१८ ई० के लेख वाली प्रतिमा है, जिसके उपकेश गच्छीय विजयदेव सूरि द्वारा प्रतिष्ठा किये जाने का उल्लेख है । इस मन्दिर में कई मूर्तियाँ हैं और कुछ १. जैसप्र १७, पृ० १५ । • २. खबुगु, पृ० ७२ । ३. इए रिपोर्ट, १९५६-५७ । ४. खबुगु, पृ० ६५ । ५. वही । ६. वही, पृ० ७२ ॥ ७. एसिटारा, पृ० ३२५ । ८. वही । ९. जैन तीर्थ गाइड, पृ० १०६ । Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जेन तीर्थ : २३॥ १२८८ ई० में परमानंद सूरि द्वारा प्रतिष्ठित भी हैं। यहां मंडप की शृंगार चौकी के स्तंभ पर १२५३ ई० का लेख है।' दूसरा मन्दिर महावीर का है, इसकी रंग मण्डप की छत पर उत्कृष्ट कारीगरी है। परिक्रमा में २४ देवालय हैं। मूलनायक को श्वेत संगमरमर प्रतिमा पर १६१८ ई० का लेख है, इसमें भी विजयदेव सूरि का उल्लेख है।' रंगमण्डप के रिक्त ताकों में कुछ लेख अंकित है, किन्तु अक्षर मिट जाने से केवल १०९१ ई० ही स्पष्ट दिखाई देता है। तृतीय, शांतिनाथ मन्दिर में १६ देवालय हैं, जिनमें १०८९ ई० व १०८१ ई० के विभिन्न लेख खंडित एवं घिसे हए हैं। यहाँ की शान्तिनाथ प्रतिमा सम्प्रति कालीन बतायी जाती है। चतुर्थ, गौड़ी पार्श्वनाथ के मन्दिर में १३०८ ई० की मूर्ति है, किन्तु मन्दिर की वेदी पर ११५९ ई० का लेख है। परिक्रमा के अंतिम देवालय पर ११०४ ई० का लेख है, जो घिस चुका है व अस्पष्ट है । पाँचवाँ मन्दिर संभवनाथ का है।४ (३९) घंघाणी तीर्थ : यह जोधपुर से २२ मील दूर है। यह पहले "अर्जुन-पुर" के नाम से विख्यात था। यहाँ सम्राट् सम्प्रति द्वारा बनवाया हुआ पद्मप्रभु का २२०० वर्ष पुराना मन्दिर बताया जाता है। भूमि से ७२ फीट ऊँचा एवं तालाब के किनारे होने से इसकी शोभा अनुपम है। कुछ वर्षों से इसकी व्यवस्था जोधपुर संघ ने संभाल रखी है, यहाँ प्रतिवर्ष चैत्र कृष्ण नवमी को मेला लगता है। यहां से ८८० ई० के लेख युक्त एक तीर्थकर आदिनाथ की प्रतिमा खोजी गई ।" अभिलेख के अनुसार इस मूर्ति की प्रतिष्ठा उद्योतन सूरि के शिष्य वच्छलदेव के द्वारा करवाई गई थी। यह राजस्थान की महत्त्वपूर्ण कलात्मक जैन प्रतिमाओं में से एक है । निकट के घांघाणक स्थान पर भी चौहान कालीन जैन स्मारक हैं । यहाँ से प्राप्त ११८४ ई० के अभिलेख में महावीर के वर्षाग्रन्थि के उत्सव के निमित्त भण्डारी गुणधर द्वारा मण्डोर की मण्डपिका से आधा द्रम प्रति माह देने का उल्लेख है।६ ११९२ ई० के अन्य अभिलेख में भी जैन मन्दिरों को दिये गये अनुदान का उल्लेख है। १. जैन तीर्थ गाइड । २. वही। ३. वही, पृ० १०७ । ४. वही, पृ० १०९। ५. नाजैलेस, २, क्र० १७०९। ६. प्राजैलेस, २, क्र० ४२९ । ७. जरनल ऑफ एशियाटिक सोसाइटी ऑफ बेंगाल ( एन० एस० ) १९१५ । Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३२ : मध्यकालीन राजस्थान में जैनधमं (४०) मुछाला महावीर तीर्थं ( घाणेराव ) : घाणेराव कस्बे से तीन मील दूर, जंगल में प्रकृति की गोद में, यह प्राचीन एवं सुरम्य तीर्थ स्थित है। यहां के महावीर मन्दिर में महावीर की एक अतिशय युक्त सुन्दर मूर्ति है । मन्दिर में गर्भगृह, गूढमण्डप, त्रिकमण्डप, रंगमण्डप, पट्टसलिका एवं २४ देवकुलिका । यह मन्दिर मुछाला महावीर के नाम से प्रसिद्ध | मन्दिर के समतल वितानों पर मानवाकृतियाँ, पुष्प, पत्तियाँ एवं घनाकृतियों का सुन्दर उत्कीर्णन है । स्थापत्य शैली एवं अभिलेखीय साक्ष्य के अनुसार यह मन्दिर १०वीं शताब्दी या उससे पूर्व का होना चाहिये । यहाँ से प्राप्त प्राचीनतम अभिलेख ९७६ ई० का है, जो गूढ़ मण्डप की छत में उत्कीर्ण है । दूसरा अभिलेख ११५७ ई० का है, जिसमें श्रीवंशीय माण्डव गोत्र के यशोभद्रसूरि सन्तानीय अनुयायी मन्त्री सौहार द्वारा, प्रीति सूरि के तत्त्वावधान में पबासन बनवाने का उल्लेख है । २ (४१) बरकाणा तीर्थ : यह गोडवाड़ की पंचतीर्थी का एक महत्त्वपूर्ण एवं प्राचीन तीर्थं है । यहाँ का जैन मन्दिर प्राचीन है, किन्तु बार-बार के जीर्णोद्धार से इसका रूप पूर्णतः परिवर्तित हो चुका है । प्राचीन अवशेषों में, नवचौकी के एक स्तम्भ पर चौहान काल का एक ११५४ ई० का अभिलेख है, जिसकी भाषा अस्पष्ट एवं घिस जाने के कारण पढ़ने योग्य नहीं है, किन्तु संवत् का स्पष्ट उल्लेख होने से यह मन्दिर १२वीं शताब्दी का निर्मित प्रतीत होता है । इस मन्दिर के मूलनायक पार्श्वनाथ हैं । सर्वराज गणि ने १४९२ ई० में रचित " आनन्द सुन्दर ग्रन्थ " में " बरकाणा पार्श्व प्रसन्नो भव" लिखा है, जिससे स्पष्ट है कि यह लोकप्रिय एवं सर्वपूज्य प्रतिमा थी । यहाँ मेवाड़ के महाराणा जगतसिंह प्रथम व द्वितीय के शासन काल के दो अभिलेख हैं ।४ १६२९ ई० के अभिलेख में महाराणा द्वारा यहाँ सम्पन्न होने वाले मेले के अवसर पर पौष बुद्धि ८ से ११ तक तीर्थ यात्राओं को कर से मुक्त रखने का उल्लेख है । यह एक ५२ जिनालय वाला मन्दिर है, जिसके बाहर ही प्रस्तर के दो विशाल हाथी हैं, अन्दर चौक में भी प्रस्तर की विशाल हस्ति प्रतिमा है । इस क्षेत्र में १७४९ ई० के तीन शिलालेख भी हैं ।" चौकी में ही गजारूढ़ सेठ सेठानी की भी प्रतिमा है, जो संभवतः मन्दिर का जीर्णोद्धार करवाने वाले रहे १. श्री जैप्रलेस, क्र० ३२३ । २. वही, क्र० ३२४ । ३. जैन तीर्थ सर्व संग्रह, १, खण्ड १ । ४. संबोधि ८, पृ० ८३, ८२ । ५. जैन तीर्थं गाईड, पृ० १३५ । Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन तीर्थ : २३३ होंगे । मन्दिर को मूल नायक पार्श्वनाथ प्रतिमा अनुश्रुतियों के अनुसार सम्प्रति कालीन बतायी जाती है, किन्तु इसका परिकर १६५० ई० का निर्मित है।' मन्दिर में लगभग २०० प्रतिमाएँ हैं ।२ (४२) करेडा पार्श्वनाथ तीर्थ : __मेवाड़ की पंचतीर्थी का यह पार्श्वनाथ तीर्थ, भोपाल सागर स्टेशन से लगभग १ मील दूर, ५२ जिनालय वाला एक विशाल मन्दिर है । अपने स्थापत्य वैशिष्ट्य के कारण यह मेवाड़ के महत्त्वपूर्ण मन्दिरों में से है। इस विशाल मन्दिर की संरचना अन्य श्वेताम्बर जैन मन्दिरों की तुलना में भिन्न है, क्योंकि इसमें त्रिक मण्डप, रंग मण्डप आदि नहीं हैं। इसमें एक गर्भगृह, एक गूढ मण्डप, दो बेदियाँ, उनके सम्मुख बरामदे, सभा मण्डप तथा गोलाकार प्रदक्षिणा है। सम्पूर्ण मन्दिर संगमरमर का निर्मित है, जो १०वीं शताब्दी के पूर्व का प्रतीत होता है। यहाँ की एक धातु प्रतिमा से ७वीं शताब्दी का लेख प्राप्त हुआ था, किन्तु वह प्रतिमा अब द्रष्टव्य नहीं है। श्याम पार्श्वनाथ की प्रतिमा पर ९८२ ई० का अभिलेख उत्कीर्ण है। इसके अनुसार इस प्रतिमा की प्रतिष्ठा सांडेरक गच्छ के यशोभद्र के शिष्य श्यामाचार्य ने करवाई थी। ऐसा प्रतीत होता है कि १२वीं शताब्दी के पूर्व तक यह मूलतः दिगम्बर मन्दिर था, क्योंकि मरम्मत के दौरान पुराने पलस्तर के नीचे कतिपय नग्न तीर्थकर प्रतिमाएं देखने को मिली हैं।" १३७४ ई० में खरतर गच्छ का एक विशाल महोत्सव यहाँ आयोजित हुआ था। १२६९ ई० के सेवाड़ी से प्राप्त अभिलेख" में मन्दिर की व्यवस्था के निमित्त नाडौल की मण्डपिका से एक निश्चित राशि के अनुदान का उल्लेख है । एक गुर्वावली से प्राप्त जानकारी के अनुसार पेथड़ कुमार ने यह एक मन्दिर बनवाया था। उसका पुत्र झांझण इसे सतमंजिला बनवाना चाहता था, किन्तु तीन मंजिल ही पूर्ण हो पाई। इसके गूढ़ मण्डप में काले संगमरमर की १५९९ ई० के लेख युक्त पार्श्वनाथ प्रतिमा है । महाराणा -सरूपसिंह के समय में भी मन्दिर का बृहद जीर्णोद्धार हुआ था। १. जैन तीर्थ गाइड । २. वही। ३. नाजैलेस, २, क्र० १९०५ । ४. वही, क्र० १९४८ । ५. वीरवाणी का एक लेख । ६. विज्ञप्ति लेख संग्रह, पृ० १२-१४ । ७. प्राजैलेस, २, क्र० ३३० । ८. जैन तीर्थ सर्व संग्रह, २, पृ० ३४४ । ९. वही। Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३४ : मध्यकालीन राजस्थान में जैनधर्म (४३) नांदिया तीर्थ : यह तीर्थ मारवाड़ की छोटी पंचतीर्थी के अन्तर्गत है। नान्दिया ग्राम, सज्जनपुर रोड रेलवे स्टेशन से ६ मील दूर है। इसके प्राचीन नाम साहित्यिक स्रोतों के अनुसार "नन्दिग्राम", "नन्दिपुर" एवं "नन्दिवर्द्धनपुर" मिलते हैं । गांव के चातुर्दिक पहाड़ हैं। गांव के उत्तर में महावीर का एक विशाल मन्दिर है, जिसमें १०७३ ई० का प्राचीनतम अभिलेख है। इस लेख में नान्दियक चैत्य के पास शिवगण द्वारा एक कुंआ निर्मित करवाने का उल्लेख है। इससे स्पष्ट प्रमाणित होता है कि यह मन्दिर १०७३ ई० से पूर्व भी अस्तित्व में था। मन्दिर के सभा मण्डप के एक स्तम्भ पर उत्कीर्ण ११४४ ई० के लेख में श्रेष्ठी निम्बा और भेपा द्वारा इस स्तम्भ को निर्मित करवाने का उल्लेख है। १३७९ ई० में रचित "पार्श्वनाथ चरित्र" में नान्दिया के महावीर मन्दिर की उत्कृष्ट निर्माण योजना का उल्लेख है। यहीं के दूसरे शान्तिनाथ के मन्दिर में पार्श्वनाथ की धनेरा से लाई गई ११५४ ई० के लेख युक्त प्रतिमा है । यहाँ के महावीर व शान्तिनाथ दोनों जिनालयों से ११९६ ई०, १४३६ ई०, १४६४ ई०, १४७१ ई०, १४७२ ई०, १४८८ ई० आदि के कई लेख उपलब्ध होते हैं । (४४) दियाणा तीर्थ : यह भी मारवाड़ की छोटी पंचतीर्थी का तीर्थ है, जो "जीवितस्वामी" से सम्बन्धित माना जाता है। यह ग्राम भी अर्बुद क्षेत्र का प्राचीन स्थल है, जहाँ जैनधर्म का अच्छा वर्चस्व रहा। यहाँ का मूल मन्दिर शान्तिनाथ को समर्पित था, किन्तु इसमें वर्तमान में ९६७ ई० की महावीर प्रतिमा प्रतिष्ठित है। यह तीर्थ कई शताब्दियों से निरन्तर पूजित रहा है और कई जैनाचार्यों ने यहाँ चातुर्मास काल व्यतीत किया है। यहाँ के ९५४ ई० के कायोत्सर्गस्थ प्रतिमा लेख से ज्ञात होता है कि सनड़ की भार्या नयना बाई, पुत्र वासिया, उसकी भार्या वयजल देवी व पुत्र लक्ष्मण सिंह ने पार्श्वनाथ का युग्म बिम्ब बृहदगच्छीय परमानन्द सूरि के शिष्य यक्षदेव सूरि के द्वारा प्रतिष्ठित करवाये थे। (४५) अजारी तीर्थ : मारवाड़ की छोटी पंचतीर्थी का यह तीर्थ भी जैन मान्यताओं में प्राचीन काल से १. अप्रजैलेस, क्र० ४५२ । २. वही, क्र० ४५३ । ३. जैन तीर्थ सर्व संग्रह, १, खण्ड २ । ४. अप्रजैलेस, क्र० ४५५ से ४६९ । ५. श्री जैप्रलेस, क्र० ३३१ । Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन तीर्थ : २३५. ही महत्त्वपूर्ण माना जाता रहा है। अजारी तीर्थं पिंडवाड़ा से ५ कि० मी० दूर है । यहाँ पर जैन व हिन्दू मन्दिरों के विस्तृत भग्नावशेष हैं, जिससे प्रतीत होता है कि प्राचीन समय में यह बड़ा नगर था । यहाँ के जैन मन्दिर से ९६९ ई० से १३९७ ई० तक के कई अभिलेख प्राप्त होते हैं, जिनसे प्रकट होता है कि इस तीर्थ को जैन धर्मावलम्बियों में महत्त्वपूर्ण मान्यता थी । १३९७ ई० में पिप्पलाचार्य गच्छ के वाचक सोम प्रभ सूरि ने इस मन्दिर में सुमतिनाथ की प्रतिमा निर्मित करवाई थी । " (४६) लोटाणा तीर्थं : विजयराजेन्द्र सूरि द्वारा सिरोही क्षेत्र से संग्रहीत अभिलेखों के, दौलत सिंह लोढ़ा द्वारा सम्पादित ग्रन्थ में इस तीर्थं का उल्लेख है । यहाँ से चार अभिलेख प्राप्त हुये हैं | शान्तिनाथ पंचतीर्थी का १०५४ ई० का लेख प्राचीनतम है, जिसमें उपकेश गच्छीय देवगुप्त सूरि का भी उल्लेख है । 3 इससे सिद्ध होता है कि यहाँ का जिन मन्दिर पूर्व के मध्यकाल में भी अस्तित्व में रहा होगा । १०७३ ई० के प्रतिमा लेख से निवृत्ति कुल श्रीनन्द और आसपाल द्वारा शेखर सूरि के माध्यम से पार्श्वनाथ की दो प्रतिमाएँ प्रतिष्ठित करवाने का उल्लेख है । मण्डप में स्थापित वर्धमान की सपरिकर प्रतिमा के १०८७ ई० के लेख में देवाचार्य द्वारा प्रतिष्ठा करवाने का उल्लेख है ।" १८१२ ई० का लेख ऋषभदेव की पादुका पर अंकित देखने को मिलता है । (४७) झालरा पाटन तीर्थं : श्री शान्तिनाथ दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र झालरापाटन, झालावाड़ जिला मुख्यालय से ५ मील दूर है । झालरापाटन का प्राचीन नाम "चन्द्रावती" था, जो काली सिंध की सहायक नदी चन्द्रभागा पर अवस्थित था । विभिन्न पुरातात्त्विक अवशेषों से सिद्ध हुआ है कि यह एक पुरातन नगर था, किन्तु प्राप्त प्रमाणों एवं भग्नावशेषों के आधार पर यह छठी या ७वीं शताब्दी से अधिक प्राचीन नहीं है ।" यह स्थान प्रारम्भ से ही शैववैष्णव व जैन तीर्थं रहा है । " १. जैइरा, पृ० ८९ । २. श्री जैप्रलेस, पृ० १९ । ३. वही, क्र० ३२१ । ४. वही, क्र० ३१८ । ५. वही, क्र० ३२० । ६. वही, क्र० ३१९ । ७. एसिटारा, पृ० १३१ । ८. वही, पृ० १३४ ॥ Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३६ : मध्यकालीन राजस्थान में जैनधमं यहाँ शहर के मध्य विस्तृत परिसर में शान्तिनाथ का भव्य मन्दिर है, जिसमें शान्तिनाथ की १२ फुट ऊँची सौम्य एवं सातिशय खड्गासन प्रतिमा है । इस मन्दिर का निर्माण १०४६ ई० में शाह पापा हूमड ने करवाया था और उसकी प्रतिष्ठा भावदेव - सूरि से करवाई थी । ' सातसलाकी पहाड़ी पर स्थित स्तम्भ के ११०९ ई० के शिलालेख में श्रेष्ठी पापा की मृत्यु का वर्णन मिलता है । सम्भवतः ये श्रेष्ठी पापा हो शान्तिनाथ मन्दिर के निर्माता थे । प्राचीन काल में इस मन्दिर की बहुत ख्याति थी । अनेक श्रावक एवं मुनि दर्शनों के लिये आते रहते थे । १०४७ ई० के एक शिलालेख में एक यात्री के • नाम का उल्लेख मिलता है । उपरोक्त मन्दिर के स्थान पर ही वर्तमान मन्दिर का निर्माण हुआ है । मूलनायक शान्तिनाथ की मूर्ति प्राचीन मन्दिर की ही मूर्ति है और • इसकी प्रतिष्ठा ११०३ ई० में हुई थी, ऐसा विश्वास है, क्योंकि इस मूर्ति का लेख पढ़ा नहीं जा सका है । मन्दिर के द्वार पर विशाल श्वेत वर्ण हाथी बने हुये हैं । इतने विशाल पाषाण गज अन्यत्र देखने को नहीं मिलते हैं । यहाँ हस्तलिखित ग्रन्थों का एक विशाल शास्त्र भण्डार भी है, जिसमें अनेक अप्रकाशित एवं दुर्लभ ग्रन्थ हैं । मन्दिर के बाहर - तीनों ओर बने बरामदे में १५ वेदियाँ हैं, जिन पर कई प्रतिमाएँ आसीन हैं । मन्दिर में कुछ प्राचीन प्रतिमाएँ १४३३ ई०, १४३५ ई०, १४६७ ई०, १४७८ ई०, १५६३ ई० की हैं, जिनकी प्रतिष्ठा बलात्कार गण की ईडर शाखा के विभिन्न भट्टारकों ने करवाई थी । जैन नसिया, झालावाड़ मार्ग के किनारे विशाल परिसर में अवस्थित है । इसमें पुरानी नसिया से लाई गई एक चौबीसी है, जो बायीं ओर की वेदी पर स्थापित हल्के लाल वर्ण की पार्श्वनाथ प्रतिमा है । इसका आकार २ फीट ८ इंच है । यह प्रतिमा पाँच फुट ऊँचे व तीन फुट चौड़े एक शिलाफलक पर है । प्रतिमा के ऊपर सप्त फणावली उत्कीर्ण है । परिकर में छत्र, गज, मालाधारी देव, चमरेन्द्र, दोनों पार्श्वो में ७ पद्मासन तथा छत्र के ऊपर ८ खड्गासन प्रतिमाएँ, पद्मासन प्रतिमाओं के नीचे धरणेन्द्र और पद्मावती उत्कीर्ण है । मूर्ति का प्रतिष्ठा काल ११६९ ई० का है । दायीं वेदी पर मूल नायक पार्श्वनाथ की १ फुट ९ इंच अवगाहना की और १४८८ ई० में प्रतिष्ठित श्वेत वर्ण की पद्मासन प्रतिमा । इसके अलावा १६०८ ई० व १६१२ ई० की मूर्तियों सहित ७ और प्रतिमाएँ हैं । मन्दिर के बाहर ३ निषेधिकाएँ व उन पर छतरियाँ बनी हुई हैं । एक, १००७ ई० की है, जो आचार्य भावदेव के शिष्य श्रीमंत देव के निधन पर, दूसरी ११२३ ई० में आचार्य देवेन्द्र के लिये एवं तीसरी कुमुदचन्द्राचार्य आम्नाय के १. अने, १३, पृ० १२५ । २. एरिराम्युम, १९१२-१३, पृ० ७ । Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन तीर्थ : २३७ भट्टारक कुमारदेव की है, जो १२३२ ई० में देवलोक सिधारे थे।' सातसलाकी पहाड़ी के स्तम्भ का १००९ ई० का लेख नेमिदेवाचार्य व बलदेवाचार्य का उल्लेख करता है। इसी स्तम्भ पर १२४२ ई० के शिलालेख में मूलसंघ और देवसंघ का उल्लेख है। यहाँ के शीतलेश्वर महादेव मन्दिर व नगरस्थ सूर्य मन्दिर भी बहुत भव्य एवं कलात्मक हैं। (४८) केशोराय पाटन तीर्थ : केशोराय पाटन कोटा से १५ कि० मी० दुर उत्तर-पूर्व में चम्बल नदी के किनारे अवस्थित है। यहाँ स्थित तीर्थंकर सुव्रतनाथ का मन्दिर हाडौती प्रदेश का ही नहीं, अपितु राजस्थान के प्राचीनतम तीर्थों में से एक है। मूर्ति के अतिशय की ख्याति कई शताब्दियों से चली आ रही है । १२वीं शताब्दी में यह मन्दिर जैनाचार्यों की तपोभूमि व जैन धर्म एवं संस्कृति का प्रभाव केन्द्र रहा है । केशोराय पाटन केवल जैन तीर्थ ही नहीं, अपितु प्रसिद्ध ब्राह्मण तीथं भी है। इसके पूर्ववर्ती नाम-"आश्रमनगर", "आश्रम पट्टन"" और "पट्टन" थे । पूर्व नाम आश्रम नगर से प्रतीत होता है कि मूल रूप से यह स्थान पवित्र संतों की तपोभूमि रहा । सम्भवतः इसका चुनाव प्राकृतिक सौन्दर्य से अभिभूत होकर किया गया होगा। कालक्रम में नगरीय स्वरूप धारण कर लेने पर, इसका नाम आश्रम नगर या आश्रम पट्टन हो गया । चन्द्रशेखर रचित "सुर्जन चरित्र"६ से ज्ञात होता है कि अकबर के काल में यह केवल 'पट्टन" कहलाता था । १६०१ ई० में बून्दी के राजा शत्रुशाल ने यहाँ केशोराय (विष्णु) मंदिर निर्मित करवाया अतः इसका वर्तमान नाम अस्तित्व में आया। १३वीं शताब्दी के लेखक मदनकीति ने "शासन चतुस्त्रिंशटीका" में तीर्थ स्थान के रूप में इसका उल्लेख किया है। इन्होंने मुनि सुव्रत के मन्दिर की स्थापना एक शिला पर करने एवं तत्संदर्भित जैन व ब्राह्मणों के साम्प्रदायिक संघर्ष का भी वर्णन किया है। "प्राकृत निर्वाण कांड" एवं "अपभ्रंश निर्वाण भक्ति" में भी मुनि सुव्रत के जैन मन्दिर का सन्दर्भ दिया गया है। तलप्रकोष्ठ में मूलनायक स्थित होने के कारण इसे "भूतिदेवरा" भी कहते हैं । इस स्थान से खुदाई में प्राप्त एक कल्पवृक्ष पट्ट एवं अन्य जैन मूर्तियाँ, इस मन्दिर १. टॉड, एनल्स, २, पृ० ७९२ । २. एरिराम्युअ, १९१२-१३, पृ० ७-८ । ३. एसिटारा, पृ० ४१३ ।। ४. बृहद द्रव्य संग्रह टीका, वीरवाणी, स्मारिका, पृ० १०९ । ५. हम्मीर महाकाव्य, ८, पृ० १०६-१०८ । ६. सुर्जन चरित्र, ९, पृ० २२-४१ । Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३८ : मध्यकालीन राजस्थान में जैनधर्म से ही सम्बद्ध रही होंगी।' दिगम्बर जैन खण्डेलवालों के एक जागा के रिकार्ड के अनुसार, पाटण में क्षत्रिय कुल तेंवर वंशीय पृथ्वीराज शासक थे, जिन्होंने खण्डेला में जाकर "४४ ई० में श्रावक व्रत ग्रहण किया था। इन्हीं की वंश परम्परा में मोहनदास पाटणी ने "पाटण तँवरा" में मुनि सुव्रत नाथ की प्रतिष्ठा २७८ ई० में सम्पन्न करवाई थी। इसी वंश परम्परा में जीवराज के पुत्र विक्रमसिंह ने ३९८ ई० में पार्श्वनाथ की मूर्ति प्रतिष्ठित कराई । “बृहद द्रव्य संग्रह" की एक प्रशस्ति से ज्ञात होता है कि मुनि सुव्रत जैन मन्दिर में नेमिचन्द्र ने श्रेष्ठी सोमा के आग्रह पर इस ग्रंथ की रचना की, उस समय इस स्थान का शासक भोज का एक निकट सम्बन्धी श्रीपाल मंडलेश्वर के रूप में नियुक्त था। सोमा एक भांडागारिक था ।४ नेमिचन्द्र सिद्धांतिदेव ने इसी चैत्यालय में “लघु द्रव्य संग्रह" की भी रचना की। मूलनायक प्रतिमा के चमत्कारों के संदर्भ में अनेक किंवदन्तियाँ जनता में प्रचलित हैं। एक अनुश्रुति के अनुसार मुहम्मद गोरी की सेनाओं द्वारा यहाँ विध्वंस करने पर मूर्ति पर प्रहार करते समय पैर के अंगूठे से दुध की तोन धार निकली व सभी आक्रमणकारी भाग गये । अन्य एक चामत्मकारिक प्रकरण यह बताया जाता है कि एक बार प्लेग फैलने पर निवासियों द्वारा तीन चार माह के लिये नगर त्यागने के पूर्व जलाई गई जोत, बाद में भी जलती हुई मिली। अतिशय क्षेत्र का मन्दिर चम्बल तट से ४० फीट ऊँची टेकरी पर निर्मित है। ऊँचे-नीचे धरातल के कारण विस्तृत परिसर में होते हुये भी निर्माण योजनापूर्ण नहीं है । मन्दिर के बाह्य भाग में दो कमरे, दालान व दो चौकी हैं। मन्दिर के ऊपरी भाग व भूगर्भ गृह में वेदियां निर्मित हैं। ऊपर पाँच वेदियाँ हैं-प्रथम वेदी पर नेमिनाथ को श्याम पाषाण की सवा फुट पद्मासन मूर्ति १६०७ ई० की, पुष्पदन्त की श्वेत पाषाण की १४९७ ई० की मुंडासा शहर में भट्टारक जिनचन्द्र से प्रतिष्ठित प्रतिमा, ९७५ ई० में प्रतिष्ठित महावीर की श्वेत पाषाण की पद्मासन प्रतिमा तथा नन्दीश्वर जिनालय, दूसरी वेदी पर १ फुट ऊँची श्वेत वर्ण की पद्मासन महावीर प्रतिमा, १५२४ ई० को श्वेत पाषाण की चन्द्रप्रभु प्रतिमा तथा दो धातु प्रतिमाएँ, तीसरी वेदी पर पार्श्वनाथ की कत्थई वर्ण की पद्मासन प्रतिमा, १७६९ ई० की सवाई माधोपुर में प्रतिष्ठित श्वेत वर्ण की पद्मासन मूर्ति, चन्द्र प्रभु की १४९२ ई० की मूर्ति, पांच छोटी-छोटी श्याम वर्ण प्रतिमाएँ, संभवतः ७वीं या ८वीं शताब्दी की भूरे वणं के शिलाफलक में परिसर में अन्य आकृतियों सहित पद्मासन मूर्ति तथा १३६२ ई० की प्रतिष्ठित एक प्रतिमा, चौथी वेदी पर आदिनाथ की १. एसिटारा, पृ० ४१५ । २. कासलीवाल, के० पाटन, पृ० ५८-५९ । ३. वही, पृ० ५९ । ४. वीरवाणी स्मारिका, पृ० १०९ । Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जेन तीथं : २३९ कत्थई प्रतिमा और पांचवीं वेदी पर १६८९ ई० में चांदखेड़ी में किशनदास बघेरवाल द्वारा प्रतिष्ठित पार्श्वनाथ की श्याम वर्ण प्रतिमा, दो अन्य पार्श्वनाथ की प्रतिमाएँ तथा २२ धातु की छोटी-छोटी प्रतिमाएँ हैं । भूगर्भ गृह के ऊपर कलात्मक गुम्बदाकार छत्री है । सोपान मार्ग में अन्दर प्रविष्ट होने पर दाँयी भित्ति में २ फुट २ इंच के शिलाफलक पर भामंडल सहित एक मूर्ति एवं कुछ अन्य मूर्तियाँ, कुछ आगे एक वेदी पर २ फुट ६ इंच के शिलाफलक में लालवर्णी पार्श्वनाथ व अन्य खड्गासन प्रतिमाएँ, मोड़ से आगे एक शिलाफलक में ४॥ फुट ऊँची मुनि सुव्रत नाथ की सलेटी वर्ण की पद्मासन मूर्ति, अगले मोड़ के उपरान्त द्वार के भीतर प्रवेश करने पर १६ स्तम्भों पर आधारित मंडप, जिसकी बाँयी वेदी पर पद्मप्रभु को खड्गासन प्रतिमा, १२७० ई० की शांतिनाथ प्रतिमा, १२७० ई० की ही एक और प्रतिमा तथा १२९३ ई० को एक अन्य प्रतिमा तथा सामने ही २० वें तीर्थंकर मूलनायक मुनि सुव्रतनाथ की ४ फुट ५ इंच ऊँची सातिशय, श्याम पाषाण से निर्मित प्रतिमा है । इस प्रतिमा में पाषाण के भामंडल सहित सिर पर कच्छप के लांछल सहित तीन 1 छत्र, दुन्दुभि माला लिये हुये देव, यक्ष, यक्षिणी, सेवक, वरुण, नीचे शार्दूल एवं मूर्ति पर ओपदार पालिश है जो इसे मौर्य एवं कुषाण काल के बीच की सिद्ध करती है । मूर्ति की नाक, हाथ का अंगूठा और दाहिने पैर का अंगूठा क्षतिग्रस्त है । मुस्लिम विध्वंसकों की चोट के निशान स्पष्ट दिखाई देते हैं । मूलनायक सातिशय प्रतिमा के आसपास अन्य कुछ मूर्तियाँ और हैं, जिनमें तीन मूर्तियाँ १२७० ई०, १२९३ ई० एवं १२७० ई० की हैं । भोयरे में ही पद्मप्रभु को खड्गासन प्रतिमा, मरुदेवी की भामंडल सहित दुर्लभ मूर्ति आदि भी हैं । भोंयरे के बाहर एक स्तम्भ पर १६२६ ई० के लेख में उल्लेख है कि १६२६ ई० में आचार्य हर्षकीर्ति अपने संघ के साथ यहाँ तीर्थ यात्रा पर आये थे । ' (४९) चंवलेश्वर पार्श्वनाथ ( चूलेश्वर) तीर्थ : श्री चंवलेश्वर पार्श्वनाथ दिगम्बर जैन सातिशय क्षेत्र भीलवाड़ा से ४५ कि० मी० पूर्व में है । यहाँ अरावली पर्वत श्रृंखला की अनिंद्य सुषमा के अक्षय कोष के मध्य, काली घाटी में एक पहाड़ पर यह तीर्थं अवस्थित है । अनुश्रुति के अनुसार दरिबा गाँव के सेठ • श्यामा के पुत्र सेठ नथमल शाह की गाय पहाड़ पर स्वतः ही दूध गिरा देती थी । स्वप्न में मिले निर्देशों के आधार पर इस स्थान के उत्खनन से की सलेटी वर्ण की पद्मासन मुद्रा में २ फुट अवगाहन की मूर्ति निकली, तब सेठ ने मूर्ति प्रकट होने के स्थान पर ही मन्दिर निर्माण करवाया एवं ९५० ई० पंचकल्याण पूर्वक पार्श्वनाथ की मूर्ति की प्रतिष्ठा करायी । अभिलेखों से प्राप्त जानकारी के अनुसार इस पार्श्वनाथ की बलुआई पाषाण १. भादिजेती, ४, पृ० ६२-६७ ॥ Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४० : मध्यकालीन राजस्थान में जैनधर्म मन्दिर का नाम पहले चूलेश्वर था', जो बिगड़ते-बिगड़ते चंवलेश्वर हो गया। ___अतिशय क्षेत्र पहाड़ी पर है । यहाँ तीन दिशाओं से जाने के मार्ग हैं । पूर्व की ओर २५६ पक्की सोढ़ियाँ हैं। मार्ग में यात्रियों के विश्राम के लिये छत्री, पक्का तिबारा व पानी का कुण्ड भी है। सीढ़ियां चढ़ने पर समतल भूमि है, जहाँ परकोटे से आवेष्टित मन्दिर है। मन्दिर के द्वार के ऊपरी भाग में पद्मासन तीर्थंकर प्रतिमा बनी हुई है। मन्दिर में प्रवेश करने पर छोटा चौक है, जिसमें मकान व पश्चिम में एक छतरी में पाषाण के चरण युगल हैं। इसके आगे मंडप है, फिर मोहन गृह है । मोहन गृह के, प्रवेश द्वार के सिरदल पर तीन तीर्थकर प्रतिमाएँ उत्कीर्ण हैं । वेदी एक ही है, जिस पर मूलनायक पार्श्वनाथ की प्रतिमा है । इसके दाँयी ओर एक भव्य चौबीसी है। मन्दिर के निकट ही एक मस्जिद व एक महादेवजी की छतरी है। पहाड़ की तलहटी में एक जैन मन्दिर है, जिसमें पार्श्वनाथ की विशाल अवगाहना वाली खण्डित प्रतिमा है ।। (५०) चित्तौड़ तीर्थ (चित्रकूट) : अपने सुदृढ़ दुर्ग के लिए विश्वविख्यात चित्तौड़, उदयपुर से १८० कि० मी० उत्तर-पूर्व में है । यह नगर सम्भवतः गुप्तकाल में भी अस्तित्व में था। बाद में यह मोरी राजपूतों की राजधानी बना । पूर्व मध्यकाल में धर्मप्रिय राजपूत शासकों के राज्य में ब्राह्मण, शैव व जैन धर्म की बहुत प्रगति हुई। १२वीं शताब्दी में यह जैन मतावलम्बियों का पवित्र तीर्थ स्थान माना जाता था। पुरातात्त्विक अवशेषों से सिद्ध होता है कि ब्राह्मण धर्म के साथ जैन धर्म भी यहाँ अत्यधिक लोकप्रिय रहा । पाँचवीं शताब्दी में प्रसिद्ध जैन दार्शनिक सिद्धसेन दिवाकर यहां आये थे।" ८वीं शताब्दी के महान जैन सन्त, हरिभद्र सूरि का कार्य क्षेत्र व जन्म स्थान चित्तौड़ था । ७वीं शताब्दी में कृष्णर्षि ने एक व्यक्ति को साधत्व की दीक्षा दी व बाद में आचार्य बनाया।६ १२वीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में जिनवल्लभ सूरि ने विधि मार्ग के प्रचार के लिये चित्तौड़ को ही अपना मुख्यालय बनाया। उनके उपदेशों से मन्दिर स्थापित किये गये । उन्होंने वीरचत्य के प्रस्तरों पर अपने सारे चित्रकाव्य निर्मित करवाये । चैत्य की दोनों दीवारों पर उनकी "धर्म शिक्षा" और "संघ पटक" भी उकेरे गये। जिन १. भादिजैती, पृ० ८६ । २. वही, ८७ । ३. एसिटारा, २२४ । ४. गौसी, ७६, पृ० १५६ । ५. प्रभावक चरित्र, पृ० २४ । ६. उपकेश गच्छ प्रबन्ध, दृ० ६१ । ७. पीटर्सन रिपोर्ट, १८८३-८४, पृ० १५२ । Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन तीर्थ : २४१ वल्लभ सूरि के पश्चात् जिनदत्त सूरि का पट्ट समारोह १११२ ई० में यहीं सम्पन्न हुआ। इस काल में ही वादिदेव मूरि ने शास्त्रार्थ में शिवमूर्ति को पराजित किया। यह स्थान १२वीं शताब्दी में दिगम्बर भट्टारकों की गद्दी भी था। मूलसंघ पट्टावली से ज्ञात होता है कि इस स्थान पर दस उत्तराधिकारी कालक्रम में बने ।२ जब चालुक्य कुमारपाल १२वीं शताब्दी में चित्तौड़ आया, तब किले में दिगम्बर जैनियों की एक समृद्ध बस्ती थी। जब जिनप्रबोध सूरि १२७७ ई० में चित्तौड़ आये, तो राजपुत्र क्षेत्रसिंह, कर्णराज, सभासदों व ब्राह्मणों ने उनका स्वागत किया। देवेन्द्र सूरि के उपदेशों से १२७८ ई० में चित्रकूट के राजा तेजसिंह की रानी जयतल्ला देवी ने पार्श्वनाथ मन्दिर का निर्माण करवाया। मध्यकाल में जिनभद्र सूरि ने जैन धर्म की महान सेवा की और यहाँ १४ वीं शताब्दी में कई मन्दिर निर्मित करवाये । १४१५ ई० में भट्टारक शुभचन्द्र ने मूलसंघ की चित्रकूट में पुनर्स्थापना की। ___दुर्ग में कई महत्त्वपूर्ण जैन मन्दिरों का अस्तित्व मध्यकाल में था। "श्रृंगार चंवरी" के नाम से विख्यात मन्दिर को कतिपय इतिहासकारों द्वारा कुम्भा की राजकुमारी के विवाह मंडप की वेदी बताया है, किन्तु मूलतः यह जैन मन्दिर है। मूल रूप से मन्दिर का निर्माण १३वीं शताब्दी में हुआ था तथा यहाँ अष्टापद अथवा सर्वतोभद्र प्रतिमाएँ रही होंगी। इसका जीर्णोद्धार महाराणा कुम्भा के शासन काल में उनके कोषाध्यक्ष शाह कोला के पुत्र भण्डारी जातीय श्रेष्ठी वेला ने १४४८ ई० करवाया और १४५५ ई० में यहाँ अन्य श्रेष्ठियों द्वारा प्रतिमाएं स्थापित कराई गई थीं। यह मन्दिर ५ फुट ऊँचे प्रासाद पीठ पर वर्गाकार बना हुआ है । प्रवेश द्वार उत्तर या पश्चिम में है। मन्दिर में गर्भगृह, खेला मण्डप व वेदी है, जो रिक्त है। इसके बगल में ही एक मन्दिर है, जिसमें खुला गर्भगृह और ऊँची चौकी का एक मण्डप है। इसमें भी कोई मूर्ति नहीं है । इनकी बाहरी दीवारों पर तीर्थंकरों एवं शासन देवताओं की मूर्तियाँ उत्कीर्ण हैं। जैन कीर्ति स्तम्भ के निकटस्थ महावीर प्रासाद का जीर्णोद्धार गुणराज नामक श्रेष्ठी ने महाराणा मोकल के राज्यकाल में १४२३ ई० में प्रारम्भ करवाया जो १४३८ ई० में पूर्ण हुआ। “सोम सौभाग्य काव्य" से ज्ञात होता है कि जीर्णोद्धार के बाद मन्दिर की प्रतिष्ठा, सोम सुन्दर सूरि द्वारा की गई । इस देवालय के सम्बन्ध में रोचक तथ्य यह है कि यह मूलतः दिगम्बर मन्दिर था । महाराणा कुम्भा के समय तक चित्रकूट में दिगम्बर १. प्रभावक चरित्र, पृ० १७१-१८२ । २. एइ, २१, पृ० ६१ । ३. खबृगु, पृ० ५६ ।। ४. एरिराम्यूअ, १९२३, क्र० ८, पृ० ९ । Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४२ : मध्यकालीन राजस्थान में जैनधर्म सम्प्रदाय का प्रभाव समाप्त हो गया, तब श्वेताम्बर जैनों द्वारा इसका जीर्णोद्धार करवाने से यह श्वेताम्बर मन्दिर हो गया । दुर्ग पर अन्य सभी जैन मन्दिर खरतर गच्छ, अंचलगच्छ आदि के हैं, लेकिन तपागच्छ का एक मात्र यही मन्दिर था। मन्दिर की मूल शिलांकित प्रशस्ति नष्ट हो गई, किन्तु १४५७ ई० की उसकी प्रतिलिपि उपलब्ध है। यह मन्दिर अकबर के आक्रमण के समय नष्ट कर दिया गया था, अतः वर्तमान में मन्दिर का गर्भगृह एवं गढ़ मण्डप ही अस्तित्व में हैं। सम्भवतः यह मन्दिर पहले चन्द्रप्रभ मन्दिर कहलाता था, जिसका निर्माण साह जीजा ने करवाया था। कुम्भ श्याम मन्दिर के सामने, प्राचीन जैन मन्दिरों का एक समूह उपलब्ध है, जिसे "सत्तबीस देवरी" कहा जाता है। इन मन्दिरों में से कुछ कुम्भाकालीन व शेष महाराणा रायमल कालीन प्रतीत होते हैं । जीर्णोद्धार हो जाने के कारण इनकी प्राचीनता समाप्त हो गई है, फिर भी जो मूल भाग है, वह तत्कालीन कला का महत्त्वपूर्ण परिचय है । मन्दिरों की निर्माण योजना सामान्य श्वेताम्बर जैन मन्दिरों के समान है, जिनमें गर्भगृह, गूढ़ मण्डप, त्रिकमण्डप, शृंगार चौकी आदि निर्मित हैं। इनमें प्राप्त मूर्तियों में से कुछ महाराणा मोकल के काल की भी हैं । दुर्ग में ही ७५ फीट ऊँचा सात मंजिला व सर्वोपरि गन्ध कुटी रूप छतरीयुक्त कीर्ति स्तम्भ, महावीर मंदिर के सामने निर्मित है, अतः यह इस मंदिर का मान स्तम्भ रहा होगा। यह बघेरवाल जाति के खमड़वाड़ गोत्र के साह जीजा द्वारा शुरू करवाया गया और इसे उसके पुत्र पुन्यसिंह ने कुम्भकर्ण के शासन काल में अपनी पुत्री के आग्रह पर पूर्ण करवाया।' इसके नीचे का व्यास ३१ फीट तथा ऊपर जाकर यह १५ फुट रह जाता है । टॉड को स्तम्भ के अधोभाग में शिलालेख का एक खण्डित भाग प्राप्त हुआ था, जिसके अनुसार उन्होंने इसे ८९५ ई० में निर्मित एवं तीर्थंकर आदिनाथ को अर्पित होना बताया, किन्तु यह सत्य नहीं है। नान्द गाँव के दिगम्बर जैन मन्दिर की धातु प्रतिमा पर १४८४ ई० के लेख से ज्ञात होता है कि मेदपाट देश के चित्रकूट नगर में कीर्ति स्तम्भ का निर्माण चन्द्रप्रभ जिनेन्द्र के चैत्यालय के सम्मुख जीजा शाह के पुत्र पुण्यसिंह ने करवाया था। इससे स्पष्ट है कि स्तम्भ को रचना १४८४ ई० से पूर्व ही हो चुकी थी। पुण्यसिंह हम्मीर के समकालीन थे, चित्तौड़ में गुसांई जी के चबूतरे पर स्थित समाधि पर लगे खण्डित लेख से ज्ञात होता है कि मान स्तम्भ पूर्ण होने पर भट्टारक धर्मचन्द्र से प्रतिष्ठा करवाई गई, जिनका भट्टारक काल १२१४ ई० से १२३९ ई० था अतः कीर्ति स्तम्भ का निर्माण १३वीं शताब्दी के पूवाद्धं में पूर्ण हुआ माना जाना चाहिये। इस तथ्य से इसके निर्माण काल सम्बन्धी भ्रान्त धारणाओं का खण्डन १. अने, ८, पृ० १३९ । Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन तीर्थ : २४३ होता है, जैसे--- ओझा इसे १४वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध का मानते हैं ", कामता प्रसाद ८९५ ई०, टॉड ८९५ ई० व शीतल प्रसाद १०५० ई० के लगभग मानते हैं । कुछ विद्वान् इसे कुमारपाल निर्मित मानते हैं, तो कुछ इसे श्वेताम्बर स्तम्भ मानते हैं । 3 यह मानस्तम्भ शिल्पकला का अनुपम उदाहरण है । इसके चारों कोनों पर आदिनाथ की दिगम्बर मूर्तियाँ, खड्गासन, ध्यान-मुद्रा में, ५ फीट अवगाहना की स्थित हैं । बाह्य भाग में अनेक जैन मूर्तियाँ उत्कीर्ण हैं । पाषाणों के अलंकरण पारम्परिक हैं, जो उस काल में हिन्दू व जैन स्थापत्य में व्यवहृत होते थे । इनका शिल्प सौन्दर्य पश्चात् - कालीन विजय स्तम्भ से अधिक उत्कृष्ट है ।" इसकी ऊपरी छतरी बिजली गिरने से टूट गई थी, जिसे उदयपुर नरेश फतहसिंह ने ८०,००० रुपये की लागत से पुनः बनवाया था । (ब) मध्यकाल : (१) जैसलमेर की पंचतीर्थी : जैसलमेर जैन तीर्थ, प्रकारान्तर से राजस्थान का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण धर्म, कला और साहित्यिक तीर्थ है । पीत प्रस्तर के स्वर्णिम शिल्प वैभव से दीप्त जैन मन्दिर, पटुवों की हवेलियाँ, देरासर, उपाश्रय, दादास्थान आदि के अतिरिक्त इस तीर्थ का महात्म्य यहाँ की शास्त्र भण्डारीय सम्पदा से भी | इनका दर्शन तीर्थं यात्रा के समान पवित्र माना जा सकता है। धार मरुस्थल के हृदय प्रदेश में अवस्थित यह क्षेत्र, प्रारम्भ से ही राजस्थान में जैन धर्मं का गढ़ रहा । इसका श्रेय उदारमना जैन आचार्यों, राजाओं, श्रेष्ठी, श्रावकों एवं प्रजा को ही नहीं, अपितु इस क्षेत्र की मरुस्थलीय स्थिति, प्राकृतिक विषमताओं, वनस्पति, जल का अभाव एवं परिणाम स्वरूप मुस्लिम एवं अन्य आक्रामक व विध्वंसक शक्तियों के मार्ग से परे अवस्थिति, अर्थात् भौगोलिक दृष्टि से सुरक्षित स्थिति को है । इस मरुभूमि में यहाँ के कुशल शिल्पियों ने छेनी और हथौड़ी के माध्यम से नीरस पाषाणों में जिस प्रकार कला की रस धारा बहाई है, वह अद्वितीय है । कागज पर की गई कोरनी की तरह हो, यहाँ के कारीगरों ने पत्थर पर बारीक १. ओझा - उदयपुर राज्य । २. शीतल प्रसाद, मध्यभारत व राजपूताना के जैन स्मारक, पृ० १३३-१४१ । ३. जैसासइ, पृ० ४५५ । ४. जैस, ७, अंक १, पृ० २-३ । ५. गैरिक, रिपोर्ट- ट्यूर पंजाब एवं राजपूताना, २३, पृ० ११७ । ६. वासुदेव शरण अग्रवाल, भूमिका, जैसलमेर दिग्दर्शन, दीनदयाल ओझा । Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४४ : मध्यकालीन राजस्थान में जैनधर्म कोरनी का सुन्दर काम करके अप्रतिम जालियों, झरोखों एवं कला वैभव का सृजन किया है। जैसलमेर पंचतीर्थी श्वेताम्बर जैन सम्प्रदाय का बहुत बड़ा तीर्थ है। जिस प्रकार हिन्दुओं के लिये बद्रिकाश्रम एवं पुष्कर की यात्रा धार्मिक दृष्टि से महत्त्व की है, उसी प्रकार जैनियों के लिये धार्मिक उद्देश्यों की पूर्ति के हेतु लुद्रवा और जैसलमेर की यात्रा करना नितान्त आवश्यक है।' कविवर समय सुन्दर ने अपनी तीर्थमाला में विभिन्न तीर्थ स्थानों के साथ जैसलमेर की महत्ता को भी प्रकट किया है "जैसलमेर जुहारिये, दुःख वारिये रे, "अरिहंत बिम्ब अनेक, तीरथ ते नमूरे ।" जैसलमेर दुर्ग व शहर के १० जैन मन्दिर, विभिन्न देरासर व १८ उपाश्रय के अतिरिक्त ५ कि० मी० दूर अमरसर, ८ कि० मी० दूर लोद्रवपुर, १२ कि० मी० दूर ब्रह्मसर, २४ कि० मी० दूर देवीकोट तथा २५० कि० मी० दूर बरसलपुर के जैन मन्दिर दर्शनीय हैं। इन्हें ही जैसलमेर पंचतीर्थी के नाम से अभिहित किया जाता है। जैसलमेर की स्थापना जैसलदेव द्वारा पुरानी राजधानी लोद्रवपुर से १३ कि० मी० दूर ११५६ ई० में की गई थी, किन्तु डॉ० दशरथ शर्मा इस तिथि को अप्रामाणिक मानते हैं और ११७७ ई० के पश्चात् का समय प्रामाणिक बताते हैं। नगर का प्राचीनतम उल्लेख खरतर गच्छ पट्टावली में है, जहाँ ११८७ ई० के एक वर्णन में अन्य नगरों के साथ इसका भी नाम है। जैसलमेर भण्डार में संग्रहीत १२२८ ई० की कृति “धन्य शालिभद्र चरित्र" में इस नगर का नाम दिया गया है, जिससे प्रतीत होता है कि यह नगर निर्माण के शीघ्र बाद ही जैन धर्म का केन्द्र रहा होगा । पुरातन शिलालेखों में इस प्रदेश का नाम “वल्ल मंडल (वल्ल देश) और माड भी मिलता है । जैसलमेर के साथ जैनों का सम्बन्ध इस राज्य की प्राचीन राजधानी लोद्रवा से ही रहा । सम्भवतः नई राजधानी के निर्माण के साथ ही मन्दिर भी स्थापित होते रहे। [क] चिन्तामणि पार्श्वनाथ मन्दिर : जैसलमेर के त्रिकूट दुर्ग में ८ मन्दिर स्थित हैं, जिनमें पार्श्वनाथ मन्दिर प्रमुख है। १. जैसलमेर पंचतीर्थी का इतिहास, पृ० १२ । २. वही। ३. टॉड, एनल्स, २, पृ० २६३ । ४. राथ्रए, १, पृ० २८५ । ५. युग प्रधान गुर्वावली, पृ०.३४ । ६. जैसलमेर भण्डार का ग्रन्थ संख्या २७०। Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जेन तीथं : २४५ "दसश्रावक चरित्र" की १२१८ ई० में लिखित एक प्रशस्ति से ज्ञात होता है कि यह मन्दिर क्षेमंधर के पुत्र जगधर ने निर्मित करवाया । १२६८ ई० में यहीं के नेमिकुमार और गणदेव नामक धनी श्रेष्ठियों ने पार्श्वनाथ मन्दिर के निमित्त जिनेश्वर सूरि द्वारा स्थापित करवाने के लिये, स्वर्ण कलश बनवाये । १२८७ ई० में जिनप्रबोध सूरि के नगर आगमन पर राजा कर्णदेव एवं अन्य राज्याधिकारियों ने उनका भव्य स्वागत किया तथा चातुर्मास वहीं व्यतीत करने की अनुनय की । इस समय नेमिकुमार और गणधर ने इस मन्दिर में चौबीसी, जिन मन्दिर एवं अष्टापद की प्रतिमाएं स्थापित करवाई। इस अवसर पर कुछ मुनियों को भी दीक्षित किया गया । १४१६ ई० में आचार्य जिनराज के उपदेश से लक्ष्मण सिंह के राज्यकाल में इस मन्दिर का जीर्णोद्धार एवं पुनः निर्माण किया गया और लोद्रवा से लाई गई पार्श्वनाथ की मूर्ति यहाँ स्थापित की गई तब इस मन्दिर का नाम "लक्ष्मण-विहार रखा गया। इसका निर्माण १४०२ ई० में शुरू किया गया था, जो लगभग १४ वर्ष तक चला और १४१६ ई० में पूर्ण हुआ । साधु कीर्तिराज ने इसकी प्रशस्ति की रचना की और वाचक जयसागर गणि ने इसे संशोधित किया तथा कारीगर धन्ना ने इसे उत्कीर्ण किया। ओसवालवंशीय, रांका गोत्र के सेठ चोले साह, सेठ नरसिंह व भोजे साह जयसिंह ने मन्दिर को बनवाया । १४३६ ई० के अभिलेख से ज्ञात होता है कि कतिपय श्रावकों के द्वारा सुपार्श्वनाथ की प्रतिमा की स्थापना करवाई गई। । जैसलमेर के जैन मन्दिर, गुजरात के सोलंकी व बघेला मन्दिरों के स्थापत्य से पूर्णतया प्रभावित हैं । जगती, गर्भगृह, मुख मंडप, गूढ मंडप, रंग मंडप, स्तम्भों व शिखर आदि में यहां सोलंकी व बघेला मन्दिरों का स्पष्ट अनुकरण दृष्टिगत होता है । पार्श्वनाथ मन्दिर अपने स्थापत्य एवं मूर्तिकला के लिये प्रसिद्ध है अपनी " जैसलमेर चैत्य परिपाटी" में मन्दिर की बिम्ब संख्या ९१० -वृद्धिरत्न ने " वृद्धिरत्न माला" में मूर्ति संख्या १२५२ के तोरण पर सुन्दर मूर्तियाँ, वादक, वादनियों की नृत्य मुखाकृतियाँ, बेलबूटों का अंकन व दोनों पार्श्वो में देवी-देवताओं की भैरव मुख्य हैं । तोरण के उच्च शिखर पर ठीक मध्य में ध्यानस्थ जिनसुख सूरि ने बताई है, जबकि लिखी है । मन्दिर के मुख्य द्वार मुद्रायें, हाथी, सिंह व घोड़े की मूर्तियाँ हैं, जिनमें पार्श्वनाथ की मूर्ति १. खबुगु, पृ० ३४ । २. वही, पृ० ५२ । ३. वही, पृ० ५८ । ४. " श्री लक्ष्मण विहारोऽयमिति विख्यातो जिनालयः " पार्श्वनाथ मन्दिर का लेख । ५. नाजैलेस, क्र० २११४ । ६. अग्रवाल, हिस्ट्री ऑफ आर्ट एण्ड आर्किटेक्चर ऑफ जैसलमेर, पृ० ३९ । Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४६ : मध्यकालीन राजस्थान में जैनधर्म उत्कीर्ण है । प्रवेश द्वार पर तीन तोरण व इनसे बनी कलामय छत विभिन्न आकृतियों से आच्छादित है । इनमें उत्कीर्ण तीर्थंकरों की मूर्तियां, वस्तुतः सजीव व द्रष्टव्य हैं। सोलंकी व बघला शैली के अनुरूप इस मन्दिर में सभा मण्डप, गर्भगृह, गूढ़ मंडप, छ चौकी व भमति की कुल ५१ देवकुलिकाओं का संयोजन है। इन कुलिकाओं में सुन्दर मूर्तियां स्थित हैं । सभा मंडप की छत में विभिन्न मुद्राओं में वादिनियों को इस प्रकार सजाया गया है कि रासलीला नृत्य का आभास होता है। नृत्य मुद्राओं पर रंगीन चित्रकारी से उनकी शोभा द्विगुणित हो गई है। सभा मंडप के अग्रभाग के खम्भों व उनके बीच कलात्मक तोरण पर विभिन्न आकृतियाँ तक्षण कला के अनुपम नमूने प्रस्तुत करती हैं । इस मन्दिर में कुल नौ तोरण हैं, अतः इसे नौ तोरणिया मन्दिर भी कहा जाता है । सभा मंडप में पीले पाषाण के ५४४३ फीट की ऊंचाई वाले ४ पट्ट हैं । इन पर १४६१ ई० के लेख उत्कीर्ण हैं । ये पट्ट शिल्पकला की दृष्टि से उत्कृष्ट एवं मनोहर हैं । मन्दिर की बाह्य दीवारों पर भी विविध मूर्तियों का रूपांकन है । मन्दिर के जांच क्षेत्र में काम मुद्राओं में किशोरियों की मूर्तियों के साथ मैथुन चित्रों का भी अंकन मिलता है। इस मन्दिर के ऊंचे वक्ररेखीय शिखर के साथ अनेक लघु शिखर भी जुड़े हुये हैं। इन पैडीदार शिखरों का निर्माण ऐसे समानुपात से हुआ है कि इन सबका संयुक्त दृश्य अत्यन्त चित्ताकर्षक है। लघु रूप शिखरों से मन्दिर के ऊपर का कमर कोटा सज्जित है । इस मन्दिर की छत में एक मूर्ति अपने एक सिर और उसके पाँच धड़ों की निराली शोभा लिये प्रदर्शित की गई है, किसी भी दिशा से देखने पर दर्शक को यह अपने सम्मुख ही प्रतीत होती है। इस मन्दिर के बाँयी ओर से दूसरे मन्दिर में प्रवेश करते समय एक पत्थर पर अनेक छोटे-छोटे मन्दिर व मूर्तियाँ अंकित हैं । यहाँ जी के आकार जितने मन्दिर में एक लघुत्तम मूर्ति निर्मित है, जिसको देखने के लिये दूरबीन की आवश्यकता होती है। यह वस्तुतः कला की अनुपम कृति है । यह मन्दिर श्रावकों व मुनियों के लिये विशेष श्रद्धा केन्द्र रहा है। १४७९ ई० में पाटन के धनपति श्रेष्ठी ने इस मन्दिर में शांतिनाथ की एक प्रतिमा स्थापित की। इसी मन्दिर में हाम व भीमसी ने जिनवरेन्द्र पट्टिका निर्मित करवाई । १६०६ ई० में एक स्तम्भ का प्रतिष्ठा महोत्सव इस मन्दिर में सम्पन्न हुआ। १६१५ ई० मे कल्याण दास के शासन काल में जिनसिंह सूरि ने यहाँ जिनचन्द्र सूरि की “पादुका" स्थापित करवाई । १६२१ ई० में लोद्रवा से चिन्तामणि पार्श्वनाथ की मूर्ति लक्ष्मण विहार नामक मन्दिर में लाई. १. अग्रवाल, हिस्ट्री ऑफ आर्ट एण्ड आर्किटेक्चर ऑफ जैसलमेर, पृ० ३९-४० । २. वही। ३. नाजैलेस, ३, क्र० २१२० । ४. वही, क्र० २५०५ । Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन तीर्थं : २४७ गई तब जिनसिंह सूरि इसका प्रतिष्ठा महोत्सव सम्पन्न करवाने हेतु जैसलमेर आये ।' १७१२ ई० में बुद्धसिंह के राज्यकाल में, तत्वसुन्दर गणि की प्रेरणा से गंगाराम ने अपने परिवार के साथ प्रतिमाओं की स्थापना करवाई । २ (ख) सम्भवनाथ मन्दिर : इस मन्दिर का निर्माण जिन सूरि के उपदेश से चोपड़ा गोत्रीय हेमराज पूना आदि ने १४३७ ई० में ही प्रारम्भ करवाया था । यहाँ के कुशल कारीगरों ने बड़ी तत्परता तीन वर्ष अर्थात् १४४० ई० में ही निर्माण कार्य पूरा कर दिया | जिनभद्र सूरि के उपदेश से ही १४४० ई० में मन्दिर का प्रतिष्ठा महोत्सव, ३०० जिन बिम्बों की प्रतिष्ठा तथा ध्वज शेखर प्रतिष्ठा आदि कार्यक्रम सम्पन्न हुये, जिसमें तत्कालीन शासक रिसिंह एवं उनके सभासदों ने भी भाग लिया तथा सहयोग प्रदान किया था। इस मन्दिर में दो शिलालेख १४४० ई० के हैं ।" इन लेखों में जैसलमेर राजाओं की वंशावली, खरतर विधि पक्ष की पट्टावली व चोपड़ा वंशीय श्रेष्ठियों की वंशावली दी हुई है । प्रशस्ति की रचना आचार्य सोमकुँवर ने, पत्थर पर लेख- भानुप्रभ गणी ने, व उत्कीर्णन शिवदेव सिलावट ने सम्पन्न किया । इसी मन्दिर की तप पट्टिका पर १४४८ ई० का एक शिलालेख है, जो वैरिसिंह के उत्तराधिकारी चाचिगदेव के समय का तथा पीत प्रस्तर पर उत्कीर्ण है । इसमें बांयी तरफ २४ तीर्थंकरों के च्यवन, जन्म, दीक्षा और ज्ञान चार कल्याणक तिथियाँ तथा दायीं तरफ तप के कक्ष निर्मित हैं । नीचे ही १४ पंक्तियों का लेख खुदा हुआ है, जिसमें खरतरगच्छ के उद्योतन सूरि से जिनभद्र सूरि तक के आचार्यों के नाम व पंक्ति २ में शंखवाल गोत्र के श्रेष्ठी पाता द्वारा “तप पट्टिका" बनाने का उल्लेख है । १४६९ ई० के एक अन्य लेख में चोपड़ा गोत्रीय श्रेष्ठ द्वारा शत्रुंजय और गिरनार पट्ट स्थापित करने का उल्लेख है। जिन सुख सूरि के अनुसार इस मन्दिर की बिम्ब संख्या ५५३ और वृद्धिरत्न ने ६०४ लिखी है । शिल्प एवं स्थापत्य की शैली में, यह भी पूर्वोक्त मन्दिर के समान है । इस मन्दिर के रंगमण्डप का गुम्बद विशेष दर्शनीय है । छत के मध्य में दिलवाड़ा के मन्दिरों के १. नाजैलेस, क्र० २४९८ । २. वही ३. वही, क्र० २१३९ । ४. वही, ३, पृ० ८ ५. वही, ३, क्र० २१३९ । ६. वही, ३, क्र० २१४४ । ७. वही, क्र० २१४० । Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४८ : मध्यकालीन राजस्थान में जैनधर्म समान झूलता हुआ कमल का लोलक है, जिसके आस-पास १२ अप्सराओं को आकृतियाँ हैं । अप्सराओं से नीचे के हिस्से में गन्धर्व उत्कीर्ण है। अप्सराओं के मध्य भाग में पद्मासन मुद्रा में जिन मूर्तियाँ प्रतिष्ठित हैं, जिनके नीचे हंस निर्मित हैं । दक्षिण दिशा में पीत प्रस्तर के चित्रांकित तोरण हैं । मन्दिर का शिखर सादगीपूर्ण है, किन्तु मंडोवर के गोलाखों में पद्मासन स्थित तीर्थंकरों को मूर्तियाँ, वस्तुतः दर्शनीय हैं । शेष मन्दिरयोजना पूर्वोक्त शैली की है । इस मन्दिर का सबसे बड़ा आकर्षण "जिनभद्र सुरि ज्ञान भण्डार" है, जिसे देखने न केवल जैन यात्री, अपितु विदेशी भी आते रहते हैं । (ब) शीतलनाथ मन्दिर : त्रिकूट दुर्ग में स्थित तीसरा मन्दिर तीर्थङ्कर शीतलनाथ का है। किस व्यक्ति विशेष ने इस मन्दिर का निर्माण कराया यह निश्चय नहीं है, क्योंकि इस मन्दिर में कोई प्रशस्ति नहीं है । जैसलमेर चैत्य परिपाटी, स्तवनों और पट्टिका के लेख से इतना ज्ञात होता है कि इस मन्दिर का निर्माण डागा गोत्रीय सेठों ने करवाया। सेवक लक्ष्मीचन्द रचित "जैसलमेर तवारीख' के पृष्ठ २०८ में दिये गये जैन मन्दिरों के हाल को देखने से ज्ञात होता है कि इस मन्दिर का निर्माण डागा लूणसा मूणसा ने १४५२ ई० में करवाया। "वृद्धि रत्न माला" के पृष्ठ ४ के अनुसार मन्दिर की प्रतिष्ठा १४५१ ई० में हुई । जिनसुख सूरि रचित चैत्य परिपाटी में इस मन्दिर की कुल मूर्तियों को संख्या ३१४ तथा "वृद्धि रत्नमाला" में ६७ मूतियों के होने का उल्लेख है। स्थापत्य शैली, इसकी भी पूर्वोक्त मन्दिरों जैसी ही है। इस मन्दिर में नौखंडा पार्श्वनाथ तथा एक ही पत्थर पर २४ तीर्थंकरों की मूर्तियाँ उत्कीर्ण हैं । यह पट्ट अत्यन्त मनोहर व आकर्षक है । (घ) शान्तिनाथ और अष्टापद मन्दिर : ये दोनों मन्दिर एक ही परिसर में निर्मित है। ऊपर के भाग में शान्तिनाथ का और नीचे अष्टापद जी का मन्दिर है । नीचे वाले मन्दिर में १७वें तीर्थंकर कुन्थुनाथ की मूर्ति नायक के रूप में प्रतिष्ठित है। इन दोनों मन्दिरों की एक ही प्रशस्ति है, जो राजस्थानी एवं स्थानीय भाषा का मिश्रित रूप है। इन दोनों मन्दिरों का निर्माण संखवलेचा और चोपड़ा गोत्रीय खेता और पाँचा ने करवाया। खरतर गच्छ के जिन समुद्र सूरि ने १४७९ ई० में इसकी प्रतिष्ठा कराई ।' संघवी खेता धनाढ्य और श्री सम्पन्न था। इसने सकुटुम्ब कई बार विविध तीर्थों को यात्राएं की और संभवनाथ मन्दिर की प्रसिद्ध तप पट्टिका की प्रतिष्ठा कराई। इस मन्दिर को प्रशस्ति का निर्माण देव तिलक उपाध्याय ने और उत्कीर्णन शिल्पी खता ने किया। जिनसुख सूरि ने “चैत्य परिपाटी स्तवन" में शान्तिनाथ मन्दिर की मूर्ति संख्या, प्रदक्षिणा में २४० और चौक में ४००, १. जैसलमेर का सूची पत्र, पृ० २०४ । Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन तीर्थ : २४९ कुल ६४० लिखी है, किन्तु " वृद्धि रत्नमाला" में यह संख्या ८०४ मिलती है । इसी प्रकार अष्टापद मन्दिर की मूर्ति संख्या भी क्रमशः ४२५ और ४४४ होने का उल्लेख मिलता है । इस मन्दिर के दाँयी तरफ पाषाण के दो सुन्दर एवं कलापूर्ण हाथो बने हुए हैं, जिन पर एक पुरुष व दूसरी स्त्री की धातु मूर्ति आसीन है । सम्भवतः ये मूर्तियाँ मन्दिर प्रतिष्ठा कराने वाले स्वर्गीय खेता व उसको भार्या सरस्वती की है । इसी मन्दिर में दशावतारों सहित श्री लक्ष्मीनाथ जी की मूर्ति भी स्थापित है । प्रशस्ति से ज्ञात होता है कि ये मूर्तियाँ महारावल देवीदास के ज्येष्ठ पुत्र जैतसिंह की आज्ञा से स्थापित की गई थीं । इन मन्दिरों की स्थापत्य शैली भी पूर्वोक्त प्रकार की है । इनके शिखर भव्य व आकर्षक है | शान्तिनाथ मन्दिर के शिखर के गुम्बद की छत में वाद्य यन्त्रों के साथ नृत्य करती हुई बारह अप्सराओं का नृत्यांकन कलात्मक रूप से प्रस्तुत किया गया है। नीचे के भाग में गंधर्वों की प्रतिमाएँ प्रदर्शित हैं । मन्दिर के बाहरी क्षेत्र में खुदी हुई भावना - मयी मूर्तियाँ अत्यंत आकर्षक हैं । अष्टापद मन्दिर के सभा मंडप में चारों स्तम्भों के मध्य तोरण हैं। गुढ़ मण्डप में एक सफेद आरस की और दूसरी श्याम वर्ण की प्रस्तर मूर्तियाँ कायोत्सर्ग मुद्रा में प्रतिष्ठित हैं । इनके दोनों पार्श्वो में ग्यारह - ग्यारह मूर्तियाँ होने से इन्हें चौबीसी की संज्ञा दी गई है संपूर्ण संरचना अतीव सुन्दर है । अष्टापद मन्दिर के अन्तः भाग में हाथी, घोड़े, सिंह व कहीं-कहीं बन्दर की आकृति भी उत्कीर्ण है । मन्दिर के पानी को बाहर निकालने के लिये नाली, मगरमच्छ के मुँह के सदृश दिखाई देती है । ऊपरी दीवारों पर शिव-पार्वती की आकृति तथा तुरही, ढोलक और तम्बूरे बजाती हुई युवतियाँ तथा नृत्य की विभिन्न मुद्राएँ उत्कीर्ण हैं । ये सभी तक्षण कला के अनुपम नमूने हैं । स्त्री आकृतियों का अभिराम चित्रण इतना प्रभावोत्पादक है कि कला की दृष्टि से इनको खजुराहो, कोणार्क व देलवाड़ा में प्राप्त प्रतिमाओं के समकक्ष रखा जा सकता है। । (ङ) चन्द्रप्रभ स्वामी मन्दिर : इस भव्य तिमंजिले मन्दिर का निर्माण किसने करवाया, यह तथ्य प्रशस्ति के अभाव में अस्पष्ट है । निजमूर्ति (मूलनायक की मूर्ति) के लेख से ज्ञात होता है कि भणशाली गोत्रीय बीदा ने १४५२ ई० में इस मन्दिर की प्रतिष्ठा करवाई थी । चैत्य परिपाटी स्तवनों में भी ऐसा ही उल्लेख मिलता है । इसके सभा मण्डप के ८ स्तम्भों में ८ सुन्दर कलापूर्ण तोरण निर्मित हैं । जिनालय के गुम्बद की बनावट चित्ताकर्षक है । दूसरी व तीसरी मंजिल पर चन्द्रप्रभु की चौमुखी मूर्ति है । नीचे के सभा मण्डप में चारों तरफ बारीक व सुन्दर जालियों का उत्कीर्णन है । इस मन्दिर में गणेश को विभिन्न मुद्राओं में प्रदर्शित किया गया है। जिनसुख सूरि ने " चैत्य परिपाटी" में मन्दिर की - मूर्तियों की संख्या ८०९ लिखी है, किन्तु " वृद्धि रत्नमाला" में यह संख्या १६४५ वर्णित Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५० : मध्यकालीन राजस्थान में जैनधर्म है । प्रस्तर एवं स्थापत्य कला की दृष्टि से यह मन्दिर भी दर्शनीय है। इस मन्दिर का विशेष आकर्षण, दूसरे तले में बांयी तरफ की कोठी में सुरक्षित कई सर्वधातु की मूर्तियाँ, चौबीसी और पंचतीथियों का अत्यधिक महत्त्वपूर्ण संग्रह है। इन पर उत्कीर्ण अभिलेख इतिहास के शोधन में बहुत सहायक है । (च) ऋषभदेव मन्दिर : त्रिकूट दुर्ग स्थित यह सातवाँ मन्दिर प्रशस्ति विहीन है। मन्दिर की मूर्तियों पर अंकित लेखों से ज्ञात होता है कि इस देवस्थान का निर्माण गणधर चोपड़ा गोत्रीय सच्चा के पुत्र धन्ना ने महारावल देवीदास के राजत्व काल में १४७९ ई० में करवाया और खरतरगच्छ के आचार्यों ने १४७९ ई० में ही इस मन्दिर की प्रतिष्ठा करवाई । जिनसुख सूरि की "चैत्य परिपाटी" में इस मन्दिर में मूर्तियों की संख्या ६३१ व "वृद्धि रत्नमाला" में यह संख्या ६०७ होने का उल्लेख है। निर्माण योजना की दृष्टि से यह भी पूर्वोक्त मन्दिरों की तरह है । मन्दिर की मुख्य विशेषता यह है कि यहाँ के मुख्य सभा मण्डप के स्तम्भों पर हिन्दू देवी-देवताओं का भी रूपांकन है। कहीं राधा व कृष्ण, कहीं अकेले कृष्ण वंशीवादन करते हुए प्रदर्शित है। गणेश, शिव, पार्वती, सरस्वती, इन्द्र व व विष्णु की प्रतिमाएं भी उत्कीर्ण हैं । (छ) महावीर स्वामी मन्दिर : दुर्ग स्थित अन्तिम व आठवाँ मन्दिर पूर्ववर्णित मन्दिरों से कुछ दूरी पर चौगान पाड़े में निर्मित है। यहाँ के शिलालेख से ज्ञात होता है कि इस देवस्थान का निर्माण १४१६ ई० में हुआ। जिन सुख सूरि के अनुसार इस मन्दिर की प्रतिष्ठा, ओसवाल वंश के बरडिया गोत्रीय दीपा ने करवाई।' इस मन्दिर की मूर्तियों की संख्या जिनसुख सूरि के अनुसार २३२ व "वृद्धि रत्नमाला" के अनुसार २९५ है। प्रस्तर कला की दृष्टि से यह मन्दिर पूर्व वर्णित मन्दिरों जैसा आकर्षक नहीं है । (ज) सुपार्श्वनाथ मन्दिर : ____ नगर में स्थित जैन धर्मशाला से कुछ दूरी पर, कोठारी पाड़ा में यह मन्दिर निर्मित है । इस मन्दिर की प्रतिष्ठा तपागच्छ के आचार्य हीरविजय सूरि की शाखा के गुलाल विजय के शिष्य द्वय, दीपविजय और नगरविजय ने १८१२ ई० में करवाई । मन्दिर का प्रशस्ति लेखन नगविजय ने ही किया, जो अत्यंत पांडित्यपूर्ण है। (झ) विमलनाथ मन्दिर : यह मन्दिर जैन धर्मशाला से थोड़ी दूर, दासोत पाड़ा में आचार्य गच्छ के उपासरे में बना हुआ है। मन्दिर प्रतिष्ठा की कोई प्रशस्ति उपलब्ध नहीं है। मूलनायक की मूर्ति १. नाजैलेस, ३, क्र० २४०० । Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन तीर्थ : २५१. पर अंकित लेख से ज्ञात होता है कि तपागच्छाचार्य विजयसेन सूरि के द्वारा १६०९ ई० में प्रतिष्ठा कार्य सम्पन्न हुआ था। (२) रणकपुर जैन तीर्थ : पश्चिम रेलवे की छोटी लाइन पर, आबू रोड व अजमेर के बीच, फालना से लगभग २२ मील को दुरी पर स्थित, रणकपुर जैन मन्दिर उत्तरी भारत का विशिष्ट श्वेताम्बर जैन तीर्थ हो नहीं, अपितु कला तीर्थ भी है। यह पाली जिले की देसूरी तहसील में, सादड़ी से ६ मील दूर हरियाली पहाड़ो घाटो की गोद में बसा हुआ है । इसका प्राचीन नाम "राणपुर" भी था, जो संभवतः महाराणा कुम्भा के प्रति आभार व्यक्त करने के लिये रखा गया होगा। इस मन्दिर को "राणपुर का चौमुखा मन्दिर" भी कहते हैं। इसके अन्य नाम भी मिलते हैं। १४४२ ई० में मेह नामक कवि ने इसे "त्रैलोक दीपक' संज्ञा से विभूषित किया।' ज्ञानविमल सूरि ने इसे "नलिनी गुल्म विमान" की सी रचना वाला बताया है । मन्दिर के निर्माता धरणाक सेठ के नाम पर इसे "धरणाक विहार" भी कहते हैं । लेकिन सही नाम सम्भवतः मुख्य मन्दिर के प्रवेश मार्ग के शिलालेख में लिखित है, जो "त्रैलोक्य दीपक" तथा "श्री चतुर्मुख युगादीश्वर विहार" है । यह मन्दिर गोड़वाड़ पट्टी के या मारवाड़ की बड़ी जैन पंचतीर्थी के मन्दिरों में मुख्य है। इस पंचतीर्थी में राणकपुर, मुछाला महावीर, नाडलाई, नाडौल एवं वरकाणा सम्मिलित हैं, जो सादड़ी के आसपास ही हैं । १७वीं शताब्दी के कवि ऋषभदान ने “हीरविजय सूरि रास'' में इस तीर्थ की महिमा का वर्णन करते हुये लिखा है कि जिसने रणकपुर तीर्थ की यात्रा नहीं को, उसका जन्म लेना भी निरर्थक है। समयसुन्दर ने भी अपने “यात्रा स्तवन" में इस तीर्थ की प्रशंसा की है। त्रैलोक्य दीपक या चौमुखा मन्दिर के चारों ओर द्वार हैं । इस मन्दिर में प्रथम तीर्थंकर आदिनाथ की प्रतिमा प्रतिष्ठित है। इसके अलावा दो और मन्दिर, नेमिनाथ एवं पार्श्वनाथ के हैं । एक वैष्णव मन्दिर सूर्य नारायण का भी है । सर्वाधिक सुन्दर, कलात्मक व रचना कौशल में बेजोड़, त्रैलोक्य दीपक है, जिसमें राजस्थान की जैन कला और धार्मिक परम्परा का अपूर्व प्रदर्शन हुआ है। __मन्दिर के शिलालेख के अनुसार इसका निर्माण प्राग्वाट जाति के (पोरवाल बंशी) महाराणा कुम्भ के प्रीति पात्र, धरणाक सेठ ने, अपने भाई रत्ना एवं पूरे परिवार के सहयोग से करवाया। ये सिरोही क्षेत्र के नाँदिया गाँव के मूल निवासी थे। मन्दिर १. राजस्थान हिस्ट्री काँग्रेस, सोवेनियर १९७४, पृ० १५ । २. १४३९ ई० का लेख, पंक्ति ४२-४३ । ३. राभा, कुम्भा विशेषांक, पृ० १४४ । ४. १४३९ ई० का लेख, पंक्ति ३८, ४१ । Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५२ : मध्यकालीन राजस्थान में जैनधर्मं का निर्माण कार्य १४३७ ई० में प्रारम्भ हुआ व १४३९ ई० में एक मंजिल बनकर पूर्ण हुई । आचार्य सोमचन्द्र सूरि के अत्यन्त वृद्ध हो जाने के कारण इसी समय, अर्थात् १४३९ ई० में प्रतिष्ठा कर दी गई । विभिन्न मूर्तियों के अभिलेखों से ज्ञात होता है कि इनकी प्रतिष्ठा अलग-अलग समय हुई । १४४९ ई० में प्रथम खंड की चारों मूर्तियों की सोम सुन्दर सूरि द्वारा, १४५० ई० में द्वितीय खंड की पश्चिमाभिमुख प्रतिभा की रत्नशेखर सूरि द्वारा, १४५१ ई० में इसी खण्ड की उत्तराभिमुख प्रतिमा की रत्नशेखर सूरि द्वारा व १४५२ ई० में द्वितीय खण्ड की पूर्वाभिमुख तथा तृतीय खण्ड की सभी प्रतिमाएँ रत्नशेखरसूरि द्वारा प्रतिष्ठित की गई । मन्दिर का प्रमुख शिल्पी, सोमपुरा -ब्राह्मण जाति का देपाक था । देपाक के ५० से भी अधिक शिल्पी सहायक थे । २ मन्दिर की प्रतिष्ठा आचार्य सोमसुन्दर सूरि ने करवाई | 3 मन्दिर के निर्माण के सम्बन्ध में अनेक किंवदन्तियाँ प्रसिद्ध हैं और सबका सार यही है कि इस मन्दिर का नक्शा दैविक शक्ति से प्राप्त हुआ था, लेकिन इसका कोई ऐतिहासिक आधार नहीं है । कहा जाता है कि प्रारम्भ में इस मन्दिर को सातमंजिला बनाने की किसी कारणवश इसके ३ खण्ड ही बन पाये । 3 " जैन सर्व तीर्थं - इसका निर्माण व्यय ९९ लाख रुपये था । " योजना थी, लेकिन संग्रह” के अनुसार यह मन्दिर ४८,००० वर्ग फुट जमीन पर निर्मित । इसके तलीय भाग में सेवाड़ी का पत्थर तथा दीवारों में सोनाणा का पत्थर प्रयुक्त हुआ है । शिखर के भीतरी भाग ईंटों से तथा मूर्तियाँ भी सोनाणा के पत्थर से निर्मित हैं । मूलनायक आदिनाथ की भव्य प्रतिमाएँ, श्वेत संगमरमर ( मकराना) की बनी हुई हैं। एक उच्च पीठिका पर आसीन, आदिनाथ की चतुर्मुखी प्रतिमाएँ पाँच फुट ऊँची व एक दूसरे की पीठ से लगी हुई, चारों दिशाओं में मुख किये हुये हैं । चारों ओर द्वार होने से प्रवेश करते ही मूलनायक मूर्ति के दर्शन किये जा सकते हैं । मन्दिर एक चबूतरे पर निर्मित है । २५ सीढ़ी चढ़कर, चबूतरे पर प्रवेश तोरण द्वार है । बरामदे में प्रवेश करते हो, मंडप की छत में नग्न एवं संभोग के विभिन्न आसनों का प्रदर्शन करती हुई मूर्तियाँ उत्कीर्ण हैं । इस कारण डा० गोपीनाथ शर्मा इसे " वेश्या मन्दिर” कहते हैं, जो सत्य नहीं है । मन्दिर में घुसते ही दोनों ओर तहखाने हैं, जहाँ मुस्लिम आक्रमणों के समय, सुरक्षा के लिये मूर्तियाँ रखी जाती होंगी । पृथ्वी तल के १. १४३९ ई० का लेख, पंक्ति ४६-४७ ॥ २. हरविलास शारदा - महाराणा कुम्भा, पृ० १५३-५४ । ३. १४३९ ई० का लेख, पंक्ति ४४ - ४६ । ४. कला मंदिर राणकपुर, पृ० २१-२२ । ५. जैन तीर्थ सर्व संग्रह, १, खण्ड २, पृ० २१६ । Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन तीर्थं : २५३ मन्दिर के प्रत्येक द्वार के सामने सभा मण्डप है तथा उसके आगे पूजा गृह है । प्रत्येक सभा मण्डप के सामने छोटा मन्दिर है, जो " खूंट का मन्दिर" कहलाता है । चारों खूँट के मन्दिरों के सामने, स्तम्भों पर आधारित, ४ मण्डपों के समूह हैं । इन मन्दिरों के अभिलेखों से स्पष्ट है कि इनका निर्माण कार्य - ईशान कोण १४४६ ई०, वायव्य कोण १४५० ई०, नैऋत्य कोण १४५४ ई० एवं अग्नि कोण १४५९ ई० में सम्पन्न हुआ था ।' सबसे बड़ा मण्डप मुख्य द्वार के सामने है, जिसमें १६ स्तम्भों पर दोहरे शिखर हैं । इस मण्डप की छत पर नृत्य करती हुई स्त्री मूर्तियाँ सुन्दरता से उत्कीर्ण हैं । कोई श्रृंगाररत, कोई घुंघरू बाँधते हुये, कुछ वीणा और बाँसुरी बजाती हुई, तो कोई नृत्य मुद्रा में हैं । खूंट के मन्दिर के बाहर, उत्तरंग पर, नाग कन्याओं और जाली युक्त कमल पुष्प के दृश्य हैं । मन्दिर के चारों ओर ८० छोटी व ४ बड़ी देवकुलिकाएँ, महावीर व संभव-शरण की उत्तरी द्वार की तरफ तथा दक्षिणी द्वार की तरफ दो बड़ी देवकुलिकाएँ आदीश्वर तथा नन्दीश्वर की संज्ञा से अभिहित की जाती हैं। छोटी देव -- कुलिकाओं का प्रांगण, स्तम्भ उठाकर छतदार बनाया हुआ है, जबकि बड़ी देवकुलिकाएँ गुम्बद वाली हैं । पश्चिमी कोण की देवकुलिका में महावीर और अजितनाथ की मूर्तियाँ हैं । उत्तरी पूर्वी कोण में, सबसे उल्लेखनीय मूर्ति धरणाशाह की है, जिसके हाथ में माला और सिर पर पाग है । एक देवकुलिका में पार्श्वनाथ की ध्यानमग्नावस्था में " खड़ी प्रतिमा " नागदेह से लिपटी हुई है तथा नाग के १०८ या १००८ फन उस पर छाया किये हुये हैं । एक अन्य देवकुलिका में शान्तिनाथ और नेमिनाथ की प्रतिमाएँ हैं । मूर्तियाँ भी बड़ी आकर्षक बाहर के रंगमण्डप में बने तोरण अत्यन्त आकर्षक हैं । ये तोरण एक ही पत्थर के बने हुये हैं तथा सूक्ष्म तक्षण कला के उत्कृष्ट नमूने हैं । इसी रंगमण्डप के गुम्बद के घेरे के चारों ओर, नृत्यरत १६ पुतलिकाएं, विविध भाव भंगिमाओं में अंकित हैं । रंग मंड से जुड़े हुये ४ मण्डप और हैं, जिनकी ऊँचाई लगभग ४० फीट है । इसके स्तम्भ एवं गुम्बद बड़े ही नयनाभिराम हैं । मन्दिर के चारों भागों में प्रकाश के लिये ४ बड़े खुले चौक हैं । मूल नायक की देव - कुलिका के जंघा भाग में बनी हैं । इनमें स्त्री मूर्तियाँ नृत्य मुद्रा में तथा नर्तकियाँ तलवार व जो उस युग की भावना के अनुकूल है । स्त्री प्रतिमाओं के साथ हैं । मन्दिर के उत्तरी द्वार की ओर एक सहस्रकूट स्तम्भ है, भी कहते हैं । यह महाराणा कुम्भा द्वारा निर्मित बताया जाता है, किन्तु इस पर अंकित लेखों से ज्ञात होता है कि इसे भिन्न-भिन्न व्यक्तियों ने बनवाया था । इसके मध्य भाग में कई प्रतिमाएँ बनी हुई हैं । ढाल लिये प्रदर्शित हैं, देव प्रतिमाएँ भी निर्मित जिसे "राणक स्तम्भ” १. तारामंगल, कुम्भा, पृ० १७२ । २. वही । Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५४ : मध्यकालीन राजस्थान में जैनधर्म मन्दिर के दूसरे खण्ड में जाने के लिए सीढ़ियां हैं । इस खण्ड के मध्य भाग में चार तीर्थंकरों की चौमुखी प्रतिमाएँ हैं । इस देवकुलिका के भी ४ द्वार हैं तथा चारों दिशाओं से तीर्थकर के दर्शन किये जा सकते हैं। इसके ऊपर एक और खण्ड है, जिस पर जाने के लिये एक शिलाखण्ड की सीढ़ी है । इस खण्ड में भी, एक ही पोठिका पर आसीन तीर्थंकरों की चौमुखी प्रतिमाएँ हैं । इस देवकुलिका के भी ४ द्वार हैं तथा ऊपर ईंटों से बने ऊँचे शिखर हैं। इस मन्दिर में कुल २४ मण्डप, ८४ शिखर और १४४४ स्तम्भ हैं । स्तम्भों का संयोजन इस प्रकार किया गया है कि मन्दिर में कहीं भी खड़े होने पर सामने की दिशा की देवकुलिका की प्रतिमा तथा उस दिशा के स्तम्भ एक पंक्ति में दिखाई देते हैं । प्रत्येक स्तम्भ का अलंकरण दूसरे स्तम्भ से साम्य नहीं रखता तथा सभी स्तम्भों पर विविध अलंकरणों की सूक्ष्म कुराई है । कई स्तम्भों पर तीर्थंकरों के जीवन की प्रसिद्ध घटनाएँ उत्कीर्ण हैं । पश्चिमी द्वार की छत पर ऋषभदेव की माता मरुदेवी की गजारूढ़ प्रतिमा है। मन्दिर में कुल १३ शिलालेख लगे हये हैं, जिनसे विभिन्न देवकुलिकाओं, सभा मंडपों आदि के निर्माण व जीर्णोद्धार का पता चलता है। सबसे महत्त्वपूर्ण शिलालेख १४३९ ई० का है, जिसमें बप्पा से लेकर राणा कुम्भकर्ण तक, मेवाड़ के राणाओं की वंशावली है जो त्रुटिपूर्ण है । लेख संस्कृत गद्य में ४७ पंक्तियों में निबद्ध है । ___मन्दिर में उत्कीर्ण मूर्तियों के अध्ययन से तत्कालीन वेशभूषा, रहन-सहन, समकालीन वाद्य यन्त्र एवं अन्य विविध विषयक जानकारी प्राप्त होती है। प्रसिद्ध वास्तु शास्त्री फर्ग्युसन ने इसकी प्रशंसा करते हुये लिखा है, "मैं अन्य ऐसा कोई भवन नहीं जानता जो इतना रोचक व प्रभावशाली हो, या जो स्तम्भों की व्यवस्था में इतनी सुन्दरता व्यक्त करता हो"।' इस मन्दिर की कलात्मकता के सम्बन्ध में एक लोकोक्ति भी प्रसिद्ध है-“देलवाड़ा री कोतरणी ने राणकपुर री मांडनी।" अर्थात् उत्कीर्ण सौंदर्य के लिये दिलवाड़ा मन्दिर और रचना शिल्प के लिये राणकपुर का मन्दिर अनुपम है।" चौमुखा मन्दिर के निकट ही नेमिनाथ का मन्दिर है, जिसका प्रवेश द्वार उत्तर की ओर है, मन्दिर की दीवारों पर नग्न एवं सम्भोगरत युगलों की मूर्तियाँ उत्कीर्ण हैं । साथ ही वात्सायन के कामसूत्र में उल्लिखित विभिन्न आलिंगन मुद्राएँ यथा लता, वैष्टिक आदि भी प्रदर्शित हैं। इसलिये इस मन्दिर को “पातुरियां रो देहरो" (वेश्याओं का मन्दिर) कहते हैं । वास्तव में काम मूर्तियों के अंकन का उद्देश्य, कामवासना जाग्रत १. हिस्ट्री ऑफ इंडियन एण्ड ईस्टर्न आर्किटेक्चर, १, पृ० २४०-२४२। । २. तारामंगल, कुंभा, पृ० १७२। ३. जी० एन० शर्मा ने चौमुखा मन्दिर के प्रवेश भाग को वेश्या मंदिर कहा है । Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन तीर्थं : २५५ करना नहीं, अपितु इनकी निरर्थकता बताकर वैराग्य भावना का उदय करना है । इस मन्दिर के बाह्य भाग में एक तहखाना तथा देवकुलिका में नेमिनाथ की श्यामल भव्य मूर्ति है । भीतर से मन्दिर एकदम सादगीपूर्ण, किन्तु बाहर से अत्यधिक अलंकृत हैं । मन्दिर की दीवारें १५वीं शताब्दी की प्रतीत होती हैं, लेकिन शिखर बाद में निर्मित प्रतीत होता है । इस मन्दिर के निकट ही पार्श्वनाथ मन्दिर है, जिसका मुख्य द्वार पूर्वाभिमुख है। पार्श्वनाथ मन्दिर के निकट महाराणा कुम्भा द्वारा निर्मित सूर्य मन्दिर है, जिस पर विविध देवी-देवताओं को उत्कृष्ट शिल्पांकित प्रतिमाएँ हैं । ' ( ३ ) ऋषभदेव ( केसरिया जी ) तीर्थं : ऋषभदेव तीर्थ, उदयपुर जिले में, उदयपुर से ६४ किलोमीटर दूर खेरवाड़ा तहसील में, कोयल नामक छोटी-सी नदी के किनारे अवस्थित, धुलेव नामक ग्राम में है, जिसकी जनसंख्या लगभग ५,००० है । मूलनायक के नाम पर गाँव का नाम भी ऋषभदेव तथा केसर चढ़ाने की प्रथा के कारण केसरिया जी प्रचलित है । मूलनायक प्रतिमा प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव की है । प्रतिमा श्याम वर्ण की होने से भील लोग इसे "" कालाजी " और " कारिया बाबा" कहते हैं । कुछ लोग " धुलेनाथ जी " या केसरिया लाल भी कहते हैं । प्रतिमा पाषाण निर्मित, पद्मासन मुद्रा में एवं साढ़े तीन फीट अवगाहना वाली है । यह समचतुस्र-संस्थान युक्त और अत्यन्त चित्ताकर्षक है । मूलनायक के ऊपर विशाल और भव्य शिखर हैं । इसके अतिरिक्त चारों दिशाओं में ४ शिखर हैं, जो काफी विशाल और उत्तुंग हैं । छोटे-मोटे ४९ शिखर और हैं । मन्दिर की बाह्य भित्तियों पर अनेक खड्गासन जिन प्रतिमाएँ हैं । इस मन्दिर में कुल ७२ पाषाण की मूर्तियाँ हैं, जिनमें ९-१० श्वेत वर्ण की और शेष श्याम वर्ण की हैं । इस तीर्थ के अधिकार के सम्बन्ध में दिगम्बर एवं श्वेताम्बर सम्प्रदायों में उग्र मतभेद हैं । यहाँ तक कि इनके मतावलम्बी श्रद्धा भावना एवं अहिंसा के मार्ग से हटकर इस विवाद पर हिंसक भी हो उठे हैं । प्रतिमा के नानाविध चमत्कारों की किंवदन्तियाँ जनता में बहुत प्रचलित हैं । इसके चमत्कारों से आकर्षित होकर जैन, अजैन सभी यहाँ मनौती मनाने आते हैं और मुख्यतः मूल नायक को केशर चढ़ाते हैं । सर्वसाधारण में भी केसरिया भगवान् के प्रति अगाध आस्था एवं श्रद्धा है । सम्भवतः यह श्रद्धा अनुभव से उपजी है, जो प्रतिमा के चमत्कारों का जनता पर अत्यधिक प्रभाव प्रदर्शित करती है । चमत्कारों के सम्बन्ध में कई अनुश्रुतियाँ प्रचलित हैं । १८०६ ई० में होल्कर का सेनापति सदाशिव राव लूट मचाता हुआ यहाँ आया, तो मदान्ध होकर उसने मूलनायक को अपमानित करने का प्रयास किया, किन्तु चमत्कारिक रूप से उसे भागना पड़ा । एक लोकोक्ति की पंक्ति इस प्रकार १. शोप, ७ अंक २-३, पृ० ७-८ । २. भादि जैती, ४, पृ० १०६-१२६ । Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५६ : मध्यकालीन राजस्थान में जैनधर्म है-'तोपखाना तो पड़ा रहा ने, राव सदाशिव भाग गया।" कहा जाता है कि प्रतिमा यहाँ से २० कोस दूर जंगल में एक मन्दिर में थी। अलाउद्दीन खिलजी द्वारा इसे तोड़ने का प्रयास करने पर उसकी फौज अन्धी हो गई । एक अन्य किंवदन्ती के अनुसार महमूद गजनवी के मूर्तिभंजन काल में यह मूर्ति अन्तान हो गई थी। मूलनायक की प्रतिमा का निर्माण काल और इतिहास अत्यन्त विवादास्पद है। "इम्पीरियल गजेटियर ऑफ़ इण्डिया' के अनुसार यह प्रतिमा १३वीं शताब्दी के अन्त में गुजरात से यहाँ लाई गई थी। एक अन्य मान्यता के अनुसार गुजरात से उज्जैन व उज्जैन से यहाँ लाई गई । मूर्ति का निर्माण काल भी विवादास्पद है। श्वेताम्बर एवं दिगम्बर सम्प्रदायों द्वारा न केवल प्रतिमा निर्माण काल, अपितु मन्दिर निर्माण काल के बारे में भी परस्पर विरोधी तक प्रस्तुत किये जाते हैं । वस्तुतः मन्दिर की संरचना एक ही काल में नहीं हुई, बल्कि भिन्न-भिन्न भागों का निर्माण भिन्न-भिन्न कालों में हुआ, जो मन्दिर में उपलब्ध शिलालेखों में वर्णित है। ___मन्दिर के चारों ओर बावन जिनालय, चारों दिशाओं में निर्मित हैं । प्रत्येक दिशा में एक जिनालय बद्ध है और उसके आगे मण्डप है । प्रत्येक जिनालय में ऋषभदेव की पद्मासन प्रतिमा है। पश्चिम में श्याम पाषाण का सहस्रकूट-चैत्यालय बना हुआ है । पूर्व की ओर, निज मन्दिर के समक्ष, ठीक मध्य में एक पाषाण गज व उसके ऊपर गुम्बद बना हुआ है । हाथी के दोनों ओर पाषाण चरण व उनके नीचे चमरवाहक इन्द्र खड़े हैं । निज मन्दिर के समक्ष, पूर्वी प्रवेश मार्ग के ऊपर भरत-बाहुबलि संघर्ष, बाहुबलि सन्यास आदि प्रकरणों का उत्कीर्णन है । मूलनायक की प्रतिमा एक फीट ऊँचे धातु के आसन पर है। चरण चौकी के मध्य दो बैलों के बीच में यक्षी चक्रेश्वरी, हाथी, सिंह, देव आदि भी बने हुए हैं । चरण चौकी पर सोलह स्वप्न अंकित हैं, धातु सिंहासन के दोनों पाश्वों के ऊपर २३ जिन प्रतिमाएं हैं, अतः यह चौबीसो बन गई है। मूलनायक के सिर के ऊपर तीन छत्र व पृष्ठ भाग में प्रभा-मण्डल है । मन्दिर के चारों ओर पक्का परकोटा है। विशाल प्रवेश द्वार के ऊपर नक्कार-खाना व अन्तः भाग में बाह्य परिक्रमा चौक तथा दोनों ओर कृष्ण पाषाण का एक-एक हाथी निर्मित है । ऊपर की छत में ८१ कोष्ठक का एक यन्त्र है, जिसे किसी भी ओर से जोड़ने पर योग ३६९ आता है। अगले द्वार से, दस सीढ़ी चढ़ने पर ९ स्तम्भों वाला मण्डप है, जिसे नौचौकी कहते हैं । यहाँ से तीसरे द्वार में प्रविष्ट होने पर खेला मण्डप व उसके ठीक सामने निज मन्दिर हैं, जिसमें केसरिया जी की विश्व-विश्रुत प्रतिमा है । १. भादि जैती, ४, पृ० १०६-१२६ । २. वही । ३. वही। Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन तीर्थ : १५७ (४) नाकोड़ा पाश्वनाथ तीर्थ (नगर): यह श्वेताम्बर जैन तीर्थ पूर्व मध्यकालीन बस्ती "नगर" जो मारवाड़ रियासत के मालाणी जिले के जसोल गाँव से ५ कि० मी० दक्षिण-पूर्व में स्थित है। नगर का प्राचीन नाम "महेवा" और "वीरमपुर" मिलता है । पार्श्वनाथ की प्रतिमा यहाँ स्थापित होने के बाद से ही यह “नाकोड़ा पार्श्वनाथ तीर्थ" कहलाने लगा और नगर नाम लुप्त सा हो गया । नाकोड़ा स्थल का प्राचीन इतिहास अनुश्रुतियों पर आधारित है, जिसके अनुसार इसका उदय ईसा से ५४ वर्ष पूर्व एवं वीरम दन्त तथा नाकोरसेन भ्राताओं द्वारा क्रमशः वीरमपुर एवं नाकोर नगरों की स्थापना करने पर हुआ था। आचार्य स्थूलिभद्र ने वीरमपुर में चन्द्रप्रभु को एवं नाकोर में सुविधिनाथ की जिन प्रतिमाएं प्रतिष्ठित करवाई तथा वीर निर्वाण संवत् २८१ में सम्प्रति, वीर निर्वाण संवत् ५०५ में उज्जैन के विक्रमादित्य, वीर निर्वाण संवत् ५३२ अर्थात् ५ ई० में मानतुंगसूरि ने इन मन्दिरों का जीर्णोद्धार करवाया ।५ ३५८ ई० में आचार्य देव सूरि ने वीरमपुर व ३६४ ई० में नाकोर में जीर्णोद्धार करवा कर प्रतिष्ठा सम्पन्न करवाई। इसके बाद ८५२ ई० में, वीरमपुर निवासी तातेड़ गोत्रीय सेठ हरकचन्द्र ने जीर्णोद्धार करवाकर महावीर स्वामी की प्रतिष्ठा कराई। इसके बाद मुगल आक्रमण के भय से मूर्तियों को सुरक्षित स्थान पर ले जाया गया और ११७६ ई० में वीरमपुर सकल संघ ने पुनः प्रतिष्ठा करवाई। १२२३ ई० में आलमशाह ने दोनों नगरों का भयंकर विध्वंस किया, तब सुरक्षार्थ प्रतिमाओं को दो मील दूर कालीदह-नागदह पहाड़ी में ले जाकर छुपाया गया ।' कालक्रम के साथ स्थान के नाम भी वीरमपुर, महेवा, महेवान नगर, मेवा नगर एवं नाकोड़ा पार्श्वनाथ के रूप में बदलते रहे। १५वीं शताब्दी में यह पुनः आबाद हुआ तब यहाँ लगभग २७०० जैन परिवार थे, किन्तु आज केवल मन्दिर एवं परिसर क्षेत्र में ही कुछ आबादी है, जिनमें जैन नगण्य हैं । इसका कारण संभवतः यह रहा कि १७वीं शताब्दी में श्रेष्ठी नानक सखलेचा की लम्बी चोटी से स्थानीय शासक के पुत्र ने अपने घोड़े का चाबुक बनाने की ठानी। अपमानित अनुभव करके १. एसिटारा, पृ० ४३१ । २. वही । ३. वही, पृ० ४३२ । ४. वीनिस्मा, १९७५, पृ० २-२१ । ५. वही। ६. वही । ७. वही। ८. वही। Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५८ : मध्यकालीन राजस्थान में जैनधर्म श्रेष्ठी परिवार ने इस स्थान को त्याग दिया । धीरे-धीरे सारा जेन समाज यहाँ से स्थानान्तरित हो गया व तीर्थ की व्यवस्था को बहुत आघात पहुँचा । अब जैन साधु एवं साध्वियों के प्रयासों से यह तीर्थं पुनः उत्कर्ष पर है ।" सैकड़ों खंडहर अपने प्राचीन वैभव, शिल्प एवं निर्माण की कहानी बता रहे हैं । " नाकोड़ा जैन तीर्थ की परिधि में ३ विशाल शिखरधारी जैन मन्दिर, कई छोटे देव गुम्बज एवं दो वैष्णव मन्दिर विद्यमान हैं । सबसे प्राचीन पार्श्वनाथ जिन मन्दिर है, जिसमें विनाश व जीर्णोद्धार का सतत् क्रम चलता रहा । महावीर प्रतिमा के स्थान पर इसमें १३७२ ई० में पार्श्वनाथ प्रतिमा स्थापित की गई । जनश्रुति के अनुसार, जिनदत्त नामक श्रावक ने नाकोर के पास से स्वप्न के आधार पर १३" श्यामवर्णी पार्श्वनाथ प्रतिमा जमीन से खोद कर प्राप्त की । मन्दिर तीर्थोद्धारक, आचार्य कीर्तिरत्न सूरि की पीले पाषाण की प्रतिमा, १४७९ ई० के अभिलेख सहित मन्दिर में प्रतिष्ठित है । पार्श्वनाथ मन्दिर का शिखर विशाल एवं भव्य है । मन्दिर में गूढ़ मंडप, सभामण्डप, नवचौकी, शृंगार चौकी, झरोखें आदि हैं, जो सभी साधारण हैं । इन्हें अब संगमरमर की बारीकियों का बाना पहनाया जा रहा है । मूलनायक प्रतिमा के आसपास उसी आकार की दो श्वेत संगमरमर पार्श्वनाथ प्रतिमाएँ | तीर्थं अधिष्ठायक देव, भैरव की प्रतिमा सुन्दर एवं कलात्मक है, जिसके चमत्कारों से भी तीर्थ की ख्याति निरन्तर बढ़ रही है । पास में ही जैन पंचतीर्थी, प्रतिमाओं की शाल एवं दो भूमिगृह भी हैं । मन्दिर में निर्माण सम्बन्धी १५८१ ई०, १६१० ई०,५१६२१ ई०, १६२५ ई० एवं १८०७ ई० तथा १८०८ ई० के प्राचीन शिलालेख हैं । पार्श्वनाथ मन्दिर के पीछे आदिनाथ का मन्दिर है, जो शिल्पाकृतियों का खजाना है । इस मन्दिर का निर्माण वीरमपुर निवासी मालाशाह की बहन लाछी बाई ने करवाकर १४५५ ई० में प्रतिष्ठा करवाई । पहले मूल नायक प्रतिमा विमलनाथ की थी, किन्तु अब संप्रति कालीन आदिनाथ प्रतिमा है । मन्दिर के शिखर एवं मण्डप शिल्पकला की दृष्टि से उत्कृष्ट हैं । यहाँ भारत-पाक विभाजन के समय सिंध प्रदेश के हालानगर से लाई गई प्रतिमाएँ भी भूमिगृह में हैं । इस मन्दिर में १४५५ ई०, १५०५ ई०, १५७५ ई० एवं १५९० ई० के शिलालेख हैं । तीसरा १. वीनिस्मा, १९७५, पृ० २-२३ । २. वही, पृ० २ - २१ । ३. वही, पृ० २ २३ । ४. वही । ५. प्रोरिक्षासवेस, १९१२, पृ०५५ । ६. वोनिस्मा, १९७५, पृ० २ - २२ । ७. वही । Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन तीर्थ : २५१ शांतिनाथ मन्दिर है, जो मालाशाह संखलेचा ने १४६१ ई० में अपनी माता की इच्छा से बनवाया था। इसमें दिलवाड़ा के मन्दिरों के समान उत्कृष्ट शिल्प सौंदर्य है ।' ___इस तीर्थ पर जैन सन्त हमेशा आते रहे। १४वीं शताब्दी के विनयप्रभ उपाध्याय ने अपने "तीर्थ यात्रा स्तवन' में इस तीर्थ का उल्लेख किया है । १४२३ ई० में जिनभद्र सूरि यहाँ आये और कीर्ति रत्न सुरि को उपाध्याय की पदवी प्रदान की। कीर्तिरत्न सूरि का जन्म व मृत्यु स्थल यहीं रहा-(१३९२ ई०-१४६८ ई०)। इनके शिष्य कल्याणविजय रचित "कीतिरत्न सूरि विवाहला” और “कीर्तिरत्न सरि चौपाई"इस नगर के मन्दिरों, जनता एवं १५वीं शताब्दी की अन्य धार्मिक गतिविधियों की महत्त्वपूर्ण जानकारी प्रदान करती हैं। १४७८ ई० में "कल्पसूत्र" की एक स्वर्णाक्षरी प्रति, किसी जैन मुनि को भेंट करने के लिये यहीं पर लिखी गई थी। महिमासमुद्र नामक कवि ने अपने "महेवानगर स्तवन" में इस मन्दिर का जीर्णोद्धार १५०७ ई० में बताया है । शांति कुशल ने १६१२ ई० में लिखी "गौड़ी पार्श्वनाथ तीर्थमाला" में इस तीर्थ का उल्लेख किया है।४ समय सुन्दर भी इस तीथं से प्रभावित हुए थे।५ १६वीं शताब्दी में इस स्थान पर पल्लीवाल गच्छ बहुत लोकप्रिय था। (५) रावण पाश्र्वनाथ तीर्थ, अलवर : अलवर, जिला मुख्यालय एवं राजस्थान का महत्त्वपूर्ण नगर है। इसकी स्थापना सम्भवतः १०४९ ई० में हुई थी। यहां जैन धर्म काफी लोकप्रिय था । पूर्ववर्ती प्रमाणों के अभाव के कारण, १५वीं शताब्दी से पूर्व स्थान पर जैन धर्म की लोकप्रियता का सही आकलन नहीं हो सकता, किन्तु १५वीं शताब्दी से इस स्थान में जैन धर्म के समृद्ध होने के स्पष्ट प्रमाण हैं। तीर्थमालाओं में अलवर, "रावण पार्श्वनाथ तीर्थ' के रूप में वर्णित है । यहाँ विपुल जैन साहित्य भी सृजित हुआ। यद्यपि यह काल्पनिक ही प्रतीत होता है कि रावण ने कभी यहाँ पार्श्वनाथ की पूजा की होगी, किन्तु इस तथ्य से इस स्थान का जैन धर्म का केन्द्र होने का संकेत मिलता है। १५३१ ई० में अलवर निवासी उपकेश जाति के एक श्रावक ने सिद्धर्षि के द्वारा सुमतिनाथ की एक प्रतिमा स्थापित करवाई थी। १५८९ ई० का एक अभिलेख, जो एक प्रस्तर पट्टिका पर उत्कीर्ण है, में १. वीनिस्मा। २. जैसप्र, १७, पृ० १५ । ३. वही, २०, पृ० ७३ । ४. वही, ५, पृ. ३६६-३६८ । ५. जैन तीर्थ सवं संग्रह, पृ० १८४ । ६. एसिटारा, पृ० ३७९ । ७. नाजलेस, २, सं० १४६४ । Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६० : मध्यकालीन राजस्थान में जैनधर्म अलवर में रावण पार्श्वनाथ का मन्दिर बनवाने का उल्लेख मिलता है। इसकी मूर्ति का प्रतिष्ठा महोत्सव, योगिनीपुर के मूल विवासी व बाद में आगरा में बस गये, हीरानंद के द्वारा आयोजित करवाया गया था।' कुछ साहित्यिक रचनाएं २, जैसे-साधु कीर्ति द्वारा १५६७ ई० में "मौन एकादशी स्तवन", १६४२ ई० में शिवचन्द्र द्वारा "विदग्ध मुख मंडन वृत्ति", १६२५ ई० में लालचन्द्र द्वारा 'देवकुमार चौपई" और १८२१ ई० में विनयचन्द्र द्वारा "महिपाल चौपई" अलवर में ही रची गई थीं। जैन सन्तों की प्रेरणा से कई हस्तलिखित ग्रन्थों की प्रतिलिपियां भी तैयार की गई। ( ६ ) जावर तीर्थ : जावर की प्रसिद्धि जस्ते व चाँदी की खानों के अतिरिक्त, जैन तीर्थ के रूप में भी रही है । महाराणा लाखा के काल में यह नगर जैन धर्म का महत्त्वपूर्ण केन्द्र था । १४२१ ई० के एक अभिलेख से ज्ञात होता है कि यहाँ पर प्राग्वाट जाति के नाना ने शांतिनाथ का एक मन्दिर निर्मित करवाया था। इस मन्दिर का प्रतिष्ठा समारोह तपागच्छाचार्य सोमसुन्दर सूरि के द्वारा संपन्न करवाया गया था। अभिलेख में प्रतिष्ठा महोत्सव के भव्य रूप से संपन्न होने एवं अनेक आचार्यों के भाग लेने का उल्लेख है। अभिलेख में प्राग्वाट नाना और उसके पुत्र रत्ना द्वारा चित्तौड़, शत्रुजय, गिरनार, आबू, जीरावला आदि की तीर्थ यात्राओं का भी वर्णन है । १४३३ ई० में इस मन्दिर में एक देवकुलिका निर्मित करवाई गई, जिसका वास्तुकार सहदेव और निर्माता श्रेष्ठी कान्हा था। इसी वर्ष के एक अन्य अभिलेख में खरतर गच्छ के जिनसागर सूरि का उल्लेख है। १४३६ ई. के एक छोटे अभिलेख में क्षमामूर्ति, विवेकहंस, उदयशील गणि, मेरु कुंजर आदि जैनाचार्यों के यहां आने का उल्लेख है। इसी प्रकार पद्मशेखर सूरि और धर्मघोष गच्छ के हरिकलश तथा अन्य विख्यात जैनाचार्य १४३८ ई० में इस तीर्थ पर आये थे।" १४४० ई० में रत्नचन्द्र सूरि अपने शिष्यों के साथ इस तीर्थ के मूलनायक की पूजाअर्चना हेतु आये थे । इस प्रकार मध्यकाल में परम्परागत तीर्थ यात्राओं के एक महत्त्व १. एरिराम्युअ, १९२०, क्र० १५, पृ० ४ । २. अरावली, १, क्र० ९२।। ३. नाजैलेस, २, क्र० १४६४ । ४, वीरविनोद, भाग १, परिशिष्ट । ५. प्राजैलेस, १। ६. इए, ए० रि०, १९५६-५७, पृ० ५१७ । ७. वही, पृ० ५२२। Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन तीर्थ : २६१ पूर्ण तीर्थ के रूप में जावर प्रतिष्ठित हो गया था।' १४५१ ई० में देलवाड़ा के प्रतिष्ठा महोत्सव से एक प्रतिमा जावर भी भेजी गई थी। खरतर गच्छ के जिनचन्द्र सूरि के उपदेशों से श्रेष्ठी कान्हा ने यहां पर एक “वीर विहार" का निर्माण करवाया था। १४९७ ई० के लेख के अनुसार यह तीर्थ महाराणा कुम्भा की पुत्री रमा बाई की जागीर में था। यहाँ पर महाराणा रायमल, सांगा व बनवीर के काल के १४९७ ई०, १५२५ ई० व १५४० ई० के अभिलेख उपलब्ध हैं। शान्तिनाथ मन्दिर का जीर्णोद्धार १६३७ ई० में पंचोली वीरसेन, चौधरी मोहन तथा कुछ अन्य व्यक्तियों ने मिलकर करवाया था। (७) देवकुल पाटक तीर्थ ( देलवाड़ा-मेवाड़ ): मेवाड़ की पंचतीर्थी का यह तीर्थ उदयपुर से १८ मील दूर है । मध्यकाल में यह महत्त्वपूर्ण जैन तीर्थ था। वर्तमान में यहाँ महत्त्वपूर्ण, चार जैन मन्दिर हैं । पहला मन्दिर कस्बे के बाहर विशिष्ट संरचनात्मक विशेषताएँ लिये हुये है, शेष मन्दिर सामान्य हैं। इस कस्बे में १४०३ ई० से १४५३ ई० तक के कई अभिलेख प्राप्त होते हैं। संभवतः यहां महाराणा खेता से राणा सांगा तक के शासन कालों के मध्य कई जैन श्रेष्ठी रहते थे। मेघ, विशाल, केल्हा, निंबा, भीम, कटुक आदि श्रेष्ठियों के जैन संघ ने यहाँ एक ऋषभदेव मन्दिर बनवाया था।५ केल्हा के पुत्र सूरि ने १४३२ ई० में कुंथुनाथ की प्रतिमा की प्रतिष्ठा करवाई थी, जो वर्तमान में उदयपुर के शान्तिनाथ मन्दिर में सुरक्षित है । यहाँ के रामदेव नवलखा व उनका पुत्र सहनपाल मेवाड़ के मन्त्री रहे थे। १४१२ ई० में जिनराज सूरि और मेरुनन्दन उपाध्याय की प्रतिमाएँ रामदेव की पत्नी मेलादेवी के द्वारा यहाँ स्थापित करवाई गई थीं। १४२९ ई० में उसने हो जिनवर्धन सरि को प्रतिमा की प्रतिष्ठा भी करवाई। सहनपाल ने १४३४ ई० और १४३७ ई० में कई प्रतिमाओं की स्थापना करवाई थी।' १४३४ ई० में उसने एक शत्रुञ्जय पट्ट भी स्थापित करवाया था।९ १४३४ ई० के अभिलेख में मन्दिरों की १. जैरा, पृ० १३१ ।। २. प्राजलेस, क्र० ३७२। ३. इए, ए० रि० १९५६-५७, पृ० ५२४ । ४. एरिराम्युअ, १९२५, क्र० १२। ५. विजय धर्मसूरि, देवकुलपाटक, भावनगर १९३५ । ६. जैलेस, भावनगर, १, क्र० १४८ । ७. सोमाणी-महाराणा कुम्भा, पृ० ३३३ । ८. विजय धर्म-देवकुलपाटक, क्र० ९ । ९. वही, क्र० १३ । Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६२ : मध्यकालीन राजस्थान में जैनधर्म व्यवस्था के निमित्त महत्त्वपूर्ण तथ्य हैं। इसके अनुसार इस मन्दिर के "धर्म चिन्तामणि" की पूजा के लिये १४ टका अनुदान करने का उल्लेख है । (८) भीलड़िया तीर्थ : ___ श्री जैन प्रतिमा लेख संग्रह में इस तीर्थ का उल्लेख है। यहाँ के जैन मन्दिर से १२७७ ई० से १८३५ ई० तक के ११ अभिलेख प्राप्त होते हैं, जिनके आधार पर इसे मध्यकालीन तीर्थ माना जा सकता है । १२८७ ई० का लेख अम्बिका की प्रतिमा पर तथा इसी वर्ष का एक अन्य लेख अधिष्ठायक मूर्ति पर है। गृह मन्दिर में मूलनायक नेमिनाथ की प्रतिमा के अतिरिक्त, १८३५ ई० की आदिनाथ और चन्द्रप्रभु की प्रतिमाएं भी हैं। १३१० ई० का लेख आदिनाथ की धातु पंचतीर्थी पर, १४७८ ई० का लेख शान्तिनाथ बिम्ब पर, १२७७ ई० का गौतम स्वामी की प्रतिमा पर, १४५० ई० का सुमतिनाथ पंचतीर्थी पर तथा १७८० ई० का लेख पादुकाओं पर अंकित है। (स) उत्तर मध्यकाल: (१) श्री महावीर जी : __श्री दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र महावीर जी, सवाई माधोपुर जिले में पश्चिमी रेलवे की दिल्ली-बम्बई मुख्य लाइन पर गंगापुर सिटी के पास, इसी नाम का रेलवे स्टेशन है, जहां से ६ कि० मी० दूर, इसी नाम की बस्ती में महावीर मन्दिर अवस्थित है । मुख्य मन्दिर के अतिरिक्त, यहाँ अन्य कई जैन मन्दिर व धर्मशालाएँ हैं । अतिशय युक्त मूर्ति का इतिहास किंवदंतिपूर्ण है। चाँदनपुर (निकटस्थ ग्राम ) के ग्वाले की गाय निकटवर्ती एक टीले पर रुक कर स्तनों से स्वतः दूध गिरा देती थी। ग्वाले ने उत्सुकता वश टीले को खोदा तो उसमें से मूर्ति निकली, जिसके दर्शनार्थ आसपास के बहुत से लोग आये । बसवा गाँव ( जयपुर ) के दिगम्बर खण्डेलवाल, बिलाला गोत्रीय अमरचन्द ने, मूर्ति को अतिशयता से सम्मोहित होकर मन्दिर का निर्माण करवाया । धीरे-धीरे लोगों की मनोकामनाएं पूर्ण होने लगी और चाँदनपुर वाले महावीर जी का यश-सौरभ और फैलने लगा एवं लोक श्रद्धा ने इसे अतिशय सम्पन्न तीर्थ की मान्यता दे दी। महावीर जी क्षेत्र की भौगोलिक स्थिति बयाना व ताहनगढ़ के मध्य होने के कारण इस क्षेत्र से मुस्लिम सेनाओं का आवागमन बना रहता था। संभवतः किसी काल खण्ड १. नाजैलेस, २, क्र० २००६ । २. श्री जैप्रलेस, पृ० १९ । ३. वही, क्र० ३३४-३४४ । ४. वही, क्र० ३०६-३०९ । Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बेन तीर्थ : २६३ में मूर्ति, सुरक्षा हेतु मिट्टी में दबा दी गई थी, या विध्वंस के परिणाम स्वरूप अवशेष रूप में दबी पड़ी रही। अतिशय क्षेत्र के प्रादुर्भाव का निश्चित समय ज्ञात नहीं है। राजकीय रेकॉर्ड के बनुसार १७१४ ई० में भी यह मन्दिर विद्यमान था।' १७८२ ई० में जयपुर के तत्कालीन नरेशों ने एक गाँव श्री जी को भेंट में दिया था। यह स्थान आमेर गद्दी के मूलसंघ आम्नाय के दिगम्बर जैन भट्टारकों का केन्द्र रहा, जिनका तत्कालीन बादशाहों व राजाओं पर भी अच्छा प्रभाव था। ___ अतिशय क्षेत्र एक विशाल कटले में स्थित है। उत्तर-मुखी सिंहद्वार पर एक नगाड़खाना है। परिसर की दीवार के साथ अन्दर की तरफ एक दुमंजिली धर्मशाला एवं मध्य के विशाल प्रांगण में मुख्य मन्दिर है। मन्दिर के मुख्य द्वार के समक्ष मान-स्तम्भ व तीन छत्रियां हैं। सीढ़ियों से ऊपर चढ़कर, संगमरमर की खुली छत तथा ठीक सामने मन्दिर का द्वार व चौक है । महामण्डप में प्रवेश करने के लिये ७ द्वार हैं, इनमें से पांच के ऊपर खड्गासन प्रतिमाएं हैं। सामने ही तीन दर की वेदी पर कत्थई वर्ण की महावीर मूर्ति ( मूल मूर्ति की अनुकृति ) तथा इसके अगल-बगल भूरे रंग की तीर्थंकर प्रतिमाएं हैं। यहाँ से दो सीढ़ी चढ़कर गर्भगृह है, जिसके बाघ तोरण पर ६ इंच को पद्मासन प्रतिमा है। द्वार के दोनों पावों में दण्डधर व उनके ऊपर खड्गासन प्रतिमाएँ निर्मित हैं । गर्भगृह में तीन दर की वेदी पर पाषाण एवं धातु की अनेक प्रतिमाएं हैं। आगे तीन दर की मुख्य वेदी पर भूगर्भ से निकली हुई महावीर की मुंगावर्ण की अतिशय सम्पन्न प्रतिमा आसीन है । इस मूर्ति की शिल्प-योजना और रचना शैली गुप्तोत्तर काल की प्रतीत होती है । ३ मति ठोस ग्रेनाइट की न होकर रवेदार बलुए पाषाण की है, इसलिये काफी घिस भी चुकी है । मूर्ति पर कोई लेख नहीं है। वेदी के आसपास अन्य वेदियों पर शान्तिनाथ, कुंथुनाथ तथा अन्य कई छोटी-बड़ी धातु व पाषाण प्रतिमाएँ हैं। मन्दिर में चंवर धारी यक्षी, पद्मावती, क्षेत्रपाल आदि की भी प्रतिमाएँ हैं । भक्त जनता में क्षेत्रपाल की बहुत मान्यता है । प्रदक्षिणा में दीवार पर संगमरमर पर अत्यन्त कलात्मक १६ पौराणिक दृश्यों का अंकन है। मन्दिर के ऊपर तीन विशाल शिखर हैं, जो मन्दिर की अतिशयता व श्री वृद्धि करते प्रतीत होते हैं। कटले के पीछे टीले पर अब पगल्या स्थापित हैं तथा महावीर स्वामी की २५००वीं निर्वाण जयन्ती पर निर्मित ३३ फीट ऊंचा कीर्ति स्तम्भ है। राजस्थान में जैनधर्म की भूमिका को उजागर करने व जैन इतिहास में तिमिरावृत्त १. भादिजैती, ४, पृ० २३ । २. वही। ३. वही, पृ० २४ । Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६४ : मध्यकालीन राजस्थान में जैनधर्म पृष्ठों को प्रकाशित करने के सन्दर्भ में, इस क्षेत्र की समिति का महत्त्वपूर्ण योगदान है। सरस्वती भवन व शोध संस्थान के माध्यम से अप्रकाशित जैन ग्रन्थों के शोध व प्रकाशन का कार्य हो रहा है तथा यहाँ से विभिन्न शास्त्र भण्डारों की सूचियाँ भी प्रकाशित हुई हैं। यदि इस तीर्थ को "ज्ञान तीर्थ" की संज्ञा भी दी जाय, तो कोई अत्युक्ति नहीं होगी। (२) चांदखेड़ी तीर्थ : श्री दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र चाँदखेड़ी, झालावाड़ जिले में खानपुर कस्बे से तीन फलांग दूर, रूपली नदी के तट पर अवस्थित है। इस क्षेत्र का निर्माण औरंगजेब के शासनकाल में १६८९ ई० में हुआ था। इस सम्बन्ध में परम्परानुगत अनुश्रुति है कि खानपुर मवेशी मेले में किशनदास को स्वप्न हुआ कि खानपुर और शेरगढ़ के बीच ९ कि० मी० दूर, बारहपाटो के पाडाखोह के भूगर्भ में कई प्रतिमाएँ दबी पड़ी हैं। खुदाई करवाने पर वहाँ से आदिनाथ स्वामी, महावीर स्वामी आदि तीर्थंकरों की कई मूर्तियां निकलीं। संभवतः प्राचीनकाल में यहाँ कोई विशाल जैन मन्दिर रहा होगा । आदिनाथ प्रतिमा को उठाने के कई प्रयास विफल हुये। पुनः स्वप्न के आधार पर किशनदास सरकंडे की गाड़ी में मूर्ति को लाने लगे। उनका विचार मूर्ति को सांगोद ले जाकर स्थापित करने का था। स्वप्न के निर्देशानुसार उन्हें गाड़ी लाते समय पीछे भी नहीं देखना था, किन्तु रूपली नदी पर भ्रमवश पीछे देखने पर गाड़ी रुक गई व वहीं मन्दिर निर्मित करवाना पड़ा। निर्माण कार्य १६८५ ई० में प्रारम्भ हुआ और ४ वर्ष बाद १६८९ ई० में पूर्ण हुआ। इसी वर्ष विशाल समारोह के साथ, आमेर पीठ के भट्टारक जगतकीति के द्वारा पंचकल्याणक प्रतिष्ठा सम्पन्न करवाई गई। आदिनाथ की उक्त प्रतिमा के चमत्कारों एवं अतिशयों को ख्याति दूर-दूर तक है। प्रतिमा अत्यन्त कलापूर्ण, समचतुरस्त्र-संस्थानयुक्त, भव्य, प्रशान्त, लावण्ययुक्त एवं कला सौष्ठव से पूर्ण है। मन्दिर की संरचना मध्यकाल की मन्दिर योजना का उत्कृष्ट उदाहरण है । औरंगजेब के काल में यह मन्दिर आशंकाओं के मध्य पूर्ण हुआ होगा। इस समय औरंगजेब दक्षिण में युद्धों में व्यस्त था। कोटा नरेश भी उसकी सहायतार्थं दक्षिण में ही थे । मुसलमानों द्वारा विध्वंस की आशंका से मन्दिर की निर्माण योजना दुर्ग की तरह की गई है । शिखर भी छोटा है, जो बाहर से स्पष्ट नहीं देखा जा सकता है । परिसर के अन्दर सामान्य मन्दिर जैसा दृश्य है, किन्तु तल प्रकोष्ठ में अपूर्व मूर्ति-वैभव है। मुख्य प्रवेश द्वार में घुसने पर विशाल परिसर है, जिसमें संगमरमर का संवसरण मन्दिर अभी १. भादिजैती, पृ० ३१-३३ । Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन तीर्थ : २६५ निर्माणाधीन है। दांयी तरफ, एक अन्य द्वार से प्रविष्ट होने पर दूसरा परिसर है, जिसमें चारों ओर धर्मशाला व प्रांगण में जिनालय है । मन्दिर के चारों कोनों पर छतरियां हैं, व मुख्य शिखर कलश मंडित है । मन्दिर के द्वार मण्डप में एक स्तम्भ पर चारों दिशाओं में तीर्थकर मूर्तियां व उनके नीचे तीन और डेढ़ फुट की लम्बाई में शिलालेख उत्कीर्ण हैं । द्वार में प्रवेश करने पर मन्दिर के अन्तः भाग का बरामदा है, जिसमें पांच वेदियां व एक गन्ध-कुटी है। वेदियों में कुल १३ तीर्थंकर मूर्तियां व एक आचार्य मूर्ति है। गन्धकुटी में सुपार्श्वनाथ की कृष्ण वर्ण पद्मासन प्रतिमा है । सामने ही गर्भगृह है, जिसमें ३ वेदियाँ हैं-प्रथम वेदी में ५ पाषाण मूर्तियाँ, ४ इंच ऊँचा एक पाषाण चैत्य तथा तीन धातु मूर्तियाँ हैं । द्वितीय वेदी में बाहुबलि की ५ फीट समुन्नत खड्गासन प्रतिमा, ३ पाषाण व १ धातु प्रतिमा है। तृतीय वेदी में ८ मूर्तियाँ हैं । इस गर्भगृह के निकट से एक सोपान मार्ग भूगर्भ स्थित तल प्रकोष्ठ को जाता है। सीढ़ियों से उतरने पर बाँयीं ओर की दीवार में २३ फीट समुन्नत एक शिलाफलक में चतुर्भुजी देवी उत्कीर्ण है। इसके दाहिने हाथों में माला व अंकुश तथा बाँयें हाथों में त्रिशूल और दण्ड हैं। देवी का वाहन खण्डित है। शिरोभाग पर तीर्थकर प्रतिमा पद्मासन मुद्रा में उत्कीर्ण है। सामने की दीवार पर २ फीट ४ इंच ऊँचे फलक में चतुर्भुजी अम्बिका बनी हुई है, दाहिने दो हाथों में अंकुश व वरद मुद्रा तथा बाँयें दो हाथों में कमल व दूसरे में गोद में पुत्र को लिये हुये हैं। देवी के हाथों में कंकण, चूड़ियाँ, भुजबन्द, मंगलसूत्र, हार, मौक्तिक माला, कुण्डल व सिर पर मुकुट है। बाँयों ओर गर्भगृह में ८ फीट ४ इंच ऊँचे और ७ फीट, ३ इंच चौड़े शिलाफलक में २ फीट ९ इंच ऊँची महावीर को खड़गासन प्रतिमा उत्कीर्ण है । इसके अलावा इस फलक में ५ तीर्थंकर प्रतिमाएँ, दोनों ध्यानासनों में बनी हैं। इसके परिकर में गज माला लिये हुये देव, चमरेन्द्र, व्याल और दोनों ओर यक्ष-यक्षी हैं। इस मनोज्ञ और कलापूर्ण मूर्ति का प्रतिष्ठा काल १०८९ ई० है, जो चरण चौकी पर अंकित है । मुख्य गर्भगृह में वेदी ‘पर मूलनायक ऋषभदेव की हल्के लाल पाषाण की पद्मासन प्रतिमा है । वक्ष पर श्रीवत्स तथा हाथों और पैरों पर पद्म बने हैं। पाद पीठ पर ३ फीट, एक इंच लम्बा ८ पंक्यिों का लेख उत्कीर्ण है, जिसके अनुसार १६८९ ई० में मूल संघ के भट्टारक जगत्कोति द्वारा खींचीवाड़ा देश में चांदखेड़ी में, किशोर सिंह के राज्य में, बघेरवाल बंशी भूपति और जौलादे के पुत्र, संघी किशनदास ने बिम्ब प्रतिष्ठा करायी । यह प्रतिमा ६ फीट ३ इंच ऊँची और ५ फीट ५ इंच चौड़ी है। प्रतिमा के मुख पर शान्ति, विराग और करुणा की निर्मल भावप्रवणता झलकती है। इस प्रतिमा का निर्माण काल ४५५ ई० मानते हैं, जिसे प्रामाणिक नहीं माना जा सकता। वस्तुतः पूर्वोक्त महावीर प्रतिमा भी इसी के साथ उत्खनन में प्राप्त हुई थी, अतः यह मूर्ति भी उसो की समकालीन अर्थात् ११वीं शताब्दी की मानी जा सकती है । इस वेदी पर एक Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९६ : मध्यकालीन राजस्थान में जैनधर्म पाषाण फलक में तीन तीर्थंकर मूर्तियां, एक दूसरे के ऊपर बनी हुई हैं। एक अन्य शिलाफलक में, जो मूलतः चौबीसी है, मध्य में पद्मासन मुद्रा में पार्श्वनाथ हैं। इसके शीर्ष भाग में शिखर बना हुआ है। बायीं ओर के एक फलक में, एक ओर उसके उभय पावों में दो खड्गासन मूर्तियां हैं । बायीं ओर दीवार की वेदी में सम्भवनाथ हैं । दायीं ओर की दीवार की वेदी में १६८९ ई० की प्रतिष्ठित ४ मूर्तियां हैं । यहीं १ फुट ९ इंच ऊँचा शिखराकार नन्दीश्वर जिनालय भी है।' तल प्रकोष्ठ के सभा मण्डप में एक स्तम्भ में चारों दिशाओं में ५२-५२ मूर्तियाँ उत्कीर्ण हैं । यह बावन जिनालय स्तम्भ कहलाता है । ऐसा बावन जिनालय स्तम्भ कहीं उपलब्ध नहीं होता, जिसमें २०८ मूर्तियाँ हों। तल प्रकोष्ठ का यह भाग उतना ही बड़ा है, जितना मन्दिर का ऊपरी भाग । इसकी भित्तियाँ नदी की निकटता के कारण ८ फीट चौड़ी बनाई गई हैं। मन्दिर के प्रवेश द्वार के सामने एक बरामदे में शेरगढ़ के जैन मन्दिर से लायी हुई, ११वी व १२वीं शताब्दी की ३ तीर्थकर मूर्तियां हैं। मन्दिर के अहाते में संलग्न क्षेत्र के बगीचे में दो छतरियाँ हैं । एक का निर्माण सिरोंज पट्ट के भट्टारक भुवनेन्द्र कीर्ति ने १८०३ ई० में तथा दूसरी का भट्रारक राजेन्द्र कीर्ति ने १८२६ ई० में करवाया । क्षेत्र की व्यवस्था एक प्रबन्धकारिणी समिति के सुपुर्द है।' (३) कापरडा तीर्थ : यह तीथं जोधपुर से जैतारण के मध्य, बिलाड़ा तहसील में पीपाड़ से १० मील दूर स्थित है। १६६४ ई० में उपाध्याय मेघविजय ने पाश्वनाथ-नाम-माला' में "कापडहैडा" को पार्श्वनाथ तीर्थ के रूप में वर्णित किया है ।२ अनुश्रुतियों के अनुसार एक लड़की को भूमि में दबी मूर्ति का स्वप्न आया, जो उसने यति को बताया। खुदाई करके तदनन्तर मूर्ति निकाली गई। सम्भवतः पहले कभी यहां मन्दिर रहा होगा। इसी. स्थान पर नीलवर्ण की ३ मूर्तियां और निकली थीं, जो अभी जोधपुर, सोजत व पीपाड़ में प्रतिष्ठित हैं। मूर्तियों पर लेख नहीं हैं । १६०३ ई० में मन्दिर का निर्माण कार्य शिल्पज्ञ जोरा के निर्देशन में भानाजी भण्डारी द्वारा प्रारम्भ करवाया गया । १० वर्ष तक निर्माण कार्य चला । मन्दिर का मुख्य स्तर भूमि से १०० फुट ऊँचा रखा गया था । यह मन्दिर चौमुखा, चौमंजिला व विशाल है । भव्यता के आकर्षण से दूरदूर से लोग इस तीर्थ पर आते हैं। तीर्थ के मूलनायक पुरुषादानीय, परमचामत्कारिक, श्री स्वयम्भू पार्श्वनाथ की नीलवर्णी, सपरिकर, नयनरम्य मूर्ति बहुत भव्य है । १. भादि जैती। २. वही। ३. कापरडा तीर्थ का संक्षिप्त इतिहास, पृ० १०, प्राचीन तीर्थमाला संग्रह, पृ० १५१ . Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन तीर्थ : १६७ १६७८ ई० में पाली से खरतर गच्छीय चन्द्र सूरि को बुलवाकर प्रतिष्ठा की गई। प्रतिमा लेख से ज्ञात होता है कि महाराजा गजसिंह के राज्य में उकेशवंशीय लाखन सन्ता ने, भण्डारी गोत्र के अमरा पुत्र भाना ने भार्या व पुत्र सहित एक मूर्ति प्रतिष्ठित करवाई थी।' मन्दिर की प्रतिष्ठा के समय महाराजा स्वयं उपस्थित थे। राजा ने दान व सनद आदि भी प्रदान किये थे । राज्य से केशर, धूप, चन्दन आदि के लिये ३० रुपये मासिक बिलाड़ा तहसील से मिलने की व्यवस्था थी।२ १८३५ ई० के पश्चात् से ही यहाँ की जनसंख्या में काफी कमी आ गई। १९१८ ई० में जीर्णोद्धार के पश्चात् यहाँ पुनः प्रतिष्ठा हुई थी। (४) दयाल शाह का किला : __ उदयपुर से ४३ मील दूर, बस मार्ग पर, राजनगर कस्बे में एक ऊंची पहाड़ी पर यह किला और तीर्थ स्थित है, जो मेवाड़ की पंचतीर्थी में सम्मिलित किया जाता है। यहाँ मंत्री दयालशाह ने नौमंजिला चतुर्मुख जिन प्रासाद निर्मित करवाया था और उसमें ऋषभदेव की मूर्ति प्रतिष्ठित करवाई थी। मन्दिर की कारीगरी और सज्जा उत्कृष्ट और मनोरम है। यहां पर "राज-प्रशस्ति" नामक २५ सर्ग का पाषाण शिला पर लेख है, जो भारत का सबसे बड़ा शिलालेख है । राणा राजसिंह ने जितना धन राजसमंद बनवाने में व्यय किया, उतना ही धन उनके मन्त्री दयालशाह ने इस मन्दिर के निर्माण में व्यय किया था। (५) जैसलमेर पंचतीर्थी के अन्य मन्दिर एवं तीर्थ : (क) अमरसर के जैन मन्दिर : __ जैसलमेर से ३ मील दूर लोद्रवा की तरफ सघन आम्र वृक्षों से आच्छादित.. महारावल अमरसिंह द्वारा निर्मित अमरसर बांध, उपवन है। इसमें ३ जैन मन्दिर हैं तीनों के मूल नायक आदिनाथ हैं । प्रथम मन्दिर सड़क के किनारे मुनि इंगर सी की बेरी के पास है, जो पंचायत की तरफ से बनवाया हआ है। मन्दिर की प्रतिष्ठा १८४६ ई० में राणा रणजीत सिंह के काल में हुई । शेष दोनों मन्दिरों का निर्माण जैसलमेर के सुख्यात बाफना ( पटवा ) जाति के सेठों ने करवाया। छोटे मन्दिर का निर्माण सवाई राम बाफना ने १८४० ई० में और बड़े मन्दिर का निर्माण हिम्मत राम बाफना ने १८७१ ई० में करवाया। बड़े मन्दिर की प्रतिमा बोकमपुर से लाई गई है, जो लगभग १५०० वर्ष प्राचीन है। दोनों मन्दिरों की प्रतिष्ठा खरतर गच्छाचार्य १. कापरडा तीर्थ, पृ० ३८ । २. वही, पृ० ३८। ३. जैसरा, पृ० १९८ । Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६८ : मध्यकालीन राजस्थान में जैनधर्म महेन्द्र सूरि के द्वारा सम्पन्न हुई । मन्दिर निर्माण में श्वेत और पीले संगमरमर का अच्छा सामंजस्य है । स्थापत्य पर कुछ अंशों में मुगल प्रभाव दृष्टिगत होता है । गवाक्ष, तिबारियाँ, बरामदों आदि पर उत्कीर्ण अलंकरण मनमोहक है । यहाँ रंगमंडप की जगह अलंकरण युक्त बरामदा है। इन मन्दिरों की सुन्दर शिल्पकला के विषय में पूर्ण चन्द्र नाहर ने लिखा है, "विशाल मरुभूमि में ऐसा मूल्यवान भारतीय शिल्प कला का नमूना दर्शनीय वस्तुओं की गणना में रखा जा सकता है।" मन्दिर में प्रशस्ति के अतिरिक्त पीले पाषाण पर उत्कीर्ण एक दीर्घकाय शिलालेख है।' (ख) ब्रह्मसर के जैन मन्दिर : __ ब्रह्मसर, जैसलमेर से ८ मील उत्तर में रामगढ़ सड़क पर स्थित है । इस गाँव में मुनि मोहन लाल की आज्ञा से बागरेचा अमोलक चन्द के पुत्र माणक लाल ने महारावल बेरीसाल के समय में १८८७ ई० में पार्श्वनाथ का सुन्दर मन्दिर बनवाया, जो कलात्मक दृष्टि से दर्शनीय व तीर्थ यात्रियों के लिए वन्दनीय है। (ग) देवीकोट के जैन मन्दिर : बाड़मेर जाने वाली सड़क पर यह स्थान जैसलमेर से २४ मील दूर दक्षिण पूर्व में स्थित है । अन्य स्थानों की तरह यह भी काफी प्राचीन है । यहाँ श्री संघ की ओर से बनवाया गया आदिनाथ का सुन्दर मन्दिर है, जो १८०३ ई० में महारावल मूलराज के राजत्वकाल में निर्मित हुआ। (घ) बरसलपुर के जैन मन्दिर : जैसलमेर से १४० मील तथा बीकानेर से ९२ मील दूर, यह एक प्राचीन नगर है । यहाँ लक्ष्मीनाथ मन्दिर के साथ ही पार्श्वनाथ मन्दिर है और दोनों को भोग एक ही साथ लगाया जाता है । लक्ष्मीचन्द सेवक ने जैसलमेर तवारीख के पृ० १८६ पर लिखा है, "मन्दिर एक में श्री लक्ष्मीनाथ जी व श्री पारसनाथ जी सामल विराजे व आरोगे हैं, जुदा करे तो विघ्न हुवै ।" वैष्णव व जैन धर्म समन्वय का यह अनूठा उदाहरण है। १. जैसंशो, प्रथम खंड, पृ० १०८-१११ । २. जैसलमेर दिग्दर्शन, पृ० १६ । ३. वही, पृ० १७॥ ४. वही, पृ० १८ । Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्याय पंचम जैन कला प्रत्येक काल, क्षेत्र, धर्म और संस्कृति में कुछ ऐसी मौलिक विशेषताएं होती हैं, जिससे कला का अपना एक निजी आयाम निर्मित होता है। राजस्थान में जैन कला, असंख्य स्थानीय कलाकारों एवं राजनीतिक परिस्थितियों, मूलतः धर्मान्ध मुस्लिम आक्रमणों के कारण, गुजरात आदि निकटस्थ क्षेत्रों से राजपूतों के संरक्षण में आये श्रावकों, वास्तुकारों, मूर्तिकारों और चित्रकारों के द्वारा, स्थानीय भौगोलिक विशेषताओं, जैनधर्म को मूल मान्यताओं, राजकीय प्रश्रय एवं जैनाचार्यों के सत्प्रयासों के फलस्वरूप, अपना निजी गौरव लिये हुये विकसित हुई। राजस्थान के सांस्कृतिक वैभव की निर्मिति में जैन कला का महत्त्वपूर्ण स्थान है, जो मन्दिर, शिल्प, मूर्तिकला और चित्रकला के जैनाश्रित विविध रूपों में दृष्टिगत होती है। यद्यपि मुस्लिम विध्वंस का आक्रामक प्रहार कला प्रतिमानों पर भी हुआ है, फिर भी बहुत कुछ जैनाचार्यों की सूझ-बूझ के परिणाम स्वरूप निर्मित शास्त्र भण्डारों में सुरक्षित है और जीर्णोद्धार कराये गये मन्दिर भी आंशिक रूप से पुरातन परिचय दे देते हैं। कई मन्दिरों में बहुमूल्य व कलात्मक मूर्तियों के संग्रह भी हैं। (अ) जैन चित्रकला : भारतीय चित्रकला की ऐतिहासिक परम्परा का अध्ययन करने पर ज्ञात होता है. कि १०वीं शताब्दी के पूर्व गुफा चित्रों या भित्ति चित्रों का निर्माण होता था। भित्ति चित्रों की कला के पश्चात् १०वीं या ११वीं शताब्दी से ताडपत्रीय चित्रों के रूप में जैन लघु चित्र शैली विकसित हुई। इस चित्रशैली के नामकरण के सम्बन्ध में मतभेद हैं । नार्मन ब्राउन ने इसे "श्वेताम्बर जैन शैली" कहा है, क्योंकि उनके मतानुसार इसका प्रयोग श्वेताम्बर जैन ग्रन्थों में ही हुआ है तथा आँख को निकली हुई अंकित करने का कारण, सम्भवतः इस सम्प्रदाय में प्रचलित तीर्थंकर मूर्तियों में कृत्रिम आँख लगाना है । डॉ० कुमारस्वामी ने इसे "जैन कला" तथा एन० सी० मेहता ने "गुजराती शैली" कहा है। राय कृष्णदास के मतानुसार इस शैली में भारतीय चित्रकला का ह्रास दिखाई देता है और ये चित्र "कुपड़" चित्रकारों के बनाये हुये हैं। इस कला को इस काल में विकसित हुई भाषा के अनुसार "अपभ्रंश शैली" की संज्ञा दी गई, किन्तु १. रायकृष्ण दास-भारत की चित्रकला, पृ० २९ । २. वही, पृ० २९ । Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७० : मध्यकालीन राजस्थान में जैनधर्म इससे भी पूर्व तिब्बती इतिहासज्ञ तारानाथ ने "पश्चिम भारतीय शैली" का उल्लेख किया है और डॉ० मोतीचन्द्र ने इस नाम का औचित्य स्वीकार किया है, क्योंकि उपलब्ध प्रमाणों के आधार पर इस शैली का उद्गम और विकास, पश्चिमी भारत में विशेषतः गुजरात व राजपूताना प्रदेश में हुआ सिद्ध होता है । तारानाथ के अनुसार पश्चिमी कला शैली मारू (मारवाड़) के शृंगधर नामक कुशल चित्रकार ने ७वीं शताब्दी में प्रारम्भ की थी जो उत्तर में नेपाल व कश्मीर तक पहुँच गई ।' उपलब्ध प्रमाणों से - स्पष्ट है कि इसकी पुष्टि जैन परम्पराओं के भीतर ही हुई, इसलिये इसका " जैन शैली" नाम अनुचित नहीं है । साराभाई नबाब ने इस शैली के लिये " पश्चिमी जैन कला" नाम सुझाया है । 3 २ ४ पर्सी ब्राउन ने अजन्ता व राजस्थानी चित्रकला के बीच का काल, वस्तुत: जैन " चित्रकला का काल है, भारतीय कला का अन्धकार युग बताया है । आचर के भी यही विचार हैं ।" भारतीय कला समीक्षक राय कृष्णदास ने जैन शैली के प्रति अत्यधिक आक्रोश व्यक्त किया है। वस्तुतः अजन्ता चित्रशैली के मानदण्डों से हर चित्रशैली को नहीं तौला जा सकता । सौन्दर्य को आदमी के चेहरे-मोहरों में न देखकर कला तत्त्वों की दृष्टि से संरचना को पहिचानने पर जैन चित्रकला नया ही अर्थबोध उपस्थित करती है । ११वीं से १६वीं शताब्दी तक जैन चित्रकला का समय माना जाता है । उसके पश्चात् राजस्थान में विविध प्रादेशिक चित्र शैलियाँ अस्तित्व में आई । बासिल ग्रे के अनुसार यह शैली १५वीं - १६वीं शताब्दी में अपने चरमोत्कर्ष पर थी । अकबर के काल में यह इतनी शक्तिशाली थी कि अकबर ने अपने पुस्तकालय विभाग के लिये गुजराती कलाकारों को चुना था । " मारिये बुसारिल के अनुसार जैन चित्रकला कुछ अर्थों में एकदम नवीन एवं पूर्ण क्रान्तिकारी शैली थी, जिसने चित्रकला के विकास में एक नया ही प्रकरण जोड़ा है | राजस्थान व गुजरात के बाहर भी इस शैली का प्रसार रहा, जहाँ जैन व अजैन दोनों प्रकार की सचित्र पुस्तकें लिखी जाती रहीं । १. इए, ४, पृ० १२०२ । २. जैन हीरालाल, भारतीय संस्कृति में जैनधर्म का योगदान, पृ० ३६८ । ३. वही ४. हेरिटेज ऑफ इण्डियन पेंटिग्ज ५. इण्डियन पेंटिग्ज ६. भारत की चित्रकला, पृ० २४-३६ । ७. जैसरा, पृ० २०४ । ८. राजपूत पेंटिग्स, पृ० ३ | ९. इण्डियन मिनिएचर, पृ० ४३ । जो Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खेन कला : २७१ वस्तुतः जैन शैली ने मुगल शैली के साथ संयुक्त होकर, १६वीं शताब्दी के पश्चात् राजस्थान की विविध चित्र शैलियों को जन्म दिया। अतः इस शैली की महत्ता आने वाली चित्रकला की भूमि तैयार करने में रही। राजस्थानी चित्रकला निश्चय ही “जैन शैली' की देन है। गजस्थान की जैन चित्रकला के अपने मौलिक रूप रहे हैं, जो भित्ति चित्रों एवं लघु चित्रशैली के विविध रूपांकनों, यथा सचित्र ताड़पत्रीय एवं कागज ग्रन्थ, सचित्र वस्त्र पट्ट, सचित्र विज्ञप्ति लेख, काष्ठचित्र एवं विभिन्न चित्र शृंखलाओं के रूप में देखने को मिलते हैं, जिनसे तत्कालीन धार्मिक, सामाजिक एवं राजनैतिक जीवन प्रकाश में आता है, तथा वातावरण, वेशभूषा आदि की भी परोक्ष रूप से जानकारी प्राप्त होती है । (१) पूर्व मध्यकाल : (क) भित्ति चित्र : पूर्व मध्यकाल में भित्ति चित्रों का निर्माण होता था, किन्तु भित्तियों का लेप और उस पर कलाकार के हाथों से निर्मित रेखाएँ तथा रंगों का विन्यास कालिक प्रभाव एवं धूप, वर्षा, पवन आदि प्राकृतिक शक्तियों की करालता को अधिक नहीं सह सकती। अतः इस काल के भित्ति चित्रों के उदाहरण राजस्थान में उपलब्ध नहीं होते, किन्तु भित्ति चित्रों के निर्माण के बाद से ही जैन चित्रकला की शैली अस्तित्व में आई। (ख) लघु चित्रशैली : (ख-१) सचित्र ताड़पत्रीय ग्रंथ : राजस्थान की जैन चित्रकला का प्रारम्भ ताड़पत्रीय ग्रन्थों से माना जा सकता है, जो सर्वाधिक, जैसलमेर के जिनभद्र सूरि ज्ञान भण्डार में उपलब्ध हैं । “दशवैकालिकसूत्रर्णि" एवं 'ओघनियुक्ति' (१०६० ई०), जिन्हें नागपाल के वंशज आनन्द ने पाडिल नामक कवि से प्रतिलिपि कराया था, प्राचीनतम चित्रित ग्रन्थ हैं। इन ग्रन्थों में लक्ष्मी, इन्द्र, हाथी आदि की आकृतियाँ कलामय एवं दर्शनीय हैं। चौहानकालीन "पंचाशक प्रकरण वृत्ति' (११५० ई०), "उपदेश प्रकरण वृत्ति" (११५५ ई०), "कवि रहस्य' (११५९ ई०), "दशवकालिकसूत्र' आदि हैं, जिनका चित्रण पाली और अजमेर में हुआ था, जैसलमेर ज्ञान भण्डार में संग्रहीत हैं। १. चोयल, जैसरा, पृ० २०९ । २. वाचस्पति गेरोला-भारतीय चित्रकला का संक्षिप्त इतिहास, पृ० ४१ । ३. पुण्यविजय-केटेलांग ऑफ प्राकृत एण्ड संस्कृत मेनु० जैसलमेर, अहमदाबाद १९७२, पृ० २८। ४. वही, पृ० १४१ । Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७२ : मध्यकालीन राजस्थान में जैनधर्म (ख-२) सचित्र कागज ग्रन्थ : कागज, १०वीं-११वीं शताब्दी में अरब देशों से भारत में आया। जैसलमेर ग्रन्थ भण्डार में ११६० ई० का "ध्वन्यालोक लोचन' की प्रति का अन्तिम पत्र मुनि जिन विजय जी को मिला है, जो इस काल में कागज के प्रचलन के प्रारम्भ का प्रमाण है। (ख-३) सचित्र वस्त्र पट्ट : वस्त्र का प्रयोग लेखन एवं चित्रण के लिये प्राचीन काल से ही होता रहा है। १४वीं शताब्दी से पूर्व के वस्त्रपट्ट राजस्थान में उपलब्ध नहीं हैं । सम्भवतः मुसलमानों द्वारा नष्ट कर दिये गये या कपड़े की नश्वर प्रकृति के कारण समाप्त हो गये । (ख-४) काष्ठ फलक : ___ ताड़पत्रीय हस्तलिखित ग्रंथों को सुरक्षित रखने के लिये, ऊपर नीचे काष्ठ पट्टिकाएं रख कर बाँध दिया जाता था। जैन चित्रकार इन काष्ठ पट्टिकाओं को भी सुन्दर ढंग से चित्रित करते थे। __ जैन कला का राजस्थान में पूर्वतम उपलब्ध रूप, काष्ठ फलकों में देखने को मिलता है। काल के प्रभाव एवं काष्ठ के नश्वर स्वरूप के कारण बहुत से प्राचीन फलक नष्ट हो गये। फिर भी मुनि जिनविजय ने जैसलमेर के भण्डारों से लकड़ी की लगभग १४ चित्रित पट्टियाँ खोज निकाली है और राजस्थानी व अजन्ता, एलोरा कला के मध्य की कड़ी जोड़ दी है । कमल की बेल वाली पटली अत्यन्त विलक्षण है। इसका आलेखन श्री सारा भाई नबाब की भरत-बाहुबलि वाली पटली की दोहरी बेल सा है, अलंकरण तो और भी अनोखा है। इन बेलों में, एक में जिराफ और दुसरे में गैंडे का अंकन किया गया है, जो भारतीय कला में शायद सबसे पहले यहीं हुआ हो । एक चित्र में मकर के मुख से निकलती कमल बेल बनाई गई है । ऐसी वेल-सांची, अमरावती व मथुरा के अर्ध चित्रों की विशेषता है, अतएव जैन कला की प्राचीनता व उसकी परम्परागत कला से सान्निध्य पर ये चित्र गहरा प्रकाश डालते हैं।' सबसे प्राचीन सचित्र काष्ठ फल क “सेठ शंकरदान नाहटा कला-भवन", बीकानेर में है ।२, जिसमें सोमचन्द्र आदि का नाम चित्र के साथ लिखा हुआ है। जिनदत्त सूरि का दीक्षा नाम सोमचन्द्र था और उन्हीं का इस फलक में चित्र है, इसलिये यह फलक निश्चित रूप से १११२ ई० के पूर्व का है, क्योंकि १११२ ई० में सोमचन्द्र को चित्तौड़ में आचार्य पद देकर जिनदत्त सूरि नाम दिया गया था। यह काष्ठ पट्टिका ३४१११ इंच की है। इसके चारों ओर सीमा व ३ खण्ड हैं। प्रथम खण्ड में आचार्य गुणसमुद्र और सामने ही आसन पर सोमचन्द्र गणि बैठे हुये हैं। आचार्य के पृष्ठ भाग में पीठ १. मुहस्मृग, पृ० ६९४ । २. नाहटा, राजस्थान वैभव, पृ० ११९ । Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन कला : २७३ श्रावक के गले में स्वर्णहार है, पीछे-पीछे श्राविकाएँ भी इसी बड़े-बड़े कर्णफूल हैं । वस्त्र श्रावक के मोड़ी हुई मूँछ फलक भी है, किन्तु सोमचन्द्र गणी के नहीं है । इससे उनका दीक्षा पर्याय में बड़ा होना प्रमाणित होता है। दोनों के पास रजोहरण व मध्य में स्थापनाचार्य है । दोनों एक घुटना ऊँचा व एक नीचा किये हुये, प्रवचन मुद्रा में आमने-सामने बैठे हैं । दोनों के वस्त्र श्वेत हैं | आचार्य के पीछे एक श्रावक बैठा है, जिसकी धोती जाँघिये की भाँति है । कंधे पर उत्तरीय के अतिरिक्त कोई वस्त्र नहीं है । वह एक घुटना ऊँचा किये हुये करबद्ध बैठा है । उसके मुद्रा में हैं, जिनके गले में हार, हाथों में चूड़ियाँ व कानों में रंगीन व छींट की तरह का है, एवं बालों में जूड़ा बँधा है। और ठोड़ी के भाग को छोड़कर, अल्प दाढ़ी है । सोमचन्द्र गणी के पृष्ठ भाग में दो व्यक्ति हैं, जिनकी वेषभूषा उपर्युक्त श्रावकों जैसी है । चित्र शैली में तत्कालीन प्रथानुसार नेत्र की तोखी रेखाएँ दोनों ओर इसलिये दिखाई हैं कि एकाक्षीपन का दोष न आये । चित्र के मध्य खण्ड में फूल बनाया है, जिसके बीच में छिद्र है, जो ग्रन्थ की डोरी पिरोने के लिये है । चित्र के दूसरे खण्ड में साध्वियों का उपाश्रय है। पट्ट पर प्रवर्तिनी विमलमति बैठी हुई हैं, जिनके पीछे पीठ फलक है । सामने दो साध्वियाँ बैठी हैं, जिनके नाम " नयश्री" और "नयमतिम" लिखा हुआ है। तीनों के बीच में स्थापनाचार्य जी रखे हुये हैं । साध्वीजी के पीछे एक श्राविका आसन पर बैठी हुई है । श्राविका का नाम " नन्दीसीर" लिखा हुआ है ! चित्रफलक का किनारा टूट जाने से जोड़ा हुआ है । इसमें आये साधु-साध्वियों के नाम " गणधर सार्द्धशतक बृहद वृत्ति" में नहीं मिलते, अतः इनके नाम प्राप्त होना ऐतिहासिक दृष्टि से बहुत महत्त्वपूर्ण है । जैसलमेर के जिनभद्रसूरि ज्ञान भण्डार में, जो कुमारपाल व जिनदत्त सूरि की काष्ठ पट्टिका थी, वह अभी थारूशाह के भण्डार में रखी हुई है। इस फलक पर " नरपति कुमारपाल भक्ति रस्तु" लिखा हुआ है । फलक के मध्य में नवफणा पार्श्वनाथ जिनालय है, जिसकी सपरिकर प्रतिमा के उभय पक्ष में गजारूढ़ इन्द्र और दोनों ओर चामरधारी अवस्थित हैं । दाहिनी ओर दो शंखधारी पुरुष खड़े हैं । बाँयें कक्ष में पुष्प, चंगेरी लिये हुए भक्त खड़े हैं, जिसके पीछे दो व्यक्ति नृत्य करते हुए भी चित्रित हैं एवं दो व्यक्ति वाद्य यन्त्र लिये खड़े हैं । जिनालय के दाहिनी ओर जिनदत्त सूरि की व्याख्यान सभा है । आचार्य के पीछे दो भक्त श्रावक एवं एक शिष्य नरपति कुमारपाल बैठा हुआ है । राजा के साथ रानी व दो परिचायक हैं । जिनदत्त सूरि के चित्र पर " श्री युग प्रधानागम श्री मज्जिन दत्त सूरयः " लिखा है । जिनालय के बाँयी तरफ गुण समुद्राचार्य हैं, जिनके सामने स्थापनाचार्यजी व चतुविध संघ हैं । चित्र स्थित साधु का नाम पं० ब्रह्म चन्द्र पृष्ठ भाग में दो राजपुरुष हैं, जिनका नाम "सहणय" व "अनंग" लिखा है । साध्वीजी के सामने भी स्थापनाचार्य और उनके समक्ष दो श्राविकाएँ करबद्ध खड़ी हैं । "गणधर १. जिनचन्द्र स्मृग, पृ० ५५ । १८ Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७४ : मध्यकालीन राजस्थान में जेनधमं साई शतक बृहद वृत्ति" के अनुसार पार्श्वनाथ के नवकणों की प्रथा जिनदत्त सूरि से ही प्रचलित हुई थी । नरभट में नवफणा पार्श्वनाथ की प्रतिष्ठा इन्होंने ही की थी । यह जिनालय आगे चलकर महातीर्थ के रूप में प्रसिद्ध हुआ । मुनि जिनविजय द्वारा प्रकाशित जिनदत्त सूरि के सचित्र काष्ठ फलक के ३ ब्लॉक " भारतीय विद्या निबंध संग्रह " में प्रकाशित हुए हैं, जिनमें से दो का विवरण इस प्रकार है । पहली पट्टिका में बाँयें और दाहिने भाग में चित्रित दृश्यों के दो खण्ड हैं । इन दोनों खण्डों में जिनदत्त सूरि की व्याख्यान सभा का आलेखन है । इसके ऊपर वाले चित्रखण्ड में, मध्य में जिनदत्त सूरि बैठे हुए हैं और उनके सम्मुख पं० जिनरक्षित बैठे हैं । जिनरक्षित के पीछे दो श्रावक हैं एवं जिनदत्त सूरि के पीछे एक श्रावक एवं दो श्राविकाए बैठी हैं । नीचे वाली दूसरी पट्टिका के चित्रखंड में मध्य में जिनदत्त सूरि और उनके सामने गुण समुद्राचार्य, उनके पीछे एक मुनि और एक श्रावक बैठा है । सूरिजी के पृष्ठ भाग में दो श्रावक बैठे हैं । सूरि जी के सामने स्थापनाचार्य हैं जिस पर " महावीर " लिखा हुआ है । यह सचित्र फलक संभवतः जिनदत्त सूरि के निजी संग्रह की किसी ताड़पत्रीय पुस्तक का है । सम्भव है इसमें आलेखित पुरुष व स्त्री इस ग्रन्थ के भेंटकर्ता श्रावक परिवार के हों। 3 मारवाड़ के निर्मित जिनालय सूरि जी ने महावीर की प्रतिमा की पट्टिका में इसी प्रसंग का आलेखन हो । कदाचित् इसी देवधर ने ग्रन्थ को लिखवाकर सूरि जी को भेंट किया हो । ये फलक १२वीं शताब्दी के हैं । विक्रमपुर के प्रतिष्ठा की श्रेष्ठी देवघर द्वारा थी । सम्भव है इस पट्टिका के साथ वाले १२वीं शताब्दी के ही एक प्राचीन फलक के मध्य में जैन प्रतिमा सहित मंदिर है, मूर्ति के दोनों और परिचारक खड़े हैं । दाहिनी ओर दो उपासक करबद्ध खड़ े हैं । दो व्यक्ति दुंदुभि वादन में व्यस्त हैं और दो नर्तकियों नृत्य कर रही हैं। ऊपर आकाश में एक किन्नरी उड़ रही है । बाँयें प्रकोष्ठ में तीन उपासक हाथ जोड़े खड़े हैं और एक किन्नर आकाश में उड़ रहा है । इस मध्यवर्ती चित्र के दोनों ओर व्याख्यान सभा हो रही है । एक में जिनदत्त सूरि व उनके सम्मुख जिनरक्षित बैठे हैं । अन्य उपासक, उपासिका भी हैं । मुनि के सम्मुख स्थापनाचार्य पर " महावीर" लिखा है । दाहिनी ओर की व्याख्यान सभा में जिनदत्त, गुणचन्द्राचार्य से विचार-विमर्श कर रहे हैं । दोनों के बीच में भी स्थापनाचार्य बना है । मुनि जिनविजय के अनुसार यह फलक जिनदत्त सूरि के जीवनकाल का है ।" १. जिनचन्द्र स्मृग, पृ० ५६ । २. वही, पृ० ५३ ॥ ३. वही । ४. वही । ५. हीरालाल जैन, भा० सं० में जैन धर्म का योगदान, पृ० ३७२ । Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जेन कला : २७५ ने एक अन्य काष्ठ पट्ट ११२४ ई० की इस ऐतिहासिक घटना से सम्बन्धित है जिसमें सिद्धराज जयसिंह के राजदरबार में देव सूरि शास्त्रार्थ में कुमुदचन्द्र को हराया था । सम्भवतः यह फलक शास्त्रार्थं के ४-५ वर्षों में ही तैयार हो गया होगा और उसका निर्माण काल ११३० ई० के लगभग रहा होगा । १ फलक के अग्रभाग पर आशापल्ली मन्दिर के व्याख्यान भवन में, देवसूरि एक पीठ वाले आसन पर बैठे हैं । इनके पीछे एक शिष्य और सामने स्थापनाचार्य रखा है । सम्भवतः वे अपने शिष्य माणिक्य को कुछ समझा रहे हैं । फर्श पर ४ सामान्य व्यक्ति, जो वस्तुतः कुमुदचन्द्र के भेदिये हैं, बैठे हैं । ये दिगम्बर मत के प्रतीत होते हैं । अगले हिस्से में पीठ फलक के सहारे कुमुदचन्द्र बैठे हैं, उनके हाथ में पिच्छी, आगे व पीछे एक-एक शिष्य हैं । अगले खंड में देव सूरि के साथ दो शिष्य व दो श्रावक हैं तथा सन्देशवाहक उन्हें शास्त्रार्थं की चुनौती दे रहा है । अगले खण्ड में जमीन पर सामान्य जनों के साथ बैठे हुये कुमुदचंद्र तथा दुर्व्यवहार से पीड़ित वृद्धा साध्वी बताई गई है । अगले खण्ड में यही वृद्धा साध्वी देव सूरि से अपने साथ हुये दुर्व्यवहार की शिकायत कर रही है । इसके बाद कुमुदचंद्र संदेशवाहक का सन्देश सुनते हुये तथा अन्तिम खण्ड में एक औरत व्यापारी को घी बेचते हुये चित्रित है । फलक के पीछे दोनों आचार्य शिष्य मंडली के साथ पाटन की तरफ जाते हुये दिखाये गये हैं । देव सूरि के दृश्य में श्वेताम्बरियों द्वारा अच्छे शकुन व बायें हिस्से में कुमुदचन्द्र व उनके दल के साथ कोबरा आदि अपशकुन चित्रित हैं । इसके बाद कुमुदचन्द्र पाटन 'पहुँचने पर राजमाता से मिलना चाहते हैं, किन्तु रक्षक द्वारा रोक लिये जाते हैं । यह काष्ठफलक, बहुत रुचिकर है, क्योंकि इसमें पहली बार " पश्चिम भारतीय "शैली" के विलक्षण लक्षण दृष्टिगत होते हैं । इसमें सुन्दर रेखांकन व कोणीय प्रयोग है | तीखी नाक व नुकीली ठोड़ी बहुत स्पष्ट है । सँकरी छाती व आँखों का चित्रण परम्परा से कुछ हटकर दिखता है । २ ( ख - ५) सचित्र विज्ञप्ति पत्र : ८वीं से १६वीं शताब्दी तक के सचित्र विज्ञप्ति या अभी तक देखने को नहीं मिले हैं। चूँकि विज्ञप्ति पत्र आचार्यों को अपने नगर में चातुर्मास व्यतीत करने के लिये भेजे जाने वाले निमंत्रण पत्र होते थे, अतः राजस्थान में ही इनकी उपलब्धि बहुत कम दृष्टिगत होती है । अचित्रित विज्ञप्ति पत्र मध्यकाल के उपलब्ध होते हैं । (२) मध्यकाल (क) भित्ति चित्र : १२वीं से १६वीं शताब्दी के मध्य के भित्ति चित्र भी अस्तित्व में नहीं रह पाये । १. भारतीय विद्या, ३, पृ० २३६ । २. जैन मिनिएचर पेंटिंग्स, पृ० ६१-६२ । Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७६ : मध्यकालीन राजस्थान में जैनधर्म मुस्लिम विध्वंस के कारण अनेकों मन्दिरों के जीर्णोद्धार व पुननिर्माण हुए तथा मंदिरों पर रंग-रोगन आदि के कारण लुप्त-प्राय हो गये। (ख) लघु चित्र शैलीः : (ख-१) सचित्र ताडपत्रीय ग्रन्थ : १२वीं शताब्दी के उपरान्त भी ताड़पत्रीय ग्रन्थों की परम्परा सतत रही । जैसलमेर में उपलब्ध इस शताब्दी के सचित्र ताड़पत्रों के अतिरिक्त मेवाड़ क्षेत्र में भी १५वीं शताब्दी तक कई सचित्र ग्रन्थ रचे गए, जो विविध स्थानों पर संग्रहीत हैं । आहड़ में गहिल तेजसिंह के राज्यकाल में "श्रावक प्रतिक्रमण चूणि" १२६० में सचित्र ग्रन्थ लिखा गया। इस ग्रन्थ में चित्र के दाएं-बाएँ लिपि तथा मध्यभाग में चित्र है । इसकी पुष्पिका में आलेख चित्रों के साथ ही हैं । ग्रन्थ में कुल ६ चित्र है । जो बोस्टन संग्रहालय, अमेरिका में सुरक्षित हैं । इन चित्रों में नेमिनाथ और राजमति के नौ पूर्व भवों का वर्णन चित्रित है। प्रथम चित्र में नेमिनाथ के दो पूर्व भव-धन तथा धनवती तथा देव विमान सहित सौधर्म । दूसरे चित्र में अगले तीन पूर्व भवों-चित्रगति और विजयवेग, महेन्द्रा देवलोक, राजा अपराजित और रानी प्रीतिमती; तीसरे चित्र में स्वर्ग का शंखराज-यशोमति तथा अपराजित सहित चित्रित है। छठा, सातवाँ और इसी चित्र में आठवाँ भव भी चित्रित है । चौथे में समुद्र विजय की गर्भवती पत्नी व १४ में से ४ स्वप्न; पाँचवें में अवशिष्ट दस स्वप्न व नेमिनाथ का जन्म तथा छठे चित्र में जन्म महोत्सव से दीक्षा पर्यन्त तक की घटनाओं का चित्रण है। इन चित्रों को विशेषतायें तत्कालीन चित्रण पद्धति और परम्परा के अनुसार हैं। नारी चित्रों एवं अलंकरण का इनमें आकर्षक संयोजन है । महाराणा लाखा कालोन मेवाड़ का दूसरा सचित्र ग्रन्थ सोमेश्वर द्वारा गोडवाड़ में चित्रित किया गया, १४१८ ई० का “कल्पसूत्र" है, जो अनूप संस्कृत लाइब्रेरी, बीकानेर में सुरक्षित है । ७९ पत्रों की इस प्रति में ७३ पत्रों तक "कल्पसूत्र" एवं "कालिकाचार्य कथा" ८८ श्लोकों की है। कथा में ३ चित्र हैं। "कल्पसूत्र" के १६ पृष्ठों पर चित्र हैं। इनमें से पत्रांक ९ और ३२ के बोर्डर पर लघु चित्र हैं । पत्रांक २६ में २ चित्र हैं। चित्रों की पृष्ठभूमि में लाल, हल्दिया बैंगनी एवं मूंगे के रंग का प्रयोग है तथा ग्रन्थ के अन्त में लिखी पुष्पिका से तत्कालीन कला-परंपरा की भी उचित पुष्टि होती है । यह प्रति जैसलमेर में तिलक रंग के शिष्य जयसुन्दर को पंचमी तप के उद्यापन में भेंट की गई थी। मेवाड़ का तीसरा सचित्र ग्रन्थ महाराणा १. ओझा-उदयपुर राज्य, पृ० १६६-१७० । २. जैसलमेर नी चित्र समृद्धि, चित्र सं० ४-९ । ३. नाहटा-आकृति, वर्ष ११, अंक १, पृ० १११४ । Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन कला : २७७ मोकल के राज्यकाल का, देलवाड़ा (देवकुल पाटक) में चित्रित " सुपासनाहचरियं" १४२६ ई० का है । यह ग्रन्थ ३७ चित्रों का एक अनुपम चित्र सम्पुट है, जो ज्ञान भण्डार पाटन के संग्रहालय में सुरक्षित है ।" यह ग्रन्थ देलवाड़ा में मुनि हीरानन्द द्वारा चित्रित किया गया था । पूर्ववर्ती चित्रित ग्रंथों से कलात्मक विशेषताओं में यह एक कदम आगे है । इसमें पृष्ठ भूमि का अंकन हींगलू के लाल रंग से किया गया है, स्त्रियों का लहँगा नीला, कंचुकि हरी, ओढ़नी हल्के गुलाबी रंग से, जैन साधुओं के परिधान श्वेत और पात्र श्याम रंग में चित्रित हैं । देलवाड़ा में भी महाराणा मोकल के समय का चौथा सचित्र ग्रन्थ "ज्ञानार्णव " १४२७ ई० का है । यह एक दिगम्बर जैन ग्रन्थ है, जो नेमिनाथ मन्दिर में लिखा गया । यह लालभाई दलपतभाई ज्ञान भंडार अहमदाबाद में सुरक्षित है । पाँचवाँ ग्रन्थ " रसिकाष्ठक" १४३५ ई० का है जो अगरचन्द नाहटा संग्रह, बीकानेर में है । इस काल में " निशीथचूर्णि", "अंगसूत्र", "कथारत्नसागर", " संग्रहणी सूत्र”, “उत्तराध्ययन सूत्र" "कालका कथा", " कल्पसूत्र " व "नेमिनाथ चरित्र" आदि की सचित्र पोथियाँ एवं उनकी प्रतिलिपियाँ भी रची गई । गुजरात व राजस्थान इनकी रचना के मुख्य केन्द्र थे । राजस्थान में उदयपुर, बीकानेर तथा जोधपुर इन कलाकारों के प्रमुख स्थान थे । गुरुओं या गुरासियों की जाति कहा जाता था तथा बहुत अल्प पारिश्रमिक लेकर जैन पोथियों में चित्र बनाना इनका व्यवसाय था । २ चित्रित ताड़पत्र अन्य स्थानों पर भी देखने को मिलते हैं । " कल्पसूत्र " का एक पत्रीय चित्र लोहावर के हरिसागर सूरि ज्ञान भण्डार में व बीकानेर के स्व० मोतीचन्द्र खजांची के संग्रहों में भी है । जैसलमेर ग्रन्थ भण्डार में सचित्र ग्रन्थों के अतिरिक्त कुछ चित्रित ताड़पत्र भी हैं । एक ताड़पत्र पर महावीर के पंच कल्याणक चित्रित हैं । एक अन्य दो भागों में विभक्त पत्र पर २४ तीर्थङ्कर चित्रित हैं । एक पत्र पर जल क्रीड़ा का दृश्य है, जो जलचरों के अध्ययन की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है । इसी पत्र के कुछ हिस्से में चतुर्दश स्वप्न चित्रित हैं । ताड़पत्रीय चित्रों में सबसे महत्त्वपूर्ण कमल बेल का चित्रण है जो १२०० ई० के आसपास का प्रतीत होता है ।" फलोधी के "फूल चन्द संग्रह" में भी प्रति है । " " कल्पसूत्र " की एक सचित्र १. साराभाई मणिलाल नवाब, अहमदाबाद, जैन चित्र कल्पद्रुम १९५८, पृ० ३० ॥ २, आकृति १९६६, अंक २, जैन चित्रकला - रामगोपाल विजयवर्गीय । ३. कासलीवाल, जैभरा, पृ० २०६ । ४. वही, पृ० २०५ । ५. पवित्र कल्पसूत्र, निवेदन, पृ० ४ । Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७८ : मध्यकालीन राजस्थान में जैनधर्म (ख-२) सचित्र कागज ग्रंथ : चित्र निर्माण के लिये कागज का प्रयोग १४वीं शताब्दी के बाद से प्रारम्भ हुआ । इससे चित्रकला की तकनीक में कुछ परिवर्तन हुआ। ऐसी प्रतियों में मेवाड़ में चित्रित "सुपासनाथचरि\" की प्रति विशेष रूप से उल्लेखनीय है। १५वीं शताब्दी की “पाण्डव चरित्र" की एक सचित्र प्रति जोधपुर के केसरियानाथ भण्डार में है। जैसलमेर भण्डार में "कालिकाचार्य कथा" की सचित्र हस्तलिखित प्रति की चित्रकला असाधारण रूप से सुन्दर है। इसी भण्डार में रजत-स्याही से लिखित "कालिकाचार्य" की एक और प्रति भी सचित्र है । इसमें केवल १५ ही पत्र है । इसी प्रकार "कल्पसूत्र" की रजत स्याही से लिखी हुई प्रति पूर्ण सचित्र है । स्वणिम स्याही से अंकित 'कल्पसूत्र' की एक अन्य प्रति १४६७ ई० की भी सम्पूर्ण चित्रित है। बीकानेर के संग्रह में भी १६वीं शताब्दी तक के कई सचित्र ग्रन्थ एवं कल्पसूत्र की प्रतियाँ है। राजस्थान के अन्य कई भण्डारों में कागज पर निर्मित असंख्य हस्तलिखित चित्रित ग्रंथ हैं । आमेर शास्त्र भण्डार जयपुर में १४०४ ई० में प्रतिलिपिबद्ध किया, पुष्पदन्त रचित "आदिपुराण" है । इसमें १४वें पृष्ठ पर ऋषभदेव की माता मरुदेवी का १४ स्वप्न देखते हुये चित्रण किया है । इसके रंग अभी भी सजीव प्रतीत होते हैं। पुष्पदन्त के 'आदि पुराण" की एक अन्य प्रतिलिपि १४४० ई० को जयपुर के तेरापंथी मन्दिर के शास्त्र भण्डार में उपलब्ध है, जिसमें चित्र संयोजन का सबसे महत्त्वपूर्ण पहलू यह है कि कई पृष्ठों पर चित्रण का क्षेत्र, पृष्ठ की सम्पूर्ण लम्बाई-चौड़ाई में कर दिया गया है और चित्रण के लिये लम्बवत् पट्टी रखने की पशिया की परम्परा का पालन नहीं किया गया है । इसमें ३४४ पृष्ठ हैं, जिनमें ५१५ चित्र हैं । पृष्ठभूमि के रंग रक्तिम लाल तथा श्वेत, काला, पीला और हरे हैं। मोतीचन्द्र के अनुसार मानव आकृतियों का संयोजन पश्चिम भारतीय कला के अनुरूप किया गया है। मुद्राओं और भंगिमाओं में गति दिखाई देती है । चित्रांकन कोणीय हैं तथा तीक्ष्ण नासिका, वक्राकार भौंहें, बाहर निकला हुआ सोना, पतली कमर व आंख का फैलाव कान तक दिखाई देता है। स्त्री एवं पुरुषों की वेशभूषा साधारण है। स्त्रियों को चित्रित साड़ी, चादर व चोली में तथा विभिन्न प्रकार के आभूषण भी दर्शाएँ गये हैं। पुरुष परिधानों में पगड़ी, दुपट्टा व धोती प्रदर्शित है। कुछ पुरुष सँकरी मोहरी के पाजामे व लम्बा कोट पहने हुये भी चित्रित हैं । सेनाओं के युद्धाभियान, पैदल, घुड़सवार, हाथी, रथ, तलवार, धनुष, तीर आदि हथियार भी चित्रित हैं। प्राकृतिक सौन्दर्य का चित्रण निपुणतापूर्वक किया गया है । पहाड़ियाँ, नदियां, जलचर, पेड़-पौधे एवं हरियाली का भी सुन्दर चित्रण है । देवलोक, इन्द्रसभा और नृत्यरत अप्सराओं के चित्र सजधज से पूर्ण हैं। इसके अतिरिक्त नरक के भयानक दृश्य, मन्दिर, देवालय, तीर्थकर, जैन मुनि और साध्वियों को भी चित्रित किया गया है। इस ग्रन्थ में प्रदर्शित चित्र भारतीय इतिहास, समाज व सांस्कृतिक स्थितियों पर Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जेन कला : २७९ महत्त्वपूर्ण प्रकाश डालते हैं । साथ ही राजस्थानी चित्रकला के इतिहास की दृष्टि से, पश्चिम भारतीय कला या जैन कला में १६वीं शताब्दी में आये मोड़ को भी प्रदर्शित करते हैं ।" फलोधी में फूलचन्द के संग्रह में १४१६ ई० की "कालका कथा" की एक सचित्र प्रति है । बड़ौदा में हंसविजय मुनि के पास, राजस्थान में यवनपुर में १४६८ ई० में स्वर्णिम स्याही से लिखी " कल्पसूत्र " की एक सचित्र प्रति है, इसमें ८ सुन्दर चित्र तथा ७४ सुन्दर सीमांकन हैं । ( ख - ३ ) सचित्र वस्त्र पट्ट : १४वीं शताब्दी से ही वस्त्रांकित ग्रन्थ एवं चित्र मिलना प्रारम्भ हो जाते हैं । सबसे प्राचीन सचित्र वस्त्र पट्ट र पार्श्वनाथ यन्त्र वाला, १४वीं शताब्दी के उतराद्ध का है, क्योंकि वस्त्रपट्ट के नीचे जो आचार्य का चित्र है, उसमें " तरुणप्रभ सूरि" लिखा हुआ है, जिनका समय १३५० ई० के आसपास का है । इस वस्त्र पट्ट के ऊपर दोनों ओर पार्श्वनाथ और पद्मावती देवी के सुन्दर चित्र हैं । है । उसके बाहर गोलाकार में मंत्र लिखे हैं और नीचे आचार्य का चित्र है । बीच में पार्श्वनाथ का चित्र एक अन्य वस्त्रपट्ट " चिन्तामणि यंत्र" है, जो साढ़े उन्नीस इंच लम्बा और साढ़े सात इंच चौड़ा है, इसमें तारण प्रभाचार्य का भी चित्र अंकित है । अतः सम्भवतः यह उनके जीवन काल में ही बना होगा । इसमें सकेन्द्रीय तांत्रिक वृतों के बीच सिंहासन पर पार्श्वनाथ बैठे हैं । आसपास चँवरी लिये हुये धरणेन्द्र तथा पद्मावती हैं । ऊपर दाहिने तरफ पार्श्वनाथ का यक्ष व दाहिने तरफ देवी वैरोल्या चित्रित हैं । इनके बीच में गन्धर्व बने हुये हैं । नीचे, दाहिनी तरफ तारण प्रभाचार्य दो शिष्यों के साथ तथा बाँयीं तरफ दो अन्य शिष्य हैं। वृत के बाहर दो चंवरी धारक हैं । १५वीं शताब्दी का ही एक अन्य वस्त्र पट्ट का छापा भी है। यह बहुमूल्य सचित्र है । बहुत से मंत्राक्षर वाले सचित्र पट्ट और यंत्र, विधि सहित पूजित रहे हैं । अपभ्रंश शैली में चित्रित है ।" एक बड़े वस्त्र पट्ट लन्दन के म्यूजियम में प्रदर्शित १. जैइरा, पृ० १४३ । २. शंकरदान नाहटा कला भवन में संग्रहीत है । ३. नाहटा - राजस्थान वैभव, पृ० १२१ । ४. यह बीकानेर के नाहटा कला भवन में है । ५. अगरचन्द नाहटा के बीकानेर संग्रहालय में । ६. वहीं पर । ७. नाहटा - राजस्थान वैभव, पृ० १२१ । Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८० : मध्यकालीन राजस्थान में जैनधर्म (ख-४) काष्ठ फलक: मध्यकाल के काष्ठ फलक राजस्थान के ग्रन्थ भण्डारों में उपलब्ध नहीं हैं । (ख-५) सचित्र विज्ञप्ति पत्र : मध्यकाल के केवल अचित्रित विज्ञप्ति पत्र प्राप्त होते हैं । (३) उत्तर मध्यकाल : [क] भित्ति चित्र: १७वीं एवं १८वीं शताब्दी के भित्ति चित्र अनेकों स्थानों पर सुरक्षित हैं। नाडौल के एक जैन मन्दिर में १६०५ ई० में निर्मित एक भित्ति चित्र उपलब्ध है।' बीकानेर के भांडासर जी और महावीर जी मन्दिर में भी भित्ति चित्र हैं। राजस्थान के अनेक जैन मन्दिरों, उपाश्रयों एवं श्रेष्ठियों की हवेलियों में इस काल के चित्र विद्यमान है, किन्तु बहुत से भित्ति चित्र खराब हो गये और उन पर पुताई करके नये चित्र भी बना दिये गये । उन चित्रों में तीर्थकर का जन्माभिषेक, समवसरण, रथयात्रा, तीर्थों और जैन महापुरुषों के जीवन सम्बन्धी सैकड़ों चित्र पाये जाते हैं। इनमें से कुछ ऐतिहासिक दृष्टि से बड़े महत्त्व के हैं। इनमें गौड़ी पार्श्वनाथ मन्दिर, सम्मेद शिखर, आचार्यों, यतियों, भक्त श्रावक आदि के चित्र हैं ।३ बीकानेर के भांडासर मन्दिर के गुम्बज और नीचे की गोलाई में बीकानेर के विज्ञप्ति पत्र आदि अनेक महत्त्वपूर्ण चित्र हैं। बोरों की सेरी के महावीर मन्दिर में भगवान के २७ भव और अनेक जैन कथानकों के चित्रों से तीनों ओर की दीवारें भरी हुई हैं । इसी प्रकार दादा-बाड़ियों में भी जिनदास सूरि, जिन कुशल सूरि, जिनचन्द्र सरि आदि के जीवन सम्बन्धी अनेकों चित्र दीवारों पर काफी संख्या में बनाये जाते रहे।५ बीकानेर के सबसे प्राचीन चिन्तामणि मन्दिर की मती में दादाजी की देरी, उदरायसर की दादाबाड़ी आदि के भी कई भित्ति चित्र है ।। राजस्थान की अनेकों दादाबाड़ियों में दादाजी के जीवन सम्बन्धी चित्र हैं । १६५० ई० के लगभग बनी सिरोही के चौमुखा मंदिर की छत बहुत सुन्दर ढंग से चित्रित की गई १. राजस्थान की लघुचित्र शैलियाँ, पृ० ४७ । २. नाहटा, राजस्थान वैभव, पृ० १२२ । ३. वही। ४. वही। ५. वही ६. वही। ७. वही। Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन तीर्थ : २८१ थी, किन्तु अब इस पर सफेदी पोत दी गई है । केवल मध्य का एक फूल उन चित्रित रंगों की यादगार का साक्षी है । " सोम-सौभाग्य-काव्य" में आये उल्लेख से संकेत मिलता है कि इस काल में श्रेष्ठियों के आवास भित्ति चित्रों से समलंकृत रहते थे । २ बून्दी के ऋषभदेव जैन मन्दिर की दीवारों पर बून्दी शैली के १७वीं शताब्दी के सुन्दर चित्र हैं । एक चित्र में नेमिनाथ के पंच कल्याणकों का वर्णन है । उनकी बारात का सुन्दर दृश्य, हाथी, घोड़े, रथ आदि हैं । बाड़े में चीत्कार करते हुये पशु, बारात का द्वाराचार करती हुई स्त्रियाँ, मस्तक पर स्वर्ण कलश लिये हुये हैं । इसमें नेमिनाथ व कृष्ण दोनों का सुन्दर अंकन है । नेमिनाथ शंख पूरते हुये एवं धनुष उठाये हुये हैं । दूसरे चित्र में नगर के विविध प्रकार के दृश्य, बून्दी राव का दरबार, दरबारी आदि चित्रित हैं । ये चित्र रंग संयोजन, निरूपण आदि दृष्टियों से दुर्गं स्थित चित्रशाला के भित्ति चित्रों के समकालीन हैं । ( ख ) लघु चित्रशैली : ( ख - १ ) सचित्र ताड़पत्रीय ग्रन्थ : १७वीं एवं १८वीं शताब्दी में कागज के बहुविध प्रचलन एवं मुद्रण कला के प्रसार के कारण ताड़पत्रीय ग्रन्थों का लेखन एवं चित्रण नहीं हुआ । ( ख - २ ) सचित्र कागज ग्रन्थ : जयपुर के तेरापंथी जैन मंदिर के शास्त्र भण्डार में आचार्य जिनसेन विरचित " आदि पुराण" की सचित्र प्रति है, जो १६०६ ई० में रची गई । इसमें २०० चित्र हैं। जयपुर, मौजमाबाद, नागौर आदि भण्डारों में " यशोधर चरित्र" की सचित्र प्रतियाँ हैं । मौजमाबाद की प्रतियाँ पुष्पदन्त और रइधू की अपभ्रंश कृति की प्रतिलिपियाँ हैं, जबकि अन्य दो भण्डारों में सकल कीर्ति के ग्रन्थ की प्रतिलिपियाँ हैं । पं० लूणकरण जैन मन्दिर के शास्त्र भण्डार में १७३१ ई० की " यशोधर चरित्र" की सचित्र प्रति है, जो लूणकरण ने ही चित्रित करवाई थी इसमें ३७ चित्र हैं, जिनमें से कुछ सम्पूर्ण पृष्ठ के आकार के और कुछ आधे पृष्ठ में निर्मित हैं । जयपुर के पटौदी जैन मन्दिर में । भी " यशोधर चरित्र" की २७ चित्रों वाली प्रति है, जो १७०६ ई० में अहमदाबाव में राजनगर में तैयार हुई थी । मौजमाबाद में इस ग्रन्थ की तीन हैं। पहली प्रति में ६५ चित्र हैं, दूसरी में ७४ व तीसरी प्रति में ब्यावर के "ऐलक पन्नालाल दिगम्बर जैन सरस्वती भवन में, अहमदाबाद में राजपुर में १७१२ ई० में प्रतिलिपि को गई ७३ चित्रों वाली " यशोधर चरित्र" की प्रति है । १. असावं, पृ० १९३ । -२. सोमसौभाग्य काव्य, पृ० ८३ । सचित्र प्रतियाँ ७५ चित्र हैं । Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८२ : मध्यकालीन राजस्थान में जैनधर्म इन विभिन्न प्रतियों में समकालीन, सामाजिक व धार्मिक दशाओं का भलीभाँति निरूपण किया गया है। इनमें साधु-साध्वियों, दिगम्बर मुनि, जुलूस, चर्चा, पशु वध की परम्परा, अन्तः प्रासादों के आमोद-प्रमोद, विभिन्न पशु-पक्षी, वृक्ष आदि जीवन्त रूप से चित्रित हैं । हस्तलिखित ग्रन्थों की तीन प्रतियाँ ''ऋषि मंडल पूजा", "अष्टाह्निका जयमाला" और "निर्वाण मण्डल पूजा" जयपुर के एक जैन मन्दिर में कलात्मक आवरण में वेष्ठित पाई गई हैं । सीमा अलंकरण की दृष्टि से ये बहुत महत्त्वपूर्ण हैं, क्योंकि इनमें फूल-पत्तियों के कई अलंकरण हैं, कई रेखागणितीय आकृतियाँ व गलियों के सुन्दर चित्रण भी हैं। नागौर के शास्त्र भण्डार में १६७७ ई० की "गोम्मटसार", "कालिकाचार्य कथा" तथा "गीता", ये तीन सचित्र कृतियाँ उपलब्ध हैं। श्री महावीरजी के शास्त्र भण्डार में १८वीं शताब्दी की "त्रिलोकसार" व जयपुर के एक जैन मन्दिर में इसी शताब्दी की "त्रैलोक्य नाम दीपिका' की सचित्र प्रतियाँ हैं । "त्रैलोक्य नाम दीपिका" में १० चित्र है, जिनमें मध्यलोक, मानस्तम्भ, सभामण्डप, जम्बूद्वीप, कुण्डलद्वीप, नन्दीश्वर द्वीप, पुष्कर दीप, सुमेरु पर्वत, जम्बू वृक्ष तथा कमल के ऊपर विराजमान तीर्थकर प्रदर्शित हैं। जयपुर के निकट जोबनेर के मन्दिर में १८वीं शताब्दी की "संग्रहणी सूत्र" की वस्त्र में बंधी एक प्रति है । वेष्टन के वस्त्र पर तिनकों की कढ़ाई से १६ स्वप्नों का अतीव सुन्दर चित्रण है । ग्रन्थ में उन्नीस चित्र हैं, जिनमें स्वर्ण पटल, नन्दीश्वर द्वीप, त्रैलोक्य पुरुष, तीर्थकर, सप्तग्रह, नारकीय दृश्य, इन्द्रसेना, यक्षाकृतियाँ, जम्बू द्वीप, लवण समुद्र, इन्द्र सभा, इन्द्रजन्मोत्सव, स्वर्ग के विमान आदि सुन्दर ढंग से चित्रित किये गये हैं । शतलेश्याओं की तुलना आम्रवृक्ष से की गई है। जैन शास्त्रोक्त संसारी आत्मा के ६ रंगकृष्ण, नील, कपोत, पद्म, शुक्ल और पीत आदि का सुन्दर प्रतीकात्मक चित्रण व निरूपण है। इनके अतिरिक्त लूणकरण जी पंड्या के मन्दिर में ज्वाला मालिनी, भैरव, पद्मावती, महा मृत्युञ्जय यंत्र आदि की तांत्रिक सचित्र पोथियाँ भी हैं। कुछ चित्र पद्मप्रभु, कालिकादेवी, नरसिंहावतार, पद्मावती और गणेश के हैं । कलिकुण्ड पाव यंत्र, सूर्य प्रताप यंत्र, तीजा पौहूत यंत्र, वज्रपंजर यंत्र, चतुःषष्ठ योगिनी यंत्र आदि के भी चित्र हैं । इस प्रकार के चित्र झालरापाटन और ब्यावर में भी हैं। अजमेर के जैन शास्त्र भण्डार में १८वीं शताब्दी की बाहु कवि रचित "आदित्यवार कथा" की सचित्र, हिन्दी में लिखित कृति है, जिसमें २५ से अधिक चित्र पूर्णतः मुगल कला से प्रभावित हैं । १७८९ ई० में रचित एक गुटका, बन्दी के आदिनाथ मन्दिर के ग्रन्थ भण्डार में था, जिसमें ७२ चित्र मुगल कला से प्रभावित, निर्मित हैं। मुनि समयसुन्दर सूरि ने १७वीं शताब्दी में "अर्थ रत्नावली" नामक अद्भुत ग्रन्थ की रचना की, जो उन्होंने अकबर को भेंट में दिया। इस ग्रन्थ में अकबर युगीन भित्ति चित्रों तथा दूसरे प्रकार के Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन कला : २८३ चित्रों का भी वर्णन है।' __ इस काल में व्यक्ति चित्र और प्रतीक चित्र भी हजारों की संख्या में बनाये जाते रहे । व्यक्ति चित्रों में तीर्थंकरों, आचार्यों, श्रावकों आदि के चित्र उल्लेखनीय हैं। तीर्थकर चित्रों में पार्श्वनाथ की सप्तफणी ही नहीं, अपितु सहस्रफणी चित्र भी मिलते हैं । २४ तीर्थंकरों के संयुक्त चित्र अर्थात् चौबीसी भी बनाई जाती रही, जिनमें से कुछ कला की दृष्टि से बहुत सुन्दर हैं । सिरोही क्षेत्र में भी ऐसी दर्शन-चौबीसियाँ साधुओं की देखरेख में बनाई जाती थीं। प्रतीक चित्रों में छल, लेश्या, मधु बिन्दु तथा पूज्य चित्रों में नवपदसिद्ध चक्र, ऋषि मण्डल, सर्वतोभद्र, ह्रींकार आदि उल्लेखनीय हैं। सिद्धचक्र वाले चित्र तो मोतियों से जड़े हुये भी प्राप्त हैं । प्रतीक चित्रों में ही भौगोलिक चित्र व नारकीय दृश्यों के चित्र भी सम्मिलित हैं । जैन मान्यताओं की सचित्र जानकारी सुलभ करवाने हेतु पंचमेरू पर्वत तीर्थ, द्वीप समूहों आदि के चित्र भी बनाये जाते थे । ग्रन्थों को सुरक्षित रखने के पेटी, पुठे, दाबड़े आदि पर भी धार्मिक विषयों, फल, बेल, मंगलीक आदि चित्रित किये जाते हैं । कई दाबड़े बहुत कलापूर्ण हैं। एक कुट्टे के कलमदान पर सुन्दर चित्रकारी है । कुट्टे, लकड़ी की पेटियों व पट्टियों पर भी सुन्दर चित्रण होता था ।४ इस काल में "मथेण" या "मथेरण" जाति के कलाकारों ने जैन कला की अद्भुत सेवा की है । "मथेरण' जाति के चित्रकारों के अनेक चित्र जैन ग्रन्थ भण्डारों में उपलब्ध हैं। इनकी अपनी एक अलग चित्रशैली बन गई है, जिसमें चौबीसियाँ, रास, चौपाई एवं चरित्र काव्यों के अन्तर्गत सैकड़ों चित्र विविध भाव भूमि वाले पाये जाते है । मथेरणों के अतिरिक्त सिरोही के सोमपुरा व गुरासां तथा जयपुर क्षेत्र में भी कई व्यावसायिक चित्रकार जातियाँ रही हैं, जिन्होंने जैन चित्रकला के संवर्द्धन में अत्यधिक योगदान दिया है। (ख-३) सचित्र वस्त्र पट्ट : १७वीं व १८वीं शताब्दी के जैन तीर्थों के वस्त्र पट्ट भी हैं। शत्रुजय तीर्थ का एक बड़ा पट्ट "नाहटा संग्रहालय, बीकानेर" में है।" प्रायः सभी बड़े मन्दिरों में उपा श्रयों में शत्रुजय तीर्थ के पट्ट पाये जाते हैं, क्योंकि चैत्र की पूर्णिमा आदि के दिन, उन पट्टों के सामने तीर्थवंदन करने की प्राचीन जैन परम्परा रही है । कई तीर्थों के. १. वाचस्पति गैरोला-भारतीय चित्रकला, पृ० १४० । २. एक प्रति अगरचंद नाहटा संग्रहालय बीकानेर में । ३. नाहटा संग्रहालय बीकानेर में । ४. वहीं पर। ५. वहीं पर। Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८४ : मध्यकालीन राजस्थान में जैनधर्म एक साय बड़े वस्त्र पट्ट भी बनते थे, जिनमें पहाड़ी पर चढ़ते तीर्थयात्री, विश्राम करते हुये, नृत्यरत, पूजन करते हुये या व्यवस्था आदि जुटाते हुये चित्रित हैं। विभिन्न वाद्य यंत्र व चवरी धारक भी चित्रित हैं । __ जयपुर में खरतरगच्छीय ज्ञान भण्डार में अगरचंद नाहटा द्वारा, शत्रुजय तीर्थ के ऐतिहासिक चित्रण का १६१९ ई० का जैसलमेर में निर्मित, एक वस्त्र पट्ट खोजा गया है, जो २३ इंच चौड़ा व २५ फुट लम्बा लिपटा हुआ है । इसमें पालीताणा नगर पहुँचने से लेकर गिरिराज की सम्पूर्ण यात्रा कर सिद्धवट तक पहुँचने का तत्कालीन यात्रा-मार्ग चित्रित है । सर्वप्रथम, वस्त्र के नीचे दाहिनी ओर भैसे पर पानी की पखाली लिये वापसी को जाते हुये, वापी पर पनिहारिने, वापी तट पर मयूर व दो बगुले, ताड़ व आम्र वृक्ष, वापी के सामने न्यायालय भवन, जिसमें अन्दर काजी, कुरान शरीफ व सुराही, कोतवाल, चोर व दो सिपाही, घोड़ा व साईस-सफेद पृष्ठभूमि में चित्रित हैं । लाल रंग की पृष्ठभूमि पर दाहिनी ओर हाथी व वाम पार्श्व में अश्वारोही, खेलते हुये तीन स्त्री व एक पुरुष, बाघ व घड़ी सहित जादुगर, दरोगा, अश्व परिचारक, मेड़ी-ऊपर केशों में बाँदी से कंघी करवाती औरत, तीसरी मंजिल पर एक युगल, नगर, प्राचीन परकोटा, बुर्ज, गृहस्थ का घर, गायें, मीनारें, कुआँ आदि चित्रित हैं । दाहिनी ओर हाट, एक उपाश्रय व वृक्ष आदि हैं। उपाश्रय में जिनराज सूरि व श्रावकादि हैं । आगे ललित सरोवर, संघपति व श्रावकों के विविध कार्य-कलाप हैं। इससे आगे यतियों व साधुओं का डेरा, मारवाड़ी महिलाएँ तथा गुजराती महिलाएं चित्रित हैं । आगे संघ का गतिमान दृश्य है। आगे छत्री में चरण पादुका व पास में हिंगुलाज माता की मूर्ति, तदनन्तर कठिन चढ़ाई का दृश्य, फिर कोट व दरवाजा तथा अन्दर वापी व मन्दिर चित्रित हैं। मन्दिर में जिनेश्वर की पाँच प्रतिमाएँ व जिनराज सूरि द्वारा प्रतिष्ठा किया जाना बताया गया है। दाहिनी ओर अजितनाथ व शान्तिनाथ के मन्दिर, आगे पाँच पाण्डव मन्दिर, फिर शिखर से उतरने पर अमरदत्त साधु व श्रावक हैं, अहबादनाथ प्रतिमा, कोडियाल कुंड, चामुण्ड मन्दिर, चौकीदार, दरवाजा व फिर विमल वसहि के शिखरादि हैं। चक्रेश्वरी मन्दिर, खरतर वसहि, खरतर उपासरा, दिगम्बर जैन मन्दिर, हुँबड़ देहरी भी चित्रित हैं । इसके बाद विपान्वसहि का तीसरा कोट पुण्डरीक स्वामी, पउसाल, भीम कुण्ड, सिद्ध शिला आदि का नामांकित चित्रण है। मंत्र-तंत्र आदि के पट्टों की तरह भौगोलिक वस्त्र पट्ट भी निरन्तर बनते रहे हैं, जिनमें जम्बूद्वीप, अढ़ाईद्वीप, द्वीपसमुद्रों, लोकतत्त्व तथा १४ राजु लोक के मनुष्याकार पट्ट विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। इनमें से कई पट्ट तो बहुत बड़े-बड़े बनाये गये, १. नाहटा-राजस्थान वैभव, पृ० १२१ । २. आकृति ८०, पृ० २०-२४ । Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन कला : २८५ जिनमें देवलोक, मनुष्य लोक, नकलोक तथा द्वीप समुद्रों के साथ-साथ अनेक पशु-पक्षियों, मच्छी, मगर आदि जलचरों, देवताओं और देव विमानों आदि के छोटे-छोटे सैकड़ों चित्र पाये जाते हैं । इस तरह से जैन भौगोलिक मान्यताओं को जानने के लिये ये सचित्र एलबम से हैं। बीकानेर के बड़े ज्ञानभण्डार तथा अन्य राजस्थान के जैन भण्डारों में सचित्र वस्त्र पट्ट काफी संख्या में प्राप्त हैं। इनमें विषय वस्तु एवं रंगों का वैविध्य है । दिगम्बर समाज में ऐसे वस्त्र पट्टों को "मांडणा'' कहते है, जो आज भी अनेक प्रकार के बनते हैं । इनका पूजा विधान भी प्रचलित है । पाटौदी जैन मन्दिर, जयपुर के शास्त्र भण्डार में एक वस्त्र पट्ट पर चित्रित है कि किस प्रकार राजपूत शासक ब्रिटेन वासियों पर निर्भर हो गये। (ख-४) काष्ठ फलक : इस काल के काष्ठ फलक भी राजस्थान के ग्रन्थ भण्डारों में उपलब्ध नहीं हैं। (ख-५) सचित्र विज्ञप्ति पत्र : सचित्र विज्ञप्ति पत्रों में जहाँगीर के चित्रकार शालिवाहन द्वारा चित्रित विजयसेन सूरि का विज्ञप्ति पत्र सबसे प्राचीन एवं महत्त्वपूर्ण है। बीकानेर के बड़े ज्ञान भण्डार में, बीकानेर का विज्ञप्ति पत्र, ९६ फीट लम्बा और ऐतिहासिक तथ्यों से भरपूर, चित्रकला का उत्कृष्ट नमूना है। इस विज्ञप्ति पत्र ने बीकानेर के भाण्डासर जी के मन्दिर में भित्ति चित्र का रूप धारण कर लिया है, क्योंकि वह इसी के आधार पर चित्रित किया था।२ बीकानेर का एक दूसरा सचित्र विज्ञप्ति पत्र भी बीकानेर के बड़े ज्ञान भण्डार में है, जो १७४४ ई० का है। यह विज्ञप्ति पत्र मथेण अखय राय दासोत द्वारा चित्रित और राधनपुर को प्रेषित किया गया था । सिरोही से जिनभक्ति सूरि को बीकानेर भेजे गये दो सचित्र विज्ञप्ति पत्र प्राप्त हैं, जिसमें से एक बड़े ज्ञान भण्डार में व दूसरा श्री पूज्यजी के संग्रह में है। महाराणा भीमसिंह के समय का उदयपुर का सचित्र विज्ञप्ति पत्र भी प्राप्त है । मेड़ता से भावनगर, जैनाचार्य विजय जिनेन्द्र सूरि को प्रेषित विज्ञप्ति पत्र भी सचित्र है।" नागौर संघ द्वारा सोजत में विजय जिनेन्द्र सूरि को १७८५ ई० में प्रेषित विज्ञप्ति पत्र "आशुतोष म्यूजियम" में है। बड़ौदा सरकार के पुरातत्त्व विभाग द्वारा प्रकाशित १. आकृति ८०, पृ० २१ । २. वही। ३. वही। ४. वही। ५. आकृति ८०, पृ० २१ । Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८६ : मध्यकालीन राजस्थान में जैनधर्म एक ग्रन्थ में' २४ विज्ञप्ति पत्रों का परिचय है, जिसमें से आधे सचित्र हैं । शाही 'चित्रकार शालिवाहन द्वारा चित्रित उपयुक्त विज्ञप्ति पत्रों के चित्रों में सिरोही, जोधपुर, सोजत, धाणी आदि के विज्ञप्ति पत्रों का भी विवरण है। अजीमगंज मुर्शिदाबाद के एक विज्ञप्ति पत्र में सम्पूर्ण चित्रावली, जयपुर नगर की दी हुई है। १७२५ ई० में एक सचित्र पत्र मनि विजयक्षमा सूरि को निमन्त्रित करने के लिये सिरोही से पाटण को प्रेषित किया गया था इसकी लम्बाई २४ फीट ४ इंच है। इसी प्रकार का एक पत्र १७९१ ई० में जोधपुर से विजय जैनेन्द्र को गुजरात के डमोहो स्थान को भेजा गया था। यह २५ फीट ५३ इंच लम्बा तथा ८ इंच चौड़ा है। एक अन्य विज्ञप्ति पत्र १७४४ ई० में महाराणा जोरावर सिंह के शासनकाल में बीकानेर से राधनपुर में रह रहे जिनभक्त सूरि को प्रेषित किया गया था, जो ९ फीट ७ इंच लम्बा और ९ इंच चौड़ा है। विज्ञप्ति पत्रों के चित्रों में सामान्यतया मंगल कलश, वाद्य यन्त्रों को बजाती हुई महिलाएँ, तीर्थंकर की माताओं के १४ स्वप्न तथा प्रेषक नगर के जैन मन्दिरों, मुनियों, राजाओं, बाजारों आदि का चित्रण किया जाता था। इनमें जैनेतर मन्दिर भी दर्शाये जाते थे। प्राचीन इतिहास की कड़ियाँ जोड़ने में इनका महत्त्वपूर्ण स्थान है । तत्कालीन नगरों के प्रारूप, मकान, दुकानें, मस्जिद, उपाश्रय आदि के साथ राजाओं व श्रेष्ठियों के चित्र की भी कम महत्ता नहीं है। नगर-वर्णनात्मक अनेक गजलें हिन्दी साहित्य को · इन्हीं विज्ञप्ति पत्रों की देन हैं । निष्कर्ष एवं विशेषताएं: सचित्र ताड़पत्रीय ग्रन्थों को विशेषताएं : विषय की दृष्टि से इन ग्रन्थों के चित्र तीर्थंकरों, देव-देवियों, मुनियों व धर्मरक्षकों की आकृतियों तक ही प्रायः सीमित रहे । चित्रकार के सम्मुख संयोजन व पृष्ठभूमि की विशेष समस्या नहीं थी। आकृति की मुद्राएँ सीमित एवं रूढ़िगत हैं । आकृति अंकन रेखात्मक है, जिसमें त्रिगुणात्मक गहराई नहीं आ सकी। रंगों का प्रयोग भी परिमित १. एन्शेन्ट विज्ञप्ति पत्राज, हीरानन्द शास्त्री द्वारा सम्पादित, १९४२ । २. आकृति ८०, पृ० २१ । ३. सुरपत सिंह दुग्गड़ के संग्रह में । ४. आकृति ८०, पृ० २१ । . ५. एन्शेन्ट विज्ञप्ति पत्राज, पृ० ४५ । ६. वही, पृ० ४८। ७. राभा, ३, अंक ३-४ । Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन कला : २८७ है, प्रायः भूमि लाल पकी हुई इंटों के रंग की तथा आकृतियों में पीले, सिन्दूर जैसे लाल, नीले, सफेद तथा किंचित हरे रंग का उपयोग हुआ है, किन्तु १३५० ई० से १४५० ई० तक के ताड़पत्रीय चित्रों में, शास्त्रीय व सौन्दर्य की दृष्टि से वैशिष्ट्य देखा जा सकता है। आकृति अंकन अधिक सूक्ष्मतर व कौशल से हुआ है। यद्यपि, विषय तीर्थंकरों के जीवन की घटनाएँ ही रही हैं, किन्तु उनमें विवरणात्मकता लाने का प्रयास दिखलाई देता है । रंग लेप में वैचित्र्य और विशेष चटकीलापन आया है। इसी काल में सुवर्ण रंग का प्रयोग प्रथम बार दृष्टिगोचर होता है, जो मुसलमानों के साथ आई ईरानी चित्रकला का प्रभाव माना जाता है। जिसके आधार पर १६वीं शताब्दी में भारतीय ईरानी चित्र-शैली विकसित हुई। कुछ रचनाएँ ऐसी भी मिलती हैं, जिनमें न केवल चित्रों में ही स्वर्ण रंग का प्रचुर प्रयोग हुआ है, अपितु समस्त लेखन ही स्वर्णिम-स्याही से किया हुआ है। सचित्र कागज के ग्रन्थों की विशेषताएं : कागज का आधार मिलने पर चित्रकला की रीति में कुछ विकास और परिवर्तन हुआ । ताड़पत्र में विस्तार की दृष्टि से चित्रकार के हाथ बँधे हुये थे, उसे दो ढाई इंच से चौड़ा क्षेत्र नहीं मिल पाता था। कागज पर रुचि के अनुसार चित्रों के बड़े-छोटे आकार निर्माण व सम्पुचन में सुविधा उत्पन्न हो गई। रंगों के चुनाव में भी विस्तार हुआ । ताड़पत्र पर रंगों को जमाना कठिन कार्य था। सोने-चांदी के रंगों का भी उपयोग प्रारम्भ हुआ। इसके पूर्व स्वर्ण रंग का उपयोग तूलिका को थोड़ा सा डुबोकर केवल आभूषणों के अंकन के लिये किया जाता था। इस काल में सम्भवतः स्वर्ण सुलभ रहा, या धनिकों की रुचि अधिक आकृष्ट होने से न केवल चित्रण में, अपितु लेखन में भी स्वर्ण व रजत स्याहियों का प्रचुरता से प्रयोग होने लगा। कई बार समस्त 'चित्र भूमि स्वर्ण लिप्त कर दी जाने लगी एवं जैन मुनियों के वस्त्र भी स्वर्ण रंगित प्रदर्शित किये जाने लगे। सूक्ष्म निरीक्षण से ज्ञात होता है कि १६वीं शताब्दी तक इस "लघु चित्रण विधि" में भित्ति चित्रण परम्परा अंश मात्र में विद्यमान थी। रेखाओं का प्रयोग शास्त्रोक्त, स्पष्ट व प्रवाहात्मक है। सिर्फ रंग व ब्रश के संचालन में अन्तर आया है । अजन्ता का चित्र धरातल बड़ा था व उसकी समस्याएं भी भिन्न थीं। इस लघु चित्रों में रेखा खींचते समय व ब्रश को बिल्कुल बालों के पास से पकड़कर हथेली व ऊँगली के बल पर रेखायें खींचनी पड़ती थीं। अतः आकृतियाँ सपाट तलों वाली होती थीं, जिनको बाँधने के लिये लोच की आवश्यकता नहीं थी। एक तरह से यह “लिपि शैली" (केलिग्राफिक) • थी, जिसमें क्षिप्रता व अटूट प्रवाह छुपा था । १. हीरालाल जैन, भारतीय सं० में जैनधर्म का योगदान, पृ० ३६९ । २. चोयल, जैसरा, पृ० २०६ । Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८८ : मध्यकालीन राजस्थान में जैनधर्म १७वीं शताब्दी से जैन पुस्तक चित्रों में ईरानी तत्त्वों के प्रभाव से तत्कालीन अभिरुचि व नवीन आवश्यकताओं के अनुरूप कुछ परिवर्तन दृष्टिगत होता है । छायाप्रकाश व शारीरिक गठन का अभाव दिखाई देता है। आकृतियाँ सपाट व समतल हो गई, जिनमें लाल, नीले, पीले, चटकदार अविधात्मक रंग भरे जाने लगे। सारे चित्र को विभिन्न तलों में विभक्त कर दिया गया और मनःस्थिति के अनुसार संयोजित कर दिया गया। इस प्रकार को अभिव्यक्ति में आकृतियों में यथार्थ स्वरूप का अतिरंजन या विघटन हो गया, जिनमें अमूर्त चित्र रचना के लक्षण झलकने लगे, जैसे कि ७वीं शताब्दी या ८वीं शताब्दी की आयरिश कला, १२वीं शताब्दी की रोमन कला एवं २०वीं शताब्दी की पिकासो की कला में दिखाई देता है ।' इनकी रेखाएँ स्वतन्त्र, एक-दूसरे को काटती हुई, कोणात्मक तथा वेगवती थीं। जैसे-जैसे कलाकार को तकनीकी अधिकार मिलने लगा, जटिल आकृतियाँ भी एक ही प्रवाह से युक्त अटूट रेखाओं में बनने लगीं। विषय विभिन्नता के साथ ही रेखाओं में भी विविधता व गोलाई आने लगी । कपड़े झीने और पारदर्शक बनाये जाने लगे, जो तरह-तरह के बेलबूटों से सुसज्जित होते थे । अंकन में धैर्य बढ़ने लगा, आकृतियों का स्पेस में उचित स्थान होने लगा तथा वे और भी स्पष्ट होने लगीं। रंगों की श्रेणियाँ बढ़ गईं तथा अब वे अधिक संतुलित तलों में संयोजित होने लगे। जैन लघु शैली की सामान्य विशेषताएं : (१) पश्चिमी भारत में उत्पन्न जैन चित्र शैली नख, शिख, रंग विधान एवं रेखा सौष्ठव की दृष्टि से राजस्थानी शैली या अन्य किसी भी चित्र शैली से भिन्न है । इसका आलेखन अजंता की बौद्ध शैली के पर्याप्त निकट है । भारतीय चित्रों का इतिहास अजन्ता से प्रारम्भ होकर दूसरा मोड़ इसी शैली के रूप में लेता है । जैन शैली की अपनी मर्यादा, विशेषता, चिन्तन दशा एवं मूल्य हैं। जैन चित्र गुर्जर जाति के नख-शिखसौष्ठव की एक सूची सी हमारे सम्मुख प्रस्तुत कर देते हैं, जिसमें ऐसा प्रतीत होता है कि संभवतः शक और हूणों का दल ही विदेशी विजेताओं की गुर्जर सभा थी, जिसका कालान्तर में भारतीयकरण हो गया ।३ गुर्जर जाति पश्चिमी राजस्थान में भी फैली हुई है और राजस्थान में प्राचीन चित्रों जैसे-आभूषण एवं वस्त्र अद्यतन पहने जाते हैं। प्राचीन गुर्जर प्रदेश के राजस्थानी क्षेत्र में, जैन चित्रों में पाई जाने वाली संस्कृति ही परिलक्षित है। १. इण्डियन पेंटिंग्स, पृ०५-६ । २. चोयल, जैसरा, पृ० २०६ । ३. विजयवर्गीय रामगोपाल-रा० की जैन लघु चित्र शैली, लेख, पृ० ३५-४२। Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ........ .. जैन कला : २८९ (२) मैन आकृतियों में कनपटियां चौड़ी, कान की लो बाहर निकली हुई, नाक लम्बी, सधी हुई, नुकीली और शुक चंचु के अनुरूप, आँखें गोल और बड़ी होती थीं। काजल की रेखा कानों तक खिची हुई तथा आंखें मुख की सीमा से बाहर निकली हुई होती थीं । होंठ पतले व एक दूसरे से चिपके हुए, मुख को रेखा दूर तक फैली हुई, कान लम्बे व छिद्रित, चिबुक दो भागों में विभक्त या गोल आम की गुठली के समान, कण्ठ में तीन रेखाएँ, कंधे चौड़े और उठे हुए, भ्रू-प्रदेश मिला हुआ, कटि क्षीण, जेघाएँ भारी पर पाँव नीचे से पतले होते हैं । केश कंधों तक झूलते हुए, ग्रीवा तक कटे या जूड़े के आकार में बँधे, जूड़ा कभी सिर के ऊपर व कभी पीछे, मुंळे बारीक, मुख की रेखा के पास, नीचे की ओर लटकी हुई, पुरुषों की दाढ़ी दो भागों में विभक्त, केशों में फूल और कभी मुंडे हुए सिर भी मिलते हैं। नारी सौन्दर्य में स्तन अत्यन्त पुष्ट, पट्टिका से बंधे हुये या कंचुकी, केशों के जूड़े बंधे हुए, अलकें कपोलों तक लहराती हुई, जिसमें काले कुन्दन लटकते रहते हैं । काले कुन्दन पाँवों, हाथों और वेणी में भी होते हैं । चिबुक का निचला भाग त्रिकोणाकार, भरा हुआ, गद्दीदार नाभि, पीपल के पत्ते के समान गम्भीर उदर, कटि क्षीण, मुख त्रिकोणीय, स्त्रियों के भ्र धनुष के समान और आँखें पटोलाक्ष होती हैं । हाथों की मुद्रा अंगुली निर्देशन या सिंहासन की पीठिका पर पल्लवाकार फैली होती है ।' ( ३ ) राजस्थानी लघु चित्रशैली का प्रारम्भ इन्हीं जैन चित्रों की परम्परा से होता है । जैन आकृतियों का तुलनात्मक दृष्टि से अध्ययन किये जाने पर ज्ञात होता है कि वे ईरानियों और उत्तर पूर्व की बर्बर जातियों से अधिक मेल खाती हैं। इनकी कनपटियाँ मंगोलों जैसी, दाढ़ी-मूंछे तुर्की तातारों जैसी एवं कितने ही आलेखनों में वेशभूषा भी टर्की के अनुरूप ही देखने को मिलती है । (४) जैन चित्रों को संयोजन विधि सुदृढ़ एवं सम्पूर्ण है। रंगों का विभाजन, उनकी सामूहिक शक्ति व सापेक्ष सौन्दर्य दर्शनीय है। विषय वैविध्य की दृष्टि से संकीर्णता है । जैन चित्र अभिप्रायों की दृष्टि से सुन्दर हैं और ऐसा प्रतीत होता है कि आधुनिक कलाकारों ने जैन चित्रों से प्रेरणा लेकर ही त्रिकोणवादी, अमूर्तवादी, संक्षेप आलेखन विधि आदि कितने ही प्रकार आधुनिक कला में विकसित किये हैं । रंगों की पृथक् सत्ता का सौन्दर्य स्वीकार करने की विद्या अन्य देशों में जैन चित्रों से ही संक्रमित हुई है । जैन चित्रों में शास्त्रीय व्याकरण की भी एक विशेषता है, जिसके मूल १. विजयवर्गीय रामगोपाल-रा० की जैन लघु चित्र शैली, लेख, पृ० ३५-४२ । २. वही । Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९. : मध्यकालीन राजस्थान में जैनधर्म में ज्योतिष शास्त्र, सामुद्रिक शास्त्र, मंत्र शास्त्र तथा तंत्र शास्त्र की ज्ञान गरिमा छिपी पड़ी है। (५) जैन चित्रों में अनेक रहस्यवादी तत्त्व छिपे रहते हैं उदाहरणार्थ-देव, दानव और मानवीय आकृतियों का रूप निर्माण एक नियम के अनुसार है । सतोगुण, रजोगुण और तमोगुण प्रधान चित्रों के अपने-अपने अभिप्राय एवं प्रतीक हैं। छोटी-सी आकृति का जैन चित्र सम्पूर्ण पुस्तक के समान होता है। इन्द्रसभा, चौदह स्वप्न, जन्माभिषेक, जन्म महोत्सव, शक्रस्तव, पंचमुष्टि लोंच, पार्श्वनाथ, क्षीर समुद्र, पद्म सरोवर, पूर्ण कलश, तृष्णा, निर्वाण, आयं कालक की कथाएँ, रानी सोमा, कल्पवृक्ष एवं विभिन्न कथाओं के कथानक जैन चित्रों के प्रमुख विषय रहे हैं । कदली, कुम्भ, तोरण, मयूर, वृषभ, सिंह, हंस, हाथी, कलश, चामर, ध्वजा, सरिता, लता वेष्टिका, वृक्ष, मेघमाला, लड़ते हुये वृषभ, कच्छप, वानर, विडाल, सर्प, शुक, पुष्पमालिका, सरोवर, रथ, हरिण आदि का जैन चित्रों में प्रतीकात्मक आलेखन हुआ है । ( ६ ) इन चित्रों में मयूर कण्ठ के समान नीला, हिंगलू, पीत, सुनहरी, रजत आदि रंगों का सफल प्रयोग किया गया है। इनमें १३०० ई० से १४५० ई० तक पीत व रक्तिमलाल पृष्ठभूमि, १४५० ई० से १६०० ई० तक लाल और १६०० ई० से १८०० ई० तक नीली पृष्ठभूमि का आलेखन विशेष तौर पर हुआ है । जैन ग्रन्थों में सुनहली, रूपहली स्याही, अष्टगंध व यक्ष कर्दम ( यन्त्र, मन्त्र, तंत्रादि लेखन हेतु ) व चित्रकला के विविध रंग बनाने की विधियाँ भी लिखी हुई मिलती हैं। सचित्र पुस्तक लेखन में चित्र बनाने के लिए काले, लाल, सुनहरे, रूपहले रंगों के अतिरिक्त हरताल और सफेदा का भी उपयोग होता था । हरताल और हिंगलू मिलाने पर नारंगी रंग, हिंगलू और सफेदा मिलाने से गुलाबी रंग, हरताल और काली स्याही मिलाकर नीला रंग बनता था । हस्तलिखित ग्रन्थों पर चित्र बनाने के लिए रंगों में गोंद का जल मिलाया जाता था। इनके अतिरिक्त सैकड़ों रंग-संयोजन के प्रयोग पुस्तकों में वर्णित हैं । लेखन के बीच में स्थान इस प्रकार छोड़ा जाता था कि स्वस्तिक, कमल, कलश आदि चित्र अपने आप बन जाते थे । वस्त्र पर चित्रण या लेखन के लिये पहले गेहूँ या चावल की लेई से छिद्र बन्द करके सुखाकर घुटाई की जाती थी। (७) जैन लघु चित्रों की रेखाएँ अत्यन्त पतली, समान, शक्ति सम्पन्न एवं साधना युक्त होती हैं । इसमें अर्ध चन्द्राकार रेखाओं का बाहुल्य और मेघ-मलिका के समान क्षिप्रता है। इन रेखा प्रधान शैली वाले चित्रों में संयोजन और गतियुक्त, १. विजयवर्गीय रामगोपाल-रा० को जैन लघु चित्र शैली, लब पृ० ३५-४२ । २. वही । ३. वही। Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जेन कला : २९॥ लयात्मक सौष्ठव भी पाया जाता है।' (८) जैन चित्रों का आलेखन राजस्थान में मुख्यतः नागौर, जालौर, जोधपुर, बीकानेर, चित्तौड़, उदयपुर, जैसलमेर, पाली, कुचामण आदि क्षेत्रों में हुआ है। जहाँ भी जैन धर्मावलम्बियों की सत्ता थी, वहीं ये चित्र और ग्रन्थादि निर्मित होते रहे। जैन साधुओं में चित्रालेखन की परम्परा अद्यतन जीवित है। अतः यह निर्विवाद है कि जैन चित्र शंली, कला चित्रों की शास्त्रीय पद्धति के अनुसार एक स्वतंत्र विद्या है, जिसकी अपनी मर्यादा और विशिष्ट चितन परम्परा है। (ख) जैन मूर्ति कला: राजस्थान में जैन धर्म में मूर्ति पूजा प्राचीन काल से ही प्रचलित थी। राजस्थान में कई स्थानों पर अशोक के पौत्र सम्प्रति द्वारा निर्मित मन्दिर एवं प्रतिमाएँ बतायीजाती हैं । ८वीं शताब्दी से पूर्व की कई प्राचीन जिन मूर्तियां राजस्थान में खोजी गई हैं। ८वीं शताब्दी के पश्चात् जैन मूर्ति कला की समृद्धि के परिचायक विभिन्न तीर्थ एवं महत्त्वपूर्ण जैन मन्दिर, जैसे गोडवाड़ प्रदेश में नाणा, नाडलाई, नाडौल, घाणेराव, बरकाणा, सादड़ी, पाली, जैसलमेर में लोद्रवा, बाड़मेर में नाकोड़ा जी व जूना, बीकानेर में चिन्तामणि, नमिनाथ व भाँडासार, जोधपुर में ओसियां, घंघाणी, कापरडा आदि हैं। जैन प्रतिमाओं की सामान्य विशेषताएं : तीर्थंकरों की समस्त मूर्तियां दो प्रकार की पाई जाती हैं-खड़ी हुई अर्थात् खड्गासन या कायोत्सर्ग मुद्रा एवं दूसरी बैठी हुई पद्मासन मुद्रा। समस्त मूर्तियां नग्न या कौपीन सहित, नासाग्र दृष्टि, ध्यान मुद्रा, लांछनायुक्त (जो गुप्त काल से पूर्व की मूर्तियों में नहीं पाये जाते), वक्षस्थल पर श्री वत्स चिह्न, हस्ततल, चरण तल एवं सिंहासन पर धर्मचक्र या कुशनीश या अन्य चिह्न पाये जाते हैं । खड्गासन प्रतिमाओं में सामान्य आकार, युवा शरीर, नग्नता एवं आजानुभुज निरूपण किया जाता है । शरीर को बनावष्ट योग सिद्ध होती है । मूर्ति में भव्यता, प्रतिष्ठा, शान्ति, अनुपात, संयम, सौम्यता आदि तत्त्व झलकते हैं ताकि भक्त की कलात्मक प्यास बुझ सके व साकार बिम्ब में अनन्त की कल्पना जाग्रत कर सके । जिन-बिम्बों के साथ कई बार चमर वाहक, यक्ष, यक्षिणी, मृदंग वादक, मृग, कुबेर, अम्बिका, अष्ट या नवग्रह, अष्ट प्रतिहार्य आदि भी अंकित किये जाते हैं । मूर्तियों के ऊपर कई बार छत्र भी बनाया जाता था। प्रत्येक तीर्थकर को मूर्ति के लिये स्पष्ट लांछना या चिह्न चैत्य वृक्ष, यक्ष व यक्षिणी जैन मान्यतानुसार निर्धारित हैं। १. विजयवर्गीय रामगोपाल-रा० की जैन लघु चित्र शैली, लेख, पृ० ३५-४२ । २. त्रिलोक प्रज्ञप्ति, ४, ६०४-६०५, ९१६-१८, ९३४-४० के अनुसार । Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९२ : मध्यकालीन राजस्थान में अनधर्म चिल बल गज अश्व बंदर चकवा प्रियंगु विजय नद्यावर्त अर्द्धचन्द्र मकर स्वस्तिक गेंडा ब्रह्म क्र०सं० तीर्थकर नाम १. ऋषभनाथ २. अजितनाथ ३. संभवनाथ ४. अभिनन्दन ५. सुमतिनाथ ६. पद्मप्रभु ७. सुपार्श्वनाथ ८. चन्द्रप्रभु ९. पुष्पदंत १०. शीतलनाथ ११. श्रेयांसनाथ १२. वासुपूज्य १३. विमलनाथ १४. अनन्तनाथ १५. धर्मनाथ १६. शांतिनाथ १७. कुंथुनाथ १८. अरहनाथ १९. मल्लिनाथ २०. मुनि सुव्रत नाथ २१. नमिनाथ २२. नेमिनाथ २३. पार्श्वनाथ २४. महावीर भैंसा चैत्यवृक्ष न्यग्रोध गोवदन सप्तपर्ण महायक्ष शाल त्रिमुख सरल यक्षेश्वर प्रियंगु तुम्बुख मातंग शिरीष नागवृक्ष अजित अक्ष (बहेड़ा) धूलि ब्रह्मेश्वर पलाश कुमार षणमुख पाटल पाताल किन्नर दधिपर्ण किंपुरुष नन्दी गरुड़ तिलक गंधर्व आम्र कुबेर ककेली वरुण चम्पक भृकुटि बकुल गोमेध मेष शृंग पार्श्व मातंग शाल गुह्यक तंदू यक्षिणी चक्रेश्वरी रोहिणी प्रज्ञाप्ति वज्र शृंखला वज्रांकुशा अप्रति चक्रेश्वरी पुरुष दत्ता मनोवेगा काली ज्वाला मालिनी महाकाली गौरी गांधारी वैराटी सोलसा अनन्तमती मानसी महामानसी जया विजया अपराजिता बहुरूपिणी कृष्माण्डो पद्मा सिद्धायिनी पीपल शूकर सेही वज्र हरिण छाण तगरकुसुम कलश कूर्म उत्पल शंख सर्प सिंह धव प्रतिमाओं के प्रभावलय भी देखने को मिलते हैं। दो तीर्थंकरों की मूर्तियाँ विशेष लक्षण युक्त पाई जाती हैं, जैसे-आदिनाथ के केश कंधों तक बिखरे हुये और पार्श्वनाथ की सप्तफणी, नवफणी या सहस्त्रफणी मूर्तियाँ । जिन-मूर्तियाँ विविध रंगों के पाषाण, काष्ठ व धातु की ढलाई में स्वर्ण, रजत, ताम्र, कांस्य, पीतल आदि की मिलती हैं । पंच धातु, सर्व धातु के अतिरिक्त अष्ट धातु प्रतिमाएँ भी निर्मित होती थीं। हीरे व पन्ने की मूर्तियाँ भी पाई जाती हैं, किन्तु बहुमूल्य होने के कारण सार्वजनिक नहीं होती हैं । धातु प्रतिमाएँ चार प्रकार की हो सकती हैं Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन कला : २९३ १. केन्द्र में केवल एक ध्यानावस्थित पद्मासन मूर्ति-एक तीर्थी, २. केन्द्र में ध्यानस्थ मूर्ति एवं दोनों तरफ दो खड़ी जिन मूर्तियाँ-त्रितीर्थी, ३. बीच में मूलनायक-उभयपक्ष दो खड़े हुये जिन व उनके ऊपर दो पद्मासनस्थ जिन-पंचतीर्थी, ४. बीच में ध्यानमग्न जिन, उभयपक्ष में दो खड्गासन जिन तथा परिकर में या ऊपर अन्य इक्कीस पद्मासनस्थ जिन-चतुविशतीर्थी या चौबीसी। प्रायः चार तीर्थंकरों वाली सर्वतोभद्र मूर्तियाँ भी पाई जाती हैं। प्रतिमाओं के परिकर में गजाभिषेक, गंधर्व आदि तथा पीठासन पर सिंह, गज, धर्मचक्र एवं नीचे श्रावक-श्राविकाओं तथा नवग्रहों के लिये स्थान होता है। विभिन्न प्रतिमाओं के अतिरिक्त नन्दीश्वर द्वीप, सिद्ध प्रतिमा, बावन चैत्यालय प्रतिमा, अष्ट कमलाकार प्रतिमा आदि भी धातु निर्मित होती हैं । (१) पूर्व मध्यकाल : ८वीं शताब्दी के पूर्व व गुप्तकाल से ही राजस्थान में प्रस्तर एवं धातु प्रतिमाएँ उपलब्ध होने लगीं। (क) प्रस्तर प्रतिमाएँ: भरतपुर क्षेत्र में जबीना से प्राप्त सम्भवतः चौथी शताब्दी की एक सर्वतोभद्र आदिनाथ दिगम्बर की मूर्ति प्राप्त हुई है, जिसमें समवसरण विधि के जटाधारी आदिनाथ को चारों ओर प्रदर्शित किया गया है। इसी प्रकार ८वीं, ९वीं शताब्दी की पारे व पत्थर को उकेर कर बनाई गई कुबेर की मूर्ति भी विलक्षण है । इसमें कुम्भोदर कुबेर के पीछे गज वाहन, उनके दाहिने हाथ में बिजौरि फल, बायें हाथ में नौलि व शोर्ष मुकुट के बीच लघु जिनाकृति व उसके भी ऊपर एक अन्य लघु तीर्थकर आकृति से इसके जैन मूर्ति होने की पुष्टि होती है । भरतपुर क्षेत्र में जबीना से ही २ फीट ४ इंच ऊँची नेमिनाथ प्रतिमा बद्धपद्मांजली मुद्रा में मिली है, जो गुप्तकालीन कला परम्परा की है। नागौर जिले में खींवसर से प्राप्त १०वी, ११वीं शताब्दी की महावीर की यह विशालकाय प्रस्तर प्रतिमा अलौकिक है। मूर्ति के सिर पर मुकुट व शरीर पर अन्य आभूषण आदि हैं, जो जीवन्त स्वामी स्वरूप के प्रतीक हैं।" इस पर लघु लेख भी उत्कीर्ण है, “वीरणा चालुक्य स्या कारित"। ऐसी ही एक प्रस्तर मूर्ति सिरोही के जिनालय में गर्भगृह के १. भरतपुर संग्रहालय में । २. प्रताप संग्रहालय, उदयपुर । ३. जैसरा, पृ० १८९ । ४. जोधपुर संग्रहालय में । ५. जैसरा, पृ० १९०। Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९४ : मध्यकालीन राजस्थान में जैनधर्म बाहर विद्यमान है। इसके अतिरिक्त आहड़ (उदयपुर), ओसिया (जोधपुर) एवं सेवाड़ी (पाली) के मन्दिरों में भी इसी प्रकार की १०वीं-११वीं शताब्दी की मूर्तियां विद्यमान हैं। ओसिया के महावीर मन्दिर में जीवन्त स्वामी की तीन खण्डित प्रतिमाएँ मिली हैं, जिनमें से एक पर ११वीं शताब्दी का लेख है। महावीर की एक सुन्दर प्रतिमा का निर्माण परमार कृष्णराज के राजत्व में ९६७ ई० में वेष्ठिक कुल के वर्द्धमान नामक व्यक्ति ने वरकाणा में किया था। प्रतिमा का शिल्पकार नरादित्य था । अन्य तीर्थंकरों की भी अनेक प्रतिमाएँ विभिन्न स्थानों पर निर्मित हई। पिलानी के निकट नरहद (नरभट) से प्राप्त कायोत्सर्ग मुद्रा में सुमतिनाथ तथा नेमिनाथ की भव्य प्रतिमाएँ प्राप्त हुई हैं, जिनकी पादपीठिका पर चक्र व शंख उत्कीर्ण हैं। ये गुप्तोत्तरयुगीन मूर्तियाँ हैं । जैन प्रतिमाएँ अपनी विशालता के लिये भी प्रसिद्ध रहीं। अलवर क्षेत्र में पारानगर के निकट जैन मन्दिर के भग्नावशेषों से पार्श्वनाथ की १६ फीट ऊँची प्रतिमा प्राप्त हुई है, जो "नवगजा" नाम से प्रसिद्ध है और ९वीं शताब्दी की अनुपम कला मूर्ति है । भरतपुर संग्रहालय में अनेक लेख युक्त जैन प्रतिमाएं हैं, जिनमें पार्श्वनाथ की बद्देना से प्राप्त १०२० ई० की, भुसावर से प्राप्त नेमिनाथ की १०५२ ई० की व १०५३ ई० की मूर्तियाँ उल्लेखनीय हैं। __ नाँदिया के जैन मन्दिर में महावीर की मूर्ति अपने परिकर के कलात्मक परिवेश तथा अद्भुत रूप से खुदे हये तोरणों के कारण मूर्तिकला का श्रेष्ठ नमूना है।" नरैना में पाई गई १०वीं शताब्दी की जिन प्रतिमाएँ अभिलेख सहित हैं। सहस्त्रकूट चैत्यालय की एक उत्कृष्ट प्रतिमा है, जो वर्गाकार है और इसके प्रत्येक कोने में २७ के समूह में कुल १०८ प्रतिमाएं हैं।६ अलवर प्रदेश में ११वीं शताब्दी की २४ फीट ऊँची विशाल जैन प्रतिमा भंगुर नामक ग्राम से खोजी गई है। अलवर में ही बहादुरपुर में बघोला नदी के तट के निकट एक वट वृक्ष के नीचे खड्गासन मुद्रा में तीन नग्न आकृतियाँ पाई गई हैं। अलवर में ही पारानगर में १३ फीट ९ इंच ऊँची एक विशाल प्रतिमा, जिसके १. जैसरा, पृ० १९० । २. मारुति नन्दन प्रसाद तिवारी, जैसिभा, १९७४ । ३. वीनिस्मा, पृ० २-३३ । ४. वही, पृ० २-३० । ५. असावे, पृ० ४१। ६. जैइरा, पृ० १३२ । ७. हिस्ट्री ऑफ इंडियन ऐंड ईस्टर्न आर्किटेक्चर, पृ० २५० । ८. आसरि, २०, पृ० ११५ । Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन कला : २९५ सिर पर ढाई फीट का दो हाथियों पर टिका हआ छत्र है, पाई गई है। कोटा क्षेत्र के शेरगढ़ में ११वीं शताब्दी की एक राजपूत सरदार द्वारा बनवाई गई तीन विशाल प्रतिमाएँ पाई गई हैं ।२ १२वीं शताब्दी की कुछ प्रतिमाएँ सांगानेर, बघेरा, मारोठ, सिरोही और चित्तौड़ क्षेत्रों में पाई गई हैं। (ख) धातु प्रतिमाएँ: जैन मतियों के कलात्मक अध्ययन की दृष्टि से धातु मूर्तियां बहुत महत्त्वपूर्ण हैं। धातु मूर्तियों में जितना वैविध्य है, उतना पाषाण मूर्तियों में नहीं। धातु मूर्तियाँ लाने, ले जाने में आसान, कम लागत की व अधिक समय तक सुरक्षित रखी जा सकती हैं । इन पर अभिलेख भी आसानी से खोदे जा सकते हैं । अकबर द्वारा सम्मानित महाकवि समयसुन्दर ने १६०५ ई० में रचित "घंघाणी तीर्थ स्तवन" धुंधला तालाब के निकट से ६५ प्रतिमाओं का प्राप्त होना बताया है और यह भी उल्लेख किया है कि सम्प्रति ने आर्य सुहस्ती से वीर संवत् २०३ में स्वर्ण प्रतिमा की प्रतिष्ठा करवाई थी। ये मूर्तियाँ प्राप्त नहीं है, किन्तु ८वीं शताब्दी से पूर्व धातु मूर्तियों का अस्तित्व में होना सिद्ध होता है । धातु मूर्तियों में प्राचीनतम दो त्रितीथियाँ हैं, जो पार्श्वनाथ की पद्मासन मूर्तियां हैं, इनमें से एक पर ६६९ ई० व दूसरी पर ६९९ ई० के लेख हैं। ये धातु प्रतिमाएँ पश्चिमी भारत की सर्व प्राचीन धातु प्रतिमाएँ हैं। जैन संरक्षण में अज्ञात कलाकारों ने धातु मिश्रण, ढलाई एवं बिम्ब सन्तुलन में अपूर्व सौन्दर्य बोध का परिचय दिया है। इनमें मध्य भाग में पद्मासनस्थ मूलनायक बिम्ब, उभयपक्ष में दो खड़े जिन, दो विद्यादेवियाँ, दो बैठे हुये यक्ष-यक्षिणी, ऊपर गजाभिषेक व नीचे पीठ पर एक रत्नजड़ित सिंहासन है, जिसमें सिंह एवं हाथियों का निदर्शन तथा नवग्रहों का स्वरूप चित्रण है। इस प्रकार की शैली १८वीं शताब्दी तक की धातु प्रतिमाओं का प्रतिमान बनी। ये प्रतिमाएं पंच धातु की ढली हुई हैं, इनमें चांदी एवं ताँबे की जड़ाई की अनुपम छटा है। ___ बसन्तगढ़ से प्राप्त ६८७ ई० की ४ फुट ऊँची, दो खड्गासन सवस्त्र प्रतिमाएं धातु मूर्तिकला में नया अध्याय जोड़ती है। इनमें गांधार शैली की बुद्ध प्रतिमाओं की तरह का पहनावा दिखाया गया है । इन प्रतिमाओं से पूर्ववर्ती, वल्लभी से प्राप्त पाँच सवस्त्र धातु प्रतिमाएँ, बम्बई के प्रिंस ऑफ वेल्स संग्रहालय में सुरक्षित है, पर इनमें धोती का वैसा स्पष्ट प्रदर्शन नहीं हो पाया है, जैसा कि इन दो प्रतिमाओं में। मूर्तियों पर लेख है कि साक्षात् ब्रह्मा की तरह सर्व प्रकार के रूपों को बनाने वाले शिल्पी शिवनाग ने ये जिन १. आसरि, २०, पृ० १२५ । २. कोटा राज्य का इतिहास, पृ० १२५ । ३. असावे, पृ० ४२। Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९६ : मध्यकालीन राजस्थान में जैनधर्म बिम्ब बनाये हैं । मूर्तियों का मस्तक धुंघराले बालों से भरा हुआ है। मूर्तियों के कन्धों पर जटाएं, मूल रूप से एक होते हुये भी आगे जाकर तीन भागों में बँट जाने से, हवा में लहराने का सा दृश्य उपस्थित करती हैं। ये मूर्तियाँ पोली हैं एवं लाख जैसे पदार्थों से भरी हैं। ११वीं शताब्दी के पश्चात् की बसन्तगढ़ शैली की धातु प्रतिमाओं का सबसे बड़ा संग्रह सिरोही की जैन मन्दिर गली का जैन पुरातत्व मन्दिर है, जिसमें लगभग ७०० धातु प्रतिमाएं संग्रहीत हैं। ये मूर्तियाँ १८३४ ई० में आदीश्वर मन्दिर की सुमतिनाथ देहरी के गर्भगृह से निकली थीं। ये धातु प्रतिमाएँ १०वीं शताब्दी से लेकर १६वीं शताब्दी तक की है । १९७२ ई० में इनकी संख्या ५४० थी, जिसमें १०वीं शताब्दी की एक, ११वीं शताब्दी की २०, १२वीं की ६१, १३वीं की ८६, १४वीं की १८२, १५वीं की १८३ और १६वीं शताब्दी की ७ प्रतिमाएँ थीं।२ राजस्थान में जैन धातु मूर्तियाँ विशाल संख्या में प्राप्त हैं । सम्भवतः ये ८वीं शताब्दी से अनवरत रूप से निर्मित होती रहीं। सिरोही के बसन्तगढ़ और अजारी, मारवाड़ के सांचौर, पर्वतसर, जालौर, रामसेन, सिवाणा और बीकानेर के अमरसर व चिन्तामणि मन्दिर की धातु मूर्तियाँ, जैसलमेर के किले व लोद्रवा में सुरक्षित धातु मूर्तियाँ, जयपुर में आमेर व साँगानेर के जैन मन्दिरों में सुरक्षित धातु प्रतिमाएँ, समृद्ध कला की परिचायक हैं। बीकानेर संग्रहालय में अमरसर से प्राप्त १४ धातु मूर्तियाँ प्रदर्शित हैं, जिनमें से ९ अभिलेख युक्त व ६ कलायुक्त हैं, जिसके अनुसार ये १००६ ई० से १०९३ ई० के मध्य की हैं । ये मूर्तियाँ तीर्थंकरों की एक-तीर्थी, त्रितीर्थी व पंचतीर्थी मूर्तियाँ हैं, जिनमें आदिनाथ व पार्श्वनाथ प्रमुख हैं। एक धातु मूर्ति चतुमुख समवसरण को है, जो १०७९ ई० के लेख युक्त और २४ तीर्थंकरों के नामांकन सहित है। सांचौर से पद्मासनस्थ आदिनाथ की ८वीं शताब्दी की महत्त्वपूर्ण धातु मूर्ति प्राप्त हुई है । पर्वतसर से प्राप्त धातु मूर्तियों में से एक ११७७ ई० की भी है। बीकानेर के चिन्तामणि मन्दिर और महावीर मन्दिर के तलगह में १३५० मूर्तियाँ एक साथ देखने को मिलती हैं। इनमें से चिन्तामणि मन्दिर में ११०० प्रतिमाएँ हैं, जिनमें से १०५० प्रतिमाएँ १५७८. ई० में तुरासानखान द्वारा सिरोही से लूट कर ले जाई गई थीं व सम्राट अकबर से १. असावै, पृ० ४३ । २. वही, पृ० ४४ । ३. वीनिस्मा, पृ० २-३२ । ४. वही। ५. वही । Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बैन कला : २९७ १५८२ ई० में महाराणा रायसिंह व मंत्री कर्मचन्द्र के प्रयासों से बीकानेर में पुनः आई थीं। इन मूर्तियों में कांस्य, पीतल और ताँबे की कई विलक्षण मूर्तियाँ हैं और कुछ ९वीं से १२वीं शताब्दी के मध्य की भी हैं। पूर्व मध्यकालीन धातु प्रतिमाओं में यक्षों, गन्धर्वो एवं चामर-धारियों के स्वरूपों में कलात्मकता है। प्रतिमाओं के मस्तक पर घुघराले बालों का केशोरणाओं के रूप में प्रदर्शन है । इन प्रतिमाओं में चँवर को धारियों, गजाभिषेक के अलंकरण, पीठासीन के चाँदी-तांबों के जड़ाव स्पष्ट दिखाई देते हैं। परिकर एवं उसकी प्रत्येक वस्तु का अंकन कलात्मक होता था । बसन्तगढ़ व पिंडवाडा मन्दिर में संग्रहीत धातु प्रतिमाएँ, सिरोही के पुरातत्व मन्दिर की धातु प्रतिमाएँ एवं कृष्ण गंज मन्दिर की डेढ़ फीट की सपरिकर धातु प्रतिमा इनके अच्छे उदाहरण हैं। इन सबमें आँखें बड़ी, खुली एवं नुकीली बताई गई हैं। अपेक्षाकृत अधिक सोने चांदी के प्रयोग के कारण इनकी चमक में एक आकर्षण है। (२) मध्यकाल : (क) प्रस्तर प्रतिमाएं १२वीं शताब्दी के पश्चात् की प्रस्तर प्रतिमाए अधिक सुन्दर तो नहीं हैं, फिर भी कुछ, कलात्मक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण हैं । नागदा के अद्भुदजी के जैन मन्दिर में शांतिनाथ की १० फीट ऊँची एक पद्मासन प्रतिमा है । विशाल आकार, सौन्दर्य और शिल्प को दृष्टि से यह प्रतिमा इस क्षेत्र में एक मात्र एवं अद्भुत होने के कारण, इस तीर्थ का नाम ही अद्भुदजी हो गया। प्रतिमा लेख के अनुसार १४७३ ई० में महाराणा कुम्भा के शासनकाल में सारंग ने इस मूर्ति को बनाया था। जयपुर के एक जैन मंदिर में दो उत्कृष्ट चौबीसी प्रतिमाएं सफेद संगमरमर पर निर्मित हैं, जिन पर नवग्रह, इन्द्र, अप्सरायें आदि सुन्दरता पूर्वक उकेरे गये हैं।' इस काल में असंख्य प्रस्तर प्रतिमाएं निर्मित हुईं और राजस्थान के विभिन्न जैन मन्दिरों में प्रतिष्ठित हैं । ये मूर्तियाँ विभिन्न प्रकार के प्रेनाइट, बालुकामय एवं रंग-बिरंगे संगमरमर के पाषाणों पर उत्कीर्ण मिलती हैं। एकतीर्थी मूर्तियों के अतिरिक्त पाषाण में ही निर्मित त्रितीथियों, पंचतीथियों एवं चौबीसियों की संख्या भी विपुल है। राजस्थान के प्रायः सभी जैन मन्दिरों में मध्यकालीन एकाधिक मूर्तियाँ देखने को मिलती हैं, जिन पर १२वीं शताब्दी से १६वीं शताब्दी के लेखों में आचार्यों, प्रतिष्ठा-कारों, श्रावकों, उनकी जाति, गच्छ, परिवार आदि का भी वर्णन होता है। १. वोनिस्मा, पृ० २-३४ । २. नाजैलेस, प्रलेस एवं श्रीजैप्रलेस आदि । Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९८ : मध्यकालीन राजस्थान में जैनधर्म (ख) धातु प्रतिमाएँ : मध्यकाल की धातु प्रतिमाओं में, बसंतगढ़ शैली की धातु प्रतिमाओं के निदर्शन की दृष्टि से, आबू के पित्तलहर मन्दिर एवं अचलगढ़ के मन्दिर की धातु प्रतिमाओं का बहुत महत्त्व है, जो पूर्व मध्यकाल की तुलना में अब वजन और विशालता की ओर बढ़ती दिखाई देती हैं । पित्तलहर मन्दिर की १०८ मन वजन वाली ८ फुट लम्बी व ४ फुट चौड़ी सपरिकर धातु प्रतिमा इसका प्रमाण है, जो देपाक नामक शिल्पी के द्वारा ढाली गई थी । यह मूर्ति १४६८ ई० में मंत्री गदा ने प्रतिष्ठित की थी । इस काल की दूसरी प्रसिद्ध धातु प्रतिमा १५०७ ई० में प्रतिष्ठित ऋषभदेव की है, जिसे वाछा के पुत्र देपा और हरदास ने ढाला था । डूंगरपुर के धातु कलाकारों द्वारा १४६९ ई० से १४६९ ई० के मध्य ढाली गई, इस मन्दिर में १२ मूर्तियाँ हैं, जिनका वजन १४४४ मन है । इन धातु प्रतिमाओं के विशाल परिकर में यक्ष, गन्धर्व, विद्यादेवियों तथा नवग्रहादि का अंकन बहुत स्पष्ट है । इसी काल की १४४० ई० की भट्टारक सकल कीर्ति द्वारा प्रतिष्ठित एक पंचतीर्थी कालंदरी के शान्तिनाथ मन्दिर में विद्यमान है । सिरोही के जैन पुरातत्व मन्दिर में १३वीं शताब्दी से १६वीं शताब्दी तक की ४५८ धातु प्रतिमाएँ हैं | बीकानेर के चिंतामणि पार्श्वनाथ मन्दिर में भी इन शताब्दियों की कई मूर्तियाँ हैं । मध्यकाल की अनेक चौबी सियाँ, पंचतीथियाँ, त्रितिथियाँ व एकतीर्थियाँ राजस्थान के विभिन्न मन्दिरों में विशाल संख्या में उपलब्ध हैं ।" इन शताब्दियों की धातु प्रतिमाओं में अधिकांश में चाँदी व शुद्ध ताम्बे का जड़ाव छोड़ दिया गया है । नेत्रों व कानों की विशालता में कमी आई है । परिकर की सजावट एवं अलंकरण में कलात्मकता का मात्र आवश्यक अंकन ही दिखाई देता है । ( ३ ) उत्तर मध्यकाल : (क) प्रस्तर प्रतिमाएँ : १७वीं एवं १८वीं शताब्दी में संगमरमर को विविध रंगों में तथा स्थानीय उपलब्ध पाषाणों की अनेक मूर्तियाँ निर्मित हुई हैं, जो राजस्थान के सभी जैन मन्दिरों में उपलब्ध हैं । इन प्रस्तर प्रतिमाओं में कोई कलात्मक वैशिष्ट्य नहीं दिखाई देता, अपितु प्रस्तर कला एवं उत्कीर्णन का ह्रास ही दृष्टिगोचर होता है । यद्यपि मूर्तियों का अनुपात, ताल व अंग-सौष्ठव सानुपातिक है, फिर भी ये मूर्तियाँ वह भव्य छाप नहीं 3 १. असावे, पृ० ४५ । २. देखें नाजैलेस, प्रलेस, श्रीजैप्रलेस आदि । ३. वही । Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जेन कला : २९९ छोड़तीं, जो पूर्वं मध्यकालीन मूर्तियों की सात्विकता में है । वस्तुतः इस काल में मूर्ति कला का स्वान्तः सुखाय पक्ष कम हो गया और व्यावसायिक रूप में प्रचलन में रहा (ख) धातु प्रतिमाएँ : १६०३ ई० में सिरोही के अजितनाथ मन्दिर में चिंतामणि पार्श्वनाथ की १३ × १३ फीट की प्रतिमा इस काल की बदलती कलात्मकता को सूचित करती है । चूँकि इस काल में आबू में तोपों की नालों की ढलाई भी होती थी, अतः धातु प्रतिमाओं में व्यावसायिकता का प्रवेश हो गया तथा ढलाई में एकरूपता नहीं रही । इस काल की मूर्तियों में ऊँचाई, चौड़ाई व वजन का संतुलन भी भिन्न-भिन्न दिखाई देता है । कला की दृष्टि से इन मूर्तियों का विशेष महत्त्व नहीं है, फिर भी प्राप्त लेखों के अनुसार इनकी संख्या विशाल है ।' तीर्थंकरेतर मूर्तियाँ : १. देवी-देवता : तीर्थंकरों के अतिरिक्त जैन लोग अन्य कई देवी- देवताओं, जैसे - सरस्वती, अम्बिका, पद्मावती आदि को भी पूज्य मानते थे । हिन्दू देवी-देवताओं से पार्थक्य दर्शाने के लिए, इन्हें तीर्थकरों के साथ ही चित्रित किया जाता था । सामान्यतया इनके मुकुट पर उस तीर्थंकर की मूर्ति उत्कीर्ण होती है, जिनसे कि वे सम्बद्ध होते हैं । इनकी शिल्प योजना व निर्माण में शास्त्रीय सिद्धान्तों की अनुपालना के साथ-साथ कलात्मकता भी है । ये उत्कृष्ट कलानैपुण्य, संतुलन, अनुपात और अभिव्यक्ति की प्रखरता को उद्घाटित करती हैं । २ सरस्वती. : सरस्वती की प्रतिमाओं के तीन प्रकार हैं- दो भुजाओं वाली, चतुर्भुजी एवं बहुभुजी | इसके पृथक् लक्षण- पुस्तक, हंस या कभी वाहन के रूप में मयूर हैं । सिरोही राज्य में पिंडवाड़ा के जैन मंदिर से ७वीं या ध्वीं शताब्दी की सरस्वती की एक सुन्दर धातु प्रतिमा प्राप्त हुई है, जो कमलारूढ़ है । बायें हाथ में पुस्तक व दायें हाथ में कमल है । राजपूताना म्यूजियम में काले पत्थर की सुन्दर सरस्वती प्रतिमा बाँसवाड़ा के अणा ग्राम से प्राप्त की गई है । यह चतुर्भुजी है, जिनमें वीणा, पुस्तक, कमल आदि हैं। देवी के मुकुट पर जिन का छोटा चिह्न अंकित है । नरैना से १०४५ ई० में प्राप्त सरस्वती प्रतिमा कलात्मक भव्यता से सम्पन्न है । अजमेर में अजारी के जैन मन्दिर से, लाई गई एक सुन्दर प्रतिमा है । अचलगढ़ में एक छोटी सरस्वती मूर्ति हाथों में वीणा, २ १. देखें नाजैलेस, प्रलेस, श्रीजैप्रलेस आदि । २. प्रोरिआसवेस, १९०५-०६, पृ० ४८ Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०० : मध्यकालीन राजस्थान में जैनधमं " पुस्तक, कमंडल आदि लिये हुए है। बयाना के निकट एक खण्डित प्रतिमा प्राप्त हुई है, जो मोर पर विराजित है । कुछ समय पूर्व ही लाडनूं के दिगम्बर जैन मन्दिर से जैन सरस्वती की एक अन्य भव्य मूर्ति ज्ञात हुई है, इसकी पादपीठिका पर उत्कीर्ण ११६२ ई० के लेखानुसार श्रेष्ठी वासुदेव की पत्नी आशा देवी ने इसकी प्रतिष्ठा अनन्त कीर्ति द्वारा करवाई थी ।" बीकानेर क्षेत्र में पल्लू से प्राप्त सुन्दर सरस्वती प्रतिमा पूर्व मध्यकालीन भारतीय शैली का अद्भुत नमूना है । यह चतुर्भुजी एवं वरद मुद्रा में है । ३. अम्बिका : प्रथम तीर्थंकर आदिनाथ से सम्बद्ध आनुषांगिक देवी अम्बिका प्रारम्भ से ही पूज्य रही हैं । सामान्यतः इनके हाथ में एक बालक दिखाई देता है । सादड़ी के एक जैन मन्दिर में १०वीं शताब्दी की अम्बिका की एक पीतल की मूर्ति है, जिसके बायें हाथ में बच्चा व दायें हाथ में आम्रलुम्बि है । मोरखानों में सुसाणी मन्दिर में अम्बिका की एक सिंहारूढ़ १२वीं शताब्दी की प्रतिमा है । यह मूर्ति शिल्प कला का उत्कृष्ट नमूना है, जो अम्बिका की जैन प्रतिमाओं से काफी साम्य रखता है । बघेरा के जैन मन्दिर में १२वीं शताब्दी की अम्बिका की प्रस्तर मूर्ति है । नरैना के जैन मन्दिर में सिंहारूढ़ देवी की तीन जैन प्रतिमाएँ कलात्मक अभिव्यक्ति लिये हुये हैं । जयपुर में लूणकरणजी के मंदिर में १४वीं शताब्दी की अम्बिका की सुन्दर सिंहारूढ़ धातु प्रतिमा है । ४. पद्मावती : पद्मावती पार्श्वनाथ की आनुषांगिक यक्षिणी है । बघेरा में १२वीं शताब्दी की पद्मावती की प्रस्तर प्रतिमाएँ प्राप्त हैं । जयपुर में सिरमौरियाजी के मन्दिर में १५९४ ई० की एक प्रतिमा है, जिसके दोनों हाथों में एक-एक बच्चा है व ऊपर पार्श्वनाथ का बिम्ब अंकित है । लूणकरणजी के मन्दिर में पद्मावती की शान्त एवं सौम्य स्वरूप वाली चतुर्भुजी प्रस्तर प्रतिमा है । ५. अन्य यक्षियाँ : आनुषांगिक यक्षिणियों मन्दिर में "ब्रह्माणी" राजस्थान के विभिन्न जैन मन्दिरों में अन्य की प्रतिमाएँ भी देखने को मिलती हैं । बघेरा के की एक प्रस्तर प्रतिमा है । जयपुर के लूणकरणजी के देवी की प्रतिमा है, जो अष्टभुजी है । इसके बाँये चार तथा कुल्हाड़ी व दाहिने हाथों में शंख, चक्र आदि हैं । सम्भवतः यह तान्त्रिक देवी मूर्ति, मन्दिर में भैंसे पर आसीन एक हाथों में तलवार, धनुष, तीर महिषासुर मर्दिनी की है । १. वीनिस्मा, पृ० २-३३ । तीर्थकरों की महावीर जैन Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६. चक्रेश्वरी : वैष्णवी का ही दूसरा नाम चक्रेश्वरी बताया जाता है । चक्रेश्वरी को विद्यादेवियों में स्थान प्राप्त होने के कारण जैन-मूर्ति विज्ञान में इनको महत्त्वपूर्ण एवं विशिष्टः लोकप्रियता प्राप्त हुई और उनका अंकन मन्दिरों में आवश्यक हो गया । ओसिया, घाणेराव, सेवाड़ी, आहड़ आदि के महावीर मन्दिर में इनका सुन्दर चित्रण किया हुआ है । १९७४ ई० में भरतपुर के पास कुम्हेर में चक्रेश्वरी की भव्य मूर्ति मिली है, जो तहसील कार्यालय में सुरक्षित है । पेन कला : ३०६ ७. सच्चिका देवी : ओसिया में सच्चिया माता मन्दिर में पूजित प्रतिमा महिष मर्दिनी की ही है । इस मन्दिर में ११७७ ई० तथा ११७९ ई० के लेख विद्यमान हैं । इन अभिलेखों में मन्दिर को क्रमशः " सच्चिका देवी प्रासाद" एवं "श्री सच्चिका देवी देवगृह" की संज्ञा दी गई है । ११७७ ई० के लेख में साधु माल्हा द्वारा आत्म श्रेयार्थ, इस मन्दिर के जंघा पर, चन्द्रिका शीतला सच्चिका क्षेमंकरी, क्षेत्रपाल की प्रतिमा बनाने का उल्लेख है । इसी स्थल के एक अन्य अभिलेख में रत्नप्रभ सूरि द्वारा चामुण्डा को सच्चिया रूप में परिवर्तित करने का उल्लेख है । यह लेख १५९७ ई० का है। जोधपुर संग्रहालय में खेड़ा महिष मर्दिनी का निचला भाग सुरक्षित है । इसके ११८० ई० के लेख में वर्णित है कि गणिनी चरण मत्या द्वारा सच्चिका देवी की इस प्रतिमा की प्रतिष्ठा, ककु ( कक्क सूरि ) के द्वारा करवाई गई । जूना में भी सच्चिया माता का मन्दिर है । इसमें भी उक्त आशय व सन् का अभिलेख है । प्राप्त ८. मरुदेवी : राजस्थान में तीर्थंकरों की माताओं की प्रतिमाएँ भी पाई गई हैं । जैसलमेर में. ऋषभदेव के मन्दिर में देवकरण के शासनकाल में मरूदेवी की एक प्रतिमा १४९७ ई० में बनवाई गई थी । मरुदेवी की एक गजारूढ़ प्रतिमा घुवेल ग्राम के केसरियानाथ मन्दिर में भी है । ९. यक्ष : तीर्थंकरों के अतिरिक्त देवताओं की मूर्तियों में यक्ष महत्त्वपूर्ण हैं । जयपुर में लूणकरणजी पंड्या के जैन मन्दिर में १८वीं शताब्दी की बनी हुई, कबूतर पर बैठी हुई, बाँयें हाथ में कुल्हाड़ी व दाहिने में माला लिये हुये एक देव मूर्ति है, उसके हाथों में चूड़ियाँ व कानों में बालियाँ हैं । सिर पर मुकुट है । उक्त मंदिर में ही गजारूढ़ व करबद्ध एक अन्य देव की मूर्ति भी है । यह भी उसी काल की है । ये मूर्तियाँ यक्षों की ही हैं । १, वीनिस्मा, पृ० २-३२ । Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०२ : मध्यकालीन राजस्थान में जेनधमं कुबेर : जैन कुबेर की प्रतिहारकालीन प्रतिमा मेवाड़ के बाँसी ग्राम से प्राप्त हुई है, जो उदयपुर संग्रहालय में है । समकालीन जैन साहित्य द्वारा भी राजस्थान में यक्ष पूजन स्पष्ट है । हरिभद्र सूरि द्वारा ८वीं शताब्दी में रचित "समराइच्चकहा" में यक्ष धनदेव या कुबेर का उल्लेख है । उद्योतन सूरि द्वारा ७७८ ई० में रचित " कुवलयमाला कहा " "में जैनों द्वारा पूजित कुबेर प्रतिमा का संकेत है । जैन धातु प्रतिमाओं पर कुबेर, अम्बिका व नवग्रह का प्रायः अंकन मिलता है । - ११ आचार्यों की मूर्तियाँ : आचार्यों की पादुकाएं तो प्रायः सभी मन्दिरों में पूज्य रूप में मिलती हैं । कई जैनाचार्यों की मूर्तियां भी राजस्थान में पूजित हैं । मेवाड़ में देलवाड़ा में १४२९ ई० की जिनरत्न सूरि, जिनवर्धन सूरि और द्रोणाचार्य की तथा १४१२ ई० की जिनराज सूरि और जिनवर्धन सूरि आचार्यों की प्रतिमाएँ पाई गई हैं । जयपुर क्षेत्र में मालपुरा में १४वीं शताब्दी की जिनकुशल सूरि की एक ऐसी ही प्रतिमा प्राप्त है । धुलेव के केसरियानाथ मन्दिर में १६९९ ई० की विजय सागर सूरि की प्रतिमा है । आचार्यों की ऐसी प्रतिमाएँ आबू में भी हैं । ये मूर्तियां न तो कलात्मक हैं और न मूल आकृति से साम्य ही दर्शाती हैं । १२. यन्त्रों की पूजा : १०. जैन मतावलम्बी ताम्र और पीतल के बने हुए विविध यन्त्रों की भी पूजा करते थे । ये यन्त्र वर्गाकार या वृत्ताकार होते थे । आकार के अनुसार बड़े या छोटे तथा यन्त्र के आसपास अभिलेख भी अंकित रहते थे । १३वीं शताब्दी के पश्चात् यन्त्रों की • स्थापनाओं के अभिलेखीय एवं साहित्यिक प्रमाण उपलब्ध हैं । सम्भवतः इसके पूर्व भी यह प्रचलन में रहे होंगे । राजस्थान के सभी जैन मन्दिरों में विविध प्रकार के यन्त्र - प्रतिष्ठित देखने को मिलते हैं । १३. दानियों व संरक्षकों की मूर्तियाँ : : देवी-देवताओं व आचार्यों की मूर्तियाँ तो पूजा के लिए प्रयुक्त होती हैं, किन्तु दानदाताओं की मूर्तियाँ केवल स्मृति-स्वरूप ही बनाई जाती हैं । आबू के आदिनाथ मन्दिर में विमल की अश्वारूढ़ प्रतिमा है, साथ ही दस गजारूढ़ प्रतिमाएँ भी हैं । सम्भवतः यह सब विमल व उसके कुटुम्ब का मन्दिर को जुलूस में जाते समय का चित्रण है । मुस्लिम आक्रमणकारियों द्वारा कुछ गजारूढ़ प्रतिमाओं को नष्ट कर दिया गया है । लूण वसहि मन्दिर में इसके निर्माता वस्तुपाल, तेजपाल की प्रतिमाएँ हैं । , Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जेन काल : ३०३ १४. हिन्दू देवी-देवताओं की मूर्तियां : कई जैन मन्दिरों में, हिन्दू देवी-देवताओं, यथा राम, कृष्ण, हनुमान, शिव, गणेश, भैरव आदि तथा देवियाँ, जैसे-सीता, लक्ष्मी, दुर्गा आदि की प्रतिमाएं भी देखने को मिलती हैं, जो जैन मतावलम्बियों की धार्मिक सहिष्णुता, उदारता एवं सर्व धर्म सम-भाव को प्रतीक है। ओसियाँ के सच्चिका माता के मन्दिर के प्रांगण में स्थित प्रतिहार कालीन सूर्य मन्दिर के पिछले बाह्य मंडोवर पर पार्श्वनाथ की मूर्ति का अंकन, इसी धार्मिक सहिष्णुता का परिचायक है। आबू के विमल वसहि में कृष्ण जन्म, दधिमंथन, रास-लीला आदि के दृश्य हैं। साँगानेर के सिंघी जैन मन्दिरों के स्तम्भों पर रास-लीला एवं कृष्ण के विभिन्न रूपों का अंकन इसी परम्परा में हुआ है । राजस्थान के जैन प्रस्तर मूर्ति कला केन्द्र : राजस्थान की समृद्ध जैन मूर्ति कला के पीछे स्थानीय शिल्पियों एवं संगतराशों की सतत् साधना रही है । ये शिल्पकार बाहर से नहीं आये, अपितु इस धरती की ही उपज थे, जिन्होंने धर्मनिरपेक्ष भाव से जैन धर्म के इन अतीव कलात्मक प्रतिमानों का सृजन किया । पूर्व मध्यकाल से ही अबुदमण्डल शिल्पकारों का गढ़ रहा, क्योंकि इस काल में वहाँ स्थापत्य एवं शिल्प के नानाविध आयाम चरमोत्कर्ष पर पहुँचे । चन्द्रावती नगरी का शिल्प वैभव, आबू के मन्दिरों की उत्कृष्ट तक्षण कला, मीरपुर, वरमाण व सिरोही की अनेकानेक मूर्तियों की रचना, निश्चित रूप से स्थानीय प्रतिभाओं ने ही सम्पन्न की। इस युग में सोमपुरा, गुरासाँ-चित्रकार आदि सिलावट जातियाँ, यही कर्म करती थीं। अबदमण्डल में आब, सिरोही, पिंडवाड़ा, बसन्तगढ़, चन्द्रावती, मीरपुर के अतिरिक्त पश्चिमी राजस्थान में जैसलमेर, बीकानेर, जोधपुर, पूर्व में जयपुर और दक्षिणी राजस्थान में चित्तौड़ क्षेत्र पाषाण कलाकारों के प्रमुख केन्द्र थे। जयपुर नगर निर्मित होने के पूर्व आमेर, बहुत बड़ा शिल्प केन्द्र था । विविध प्रकार के पाषाणों पर मूर्तियाँ बनाई जाती थीं। मकराना का श्वेत संगमरमर, डूंगरपुर का काला पत्थर, झीरो और बलदेवगढ़ के सफेद पत्थर से भी मूर्तियां बनाई जाती थीं। रंगीन व पॉलिश की मूर्तियों के लिये अलवर की सीमा पर स्थित रियालों का संगमरमर काम में लिया जाता है, क्योंकि इसमें हल्की नीली झाँई होती है । मूर्तिकारों के औजार अभी भी पुराने ही है । अबुद क्षेत्र में स्थानीय पाषाण विपुल मात्रा में उपलब्ध है । आरासन का पत्थर इस दृष्टि से श्रेष्ठ माना जाता था। चित्तौड़ के सूत्रकार मण्डन ने अपनी कल्पनाओं एवं शास्त्रीय ज्ञान के नैपुण्य को रणकपुर की मूर्तियों में प्रदर्शित किया है । जैसलमेर क्षेत्र में पोले प्रस्तर पर रेगिस्तान के मध्य भी स्थानीय शिल्पकारों ने अनुपम तक्षण की सरिता प्रवाहित कर दी है। इन क्षेत्रों से मूर्तियाँ राजस्थान के विभिन्न कोनों में ही नहीं, अपितु बाहर भी भेजी जाती थीं। Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०४ : मध्यकालीन राजस्थान में जैनधमं राजस्थान के जैन धातु मूर्ति कला केन्द्र : यहाँ से धातु प्रतिमाएँ राजस्थान में डूंगरपुर और अर्बुद क्षेत्र इसके प्रमुख केन्द्र थे । पश्चात्वर्ती काल में प्रतिमा ढलाई अन्यत्र भी प्रारम्भ हुई, किन्तु पूर्व मध्यकाल जैसा कलात्मक वैभव उनमें नहीं आ पाया । राजस्थान में धातु प्रतिमाओं का इतिहास आहड़ सभ्यता से ही जुड़ा हुआ है | आहड़ के उत्खनन में तीर्थंकर की एक पद्मासनस्थ मूर्ति, काँसे की ढलाई के उपकरण तथा भट्टियाँ मिली हैं ।" आहड़ के पश्चात् धातु प्रतिमाओं की ढलाई का सबसे बड़ा केन्द्र बसन्तगढ़ था, जो सिरोही एवं मेवाड़ की सीमा पर अवस्थित है । कालान्तर में यह उजाड़ हो गया। बाद में खुदाई करने पर मिलीं, जिन्हें लोगों ने तोड़-फोड़ दिया । बसन्तगढ़ शैली की विधान से ढाली गई प्रतीत होती हैं । इन्हें दो प्रकार से पोला । ठोस ढलाई के लिये प्रतिमा का मोम का प्रतिरूप बनाकर उस पर मिट्टी का लेप चढ़ाकर सुखा दिया जाता था । एक छेद से धातुद्रव मूर्ति में उँडेला जाता था, जिससे एक ठोस धातु प्रतिमा बन जाती थी । पोली प्रतिमाएँ बनाने के लिये किसी प्रतिरूप पर मिट्टी के लेप के बाद मोम की परत चढ़ाकर फिर उस पर मिट्टी का लेप चढ़ा दिया जाता था एवं एक छेद से गरम धातु उँडेल दी जाती थी । इस प्रकार मोम की परत का स्थान धातु ले लेती थी और एक पोली धातु प्रतिमा तैयार हो जाती थी । यह मूर्तियाँ मधुच्छिष्ट ढाला जाता था— - ठोस एवं बसंतगढ़ शैली की धातु प्रतिमाओं का प्रभाव सम्पूर्ण राजस्थान, गुजरात एवं मध्य भारत के मालवा क्षेत्र की धातु प्रतिमाओं में दिखाई देता है । 3 सिरोही जिले के धातुविदों के अनुसार ये प्रतिमाएँ १२वीं शताब्दी तक बसंतगढ़ में, उसके पश्चात् उदयपुर, सिरोही, सादड़ी, पिंडवाड़ा, आबू, जावाल, गराडा एवं देलदर आदि गाँवों में ढाली जाती रहीं, क्योंकि बसंतगढ़ का पतन हो चुका था तथा यहाँ के कलाकार आसपास के गाँवों या गुजरात में चले गये थे । बसंतगढ़ के पश्चात् आबू धातु कला का केन्द्र बना, क्योंकि यहाँ १२वीं से १७वीं शताब्दी तक निरन्तर मन्दिर बनते रहे या उनमें काम होता रहा । इसलिये आबू शिल्प कर्मियों का केन्द्र ही गया था । अचलगढ़ के आदीश्वर मन्दिर की कोठरी में काष्ठ की ४ सुन्दर मूर्तियाँ हैं, जो शायद ढलाई के लिये मॉडल के रूप में प्रयुक्त होती होंगी । अचलगढ़ में ही डूंगरपुर के शिल्पियों द्वारा, २११ मन प्रत्येक के वजन वाले तीन १. अग्रवाल, प्राचीन भारतीय मूर्तिकला को मेवाड़ की देन, लेख | २. शाह - जैन ब्रोंजेज - ए ब्रीफ सर्वे, पृ० २७३ । ३, असावे, पृ० ४३ । Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जेन कला : ३०५ घुड़सवार भी उल्लेखनीय हैं। देश के विभिन्न भागों से यहाँ कलाजीवी आते थे और विभिन्न प्रकार की मूर्तियां बनाते थे । (स) जैन स्थापत्य कला : वास्तुकला ने मन्दिरों के निर्माण में ही अपना चरम उत्कर्ष प्राप्त किया है। राजस्थान के जैन मन्दिर शान्त, सात्त्विक, पवित्र भावनाओं के उद्गाता, साहित्य के संरक्षक, साधना के केन्द्र स्थल होने के साथ ही अपने उत्कृष्टतम स्थापत्य, शिल्प वैभव व महत्त्वपूर्ण सांस्कृतिक भूमिका के लिये विख्यात रहे हैं । (१) पूर्व मध्यकाल : (क) ८वीं से १०वीं शताब्दी के जैन स्थापत्य प्रतिमान एवं विशेषताएं: जैन परम्परा की कतिपय उत्तरवर्ती परम्पराओं, साहित्य, पश्चात्वर्ती अभिलेखों, ऐतिहासिक एवं पुरातात्त्विक भग्नावशेषों एवं प्रमाणों से ज्ञात होता है कि राजस्थान में मंगथला', घंघाणी२, नाडलाई३, कुंभलमेर, बडली", केशोरायपाटन आदि कई स्थानों पर ८वीं शताब्दी के पूर्व जैन मन्दिर अस्तित्व में रहे होंगे, किन्तु हणों के आक्रमण या बारम्बार के जीर्णोद्धार के कारण उनकी स्थापत्य कला या काल का अनुमान लगाना कठिन है । ८वीं शताब्दी के मन्दिरों से ही जैन स्थापत्य के विशिष्ट स्वरूप, हमें अपनी समस्त विशेषताओं के साथ दृष्टिगत होते हैं । ___ जैन मन्दिरों का निर्माण धनी श्रेष्ठी वर्ग या राज्य में उच्च पदासीन अधिकारियों द्वारा धार्मिक भावना से प्रेरित होकर करवाया जाता था। जीवन की अन्य गतिविधियों की तरह यह भो मोक्ष का एक साधन था। मन्दिर पूजा, उत्सव व धर्म साधना के केन्द्र माने जाते थे, अतः जैन लोग एतदर्थ सुरक्षित एकांत या पार्थक्य चाहते थे। सभी कालों के स्थापत्य में यह तथ्य स्पष्ट दिखाई देता है। इन शताब्दियों या इससे पूर्व निर्मित सभी जैन मन्दिर मूलतः स्थापत्य की नागर शैली के ही है । नागर शैली का शिखर गोल होता है, जिससे अग्रभाग पर कलशाकृति बनाई जाती है । प्रारम्भ में इसका शिखर सम्भवतः गर्भगृह के ऊपर ही रहा होगा, किन्तु क्रमशः उसका इतना विस्तार हुआ कि समस्त मन्दिर की छत इसी प्रकार की बनाई जाने लगी। यह शिखराकृति औरों की अपेक्षा अधिक प्राचीन व महत्त्वपूर्ण मानी १. अप्रजैलेस, क्र० २४८ । २. भपापइ, पृ० २७३ । ३. नाजैलेस, क्र० ८५६ । ४. टॉड, एनल्स, २, पृ० ६७०-७१ । ५. भारतीय प्राचीन लिपिमाला, पृ० २ । २० Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . ३०६ : मध्यकालीन राजस्थान में अनधमं गई है ।" द्राविड़ शैली, दक्षिण भारतीय स्थापत्य शैली और वेसर शैली दोनों की विशेषताएँ लिए हुये मानी जाती है । २ इन शताब्दियों के मन्दिर अपनी निर्माण योजना में सादगीपूर्ण हैं, तथा सात्त्विक एवं पवित्र वातावरण की सृष्टि करते हैं । मन्दिर योजना में मूनालयक गर्भगृह, इसके ऊपर वर्तुलाकार शिखर, गर्भगृह के सामने खम्भों की पंक्ति पर बन्द या खुला सभामंडप होता था । स्तम्भ नीचे से अधिक विस्तार वाले व ऊपर जाकर आकार व अनुपात में हल्के होते जाते थे । मन्दिरों में साज-सज्जा बहुत अधिक नहीं होती थी तथा कामुक दृश्यों का पूर्ण अभाव होता था । मन्दिर की मूल योजना क्रास के आकार की होती थी । इनकी शैलीगत सादगी से प्रतीत होता है कि ये गुप्तकालीन मन्दिरों को सामान्य नकल रहे होंगे । इन शताब्दियों के मन्दिर अलंकरण की दृष्टि से पूर्ण होते थे । स्तम्भों का आकार घट-पल्लव या ऊपर जाकर पतला होता हुआ विविध प्रकार का बनाया जाता था । ८वीं शताब्दी के पूर्व भी वास्तुकला के कई ग्रन्थ अस्तित्व में थे, अतः क्षेत्र की भौगोलिक विशेषताओं के अनुरूप वास्तु-शास्त्रीय पद्धति से मन्दिर निर्मित होते थे । इस काल के प्रस्तर कलाकार पश्चिम भारतीय कला पद्धति से संबद्ध थे, जिसका मूल केन्द्र 'गुजरात व पश्चिमी राजस्थान था । वास्तुकार गुजरात व राजस्थान के प्रदेशों में विचरण करते रहे होंगे या इनकी गुरु परम्परा गुजरात से अवश्य सम्बद्ध रही होगी, क्योंकि गुजरात में काष्ठ कला का प्रचलन अधिक था, अतः काष्ठ के स्थापत्य की अधिकांश विशेषताएँ - निपुणता एवं महानता इस काल के मन्दिरों में झलकती हैं । काष्ठ को दीमक से बचाने के लिए स्तम्भ का आधार घट तुल्य रखा जाता था । छतें गजपृष्ठाकार रखी जाती थीं । पत्थर का युग आ जाने पर भी वास्तुकार को काष्ठ कला-तत्वों की स्मृति रही, जिसकी छाप हमें १३वीं शताब्दी तक के स्थापत्य व बाद के अलंकरणों में भी दिखाई देती है । काष्ठ में जिन अलंकरणों को आसानी से उकेर कर भव्य बनाया जा सकता है, उन्हें ही पत्थर में उकेर कर अमर बना देने का वास्तुकारों का दृढ़ संकल्प, जैन धर्म व राजस्थान की संस्कृति में गौरव के प्रतिमान बन गये । काष्ठ अलंकरणों को पाषाण पर प्रतिस्थापित करने का सुअवसर राजस्थान में था । अतः इन शताब्दियों में कई स्थानों पर पत्थर के सुन्दर अलंकरण निर्मित हुए, जिन्हें आनू के सर्वोत्कृष्ट उत्कीर्णन की तुलना में भूमिका स्वरूप माना जा सकता है। दरवाजों के ऊपर फूल-पत्तियों के अलंकरण तथा मन्दिर के विविध भागों, स्तम्भों आदि पर काष्ठ तुल्य सुन्दर नक्काशो देखने को मिलती है । ओसियां के मन्दिर का तोरण व इस काल के मन्दिरों के अनेक स्तम्भ १. हीरालाल जैन, भा० सं० में जैनधर्म का योगदान, पृ० ३२१ । २. वही, पृ० ३२२ ॥ Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन कला : ३०७ उत्कृष्ट तक्षण के प्रतीक हैं, किन्तु इससे मन्दिर की सादगी, पवित्रता, महानता और सात्विकता पर कोई प्रतिकूल प्रभाव नहीं पड़ा। छोटी संरचना व कम ऊँचे शिखरों में भी ये धार्मिक मूल भावों की अभिव्यंजना करते रहे । जीर्णोद्धारों व मरम्मत से अधिकांश मन्दिरों का मूल स्वरूप परिवर्तित हो गया है, किन्तु स्थापत्य की मूल विशेषताएं लुप्त नहीं हुई हैं। इस काल के मन्दिर स्थानीय रूप से प्राप्त सामग्री से ही बनाये जाते रहे । अर्बुद क्षेत्र में विविध प्रकार के इमारती पाषाण के भण्डार हैं । पूर्वी राजस्थान को छोड़कर राजस्थान में विविध क्षेत्रों में भिन्न रंगों वाला, शिल्प के अनुकूल प्रस्तर सुगमता से उपलब्ध हो जाता है । भारी होने के कारण इनका स्थानीय प्रयोग अधिक हुआ। अतः विविध क्षेत्रों के जैन मन्दिर, स्थापत्य की एकरूपता लिये हुए भी अपने भूमिज व निजी स्वरूप के परिचायक हैं। बहुत से मन्दिरों के शिखरों की संरचना में ईंटों का कुछ प्रयोग हुआ है, अन्यथा ऐसा भी देखने को मिलता है कि गढ़े हुए, बिना किसी संयोजन सामग्री के, प्रस्तर एक के ऊपर एक स्थापित कर दिये गये। जैन मन्दिर, शैली संयोजन व निर्माण में समकालीन वैष्णव व ब्राह्मण मन्दिरों से पूर्ण भिन्न नहीं हैं, किन्तु जैनाचार्यों की प्रेरणा से जैन धर्मावलम्बियों द्वारा बनवाये गये थे, अतः स्वतन्त्र अध्ययन के विषय हो जाते हैं। राजस्थान में प्राचीन नगरों में इन शताब्दियों के असंख्य जैन मन्दिर विद्यमान रहे,' किन्तु स्थापत्य के प्रतिनिधि या उदाहरण स्वरूप कुछेक को ही चुना गया है, ताकि स्थापत्य की विशेषताओं पर प्रकाश डाला जा सके । इन शताब्दियों के स्थापत्य के प्रतीक कई जैन मन्दिर हैं । प्रतिहार शासकों के काल में कई जैन मंदिर निर्मित हुये। "कुवलयमाला" की प्रशस्ति से इस तथ्य की पुष्टि होती है। हरिभद्र के साहित्य से ८वीं शताब्दी में चित्तौड़ में, पद्मनन्दि की "जम्बूद्वीप पण्णति" से बारा क्षेत्र में, कई मन्दिरों के अस्तित्व का पता चलता है । ७८३-८४ ई० में प्रतिहार वत्सराज के शासनकाल में निर्मित ओसियाँ का जैन मन्दिर इस काल के स्थापत्य का सम्पूर्ण प्रतीक है । यह मन्दिर एक घेरे के बीच में स्थित है। घेरे से सटे हुए अनेक काष्ठ हैं । मुख्य मन्दिर में गर्भगृह, सभा मण्डप व खुला बरामदा है, जिसके ठीक सामने एक अलंकृत तोरण है । इसके अतिरिक्त जीने के ऊपर निर्मित करवाया गया नल मण्डप है, जो दोनों तरफ से घिरा हुआ है। इसमें पीछे की तरफ छोटे देवालयों की पंक्ति है । नल मण्डप और देवालय १०वीं शताब्दी में निर्मित हुये प्रतीत होते हैं। १. देखें-एसिटारा। २. जबिउरिसो, १९२८, मार्च, पृ० २८ । ३. जैसाऔइ, पृ० ५७१ । ४. आसइएरि, १९०८-०९, पृ० १०८ । Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०८ : मध्यकालीन राजस्थान में जैनधर्म मारवाड़ क्षेत्र में मण्डोर में प्रतिहार वंशज कक्कुक द्वारा ८६१ ई० में जैन मंदिर निर्मित करवाने का उल्लेख है। वर्तमान में यहां केवल एक ताक में एक तरफ उत्कीर्ण लेख व दूसरी तरफ सिंहारूढ़ देवी की आकृति उत्कीणं है।' मण्डोर में ही नाहड़ राव की गुफा के उत्तर में एक दो मंजिला जैन मन्दिर है, जिसकी आयताकार भुजाओं के तीन तरफ दो मंजिला निर्माण तथा गर्भगृह के सम्मुख सभामण्डप १०वीं शताब्दी के स्तम्भों से निर्मित है। पाली जिले में 'नौलखा" जैन मन्दिर का प्राचीन भाग अब केवल सभा मण्डप ही है, जिसके स्तम्भ १०वीं शताब्दी के पूर्व के हैं। नदसर के प्राचीन जैन मंदिर का सभा मंडप भी १०वीं शताब्दी के पूर्व का है। नदसर के प्राचीन जैन मंदिर का सभा मण्डप भी १०वीं शताब्दी के प्राचीन स्तम्भों से निर्मित है। नाणा का महावीर जैन मन्दिर ९६० ई० के लेखानुसार १०वीं शताब्दी या इससे भी प्राचीन है।" सेवाड़ी का महावीर जैन भन्दिर भी १०वीं शताब्दी का प्रतीत होता है । यद्यपि इसकी केवल दीवारें ही अवशिष्ट हैं फिर भी इसके कलात्मक अलंकरण इसे १०वीं शताब्दी का सिद्ध करते हैं। सिरोही क्षेत्र में भद्रेसर का जैन मन्दिर जिसे लोग 'जग्दूस' कहते हैं, बारम्बार पुननिर्माण के कारण अपनी मूल स्थापत्य शैली को खो चुका है। उठामण के जैन मन्दिर की चतुष्कोणीय निर्मिति इसका काल १०वीं शताब्दी सिद्ध करती है । सम्भवतः बीकानेर क्षेत्र में भी इस काल में मन्दिर निर्मित हुये । तारानगर का मन्दिर ९५२ ई०, रिणी का १०वीं श० तथा नोहर का मन्दिर भी इसी काल का माना जाता है। पल्लू में खोजे गये भग्नावशेषों से ज्ञात होता है कि यहाँ प्राचीन जैन मन्दिर था। मेवाड क्षेत्र में इस काल का उल्लेखनीय स्थापत्य का प्रतीक, चित्तौड़ की अल्लट की मीनार है, जो ८६९ ई० में बनवाई गई। आदिनाथ को समर्पित ८० फीट ऊँची इस मीनार की निर्माण शैली ९वीं शताब्दी की ही है। मीनार पर आदिनाथ की कई आकृतियों का उत्कीर्णन है तथा आधार से शिखर तक यह नक्काशी से अलंकृत है ।१० नागदा का १. प्रोरिआसवेस, १९०६-०७, पृ० ३४ । २. वही, पृ० ३१ । ३. वही, १९०७-०८, पृ० ४३ । ४. वही, १९११-१२, पृ० ५३ । ५. वही, १९०७-०८, पृ० ४८-४९ । ६. वही, पृ० ५३। ७. वही, १९०५-०६, पृ० ३९ । ८. गजेटियर-बीकानेर राज्य, पृ० १९५ । ९. आर्ट ऐण्ड आर्किटेक्चर ऑफ बीकानेर स्टेट, पृ० ५८ । १०. हिस्ट्री ऑफ इण्डियन ऐण्ड ईस्टर्न आर्किटेक्चर, पृ० २५१ । Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन कला : ३०९ ९४६ ई० से पूर्व का "पद्मावतो मन्दिर"' तथा प्रतापगढ़ के निकट वीरपुर का प्राचीन जैन मन्दिर भी स्थापत्य की इसी शैली के निदर्शक हैं। कोटा क्षेत्र में रामगढ़ से तीन मील दूर पहाड़ियों पर गुफाओं के मध्य ८वीं एवं ९वीं शताब्दी का "कृष्ण विलास" नामक कस्बा था, जो वर्तमान में केवल "विलास" नाम से जाना जाता है । इसमें तीन खंडहर ८वीं, ९वीं शताब्दी के मध्य के जैन मन्दिर हैं । इनमें से एक प्राचीन काल में बहुत बड़ी संरचना रहा होगा, क्योंकि पास ही इसके प्रस्तरों, छज्जों, मेहराबों, कलश एवं अलंकृत प्रस्तर, ढेर के रूप में पड़े हुये हैं, जिनमें कुछ तीर्थकरों की भग्न प्रतिमाएँ भी हैं । इससे सिद्ध होता है कि यह मन्दिर बहुत भव्य व विशाल रहा होगा। दूसरा मन्दिर यद्यपि आकार में छोटा है, किन्तु तीर्थंकरों की बड़ी संख्या में प्राप्त मूर्तियों से ज्ञात होता है कि इसकी निर्माण शैली भी पारम्परिक ही रही होगी, जिसमें किसी भी स्थान को अनलंकृत नहीं छोड़ा जाता था। तीसरा मन्दिर बड़ा रोचक है । इसका भवन विशाल नहीं है और इसकी निर्माण सामग्री में से अधिकांश, पड़ोसी गाँव के लोगों द्वारा अपने मकानों के निर्माण में प्रयोग में ले ली गई है । इस मन्दिर में १६ देवालय थे और प्रत्येक में तीर्थंकर की एक प्रतिमा थी। इस प्रकार एक ही मन्दिर में १६ तीर्थंकर पूजित थे। इसके अतिरिक्त चातसू में पहाड़ी पर वर्तमान में शिव मन्दिर, किन्तु मूलतः खण्डेलवाल जैन मन्दिर तथा अलवर क्षेत्र में भंगुर का १०वीं शताब्दी का मन्दिर भी स्थापत्य के सुन्दर उदाहरण हैं। ___इन शताब्दियों के मन्दिर कामुक दृश्यों के अभाव तथ अन्तर्निहित सादगी के कारण पृथक् से पहिचाने जा सकते हैं। इन मन्दिरों में पत्थर का व्यापक प्रयोग होता था, जिसमें स्तम्भ, उदम्बर, तोड़े, छज्जे आदि से रचना की जाती थी। ये तत्त्व मूलतः काष्ठकला से प्रेरित थे। रचना विधि समतल व बोझ को लम्बवत् रखने की अपेक्षा समतल रखने की थी। जन-जीवन से अभिन्न रूप से सम्बद्ध, इस काल का स्थापत्य मूलतः लौकिक था, जिसका ध्येय व्यक्ति विशेष की रुचियों का प्रदर्शन करना नहीं, अपितु जन-जीवन की धार्मिक भावना को साकार करना था। सत्यं, शिवं, सुन्दरम् के सिद्धान्त पर विकसित इस काल के स्थापत्य में कमल, चक्र स्वस्तिक आदि अष्ट मांगलिक चिह्न पूर्णतः स्वीकृत थे । मन्दिर का शिल्प अत्यधिक अलंकरण लिये हुए भी वास्तुकला के तालमान व शास्त्रीय मानदण्डों के अनुरूप था, जिससे सौन्दर्य में सादगी'पूर्ण अभिवृद्धि होती थी। १. प्रोरिआसवेस, १९०४-०५, पृ० ६१ । २. गजेटियर-प्रतापगढ़ राज्य, पृ० २०० । ३. प्रोरिआसवेस, १९०९-१०, पृ० ५० । Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१० : मध्यकालीन राजस्थान में जैनधमं (ख) ११वीं से १३वीं शताब्दी - स्वर्ण काल : जैन स्थापत्य के इतिहास में यह काल, शिल्प कला के चरमोत्कर्ष पर होने के कारण "स्वर्ण युग" माना जा सकता है । इस काल में राजस्थान के विभिन्न क्षेत्रों में चौहान चालुक्य और परमार शासक राज्य कर रहे थे, जो जैन मत के बहुत बड़े संरक्षक थे । इसके अतिरिक्त जैन धर्मावलम्बी श्रेष्ठियों, व्यापारियों, मंत्रियों व अन्य राज्याधिकारियों ने भी जैन धर्म को प्रभावना को प्रोत्साहन दिया । इस काल में ऐसे मन्दिर निर्मित हुए, जो वास्तु एवं अलंकरण की दृष्टि से अनुपम थे । इस्लाम के आगमन से पूर्व ही वास्तुशास्त्र के "मानसार", "समरांगण", "सूत्रधार" आदि उल्लेखनीय ग्रन्थ थे । वास्तुकला एक बृहत् वास्तुविधा बन गई थी । मन्दिर के छोटे-छोटे से तत्त्वों का भी विवेचन किया जा चुका था तथा निर्माण सम्बन्धी छोटी-छोटी बातों के भी निश्चित मानदण्ड निर्धारित हो चुके थे । शास्त्रीयकरण की यह स्थिति, कला की अत्यन्त विकसित अवस्था के साथ ही सम्भव होती है। इस काल में वास्तुकला बहुत अधिक उन्नत अवस्था में थी और उसकी परम्पराएँ बहुत गहरी एवं दृढ़ थीं । स्थापत्य में पत्थर का व्यापक प्रयोग होता था । स्तम्भ, दीवारें, छतें व शिखर प्रस्तर निर्मित ही होते थे । बड़ी-बड़ी शिलायें उपलब्ध होने के कारण उनसे विविध विधियों से छतें पाटी जा सकती थीं । प्रस्तर कार्य में अब तक इस क्षेत्र के वास्तुकार अत्यन्त निपुण हो गये थे । यद्यपि इस काल के वास्तु में मेहराब भी देखने को मिलते हैं, किन्तु मेहराब पर वास्तुकार का भरोसा नहीं था । इसके अतिरिक्त प्रस्तर रचना उनके लिए अपेक्षाकृत आसान थी और प्रस्तर में ही वह उन अलंकरणों का उपयोग कर सकता था, जिनका ईंट व चूने में प्रयोग सम्भव नहीं था । काष्ठ शिल्प को प्रस्तर पर उत्कीर्ण करने के संस्कार अब तक परिपक्व हो चुके थे । यही नहीं, शिल्पकारों ने स्थापत्य को अलंकरणों के माध्यम से अधिकाधिक समृद्ध बनाने के उपाय भी खोज लिए थे । काष्ठ कला के संस्कारों ने उत्कृष्ट प्रस्तर शिल्प को जन्म दिया, जिसकी चरम अभिव्यक्ति देलवाड़ा के मन्दिरों में देखने को मिलती है । इस काल में बहुत से मन्दिर निर्मित हुये, जिनकी संरचना पूर्व कालीन मन्दिरों से भिन्नता लिये हुये थी । इस काल में बावन जिनालय के मन्दिरों की रचना अधिक हुई । मन्दिर में सामान्यतः गर्भगृह, गूढ़ मण्डप, चौकियाँ, सभा मण्डप, श्रृंगार चौकियाँ, देव कुलिकाएँ आदि निर्मित होने लगीं । मन्दिर के विस्तार में भव्यता एवं विशालता आई । मन्दिरों में नागर शैली के शिखर अधिक बनने लगे। इनके विन्यास में गर्भगृह, गूढ़ मण्डप और मुख मन्दिर होते हैं, जो बाहर और भीतर एक दूसरे से जुड़े हुये होते हैं । इनकी सामने की दीवारों का तारतम्य ऐसे कटावों द्वारा ही टूटता है, जो क्रम से बाहर Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन कला : ३११ निकले हुये या अन्दर धँसे हुये होते हैं । इसके फलस्वरूप एक ऐसा चित्र-विचित्र रूपांकन हमारे सामने आता है, जिसमें प्रकाश और छाया का अन्तर दर्शाया गया होता है । कुछ बड़े मन्दिरों में उसी रेखा में एक ऐसा सभा मण्डप भी जोड़ दिया गया होता है, जिसके सम्मुख भाग में तोरण का निर्माण किया गया हो । चौलुक्य शैली के मन्दिरों में पीठ, वेदी बंध और जंघा - जिन्हें सामूहिक रूप से मंडोवर, वरण्डिका और शिखर कहा जाता है, जैसे सभी सामान्य भाग पाये जाते हैं और ये सभी भाग, जिनमें सजावटी अलंकरण सम्मिलित हैं, परम्परा द्वारा एक निश्चित क्रम में निर्मित किये जाते हैं । इस शैली के एक विशिष्ट मन्दिर में जाड्यकुम्भ, कर्णिका और ग्रास पट्टी के पीठ की सज्जा वस्तुएँ, जैसे- गजथर और नस्थर महात्वाभिलाषी संकल्पनाओं पर आधारित हैं, जिनके बीच अश्वथर का निर्माण किया गया होता है । पारम्परिक वेदी-बंध-सज्जा के ऊपर जंघा होती है, जिसका अलंकरण बाहर निकली हुई देवी-देवताओं और अप्सराओं तथा भीतर की ओर बनायी गयी अप्सराओं, व्यालों या तपस्वियों की मूर्तियों के द्वारा किया गया होता है । इन मन्दिरों की बनावट परिस्तंभीय हैं और उनके स्तम्भों पर एक निश्चित क्रमानुसार आकृतियों का तथा अन्य सज्जा-रचना द्वारा विशेष अलंकरण किया गया है । मण्डपों में स्तम्भों का एक अष्टकोणीय विन्यास दिखाई देता है । मण्डप की गुम्बदाकार छत का आधार, ऐसी तोरण सज्जा का एक अष्टकोणीय ढाँचा है, जो स्तम्भों पर टिकी है और जिसके कम होते जाने वाले संकेन्द्रीय वलय अन्त में जाकर एक अति सुन्दर केन्द्रीय लोलक (पद्मशिला) का निर्माण करते हैं ।" विकसित चौलुक्य शैली के जैन मन्दिर में एक गर्भ गृह, वक्र भाग युक्त एक गूढ़ मण्डप, छह या नौ चौकियों वाला एक स्तम्भ युक्त मुख मण्डप तथा सामने की ओर एक परिस्तम्भीय नृत्य मण्डप होते हैं । ये सब एक चतुष्कोण में होते हैं, जिसके आसपास देवकुलिकाएँ होती हैं, जिनके सामने भमती के एक या कभी-कभी दो खण्डक होते हैं । स्तम्भ युक्त मुख मण्डप का यह छह या नौ खण्डकों में विस्तार तथा उसके आसपास भमती युक्त देवकुलिकाओं का सम्मिलित किया जाना, ये दोनों ही परिकल्पनाएँ चौलुक्य निर्माण शैली में जैन धर्मावलम्बियों की विशेष योगदान हैं । आबू का " विमल सहि" और कुंभारिया (प्राचीन आरासण) का १०६२ ई० के मन्दिर इसी प्रकार के हैं । अर्बुद मण्डल के मन्दिर : २ इस क्षेत्र में शिल्प शास्त्र के नियमों के अनुसार मन्दिर बनाये गये । कुम्भेरिया के ११वीं शताब्दी के जैन मन्दिर चतुष्कोणीय अंग शिखर व मुख्य शिखर सहित दोहरे आमलक छत्र वाले हैं । यहाँ के मन्दिरों के मण्डप अद्वितीय हैं तथा सफेद संगमरमर से १. जैन स्थापत्य एवं कला - २, पू० ३०२ । २. वही, पृ० ३०३ । Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१२ : मध्यकालीन राजस्थान में जैनधर्म निर्मित हैं । स्तम्भों की नक्काशी, मेहराबों का अलंकरण और जिनालय योजना, विकसित स्थापत्य का सुन्दर नमूना है। माउंट आबू का १०३१ ई० में निर्मित "विमल वसहि" तथा १२३० ई० में वस्तुपाल-तेजपाल द्वारा निर्मित "लूणवसहि" शैली की दृष्टि से एक जैसे हैं। इनके सौन्दर्य और शिल्प निपुणता की प्रशंसा कई विद्वानों के द्वारा की गई है। “कोजेन्स" के अनुसार-“इन मन्दिरों की सुन्दर साज-सज्जा की मात्रा, जो छतों, स्तम्भों, दरवाजों आदि में निरूपित है और चातुर्दिक विस्तृत है, केवल अत्यधिक सुन्दर कही जा सकती है । संगमरमर का अपारदर्शीय पतला और छिलके जैसा कलात्मक प्रयोग, कहीं भी देखी गयी कलात्मक सम्पन्नता को पीछे छोड़ देता है । कुछ अलंकरण और चित्रण तो सौन्दर्य के विलक्षण स्वप्न जैसे हैं।" फयूंसन', टॉड आदि कई विद्वानों ने इन मन्दिरों की खुलकर प्रशंसा की है। विमल वसहि, १२८४७५ फीट लम्बे-चौड़े चतुष्कोणीय प्रांगण में चौवन जिनालयों से घिरी हुई है। जिनालयों के बाहर दोहरे स्तम्भों की मण्डपाकार प्रदक्षिणा है । प्रांगण के ठीक मध्य में मुख्य मन्दिर है, जिसमें सभा मण्डप, नवचौकी, गूढ़ मण्डप व गर्भगृह हैं । मन्दिर के बाहर २५ x ३० फीट की हस्तिशाला है, जिसमें गजारूढ मूर्तियाँ एवं विमल की अश्वारूढ़ प्रतिमा है । हस्तिशाला के आगे मुख मण्डप व फिर देवकुलों की पंक्ति, भमिति और प्रदक्षिणा मण्डप हैं । लूणवसहि मन्दिर में भी रंग मण्डप, नवचौकी, गढ़ मण्डप, गर्भगृह आदि हैं । अन्तर यह है कि इस मन्दिर में हस्तिशाला अन्दर प्रांगण में है व रंग मण्डप के स्तम्भ कुछ अधिक ऊँचे हैं। इसी शैली के मन्दिर इस क्षेत्र में बड़ी संख्या में थे। चन्द्रावती के आसपास जैन मन्दिरों के विस्तृत खंडहर हैं। यहाँ से प्राप्त अनेक स्तम्भों की नक्काशी इतनी महीन और वैविध्यपूर्ण है कि कोई भी दो स्तम्भ एक जैसे नहीं हैं। विविध तीर्थमालाओं से यहाँ विपुल जैन मन्दिरों के अस्तित्व की जानकारी मिलती है। आबू और सिरोही के बीच मीरपुर का सुन्दर मन्दिर तेजपाल का है। अजारी के महावीर जैन मन्दिर के दरवाजों की अलंकृत चौखट इसे १२वीं शताब्दी का सिद्ध करती है। झाड़ोल का शान्तिनाथ जैन मन्दिर ११४१ ई० से पूर्व का है। इसके स्तम्भ व मेहराबें शैली की दृष्टि से विमल वसहि जैसी हैं । इनके अतिरिक्त नांदिया", झाड़ोली और मूंगथला" १. हिस्ट्री ऑफ इण्डियन ऐण्ड ईस्टर्न आर्कि०, पृ० ३६ । २. स्थापत्य के विस्तृत वर्णन के लिये अध्याय चतुर्थ देखें । ३. गजेटियर-सिरोही राज्य, पृ० २४८ । ४. वही। ५. वही। ६. प्रोरिआसवेस, १९०५-०६, पृ० ४८ । ७. वही, १९०६-०७, पृ० २६ । Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जेन कला : ३१३ के जैन मन्दिर भी अभिलेखीय प्रमाणों के आधार पर इसी काल के हैं । कोजरा के - सम्भवनाथ जैन मन्दिर के गूढ़ मण्डन के अभिलेखानुसार यह भी १२वीं शताब्दी का है एवं वाधिन पहाड़ी के मन्दिर भी १२वीं शताब्दी के हैं । 2 उपरोक्त मन्दिरों के अतिरिक्त इस क्षेत्र के जीरावला, वरमाण, पिंडवाड़ा, नितोड़ा, कालंद्री गोहली आदि के जैन मन्दिर भी बावन जिनालय पद्धति के हैं । इस -पद्धति के भी दो प्रकार इस क्षेत्र में मिलते हैं । पहली पद्धति में मूल मन्दिर के चारों ओर मुख्य द्वार को छोड़कर ५१ देवकुलिकाएँ होती हैं, जिनके सामने स्तम्भों पर टिका हुआ एक बरामदा होता है । दूसरी पद्धति में मुख्य मन्दिर के पीछे और गर्भगृह के दोनों पावों में अन्तरंग मन्दिर और उनके सामने स्तम्भों पर टिका हुआ गुम्बद होता है । इन गुम्बदों को मिलाते हुए बरामदों के भीतर ४८ देवकुल प्रकोष्ठ चारों ओर होते हैं । वरमाण में इसी पद्धति का अनुसरण किया गया है । सिरोही के चौमुखा मन्दिर, अजितनाथ मन्दिर, आदीश्वर मन्दिर एवं देलवाड़ा के मन्दिरों में भी यही शैली है । - बावन जिनालय पद्धति का एक नया रूप अजारी के प्राचीन मन्दिर में दिखाई देता है, जहाँ मूल मन्दिर के चारों ओर पचास देवकुलिकाएँ और मन्दिर के पीछे एक अन्तरंग मन्दिर तथा गूढ़ मण्डप दिखाई देता है । वस्तुतः मन्दिर के निर्माण में शिल्पशास्त्र, ज्योतिष, गणित एवं तन्त्र विद्या का विशेष स्थान है। बावन जिनालय की यह रचना वर्ण - मात्रिका के ५२ अक्षरों को स्थापना का तन्त्र विधान है, जिसके सम्राट् " अकार" रूप में परमात्व तत्त्व की प्रतिष्ठा रहती है । ४ बीच में स्वर ये मन्दिर मुख्यतया तीन पद अर्थात् एक कतार में चार स्तम्भ एवं उनके बीच में तीन स्थान वाली पद्धति से निर्मित हैं । इस क्षेत्र के प्राचीन मन्दिरों में सामान्यतया ६ चौकियाँ होती हैं, जो तीन-तीन खम्भों की ४ कतार वाले १२ स्तम्भों पर टिकी रहती हैं । पर्याप्त स्थान वाले पुराने विशाल मन्दिरों में नवचौकियाँ भी होती थीं, जो ४-४ • स्तम्भों की ४ कतारों अर्थात् १६ स्तम्भों पर टिकी होती थीं। सिरोही के आँचलिया, आदीश्वर मन्दिर, पिंडवाड़ा के महावीर मन्दिर, नांदिया के महावीर मन्दिर एवं गढ़ चँवरली के खंडित जैन मन्दिर में नौचौकियाँ हैं । ऊँची पीठिका पर स्थित मन्दिर के मुख्य द्वार पर नौबत खाना होता है । यह नौबतखाना खेलामण्डप में सीढ़ियों के ऊपर होता है । कुछ मन्दिरों में खेला मण्डप के अतिरिक्त नृत्य मण्डप भी होता है । मूँगथला के मन्दिर में ऐसा ही मण्डप है । यहाँ के जैन मंदिरों में मुख्य द्वार पर शृंगार चौकियाँ १. प्रोरिआसवेस, १९१६-१७, पृ० ६२ । २. वही, पृ० ५९ । ३. वही, पृ० ६५ । ४. असावे, पृ० १७३ । Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१४ : मध्यकालीन राजस्थान में जैनधर्म होती हैं । इस क्षेत्र के मन्दिरों के शिखर नागर शैली के हैं, जो अलंकृत एवं सादे दोनों प्रकार के हैं । कुछ पुराने शिखर इंटों के भी हैं, किन्तु ११वीं शताब्दी के बाद के शिखर पत्थर के ही हैं । ईंट, चूने के बने शिखरों में मीरपुर मन्दिर का शिखर उल्लेखनीय है । इन मन्दिरों में प्रयुक्त पाषाण स्थानीय ही था । यहाँ तक कि मूर्तियों का पत्थर भी स्थानीय ही होता था । पिंडवाड़ा क्षेत्र के मन्दिरों का प्रस्तर अजारी व शिवगंज क्षेत्र के, मन्दिरों का खंदरा की खानी से तथा जगत् प्रसिद्ध दिलवाड़ा के मन्दिरों का पत्थर भी सेलवाड़ा, पैरवा एवं झालीबाब की खानों से प्राप्त किया गया है। आबू की पश्चिमी तलहटी पर नष्टप्राय लाखावती नगरी के आरस पत्थर सेलवाड़ा के ही हैं। कुम्भारिया के पास तो आरस पत्थर की बहुत सी खानें थीं, अतः प्राचीन अभिलेखों में इसका नाम "आरासणा" दिया हुआ है ।' इस क्षेत्र में शिल्पियों की एक पूरी परम्परा रही है। विमलवसहि के शिल्पी का नाम तो काल के गर्त में समा गया है, किन्तु लूणवसहि मन्दिर का शिल्पी शोभनदेव था। इस क्षेत्र में सूत्रधारों की बड़ी बस्तियाँ रही हैं । इनके सम्बन्ध मुण्डारा, वरकाणा एवं सादड़ी के उन शिल्पियों से रहे हैं, जिनके पूर्वजों ने महान् वास्तुकार एवं तक्षक देपाल के नेतृत्व में रणकपुर के मन्दिर को बनाया था। १९९५ ई० में झाड़ोली के विशाल मन्दिर का जीर्णोद्धार करने वाला नीरड़ नामक सोमपुरा था। विमल वसहि मन्दिर के जीर्ण होने पर १२९३ ई० में नरादित्य ने उसवी कला को नया रूप दिया। १३१५ ई० में सोमपुरा, लूणसि, चुहारा, चेजारा, रावल और आल्हा ने इसको ठीक किया। लूणवसहि मन्दिर की मरम्मत भी १४१५ ई० में स्थानीय कारीगरों ने ही की। अन्य मन्दिर : चौहान शासकों के अन्तर्गत ११७७ ई० के बिजौलिया अभिलेख से स्पष्ट है कि लोलक के पुरखों ने टोडारायसिंह, बघरा, नरेणा, नरवर और अजमेर में जैन मन्दिर बनवाये थे । स्वयं लोलक ने बिजौलिया पार्श्वनाथ मन्दिर और उसके आसपास ७ मन्दिर बनवाये थे । वर्तमान में ये पूर्णतः आधुनिक निर्माण शैली के दिखाई देते है। १. असावै, पृ० १७४ । २. अप्रजैलेस, पृ० १०९ । ३. वही, पृ० १०। ४. वही, पृ० ८९। ५. वही, पृ० १५९ । ६. प्रोरिआसवेस, १९०६-०७, पृ० २६ । Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन काल : ३१५ सम्भवतः बार-बार के जीर्णोद्धार से इनका रूप ही परिवर्तित हो गया। मारवाड़ में नाडलाई के १६ मन्दिरों के समूह में से पहाड़ी पर स्थित नेमिनाथ मन्दिर और तलहटी का आदीश्वर मन्दिर ११वीं शताब्दी के है, जो स्तम्भों की शैली और अभिलेखों से स्पष्ट होता है।' कोकिंद के पार्श्वनाथ जैन मन्दिर का आन्तरिक वितान व छत ही प्राचीन है, जिसमें ११७३ ई० का लेख उत्कीर्ण है। सांचौर में एक पुरानी मस्जिद, जो मूलतः जैन मन्दिर थी, में अभी भी १२२० ई० और १२६५ ई० के अभिलेख विद्यमान हैं। जालौर में तोपखाना के नाम से जाना जाने वाला स्मारक, वस्तुतः १२वी व १३वीं शताब्दी में कुमारपाल द्वारा बनवाये गये मिश्रित शैली के तीन जैन मन्दिरों की सामग्री से बनाया हुआ है। इसी प्रकार घाणेराव महावीर मन्दिर का गर्भगृह, सभा मण्डप, प्रवेश मण्डप, कुछ कक्ष, तराशी गई जालियाँ, छज्जे आदि सम्भवतः ११वीं शताब्दी के हैं ।५ फलौधी के पार्श्वनाथ मन्दिर में ११६४ ई० का. अभिलेख है। सूरपुर का जैन मन्दिर भी अभिलेखीय साक्ष्य के अनुसार ११८२ ई० का है। जयपुर के निकट सांगानेर का सिंघी जी का जैन मन्दिर, भण्डारकर के अनुसार १५वीं शताब्दी का है, किन्तु गर्भगृह के बंदरवार पर ९५४ ई० के लेख से यह १०वीं शताब्दी का सिद्ध होता है। यहां की प्रतिमाओं पर ११वी व १२वीं शताब्दी के लेख हैं तथा नक्काशी के तक्षण और स्तम्भों की शैली की दृष्टि से इसको. तुलना आबू क्षेत्र के मन्दिरों से की जा सकती है। मन्दिर की योजना भी शास्त्रोक्तः मानदण्डों के अनुसार है । जयपुर नगर से तीन मील दूर, पुराना घाट बालाजी के. निकट का शिव मन्दिर, मूलतः १२वीं शताब्दी का एक जैन मन्दिर है। मन्दिर के दरवाजे के ऊपरी भाग के, बिना तिथि के संस्कृत लेख में, १२वीं शताब्दी के लेखों की. समस्त विशेषताएं है। यहीं पर ११६० ई० के लेख में आचार्यों व उनके शिष्यों के नाम हैं ।१० १. प्रोरिआसवेस; १९०८-०९. पृ० ४३ । २. वही, १९१०-११, पृ० ३६-३७ । ३. वही, १९०७-०८, पृ० ३४ । ४. वही, पृ० ३५ । ५. वही, पृ० ५९। ६. वही, १९०९, पृ० ६० । ७. वही, १९११-१२, पृ० ५३ । ८. वही, १९०९-१०, पृ० ४७ । ९. संवत् १०११ लिखित पं० तेजा शिष्याचार्य पूर्णचन्द्र । १०. एरिराम्युअ, १९२०-२१, क्र० २, ३ । Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१६ : मध्यकालीन राजस्थान में जैनधर्म झालरापाटन का १०४६ ई० में साह पोपा द्वारा निर्मित शांतिनाथ मन्दिर पुराने मन्दिर का नवनिर्मित रूप है। इसमें गर्भगृह व शिखर पुराने ही है, किन्तु नवनिर्मित मण्डप में कुछ हिन्दू देवताओं की आकृतियाँ भी हैं । २ अटरू में १२वीं शताब्दी के दो जैन मन्दिर हैं । एक मन्दिर में पार्श्वनाथ की खण्डित प्रतिमा है, किन्तु दूसरे मन्दिर की महावीर की विशाल एवं भारी प्रतिमा अभी अवशिष्ट है । शेष सारा मन्दिर खण्डहर है, जिसकी नीवें भी दिखाई देती हैं, जिससे एक योजनाबद्ध विशाल जैन मन्दिर की निमिति का आभास होता है। जैसलमेर के निकट लद्रवा का १२वीं शताब्दी का पार्श्वनाथ मन्दिर इस काल के तक्षण और स्थापत्य के उत्कृष्ट नमूनों में से है । मन्दिरों के निचले हिस्से की स्थापत्य शैली विशुद्ध रूप से दक्षिण भारतीय हिन्दू शैली है जबकि ऊपरी हिस्से की पश्चिम भारतीय शैली है। यहाँ का तोरण व कल्पवृक्ष बहुत सुन्दर निर्मितियाँ हैं। ___इस काल में मुस्लिम विध्वंस के परिणाम स्वरूप कई मन्दिर ध्वस्त किये गये और उनके स्थान पर मस्जिदें बना दी गई। जहाँ अभी जैन मन्दिर नहीं हैं या उनके खण्डहर मात्र अवशिष्ट हैं, वहाँ के विषय में फग्यूसन का अभिमत महत्त्वपूर्ण है"जहाँ भी मुसलमान संख्या में बसे, वहाँ प्राचीन जैन मन्दिरों के पाने की आशा करना व्यर्थ है । उन लोगों ने अपने धर्म के जोश में मन्दिरों को नष्ट-भ्रष्ट कर डाला है तथा जिन सुन्दर स्तम्भों, तोरणों को नष्ट नहीं कर सके, उनका बड़े चाव से अपनी मस्जिदों आदि के निर्माण में उपयोग कर लिया। अजमेर, दिल्ली, कन्नौज, धार व अहमदाबाद की विशाल मस्जिदें यथार्थतः जैन मन्दिरों की ही परिवर्तित निर्मितियाँ हैं ।'४ यहीं नहीं, फग्यूसन ने वास्तु-शास्त्रीय दृष्टि से मन्दिर को मस्जिद में परिवर्तित करने का सुगम तरीका भी आबू के मन्दिर का उदाहरण देकर बताया है। इसी प्रकार के परिवर्तन की दर्द भरी कहानी अजमेर क्षेत्र के एक विशाल शिक्षा केन्द्र या जैन मन्दिर की है, जिसे १२वीं शताब्दी में अढ़ाई दिन के झोपड़े में परिवर्तित कर दिया गया है । जैन परम्परानुसार यह एक जैन मन्दिर था ।६ इस स्थान पर खुदाई से प्राप्त एक जिन १. अने०, १३, पृ० १२५ । २. आकियोलाजिकल सर्वे ऑफ कनिंघम, पृ० २६३-६७ । ३. नाजैलेस, क्र० २५४३ । ४. हिस्ट्री ऑफ इण्डिया ऐण्ड ईस्टर्न आर्किटेक्चर, पृ० २६३-६४ । ५. वही। ६. यह मन्दिर ६६० ई० में वीमदेव काला द्वारा निर्मित बताया जाता है । इसकी नींव भट्टारक विश्वनन्द ने रखी थी। अजमेर के धर्मदास जैन मं० से प्राप्त विवरण के अनुसार भवन ११३२ ई० में पूर्ण हुआ था। Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जेन काल : ३१७ प्रतिमा ' तथा निकट से ही जमीन से १८५६ ई० में खोजी गई ९-१० संगमरमर की १२वीं शताब्दी के अभिलेख वाली प्रतिमाओं से सिद्ध होता है कि यह जिन मन्दिर ही रहा होगा। इसका स्थापत्य आबू के मन्दिरों जैसा है। टॉड व फग्यूसन ने भी इसे जैन मन्दिर ही माना है। जैन परम्परा के प्रमाणों के अनुसार विग्रहराज ने कई जैन आश्रम निर्मित करवाये और उसने “राजविहार", जो सम्भवतः सरस्वती मन्दिर ही था, के ऊपर झण्डा फहराया। सम्भवतः यह एक बड़ा शिक्षा केन्द्र रहा होगा । ज्ञान, विज्ञान, काव्य व कला की कई शाखाओं का अध्ययन-अध्यापन यहाँ होता रहा होगा, तभी विग्रहराज ने कोई नाटक भी लिखा । १८५ फीट लम्बे और ५७१ फीट चौड़े भवन की मुख्य दीवार ११३ फीट मोटी व ५६ फीट ऊँची है। यह स्थापत्य की उच्च शैली का प्रतीक है। इसमें सात मेहराबें हैं । केन्द्रीय मेहराब २२ फीट ३ इंच और शेष १३ फोट ५ इंच की हैं। मध्यवर्ती बरामदे के पश्चात् २४८ फीट लम्बा और ४० फीट चौड़ा स्तम्भों पर टिका हुआ समतल छत वाला मण्डप है । यह छत अन्दर की ओर ९ अष्टकोणीय खण्डों में विभक्त है, जो सात मेहराबों, मुख्य दीवार और परिसर के दोनों कोनों के अनुरूप हैं। मण्डप के स्तम्भों की ५ कतारें हैं और कुल ७० स्तम्भ हैं, जो तक्षण की दृष्टि से अत्यन्त मोहक हैं। जटिल अलंकरण युक्त स्तम्भ, कोई भी दो एक जैसे नहीं हैं। सर्वत्र नक्काशी कृत ताक व तक्षण कृत घोड़ियाँ आदि हैं। इस प्रकार जैन स्थापत्य के इस स्वर्ण काल में तक्षण के आदर्श प्रतिमान निर्मित हुये, जिनका स्थापत्य की दुनिया में चिरस्मरणीय नाम है। तक्षण की इस प्रगति से जैन मन्दिरों से पवित्रता व पूर्णता का ह्रास हो गया और इस पराकाष्ठा के बिन्दु से यह ह्रास अद्यतन जारी है। इस काल में मन्दिरों की संरचना में विशालता, संयोजन में भव्यता व शिल्प में और उत्कृष्टता आई। देवी-देवताओं और स्त्रियों की मूर्तियों का भी अलंकरण के लिये प्रयोग हुआ । महाकाव्यों के कथानक व कई कथा प्रसंग भी उकेरे गये । मन्दिर के साथ-साथ मूर्तिकला का भी विकास हुआ और उसने धीरे-धीरे कलात्मकता के चरम आदर्श को पा लिया । (२) मध्यकाल: १३वीं शताब्दी के पश्चात् लगभग एक शताब्दी तक मन्दिर निर्माण के उल्लेखनीय १. एरिराम्युअ, १९१८। २. जरनल एशि० सो० बेंगाल, ७, पृ० ५१ । ३. टॉड, एनल्स, २, पृ० ८९६-९०० । ४. हिस्ट्री इ० ऐण्ड ई० आकि०, पृ० २६३ । .. ५. गाओसि, ७६, पृ० ३७० । Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१८ : मध्यकालीन राजस्थान में जेनधर्म पुनरुद्धार प्रारम्भ वास्तुकला पर बड़े "" प्रमाण नहीं मिलते । १५वीं शताब्दी से जैन स्थापत्य शैली का हुआ । १५वीं शताब्दी के पूर्वाद्ध में महाराणा कुम्भा के संरक्षण में बड़े ग्रन्थ लिखे गये । उनके स्थपति आचार्य मण्डन ने वास्तु और शिल्प पर उनके ही संरक्षण में "देवता मूर्ति प्रकरण", "प्रासाद मण्डन'", 'राजवल्लभ रूप मण्डन", "" वास्तु मण्डन", " वास्तु सार" और " रूपावतार" ग्रन्थ लिखे । मण्डन के पुत्र गोविन्द -ने "उद्धारधारिणी", "कला निधि", "द्वार-दीपिका" नामक ग्रन्थ लिखे । मण्डन के भाई नाथ ने 'वास्तु मंजरी" की रचना की । कुम्भा ने विजय स्तम्भ के विषय पर - अपने एक स्थपति से एक ग्रन्थ लिखवाया और इसे पाषाण फलकों पर खुदवाया เจ महत्वपूर्ण बात यह है कि मध्यकाल में, चाहे वह मुगलों का स्वर्ण युग ही क्यों न हो, मुस्लिम वास्तुकला पर कोई ग्रन्थ नहीं लिखा गया और स्पष्ट हो सम्पूर्ण स्थापत्य भारतीय सिद्धान्तों पर होता रहा । मुस्लिम स्थापत्य के प्रतिमानों पर भी भारतीय कारीगरों ने ही काम किया और उनकी रचना भारतीय वास्तु शास्त्रों के आधार पर हुई । सदैव भारतीय तालमान ध्यान में रखे गये । विदेशी प्रेरणाओं को इन शिल्पकारों ' ने अपनी शैली में घोल-मेल लिया और वास्तु कला को एक नया रूप ही नहीं, अपितु नया जीवन भी दिया। भारतीय संस्कृति की अनवरत धारा में मध्यकाल का यही - महत्त्वपूर्ण योगदान है । २ खम्भों, स्तम्भों वाले मेहराब तो बने ही सही, किन्तु उनमें तोड़ों पर आधारित उदम्बर लगाये गये । मन्दिरों में शिखरों का आकार गुम्बद - नुमा होने लग गया । छत्रियों का व्यापक प्रयोग शुरू हो गया । जैन मन्दिरों पर भी इस मुगल मिश्रित स्थापत्य शैली का कुछ प्रभाव हुआ, जो फूले हुये गुम्बद, खुले क्षेत्र की मेहराबों और अलंकरण के प्रतीकों में देखने को मिलता है । इस काल के अधिकांश जैन मन्दिर आबू व सांगानेर के मन्दिरों की नकलें हैं, किन्तु इन अनुकृतियों में से पूर्ववर्ती मन्दिरों की महत्त्वपूर्ण विशेषताएँ पवित्रता, मनोरमता आदि में ह्रास हो गया । उन मन्दिरों की तुलना में इनमें वह भव्यता, निर्माण योजना की कुशलता और वर्णनों को समृद्धि देखने को नहीं मिलती है । जैनों द्वारा कराये गये स्थापत्य निर्माणों की दृष्टि से १५वीं शताब्दी पश्चिमी भारत के लिये विशेष उल्लेखनीय प्रतीत होती है । इस काल में इस क्षेत्र के उस मध्यकालीन स्थापत्य को सुस्थिर किया गया जिसे जेम्स फर्ग्यूसन ने “ मध्य शैली" कहा है। इस मध्य शैली की सर्वोत्तम अभिव्यक्ति इस युग के वास्तुविदों द्वारा तीर्थंकरों के लिये निर्मित एक अनूठे प्रकार के मन्दिर में देखी जा सकती है । यह शैली नागर शैली, सोलंकी एवं बघेल शैली १. उदयपुर संग्रहालय में । २. रामनाथ - मध्यकालीन भारतीय कलाएँ एवं उनका विकास, पृ० ७८ । ३. जैन स्थापत्य एवं कला, पृ० ३६१ । Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जेन काल : ३१९ के पूर्ववर्ती अनुभवों पर आधारित है । इन मन्दिरों में अधिष्ठान, देवकुलिकाएँ, अंग शिखरों के समूह से युक्त शिखर, स्तम्भों पर आधारित मण्डप, गवाक्ष आदि प्रमुख भाग होते हैं । मध्य में केन्द्रवर्ती वर्गाकार गर्भगृह युक्त इन मन्दिरों की विन्यास रूपरेखा की विशदता ने, एक नये रूपाकार को जन्म दिया है । इस प्रकार के मन्दिर जैनों में प्रायः "चौमुख के नाम से जाने जाते हैं, जो भारतीय वास्तु विद्या विषयक ग्रन्थों में उल्लिखित " सर्वतोभद्र" प्रकार के मन्दिरों के सामान्यतः अनुरूप हैं। रणकपुर का मन्दिर इसका सर्वश्रेष्ठ उदाहरण है । "वास्तुसार" के लेखक ने मन्दिर की नागर शैली को पश्चिम भारतीय रूप में रूपान्तरित करते हुये, उसकी विन्यास रूपरेखा तथा ऊँचाई के विस्तार का प्रतिपादन किया है ।" इस ग्रन्थ के अनुसार मन्दिर का अन्तर्भाग गर्भगृह कहलाता था । गर्भगृह के आगे अक्षीय रेखा पर स्थित तीन मण्डप होते थे । इन तीनों मण्डपों में पहला मण्डप गूढ़ मण्डप कहलाता था, जो एक कक्ष का काम करता था । इसके उपरान्त मध्य भाग में एक बड़ा कक्ष होता था, जिसे रंग मण्डप, नवरंग या नृत्य मण्डप कहते हैं, जिसमें नृत्य एवं नाटकीय कलाओं के प्रदर्शन किये जाते थे । तीसरा मण्डप बलन मण्डप या मुखमण्डप कहलाता था, जो प्रवेश मण्डप होता था । इसी प्रकार लंबरूप धुरी के आधार पर मन्दिर के तीन भाग होते थे । मन्दिर का निचला आधार भाग अधिष्ठान कहलाता था, मध्य भाग मण्डोवर तथा ऊपरी भाग शिखर होता था, जो आमलक से मण्डित होता था । इसके अतिरिक्त भी इस ग्रन्थ में प्रासाद पीठ, जगती पीठ, तल घर, शिखर के विभिन्न भाग तथा मण्डोवर भाग की संरचना का विवरण किया गया है और इसके लिये विशिष्ट पारिभाषिक शब्दों का प्रयोग किया गया है । ૨ इसके अतिरिक्त भी इस काल में स्थापत्य के महत्त्वपूर्ण ग्रंथ लिखे गये थे । मण्डन सूत्रधार विरचित " प्रासाद मण्डन" में चतुर्मुख जिन प्रासादों का निर्माण अतीव कल्याणकारी व सुखकारक बताया गया है । अतः इस काल में चतुर्मुख जिन प्रासादों का निर्माण अधिक हुआ । इन मंदिरों के शिल्पी अबुद मण्डल के वास्तुकारों के सम्बन्धी ही थे । अतः प्रस्तर पर काष्ठ-तक्षण जैसी निपुणता दिखाने में ये भी प्रवीण थे, किन्तु शताब्दियों के अन्तराल से इस तक्षण में वैसी प्रभावोत्पादकता नहीं रह पाई । मुगल वास्तु के प्रभाव से भी मूल शास्त्रीय स्थापत्य मानदण्डों को कुछ परिवर्तित होना पड़ा । चतुर्मुख एवं समवसरण शैली के मन्दिर : इस काल में जैन स्थापत्य की नवीन शैली प्रारम्भ हुई, जो हिन्दुओं के चतुर्मुख शिवलिंग की नकल या सूत्रधार मण्डन के ग्रन्थ का प्रभाव था । इस मंदिर निर्माण में १. जैन स्थापत्य एवं कला, पृ० ३६२ । २. प्रासाद मंडन, पृ० २१२ । Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२० : मध्यकालीन राजस्थान में जैनधर्म चारों दिशाओं में दरवाजे एवं मध्य गर्भगृह में चतुर्मुख प्रतिमा इस प्रकार स्थापित की जाती थी कि हर दरवाजे से उसके दर्शन किये जा सकें। इस प्रकार का एक चतुर्मुख मंदिर कुम्भकर्ण के शासनकाल में रणकपुर में १४४० ई० में पोरवाल श्रेष्ठी धरणा के द्वारा निर्मित करवाया गया। इसमें मध्य में आदिनाथ की चतुर्मुखी प्रतिमा है, चारों कोनों पर चार उप मंदिर हैं, कुल २४ मण्डप और ४४ शिखर हैं। पाँच मन्दिर कक्षों पर पाँच गुम्बद हैं, प्रत्येक स्तम्भ तक्षण कला में दूसरे से मेल नहीं खाता । खम्भों को प्रत्येक दिशा में सुरुचिपूर्ण क्रम से लगाया गया है। शिखरों के साथ गोलाकार गुम्बद सुन्दर दिखाई देते हैं एवं मध्यकाल की मिश्रित वास्तु शैली के भी परिचायक हैं, जिसके अन्तर्गत मेहराबों और गुम्बदों का प्रयोग भी होने लग गया था। इस मंदिर में मूल्यवान पत्थरों द्वारा जड़ाव का काम करने का भी सबसे पहले प्रयत्न किया गया है। कुम्भलगढ़ में भी इस प्रकार का एक जैन मन्दिर है, जो पूर्वाभिमुख है । इसमें गर्भगृह व एक सभा मण्डप है, जिसमें तीन दिशाओं से पहुँचा जा सकता है। गर्भगृह के चार द्वार हैं एवं इसके केन्द्र के चारों तरफ चार स्तम्भों के अवशेष हैं, जिसके ऊपर चंदवा बँधा हुआ है। वेदो पर चतुर्मुख प्रतिमा नहीं है, किन्तु चतुर्मुख मंदिर होने में कोई संशय नहीं है । चित्तौड़ का 'शृंगार चंवरी" मंदिर मूलरूप से चतुर्मुख मन्दिर ही था। इसके पूर्व और दक्षिण के द्वार हटा दिये गये हैं एवं मूल स्वरूप को विकृत कर दिया गया है।" आबू में १५वीं शताब्दी में ही आदिनाथ का एक तिमंजिला, चारों तरफ से खुले बरामदे वाला चौमुख मंदिर निर्मित हुआ, जिसमें गुम्बद, धत व स्तम्भ हैं । ऐसा ही एक मंदिर १५७७ ई० में सूरतसिंह के पुत्र राजसिंह के शासन में सिरोही में बनवाया गया। कमलगढ़ में गोलेरा मंदिर का नामकरण इसके वलयाकार क्षेत्र में घिरे हुये होने के कारण हुआ। यह एक पूर्वाभिमुख समवसरण मन्दिर था। यह तथ्य दीवारों के कोनों में उत्कीर्ण विभिन्न देवी-देवताओं की मूर्तियों के विभिन्न वर्गों को देखने से स्पष्ट होता है । चित्तौड़ दुर्ग में स्थित जैन कीर्ति स्तम्भ ७५ फीट ऊँचा, ८ मंजिल वाला है । इसमें सबसे ऊपर एक गंध कुटी है, जहाँ पहले चतुर्मुख प्रतिमा रही होगी। १. आसइएरि, १९०७-०८, पृ० २०५-१३ । २. विस्तार के लिए देखें अध्याय चतुर्थ । ३. मध्यकालीन भारतीय कलाएँ, पृ० ७८ । ४. प्रोरिआसवेस, १९०८-०९, पृ० ४० । ५. वही, १९०३-०४, पृ० ४२ । ६. हिस्ट्री ऑफ इंडियन ऐण्ड ईस्टर्न आकि०, पृ० ४३ । ७. प्रोरिआसवेस, १९०५-०६, पृ० ४७। ८. वही, १९०८-०९, पृ० ४०।। Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन कला : ३२१ अन्य जैन मन्दिर : सादड़ी का मन्दिर, जो प्राकृतिक सौन्दर्य के मध्य, घाटी में अवस्थित है, राणा कुम्भा के द्वारा बनवाया गया सबसे जटिल और विशाल जैन मन्दिर है । २००४ २०० फीट के लगभग वर्गाकार क्षेत्र में विस्तृत परिसर के मध्य में गर्भगृह है, जिसमें ४ आले हैं और प्रत्येक आले में आदिनाथ की एक प्रतिमा है। उसके ऊपर ४ अन्य आलों में भी जिन मूर्तियाँ है ये आले भवन की छत पर खुलते हैं। प्रांगण के चारों कोनों में चार देवालय और उनके चतुर्दिक ४२० स्तम्भों पर टिके हुये बीस गुम्बद हैं । इनमें से ४ गुम्बद अर्थात् प्रत्येक समूह का मध्यवर्ती गुम्बद ऊँचाई में तीन मंजिला है, और अन्य गुम्बदों से ऊँचा दिखाई देता है। प्रवेश द्वार का गुम्बद १६ स्तम्भों पर आधारित ३६ फीट व्यास का है, जबकि अन्य गुम्बद २४ फीट व्यास वाले हैं। भवन में प्रकाश का आगमन ४ खुले हुये प्रांगणों से होता है। सम्पूर्ण मन्दिर छोटे-छोटे कक्षों से घिरा है तथा प्रत्येक कक्ष के ऊपर पिरामिडनुमा छत है । मध्यवर्ती शिखर में निर्मित १२ कक्षों के अतिरिक्त, विभिन्न आकार-प्रकार के ८६ कक्ष आन्तरिक क्षेत्र को घेरे हुए हैं, जिनके सभी हिस्से उत्कृष्ट तक्षण से अलंकृत हैं । अधिकांश कक्षों में तीर्थंकर प्रतिमाएँ हैं। मन्दिर का समेकित स्वरूप दर्शक पर बहुत अनुकूल प्रभाव छोड़ता है। इस मन्दिर के बाह्य हिस्से में कोई सजावट नहीं है । फग्यूसन के अनुसार-"भवन में अत्यधिक छोटे-छोटे खण्डों का होना स्थापत्य के वैभव की दृष्टि से इसके अधिकार को कम करता है, किन्तु उनका वैविध्य तथा उनमें वर्णित सौन्दर्य का किन्हीं भी दो स्तम्भों में एक जैसा न होना, स्तम्भों को व्यवस्थित करने का शालीन ढंग, विभिन्न ऊँचाई के गुम्बदों का तालमेल, समतल वितान, प्रकाश के आगमन की सुनियोजित विधि, ये सब तथ्य संयुक्त रूप से अत्यधिक प्रभावित करते हैं । वास्तव में भारत में मुझे अन्य ऐसे किसी भवन की जानकारी नहीं है, जो इस श्रेणी का हो, जो इतना आलादकारी प्रभाव छोड़ जाय या जिसके आन्तरिक भाग में स्तम्भों का इतना सुन्दर संयोजन हो"।' जैसलमेर दुर्ग में चिन्तामणि पार्श्वनाथ, ऋषभदेव, शान्तिनाथ, संभवनाथ और महावीर जैन मन्दिर इसी काल में निर्मित हुए । पीत पाषाण में बारीक कुराई और अलंकरण को समृद्धि की दृष्टि से यहाँ के मन्दिर अद्वितीय हैं । मन्दिर के विभिन्न हिस्सों, गर्भगृह की दीवारों आदि पर पशु व मानव आकृतियाँ सुन्दर ढंग से तराशी हुई हैं। शिखर पर सुन्दर आमलक, छत्र व उस पर सुन्दर जल पात्र है, जिसमें एक कमल का फूल है । गर्भगृह के सामने भोग मण्डप व बरामदा है। एक अष्ट-कोणीय नट मण्डप भी है। १. हिस्ट्री ऑफ इण्डियन एण्ड ईस्टर्न आर्किटेक्चर, पृ० २४१-२४२ । २. विस्तार के लिए अध्याय चतुर्थ देखें। २१ Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२२ : मध्यकालीन राजस्थान में जैनधर्म मारोठ में गोधा व चौधरियों के मन्दिर १४वीं व १५वीं शताब्दियों के हैं । इनकी आन्तरिक सज्जा व स्तम्भ दर्शनीय हैं। बीकानेर के भांडासर मन्दिर का गर्भगृह गोलाकार है, जिसके ऊपर दो मंजिलें हैं और प्रत्येक मंजिल ४ खुली बालकनियों में खुलती है, जो आपस में सँकरी सीढ़ियों से जुड़ी हुई हैं । यह मन्दिर जैसलमेर के पीले पत्थर का बना हुआ है तथा राजपूत व मुगल स्थापत्य का सुन्दर सम्मिश्रण है । बीकानेर का चिन्तामणि मन्दिर स्थापत्य की दृष्टि से और भी उत्कृष्ट है । राव बीका के काल में १५०३ ई० में पीत प्रस्तर से निर्मित गर्भगृह, सभा मण्डप, खुला बरामदा व अन्य कई बरामदे बने हुए हैं । मन्दिर की संरचना, स्तम्भ, स्तम्भों के शिखर, गुम्बद, वितान आदि गुजराती मन्दिरों की नकल दिखते हैं । जबकि फूल-पत्तियों के अलंकरण, हस्तिपंक्तियाँ आदि उस तथ्य की द्योतक हैं, जिसकी उत्पत्ति मध्यकाल में हुई थी । इस मन्दिर के तलगृह में सिरोही से लूटी गई व अकबर से पुनर्प्राप्त १०५० प्रतिमाएँ हैं । बीकानेर का ही नेमिनाथ मन्दिर सुन्दर स्थापत्य का निदर्शन है । इसका शिखर आठ सुन्दर मालाओं से सुसज्जित है । गर्भगृह का प्रवेश-द्वार तक्षण युक्त है । अलंकरण में विविध बिम्ब यथा - लताएँ, चक्र, सितारे, पुष्प, मानवाकृतियों आदि का प्रयोग किया गया है । इस प्रकार मध्यकालीन मन्दिर शैली में चतुर्मुख शैली, समवसरण शैली आदि विकसित हुई । राजनैतिक व सामाजिक प्रभाव, मुख्यतः मुस्लिम आक्रमणों की आशंका के कारण, कहीं-कहीं मन्दिर के आसपास दुर्गनुमा दीवार भी देखने को मिलती है । सिरोही के माण्डवाडा, मेर व सणपुर के जैन मन्दिरों के द्वार की श्रृंगार चौकियां तो रक्षा चौकियाँ ही बना दी गई थीं, जहाँ से युद्ध के समय मोर्चे सँभाले जा सकते थे । अतः इस काल में मन्दिरों की दुर्ग शैली अस्तित्व में आई । (३) उत्तर मध्यकाल : १७वीं शताब्दी में भी मुगल आक्रमण एवं विध्वंस का खतरा बराबर बना रहता था । अतः सुरक्षा की नयी स्थापत्य शैली के रूप में भूमिगत मन्दिर भी अस्तित्व में आये । कोटा राज्य में खानपुर के निकट चांदखेड़ी का १६८९ ई० में निर्मित मन्दिर, न केवल दुर्गनुमा है, अपितु इसमें मूल गर्भगृह ही भूमिगत है, जो आकार एवं विस्तार में ऊपर वाले गर्भगृह के समान ही विस्तार वाला है । ऊपर भी मूर्तियाँ हैं, किन्तु शास्त्रोक्त प्रतिष्ठा भूमिगत गर्भगृह की मूर्तियों की ही है । " इस प्रकार के भूमिगत कक्ष अनेक जैन मन्दिरों में विभिन्न स्थानों पर देखने को मिलते हैं । केशोरायपाटन का मुनि सुव्रतनाथ मन्दिर भी सम्भवतः इसी काल में भोयरें १. कोटा राज्य का इतिहास, पृ० २१९ । Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन कला : ३२१ में पुननिर्मित करवाया गया।' १८वीं शताब्दी में मन्दिर कला ह्रासोन्मुख हुई एवं आधनिक स्थापत्य की विशेषतायें इसमें प्रकट हुईं । उत्तर मध्य काल में निर्मित मन्दिर लाक्षणिक दृष्टि से प्राचीन ढंग के ही होते थे, इनके गुम्बद, शिखर, स्तम्भ व अलंकरण की विषय सामग्री पुरातन ही थी । शैली एवं अलंकरण भी भव्य एवं समृद्ध हैं, तथापि इनमें मौलिक पवित्रता एवं सादगी का अभाव है। कहीं-कहीं पर अत्यधिक आधुनिकता, भद्दा रंग संयोजन आदि ने जैन मन्दिरों के स्वरूप को कुछ विकृत सा बना दिया है । (द) जैन रूपप्रद कला : ___ अत्यधिक पुराने मन्दिरों के अस्तित्व में न होने के कारण उनके रूपांकन की बारीकियों का अनुमान नहीं लगाया जा सकता। बहुत से मन्दिरों में जीर्णोद्धार के कारण कुछ कला प्रतीकों को क्षति पहुंची है। विद्यमान तक्षण वैभव के आधार पर रूपप्रद कला ३ स्वरूपों में दृष्टव्य है(१) सज्जांकन : सजावट के विविध तक्षण प्ररूपों में लिपटे हुये कागज के बंडल जैसी आकृतियाँ, पशु आकृतियाँ, पत्र, पुष्प, वृक्ष एवं यत्र-तत्र मानवाकृतियाँ सम्मिलित हैं। यह कुराई सामान्यतः दरवाजों, स्तम्भों और वितान सज्जा के लिये प्रयुक्त होती थी। आबू में विमलवसहि के मन्दिर के एक वितान में कल्पवृक्ष का बहुत सुन्दर तक्षण है। मीरपुर में मन्दिर का तक्षण वैभव भी अनुपम है । जैन कला के इस पहलू में अपना कोई निजत्व नहीं है, क्योंकि ये ही शिल्पी अन्य धर्मों के मन्दिर आदि भी बनाते थे। अतः ऐसो कला के प्रतिमान अन्यत्र भी हैं । (२) तक्षित प्रतिमाएँ : राजस्थान के जैन मन्दिरों में कई तराशी गई प्रतिमाएँ भी हैं । मारवाड़ में घटियाला के मन्दिर के एक ताक में, बाँयें पाश्व में अभिलेख तथा दाँयें पार्श्व में सिंहारूढ़, बारीक तक्षण की उत्कृष्ट प्राचीन प्रतिमा है । इस देवी के आधार पर ही इस ताक को "माताजी का साल" कहते हैं। अभिलेख के अनुसार यह मन्दिर "जिन" को समर्पित है । अतः यह जैन देवी अम्बिका प्रतीत होती है। प्रतिमा केवल सज्जा के लिये है, इसका पूजन नहीं होता। सिरोही राज्य में वरमाण के महावीर मन्दिर में बारीक तराशी हुई एक कुबेर की प्रतिमा है। इसो मन्दिर में सभा मण्डप के पूर्व के बरामदे के वितान पर एक कुराई की गई चित्र पंक्ति है, जिसमें केन्द्रीय आकृति गज लक्ष्मी है, जिस पर हाथी जल १. विस्तार के लिये अध्याय चतुर्थ देखें। २. प्रोरिआसवेस, १९०६-०७, पृ० ३४ । Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२४ : मध्यकालीन राजस्थान में जैनधमं उडेल रहे हैं ।' मारवाड़ में घाणेराव में देवालय के खुले मण्डप के चबूतरे पर रूपांकित आकृतियों के समूह हैं । केन्द्र में प्रतिमाएँ हैं, जिनके कानों में कुण्डल हैं । प्रतिमाओं के सामने दो लघु मानवाकृतियों पर टिका हुआ एक जल पात्र है । सिरोही क्षेत्र में अजारी में महावीर के गर्भगृह के पृष्ठ तिबारे में एक भग्न नन्दीश्वर द्वीप की मूर्ति है । 3 नन्दीश्वर द्वीप का रूपप्रद तक्षण किशनगढ़ के निकट रूपनगर ४ तथा पाली जिले में नाणा" के मन्दिरों में भी देखने को मिलता है । रणकपुर के चौमुख मन्दिर में गर्भगृह के उत्तर-पश्चिम में एक बड़े उप देवालय में सम्मेदशिखर का सुन्दर रूपांकन है । इसके ठीक सामने अधूरी ही छूटी हुई एक अष्टापद की संगतराशी है । सम्मेदशिखर के देवालय के बाहर दाहिनी तरफ गिरनार और शत्रुंजय पहाड़ियों की रचना तथा उत्तर में नलमण्डप में सहस्त्रकूट का रूपप्रद अंक है । नागदा के पद्मावती मन्दिर में देवालय में एक विलक्षण तक्षित रूपांकन है, जिसके केन्द्र में ध्यानस्थ प्रभा वलय सहित जिनाकृति है । आसपास हवा में उड़ते हुये गन्धवं व किन्नर, तिकोनी टोपी धारण किये हुये व चंवर पकड़े हुये हैं । आसपास व ऊपर छोटे-छोटे खण्डों में तीर्थंकर, केन्द्रीय आकृति के दाँयीं तरफ गजारूढ़ इन्द्र व वाम पार्श्व में अम्बिका चित्रित हैं । केन्द्रीय आकृति के नीचे का हिस्सा तीन खण्डों में विभक्त है । मध्य में दो मृगों पर टिका हुआ चक्र तथा शेष दोनों में सिंह उत्कीर्ण हैं | यह रूपांकन मात्र कलात्मक निपुणता दर्शाने के लिये हुआ है । खेडा के जैन मन्दिर में दो तराशी हुई कृतियों में, धारक हैं । एक रूपांकन में सिंहारूढ़ मूर्ति व दूसरे में आसपास पूर्णं खिले दो कमल पुष्पों पर दो हाथी खड़े हैं ।" जैन मन्दिर में गर्भगृह के दरवाजे के बाँयें पार्श्व पर तराशी हुई एक सुन्दर प्रतिमा है । इसमें मानवाकृतियाँ भी हैं, जो दोहरी छत्री के संगमरमर के स्तम्भों पर एक छत्री है, जिसमें नीचे खड़ी हैं । इनके अलावा श्वेत दिगम्बर पंथ के विभिन्न आचार्यों के १. प्रोरिआसवेस, १९१६-१७, पृ० ७१ । २. वही, १९०७-०८, पृ० ५९ । ३. वही, १९०५-०६, पृ० ४९ । ४. वही, १९१० - ११, पृ० ४२ । ५. वही, १९०७-०८, पृ० ४९ । ६. आसइऐरि, १९०७-०८, पृ० २१३ । ७. प्रोरिआसवेस, १९०४-०५, पृ० ६१ । ८. वही, १९११ - १२, पृ० ५६ । प्रत्येक में तीर्थंकर व चँवर कमलासीन मूर्ति है, जिसके चातसू के ८वीं शताब्दी के Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन कला : ३२५ बिम्ब उकेरे गये हैं । मारवाड़ में सेवाड़ी महावीर मन्दिर के गर्भगृह की बाह्य दीवारों पर सुन्दर आकृतियाँ रूपायित है, जो १०वीं शताब्दी के पूर्व की प्रतीत होती हैं । दक्षिण में तीन आकृतियां हैं । प्रथम एक नाग स्त्री की है, जिसके कानों में कुण्डल व झुमके, बाँयें हाथ में ढाल व दायें हाथ में खण्डित खड्ग है। इसके सिर पर सर्प फण का छत्र है। सर्प की कुण्डलियाँ पाँवों को छू रही हैं । दूसरी आकृति एक ताक में कायोत्सर्ग मुद्रा में, गले में हार व कौपीन धारण किये हुये हैं । आले के ऊपर पद्मासनस्थ जिनाकृतियां हैं । तृतीय आकृति एक नग्न क्षेत्रपाल की है, जिसके ऊपर वाले हाथ में सर्प व दूसरे में दण्ड है । उत्तरी दीवार पर भी तीन आकृतियाँ हैं। केन्द्रीय आकृति एक ताक में है। दूसरी आकृति कुछ खण्डित सी है, जिसके दाहिने पाँव के नीचे उसका वाहन मनुष्य है । इसके कान छिद्रित हैं, जिनमें बालियां हैं। तीसरी आकृति खड़ी हुई ब्रह्मा की है, जिनके एक हाथ में कमण्डलु व दूसरे में गुलाब की डाली है। उनके दाढ़ी है तथा पांव में खड़ाव हैं । बन्द सभा मण्डप में जैन गुरु की एक आकृति है, जो सिंहासन पर बैठे हैं व पाँव एक पीठिका पर हैं। एक शिष्य पाँव साफ कर रहा है, पीछे पोथी स्टेण्ड पर दूसरा शिष्य कागज को फैला रहा है। तीसरा शिष्य उनके उगौर को पकड़े हुये है । सामने पानी की सुराही और तख्त है। गुरु के वाम स्कन्ध के पास भी एक उगोर है। गुरु की पीठ पर तकिया, बाँयें हाथ में ग्रन्थ व दाहिना छाती के पास है। उनके गले में एक हार भी है। इसके अतिरिक्त सामने के बरामदे में एक सरस्वती की आकृति ___ आबू के जैन मन्दिरों में सरस्वती व अम्बिका की आकृतियों के सुन्दर रूपप्रद अंकन हैं । विमल वसहि मन्दिर के पुरातत्त्व संग्रह की पंक्ति में सरस्वती की एक सुन्दर रूपाकृति है, जिसके चारों हाथों में पुस्तक, कमण्डल, वीणा व गुलाब प्रदर्शित हैं। इसी मन्दिर में एक वितान पर १६ भुजाओं वाली सरस्वती प्रतिमा है, जिसके चारों तरफ नृत्यरत पुरुषाकृतियां हैं। भद्रासन में विराजित देवी के दाहिने हाथों में कमल, कौंच व वरद-मुद्रा तथा तीन बायें हाथों में कमल, पुस्तक व कमण्डल दिखाई देते हैं । शेष हाथ खण्डित हैं । आधार में हंसाकृति है। लूणवसहि मन्दिर के स्तम्भ पर सरस्वती की भद्रासन में विराजमान आकृति है, जो पूर्वोक्त आकृति से साम्य रखती है। केवल बाँयें हाथ में पुस्तक के स्थान पर कमण्डल है । _ विमलवसहि के मन्दिर के एक वितान में देवी अम्बिका की बीस भुजाओं वाली रूपप्रद आकृति है । अम्बिका ललितासन में सिंहारूढ़ हैं। इनके हाथों में खड्ग, शक्ति, सर्प, गदा, ढाल, कुल्हाड़ी, कमण्डल तथा अभय और वरद मुद्राएँ प्रदर्शित हैं । शेष चिह्न आंशिक या पूर्ण भग्न हैं। देवी ने मुकुट, बालियाँ, कुण्डल, हार, माला, मेखला, बाजूबंद, अधोवस्त्र और उत्तरीय धारण किया हुआ है। जैसलमेर के जैन मन्दिरों में Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२६ : मध्यकालीन राजस्थान में जैनधर्म लगभग ७-८ हजार मूर्तियाँ हैं। पार्श्वनाथ के मन्दिर की छत में एक मूर्ति, एक सिर और पाँच धड़ों की निराली शोभा के साथ प्रदर्शित है। किसी भी कोण से देखने पर दर्शक को यह मूर्ति अपने सामने ही प्रतीत होती है। इसी मन्दिर के बाहर एक पत्थर पर अनेक छोटे-छोटे मन्दिर एवं मूर्तियाँ अंकित है । यहाँ जौ के आकार जितने मन्दिर में एक लघुतम जिन मूर्ति है, जिसको देखने के लिये दूरबीन की आवश्यकता होती है । रूपप्रद कला की यह अनुपम कृति है। (३) वर्णनात्मक रूपांकन : राजस्थान के अनेक जैन मन्दिरों में बारीक तक्षण के माध्यम से अनेक कथा प्रसंग व घटनाओं के चित्रण रूपांकित हैं। सिरोही राज्य के कोलर के जैन मन्दिर के प्रवेश द्वार पर मकराना की एक प्रस्तर लाट पर, किसी तीर्थंकर के जीवन की काल्पनिक कहानी तराशी हुई है। बायें कोने में एक रानी छत्र लगे हुये तख्त पर विश्रामरत है । इससे क्रमशः दायी तरफ हाथी, साँड, घोड़ा, सूर्य एवं चन्द्र, कुश, कलश, चहर-दीवारी वाला नगर, नदी, मन्दिर, सहस्त्र-लिंग और रथ चित्रित हैं। बाँयें कोने पर उत्कीर्ण वाक्यांश के आधार पर इस रूपांकन में महारानी त्रिशला देवी १४ स्वप्न देख रही हैं । सिरोही राज्य के कालंदरी स्थान के महावीर जैन मन्दिर के गर्भगृह पर एक तराशी हुई चित्रपंक्ति है, जिसमें एक भक्त कपोत को कुछ खिला रहा है। आबू के जैन मन्दिरों में वितानों एवं अन्य सतहों पर रामायण और महाभारत काव्यों की असंख्य घटनाओं के रूपप्रद अंकन हैं। कृष्ण जन्म का दृश्य और उनकी विविध लीलायें निपुणता से उकेरी हुई हैं। रूपांकन की घटनायें व कथानक "शत्रुजय माहात्म्य" से भी लिये गये हैं। रंग मण्डप में भरत बाहुबलि युद्ध का दृश्य, नेमिनाथ की बारात आदि महीन पारदर्शकता के साथ तराशे हुये हैं। तीर्थंकरों के पूर्व भव की घटनायें सुन्दरता से रूपायित है। राजस्थान के अनेकों जैन मन्दिरों में इस प्रकार के असंख्य रूपप्रद अंकन हैं। (य) जैन कला-निष्कर्ष एवं समालोचना : (१) जैन शैली के चित्रों में सबसे बड़ी विशेषता उनके चक्षु चित्रण में है, जो जैन स्थापत्य एवं शिल्प से आई है। प्राचीन जैन प्रतिमाओं में यह रूप देखा जा सकता है । इनमें नेत्र उठे हुये और बाहर की ओर उभरे हुये हैं तथा इनको लम्बाई कानों को छूती हुई तथा भवों एवं नेत्रों का फैलाव समान है। (२) चित्रों में रंग-संयोजन की दृष्टि से पृष्ठभूमि में बहुधा लाल रंग का प्रयोग किया गया है। आवश्यकतानुसार पीले, नीले, श्वेत तथा अन्य रंग भी प्रयुक्त हुये हैं । ताड़पत्रों पर अंकित जैन चित्रों में प्रायः पीले रंग का प्रयोग हुआ है। स्वर्ण रंग Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन कला : ३२७ भी उपयोग में लाया गया है एवं कुछ चित्रों में पृष्ठभूमि पीले तथा लाल रंग के मिश्रण से निर्मित है। वस्त्र चित्रों पर रंगों का प्रयोग करते समय छोटे-छोटे धब्बे भी हैं। (३) रेखाओं की दृष्टि से जैन चित्र बहुत सम्पन्न है। रेखाओं का उद्देश्य भावों को अभिव्यक्त करना होता है। इस दृष्टि से ताड़पत्रीय चित्रों की रेखायें इतनी सधी हुई और सुन्दर है कि कलाकार की प्रतिभा और दक्षता प्रशंसनीय लगती है। (४) स्वर्ण व रजत सामग्री से बहुमूल्य चित्र निर्माण भी जैन शैली की विशेषता है। कागज के चित्रों में, ग्रन्थों के हाशिये में किया गया प्राकृतिक दृश्यों का सुन्दर अंकन, इससे पूर्व कहीं देखने को नहीं मिलता है। बेलबूटों का चित्रण तो अद्वितीय है। राजपूत एवं मुगल शैली में इस प्रकार का चित्रण जैन शैली से ही लिया गया। ग्रन्थों में लिपि लेखन के मध्य छत्र-कमल, स्वस्तिक आदि के अंकन उनकी शोभा में चार चाँद लगा देते हैं। (५) धर्म प्रधान जैन चित्रों में नारी रूपों का अंकन निश्चित सीमा तक ही हुआ है, फिर भी जैन शैली में इनका उत्कृष्ट चित्रण हुआ है। जैन तीर्थंकरों के पार्श्व में यक्ष-यक्षिणियों आदि के चित्रों में सौम्यता व शालीनता है। तीर्थंकरों की आनुषंगिक देवियों के चित्र उज्ज्वल व लोक शैली में हैं और उनकी वस्त्रसज्जा और हस्तमुद्राओं में कलात्मकता व माधुर्य है । (६ ) वस्त्राभरणों के चित्रण में भी जैन चित्रों में वैशिष्ट्य है । धोतियों की सज्जा एवं वस्त्रों पर स्वर्ण कलम से उभारे गये बेलबूटे, दुपट्टे और मुकुट दर्शनीय हैं । स्त्रियों के शरीर पर चोली, चूनर, रंगीन धोती और कटि उत्तरीय दर्शाये गये हैं । आभूषणों में मुकुटों और मालाओं की अधिकता है । स्त्रियों के भाल पर बिंदी, कानों में कुण्डल, बाँहों में बाजूबंद प्रदर्शित हैं । सभी चित्र रत्नमालाओं से अलंकृत हैं। (७) चित्रों का आकार एक चश्म, डेढ़ चश्म और दो चश्म है । इनमें ठोड़ी सेव की तरह बाहर की ओर उभरी हुई है और उसकी नीचे की रेखा में गर्व तथा अभिमान प्रकट करने के उद्देश्य से झोला दिया गया है। जैन मुनियों की ठोड़ियाँ त्रिशूल की भाँति तीन रेखाओं से दर्शायी गयी हैं। नासिका शुक चंचु की तरह नुकीली और अनुपात से अधिक लम्बी है। (८) जैन चित्रों में तत्कालीन लोक कला सच्चे अर्थों में अभिव्यक्त हुई है, लोक कला का सम्मान इसमें इसलिये हुआ, क्योंकि यह धार्मिक सीमाओं से बँधी रही तथा राज्याश्रयों के विलासमय वातावरण से भी मुक्त रही। इस लोक कला के चित्रण का आधार तीर्थंकरों की जीवनियां व मनोरंजक कथाएँ रहीं, जिनमें तत्कालीन लोक-जीवन, लोक-संस्कृति और लोक-विचारों की अभिव्यंजना है। Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२८ : मध्यकालीन राजस्थान में जैनधमं (९) अहिंसा प्रधान जैन धर्म में जीव दया और लोकोपकार की जो महती भावना सर्वत्र व्याप्त है, जैन कलाकारों ने उससे प्रेरणा प्राप्त कर ऐसी कलाकृतियों का निर्माण किया, जिनमें अपार शांति और अपार्थिव विश्रांति का भाव ध्वनित होता है । इन कृतियों को इतनी मान्यता प्राप्त होने का एक कारण यह भी है कि इनमें महान् मानवीय आदर्शों को प्रस्तुत करने का सराहनीय प्रयास हुआ है । " (१०) जैन वास्तुकला धर्माश्रित वास्तुकला की विलक्षणता को प्रकट करती है । सामाजिक और राजनैतिक परिवर्तन के साथ, स्थापत्य की शैलियाँ भी विकसित व परिवर्तित होती रहीं । पूर्व मध्यकाल में सूक्ष्मता व दक्षता चरम सीमा पर पहुँच जाती है, जिसमें मूर्ति-तक्षण और मन्दिर निर्माण की शैलियों में समन्वय दिखाई देने लगता है । स्थापत्य की यह नवचेतना सांस्कृतिक विजय का उज्ज्वल प्रमाण है । मानव के धार्मिक विकास और संरक्षण में शिल्पी ने दार्शनिक व कलाकार की हैसियत से इस युग के स्तर को ऊपर उठाने में बड़ा योगदान दिया । (११) इस समूचे काल की मूर्तिकला को ही प्रभावित किया, आभारित किया । इन मन्दिरों से क्रमिक विकास स्पष्ट होता है । होती है । सौन्दर्य तथा आध्यात्मिक चेतना ने न केवल वरन् मन्दिर निर्माण योजनाओं को अपने स्पर्श से उस युग के सामाजिक तथा सांस्कृतिक विकास का इनको देखने से सौन्दर्य एवं शांति की आभा प्रस्फुटित ( १२ ) स्थापत्य पर वातावरण के प्रभाव के यथोचित महत्त्व को समझते हुये, हिन्दुओं की अपेक्षा जैनों ने अपने मन्दिर निर्माण के लिये सदैव प्राकृतिक स्थानों को ही चुना (१३) जैन कला और स्थापत्य में जैन धर्म और जैन संस्कृति के सैद्धांतिक और भावनात्मक आदर्श अत्यधिक प्रतिफलित हुये हैं । (१४) जैन कला के स्वर्णं युग के प्रतीकों और मन्दिरों में, आचार प्रतिपादक दृश्यों और परम्परागत शिल्पी सिद्धान्तों में वैविध्य और वैचित्र्य दिखाई देता है । तोरण द्वारों, गुम्बजों, सभा मण्डपों व विविध स्तरों में भाव सूचक शिल्प के उत्कृष्ट नमूने दिखाई देते हैं । देलवाड़ा समुदाय के मन्दिरों के उत्कीर्णन में कलाकार ने धैर्य और गाम्भीर्य को प्रधानता दी है । इसी प्रकार अर्थणा, ओसिया, नाडौल, नागदा आदि के विविध मन्दिरों १. वाचस्पति गैरोला - भारतीय चित्रकला का इतिहास, पृ० ५०-५२ । २. एइ, ३४, अंक २, पृ० ५३-५८ । ३. एरिराम्यूअ १९२९, पृ० १-२ ॥ ४. लॉगहर्स्ट, हम्पी रूइन्स, मद्रास, पृ० ९९ । ५. ज्योति प्रसाद जैन —जैन सोर्सेस ऑफ द हिस्ट्री ऑफ एन्श्येन्ट इंडिया, अ० १० । Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन कला : ३२९ के शिल्प में आत्मोत्थान के भाव प्रतिबिम्बित होते हैं। यहां के कलाकारों ने अपनी बारीक छैनी से, भारतीय जीवन और संस्कृति के अमर तत्त्वों का उन्मीलन कर, जनजीवन पर उसका अद्भुत प्रकाश डाला है। यहाँ परमात्मा की आराधना, साधुओं की वाणी का श्रवण, अर्चन आदि गम्भीरतम भावों को अंकित कर कलाकार ने उच्चतम कल्पना का स्तर निर्धारित करने में सफल प्रयत्न का प्रदर्शन किया है। इन मन्दिरों में जहाँ हम अनेक दलीय कमल की पंखुड़ियाँ पाते हैं, वहाँ हम अनुभव करते हैं कि भगवान से साक्षात्कार के भाव जाग्रत हो रहे हैं । (१५) मध्यकाल में समकालीन परिस्थितियों के प्रभाव से मन्दिर स्थापत्य में दुर्ग शैली, धार्मिक उन्नयन के प्रभाव से चौमुख शैली और सुरक्षात्मक दृष्टि से भूमिगत मन्दिर निर्माण शैली की विधाएँ विकसित हुई। मध्यकाल के तक्षण, चित्रण में जैन मन्दिरों में यत्र-तत्र शौर्य के भावों का प्रदर्शन भी तक्षण से निबद्ध है । कामुक आकृतियों के चित्रण में हमेशा धार्मिक भावना का अवरोध रहा। रणकपुर के जैन पार्श्वनाथ मन्दिर की दीवारों में उत्कीर्ण काम दृश्यों के अपवाद ने उसे "वेश्या मन्दिर" को संज्ञा 'दिलवा दी, क्योंकि जैन स्थापत्य में ऐसा चित्रण अपवाद स्वरूप ही देखने को मिलता है, अन्यथा समकालीन व पूर्वकालीन हिन्दू व वैष्णव मन्दिरों में इस प्रकार का चित्रण सामान्य बात रही है व उन्हें किसी अपवादात्मक संज्ञा का शिकार नहीं होना पड़ा। (१६) पूर्व मध्यकालीन जैन चित्रकला को कतिपय विद्वानों ने 'जैन कला' संज्ञा से अभिहित करने में अत्यधिक आक्रोश प्रकट किया है । वस्तुतः इस कला को "जैन शैली" कहना ही अधिक उपयुक्त है, क्योंकि यह कलात्मक सर्जन न केवल जैनाचार्यों और जैन मतावलम्बियों के संरक्षण में अस्तित्व में आया, अपितु इन कला ग्रन्थों को जैनेतर ग्रन्थों के साथ जैनियों ने ही ग्रन्थागारों में मुस्लिम विध्वंस से भी बचाये रखा। विद्वानों ने जैन कला के चित्रकारों को ब्रश व डंडी लेकर गुजरात में चित्र निर्माण के लिये सड़कों पर घूमते हुये भी बताया है। इतिहास इस बात का साक्षी है कि कोई कालखण्ड ऐसा नहीं रहा, जबकि कला केवल स्वान्तः सुखाय रही हो और उसमें व्यव-सायिकता न रही हो। फिर जैन कला तो राजस्थानी शैली में मुगल कला के साथ ही -समाहित हुई है और इसकी भूमिका इस नवीन शैली की नींव स्वरूप रही है। नींव के प्रस्तर तो अनगढ़ ही होते हैं, जो इमारत की भव्यता को स्थायित्व प्रदान करते हैं । इस दृष्टि से जैन कला को "कुपड़" कलाकारों द्वारा निर्मित, आदि की संज्ञा देना उचित प्रतीत नहीं होता। १. आसरि, भाग २३, कनिंघम । २. रायकृष्णदास-भारतीय चित्रकला, पृ० २०-३२ । Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्याय षष्ठ जैन साहित्य एवं साहित्यकार मध्यकालीन राजस्थान में रचित जैन साहित्य कथ्य एवं शिल्प की दृष्टि से बहुरंगी व बहुआयामी है। अभी तक जितना साहित्य प्रकाश में आया है, उससे कहीं अधिक विभिन्न शास्त्र भण्डारों में बन्द व अप्रकाशित है। विभिन्न जैनाचार्यों व विद्वानों ने अपने प्रभाव क्षेत्र के लोगों के स्वभाव व देशकाल को ध्यान में रखकर वैविध्यपूर्ण साहित्य की रचना की। मध्ययग में विदेशी आक्रमणों से राजनीतिक दृष्टि से परास्त होने पर इन मुनियों ने भक्ति, धर्म और साहित्य के धरातल से सांस्कृतिक आन्दोलन की प्रक्रिया को जारी रखा।। राजस्थान की सांस्कृतिक व साहित्यिक पराम्परा को अक्षुण्ण और सतत प्रवाहमान बनाये रखने में जैन साहित्य का अपरिमित योगदान है। प्राकृत, संस्कृत, अपभ्रंश, राजस्थानी हिन्दी और अन्य स्थानीय भाषाओं में विपुल साहित्य रचा गया । १३वीं शताब्दी तक राजस्थान के जैन साहित्य का स्वर्ण काल माना जाता है । १३वीं शताब्दी तक की आगम**, दर्शन, साहित्य, आगमिक व्याख्याएँ, काव्य ग्रन्थ आदि मूल रूप से लिखे गये । विभिन्न कथानकों एवं चरित्र नायकों पर प्राथमिक साहित्य निबद्ध हुआ। विभिन्न भाषाओं में महाकाव्य रचे गये। बहु आयामी वैज्ञानिक साहित्य, भूगोल, ज्योतिष, गणित, छंदालंकार, शब्दकोष, वैद्यक आदि का सृजन हुआ। परवर्ती साहित्य में, १३वीं शताब्दी के पश्चात् उक्त साहित्य को आधारभूत या बीज मानकर व्याख्यात्मक साहित्य की सर्जना की गई, अतः मध्यकाल में स्तुतिपरक भक्ति साहित्य विविध भाषाओं में, मूल नायकों पर ही लिखा गया तथा व्याख्याएँ, भाष्य, टीका, बालावबोध, वृत्तियाँ, चूणियाँ, वचनिकाएँ आदि अधिक लिखी गई। राजस्थानी साहित्य विपुल परिमाण में सृजित हुआ। यहाँ तक कि मुगल काल के पश्चात् हिन्दी का स्वरूप विकसित हो जाने पर भी लोकभाषा का प्राधान्य साहित्य सजन में रहा, क्योंकि जैन साहित्यकारों का मूल उद्देश्य पांडित्य प्रदर्शन नहीं, अपितु लोकभाषा के माध्यम से लोकभावना से. जुड़कर नैतिक उन्नयन करना व जैन धर्म की प्रभावना फैलाना था। ** इसमें ११ अंग, १२ उपांग, ६ छेदसूत्र, ४ मूलसूत्र, १० प्रकीर्णक तथा अनुयोग द्वार सूत्र और नंदिसूत्र नामक २ सूत्र सम्मिलित थे। कुछ विद्वान् इनमें भद्रबाहु की १२ नियुक्तियों, विशेषावश्यक भाष्य, २० और प्रकीर्णक, पर्दूषण कल्प, जीवकल्प सूत्र, श्राद्धजीत कल्प, पाक्षिक सूत्र, वंदित सूत्र, क्षमण सूत्र, यतिजीत कल्प और ऋषिभाषित को भी जोड़ते हैं । इस प्रकार कुल सूत्रों की संख्या ८४ हो जाती है। Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन साहित्य एवं साहित्यकार : ३३१ समकालीन राजनीतिक, धार्मिक, सामाजिक, व आर्थिक परिस्थितियों का प्रभाव साहित्य के परिमाण पर ही नहीं, अपितु विषय सामग्री पर भी देखने को मिलता है । मध्यकालीन व उत्तर मध्यकालीन जैन श्रेष्ठियों की सम्पन्नता, तथा जैनाचार्यों द्वारा मुस्लिम बर्बरता से साहित्य को सुरक्षित रखने के लिये ज्ञान भण्डारों की स्थापना के परिणाम स्वरूप, पश्चात्वर्ती शताब्दियों में मौलिक साहित्य सृजन का परिमाण कम रहा तथा दोनों वर्गों के द्वारा मूल लेखन के स्थान पर प्राचीन साहित्यिक धरोहर के प्रतिलिपिकरण व विभिन्न स्थानों पर उनकी सुरक्षा की व्यवस्था ही मुख्य ध्येय रहा। राजस्थान में रचित जैन साहित्य को पहिचानने में कठिनाइयाँ ८वीं शताब्दी से पूर्व न तो "राजस्थान" का प्रयोग एक प्रदेश विशेष के रूप में मिलता है और न उस समय के प्रचलित "मरू" से ही आधुनिक राजस्थान का समग्र चित्र उभरता है।' साहित्य सृजन की दृष्टि से १५वीं शताब्दी तक राजस्थान का जो बृहत्तर रूप सामने आता है, उस की सीमा रेखाएं' आगरा, यौधेय प्रदेश, सौराष्ट्र तथा राष्ट्रकूट तक फैली हुई दिखाई देती हैं । इस शताब्दी से पूर्व की जैन कृतियों के सम्बन्ध में यह निर्णय करना अत्यन्त कठिन है कि इनमें से कितनी राजस्थान में लिखी गई या कौन-कौन सी रचनाएं राजस्थानी जैन कवियों की देन हैं। लेखकों के स्पष्ट इतिवृत्त के अभाव में केवल इस तथ्य को ही प्रमुखता नहीं दी जा सकती कि राजस्थान के किसी शास्त्र भण्डार में उपलब्ध होने के कारण ही वह राजस्थानी है, अथवा राजस्थान से बाहर उपलब्ध होने के कारण वह किसी राजस्थानी जैन कवि की रचना नहीं है। जैन साहित्य अधिकांशतः भ्रमणशील मुनियों के द्वारा रचा गया । अतः उनके द्वारा रचित कृति का स्थान निर्धारित करने में बड़ी कठिनाई होती है। ऐसे कई उदाहरण हैं, जिनमें कोई लेखक राजस्थान में तो पैदा हुआ, गुजरात में उसकी दीक्षा हुई और सारी कृतियाँ उसने वहीं रची। बहुत से ऐसे उदाहरण भी हैं, जो गुजरात में पैदा हुये, किन्तु उनका कार्यक्षेत्र राजस्थान रहा । इसी प्रकार कुछ कृतियों की रचना राजस्थान में प्रारम्भ हुई, किन्तु पूर्ण गुजरात में हुई, या गुजरात में प्रारम्भ करके राजस्थान में समाप्त की गई। राजस्थान व गुजरात प्राचीन काल से ही सांस्कृतिक व धार्मिक एकता में निबद्ध रहे। इनकी भाषाओं में भी एकरूपता देखने को मिलती है । राजस्थान और गुजरात के पवित्र स्थानों में धर्म-प्रचार व लोक-कल्याण के कारण जैन सन्त एक प्रान्त से दूसरे में प्रायः भ्रमणशील रहते थे। जैन साहित्य के साहित्यकारों एवं उनकी रचनाओं को राजस्थान से सम्बन्धित सिद्ध करने के लिए कुछ अधारभूत सामग्री का उपयोग किया गया है, जैसे-ग्रंथों की प्रशस्तियों एवं कृतियों में राजस्थान के नगरों एवं मन्दिरों का उल्लेख, रचनाकारों के गच्छ एवं गुरु परम्परा का राजस्थान १. "मरू", पउमचरिउ, ३०/२, ८२/६ । Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३२ : मध्यकालीन राजस्थान में जैनधर्म से सम्बन्ध, प्रतिमालेखों, अभिलेखों व पट्टावलियों में ग्रन्थ एवं ग्रन्थकार से सम्बन्धित उल्लेख तथा राजस्थान की प्रसिद्ध जातियों एवं राजवंशों से ग्रन्थकारों का सम्बन्ध आदि । इन तथ्यों के अतिरिक्त गुजरात, मालवा आदि के प्राचीन इतिहास में भी राजस्थान के रचनाकारों एवं आचार्यों का परिचय यत्र-तत्र उपलब्ध हो जाता है । (अ) पूर्व मध्यकाल : (१) प्राकृत साहित्य एवं साहित्यकार: प्राकृत मूलतः जनभाषा रही है । महावीर ने इसी को अपने सिद्धान्तों के प्रचारप्रसार का माध्यम बनाया था। पार्श्वनाथ और महावीर के पहले विद्यमान आगमिक साहित्य परम्परा का उल्लेख "पूर्व" शब्द से हुआ है, किन्तु आज यह साहित्य परम्परा उपलब्ध नहीं है । इसी परम्परा से वर्तमान में उपलब्ध प्राकृत साहित्य की उत्पत्ति मानी जा सकती है। अधिकांश प्राकृत साहित्य जैन धर्म और संस्कृति से सम्बद्ध है, जिसकी मूल परम्परा 'श्रुत" अथवा "आगम" के नाम से व्यवहृत हुई है, जो दीर्घकाल तक श्रुति परम्परा के माध्यम से सुरक्षित रही। जैनाचार्यों ने प्राकृत की हर विधा को समृद्ध किया। प्राचीन भारतीय इतिहास और संस्कृति का हर प्रांगण प्राकृत साहित्य का ऋणी है। आधुनिक साहित्य सृजन के लिये यह उप-जीव्य बना। प्रेमाख्यानक काव्यों के विकास में प्राकृत जैन कथा साहित्य को भुलाया नहीं जा सकता। संस्कृत चंपू और चरित काव्यों के प्रेरक भी प्राकृत ग्रन्थ ही हैं। काव्य शास्त्रीय सिद्धांतों के प्रतिपादन के साथ ही दर्शन, भाषा विज्ञान, व्याकरण और इतिहास तक में राजस्थानी प्राकृत जैन साहित्य समृद्ध है। प्राकृत भाषा में लिखे गये ग्रन्थों का सर्वेक्षण व मूल्यांकन राजस्थान के जैनाचार्यों को इस थाती को और स्पष्ट • करता है। ८वीं शताब्दी की कुछ प्रारम्भिक रचनाओं में उनके रचयिता के साथ-साथ उनके रचना स्थलों और समय का भी उल्लेख मिलता है। सम्भवतः राजस्थान में ४थी या ५वीं शताब्दी में प्राकृत ग्रन्थ लेखन प्रारम्भ हो गया होगा, क्योंकि इस युग में देश में विपुल साहित्य रचा जा रहा था। जैन साहित्य को दृष्टि से यह युग आगमों पर भाष्य आदि लिखे जाने का था। जैनाचार्य अपनी टीकाओं में प्राकृत का प्रयोग अधिक कर रहे थे। प्राकृत में लौकिक काव्यादि भी रचे जा रहे थे, अतः पूर्ण संभावना है कि राजस्थान में भी प्राकृत में रचना हुई हो । १. राधू ए, बीकानेर । २. प्रेमसुमन, राजैसा, पृ० १९ । ३. मेहता, मोहन लाल-आगमिक व्याख्याएँ, जैन साहित्य का बृहद इतिहास, ३ । Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन साहित्य एवं साहित्यकार : ३३३ राजस्थान में गुप्त युग के जैनाचार्यों में आचार्य सिद्धसेन दिवाकर एवं एलाचार्य का चित्तौड़ से सम्बन्ध बताया जाता है। सिद्धसेन दिवाकर ५वीं शताब्दी के बहुप्रज्ञ विद्वान थे । "प्रभावक-चरित्र" और "प्रबन्ध-कोष' में इनके चित्तौड़ यात्रा के उल्लेख प्राप्त हैं । "दिवाकर" की पदवी भी इन्हें चित्तौड़ में ही प्राप्त हुई थी। अतः सम्भव है कि सिद्धसेन की साहित्य रचना का क्षेत्र मेवाड़ ही रहा हो। इनका प्राकृत में रचित "सन्मति तक' नामक ग्रन्थ राजस्थान की प्रथम प्राकृत रचना मानी जा सकती है । २ प्राकृत के प्रारम्भिक साहित्यकारों व विद्वानों में सिद्धसेन के बाद एलाचार्य को स्मरण किया जा सकता है, जिनके शिष्य वीरसेन ने विक्रम की ८वीं शताब्दी में प्राकृत की महत्त्वपूर्ण रचना "धवला" टीका के रूप में निबद्ध की। ८वीं शताब्दी में राजस्थानी प्राकृत साहित्य पर्याप्त समृद्ध हो चुका था। पूर्व मध्यकालीन प्राकृत साहित्य एवं साहित्यकार निम्न प्रकार से हैं : १. आचार्य हरिभद्र सूरि-हरिभद्र सूरि राजस्थान के जैन जगत के ज्योतिर्धर नक्षत्र थे। इनके समय के सम्बन्ध में विद्वानों में विभिन्न मत थे । पुरातत्त्ववेत्ता जिनविजय ने प्रबल प्रमाणों से इनका जीवन काल ७०० ई० से ७७० ई० सिद्ध कर दिया है। इनका जन्म चित्तौड़ में हुआ था और यही इनका कार्यक्षेत्र भी था। ये जन्मना ब्राह्मण एवं राजा जितारि के पुरोहित थे । आचार्य जिनदत्त से जैन दीक्षा ग्रहण करने के उपरान्त इन्होंने जैन साहित्य की अपूर्व सेवा की। विस्तार, विविधता व गुणवत्ता इन तीनों दृष्टियों से इनकी रचनाएँ राजस्थान के जैन साहित्य में महत्त्वपूर्ण हैं ।५ हरिभद्रसूरि विरचित ग्रन्थों की संख्या "प्रतिक्रमण अर्थ दीपिका" के आधार पर १४४४, “चतुर्दशशत प्रकरण प्रोत्तुंग प्रासाद सूत्रणेकसूत्र धारै", इत्यादि पाठ के अनुसार १४०० तथा राजशेखर सूरि कृत "चतुर्विशति प्रबन्ध" के आधार पर १४४० मानी जाती है । मुनि जिनविजय के अनुसार इनके उपलब्ध ग्रन्थ २८ हैं, जिनमें से २० छप चुके हैं। गृहस्थाश्रम में ये संस्कृत के प्रकांड पंडित थे। श्रमण बनने पर प्राकृत का गहराई से अध्ययन किया और इस पर पूर्ण अधिकार कर लिया। इन्होंने धर्म, दर्शन, योग, ज्योतिष, स्तुति प्रभृति विषयों पर प्राकृत भाषा में ग्रन्थ लिखे हैं। इनकी मुख्य कृतियाँ-"उपदेशपद", "पंचवस्तु", "सम्यक्त्व सप्तति", "लघु संघयणी", "श्रावक प्रज्ञप्ति", "पंचाशक", . १. संघवी, सुखलाल-सन्मति प्रकरण-प्रस्तावना । २. राजैसा, पृ० १९ । ३. जैसंशो, वर्ष १, अंक १। ४. सुखलाल, समदर्शी आचार्य हरिभद्र, पृ० ६ । ५. जैसासइ, पृ० १५९-१६० । ६. जैसंशो, वर्ष १, अंक १ । ७. जैनन, पृ० ६। Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३४ : मध्यकालीन राजस्थान में जैनधर्म "विशति विशिका", "संबोह पगरण", "धम्म संगहणी", "योगविशिका", "योगशतक", "कथाकोष ", " धूर्ताख्यान", "समराइच्चकहा, "लग्नशुद्धि", "कथाकोह", "लग्नकुंडलियाँ" आदि हैं । जैन महाराष्ट्री प्राकृत में लिखित व कहीं कहीं पर शौरसेनी प्राकृत के प्रभाव सहित लिखित कृति "समराइच्चकहा " प्राकृत की एक श्रेष्ठ कृति है । जो स्थान संस्कृत साहित्य में " कादम्बरी' का है, वही स्थान प्राकृत में इस ग्रन्थ का है । इस विस्तृत कथाग्रन्थ में भारतीय जीवन की विविध छटाओं का मनोहर, सूक्ष्म व अलंकृत चित्रण है । लाक्षणिक शैली में रचित व्यंगोपहास की श्रेष्ठ रचना " धूर्ताख्यान" भारतीय कथा साहित्य में शैली की दृष्टि से अनुपम है । धूर्तों का व्यंग्य प्रहार ध्वंसात्मक नहीं अपितु निर्माणात्मक है ।" लघु कथाओं के माध्यम से हरिभद्र ने न केवल लोकभाषा को आगे बढ़ाया है, अपितु लोक जीवन को अपने ग्रन्थों में प्रतिपादित किया है । जैकोबी, तापमान, विंटरनिट्ज, सुवाली, शुब्रिंग प्रभृति अनेक पाश्चात्य विचारकों ने हरिभद्र के ग्रन्थों का सम्पादन और अनुवाद भी किया है, इससे भी इनकी साहित्यिक महानता का ज्ञान होता है । " २. उद्योतन सूरि-ये क्षत्रिय घराने में उत्पन्न श्वेताम्बर परम्परा के विशिष्ट मेधावी सन्त थे । ये तत्त्वाचार्य के शिष्य थे, किन्तु इन्होंने आचार्य बीरभद्र से सिद्धांत और हरिभद्रसूरि से तर्क की शिक्षा प्राप्त की । ७७९ ई० में जाबालिपुर (जालौर) में रणहस्ती वत्सराज के राज्य में इन्होंने प्राकृत भाषा के अनुपम ग्रन्थ " कुवलयमाला कहा " गद्य-पद्य मिश्रित ग्रन्थ की रचना की । महाराष्ट्री प्राकृत की यह प्रसादपूर्ण रचना चम्पू शैली में लिखी गई है । साहित्यिक सौन्दर्य के साथ ही राजनीति, ज्योतिष, तन्त्रमन्त्र, धातुवाद, शकुन, चित्र, भूगोल आदि विविध विषयों के विस्तृत समावेश के कारण यह कथा, प्राचीन भारत के अध्ययन के लिये अमूल्य निघि बन गई है ।" महाराष्ट्री प्राकृत के साथ इसमें पैशाची, अपभ्रंश व देशी भाषाओं के साथ कहीं कहीं पर संस्कृत का भी प्रयोग हुआ है । ३. मानदेव सूरि - इनका जन्म नाडौल में हुआ था। इनका वृत्तांत " प्रभावक १. सिजैसी, क्र० २० । २. हरमन जेकोबी द्वारा सम्पादित | ३. जैसास, पृ० २०८ । ४. वीशाप्रआ, पृ० ५१ । ५. राजैसा. पृ० ४१ ॥ ६. वही । ७. सिजैसी, सं० मुनि जिनविजय । ८. जबिउरिसो, मार्च, १९२८, पृ० २८ । Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन साहित्य एवं साहित्यकार : ३३५ चरित्र", में भी वर्णित है, जिससे इनका अस्तित्व ८वीं शताब्दी में होना प्रतीत होता है ।' इन्होंने "विजय पहुत" की रचना प्राकृत भाषा में की। ४. आचार्य वीरसेन-ये एलाचार्य के शिष्य थे। इन्द्रनन्दि के श्रुतावतार से ज्ञात होता है कि एलाचार्य चित्रकुट (चित्तौड़) में निवास करते थे। जहाँ इन्होंने सिद्धांत ग्रन्थों की शिक्षा प्राप्त की फिर ये वाटग्राम (बड़ौदा) चले गये, जहाँ इन्होंने ७२ हजार श्लोक प्रमाण "षट्खण्डागम" की "धवला"४ टीका लिखी, जो हीरा लाल जैन के अनुसार शक संवत् ७३८ में पूर्ण हुई। इसलिये वीरसेन ९वीं शताब्दी (८१६ ई०) के विद्वान् थे । वीरसेन ने "कषायप्राभूत" पर "जयववला" टीका प्रारम्भ की, किन्तु २०,००० श्लोक लिखे जाने के उपरान्त ही स्वर्गवास हो जाने के कारण इनके शिष्य जिनसेन ने अवशिष्ट टीका का ४० हजार श्लोक प्रमाण लिखकर शक संवत् ७५६ में पूर्ण की। ५. जयसिंह सूरि-९वीं शताब्दी के प्राकृत रचनाकारों में इनका प्रमुख स्थान है। इन्होंने गद्य-पद्य मिश्रित "धर्मोपदेशमाला विवरण"," जो ५७७८ श्लोक प्रमाण है, ८५८ ई० में नागौर में पूर्ण की । इनकी अन्य रचना "श्री नेमीनाथ चरित्र" है । ६. मनि शीलांक-८वीं शताब्दी के उत्तरार्ध व ९वीं शताब्दी के पूर्वाद्ध के मध्य शीलांक आचार्य ने सभी शलाका पुरुषों को कथाओं का प्रथम प्राकृत ग्रन्थ "चउपन्नमहापुरिसचरिय" लिखा। ७. विजयसिंह मूरि-इन्होंने ९वीं या १०वीं शताब्दी में "भुवनसुन्दरीकहा" नामक प्राकृत काव्य की रचना की । ८. मुनि गुणपाल-ये श्वेताम्बर परम्परा के मुनि थे । 'जंबुचरियं"। इनकी श्रेष्ठ रचना है । ग्रन्थ का रचनाकाल स्पष्ट नहीं है। ग्रन्थ के सम्पादक मुनि जिनविजय के अनुसार यह ग्रन्थ ११वीं शताब्दी या उससे पूर्व का है। जैसलमेर भण्डार से प्राप्त प्रति १४वीं शताब्दी के आसपास की है। सम्भवतः उद्योतन सूरि के सिद्धान्त गुरु वीरभद्राचार्य और गुणपाल मुनि के प्रगुरु वीरभद्र सूरि, ये दोनों एक ही व्यक्ति होंगे। यदि ऐसा है तो इनका अस्तित्व ९वों शताब्दी के आसपास का है। इनकी दूसरी १. वीशाप्रआ, पृ० ५३ । २. जैपइ, भाग १, पृ० ३५९-३६१ । ३. श्रुतावतार, श्लोक सं० १७६-१७७ । ४. जैग्रप्रस, पृ० ९० (भूमिका)। ५. जैसासइ, पृ० १८० । ६. सिजैसी, बम्बई से प्रकाशित । Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३६ : मध्यकालीन राजस्थान में जैमधमं रचना "रिसिदत्त चरियं" है । इसकी अपूर्ण प्रति 'भण्डारकर प्राच्यविद्या संशोधन मन्दिर, पूना" में है । ' " ९. आचार्य देवसेन -- १०वीं शताब्दी के दिगम्बर आचार्यों में आचार्य देवसेन प्राकृत भाषा के उद्भट विद्वान् थे । मालवा में धारा नगरी इनका रचना केन्द्र था, किन्तु राजस्थान में भी ये प्रायः विहार करते रहते थे । इनकी प्रमुख कृतियाँ " दर्शनसार" (९३० ई०), "भावसंग्रह", "आराधना सार", " तत्त्वसार", "नयचक्र" आदि हैं । " भावसंग्रह" के अतिरिक्त सभी लघु रचनाएँ हैं । २ १०. पद्मनन्दी - विभिन्न ग्रन्थों, शिलालेखों एवं मूर्तिलेखों में इस नाम के ९ से भी अधिक आचार्य एवं भट्टारक हो गये हैं, किन्तु वीरनन्दी के प्रशिष्य एवं बालनन्दि के शिष्य आचार्य पद्मनन्दी इन सबसे भिन्न हैं । ये कोटा क्षेत्र में बारों नगर के थे । पं० नाथूराम प्रेमी ने बारों की भट्टारक गादी के आधार पर इनका समय ईसा की ११वीं शताब्दी माना है । प्राकृत भाषा के प्रकांड विद्वान् पद्मनन्दी की २ प्राकृत रचनाएँ उपलब्ध हैं । प्रथम "जम्बूद्वीपपण्णत्ति तथा द्वितीय " धम्मरसायन" । इनके द्वारा रचित "पंचविशति" नामक रचना भी देखने को मिलती है । " जम्बूद्वीपपण्णत्ति” २४२७ गाथाओं व ९३ अधिकारों में विभक्त प्राचीन भूगोल एवं खगोल पर एक विशाल कृति है । धर्म एवं दर्शन की दृष्टि से इनकी सभी रचनाएँ महत्त्वपूर्ण हैं । ११. जिनेश्वर सूरि — ये ब्राह्मण कुलोत्पन्न, बनारस निवासी व खरतरगच्छ संस्थापक वर्धमान सूरि के शिष्य । इनका कार्यक्षेत्र गुजरात, मालवा, मेवाड़ और मारवाड़ रहा है । इन्होंने संस्कृत तथा प्राकृत दोनों भाषाओं में रचना की । इन्होंने मारवाड़ के डिण्डवानक (डीडवाना ) में प्राकृत में " कहाणयकोस" की रचना १०५२ ई० में की इसमें यत्र तत्र संस्कृत और अपभ्रंश गाथायें भी हैं । इनकी दूसरी कृति १०१ गाथाओं वाली “पंचलिंगी प्रकरण" है, जिसकी रचना जालौर में की गई थी । इसके अतिरिक्त "निर्वाण लीलावती कथा ", " षट्स्थानक प्रकरण", "वीर चरित्र, हरिभद्र कृत अष्टक पर वृत्ति भी इनकी प्रमुख रचनायें हैं । 'निर्वाण लीलावती कथा" प्राकृत की एक श्रेष्ठ रचना है, जो १०२५ ई० से १०३८ ई० के मध्य रची गई थी । इस ग्रन्थ १. राजैसा, पृ० ४३ । २. वही, पृ० ४७ । ३. राभा, ३, अंक २ | ४. जैसासइ, पृ० २०८ । ५. वही । ६. वही । Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन साहित्य एवं साहित्यकार : ३३७ का जिनरत्न सूरि रचित, संस्कृत में श्लोकबद्ध भाषान्तर, जैसलमेर के भण्डार में उपलब्ध हुआ है । मूल प्राकृत कृति अभी तक अनुपलब्ध है । इनकी एक अन्य प्राकृत रचना "गाथाकोस" भी मिलती है ।" १२. जिनचन्द्र सूरि-ये जिनेश्वर सूरि के शिष्य थे । अपने लघु गुरुभ्राता अभयदेव की अभ्यर्थना को सम्मान देकर इन्होंने १०६८ ई० में "संवेगरंगशाला " नामक शान्तरस प्रधान प्राकृत ग्रन्थ की रचना की । १३. महेश्वर सूरि-- इनका समय १०५२ ई० से पूर्व माना गया है। ये एक प्रतिभा सम्पन्न कवि तथा प्राकृत संस्कृत के प्रकाण्ड पण्डित थे । " णाणपंचमी कहा" इनका प्राकृत भाषा का श्रेष्ठ काव्य ग्रन्थ है । कवि देवचन्द्र - ११वीं शताब्दी के आसपास इन्होंने पार्श्वनाथ के जीवन चरित्र पर "पासचरिय" नामक महाकाव्य लिखा, जिसमें ११ सन्धियों व २०२ कडवक हैं 13 घनेश्वर सूरि - जिनेश्वर सूरि के शिष्य घनेश्वर ने १०३८ ई० में चन्द्रावती में "सुरसुन्दरिचरियं" नामक प्राकृत ग्रन्थ की रचना की । यह एक प्रेम कथा है । इसकी भाषा पर अपभ्रंश भाषा का स्पष्ट प्रभाव है । इनकी एक अन्य रचना "शत्रुंजय माहात्म्य" भी ज्ञात हुई है । 4 १६. नेमिचन्द्र सूरि-ये बृहद्गच्छीय उद्योतन सूरि के प्रशिष्य थे और आम्रदेव सूरि के शिष्य थे । आचार्य पद प्राप्त करने से पूर्व इनका नाम देवेन्द्र गणी था । " महावीर चरिय" और "रत्नचूडकहा" इनकी पद्यबद्ध रचनाएँ हैं, जो १०८४ ई० में रची गईं। इनके अतिरिक्त " अक्खाणमणिकोस" " रयण चूडाराय चरियं" " उत्तराध्ययन" की संस्कृत टीका, "आत्मबोध कुलक" आदि भी इनकी रचनायें हैं । १७. दुर्गदेव ---ये दिगम्बर मुनि संयम देव के शिष्य थे । इन्होंने १०३२ ई० में कुम्भऩगर (कुम्भेरगढ़-भरतपुर) में " ऋष्टसमुच्चय" की रचना की । इसमें २६१ शौरसेनी गाथायें हैं । इसका एक अन्य नाम " काल ज्ञान" भी है । इनका दूसरा ग्रन्थ "अर्धकाण्ड"" है । जिसमें व्यापार सम्बन्धी भविष्यवाणियाँ हैं । १. राजैसा, पृ० ४१ २. जैभरा २५५ । ३. जैसलमेर भण्डार की ग्रंथ सूची, पृ० २१ ४. जैसास, पृ० २०८ । ५. जैग्रग्र, पृ० १४ । ६. राजैसा, पृ० ४२ । ७. सिजैसि, क्र० २१ (भूमिका) । २२ Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३८ : मध्यकालीन राजस्थान में जैनधर्म १८. बुद्धिसागर सूरि-ये जिनेश्वर सूरि के भाई और वर्धमान सूरि के शिष्य थे । इन्होंने १०२३ ई० में जालौर में प्राकृत और संस्कृत भाषा पर व्याकरण लिखा, जिसका नाम " पंचग्रन्थी" या ' बुद्धिसागर व्याकरण" था ।" १९. कवि धनपाल - ११वीं शताब्दी के प्रसिद्ध कवि धनपाल का भी राजस्थान में सांचौर से सम्बन्ध रहा । इन्होंने प्राकृत में 'पाइयलच्छीनाममाला" ग्रन्थ की रचना की । २०. जिनवल्लभ सूरि - ( १०३३ ई०-१११० ई०) ये कुर्चपुर ( कुचेरा-मारवाड़) की गादी के अध्यक्ष आचार्य जिनचन्द्र के शिष्य थे । इन्होंने अपने कुछ ग्रन्थ चित्तौड़, नरवर, नागौर और मरूपुर के जिनालयों में उत्कीर्ण करवाये थे । 3 इन्होंने " संवेगरंगशाला" का संशोधन किया तथा " पिंडविशुद्धि " की १०३ गाथाओं की रचना की । इनके अन्य ग्रन्थ भी ज्ञात हुए हैं, जैसे - " द्वादश कुलक", " सूक्ष्मार्थं सिद्धान्त विचार सार" या " सार्धं - शतक", "पौषध विधि प्रकरण", "भावारिवारण स्तोत्र", " अजित शान्ति स्तव", "स्वप्न सप्ततिका", "आगमिक वस्तु विचार सार", कतिपय स्तोत्र आदि । ४ २१. जिनवत्त सूरि-ये मारवाड़ के कल्पवृक्ष माने जाते हैं । लोकख्याति के कारण इन्हें "दादा" की पदवी से सुशोभित किया गया था । ये जिनवल्लभ सूरि के पट्टधर थे । इन्हें चित्तौड़ में १११२ ई० में आचार्य पद मिला व ११५४ ई० में अजमेर में इनका स्वर्गवास हुआ । इनके द्वारा रचित कतिपय ग्रन्थ इस प्रकार हैं - '' गणधर सार्थ " "सर्वाधिष्ठाधिस्तोत्र", "विघ्नविनाशी स्तोत्र", "सुगुरु पारनन्त्र्यम", "चैत्यवंदन कुलक", " सन्देह दोहावली" "गण सप्तति ६ आदि । शतक' २२. हेमचन्द्र – ये अभयदेव सूरि के शिष्य थे । इन्होंने १११३ ई० में मेड़ता और छत्रपल्ली में " भवभावना"७ नामक ग्रन्थ लिखा, जो इनकी प्रसिद्ध प्राकृत रचना है । " इसमें संस्कृत गद्य और अपभ्रंश पद्य भी हैं । " उपदेशमाला प्रकरण" इनकी दूसरी महत्त्वपूर्ण रचना है । इन्होंने "काव्यानुशासन" व उस पर "अलंकार चूडामणि" नामक १. जैसरा, पृ० २१६ ॥ २. सत्यपुरीय महावीर उत्साह में उल्लेख | ३. जैसरा, पृ० २२६ । ४. जैसासइ, पृ०२३१-२३२ । ५. जैसास, पृ० २३३ । ६. वही । ७. वही । ८. जैन जगदीश चन्द्र, प्राकृत साहित्य का इतिहास, पृ० ५०५ । Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन साहित्य एवं साहित्यकार : ३३९ व्याख्या लिखी।' इन्होंने "अनादि सूत्र", "धातुपाल" और लिंगानुशासन" भी लिखे। इसके अलावा इन्होंने ४ शब्दकोष, “अभिधान चिन्तामणि", "अनेकार्थ संग्रह", ''देशीनाम माला", "निघंटुशेष" भी लिखे । २३. सिंह कवि-ऐसा उल्लेख है कि सिंह कवि ने १२वीं शताब्दी में बम्मणवाड (ब्राह्मणवाड) सिरोही में "पज्जुण कहा" की रचना की थी। २४. देवेन्द्र सूरि-आबू में विचरण करते समय इन्होंने 'सुदसणा चरिय" एवं "कण्ह चरिय" नामक प्राकृत ग्रन्थों की रचना की।५ इनका समय १२वीं शताब्दी माना जाता है। २५. आसड कवि-ये भिन्नमाल कुल में उत्पन्न हये थे। इन्होंने ११९४ ई० में "विवेगमंजरी" नामक प्राकृत ग्रन्थ लिखा । २६. गुणचन्द्र गणी-ये जिनेश्वर सूरि को शिष्य परम्परा में सुमति वाचक के शिष्य थे । इन्होंने गुजरात में अधिक रचनाएँ लिखीं, किन्तु खरतरगच्छीय आचार्यों का कार्यक्षेत्र राजस्थान भी रहा है, अतः इनका राजस्थान से सम्बन्ध माना जा सकता है। इनका समय १२वीं शताब्दी था। "कहारयणकोस" और "पासनाह चरियं" इनकी प्रसिद्ध प्राकृत रचनाएं हैं । “कहारयण कोस" की रचना ११०१ ई० में भरूकच्छ नगर के मुनिसुव्रत चैत्यायन में की गयी थी। इसमें यत्र-तत्र अपभ्रंश व संस्कृत का भी प्रयोग हुआ है। २७. लक्ष्मणगणी-११४२ ई० में मांडलगढ़ में लक्ष्मणगणी ने "सुपासनाह चरिय" की रचना की। २८. धर्मघोष सूरि :-इन्होंने ११२९ ई० में "धर्मकल्पद्रुम" की रचना की। इनका शाकंभरी के चौहान शासक विग्रहराज पर अत्यधिक प्रभाव था।' २९. यशचन्द्र :-ये शाकम्भरी के वणिक पद्मचन्द के पुत्र थे । १२वीं शताब्दी में १. जैसासइ, पृ० ३१० । २. वही, पृ० ३०२-३०६ । ३. वही, पृ० ३०९। ४. जैसरा, पृ० २२७ । ५. जैन, प्राकृत साहित्य का इतिहास, पृ० ५६१ । ६. वही, पृ० ४४८ । ७. जैसासइ ; पृ० २७५ । ८. राभा, ३, अंक २ । Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४० : मध्यकालीन राजस्थान में जैनधर्म इन्होंने "मुद्रित कुमुदचन्द्र" नामक नाटक लिखा, जिसमें कुछ प्राकृत भाषी पात्र भी हैं। ३०. मुनि नेमिचन्द्र :-नेमिचन्द्र नाम के अनेक आचार्य हुए हैं । कुछ वर्षों से यह स्पष्ट हो गया है कि "लघुद्रव्य संग्रह" और "वृहद्रव्य संग्रह' के रचयिता मुनि नेमिचंद्र और “गोम्मट सार", "त्रिलोकसार", "लब्धिसार" आदि के लेखक आचार्य नेमिचन्द्र पृथक-पृथक् हैं । मुनि नेमिचन्द्र, जिन्हें सिद्धान्तिदेव भी कहा गया है, की साधना स्थली आश्रमपट्टन रहा है, जिसे दशरथ शर्मा ने बून्दी जिले का केशोराय पाटन नगर होना बताया है। इन्होंने १२वीं शताब्दी में यहीं पर "लघुद्रव्य संग्रह' व 'वृहद्रव्य संग्रह" की रचना की थी। प्राकृत शिलालेख : राजस्थान में प्राकृत भाषा का प्रचार साहित्य व धर्म प्रभावना तक हो सीमित न होकर अभिलेख अंकन तक भी व्यापक था। प्राचीनतम प्राकृत अभिलेख के रूप में बरली ( अजमेर से ३५ मील दूर ) में प्राप्त पाषाण-खण्ड पर उत्कीर्ण कुछ पंक्तियाँ हैं, जिनमें वीर निर्वाण संवत् ८४ अंकित है। जोधपुर से २० मील उत्तर की ओर घटियाला नामक गांव में कक्कुक का एक शिलालेख ८६१ ई० का प्राकृत में ही उत्कीर्ण मिलता है। (२) अपभ्रंश साहित्य एवं साहित्यकार: अपभ्रंश भारत के पश्चिमोत्तर प्रदेश की भाषा थी। राजशेखर के अनुसार अपभ्रंश के क्षेत्रों में राजपूताना भी सम्मिलित था। १०वीं शताब्दी में यह इस प्रदेश की बोलचाल की भाषा थी । आधुनिक भारत की आर्य भाषाओं को उत्पति अपभ्रंश से ही मानी जाती है । अपभ्रंश का साहित्य में प्रवेश ६ठीं शताब्दी से ही हो गया था। १०वीं से १३वीं शताब्दी तक अपभ्रंश साहित्य का स्वर्णकाल माना जाता है । सामान्यतः १२वीं शताब्दी तक "अपभ्रंशयुग" माना जाता है तथापि १५वीं व १६वीं शताब्दी तक भी इसमें रचनाएँ सृजित की जाती रहीं। अपभ्रंश की अधिकांश रचनाओं का सम्बन्ध राजस्थान से है । राजस्थान से पूर्व मध्यकालीन अपभ्रंश भाषा साहित्य के रचनाकार एवं रचनाएं निम्नलिखित हैं १. हरिषेण :-धरंकटवंशीय हरिषेण का जन्म राजस्थान के चित्तौड़ नगर में २. जैसरा, २२७॥ ३. राथुए। ४. राजैसा, पृ० ५०। ५. शास्त्री, हा० सा० आ० इ०, पृ० २५५-५७ । Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन साहित्य एवं साहित्यकार : ३४१ हुआ था। इनका कार्यक्षेत्र चित्तौड़ ही रहा । कालान्तर में ये अचलगढ़-आबू में स्थानान्तरित हो गये और वहाँ ९७७ ई० में " धम्मपरिक्खा" की रचना पद्यड़िया छंद में की । यह काव्य ११ सन्धियों में निबद्ध है, जिसमें २३८ कडवक हैं । आमेर शास्त्र भण्डार में इस ग्रन्थ की कई प्रतियाँ उपलब्ध हैं । इस काव्य के आधार पर ही १४९५६० में भट्टारक श्रुतकीर्ति ने " धर्मं परीक्षा" को रचना की, जिसमें कथानक ही नहीं अपितु वर्णन का भी अनुगमन किया गया है । २. धनपाल प्रथम :- - जैन साहित्य में धनपाल नाम के कई साहित्यकारों का उल्लेख मिलता है | पं० परमानन्द शास्त्री ने धनपाल नाम के चार विद्वानों का परिचय दिया है। ये चारों ही भिन्न-भिन्न समय में हुए । धनपाल प्रथम संस्कृत के कवि व राजा भोज के आश्रित थे । इन्होंने अपभ्रंश में सांचौर नगर में स्थित महावीर जिनालय सम्बन्धी "सत्यपुरिय महावीर उत्साह "४ नामक रचना लिखी । इस रचना से महमूद गजनी द्वारा मूर्तिभंजन की घटना का पता चलता है । ३. धाहिल : - ये १०वीं शताब्दी के अपभ्रंश कवि थे । इनका सम्बन्ध महाकवि माघ के वंश से है, अतः ये श्रीमालवंशीय गुर्जर वैश्य थे । इनकी जन्मभूमि भीनमाल रही होगी । इन्होंने अपभ्रंश में "प उमसिरी चरियु" की रचना की । " ४. महेश्वर सूरि : इनका समय भी १०वीं शताब्दी के पश्चात् का माना जाता है । इनके द्वारा रचित एक लघु कृति "संयम मंजरी" प्राप्त होती है । ५. जिनदत्त सूरि : - युग प्रधान जिनदत्त सूरि का जन्म १०७५ ई० में धंधुका में हुआ था । ये दादाजी के नाम से प्रख्यात थे । इनकी अपभ्रंश भाषा की ३ रचनाएँ उपलब्ध हुई हैं—“उपदेश रसायन रास", "कालस्वरूप कुलक" और " चर्चरी" । " "उपदेश रसायन रास” ओरिएन्टल इन्स्टीट्यूट बड़ौदा से, "अपभ्रंश काव्यत्रयी" में प्रकाशित हो चुकी है । " चर्चरी” की रचना वागड़ प्रदेश में व्याघ्रपुर में की गई थी । ६. धनपाल द्वितीय :- १०वीं या ११वीं शताब्दी में अपभ्रंश के एक अन्य प्रसिद्ध afa धनपाल हुए, जिन्होंने "भविसदत्तकहा" नामक महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ लिखा । इसके १. श्री विरास्मा, पृ० ७२१ । २. जैसरा, पृ० २२९ । ३. अने० ७०८, पृ० ८२ । ४. जैग्रप्रस, पृ०७५ ॥ ५. प्रेमसुमन, जैसरा, पृ० २३० । ६. अपभ्रंश साहित्य, पृ० २९५ । । ७. जैसासइ, पृ० २३३ । Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४२ : मध्यकालीन राजस्थान में जैनधर्म अतिरिक्त इनको अन्य किसी रचना का उल्लेख नहीं मिलता। इनके जन्म स्थान व कार्यक्षेत्र का कोई प्रामाणिक उल्लेख नहीं मिलता। कासलीवाल ने इनका जन्म स्थान चित्तौड़ माना है।'धर्कट वंशीय होने के कारण भी इन्हें राजस्थान का माना जा सकता है । उक्त प्रन्थ में राजस्थानी संस्कृति के अभिव्यंजक निदर्शनों के कारण भी इन्हें राजस्थान का ही माना जाना चाहिये ।। ७. महाकवि नयनंदि : ये ११वीं शताब्दी के विद्वान् थे। इनकी अबतक २ कृतियाँ उपलब्ध हुई हैं और दोनों की पांडुलिपियाँ जयपुर के महावीर भवन के संग्रह में हैं । ये परमारवंशीय राजा भोजदेव त्रिभुवन नारायण के शासनकाल में हुए थे। इन्होंने प्रथम महाकाव्य "सुदंसण चरिउ" धारा नगरी के एक जैन मंदिर में समाप्त किया था। दूसरा काव्य "सयलविहि विहाण कन्व" है, जिसकी एकमात्र पांडुलिपि आमेर शास्त्र भण्डार में संग्रहीत हैं । इस कृति में अंबाडम एवं कंचीपुट का उल्लेख है। "अंबाडम" अंबावती का ही दूसरा नाम हो सकता है, जो बाद में आमेर के नाम से प्रसिद्ध हुआ । इससे सिद्ध होता है कि नयनंदि इस प्रदेश में अवश्य घूमे होंगे। ८. हरिभद्र सूरि :-ये जिनेश्वर सूरि के प्रशिष्य और श्रीचन्द के शिष्य थे । यद्यपि इनका गुजरात से विशेष सम्बन्ध था, किन्तु राजस्थान में भी ये भ्रमण करते रहते थे। इनकी २ अपभ्रंश कृतियाँ ज्ञात होतो हैं :-"सनत्कुमार चरित" एवं "णमिणाह चरिउ":५ ९. कवि पल्ह :-इन्होंने १११४ ई० में खरतरगच्छ की 'गुरु परिवाडी" लिखी, जिसकी प्रति जैसलमेर के ग्रन्थ भण्डार में है। १०. श्रीचन्द :-ये ११वीं शताब्दी के अपभ्रंश कवि थे । इनकी "कथाकोस" एवं "रत्नकरण्ड श्रावकाचार" दो कृतियाँ प्राप्त हैं । इनमें श्रीमालपुर नगर का उल्लेख है. अतः ये राजस्थान से सम्बन्धित प्रतीत होते हैं।" - ११. विबुध श्रीधर :-श्रीधर १२वीं शताब्दी के प्रसिद्ध कवि थे। इन्होंने “पासनाहचरिउ", सुकुमाल चरिउ" एवं “भविसयत्त चरिउ' ३ रचनाएँ अपभ्रंश में १. अने०, १५, किरण २, पृ० ७८ । २. जैसाऔइ, पृ० ४६७-४६८ । ३. अपभ्रंश कथा काव्य, पृ० १०२-१४१ । ४. वही। ५. अपभ्रंश भाषा और साहित्य की शोध प्रवृत्तियाँ पृ० १८७ । ६. जैभरा, पृ० २५५ । ७. जैसरा, पृ० २३१ । Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन साहित्य एवं साहित्यकार : ३४३ लिखीं। एक ग्रन्थ में वलड नगर का उल्लेख होने से राजस्थान व गुजरात इनके कार्यक्षेत्र रहे होंगे ।' अपभ्रंश एवं अभिलेख : राजस्थान के अधिकांश अभिलेख संस्कृत भाषा के उपलब्ध होते हैं, किन्तु १०वीं शताब्दी के पश्चात् के अभिलेखों में अपभ्रंश के शब्दों का भी प्रयोग देखने को मिलता है । गोडवाड़, सिरोही, आबू, मेवाड़ एवं अन्यभागों से प्राप्त कई अभिलेखों में अपभ्रंश व देशी भाषा के बहुत से शब्द प्रयुक्त हुए हैं । १११० ई० के सेवाड़ी अभिलेख, ११४३ ई० का नाडलाई लेख, ११५३ ई० का खेड अभिलेख आदि कई ऐसे उदाहरण हैं । (३) संस्कृत साहित्य एवं साहित्यकार: जन समुदाय की रुचि के प्रति जैनाचार्यों की जागरूकता के कारण संस्कृत भाषा को भी वही प्रतिष्ठा दी गई, जो कि प्राकृत व अपभ्रंश को । जिस समय से समाज में वैदिक एवं बौद्ध संस्कृत साहित्य का प्रभाव अधिक बढ़ा, उसी समय से जैन साहित्य में संस्कृत को स्थान मिलने लगा । धर्म एवं दर्शन के क्षेत्र में तर्क पद्धति के विकास के कारण तथा वैदिक व बौद्ध आचार्यों से वाद-विवाद करने की दृष्टि से, जैनाचार्यों ने संस्कृत को अधिक महत्त्व देना प्रारम्भ कर दिया । यह प्रवृत्ति ईसा की दूसरी शताब्दी से आठवीं शताब्दी तपाई जाती है । ८वीं शताब्दी के पश्चात् राजस्थान में सृजित जैन संस्कृत ग्रन्थों की रचना की पृष्ठभूमि में, यहाँ की राजनीतिक, सामाजिक एवं धार्मिक स्थिति अधिक प्रभावशाली रही । सामान्यतया जैनाचार्यों ने जैन धर्म के सिद्धान्तों के प्रसार की भावना, प्रभावशाली पदासीन राज्याधिकारी, गुरु या श्रावकों की प्रार्थना तथा धार्मिक महापुरुषों के यशोगान आदि से प्रेरित होकर संस्कृत में जैन साहित्य का निर्माण किया । एक सम्भावित कारण यह भी है कि मूलतः ब्राह्मण होने के कारण अधिकांश जैनाचार्य बचपन से ही संस्कृत के ज्ञाता होते थे, अतः ज्ञान व प्रतिभा के उचित विकास के लिये उन्होंने संस्कृत भाषा को साहित्य सृजन के माध्यम के रूप में अपनाया । राजस्थान में संस्कृत साहित्य लेखन की निश्चित तिथि ज्ञात नहीं है, क्योंकि प्राचीन रचनाओं में रचनाकाल व रचनास्थल का वर्णन बहुत कम देखने को मिलता है । साथ ही संतों की यायावरी प्रवृत्ति के कारण ग्रन्थ के रचना स्थल का पता अन्य स्रोतों से लगाना पड़ता है । ऐतिहासिक सामग्री से ज्ञात होता है कि चित्तौड़ अनेक जैनाचार्यों का कार्यक्षेत्र रहा । उनमें से ५वीं शताब्दी के आचार्य सिद्धसेन दिवाकर ने जैन न्याय पर “न्यायावतार” ग्रन्थ संस्कृत में सर्वप्रथम रचा। इसके पश्चात् ८वीं शताब्दी के हरिभद्र १. जैसरा पृ० २३१ । Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४४ : मध्यकालीन राजस्थान में जैनधर्म से पूर्व तक, राजस्थान में रचित जैन संस्कृत साहित्य के किसी ग्रन्थ का उल्लेख नहीं मिलता । ८वीं शताब्दी के पश्चात् प्रचुर मात्रा में जैनाचार्यों द्वारा संस्कृत ग्रन्थ लिखे गये ।' १. आचार्य हरिभद्र - हरिभद्र ८वीं शताब्दी के चित्तौड़ के राजपुरोहित, समर्थ विद्वान्, महान् सिद्धांतकार, दार्शनिक, विचारक, महाकवि एवं सर्वश्रेष्ठ टीकाकार थे । इनका प्राकृत एवं संस्कृत पर समान अधिकार था । इनके संस्कृत में " षड्दर्शन समुच्चय", “अष्टक प्रकरण”, “अनेकांतजयपताका", " योगदृष्टि समुच्चय ", " योगबिन्दु "3 आदि प्रमुख ग्रन्थ हैं । जैन संस्कृत साहित्य के इतिहास में हरिभद्र प्रथम लेखक हैं, जिन्होंने जैनागमों एवं पूर्वाचार्यों की प्रसिद्ध कृतियों पर संस्कृत में टीकाएँ लिखने का सूत्रपात किया । " अनुयोगद्वारसूत्र टीका", "आवश्यकनिर्युक्ति टीका", "जंबूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र टीका", "तत्त्वार्थसूत्र टीका", "दशवेकालिकसूत्र टीका", "नंदीसूत्र टीका", "पिंडनिर्युक्ति टीका", "न्यायावतार टोका", दिङ्नागकृत " न्यायप्रवेश टीका " आदि प्रसिद्ध टीका ग्रन्थ हैं । " मुनिपति चरित्र", "यशोधर चरित्र" एवं " नेमीनाथ चरिउ" भी इनकी प्रसिद्ध रचनाएँ हैं ।" खगोलीय रचनाओं में " लग्नशुद्धि" बहुत महत्वपूर्ण है । २. जयसिंह सूरि इन्होंने ८५६ ई० में नागौर में " धर्मोपदेशमाला वृत्ति" की रचना की । ३. सिद्धषि सूरि - हरिभद्र की परम्परा को दसवीं farai आचार्य सिद्धर्षि ने आगे बढ़ाया। ये निवृत्ति कुल के आगम, न्याय, दर्शन और सिद्धांतों के मूर्धन्य विद्वान् थे । कथा” (९०५ ई०) ७, " सकलतीर्थ स्तवन"", धर्मदास गणि की " उपदेशमाला" पर टीका, रचनाएँ प्राप्त हैं ।" १. जैसिभा, पृ० ६, २, १६, १ । २. श्री विरास्मा, पृ० ८४४ । ३. जैन धर्म प्रसारक सभा, भावनगर द्वारा प्रकाशित । ४. पाटन के ग्रन्थों की सूची, पृ० २९३ ॥ ५. जैसास, पृ० १६२ । ६. वही । ७. जैसासइ, पृ० १८५ । ८. गाओस, ७६, पृ० १५६ । ९. जैसासइ, पृ० १८६ । १०. वही । शताब्दी के श्रीमाल नगर दुर्गस्वामी के शिष्य थे । ये इनको " उपमितिभव प्रपंच " श्रीचंद्रकेवली चरित" (९१७ ई०) ९, सिद्धसेन के "न्यायावतार" पर वृत्ति आदि Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन साहित्य एवं साहित्यकार: ३४५ ४. जिनेश्वर सूरि - ( ९९३ - १०५३ ई० ) –- १०वीं ११वीं शताब्दी से राजस्थान मैं खरतरगच्छीय आचार्यों का प्राधान्य शुरू हो जाता है । ये मध्यप्रदेश निवासी कृष्ण · ब्राह्मण के पुत्र थे । धारानगरी में इनकी दीक्षा हुई थी । ये खरतरगच्छ के प्रथम संस्थापक आचार्य थे । इनका कार्यक्षेत्र गुजरात एवं राजस्थान रहा । इन्होंने " प्रमालक्ष्म स्वोपज्ञ टीका" १०२३ ई० में जालौर में, "अष्टक प्रकरण टीका" १०२३ ई० में जालौर में, "कथाकोष प्रकरण स्वोपज्ञ टीका" १०५१ ई० में डीडवाना में, " चैत्यवंदनक" १०२३ ई० में जालौर में रचीं। इनकी "वीरचरित्र" नामक एक अन्य रचना भी प्राप्त होती है । ' ५. रामसेन - ये काष्ठा संघ के नंदीतटगच्छ विद्या गण के आचार्य थे । सोमकीर्ति रचित "गुर्वावली" में इन्हें नरसिंहपुरा जाति का संस्थापक माना गया है । वागड़ प्रदेश से इनका अधिक सम्बन्ध था । विद्वानों ने इनका समय १०वीं शताब्दी स्वीकार किया है । इनकी एकमात्र संस्कृत कृति " तत्त्वानुशासन" ज्ञात हुई है । २ ६. आचार्य महासेन ये लाड़बागड़ संघ के आचार्य जयसेन के प्रशिष्य थे । इस संघ का राजस्थान से विशेष सम्बन्ध रहा । ये परमारवंशीय राजा मुंज द्वारा पूजित थे, अतः इनका समय १०वीं शताब्दी होना चाहिये । इनकी एकमात्र कृति "प्रद्युम्न चरित्र" महाकाव्य उपलब्ध है | 3 ७. कवि डड्ढा - ये चित्तौड़ निवासी एवं पोरवाड़ जाति के थे। इनकी एकमात्र संस्कृत कृति "पंचसंग्रह" है जो प्राकृत "पंच संग्रह " की गाथाओं का अनुवाद है । विद्वानों ने इनका समय ९९८ ई० माना है । ८. बुद्धिसागर सूरि - जिनेश्वर सूरि के लघु भ्राता थे। इनकी प्रमुख रचना “पंचग्रंथी व्याकरण", अपरनाम "बुद्धिसागर व्याकरण" है ।" इसकी रचना जालौर में १०२३ ई० में की गई थी । १०८३ ई० में वर्द्धमान सूरि रचित "मनोरमा चरित्र" 'प्रशस्ति के अनुसार बुद्धिसागर सूरि ने छंद शास्त्र, निघण्टु ( कोष), काव्य, नाटक, कथा प्रबन्ध आदि अनेक विषयों पर ग्रन्थों की रचना की थी, किन्तु वे सब अप्राप्त हैं । ९. जिनबल्लभ सूरि (१०३३ ई०-१११० ई० ) - इनका कार्यक्षेत्र राजस्थान गुजरात और पंजाब था । ये आगम, सिद्धांत, साहित्य शास्त्र और ज्योतिष के प्रकांड विद्वान् थे । इनकी प्रमुख संस्कृत रचनाएँ - " धर्मशिक्षा प्रकरण", संघपट्टक", "शृंगार शतक"," ५ १. जैसास, पृ० २०८ । २. राजैसा, ९७ । ३. वही । ४. जैसलमेर भण्डार की ग्रन्थ सूची, पृ० २० । ५. जैसासइ, पृ० २३१-२३२ । Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४६ : मध्यकालीन राजस्थान में जैनधर्म "प्रश्नोत्तरकषष्टिशत काव्य", "अष्टसप्ततिका", अपरनाम "चित्रकूटीय वीर चैत्य प्रशस्ति" (११०६ ई०) एवं "भावारिवारण" स्तोत्रादि' हैं। १०. पूर्णभद्र-इन्होंने १११९ ई० में संस्कृत भाषा में "पंचतंत्र' की रचना की । ११. आचार्य अमृतचंद्र सूरि-विद्वानों ने इनका समय ११वीं शताब्दी माना है । नाथूराम प्रेमी के अनुसार माधवचन्द्र के शिष्य अमृतचन्द बामनवाड में आये, जहाँ उन्होंने रल्हण के पुत्र सिंह या सिंह कवि को "पज्जुण्णचरिउ" लिखने की प्रेरणा दी । यदि बयाना के निकट का बामनवाड़ ही उक्त स्थान है, तो अमृतचंद्र ने राजस्थान को भी पर्याप्त समय तक अलंकृत किया होगा। राजस्थान के विभिन्न ग्रन्थ भण्डारों में इनके ग्रंथों का विशाल संग्रह मिलता है। इन्होंने आचार्य कुंदकुंद के "समयसार", ''प्रवचनसार" एवं "पंचास्तिकाय" पर टीका लिखी। इन्हीं की टीकाओं के कारण कुंदकुंद के ग्रन्थों का रहस्य उजागर हुआ। इनकी अन्य रचनाएँ “पुरुषार्थ सिध्युपाय", "तत्त्वार्थसार" एवं "समयसार कलश' भी अत्यधिक महत्त्वपूर्ण हैं । १२. जिनपति सूरि (११५३ ई०-१२२० ई०)-ये खरतरगच्छ के मणिधारी जिनचंद्र सूरि के शिष्य थे। इनका जन्म ११५३ ई० में बीकमपुर में हुआ तथा ११७६ ई० में आचार्य हुए । इनके मुख्य कार्य ११७१ ई० में नृपति भीमसिंह के समक्ष महाप्रामाणिक दिगम्बर विद्वान् के साथ शास्त्रार्थ में विजय, ११८२ ई० में अजमेर में अन्तिम हिन्दू सम्राट पृथ्वीराज चौहान की सभा में पद्मप्रभ के साथ शास्त्रार्थ में विजय और प्रद्युम्नाचार्य के साथ शास्त्रार्थ में विजय हैं । इनकी प्रमुख संस्कृत रचनाएँ-"संघपट्टक बृहद वृत्ति", "पंचलिंगी प्रकरण टीका", "प्रबोधोदय वादस्थल", कतिपय स्तोत्र आदि हैं । १३. जिनपालोपाध्याय (११५७ ई०-१२४५ ई०)-ये जिनपति सूरि के शिष्य थे। इनकी दीक्षा ११६८ ई० में पुष्कर में हुई थी। इनके द्वारा रचित "सनत्कुमार चक्रिरचित" श्रेष्ठ कोटि का महाकाव्य है और १२४८ ई० में रचित "युगप्रधानाचार्य गुर्वावली” ऐतिहासिक दृष्टि से एक अद्वितीय रचना है । इसके अतिरिक्त इन्होंने १२०५ ई० में “षट्स्थानक प्रकरण टोका", १२३५ ई० में "उपदेश रसायन विवरण", १२३६ ई० में 'द्वादशकुलक विवरण", १२३६ ई० में ही "धर्मशिक्षा विवरण", १२३७ ई० में "चर्चरी विवरण" आदि की भी रचना की। १. जैसासइ, पृ० २३१-२३२ । २. जैसाऔइ, पृ० ३४० । ३. राजैसा, ९६ । ४. जैसासइ, पृ० ३३५-३३६ । ५. वही, पृ० ३९५ । . Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन साहित्य एवं साहित्यकार : ३४७' १४. ब्रह्मदेव-ये आश्रम पट्टन (केशोरयपाटन) में निवास करते थे। इन्होंने सोमराज श्रेष्ठी के लिये मुनि नेमिचंद्र के "बृहद्र व्यसंग्रह' एवं "परमात्मप्रकाश" पर टीका लिखी । "द्रव्यसंग्रह" की प्राचीनतम पांडुलिपि १३५९ ई० की जयपुर के ठोलियों के मन्दिर में है। "द्रव्यसंग्रह" एवं "प्रवचन सार" टीकाओं में अमृतचंद्र, रामसिंह, अमितगति, डड्ढा, प्रभाचंद्र आदि के ग्रन्थों के उद्धरण मिलते हैं, जो १०वीं एवं ११वीं शताब्दी के विद्वान् है। इसलिये ब्रह्मदेव का समय ११वीं शताब्दी का अन्तिम चरण या १२वीं शताब्दी का पूर्वाद्धं माना जा सकता है । १५. मुनिचंद्र सूरि-ये बृहद्गच्छ के थे। इन्होंने १११७ ई० में नागौर में "उपदेश पदवृत्ति" रचना का प्रारम्भ किया, जिसे पाटन में समाप्त किया गया। १६. विजयसिंह सूरि-ये राजगच्छ के मुनि थे। इन्होंने ११५८ ई० में पाली में "जम्बूद्वीप समास टीका" की रचना की। १७. मल्लधारो हेमचंद्र सूरि-ये मलधार गच्छ के आचार्य थे। "द्वयाश्रय काव्य" व "कुमारपाल चरित्र'४ इनकी प्रख्यात रचनाएँ हैं। इन्होंने ११२३ ई० में मेड़ता में "भवभावना" स्वोपज्ञ टीका की भी रचना की । १८. पद्मानंद श्रावक-ये खरतर मतानुयायी थे। इन्होंने १२वीं शताब्दी में नागौर में 'वैराग्यशतक" की रचना की। १९. वर्द्धमान सूरि-ये खरतर गच्छाचार्य थे । इन्होंने १११५ ई० में “धर्मरत्न. करकंड स्वोपज्ञ टीका सह" की रचना की । संस्कृत अभिलेख विद्वत्ता के क्षेत्र में सुख्यात होने के कारण जैनाचार्य अभिलेख आदि का लेखन भी करते थे । कुमारपाल का ११५० ई० का चित्तौड़ अभिलेख, ११६८ ई० का बिजौलिया अभिलेख तथा अन्य कई अभिलेख इनके द्वारा लिखे गये। इन अभिलेखों का, ऐतिहासिकता के साथ काव्य-पक्ष भी महत्त्वपूर्ण है। हथूडी के ९१६ ई०, ९३९ ई० और ९९६ ई० के अभिलेख, तथा इस काल के अन्य कई अभिलेख सुन्दर संस्कृत में निबद्ध हैं । विधि-चैत्य आन्दोलन के प्रमुख आचार्य जिनबल्लभ सूरि (१११० ई०) ने मठों एवं मन्दिरों में रहने वाले चैत्यवासी साधुओं को धार्मिक वृत्ति अपनाते हुए आदर्श जीवन. १. राजसा, पृ० ९८ । २. जैसासइ, पृ० २४२ । ३. राजैसा, पृ० ८१ । ४. जैसासइ, पृ० ३०७-३०८ । ५. राजैसा, पृ० ८० । Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४८ : मध्यकालीन राजस्थान में जैनधर्म व्यतीत करने की शिक्षा दी थी । एतदर्थ उन्होंने अनेक ग्रन्थ भी लिखे, जिनमें "अष्टसप्त टीका", "संघपट्टक" व "धर्मशिक्षा" प्रमुख हैं। जैन साहित्य से ज्ञात होता है कि इन तीनों ग्रन्थों को शिलाओं पर उत्कीर्ण करवाकर चित्तौड़, नागौर, मारोठ आदि के विधिचैत्य जैन मन्दिरों में लगवाया गया था।' इनके शिष्य जिनदत्त सूरि को "अप्रभ्रस काव्यत्रयी" में इस तथ्य का स्पष्ट उल्लेख है ।२ इन्हीं को चित्तौड़ प्रशस्ति, ग्रन्थ रूप में प्राप्त हो चुकी है। विग्रहराज के अनुज तथा सुप्रसिद्ध पृथ्वीराज चौहान के पिता सोमेश्वर के २ अभिलेख बिजौलिया की चट्टानों पर उत्कीणं हैं, जिनकी तिथि ११६९ ई० है। इनमें से एक तो बृहद प्रशस्ति है, जिसमें चौहानों को वंशावली एवं इतिहास है। इसके रचयिता माथुर संघ के मुनि गुणभद्र थे, जिन्हें “कवियों के गले के आभूषण" की संज्ञा दी गई है। पास की चट्टान पर प्राग्वाट श्रेष्ठी लोलार्क, जो श्रीधर के पुत्र थे, ने सिद्धसूरि विरचित "उत्तमशिखर पुराण" नामक जैन दिगम्बर ग्रन्थ को ११६९ ई० में चित्रसुत केशव द्वारा शिलांकित करवाया। इस ग्रन्थ में पाँच सर्ग और २९३ श्लोक (४) राजस्थानी भाषा साहित्य एवं साहित्यकार: अन्य आधुनिक आर्य भाषाओं की भाँति राजस्थानी भाषा का विकास भी तत्कालीन गुजरात और राजस्थान में लोक प्रचलित अपभ्रंश से हुआ है। गुर्जर अपभ्रंश में पश्चिमी अपभ्रंश की सभी विशेषताएं होने से मारुगर्जर या पुरानी राजस्थानी का विकास गुर्जरी अपभ्रंश से माना जाता है।६ ११वीं शताब्दी से ४ शताब्दी पश्चात् तक का साहित्य, “मारूगुर्जर" साहित्य है। इसके “पुरानी राजस्थानी", "पुरानी पश्चिमी राजस्थानी", "जूनी गुजराती", "मारू सौरठ" आदि नाम भी दिये गये हैं। उल्लेखनीय है कि १५वीं शताब्दी तक पुरानी गुजराती और पुरानी राजस्थानी एक ही थी। १४५० ई० के लगभग दोनों पृथक् हुईं। इसलिये मारू-गुजर का साहित्य, गुजराती और राजस्थानी दोनों का साहित्य है । इस काल में रचित साहित्य की चर्चा, १. गाओसि, ७६, पृ० ८। २. अपभ्रश काव्यत्रयी। ३. एइ, २६, पृ० १०५ । ४. प्राचीन भारतीय लिपिमाला, पृ० १५० । ५. राजैसा, पृ० १६३ । ६. वही। ७. वही, पृ० १६४। Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन साहित्य एवं साहित्यकार : ३४९ गुजराती व राजस्थानी साहित्य के इतिहासों में समान रूप से होती है। उद्योतन सूरि द्वारा ७७८ ई० में लिखे गये "कुवलयमाला" कथा ग्रन्थ से राजस्थानी भाषा के मरु-. देशीय रूप का उल्लेख नाम सहित मिलता है। अतः राजस्थानी भाषा साहित्य का उद्भव काल ८वीं शताब्दी का उत्तरार्द्ध माना जा सकता है। राजस्थानी भाषा के विकास के चिह्न क्रमिक रूप से देखने को मिलते हैं । पूर्व मध्यकाल में भी कई महत्त्वपूर्ण सोपान इस भाषा के विकास में प्रकट हुए । १. कवि धनपाल-१०वी, ११वीं शताब्दी की अपभ्रंश रचनाओं में राजस्थानी भाषा के विकास के चिह्न मिलने लगते हैं। इनके द्वारा रचित "सत्यपुरिय महावीर उत्साह" ऐसी ही रचना है, जिसमें १५ पद्य हैं, किन्तु ऐतिहासिक दृष्टि से यह अत्यधिक महत्त्वपूर्ण है। २. कवि पल्ह-११वीं शताब्दी में इन्होंने १० छप्पय छंदों की रचना की, जिसकी भाषा अपभ्रंश प्रधान है । यह जिनदत्त सूरि की स्तुति है। ३. देवसूरि-१२वीं शताब्दी में नागौर में इनके द्वारा अपने गुरु मुनि चन्द्रसूरि की स्तुति रूप में २५ पद्य अपभ्रंश मिश्रित रचे हुए मिलते हैं। ४. वनसेन सूरि-इन्होंने ११६८ ई० में "भरतेश्वर बाहुबलि घोर" नामक २५ पद्यों की राजस्थानी कृति निबद्ध की थी। ५. शालिभद्र सूरि-इनके द्वारा रचित "भरतेश्वर बाहुबलि रास",३ राजस्थानी भाषा की संवतोल्लेख वाली प्रथम रचना है, जो १९८४ ई० में पूर्ण हुई थी। इन्हीं की दूसरी रचना "बुद्धिरास' है। (५) हिन्दी साहित्य एवं साहित्यकार : हिन्दी साहित्य के आदिकाल को अधिकांश आधारभूत सामग्री राजस्थानी जैन साहित्यकारों द्वारा ही रची गई है। सामान्यतः हिन्दी साहित्य का आविर्भाव काल १००० ई० के आसपास माना जाता है । आचार्य रामचन्द्र शुक्ल हिन्दी को अपभ्रंश से विकसित मानते हैं । १००० ई० के आसपास अपभ्रंश भाषा ने विभाजित होकर नये नाम धारण किये, जिससे हिन्दी भाषा का भी सूत्रपात्र हुआ। अर्धमागधी और नागर अपभ्रंश से निकलने वाली सिद्ध और जैन कवियों की भाषा, हिन्दी के प्रारम्भिक रूप १. अपभ्रश काव्यत्रयी, पृ० ९२-९३ । २. जैसरा, पृ० २३८-२४८ । ३. वीरवाणी, १, पृ० ४८ । ४. भारतीय विद्या, वर्ष २, अंक १। Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५० : मध्यकालीन राजस्थान में जैनधर्म की छाप लिये हुये है ।' आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने भी यह माना है कि हिन्दी का परवर्ती साहित्य अपभ्रंश साहित्य से क्रमशः विकसित हुआ।। डॉ० गणपतिचन्द्र गुप्त हिन्दी के प्रथम कवि के रूप में शालिभद्र सरि को मान्यता देते हैं । उनके शब्दों में, "जैन कवियों द्वारा रचित कुछ ऐसे रासकाव्य प्रकाश में आये हैं, जिनकी प्रामाणिकता असंदिग्ध है तथा जिनकी भाषा हिन्दी के प्रारम्भिक रूप में स्वीकृत की जा सकती है। इन रचनाओं में कालक्रम तथा भाषा के विकास को दृष्टि से सर्वप्रथम शालिभद्र सूरि कृत "भरतेश्वर बाहुबलि रास" है, जिसका रचनाकाल ११८४ ई० है ।"3 ११७३ ई० में हेमचन्द्राचार्य ने अप्रभ्रंश भाषा का दूसरा रूप "ग्राम" माना है। वस्तुतः यही भाषा आगे चलकर राजस्थानी व अन्य देशी भाषाओं के रूप में विकसित हुई । हेमचन्द्र का समय १०८८ ई० से ११७२ ई० था। अतः १२वीं शताब्दी में हिन्दी का जन्म माना जाना चाहिये । भाषा के लिये “हिन्दी" संज्ञक प्रयोग सर्वप्रथम "सियरूल ओलिया" में मिलता है। यह एक फारसो पुस्तक है। इसके लेखक मौलाना सय्यद मबारक ने शेख फरीदुद्दीन शकरगंज (११७३ ई० से १२६५ ई०) के सम्बन्ध में एक घटना के वर्णन में 'हिन्दी" शब्द का प्रयोग किया है। बाद में अमीर खुसरो ने अपनी कई रचनाओं में भारतीय भाषाओं के लिये "हिन्दुई" शब्द का प्रयोग किया। (ब) मध्यकाल : १३वीं से १६वीं शताब्दी तक विभिन्न भाषाओं के साहित्य में वृद्धि हुई । इस काल में ग्रन्थों का प्रतिलिपिकरण, भाष्य, टीकायें, बालावबोध आदि भी सृजित हुये । (१) प्राकृत भाषा साहित्य एवं साहित्यकार: १. जिनप्रभसूरि-ये दिल्ली के सुलतान मुहम्मद तुगलक के समकालीन व विलक्षण प्रतिभा के धनी थे। श्रीमालवंशीय, लाडनू निवासी, जिनप्रभसूरि ने १२६९ ई० में जैन दीक्षा ग्रहण कर, १२८४ ई० में जिनसिंह से आचार्य पद प्राप्त किया। इन्होंने अहिछत्रपुर, सत्यपुर, फलौधी इत्यादि में विहार करके "विविध तीर्थ कल्प'४ नामक प्राकृत साहित्य का एक सुन्दर ग्रन्थ लिखा। इसके अतिरिक्त “कातंत्रविभ्रम वृत्ति", "श्रेणिक चरित्र", "द्वयाश्रय काव्य", "विधिमार्गप्रपा' आदि अनेक ग्रन्थ लिखे । अगरचन्द नाहटा के अनुसार इन्होंने संस्कृत, प्राकृत देश्यभाषा के लगभग ७०० स्तोत्र १. वर्मा, रामकुमार, हिन्दी साहित्य का आलोचनात्मक इतिहास । २. द्विवेदी, हिन्दी साहित्य, पृ० १६ । ३. गणपति चन्द्रगुप्त, हिन्दी साहित्य का वैज्ञानिक इतिहास, पृ० १०९ । ४. सिजैसी, बम्बई से प्रकाशित । . Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन साहित्य एवं साहित्यकार : ३५१ . बनाये । कुछ स्तोत्र फारसी भाषा में भी लिखे । वर्तमान में इनके ७५ स्तोत्र उपलब्ध हैं। २. ठक्कर फेरू-१३वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में प्राकृत ग्रन्थकारों में इनका महत्त्वपूर्ण स्थान है । ये धंधुक कुल के कलश श्रेष्ठी के पुत्र व कन्नाणपुर निवासी थे । ये अलाउद्दीन खिलजी के खचांजी भी रहे । इनके “वास्तुसार", "गणितसार कौमुदी', "ज्योतिस्सार" आदि ग्रन्थ प्राकृत में हैं । इनके वंश के आधार पर इन्हें राजस्थान का माना जाता है। ३. नेमिचंद्र भण्डारी-जिनपति सूरि के विद्वान् श्रावक नेमिचन्द्र ने प्राकृत में "षष्टिशतक प्रकरण", "जिनवल्लभ सूरि गुणवर्णन", "पार्श्वनाथ स्तोत्र" आदि रचनाएँ लिखीं । ये मरुकोट के रहने वाले थे। इनका समय १२वीं, १३वीं शताब्दी माना जाता है। ४. गुण समृद्धि महत्तरा-ये राजस्थान के प्राकृत साहित्यकारों में एकमात्र महिला ‘एवं साध्वी लेखिका थीं, जो जिनचन्द्र सूरि की शिष्या थीं। इन्होंने १३५० ई० में जैसलमेर में ५०४ गाथाओं में "अंजना सुन्दरी चरित" की रचना की थी। ५. जिनहर्षगणि-इन्होंने १५वीं शताब्दी में चित्तौड़ में "रत्नशेखरी कथा" गच. पद्य में लिखी थी। इसमें संस्कृत एवं अपभ्रंश पद्य भी मिलते हैं । यह प्राकृत की सुन्दर प्रेम कथा है । जायसी कृत “पद्मावत” को इसका पूर्व रूप कह सकते हैं। इन्होंने "वस्तुपाल तेजपाल चरित्र" भी लिखा ।" ६. रत्नशेखर सूरि-ये नागपुरीय तपागच्छ से सम्बन्धित थे। अतः इनका कार्यक्षेत्र राजस्थान भी रहा होगा । ये १५वीं शताब्दी के विद्वान् थे । इन्होंने “छन्दकोष" की रचना की । कई प्राकृत छन्दों के लक्षण इस ग्रन्थ में वर्णित हैं। ७. कवि राजमल्ल-इन्होंने १६वीं शताब्दी में "छन्दोविद्या" की रचना राजा भारमल्ल के लिये की थी। भारमल्ल श्रीमाल वंशीय एवं नागौर का संघाधिपति था । अतः ये कवि राजस्थान से सम्बन्धित थे । ८. जिनभद्र सूरि (१३९२ ई०-१४५७ ई.)-ये खरतरगच्छीय जिनराजसूरि के १. राजैसा, पृ० ४२ । २. जैसासइ, ५, पृ० २४२ । ३. जिनचन्द्र स्मृग । ४. जैसलमेर भण्डार को ग्रन्थ सूची, पृ० ४९ । ५. जैसासइ, पृ० ३६० । ६. शाह, जैसाबृइ, ५, पृ० २०२-२०३ । Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५२ : मध्यकालीन राजस्थान में जैनधर्म शिष्य थे। इन्होंने विभिन्न स्थानों पर ज्ञान भण्डार स्थापित किये। ये संस्कृत व प्राकृत के विद्वान् थे । 'जिनसत्तरी" इनकी प्रमुख प्राकृत रचना है।' ९. भट्टारक जिनचंद्र-भट्टारक शुभचन्द्र के शिष्य जिनचन्द्र १६वीं शताब्दी के प्रसिद्ध दिगम्बर जैन सन्त थे । इनकी प्राकृत रचना "सिद्धान्तसार" है। १०. मुनि हीरकलश-१५६४ ई० में नागौर में इन्होंने "ज्योतिस्सार" की रचना प्राकृत में की। इस ग्रन्थ की प्रति बम्बई के माणिक चन्द्र भण्डार में है। ११. भट्टारक शुभचंद्र-ये बलात्कारगण से सम्बन्धित, सागवाड़ा के भट्टारक थे। ये जिनभषण के शिष्य थे। इन्होंने "शब्द चिन्तामणि" नामक प्राकृत व्याकरण लिखी। "अंगपण्णति" भी इनकी एक अन्य प्रसिद्ध रचना है। इनका समय १६वीं शताब्दी माना जाता है। इनके अतिरिक्त, नयरंग, जयसोम आदि भी इस काल के प्रमुख प्राकृत कवि थे। इन शताब्दियों को अन्य रचनाएँ-दिवाकर दास की "गाथाकोष सप्तशती", व अन्य रचनाकारों की "विधिकंदली", "अंगुल सत्तरी" आदि भी उपलब्ध होती हैं। (२) अपभ्रंश साहित्य एवं साहित्यकार: १. विनयचंद्र सूरि-१३वीं शताब्दी में विनयचन्द्र नाम के दो अपभ्रश के कवि हुए हैं। इन्होंने "नेमिनाथ चतुष्पदिका" लिखी, जिसको प्रति जैसलमेर भण्डार २. पं० लाख (लक्खण)- इनके द्वारा १२१८ ई० में विरचित "जिनदत्त चरिउ" अपभ्रंश के कथाकाव्यों में एक उत्तम रचना मानी जाती है। ये जायसवाल वंशीय तथा त्रिभुवनगिरि के निवासी थे। इनकी प्रारम्भिक रचना 'चंदनछठ्ठी कहा" है, जो एक इतिवृत्तात्मक लघुकाय रचना है । इनकी एक और रचना १२५६ ई० में रचित "अणुव्रत प्रदीप" भी ज्ञात हुई है। ३. मुनि विनय चंद्र-मुनि विनयचन्द्र ने "चूनडी रास" नामक अपभ्रंश काव्य की रचना त्रिभुवनगढ़ में अजयनरेन्द्र के विहार में बैठकर की थी। त्रिभुवनगढ़ या त्रिभुवनगिरि, तहनगढ़ ही है, जहाँ पर १३वीं शताब्दी में यादववंशी कुमारपाल का १. राजैसा, पृ० ४४। २. राभा, ३, अंक २ । ३. शाह, जैसावृइ, ५, पृ० १८६ । ४. राजैसा, पृ० ५०। ५. प्रेम सुमन, जैसरा, पृ० २३० । ६. राजैसा, पृ० १४६ । Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन साहित्य एवं साहित्यकार : ३५३ राज्य था । इस रास में ३२ पद्य हैं । इसके अतिरिक्त इनकी " णिज्झर पंचमी कहारासु" भी उपलब्ध है । इनका रचना काल १२वीं या १३वीं शताब्दी अनुमानित है ।" ४. अमर कीर्ति - ये १३वीं शताब्दी के विद्वान् थे । इनकी "चक्कम्मोवएस" एवं " पुरन्दर विधान कथा" अपभ्रंश कृतियाँ, आमेर शास्त्र भण्डार में उपलब्ध हैं । इनके ग्रन्थों में " गोदहयनगर " एवं "महियड” नामक स्थानों का उल्लेख है, जो पश्चिमी भारत के नगर थे । अतः इनका कार्यक्षेत्र राजस्थान भी रहा होगा ।" ५ जिनप्रभ सूरि- इन्होंने अपभ्रंश में " नाणप्पयास" की रचना की । यह कृति " कुलक" नाम से भी प्रसिद्ध है । इनकी अपभ्रंश की दूसरी कृति " धम्माधम्मविचार " है । इन्होंने "सावगविहि" नाम की एक रचना भी की, जो दोहा छंद में अपभ्रंश के ३२ पद्यों की है । इन्होंने मुहम्मद तुगलक को भी अपनी प्रतिभा से प्रभावित किया था, अतः इनका समय १४वीं शताब्दी होना चाहिये । ३ 首 ६. कवि हरिचंद - पं० परमानन्द शास्त्री के अनुसार कवि का नाम "हल्ल" या "हरिइन्द" अथवा हरिचंद था । इनका " वड्ढमाण कव्व" या "वर्धमान काव्य" लगभग १५वीं शताब्दी की रचना है । इसका रचनास्थल राजस्थान में ही था । इनके गुरु पद्मनन्दि थे । ४ , - ७. ब्रह्म बूचराज – इनका एक नाम " वल्ह" भी था । ये मूलतः राजस्थानी कवि थे । इनकी रचनाओं में इनके बूचा, वल्ह, वील्ह व वल्हव आदि नाम भी मिलते हैं । ये भट्टारक विजयकीर्ति के शिष्य थे । १५२५ ई० में इन्हें चंपावती (चातसू) में " सम्यकत्व कौमुदी" की प्रति भेंट की गई थी, अतः ये राजस्थान से अवश्य सम्बद्ध रहे होंगे । प्राप्त रचनाओं के आधार पर इनका काल १४७३ ई० से १५४३ ई० तक माना जाता है । ब्रह्मचारी होने के कारण इनका ब्रह्म विशेषण प्रसिद्ध हो गया । इनको ८ रचनाओं में से "मयणजुज्झ" ही अपभ्रंश रचना है, जो इन्होंने १५३२ ई० में समाप्त की थी । इस कृति की प्रतियाँ राजस्थान के कई शास्त्र भण्डारों में मिलती हैं ।" ८. ब्रह्मसाधारण - ये राजस्थानी संत, भट्टारक नरेन्द्र कीर्ति के शिष्य थे । पहले ये पं० साधारण के नाम से प्रसिद्ध थे, किन्तु ब्रह्मचारी रहने के कारण इनके नाम के साथ "ब्रह्म" विशेषण जुड़ गया । इन्होंने १५वीं, १६वीं शताब्दियों में अपभ्रंश भाषा में निम्न ९ रचनाएँ लिखीं- "कोइलपंचमी कहा", "मउडसप्तमी कहा", " रविवय कहा ", १. राजैसा, पृ० १४७ । २. वही । ३. जैसरा, पृ० २३० । ४. जैग्रप्रस, पृ० ८६ । ५. राजैसंत, पृ० ७१ । २३ Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५४ : मध्यकालीन राजस्थान में जैनधर्म "तियाल चउवीसी कहा", "सुमंजलि कहा ", निवसिसत्तमी वय कहा ", " णिज्झर पंचमी कहा ", " अणुवेवखा", "दुद्धारमि कहा " ।" ९. तेजपाल – ये खण्डेलवाल जातीय थे एवं अपभ्रंश के सुख्यात कवि थे । इन्होंने स्वयं को " वासनपुर " का निवासी बताया है । इनको ३ कृतियाँ उपलब्ध हैं । प्रथम "पासणाह चरिउ " १४५८ ई० की रचना है । इसकी एक पांडुलिपि अजमेर के शास्त्र भण्डार में है । दूसरी "संभवणाह चरिउ " है, जिसकी रचना श्रीमन्त नगर में सम्पन्न हुई थी । तीसरी कृति "वरांगचरिउ" है, जिसका काल १४५० ई० है | १०. महाकवि रद्दधू :- ये मध्यकालीन अपभ्रंश कवियों में सर्वाधिक लोकप्रिय कवि हैं । रचनाओं की संख्या की दृष्टि से भी इनका अपभ्रंश साहित्य में सर्वोपरि स्थान है । डॉ० राजाराम जैन ने इनकी ३५ अपभ्रंश कृतियों का उल्लेख किया है । इनकी रचनाओं में जन्मस्थान के बारे में कोई जानकारी नहीं मिलती है । राजाराम जैन के अनुसार इनका जन्म पंजाब एवं राजस्थान के सीमांत से लेकर ग्वालियर के बीच तक का कोई स्थान होना चाहिये । डाँ० कासलीवाल ने इनका जन्म स्थान धौलपुर माना है । सम्भव है, वयस्क होने के उपरान्त इन्होंने अपना निवास स्थान बदल लिया हो । जयपुर, अजमेर, नागौर, मौजमाबाद आदि स्थानों के ग्रन्थ संग्रहालयों में कवि की निम्न कृतियाँ संग्रहीत हैं- " मेहेसर चरिउ", "जीवंधर चरिउ", "पउम चरिउ", "हरिवंश पुराण", "पज्जुण चरिउ ", "पासणाह पुराण", "सम्मतगुण निधान", " जसहर चरिउ", "घण्णकुमार चरिउ ", " पुण्णासव कहा कोसु”, “सुकोमल चरिउ", " सम्मइजिण चरिउ ", " सिरिवाल कहा", "सिद्धान्तार्थ सार", "सांतिणाह चरिउ", "अप्यसंबो हकन्त्र", "सम्मत्तकउमुदो", "णेमिगाह चरिउ", "करकंडु चरिउ”, " दशलक्षण जयमाल ", " षोडषकारण जयमाल", "भवोसयत्त चरिउ" । ११. यशकीर्ति :- १५वीं शताब्दी के अपभ्रंश कवियों में इनका भी महत्त्वपूर्ण स्थान है । इन्होंने १४४० ई० में "हरिवंश पुराण", तथा १४४३ ई० में "पांडव - पुराण" की रचना की थी । "पांडव पुराण" नागौर में तथा "हरिवंश पुराण" जलालखों के राज्य में इन्द्रपुर में लिखा गया । इन दोनों ग्रन्थों की पांडुलिपियाँ आमेर और नागौर के शास्त्र भण्डारों में उपलब्ध हैं । १२. कवि ठक्कुर : ये १५वीं - १६वीं शताब्दी के अपभ्रंश तथा हिन्दी भाषा के १. राजसंत पृ० ७१ । २. वही । ३. राजाराम जैन, रइबू साहित्य का आलोचनात्मक परिशीलन, पृ० ४८ । ४. जैभरा, पृ० १४० । Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जन साहित्य एवं साहित्यकार : ३५५ कवि थे | ये अजमेरा गोत्रीय खण्डेलवाल एवं चातसू निवासी थे । इनका रचनाकाल १५२१ ई० से १५२८ ई० माना गया है । इन्होंने १५२१ ई० में " पारस श्रवण सत्ताइसी” की रचना की, जो ऐतिहासिक विवरण से सम्पन्न है । इनके अतिरिक्त" जिन चउवीसी", "कृपण चरित्र" ( १५२३ ई०), "पंचेंद्रिय बेलि" ( १५२८ ई० ) और "नेमिश्वर बेलि" आदि रचनाएँ भी निबद्ध कीं । डॉ० कासलीवाल ने कवि की उपलब्ध ९ रचनाओं का उल्लेख किया है ।" इनमें से " मेघमाला व्रत कथा" और "चितामणि जयमाल" अपभ्रंश की हैं। इन रचनाओं के आधार पर कवि का रचना काल १५१८ ई० से १५३३ ई० भी माना गया है । १३. शाह ठाकुर : - अपभ्रंश में निबद्ध इनकी " शांतिनाथ चरित्र" नामक रचना मिलती है । यह प्रबन्ध काव्य १५९५ ई० में जलालुद्दीन बादशाह अकबर के शासनकाल में ढूंढाड़ देश के कच्छपवंशी राजा मानसिंह के काल में लिखा गया था 13 ये खंडेलवाल जाति के और लुहाड़िया गोत्र के थे । इनके गुरु अजमेर शाखा के विद्वान् भट्टारक सकलकीर्ति थे । ४ १४. मुनि महनन्दी :- ये भट्टारक वीरनन्दी के शिष्य थे । इनकी एकमात्र अपभ्रंश कृति “ बारक्खड़ी" या " पाहुडदोहा " उपलब्ध हुई है । इनकी १६३४ ई० की लिखित एक पांडुलिपि तेरहपंथी बड़े मन्दिर, जयपुर में क्रमांक १८२५, वेष्ठन संख्या १६५३ ई० में मिलती हैं । कहीं-कहीं इनका नाम महमंद ( महीचंद ) भी मिलता है ।" १५. दामोदर : - इन्होंने स्वयं को मूल संघ सरस्वती गच्छ और बलात्कार गण के भट्टारक प्रभाचन्द, पद्मनन्दि, शुभचन्द्र, जिनचन्द्र की परम्परा का बतलाया है । चूँकि जिनचन्द्र का राजस्थान से घनिष्ठ सम्बन्ध था, अतः ये भी राजस्थान से संबद्ध माने जा सकते हैं । इनकी कृतियाँ "सिरिपाल चरिउ", " चन्दप्पचरिउ" तथा "णेमि - णाह चरिउ" उपलब्ध होती हैं । द्वितीय कृति की एकमात्र पांडुलिपि नागौर के शास्त्र भण्डार में है । (३) संस्कृत साहित्य एवं साहित्यकार : १३वीं से १६वीं शताब्दी के मध्य विभिन्न दिगंबर एवं श्वेताम्बर मुनियों के द्वारा विपुल संस्कृत साहित्य सृजित किया गया । आचार्यों एवं उनकी कृतियों का विवरण निम्न है : :--- १. अने० १६, किरण ४, पृ० १७० - १७१ । २. राजैसा, पृ० १४८ । ३. जैग्रप्रस, पृ० १३० । ४. वही, पृ० १३०-१३१ । ५. राज संत, पृ० ७५ । जैसरा, पृ० २३१ | ६. Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५६ : मध्यकालीन राजस्थान में जैनधर्म १. लक्ष्मोतिलकोपाध्याय (१२१८ ई०-१२८३ ई०) :-ये खरतरगच्छीय जिनेश्वर सूरि द्वितीय के शिष्य थे । १२३१ ई० में दीक्षित होकर, १२५५ ई० में वाचनाचार्य एवं १२६० ई० में जालौर में उपाध्याय पद प्राप्त किया। इन्होंने अभयतिलक रचित कई ग्रन्थों का संशोधन किया। इनकी प्रमुख रचनाएँ “प्रत्येक बुद्धचरित्र" महाकाव्य' ( १२५४ ई० ) और १२६० ई० में जालौर में रचित "श्रावक धर्म वृहद् वृत्ति" हैं। २. अभयतिलकोपाध्याय :-ये खरतरगच्छीय जिनेश्वर सूरि द्वितीय के शिष्य थे। इनका समय १३वीं शताब्दी रहा । १२३४ ई० में जालौर में दीक्षा व १२६२ ई० में उपाध्याय हुए। ये न्याय और काव्यशास्त्र के प्रौढ़ विद्वान् थे। इनकी प्रमुख रचनाएँहेमचन्द्रीय संस्कृत "द्वयाश्रय काव्य" पर टीका (१२५५ ई० )३ "पंचप्रस्थान", "न्याय तर्क व्याख्या", "पानीयवाद स्थल" आदि हैं।४ ३. आचार्य जयसेन :-ये आचार्य वीरसेन के प्रशिष्य थे। इन्होंने भी "समयसार", "प्रवचनसार", "पंचास्तिकाय", पर संस्कृत टीकाएँ लिखीं। शास्त्र भण्डारों में इन टीकाओं की एकाधिक प्रतियां मिलती हैं। रचनाओं में समयोल्लेख नहीं है । विभिन्न प्रमाणों के आधार पर इनका समय १३वीं शताब्दी का पूर्वाद्ध माना जाता है । ४. बाशाधर :-ये मूलतः मांडलगढ़ ( मेवाड़ ) के निवासी थे। १२९२ ई० में शहाबुद्दीन गोरी के आक्रमण के समय ये धारानगरी में जाकर बस गये । वहाँ से भी कुछ समय पश्चात् ये नालछा चले गये, जहां इन्होंने अनेक ग्रन्थ व उनकी टीकाएं लिखीं। आवाधर संस्कृत के महापंडित तथा न्याय, व्याकरण, काव्य, अलंकार, शब्दकोष, धर्मशास्त्र, योगशास्त्र और वैद्यक आदि विषयों पर पूर्ण अधिकार रखते थे। इनकी विभिन्न रचनाओं का उल्लेख मिलता है, जिसमें से ११ उपलब्ध है-"प्रमेयरत्नाकर", "भरतेश्वराभ्युदय"", "ज्ञानदीपिका", "राजमतीविप्रलंभ", "अध्यात्मरहस्य", "मूलाराधना टीका", 'इष्टोपदेश टीका", "भूपाल चतुर्विशति टीका", "आरा १. जैसलमेर भंडार की ग्रन्थ सूची, पृ० २३ । २. राजैसा, पृ० ६४ । ३. जैसासइ, पृ० ४१० । ४. राजैसा, प ६५ । ५. कासलीवाल, राजसा, पृ० ९९ । ६. वही, पृ० ९९-१०१ । ७. वही, पृ० १००। ८. जैसाऔइ, पृ० १३४-१३५ । ९. वही। Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन साहित्य एवं साहित्यकार : ३५७ धनासार टोका", "अमरकोष टीका", "क्रियाकलाप टीका"', “काव्यालंकार टीका", "जिनसहस्त्र नाम", "जिनपंजरकाव्य" ( १२२८ ई०), "त्रिषष्ठि स्मृति शास्त्र"४ (१२३५ ई०), "रत्नत्रयविधान" (१२२५ ई०), "सागर धर्मामृत टीकासह" ( १२३९ ई०), "अनगार धर्मामृत", "भव्य कुमुद चन्द्रिका टीका सह" ( १२४३ ई०)। इनके अतिरिक्त इन्होंने "सिद्धचक्रपूजा", "दीक्षापटल", "प्रतिष्ठा सार", "जिनकल्याणमाला", "पंचकल्याणकमाला", "स्वास्तिमंगल विधान", 'अंकुरारोपण विधि" की भी रचना की । आशाधर रचित "त्रिभंगी सुबोधिनी" टीका को २ प्रतियां जयपुर के दिगम्बर जैन मन्दिर लश्कर के शास्त्र भण्डार में संग्रहीत हैं। इन्होंने "शांतिनाथ पुराण" की भी रचना की। इनके द्वारा रचित "अमरकोष टीका",' तथा वाग्भट के कार्य पर लिखी गई “अष्टांगहृदय धोतिनी टीका' दोनों अनुपलब्ध है ।१० ५. वागभट्ट :-वागभट्ट नाम के अनेक विद्वान हुए हैं। ये अहिछत्रपुर के रहने वाले प्राग्वाट छाहद के पुत्र थे।११ ये १३वीं शताब्दी के विद्वान थे। इनके द्वारा रचित "छन्दोनुशासन' एवं ''काव्यानुशासन'' कृतियाँ ज्ञात हुई हैं। "नेमिनिर्वाण" नामक रचना भी इनके द्वारा लिखित बताई जाती है। इन्होंने अनेकों सूत्रों की व्याख्या के रूप में "काव्यमाला" की भी रचना की ।१२। ६. भट्टारक प्रभाचन्द्र :-ये धर्मचन्द्र के प्रशिष्य और रत्नकीर्ति के शिष्य थे। ये तुगलक वंश के समकालीन थे। अजमेर इनकी गादी तथा राजस्थान, दिल्ली एवं उत्तर प्रदेश कार्यक्षेत्र था। इन्होंने “समाधि तन्त्र" तथा अमृतचन्द्र के “आत्मानुशासन" पर संस्कृत में टीकाएँ लिखीं, जो लोकप्रिय रहीं। इनका काल सम्भवतः १३वीं शताब्दी १. जैसाऔइ, पृ० १३५ ।। २. वही, पृ० १३६ । ३. वही, पृ० १३५ । ४. वही, पृ० १३६ । ५. वही, पृ० १३४-१३६ । ६. वही, पृ० १३४-३५ । ७. राजशाग्रसू, ५, पृ० २० । ८. वही, पृ० २५ । ९, जैसाऔइ, पृ० १३५ । १०. वही, पृ० १३६ । ११. वही, पृ० ४८३ । १२. वही, पृ० ४८६ । Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५८ : मध्यकालीन राजस्थान में जैनधर्म था। इन्होंने “समयसार" पर भी टीका लिखी, जिसकी एकमात्र प्रति भट्टारकीय दिगम्बर जैन मन्दिर, अजमेर में है। ७. जिनेश्वर रि द्वितीय :-ये खरतरगच्छ के थे। इन्होंने १२६० ई० में जालौर में "श्रावक धर्मविधि स्वोपज्ञ टीका" की रचना की। ८. सर्वदेवसरि :-ये भी खरतरगच्छ के मुनि थे। इन्होंने १२३० ई० में जैसलमेर में "स्वप्न सप्तति टोका" की रचना की । ९. पूर्णभद्रगणी :--ये खरतरगच्छ से सम्बन्धित थे। इन्होंने १२२८ ई० में जैसलमेर में “धन्यशालिभद्र चरित्र" की रचना की ।" "अतिमुक्त कथा चरित्र" और "कृतपुण्य चरित" इन्हीं की अन्य रचनाएँ हैं। १०. जिनप्रभसूरि ( १२६९ ई०-१३३६ ई० )--ये लघु खरतरगच्छ शाखा से सम्बन्धित थे और जिनसिंह सूरि के शिष्य थे । ये महम्मद तुगलक के प्रतिबोधक धर्मगुरु तथा महाप्रभावी एवं चमत्कारी आचार्य रहे। इनकी प्रमुख रचनाएँ इस प्रकार हैं "श्रेणिक चरित्र" (द्वयाश्रयकाव्य, १२९९ ई०), "कल्पसूत्र सन्देह विषौषधि टीका" ( १३०७ ई० ), "साधु प्रतिक्रमण सूत्र टीका' ( १३०७ ई० ), “षडावश्यक टीका", "अनुयोग चतुष्टय व्याख्या", "प्रव्रज्याभिधान टीका", "विधि मार्ग प्रथा" ( १३०६ ई०), 'कातन्त्रविभ्रम टोका” ( १२९५ ई० ), "अनेकार्थ संग्रह टीका", "शेष संग्रह टोका", "विदग्ध मुख मंडन टोका" ( १३११ ई०), "गायत्री विवरण" "मूरिमंत्र वृहत्कल्प विवरण", "रहस्य कल्पद्रुम" और "विविध तीर्थ कल्प"६ आदि ग्रन्थ । स्तोत्र साहित्य में इनके लगभग ८० स्तोत्र प्राप्त हैं । “विविध तीर्थ कल्प" तीर्थों के इतिहास के बारे में अभूतपूर्व, मौलिक एवं ऐतिहासिक तथ्यों से परिपूर्ण रचना है । ११. जिनकुशल सरि ( १२८० ई०-१३३२ ई० ):-श्वेताम्बर समाज में तीसरे दादाजी के नाम से प्रसिद्ध, खरतरगच्छीय जिनचन्द्र सूरि के शिष्य, छाजहड़ गोत्रीय, जिनकुशल १२८० ई० में सिवाना में उत्पन्न हये और १३१८ ई० में नागौर में वाच १, राजैसा, पृ० १०२ । २. राजशाग्रसू, ५, पृ० २३ । ३. राजैसा, पृ० ७४.८२ । ४. राभा, ३, अंक २। ५. जैसलमेर भण्डार के ग्रन्थों की सूची, पृ० ३ एवं ३४ । ६. राजैसा. पृ० ६५, सिजैसी, क्र. १०। ७. वही । Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन साहित्य एवं साहित्यकार : ३५९ नाचार्य पद प्राप्त किया। १३२६ ई० में बाड़मेर में रचित "चैत्यवंदनकुलक वृत्ति" इनकी मुख्य कृति है । इनके द्वारा विरचित कई स्तोत्र भी प्राप्त हैं।' १२. अभयदेव सूरि :-ये रुद्रपल्लीय शाखा से सम्बन्धित थे । इन्होंने १२२१ ई० में "जयन्त विजय" महाकाव्य की रचना की। १३. सोमतिलक सरि :-ये भी रुद्रपल्लीय शाखा से सम्बन्धित थे। इनकी प्रमुख रचनाएँ--''शीलोपदेश माला टीका" १३३५ ई०, “षड्दर्शन समुच्चय टीका" १३३५ ई०, 'कन्यानयन तीर्थ कल्प" आदि हैं। १४. संघतिलक सूरि :--रुद्रपल्लीय शाखा से सम्बन्धित इन आचार्य की प्रमुख रचनाएँ--"सम्यक्त्व सप्तति टीका" १३६५ ई०, 'कुमारपाल प्रबन्ध" १३९७ ई० व "ख्यिान टीका" आदि हैं। १५. दिवाकराचार्य :-ये रुद्र पल्लीय शाखा के मुनि थे। इनकी १४वीं शताब्दी में विरचित "दानोपदेशमाला" उपलब्ध होती है।" १६. देवेन्द्र सूरि :-ये भी रुद्रपल्लीय शाखा से सम्बद्ध थे। इनकी प्रमुख रचनाएँ-"दानोपदेशमाला टीका" १३६१ ई०, "प्रश्नोत्तर रत्नमाला टीका" १३७२ ई०, "नवपद अभिनव प्रकरण टीका" १३९५ ई० आदि हैं। १७. चन्द्र तिलक :-इन्होंने १२५५ ई० में "अभयकुमार चरित्र" की रचना बाड़मेर में प्रारम्भ की। १८. विवेकसमुद्र :-इन्होंने १२७७ ई० में "नरवर्मचरित" एवं "पुण्य सागर कथा" की रचना जैसलमेर में की । ... १९. नयचन्द्र सूरि :-इन्होंने संभवतः १३वीं शताब्दी के अन्त में "हम्मीर महाकाव्य' की रचना राजस्थान में की। यह कथात्मक एवं ऐतिहासिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है। १. राजैसा, पु० ६५; सिसी क्र०१०। २. राजैसा, पु०७२। ३. वही। ४. वही। ५. वही। ६. वही। ७. जैसासइ, पृ० ४११ । ८. वही, पृ० ४१५ । ९. नाहटा, राजस्थानी साहित्य की गौरवपूर्ण परम्परा, पृ० ३५।। Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६० : मध्यकालीन राजस्थान में जैनधर्मं २०. भट्टारक पमनन्दि :- ये प्रभाचन्द्र के मुख्य शिष्य थे और १३२८ ई० में भट्टारक बने । इन पर सरस्वती की असीम कृपा थी । कहा जाता है कि इन्होंने सरस्वती की पाषाण प्रतिमा को मुख से बुलवा दिया था इनका कार्यक्षेत्र चित्तौड़ मेवाड़, बून्दी नैनवा, टोंक, झालावाड़ आदि थे । ये संस्कृत के प्रकांड विद्वान् थे । । शास्त्र भण्डारों में इनकी कई रचनाएँ उपलब्ध होती हैं ।" इनमें से कुछ निम्न हैं"पद्मनन्दी श्रावकाचार", "अनन्तव्रतकथा ", " वर्धमान चरित्र" २ " द्वादशव्रतोद्यापन पूजा", "पार्श्वनाथ स्तोत्र", "नंदीश्वर भक्ति पूजा", "लक्ष्मी स्तोत्र", " वीतराग स्तोत्र", "श्रावकाचार टीका '3, "देवशास्त्र गुरुपूजा", "रत्नत्रय पूजा”, “भावना चौबीसी", "परमात्मराज स्तोत्र", "सरस्वती पूजा", "सिद्धपूजा", 'शांतिनाथ स्तवन", "जीरावला पार्श्वनाथ स्तवन", "भावना पद्धति" आदि । २१. तरुण प्रभाचार्य :- ये खरतरगच्छ से सम्बन्धित थे । इन्होंने १४ वीं शताब्दी में जैसलमेर में " जैसलमेर पार्श्व स्तवन" की रचना की" । २२. जिनवर्द्धन सूरि :- ये खरतरगच्छीय जिनराज सूरि के शिष्य और १५वीं शताब्दी के आचार्य थे। इनका कार्यक्षेत्र जैसलमेर और मेवाड़ था । इन्होंने “ सप्तपदार्थी टीका" १४१७ ई०, " वाग्भटालंकार टीका", "प्रत्येक बुद्धचरित्र", और " सत्यपुरमंडन महावीर स्तोत्र" की रचना की । २३. जिनभद्र सूरि : ये खरतरगच्छीय जिनराज सूरि के शिष्य थे । इन्होंने जैसलमेर, जालौर, देवगिरि, नागौर, पाटण, मांडवगढ़, आशापल्ली, कर्णावती, खंभात आदि स्थानों पर शास्त्र भण्डार स्थापित किये थे। इनकी प्रमुख कृतियाँ - " सूरि मंत्रकल्प", "शत्रु ंजय लघुमाहात्म्य", तथा कई स्तोत्रादि हैं । संस्कृत रचना " अपवर्ग नाममाला कोष" भी है । " इनकी एक अन्य २४. जघसागरोपाध्याय (१३९३ ई०-१४५८ ई० ) :- ये खरतरगच्छीय जिनराज सूरि के शिष्य थे । इनका कार्यक्षेत्र जैसलमेर, आबू, गुजरात, सिंघ, पंजाब व हिमाचल १. कासलीवाल, राजसा, पृ० १०३ । २. जैग्रप्रस, पृ० २१ । ३. वही, पृ० १४ । ४. राजेसा, पृ० १०२ । " ५. वही, पृ० ७२ । ६. वही, पृ० ६५ । ७. वही, पृ० ६६ । ८. जैग्रग्र, पृ० १६ । Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन साहित्य एवं साहित्यकार: ३६१ रहा । इन्होंने सहस्त्रों स्तुति स्तोत्रों की रचना की । इनकी मुख्य कृतियाँ निम्न हैं" विज्ञप्ति त्रिवेणी" १४२७ ई०, " पृथ्वीचन्द्र चरित्र" १४४६ ई०, "जैसलमेर शांतिनाथ जिनालय प्रशस्ति" १४३६ ई०, " संदेह दोहावली टीका", "गुरुपारतन्त्र्य स्तोत्र टीका", "भावारिवारण स्तोत्र टीका " एवं अनेकों स्तोत्र | " विज्ञप्ति त्रिवेणी" एक ऐतिहासिक विज्ञप्ति पत्र है, जिसमें कई तीर्थों का दुर्लभ विवरण अंकित है ।" २५. कीर्तिरत्न सूरि (१३९२ ई०-१४६८ ई० ) :- ये खरतरगच्छीय जिनवर्द्धन सूरि के शिष्य थे । इनकी विशिष्ट रचना "नेमिनाथ महाकाव्य" है 12 २६. भट्टारक सकलकीर्ति :- ये अनहिलपुर पट्टन निवासी हुम्मड़ जातीय थे । नैणवा में इन्होंने पद्मनन्दी का शिष्यत्व ग्रहण किया था। इनका प्राकृत एवं संस्कृत दोनों पर समान अधिकार था । राजस्थान के विभिन्न ग्रन्थ भण्डारों में अभी तक इनकी निम्न संस्कृत रचनाएँ उपलब्ध हुई हैं- "मूलाचार प्रदीप", "प्रश्नोत्तरोपासकाचार" "आदिपुराण", "उत्तरपुराण", "शांतिनाथ चरित", "वर्धमान चरित्र", "मल्लिनाथ चरित्र ", " यशोधर चरित्र", "धन्यकुमार चरित्र", "सुकुमाल चरित्र" " सुदर्शन चरित्र", " सद्भाषितावली", "पार्श्वनाथ चरित्र", 'व्रतकथाकोष", "नेमिनाथ चरित्र", "" कर्म विपाक", "तत्त्वार्थं सार दीपक", "सिद्धान्तसार दीपक", १४२५ ई०, " आगमसार”, “परमात्मराज स्तोत्र", "सारचतुर्विंशतिका", "श्रीपाल चरित्र", "जम्बूस्वामी चरित्र", " द्वादशानुप्रेक्षा", " अष्टाह्निका पूजा", "सोलहकारण पूजा", "गणधरवलय पूजा", "भावनापंचविंशति व्रत कथा", आदि । 3 २७. वाडव : ये श्वेताम्बर अंचलगच्छीय उपासक श्रावक थे व विराट नगर के 'निवासी थे । ये संस्कृत व जैन साहित्य के सफल टीकाकार व १५वीं शताब्दी के प्रौढ़ विद्वान थे । इन्होंने अनेकों ग्रन्थों पर टीकाएँ लिखीं, जिनमें से बहुत सी प्राप्त नहीं हैं। इनकी एकमात्र अपूर्ण कृति " वृत्तरत्नाकर अवचूरि" मुनि विनय सागर के व्यक्तिगत संग्रह में है । इसकी प्रशस्ति के अनुसार वाडव ने निम्नलिखित ग्रन्थों पर अवचूरियाँ लिखी — “कुमारसंभव”, "कल्याणमंदिर स्तोत्र", "मेघदूत", "रघुवंश", "मात्र", "किरातार्जुनीय", "भक्तामर स्तोत्र", "पार्श्वनाथ स्तोत्र", "जीरापल्ली पार्श्वनाथ स्तोत्र", "त्रिपुरा स्तोत्र", "वृत्तरत्नाकर ", " वाग्भटालंकार", "विदग्ध मुखमंडन", " योग शास्त्र", " वीतराग स्तोत्र" आदि । इन कृतियों की खोज की आवश्यकता है ।* १. राजैसा, पृ० ६७ ॥ २. जैसासइ, पृ० ४७१ । ३. राजेसा, १०३ - १०४ । ४. वही, पृ० ६६ । Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .३६२ : मध्यकालीन राजस्थान में जैनधर्म २८. चरित्र वर्द्धन ( १४१३ ई०-१४६३ ई० ) :-ये प्रतिभाशाली व बहुश्रुत विद्वान् लघु खरतरगच्छीय तथा कल्याणराज के शिष्य थे। इनका उपनाम नरवेश सरस्वती था। इनकी प्रमुख रचनाएँ-"रघुवंश टीका", "कुमारसम्भव टीका" १४३५ ई०, “शिशुपालवध टीका", "नैषध काव्य टीका'' १४५४ ई०, "मेघदूत टीका", "राघवपांडवीय टीका", "सिन्दूरप्रकर टीका" १४४८ ई०, "भावारिवारण" एवं "कल्याण मन्दिर स्तोत्र टीका' हैं।' २९. कमल संयमोपाध्याय :-ये जिनदत्त सूरि के शिष्य थे । इन्होंने १४८७ ई० में "उत्तराध्ययन" पर संस्कृत टीका लिखी। ३०. वर्द्धमान सूरि :- ये रुद्रपल्लीय शाखा के आचार्य थे। इन्होंने १४११ ई० में "आचार दिनकर" की रचना की। ३१. श्री तिलक :-ये भी रुद्रपल्लीय शाखा के मुनि थे। इन्होंने १५वीं शताब्दी में "गौतम पृच्छा' टीका लिखी। ३२. लक्ष्मीचन्द्र :-ये भी रुद्रपल्लीय शाखा से सम्बद्ध थे। इन्होंने १४०८ ई० में "संदेशरासक टीका' लिखी। ३३. जिनसागर सूरि :-ये पिप्पलक शाखा के जैनाचार्य थे। इनकी १५वीं शताब्दी में रचित "कपूर प्रकर टीका", "सिद्धहेमशब्दानुशासन लघुवृत्ति" उपलब्ध ३४. धर्मचन्द्र :-ये भी पिप्पलक शाखा के मुनि थे। इनकी मुख्य रचनाएँ "सिंदूर प्रकर टीका" १४५६ ई०, 'स्वात्मसंबोध", "कर्पूर मंजरी सट्टक टीका" हैं । ३५. हर्षकुजरोपाध्याय :-ये पिप्पलक शाखा से संबंधित थे। इन्होंने १४७३ ई० में "सुमति चरित्र" लिखा। ___ ३६. भट्टारक ज्ञानभूषण :-इस नाम के ४ भट्टारक हुये हैं। ये विमलेन्द्र कीर्ति के शिष्य थे। बाद में इन्होंने भट्टारक भुवनकीर्ति को भी अपना गुरु स्वीकार कर लिया था। ये अपने समय के प्रसिद्ध संत एवं विद्वान थे। १४७८ ई० से १५०० १. राजसा, ६६। २. वही, पृ० ७२ । ३. वही। ४. वही। ५. वही। .. ६. वही। ७. वही, पृ० ७३ । Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन साहित्य एवं साहित्यकार : ३६३ ई० तक इनका भट्टारक जीवन रहा। १५०३ ई० में इन्होंने "तत्वज्ञानतरंगिणी' की रचना समाप्त की। ये प्राकृत, संस्कृत, हिन्दी, गुजराती एवं राजस्थानी के परम विद्वान् थे । नाथूराम प्रेमी ने इनके "तत्त्वज्ञानतरंगिणी", "सिद्धान्तसार भाष्य", "परमार्थोपदेश", "आदिश्वर फाग" "भक्तामरोद्यापन", "सरस्वती पूजा" आदि ग्रन्थों का उल्लेख किया है। पं० परमानन्द ने उक्त रचनाओं के अतिरिक्त-"सरस्वती स्तवन" "आत्मसम्बोधन" आदि का भी उल्लेख किया है । डॉ० कासलीवाल द्वारा ग्रन्थ भण्डारों की खोजबीन करने पर निम्न रचनाओं का भी पता लगा है। 'ऋषिमण्डल पूजा", "पूजाष्टक टीका'', ''पंचकल्याणकोद्यापन पूजा", "भक्तामर पूजा"५ "श्रुति पूजा"६, “सरस्वती पूजा", "सरस्वती स्तुति", "शास्त्रमण्डल पूजा', "दशलक्षणव्रतोद्यापन पूजा"१° । ३७. पं० मेघावी :-ये भट्टारक जिनचन्द्र के शिष्य, अग्रवाल जातीय व संस्कृत के धुरन्धर विद्वान् थे। इन्होंने १४८६ ई० में "धर्मसंग्रह श्रावकाचार" की रचना नागौर में सम्पन्न की।१।। ३८. पद्मविरगणी:-ये खरतरगच्छ के मुनि थे। इन्होंने १४९६ ई० में जैसलमेर में "ऋषि मण्डल प्रकरण टीका", १४८९ ई० में जैसलमेर में "गणधर सार्द्ध -- शतक लघु वृत्ति" की रचना की ।१२ ३९. चारित्र सुन्दरगणी :-ये तपागच्छीय मनि थे । इन्होंने १४४२ ई० में चित्तौड़ में “दानप्रदीप" की रचना की। 3 १. जैसाऔइ, पृ० ३८२ । २. जैनप्रस, भूमिका । ३. राजेशाग्र सू, ४, पृ० ४६३ । ४. चही, पृ० ६५० । ५. वही, पृ० ५२३ । ६. वही, पृ० ५३७ । ७. वही, पृ० ५१५ । ८. वही, पृ० ६५७ । ९. वही, पृ० ५३० । २०. वही, पृ० ८३० । ११. राजैसा, पृ० ११३ । १२. वही, पृ० ७४-८२ । १३. बही। Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६४ : मध्यकालीन राजस्थान में जेनधर्म ४०. माणिक्य सुन्दरगणी : ये भी तपागच्छ से संबंधित थे । इन्होंने १४४४ ई० में देव कुलपाटक में " भवभावना" बालावबोध की रचना की । " ४१. जयसागरोपाध्याय :- ये खरतरगच्छ से सम्बन्धित थे । इन्होंने १४१६ ई० में जैसलमेर में " शान्तिनाथ जिनालय प्रशस्ति" रची । २ ४२. माणिक्य सुन्दर सूरि : ये अंचलगच्छ के मुनि थे । इन्होंने १४०६ ई० में देवकुलपाटक में "श्रीधर चरित्र" महाकाव्य की रचना की । १४२७ ई० में सांचौर में " गुणवर्म चरित्र" लिखा । ४३. सोमकु जर : ये भी खरतरगच्छ के मुनि थे । १४४० ई० में जैसलमेर में इन्होंने "संभव जिनालय प्रशस्ति" निबद्ध की ।४ ४४. जिन हर्षगणी : ये तपागच्छ से सम्बन्धित थे । इन्होंने १५वीं शताब्दी में चित्तौड़ में "रत्नशेखर कथा" की रचना की ।" ४५. जिनहंस सूरि ( १४६७ ई० - १५२५ ई० ) :- ये खरतरगच्छीय जिनसमुद्रसूरि के शिष्य थे। इनकी प्रमुख रचना १५१५ ई० में बीकानेर में रचित " आचारांग - सूत्र दीपिका " है । ४६. युगप्रधान जिनचन्द्र सूरि :-ये खरतरगच्छीय जिनमाणिक्य सूरि के शिष्य थे । ये बडलो निवासी व रोहड गोत्र के थे । इन्हें अकबर द्वारा युगप्रधान की उपाधि - दी गई थी। इनकी मुख्य कृति १५६० ई० में रचित "पौषध विधि प्रकरण टीका" है । ७ ४७. महोपाध्याय पुण्यसागर :- ये खरतरगच्छीय जिनहंस सूरि के शिष्य और १६वीं शताब्दी के प्रतिष्ठित विद्वान् थे । इनकी प्रमुख रचनाएँ हैं—- जैसलमेर में १५८८ ई० में रचित "जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्रटीका", और १५८३ ई० में बीकानेर में रचित "प्रश्नोत्तरकषष्टिशत काव्य टीका" । ४८. दयारत्न : ये आद्यपक्षीय शाखा से सम्बन्धित मुनि थे । इन्होंने १५६९ ई० में "न्याय रत्नावली" रची ।" १. राजैसा, पृ० ७४-८२ । २. नाजैलेस, क्र० २११२, २१५४ । ३. राजैसा, पृ० ७२-८२ । ४. वही । ५. वही । ६. वही, पृ० ६७ । ७. वही । ८. जैसलमेर भण्डार की ग्रन्थ सूची, पृ० ४६ । ९. राजैसा, पृ० ७३ । Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन साहित्य एवं साहित्यकार : ३६५ ४९. भट्टारक शुभचन्द्र : ये भट्टारक विजयकीर्ति के शिष्य थे । ये १५१६ ई० में भट्टारक हुए । इनका सम्बन्ध बलात्कार गण की ईडर शाखा से था । इनका कार्यक्षेत्र राजस्थान, पंजाब, गुजरात व उत्तरप्रदेश रहा । वे अपने समय के प्रसिद्ध भट्टारक, साहित्यकार, धर्मप्रचारक एवं विद्वान् थे । ये " षड्भाषाकवि चक्रवर्ती'" कहलाते थे तथा महाग्रन्थों के पारगामी विद्वान् थे । १५५९ ई० में इन्होंने " पांडव पुराण" की रचना की । इस समय तक इन्होंने "चंद्रप्रभ चरित्र", "श्रेणिक चरित्र", "जीवंधर चरित्र" २, "चंदना कथा", "अष्टाह्निका कथा", "सद्वृत्तिशालिनी", "तीन चौबीसी पूजा", " सिद्धचक्र पूजा", "सरस्वती पूजा", "चिंतामणि पूजा", "कर्मदहन पूजा", "पार्श्वनाथ काव्यपंजिका", "पल्यव्रतोद्यापन", " चरित्र शुद्धि विधान", "संशयवदन विदारण", 'अपशब्द खण्डन", "तत्त्व निर्णय", "स्वरूप सम्बोधन वृत्ति", " आध्यात्म तरंगिणी ", " चिन्तामणि प्राकृत व्याकरण", "अंगप्रशस्ति", आदि की रचना कर ली थी । इसके पश्चात् इन्होंने और भी कृतियाँ रचीं । उक्त सभी रचनाएँ “पांडवपुराण" में उल्लिखित हैं | राजस्थान के ग्रन्थ भण्डारों में इनकी अब तक उपलब्ध कृतियाँ निम्न प्रकार हैं- "ऋषिमंडल पूजा", "अनन्तव्रत पूजा", " अम्बिका कल्प", " अष्टाह्निका व्रत कथा ", " अष्टाह्निका पूजा", "अढाई द्वीप पूजा", "करकंडु चरित्र", "कर्मदहन पूजा", "कार्तिकेयानुप्रेक्षाटीका", "गणधर - वलय पूजा", "गरावली पूजा", "चतुर्विंशति पूजा", "चंदना चरित्र", "चंदनषष्टी व्रत पूजा", " चंद्रप्रभ चरित्र", "चरित्र शुद्धि विधान", "चितामणि पार्श्वनाथ पूजा", "जीवंघर पूजा", "तेरह द्वीप पूजा", "तीन चौबीसी पूजा", "तीस चौबीस पूजा", "त्रिलोक पूजा", " त्रपन क्रियागति", "नंदीश्वर पंक्ति पूजा", "पंचकल्याणक पूजा", "पंचगणमाल पूजा", " पंचपरमेष्ठि पूजा", "पत्यव्रतोद्यापन", "पांडवपुराण", " पार्श्वनाथ काव्य पंजिका", " प्राकृत लक्षण टीका", "पुष्पांजलि व्रत पूजा", "प्रद्युम्न चरित्र", " बारह सौ चौंतीस व्रत पूजा", "लघु सिद्धचक्र पूजा", "वृहदसिद्ध पूजा", " श्रेणिके चरित्र', ' 'समयसार टीका", "सहस्त्रगुणीत पूजा", "सुभाषितार्णव" आदि । ५०. पं० खेता - ये वैद्य विद्या में पारंगत राजस्थानी विद्वान् थे । " सम्यक्त्व कौमुदी” इनकी प्रसिद्ध रचना है | राजस्थान के शास्त्र भण्डारों में इसकी अनेक प्रतियाँ १. जैसाऔइ, पृ० ३८३ । २. वही, पृ० ५३३ | ३. राजेशाग्रसू, ४८ एवं २४७ ॥ ४. जैग्रप्रस, क्र० ६२ । "" ५. जैसाऔइ, पृ० ५३३ ॥ ६. कासलीवाल, प्रशस्ति संग्रह, पृ० ७ । ७. कासलीवाल राजैसा, पृ० ११२ । Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६६ : मध्यकालीन राजस्थान में जैनधर्म हैं । एक पांडुलिपि १५२३ ई० में प्रतिलिपि करवाकर ब्रह्म बूचराज को प्रदान की गई थी। ये शेरशाह द्वारा सम्मानित किये गये थे। ५१.५० जिनदास-ये पं० खेता के पुत्र और रणथंभौर दुर्ग के निकट नवलक्षपुर के रहने वाले थे । ये भी आयुर्वेद विशारद थे। इन्होंने १५५१ ई० में "होलोरेणुका चरित्र"२ की रचना पूर्ण की । इन्होंने "कथाकोष" की भी रचना की । ५२. पं० राजमल्ल-ये जयपुर के निकट बैराठ के रहने वाले थे तथा व्याकरण, सिद्धान्त, छन्द शास्त्र और स्याद्वाद विद्या में पारंगत थे एवं संस्कृत के भी प्रकांड विद्वान थे। इन्होंने १५७५ ई० में "जम्बूस्वामी चरित्र"४ की रचना संपन्न की । इसके अति'रिक्त इनकी "आध्यात्मकमलमार्तड", "लाटी संहिता", "छन्दोविद्या" एवं "पंचाध्यायी" भी महत्त्वपूर्ण रचनाएं हैं।" ५३. विशाल सुन्दर-ये तपागच्छीय आचार्य थे। इन्होंने १५९८ ई० में नागौर में "तन्दल वैयालिय पयन्ना" अवचरि की रचना की। ५४. साधुरंग-ये खरतरगच्छ के आचार्य थे। इन्होंने १५४२ ई० में "सूत्रकृतांग" व “सूत्रदीपिका" की रचना की। ५५. राजकुशल-ये तपागच्छीय मुनि थे। इन्होंने १५९३ ई० में जालौर में "सूक्ति द्वात्रिंशिका विवरण" की रचना संस्कृत भाषा में की।' ५६. नयरंग-ये भी खरतरगच्छीय थे । इन्होंने १५६८ ई० में बीरमपुर में "विधि कंदली स्वोपज्ञ टीका सह" की रचना की। १५६७ ई० में "बालपताकापुरी परमहंस सम्बोध चरित्र" की रचना की। ५७. श्री बल्लभोपाध्याय-ये खरतरगच्छ के थे। इन्होंने १५९८ ई० में बीकानेर में "उपकेश शब्द व्युत्पत्ति" की रचना की। १. कासलीवाल, राजैसा, पृ० ११३ । २. जैग्रप्रस, क्र० ४५ । ३. वही, भूमिका। ४. अने०, ४, क्र० २ । ५. अरावली, १, क्र. १२ । ६. राजैसा, पृ० ७४-८२ । ७. वही। ८. जैसासइ, पृ० ५८९ । ९. राभा, ३, क्र० २। १०. राजसा, पृ० ७४-८२ । Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्य एवं साहित्यकार : ३६७ ५८. हेमरत्न - इन्होंने १५८१ ई० में बीकानेर में "भावप्रदीप" की रचना निबद्ध की ।" ५९. कनकसोम — इन्होंने १५७५ ई० में जैसलमेर में "कालिकाचार्य कथा" संस्कृत में लिखी । २ ६०. दयासागर — ये खरतरगच्छीय मुनि थे । इन्होंने १५६३ ई० में जालौर में " मदन नरिद चरित्र" की रचना लिखी । ३ ६१. देवविजयगणो ये तपागच्छ से सम्बन्धित थे । इन्होंने १५९५ ई० में श्रीमालपुर में 'रामचरित" को रचना की । ६२. आज्ञासुन्दर ये खरतरगच्छीय साधु थे । इन्होंने १५०५ ई० में काडीउपुर में " शीलवती कथा" की रचना की ।" ६३. मेरुसुन्दरोपाध्याय - ये भो खरतरगच्छीय थे । इन्होंने १६वीं शताब्दी में जैसलमेर में " जैसलमेर पाश्वं जिन स्तोत्र" की रचना की । ६४. ज्ञानविमलोपाध्याय - खरतरगच्छ से सम्बन्धित इन आचार्य ने १५९७ ई० में बीकानेर में " शब्द प्रबन्ध टोका" की रचना की थी । ६५. भक्ति लाभोपाध्याय - ये खरतरगच्छ से सम्बन्धित थे । इन्होंने १५१९ ई० में बीकानेर में "लघुजातक टीका" की रचना की ।" ६६. जिनराज सरिये खरतरगच्छीय जिनसिंह सूरि के शिष्य थे व मूल रूप से बोहिथरा गोत्र के थे । ये नव्य न्याय और साहित्य शास्त्र के प्रकांड पंडित थे । इनको प्रमुख रचनाएँ - " नैषधीय महाकाव्य जैन राजी टीका" और "भगवती सूत्र टीका हैं । " ६७. महोपाध्याय समयसुन्दर ( १५५३ ई० – १६४६ ई० ) – ये खरतरगच्छीय सकलचन्द्रगणो के शिष्य थे । ये सांचौर निवासी व प्राग्वाट जातीय थे। इनका कार्यक्षेत्र १. राजैसा, पृ० ७४-८२ । २. वही । ३. वही । ४. वही । ५. वही । ६. वही । ७. वही । ८. राभा, ३, क्र० २ ९. राजैसा, पृ० ६८ । Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६८ : मध्यकालीन राजस्थान में जैनधर्म राजस्थान, गुजरात, उत्तरप्रदेश, सिन्ध व पंजाब था। ये अपने समय के सर्वतोमुखी व श्रेष्ठ विद्वान थे। १५९२ ई० में कश्मीर विजय के समय सम्राट अकबर के सम्मुख इन्होंने "राजानो ददते सौख्यम" चरण के प्रत्येक अक्षर के एक-एक लाख अर्थ अर्थात् ८ अक्षरों के ८ लाख अर्थ करके "अष्टलक्षी" ग्रन्थ रचा । इन्होंने लगभग ५०० छोटीबड़ी रचनाएँ की हैं। इनकी प्रमुख कृतियाँ निम्न हैं-व्याकरण ग्रन्थों में "सारस्वत वृत्ति", "सारस्वत रहस्य", "लिंगानुशासन अवणि", "अनिटकारिका", "सारस्वतीय शब्द रूपावली" आदि; अनेकार्थी साहित्य में-"अष्टलक्षी", "मेघदूत प्रथम पद्यस्थ त्रयो अर्थाः"; काव्य ग्रन्थ एवं टीकाओं में- "जिनसिंह सूरि पदोत्सव काव्य", "रघुवंश टीका", "कुमारसम्भव टीका", "मेघदूत टीका", "शिशुपाल वध तृतीय सर्ग टीका", "रूपक माला अवचूरि", "ऋषभ भक्तामर'' आदि; छन्द एवं न्याय के ग्रन्थों में"भावशतक", "वाग्भटालंकार टीका", "वृत्तरत्नाकर टीका", "मंगल पाद" आदि; आगमिक एवं स्तोत्र साहित्य में "कल्पसूत्र टीका", "दशवकालिक सूत्र टीका", "नवतत्व प्रकरण टीका", "समाचारी शतक", "विशेष संग्रह', "गाथासहस्त्री', "सप्तस्मरण टीका" आदि । ६८. महोपाध्याय गुणविनय ( १५५८ ई०-१६१८ ई० ):-ये खरतरगच्छीय क्षेमकीति शाखा में जयसोमोपाध्याय के शिष्य थे। इनका कार्यक्षेत्र अधिकांशतः राजस्थान रहा । इन्होंने सम्राट जहाँगीर से “कविराज" की उपाधि प्राप्त की थी। इनकी प्रमुख संस्कृत रचनाएँ-"खंडप्रशस्ति टीका” १५९१ ई०२, "नेमिदूत टोका" १५८७ ई०, “दमयन्ती कथा चम्पू टीका" १५८९ ई०, "रघुवंशटीका" १५८९ ई०, "वैराग्य शतक टीका" १५९० ई०, “सम्बोध सप्तति टीका" १५९४ ई०, “कर्मचन्द्र प्रबन्ध टीका" १५९९ ई०, 'लघुशांतिस्तव टीका" १६०२ ई०, “शीलोपदेशमाला लघवत्ति" आदि टीका ग्रन्थ तथा अनेकार्थी ग्रन्थों में--"सव्वत्थशब्दार्थ समुच्चय", संग्रह ग्रन्थ में-"हुण्डिका" १६०० ई० आदि है। ६९. बल्लभोपाध्याय ( १५६३ ई०-१६३० ई०)-ये खरतरगच्छीय ज्ञानविमलोपाध्याय के शिष्य थे। इनका कार्यक्षेत्र जोधपुर, नागौर, बीकानेर व गुजरात रहा । ये महाकवि, बहश्रुतज्ञ, व्याकरण कोश के मूर्धन्य विद्वान् और सफल टीकाकार थे। इनकी ८ मौलिक कृतियाँ निम्न हैं-"विजयदेव महात्म्य काव्य", "सहस्त्र दलकमल १. राजैसा, पृ० ६८-६९ । २. विनय सागर द्वारा सम्पादित एवं राज० प्राच्य विद्या प्रतिष्ठान जोधपुर से प्रकाशित । ३. विनय सागर द्वारा सम्पादित, सुमति सदन कोटा से प्रकाशित । ४. राजैसा, पृ० ६८-६९ । Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन साहित्य एवं साहित्यकार : ३६९ गर्भित अराजिन स्तव स्वोपज्ञ टीका सह", "विद्वत्प्रबोध काव्य", "संघपति रूपजी वंशप्रशस्ति", "मातृकाश्लोकमाला", "चतुर्दश स्वरस्थापन वाद स्थल" आदि । टीका ग्रन्थों में "हमनाममाला शेष संग्रह टीका", "हेमनाममाला शिलोंछ टीका", "हमलिंगानुशासन दुर्गप्रद प्रबोध टीका", "हैमनिघंटु शेष टीका", "अभिधान चिंतामणि नाममाला टीका", "सिद्धहेमशब्दानुशासन टीका", "विदग्ध मुख मंडन टीका" आदि । इन्होंने "अभिधान नाममाला" पर "सारोद्धार वृत्ति" की भी रचना की। ७०. देवविजय-इन्होंने १५९५ ई० में श्रीमाल में “देवरामायण" की रचना की। ७१. जयकीति--सम्भवतः ये चित्तौड़ से सम्बन्धित थे। इन्होंने “छन्दोनुशासन" की रचना संस्कृत में की।४ ७२. ब्रह्म जिनवास-ये संस्कृत एवं राजस्थानी के विद्वान् थे। ये भट्टारक सकलकीति के भाई और शिष्य थे । इन्होंने संस्कृत में पुराण एवं चरित्र ग्रन्थ लिखे । इनकी प्रमुख संस्कृत रचनाएँ निम्न हैं--"पांडवपुराण", "हरिवंशपुराण", "पद्मपुराण', "जम्बूस्वामी चरित्र", "व्रतकथाकोष", "आदिनाथ पुराण", "श्रेणिक चरित्र", "यशोधर चरित्र"", "जम्बूद्वीपपट", "जम्बूद्वीप अकृत्रिम चैत्यालय पूजा"", "दशलक्षण व्रत पूजा", "दशलक्षण व्रतोद्यापन", "देवपूजा"१०, “पूजापाठ संग्रह"११, “पूजापाठ विधान", "हनुमच्चरित्र'१२, "बारह सौ चौबीसी व्रतोद्यापन",१३ "रोहिणी व्रत पूजा"१४ आदि । १. राभा, ३, क्र० २ । २. जैग्रग्र, पृ० ५०। ३. राभा, ३, क्र० २। ४. जैग्रनस, क्र० ६० । ५. रोजैशाग्रसू, ५, पृ० १२५० । ६. वही, पृ० २३३ । ७. वही, पृ० १२३१ । ८. वही। ९. वही, पृ० १२३७ । १०. वही, पृ० १२३९ । ११. वही, पृ० १२५२ । १२. वही, पृ० १२९६ । १३. वही, पृ० १२५९ । १४. वही, पृ० १२७२ । Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७ . : मध्यकालीन राजस्थान में जैनधर्म संस्कृत अभिलेख : ___ इस काल में संस्कृत भाषा में जैनाचार्यों द्वारा कई उत्कृष्ट अभिलेख लिखे गये । रणकपुर का १४३९ ई० का लेख, आबू के १२३० ई०, १२९३ ई० और १३२१ ई० के लेख, जैसलमेर के १४१६ ई० और १४३७ ई० के अभिलेख तथा केकिन्द का १६०९ ई० का लेख अच्छी संस्कृत में निबद्ध अभिलेखों के सुन्दर उदाहरण हैं । (४) राजस्थानी भाषा, साहित्य एवं साहित्यकार: १३वीं शताब्दी तक राजस्थानी भाषा विकास के कई सोपान तय कर चुकी थी। अतः १६वीं शताब्दी तक इस भाषा में विपुल साहित्य सृजित हुआ । (क) पद्य साहित्य : १. कवि असगु-- इन्होंने १२०० ई० में सहजिगपुर के पार्श्वनाथ जिनालय में "जीव दयारास" निबद्ध किया ।' ये जालौर निवासी थे। जैसलमेर के वृहद ज्ञान भण्डार में संग्रहीत "चन्दनबालारास" भी इनके द्वारा १२०० ई० के आसपास ही रची गई ।२ २. धर्म-इनकी संवतोल्लेख वाली "जम्बूस्वामीरास' नामक रचना १२०९ ई० में लिखी गई। ये महेन्द्र सूरि के शिष्य थे । इनकी दूसरी कृति "सुभद्रासती चतुपदिका है। ३. अभयतिलकगणी-इन्होंने १२५० ई० में भीमपल्ली के महावीर जिनालय की प्रतिष्ठा के समय २१ पद्यों का “महावीर रास' निबद्ध किया । ४. लक्ष्मी तिलक उपाध्याय--इन्होंने "शांतिनाथ देवरास" नामक काव्य लिखा, जो एक ऐतिहासिक रास है। इसमें १२५६ ई० में जालौर में उदय सिंह के शासन में जिनेश्वर सूरि द्वारा शांति जिनालय की प्रतिष्ठा का उल्लेख है ।" ५. जिनप्रबोध सूरि--१२७५ ई० में इन्होंने "शालिभद्र रास' नामक ३५ पद्यों की एक सुन्दर रचना की। ६. विनयचन्द्र सूरि---इन्होंने १२८१ ई० में "बारहवतरास" लिखा। १. भारती विद्या, ३, पृ० २०१ । २. राजैसा, पृ० १६८। ३. वही। ४. वही। ५. वही। ६. वही, ७. वही, पृ० १६९ । Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन साहित्य एवं साहित्यकार : ३७१ ७. हेमभूषण गणी-इन्होंने १२८४ ई० में 'युगप्रधान श्री जिनचन्द्र सूरि चर्चरी" नामक २५ पद्यों की रचना लिखी।' ८. सुमतिगणी-ये जिनपति सूरि के शिष्य थे। इन्होंने १२३८ ई० में “गणधर सार्ध शतक वृत्ति" की रचना की। "नेमिनाथ रास" इनकी प्रारम्भिक रचना है। ९. देल्हड़-ये एक श्वेताम्बर श्रावक थे। इनकी रचना "गय सुकुमाल रास" प्राचीनता की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है । इसकी रचना इन्होंने जगतचन्द्र के शिष्य देवेन्द्र सूरि की प्रेरणा से की थी। जगतचन्द्र का समय १२४३ ई० के आसपास था, अतः यह रचना १३वीं शताब्दी की है। १०. कवि वस्तिग-इन्होंने १३११ ई० में 'बीसविरहमान रास" की रचना की। ११. गुणाकर सूरि-इन्होंने १३१४ ई० में "श्रावक विधि रास" राजस्थानी भाषा में निबद्ध किया। १२. अंबदेव सूरि-इन्होंने १३१४ ई० में "समरा रास" को रचना राजस्थानी में की।६ १३. मुनि धर्मकलश-इन्होंने १३२० ई० में "जिनकुशल सूरि पट्टाभिषेक रास" की रचना की। १४. जिनप्रभु सूरि-इन्होंने १३२९ ई० में "पद्मावती चौपाई" की रचना की। १५. जिन पद्म सूरि-इन्होंने १३३३ ई० में "स्थूलिभद्र रास" रचा। १६. पउम कवि-इन्होंने १४वीं शताब्दी में "शालिभद्र फाग" तथा "नेमिनाथ फाग" की रचना की। १७. राजशेखर सूरि-इन्होंने १३४८ ई० में "प्रबन्ध कोष" की रचना की और "नेमिनाथ फागु" नामक कृति को छन्दोबद्ध किया।" १. राजसा, पृ० १६८ । २. वहीं। ३. वही। ४. जैगुक, भाग २। ५. आत्मानन्द शताब्दी स्मारक ग्रन्थ । ६. प्राचीन गुर्जर काव्य संग्रह में प्रकाशित । ७. रालसा, पृ० १६९ । ८. भैरव पद्मावती काव्य, परिशिष्ट १० । ९. राजसा, पृ० १६९। १०. वही। ११. वही। Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७२ : मध्यकालीन राजस्थान में जैनधर्म १८. शालिभद्र सूरि द्वितीय-१३५३ ई० में पूर्णिमा गच्छ के इन आचार्य ने नादउद्री में देवचन्द्र के अनुरोध पर “पाँचपाँडवरास" की रचना की। १९. विनयप्रभ-१३५५ ई० में इन्होंने “गौतम स्वामी रास" को छंदोबद्ध किया। राजस्थान के विभिन्न शास्त्र भण्डारों में इसकी कई प्रतिलिपियाँ हैं । २०. श्रावक विद्धणु-ये जिनोदय सूरि के शिष्य थे। इन्होंने १३६६ ई० में "ज्ञानपंचमी चौपाई" नामक रचना ५४८ पद्यों में रची। २१. मेरुनन्दन गणी-१३७५ ई० में इन्होंने "जिनोदय सूरि गच्छनायक विवाहलऊ' की रचना की। २२. साषु हंस-१३९८ ई० में इन्होंने २२२ पद्यों में "शालिभद्ररास" का निर्माण किया ।" २३. जयशेखर सूरि-१४ शताब्दी में ही इन्होंने “त्रिभुवन दीपक प्रबन्ध" नामक रूपक काव्य लिखा। २४. मुनि ज्ञान कलश-इन्होंने १३५८ ई० में "जिनोदय सूरि पट्टाभिषेक रास" की रचना की। २५. हलराज कवि-इन्होंने १३५२ ई० में "स्थूलिभद्र फाग" की रचना आघाट नगर में की। २६. चाप कवि-इन्होंने १३३८ ई० में "भट्टारक देवसुन्दर सूरि रास" की ५५ पद्यों की रचना लिखी। २७. कवि साधारू-इन्होंने १३५४ ई० में "प्रद्युम्न चरित्र" लिखा ।१० २८. हीरानन्द सूरि-इन्होंने १४२७ ई० में "वस्तुपाल तेजपाल रास", १४२८ ई० में "विद्या विलास पवाड़ा" तथा १४३८ ई० में “कलिकाल रास" की रचना की। १. यतीन्द्र सूरि अभि० ग्रं॰, पृ० १२१-१२७ । २. नाहटा, राजैसा, पृ० १६९ । ३. वही। ४. वही। ५. वही। ६. वही । ७. वही। ८. वही। ९. वही। १०. मुहस्मृग, पृ० ७८९ । ११. नाहटा, राजैसा, पृ० १६९ । Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन साहित्य एवं साहित्यकार: ३७३ २९. वस्तोकवि–इन्होंने १५वीं शताब्दी में "चिहुँगति चौपाई की रचना की ।" ३०. माण्डन सेठ – इन्होंने १४४१ ई० में "सिद्धचक्र श्रीपाल रास" निबद्ध किया । २ ३१. मेघ कवि -- १४४२ ई० में इन्होंने " राणकपुर स्तवन" तथा "तीर्थमाला स्तवन" की रचना की । 3 ३२. गुणरत्न सूरि - १५वीं शताब्दी में इन्होंने " ऋषभरास" एवं " भरत बाहुबलि पवाड़ा " निबद्ध किया । ४ ३३. सोमसुन्दर गणी — इन्होंने १४२४ ई० में "नेमिनाथ नवरस फाग" तथा " स्थूलिभद्र कवित्त " की रचना की ।" ३४. जयसागर - ये दरड़ा गोत्रीय खरतरगच्छीय महोपाध्याय थे । इनका रचना - काल १५वीं शताब्दी का पूर्वार्द्ध था । " विज्ञप्ति त्रिवेणी" इनकी महत्त्वपूर्ण रचना है । इसके अतिरिक्त “जिनकुशल सूरि सप्ततिका", "चौबीस जिन स्तवन", "बेअरस्वामी रास", " अष्टापद तीर्थं बावनी", "गौतम स्वामी चतुष्पादिका", "नेमिनाथ विवाहलो", " अजितनाथ विनती", "नेमिनाथ भाव पूजा स्तोत्र", "वीरप्रभु विनती", " श्रीमंधर स्वामी विनती", "शान्तिनाथ मन्दिर की प्रशस्ति" आदि इनकी छोटी-बड़ी रचनाएँ हैं । ३५. संघ विमल या शुभ शील - १४४४ ई० की "सुदर्शन श्रेष्ठि रास” नामक एक रचना उपलब्ध हुई है । इसके रचयिता के सम्बन्ध में पाठभेद पाया जाता है । मोहनलाल देसाई ने इसका रचनाकार तपागच्छीय मुनि सुन्दरसूरि के शिष्य संघ विमल या शुभशील को माना है । किन्तु बीकानेर के वृहद ज्ञान भण्डार में जो प्रति उपलब्ध हुई है, उसमें "तपागच्छी गुरु गौतम सभायें माँ श्री मुनि पर "चन्द्रगच्छी गौतम सभायें माँ श्री चन्द्रप्रभ सूरि" पाठ मिलता है । सुन्दर सूरि पू०" के स्थान ३६. कवि वर देपाल - इनका रचनाकाल १४४४ ई० से १४७७ ई० रहा । इनकी रचनाओं में तत्कालीन अनेक रचना प्रकारों का उपयोग हुआ है । रास, चूड, १. नाहटा, राजैसा, पृ० १६९ । २ . वही । ३. वही । ४. वही । ५. वही । ६. जैसरा, पृ० २३९ । ७. वही । Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७४ : मध्यकालीन राजस्थान में जैनधर्म चौपई, धवल, विवाहला, मारू, गीत, कड़ावा, एवं पूजा संज्ञक रचनाएँ मिलती हैं, जिनकी संख्या १८ है । कुछ रचनाएँ इस प्रकार हैं- "जावड भावड रास", "चन्दन बाला चरित्र चौपई", "जम्बू स्वामी पंचभव वर्णन चौपई" " स्थूलभद्र फाग", "पार्श्वनाथ जीराउला रास", "थावच्चा कुमार भास", "श्रेणिक राजा रास", "नवकार प्रबन्ध", "पुण्य पापफल चौपई" आदि । " - ३७. संघ कलश –— इन्होंने मारवाड़ के तालवाड़ा ग्राम में १४४८ ई० में " सम्यक्त्व - रास" की रचना की । इसकी १४८९ ई० में लिखी प्रतिलिपि पाटण के भण्डार में हैं। ३८. ऋषिवर्धन सूरि - रचनास्थान के उल्लेख वाली कृतियों में अंचलगच्छीय जयकीर्ति सूरि के शिष्य ऋषिवर्धन का " नलदमयन्तीरास" उल्लेखनीय है । यह रचना १४५५ ई० में चित्तौड़ में लिखी गई । इसके अलावा इन्होंने "जिनेन्द्रातिशय पंचाशिका" भी रची। ३९. मतिशेखर – ये उपकेशगच्छीय, शीलसुन्दर के शिष्य तथा वाचक पद से विभूषित कवि थे । उपकेश गच्छ का उत्पत्ति स्थान ओसिया, राजस्थान में होने के कारण इनका रचनास्थल राजस्थान ही रहा होगा । इनकी प्रमुख रचनाएँ " घन्नारास" १४५७ ई०, “मयणरेहा रास” १४८० ई०, "बावनी", "नेमिनाथ बसन्त फुलडा फाग", "कुरगडू महर्षि रास" १४९७ ई०, "इलापुत्र चरित्र", "नेमिगीत” आदि हैं। ४०. आज्ञा सुन्दर - १४५९ ई० में जिनवर्द्धन सूरि के शिष्य आज्ञा सुन्दर रचित " त्रिद्या विलास चरित्र चौपाई" प्राप्त है । ५ ४१. कल्याण चन्द्र – आचार्य कीर्ति रत्न सूरि की जीवनी के सम्बन्ध में इन्होंने ५४ पद्यों की "श्री कीर्ति रत्न सूरि विवाहलउ" की रचना की । ४२. पद्म मन्दिर गणी - इन्होंने कीर्ति रत्न सूरि के शिष्य गुणरत्न सूरि के सम्बन्ध में एक “विवाहलउ" रचा । १. जैसरा, पृ० २३९ । २. राजैसा, पृ० १७१ । ३. वही । ४. वही । ५. वही, पृ० १७२ । ६. वही । ७. वही । Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन साहित्य एवं साहित्यकार : ३७५ ४३. पद्नाभ - इनका चित्तौड़ से सम्बन्ध रहा । संघपति डूंगर के अनुरोध पर इन्होंने १४८६ ई० में डूंगर बावनी” की रचना की । ४४. विनय चूला – ये आगमगच्छीय हेमरत्न सूरि की शिष्या थीं । इन्होंने १४५६ ई० में " श्री हेमरत्न सूरि गुरु फागु' की रचना की । २ ४५. भट्टारक सकल कीर्ति ( १३८६ ई०-१४४२ ई० ) – ये राजस्थानी भाषा के भी उद्भट विद्वान् थे । इनकी ७ मुख्य रचनाएँ इस प्रकार हैं- " आराधना प्रतिबोध सार", "सोलहकारण राम ", " नेमीश्वर गीत", "मुक्तावलि गीत", " णमोकारफल गीत ", " सारसीखा मणि रास", "शांतिनाथ फागु " 13 ४६. ब्रह्मजिनदास – ये भट्टारक सकलकीर्ति के योग्यतम शिष्य और भाई थे । इन्होंने सर्वाधिक रास संज्ञक काव्य लिखे । " रामरास" १४५१ ई० में तथा "हरिवंश पुराण" १४६३ ई० में निबद्ध किया । शेष रचनाओं में समयोल्लेख नहीं मिलता । इनका साहित्य सृजन इस प्रकार रहा (क) पुराण साहित्य - " आदिनाथ पुराण", "हरिवंश पुराण" (ख) रासक साहित्य — " रामसीता रास", "नागकुमार रास", "होली रास", "श्रेणिक रास", "अम्बिका रास", "जम्बू स्वामी रास", "सुकोशल स्वामी रास", " दसलक्षण रास", "धन्यकुमार रास", " धनपाल रास", "नेमीश्वर रास", "अठावीस मूल गुण रास", " यशोधर रास", "परमहंस रास", "धर्म परीक्षा रास", " सम्यक् मिथ्यात्व रास", " नागश्री रास", "भद्रबाहु रास", "रोहिणी रास", "अनन्तव्रत रास", " चारुदत्त प्रबंध रास", "भविष्य दत्त रास", "करकण्डु रास ", " हनुमत रास", " अजितनाथ रास", "ज्येष्ठ जिनवर रास", "सुदर्शन रास", "श्रीपाल रास", "कर्म विपाक रास", "सोलह कारण रास", "बंकचूल रास", "पुष्पांजलि रास", " जीवंबर रास", "सुभीम चक्रवर्ती रास" । "आलोचना जयमाल " (ग) गीत एवं स्तवन - "मिथ्या दुकड़ विनती", " जिणंदगीत ", "आदिनाथ स्तवन", "जीवडा गीता'", "बारहव्रत गीत ", " स्फुट विनती" गीत आदि । (घ) कथा साहित्य- -" रविव्रत", "चौरासी जाति जयमाल", "अष्टांग सम्यक्त्व", " व्रतकथा कोष", "भट्टारक विद्याधर कथा", "पंचपरमेष्ठि गुणवर्णन” । १. राजैसा, पृ० १७२ । २. जैसरा, पृ० २४७ ॥ ३. वही, पृ० २०३ । ४. राजेशाग्रसू, पु० ४०४ । Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७६ : मध्यकालीन राजस्थान में जैनधर्मं (ङ) पूजा साहित्य - "गुरु जयमाल", "जम्बूद्वीप पूजा", "गुरु पूजा", "सरस्वती पूजा", शास्त्र पूजा", "निर्दोष सप्तमी व्रत पूजा" । ४७. आचार्य सोमकीर्ति - ये काष्ठासंघ के नन्दीतट शाखा के सन्त व अप्रतिम विद्वान् थे । राजस्थानी में इनकी अब तक ६ रचनाएँ उपलब्ध हैं- "गुर्वावली " १४६९ ई०, मल्लिनाथ गीत", "यशोधर रास" १४७९ ई०, "आदिनाथ विनती", 'ऋषभनाथ स्तुति", " त्रेपन क्रियागीत " आदि । " ४८. भट्टारक ज्ञान भूषण - ये भुवनकीर्ति के शिष्य थे । अभी तक इनकी राजस्थानी भाषा की ५ रचनाएँ प्राप्त हुई हैं- " आदीश्वर फाग ", " षट्कर्मरास”, "जलगालण रास", "नागद्रा रास", " पोसह रास" । ३ ४९. ब्रह्म बूचराज ( १४७३ ई०-१५४३ ई० ) - रूपक काव्यों की रचना की दृष्टि से इनका महत्त्वपूर्ण स्थान है । "मयणजुज्झ" इनकी सर्वाधिक लोकप्रिय रचना थी, जिसकी शास्त्र भण्डारों में अनेक प्रतियाँ उपलब्ध होती हैं । इनकी अन्य मुख्य रचनाएँ -- " सन्तोषतिलक जयमाल", "चेतन पुद्गल घमाल", " नेमीश्वर का बारह मासा", "नेमिनाथ वसन्तु ", " टंडाणा गीत", "विजयकीति गीत" व पद । ५०. ब्रह्म यशोधर ( १४६३ ई० - १५३३ ई० ) :- ये काष्ठा संघ के विजयसेन के शिष्य थे । इनकी निम्न रचनाएँ प्राप्त हैं- "नेमिनाथगीत" १५२४ ई०, "बलिभद्र चोपाई", मल्लिनाथ गीत" आदि । ५ ५१ भट्टारक शुभचन्द्र – ये १५१६ ई० में भट्टारक हुये और अपनी विद्वत्ता के कारण " षट्भाषा चक्रवर्ती" कहलाते थे । इनके द्वारा रचित ७ राजस्थानी रचनाएँ इस प्रकार हैं-- " महावीर छन्द", "नेमिनाथ छंद", "विजयकीर्ति छन्द", "दान छन्द", "गुरु छन्द", "तत्वसार दूहा ", गीत आदि । ५२. ब्रह्म जयसागर ( १५२३ ई०-१६०८ ई० ) -- ये भट्टारक रत्नकीर्ति के शिष्य थे। इनकी निम्न रचनाएँ महत्त्वपूर्ण हैं- "नेमिनाथगीत ", " चुनडी गीत", " क्षेत्रपाल गीत ", " जसोधर गीत", "संघपति मल्लिदास जी गीत", "शीतल नाथ नी बीनती ", " पंचकल्याणक गीत" । ७ १. जैसरा, पृ० २०४ । २. कासलीवाल, राजैसा, पृ० २०६ । ३. वही । ४. वही । ५. वही, पृ० २०७ । ६. वही । ७. वही, पृ० २०८ | Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन साहित्य एवं साहित्यकार : ३७७ ५३. आचार्य चंद्रकीति -- ये रत्नकीर्ति के शिष्य थे । कांकरोली, डूंगरपुर, सागवाड़ा आदि इनके साहित्य सृजन केन्द्र थे । इनकी मुख्य रचनाएँ - "सोलहकारण रास ", " जयकुमाराख्यान” १५९८ ई०, " चरित्र चूनडी", "चौरासी लाख जीव योनि बीनती ", "सिद्ध स्तवन", "सिद्ध जयमाला ", " सारस्वत व्याकरण" पर "सुबोधिका दीपिका " तथा पूजाएँ आदि हैं ।" ५४. मुनि महनन्दी – ये भट्टारक वीरचन्द के शिष्य थे । इनकी एकमात्र कृति "बारक्खरी दोहा" जिसे "दोहा पाहुड" भी कहते हैं, उपलब्ध है । ५५. ब्रह्म रायमल्ल - ये मुनि अनन्तकीर्ति के शिष्य थे । सांगानेर, रणथम्भौर, सांभर, टोडारायसिंह, हरसौर इनके मुख्य कार्यस्थल रहे । इनकी रचनाएँ निम्न हैं 1 “नेमीश्वर रास” १५५८ ई०, " हनुमंत रास" ई०, "सुदर्शन रास" १५७२ ई०, "श्रीपाल रास" १५७६ ई०, "आदित्यवार कथा", "चिंतामणि " चन्द्रगुप्त स्वप्न चौपाई", "ज्येष्ठ जिनवर कथा "3 ५६. छीतर ठोलिया - ये मौजमाबाद निवासी व खंडेलवाल जातीय थे । इनकी एकमात्र रचना १५९८ ई० की "होली की कथा" है ।" ५७. ठाकुर – ये नागोर के भट्टारक विशालकीर्ति के शिष्य थे । इनकी एकमात्र कृति १५९८ ई० में रचित " शान्तिनाथ पुराण" है । इन्होंने १५९३ ई० में " महापुराण कालिका" की भी रचना की थी । " ५८. संतसुमति कोति- - अब तक इनकी निम्न परीक्षा रास" १५६८ ई०, "जिहादन्त विवाद", स्वामी विनती", " बसन्त विद्या विलास ", पद आदि । १५५९ ई०, " प्रद्युम्न रास" १५७१ १५७३ ई०, "भविष्य दत्तरास" जयमाल", "छियालीस ढाणा", १. कासलीवाल, राजैसा, पृ० २०८ । २ . वही । ३. कासलीवाल, राजैसा. पृ० २०९ । ४. कासलीवाल - शाकंभरी, पृ० ४७ । ५९. राजशोल—ये खरतरगच्छीय साधु हर्ष के शिष्य थे । इन्होंने चित्तौड़ में १५०६ ई० में " विक्रम चरित्र चौपाई' की रचना की । इनकी अन्य रचनाएँ 'अमरसेन वयरसेन चौपाई ” १५३७ ई०, उत्तराध्ययन छत्तीस गोत" आदि हैं । ५. राजैसा, पृ० २०९ । ६. वही, पृ०, २११ । ७. वही, पृ० १७३ ॥ रचनाएँ प्राप्त हुई हैं- "धर्म " शीतलनाथ गीत", "जिनवर Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७८ : मध्यकालीन राजस्थान में जैनधर्म ६०. कवि पुण्य नन्दि-इन्होंने ३२ पद्यों में "रूपकमाला" रची, जिस पर संस्कृत में टीकाएँ लिखा जाना विशेष उल्लेखनीय है। १५२५ ई० में रत्नरंग उपाध्याय ने इस पर बालावबोध टोका लिखी और १६०८ ई० में समय सुन्दर ने इस पर संस्कृत में चूणि लिखी।' ६१. वाचक धर्म समुद्र-ये वाचक विवेकसिंह के शिष्य थे। इन्होंने १५१० ई० में जालौर में ३३७ पद्यों में "सुमित्र कुमार रास' लिखा । १५२७ ई० में "कुलध्वज कुमार रास" की रचना को। कवि ने मेवाड़ में १५१६ ई० में एक कल्पित कथा "गुणाकर चौपाई" रची । इसके अतिरिक्त इन्होंने "शकुन्तला रास", "सुदर्शन रास', "सुकमाल सज्झाय' आदि रचनाएँ भी लिखीं। ६२. सहज सुन्दर---ये उपकेश गच्छीय रत्नसूरि के शिष्य थे । १५१३ ई० से १५३९ ई० तक की इनकी १० रचनाएँ प्राप्तहैं । इनको मुख्य रचनाएँ-"इलाती पुत्र सज्झाय", 'गुणरत्नाकार छन्द" १५१५ ई०, "ऋषिदत्तारास", "आत्माराम रास", "परदेशी राजा रास", "रत्नसार कुमार चौपाई", शुकसहेली कथा रास", "जम्बु अतरंग रास", "यौवन जरासंवाद", "आँख कान संवाद", "गरभवेलि" आदि मुख्य है । ६३. भक्ति लाभ--ये खरतरगच्छ के उपाध्याय जयसागर के प्रशिष्य थे। इनकी रचनाएँ-"सीमन्धर स्तवन", "वरकाणा स्तवन", "जीरावली स्तवन", "रोहिणी स्तवन" आदि हैं। इनका रचनाकाल १५१४ ई० के आसपास था। ६४. चारुचंद्र--ये भक्तिलाभ के शिष्य थे । १५१५ ई० में इनके द्वारा बीकानेर में लिखित "उत्तमकुमार चरित्र" की स्वचरित पांडुलिपि बीकानेर के नाहटा संग्रहालय में है।" ६५. पार्श्वचंद्र सूरि ( १४८० ई०-१५५५ ई०)--ये पावचंद्रगच्छ के संस्थापक थे । गद्य व पद्य में इनकी शताधिक रचनाएँ मिलती हैं। अधिकांश रचनाएं सैद्धान्तिक हैं । प्रमुख रचनाएँ-"साधुवंदना", "पाक्षिक छत्तीसी", "चारित्र मनोरथ माला", "श्रावक मनोरथ माला", "वस्तुपाल तेजपाल रास", "आत्म शिक्षा", "आगम छत्तीसी", "गुरु छत्तीसी", "विवेक शतक", "आदीश्वर स्तवन", "कंधक चरित्र सज्झारा", "वीतराग स्तवन" आदि हैं । १. राजैसा, पृ० १७३। २. वही पृ० १७३ ।। ३. वही। ४. जैसरा, पृ० २४१ । ५. वही। ६. राजैसा, पृ० १७३ । Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन साहित्य एवं साहित्यकार : ३७९ ६६. विजयदेवसूरि--जालौर में इन्होंने "शीलरास" काव्य की रचना की, जिसकी कई हस्तलिखित प्रतियाँ प्राप्त हैं। इसकी १५५४ ई० की एक प्रति से ज्ञात होता है कि इनका रचनाकाल १६वीं शताब्दी था।' ६७. वाचक विनय समुद्र-ये बीकानेर निवासी व उपकेश गच्छीय वाचक हर्ष समुद्र के शिष्य थे। इनका रचनाकाल १५२६ ई० से १५५७ ई० तक रहा। बीकानेर में रचित इनकी कई कृतियाँ प्राप्त हैं। कुछ रचनाएँ जोधपुर व तिवरी में भी लिखी गई । इनकी प्रमुख रचनाएं-"विक्रमपंच दंड चौपाई", "अंबड चौपाई" १५४२ ई०, "मृगावती चौपाई", "चित्रसेन पद्मावती रास", "संग्राम सूरि चौपाई", "चंदन बालारास'', "नेमिराज्य श्री संधि", "इलापुत्र रास" आदि हैं। ६८. कुशल लाभ--ये खरतर गच्छीय अभय धर्म के शिष्य थे। इनका रचनाकाल १५५९ ई० से १५६७ ई० रहा । इनकी मुख्य रचनाएँ-"माधवानल', 'कामकंदला चौपई" १५५९ ई०, "ढोलामारवणी चौपई', 'तेजसार रास'' १५६६ ई०, “अगड़दत्त रास", "भवानी छंद", "नवकार छन्द", "जिनपालित जिनरक्षित संधि", "पिंगल शिरोमणी", दुर्गासात्वसि" आदि हैं । ६९. मालदेव--ये हनुमानगढ़ निवासी और बड़गच्छीय भावदेव के शिष्य थे । इनका रचनाकाल १५५५ ई० से १५५७ ई. के आसपास था। इनकी मुख्य रचनाएँ-'पुरन्दर चौपई", 'सरसुन्दर चौपई', "भोजप्रबन्ध", "विक्रमपंच दण्ड. चौपई", "अंजना सुन्दरि चौपई", "पद्मावती पद्मश्री रास", "वीरांगद चौपई", "शील बावनी", "स्थूलिभद्र धमालि चौपई", "देवदत्त चौपई", "महावीर पंचकल्याणक स्तवन", "मृगांक पद्मावती रास" आदि २० से भी अधिक रचनाएँ उपलब्ध हैं। ७०. पुण्यसागर-ये खरतर गच्छाचार्य जिनहंस सरि के शिष्य थे। इन्होंने १५४७ ई० में जैसलमेर में "सुबाह संधि" की रचना की। इसके अतिरिक्त अन्य रचनाएँ “साघुवंदना", 'नेमिराज श्रीगीत", "मुनिमालिका", "प्रश्नोत्तर काव्य वृत्ति" १५८३ ई०, “जंबूद्वीप पण्णति वृत्ति" १५८८ ई०, “महावीर स्तवन", "आदिनाथ स्तवन", "अजितस्तवन", "जिनचंद्र सूरि अष्टकाम" आदि हैं।" १. राजैसा, पृ० १७४ । २. वही । ३. वही। ४. वही। ५. वही। Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८० : मध्यकालीन राजस्थान में जैनधर्म ७१. पद्मराज--पुण्य सागर के शिष्य पद्मराज ने १५९३ ई० में "अभयकुमार "चौपई", १६१० ई० में "छुल्लक ऋषि प्रबन्ध" व १६१२ ई० में "सनत कुमार रास" की रचना की। ७२. परमानन्द--पुण्य सागर के प्रशिष्य परमानन्द ने १६१८ ई० में "देवराज बच्छराज चौपई' की रचना की। ७३. कनक सोम--ये खरतरगच्छीय अमरमाणिक्य के शिष्य थे। इनका रचनाकाल १५६८ ई० से १५९८ ई० तक रहा । इनकी प्रमुख रचनाएँ-"जयतपदवेलि" १५६८ ई०, “जिनपालित जिन रक्षित रास" १५७५ ई०, "आषाढ़ भूति धमाल" १५८१ ई०, "हरिकेशी संधि" १५८३ ई०, ''आर्द्रकुमार धमाल" १५८७ ई०, "नेमिफाग" "मंगल कलश रास", "थावच्चा सुकौशल चरित्र", "कालिकाचार कथा", "जिनचंद सूरि गीत" आदि हैं । ७४. होर कलश ( १५३८ ई०-१६०० ई० )-बीकानेर व नागौर प्रदेश में 'विचरण करने वाले इन मुनि ने 'हीर कलश जोइस हीर" नामक महत्त्वपूर्ण रचना १६०० ई० में समाप्त की। इसके अतिरिक्त इनकी अन्य रचनाएँ-'कुमति विध्वंसन" १५६० ई०, “सामायिक बत्तीस दोष पुलक" १५५८ ई०, “दिनमान पुलक", "जंबू स्वामी चरित्र" १५५९ ई०, "मुनिपति चौपाई", "सर्वजिन गणधर विनती", "राजसिंह रत्नावली सन्धि", "वृहद गुर्वावली" १५६२ ई०, “वीर परम्परा नामावली", "सोलह स्वप्न सज्झाय", "समकिस गीत", "सप्तव्यसन गीत", "खरतर आचरण गीत", "आराधन चौपाई", "मोती कपासिया संवाद", "रत्नचूड़ चौपई", "अट्ठारह नाता' आदि । इनकी लगभग ४० रचनाएँ प्राप्त हैं।४ । ७५. हेमरत्न सूरि ( १५५९ ई०-१६१६ ई०)-ये पूर्णिमिया गच्छीय वाचक पद्मराज के शिष्य थे । इनका रचनाकाल १५४६ ई० से १५८८ ई० तक रहा। इनकी प्रमुख कृतियों में से कुछ इस प्रकार हैं-"शीलवतोरास", "महीपाल चौपई", "अमरकुमार चौपई", "गोराबादल चौपई", "लीलावती रास", "जगदम्बा बावनी" आदि ।५ ७६. पदमश्री-इन्होंने १५६९ ई० में "चारूदत्त चरित्र" की रचना की। १. जैसरा, पृ० २४२ । २. वही। ३. वही। ४. राजैसा, पृ० १७५ । ५. जैसरा, पृ० २४२। ६. जैगुक, ३, खण्ड १, पृ० ५३५ । Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन साहित्य एवं साहित्यकार : ३८१ ७७. हेमश्री-ये बड़तपागच्छ के नयसुन्दर की शिष्या थीं। इन्होंने १५८७ ई० में "कनकावती आख्यान" की रचना की।' ७८. हेमसिद्धि-इनका सम्बन्ध खरतरगच्छ से था। इन्होंने “लावण्य सिद्धि पहुतणो जीतम" तथा "सोमसिद्धि निर्वाण गीतम" की रचना की। __७९. ठक्कुरसी--इनकी लिखी ५ रचनाएं अब तक उपलब्ध हुई हैं -“पार्श्वनाथ सत्तावीसी" १५२१ ई०, "शील बत्तीसी' १५२८ ई०, “पंचेन्द्रिय बेलि" १५२८ ई०, "कृपण चरित्र" एवं 'नेमिराजमती वेलि"। ८०. छोहल-अभी तक इनकी ५ कृतियाँ उपलब्ध हैं-"पंचसहेली गीत" १५१८ ई०, "उदरगीत", "पंथीगीत", "बेलि", "बावनी' १५२७ ई०, गीत आदि । (ख) गद्य साहित्य : प्रारम्भिक राजस्थानी में गद्य बहुत कम मिलता है। राजस्थानी भाषा के विकास की कुछ शताब्दियों तक काव्यों की परम्परा अधिक रही। कुछ गद्य रचनाएँ लिखी अवश्य गईं, किन्तु सुरक्षित न रह सकी। गद्य की उपादेयता प्राकृत, संस्कृत आदि भाषा की रचनाओं को जनसाधारण तक पहुँचाने के लिये टीका, टब्बा, बालावबोध, प्रश्नोत्तर आदि के रूप में विकसित हुई । मौलिक रचनाएँ बहुत कम लिखी गईं। १४वीं शताब्दी के पूर्व बहुत कम गद्य मिलता है। गद्य का कुछ अंश शिलालेखों आदि में भी मिलता है। पद्य में लयबद्धता और काव्य सौष्ठव होता है, जिससे उसको याद रखने में अधिक सुविधा होती है । गद्य को लम्बे समय तक मौखिक रूप से याद रखना सम्भव नहीं होता। १३वीं शताब्दी- इस शताब्दी में गद्य का कुछ चलन प्रारम्भ हुआ, जो ग्रन्थों के अर्थ को जनसाधारण के लिये बोधगम्य बनाने, भाषा सीखने की सुगमता आदि की दृष्टि से रचा गया। १२७९ ई० में 'बालशिक्षा", १२७३ ई० में "प्राचीन गुर्जर काव्यसंग्रह" में लिखी हुई "आराधना" में और "प्राचीन गुजराती पद्य सन्दर्भ" आदि में गद्य का स्वरूप देखने को मिलता है। १४वीं शताब्दी-१३०१ ई० का "नवकार व्याख्यान", १३०२ ई० का "सर्वतीर्थ नमस्कार स्तवन" और १३१२ ई० का लिखा हुआ "अतिचार"-ये कतिपय लघु गद्य रचनाएँ प्रकाशित हुई हैं। इनका महत्त्व केवल गद्य की परम्परा को प्रकट करने के लिये ही है। इनमें सूत्रों व गाथाओं का राजस्थानी गद्य में विवेचन किया गया । १. जैगुक, ३ खण्ड १, पृ० २८६ । २. नाहटा, ऐतिहासिक काव्य संग्रह, पृ० २१०-२११ । ३. राजसा, पृ० २०५ । ४. वही। Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८२ : मध्यकालीन राजस्थान में जैनधर्म १३५४ ई० में तरुणप्रभ सूरि ने “षडावश्यक वालावबोध" नामक पहली रचना की, 'जिससे प्रवाहबद्ध गद्य का स्वरूप स्पष्ट होता है। इसके पश्चात् से ही बालावबोध शैली का खूब विकास हुआ। १५वीं शताब्दी-इस शताब्दी से गद्य के नमूने प्रचुरता से उपलब्ध होते हैं । १४२१ ई० में माणिक्यचन्द्रसूरि ने "पृथ्वीचन्द्र चरित्र" गद्य में रचा। इसलिये इस कृति का नाम "वागविलास" रखा गया। इस शताब्दी के पूर्वाद्ध में ऐसा वर्णनात्मक और तुकान्त साहित्यिक गद्य बहुत रचा गया । सोमसुन्दर सूरि ने "उपदेशमाला" और "योगशास्त्र" बालावबोध की रचना की। १४२८ ई० में "कालिकाचार्य कथा" लिखी गई। मेरुतुङ्ग सूरि ने "व्याकरण चतुष्क बालावबोध", साधु रत्नसूरि ने "नवतत्व बालावबोध, दयासिंह ने "संग्रहणो" और "क्षेत्र समास बालावबोध" की रचना की। १४३९ ई० में सोमसुन्दर सूरि ने “षष्ठी शतक बालावबोध" लिखा। इसी प्रकार १४४० ई० की "तपागच्छ गुर्वावली" भी उपलब्ध है, जो इस शताब्दी के ऐतिहासिक गद्य का उत्तम उदाहरण है । १४३४ ई० में जिनसागर सूरि ने “षष्ठीशतक बालावबोध' लिखा। १४४४ ई० में हेमहंस गणी का 'षडावश्यक बालावबोध, १४४४ ई० में ही माणिक्य सुन्दर गणी का "भवभावना बालावबोध", जिनसूरि रचित "गौतमपृच्छा बालावबोध", १४५६ ई० में संवेगदेव गणी द्वारा "पिंडविशुद्धि बालावबोध", १४५८ ई० में धर्मदेव गणी द्वारा “षष्ठी शतक बालावबोध", १४६० ई० में आसचन्द्र द्वारा “कल्पसूत्र बालावबोध", १४६१ ई० में जयचन्द्र सूरि द्वारा "चऊ सरण बालावबोध", उदय बल्लभ सूरि द्वारा "क्षेत्र समास बालावबोध", कमल संयम उपाध्याय द्वारा "सिद्धान्त सारोद्धार" आदि रचे गये । १४६८ ई० में नन्न सूरि द्वारा "उपदेशमाला बालावबोध" की रचना की गई। १४६१ ई० से १४७८ ई० के मध्य मेरुसुन्दर ने "शीलोपदेशमाला", "पुष्पमाला", "षडावश्यक", “षष्ठीशतक", "कपूर प्रकर", "योगशास्त्र", "भक्तामर" आदि २० ग्रन्थों के बालावबोध रचे । इन्होंने केवल जैन आगम और प्रकरणों की ही नहीं, अपितु संस्कृत के अलंकार ग्रन्थ "विदग्ध मुख मंडन"" और "वाग्भटालंकार"६ तथा छंदग्रन्थ "व्रतरत्नाकर" की भी भाषा टीका बालाबबोध रूप में बनाई। इनका एक स्वतंत्र "प्रश्नोत्तर ग्रन्थ' भी १. अगरचन्द नाहटा के ग्रन्थ भण्डार में संग्रहीत : २. राजैसा, प० २२६ । ३. रायल एशियाटिक सोसाइटी, लन्दन से प्र० । ४. राजैसा, पृ० २२७ । ५. श्री रासूस्मृग, पृ० ७०७ । ६. जैसाओइ, पृ० ४८६ । Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन साहित्य एवं साहित्यकार : ३८३ १४७८ ई० में रचित प्राप्त है । पावचन्द्र सूरि ने सर्वप्रथम “आचारांग", "सूत्रकृतांग", "दशवकालिक", "औपपातिक", "प्रश्न व्याकरण", "तंदुल वैयालिय", "चौसरण", "साधु प्रतिक्रमण", "नवतत्व" आदि जैन आगमों पर बालावबोध व भाषा टीकाएँ लिखीं । धर्मदेव ने १४५८ ई० में “षष्ठीशतक बालावबोध" रचा ।' १६वीं शताब्दी-१५२५ ई० में रत्तरंगोपाध्याय ने 'रूपकमाला बालावबोध", अभयधर्म ने “दशदृष्टान्त कथानक बालावबोध", राजहंस ने "दशवकालिक बालावबोध" तथा शिवसुन्दर ने १५१२ ई० में "गौतम पृच्छा बालावबोध", खींवसर में रचित किया । १५५४ ई० में साधुकीति ने "सप्तस्मरण बालावबोध", १५५६ ई० में हर्षबल्लभ उपाध्याय ने “अंचल मत चर्चा", सोमविमल सूरि ने “दशवकालिक' और 'कल्पसूत्र बालावबोध", चन्द्रधर्म गणी ने "युगादि देव स्तोत्र बालावबोध", चारित्रसिंह गणी ने “सम्यक्त्वस्तव बालावबोध" १५७६ ई०, जयसोम ने दो प्रश्नोत्तर ग्रन्थ और "अष्टोत्तरी विधि" १५९३ ई० में रची। पद्मसुन्दर ने १५९४ ई० में "प्रवचनसार बालावबोध" की रचना की । उपाध्याय समय सुन्दर ने “रूपक माला बालावबोध", 'षडावश्यक बालावबोध" और "यति आराधना" की रचना की। शिवनिधान ने १५९५ ई० में "शाश्वत स्तवन बालावबोध" की रचना की। पांडे राजमल्ल ने "समयसार कलश" पर बालावबोध की रचना की। राजस्थानी भाषा एवं अभिलेख : १४वीं, १५वीं शताब्दी से अभिलेखों में राजस्थानी भाषा की विविध बोलियों, यथा मेवाड़ी, गुजराती, मारवाड़ी आदि का भी प्रयोग देखने को मिलता है । देलवाड़ा (मेवाड़) के १४३७ ई० और १४४० ई० के लेख, आबू के दिगम्बर जैन मन्दिर का १४३७ ई० का लेख, आबू का ही १४४१ ई० का कुमारी कन्या अभिलेख, १४५९ ई० का देलवाड़ा का सुरह लेख, जैसलमेर का १५२४ ई० का लेख आदि राजस्थानी भाषा के अभिलेखों में प्रयोग के सुन्दर उदाहरण हैं । (५५) हिन्दी भाषा साहित्य एवं साहित्यकार : राजस्थान जब कई रियासतों में विभक्त था, तब जो प्रदेश ब्रज व पंजाब के आसपास का था, उसमें हिन्दी का प्रभाव व प्रचार अधिक रहा । गुजरात के सन्निकट प्रदेश में स्वाभाविक रूप से गुजराती भाषा का प्रभाव अधिक रहा। शेष सारे प्रदेश की भाषा "मरू" या "मारवाड़ी" या "प्राचीन राजस्थानी" रही, जिसकी कई शाखाएँ एवं बोलियाँ हैं । हिन्दी, मूलतः जिसे खड़ी बोली कहा जाता है, वह तो मुसलमानी १. राजैसा, पृ० २२८ । २. वही। ३. वही। Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८४ : मध्यकालीन राजस्थान में जैनधर्म साम्राज्य के समय विकसित हुई । ब्रज, हिन्दी का दूसरा साहित्यिक रूप है । प्राचीन हिन्दी साहित्य सर्वाधिक ब्रजभाषा का है, जिसे कई ग्रन्थों में ग्वालेरी" नाम भी दिया गया है, क्योंकि ग्वालियर के आसपास के क्षेत्र में इस भाषा का प्रचार-प्रसार अधिक रहा । राजस्थान के भी कई साहित्यकारों ने ग्वालेरी भाषा का उल्लेख किया है | हिन्दी साहित्य वैसे अवधी आदि में भी मिलता है, पर राजस्थान में हिन्दी को खड़ी बोली व ब्रजभाषा इन दोनों उपभाषाओं का ही अधिक शताब्दी तक इन रूपों में स्वल्प रचनाएँ हुई । (स) उत्तर मध्यकाल : प्रसार रहा । १६वीं १७वीं एवं १८वीं शताब्दियों में राजस्थानी जैन साहित्य में विविध भाषाओं को रचनाओं का स्वरूप इस प्रकार रहा (१) प्राकृत भाषा साहित्य एवं साहित्यकार: उत्तर मध्यकाल में राजस्थानी व हिन्दी भाषा के साहित्यिक स्वरूप के अति लोकप्रिय होने के कारण तथा संस्कृत के सर्वमान्य बने रहने के कारण, प्राकृत में बहुत कम या नगण्य रचनाएँ रची गई । दिवाकर दास की "गाथाकोष सप्तशती", शुभचन्द्रसूरि का "चिन्तामणि व्याकरण", साघुरंग का " कर्म विचार सार" प्रकरण आदि १७वीं शताब्दी की प्राकृत रचनाएँ हैं । १८वीं शताब्दी में इस भाषा का प्रयोग साहित्यिक क्षेत्र में लुप्तप्राय हो गया । ( २ ) अपभ्रंश भाषा साहित्य एवं साहित्यकार : हिन्दी एवं राजस्थानी भाषा के साहित्यिक प्रयोग का अपभ्रंश पर भी असर हुआ, अतः १७वीं, १८वीं शताब्दी में इस भाषा में बहुत कम साहित्य सृजित हुआ । १७वीं शताब्दी में होने वाले अपभ्रंश के अन्तिम कवि भगवती दास की १६४७ ई० की कृति " मृगांक लेखाचरित" की पांडुलिपि आमेर शास्त्र भण्डार, जयपुर में है । इसके अतिरिक्त धवल ने "पासनाहचरिय", देवसेनगणी ने 'सुलोचना चरिउ", लक्ष्मदेव ने " णमिणाह चरिउ ", धनपाल ने " बाहुबलि चरिउ", जयदेव ने "भावनासन्धि" आदि, राजस्थान एवं गुजरात में रहकर लिखीं । डॉ० कासलीवाल ने ऐसी सौ अपभ्रंश रचनाओं का विवरण दिया है, जो राजस्थान में उपलब्ध हैं । अभी हाल ही में देवेन्द्र कुमार शास्त्री ने राजस्थान के ग्रन्थ भण्डारों में उपलब्ध ९६८ प्रतियों का विशेष विवरण अपने ग्रन्थ में दिया है । ( ३ ) संस्कृत साहित्य एवं साहित्यकार: जैन साहित्य १७वीं एवं १८वीं शताब्दी में संस्कृत भाषा में निरन्तर लिखा जाता रहा । १. जैभरा, परिशिष्ट ३ | २. शास्त्री, अपभ्रंश भाषा और साहित्य की शोध प्रबृत्तियां, पृ० ११३-११७ । Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन साहित्य एवं साहित्यकार : ३८५ १. पद्मराज -ये महोपाध्याय पुण्यसागर के शिष्य और संस्कृत के विद्वान् थे । इनकी जैसलमेर में १६०२ ई० में रचित "भावारिवारण पादपूर्ति टीका", फलवद्धि में १५८७ ई० में रचित "रूचितदण्ड कस्तुति टोका" आदि कई कृतियाँ प्राप्त हैं । २. वादी हर्ष नन्दन - ये समय सुन्दर के शिष्य थे । इन्होंने १६१४ ई० में " मध्याह्न व्याख्यान पद्धति", १६४७ ई० में " ऋषिमंडल वृत्ति", १६४८ ई० में " स्थानांगसूत्र गाथागत वृत्ति" तथा १६५४ ई० में " उत्तराध्ययन सूत्र टीका" आदि की रचना की ।" ३. गमति कीर्ति ये गुणविनय के शिष्य थे। इनकी प्रमुख रचनाएँ " दशाश्रुतस्कंध टीका" एवं " गुणकित्व षोडषिका" हैं । " ४. सहजकीर्ति - ये खरतरगच्छीय व हेमनन्दन के शिष्य थे। इनका समय १७वीं शताब्दी था इनका कार्यक्षेत्र राजस्थान था । इनकी मुख्य रचनाएं इस प्रकार हैं" कल्पसूत्र टीका" १६२८ ई०, "अनेकशास्त्र समुच्चय", "गौतमकुलक टीका " १६१४ ई०, "फलवद्धि पार्श्वनाथ महात्म्य काव्य", "वैराग्यशतक", "ऋजुप्राज्ञ व्याकरण', 'सारस्वत टीका" १६२४ ई०, "सिद्ध शब्दार्णव नामकोष", "शतदल कमल बद्ध" १६२६ ई०, "पार्श्वनाथ स्तोत्र", " शब्दार्णव व्याकरण" "नामकोष" आदि । ५. गुणरत्न --- ये खरतरगच्छीय विनय प्रमोद के शिष्य थे । ये न्याय, लक्षण व काव्य शास्त्र के प्रौढ़ विद्वान् थे । इनका कार्यक्षेत्र राजस्थान में ही रहा । इनकी प्रमुख रचनाएँ - - " काव्य प्रकाश टीका", "तर्कभाषा टीका", "सारस्वत टीका" १५८४ ई०, " रघुवंश टीका", "मंगलवाद" आदि हैं । ४ ६. सूरचंद -- ये खरतरगच्छीय एवं वीरकलश के शिष्य थे । ये दर्शन और साहित्य शास्त्र के प्रकांड पंडित थे तथा इनका कार्यक्षेत्र राजस्थान था । इनकी प्रमुख रचनाएँ-" स्थूलभद्र गुणमाला काव्य" १६२३ ई०, "जैनतस्वसार स्वोपज्ञ टीका सह" १६२२ ई०, "अष्टार्थी श्लोक वृत्ति", "पदैकविंशति", " शांतिलहरी", "शृंगाररसमाला" १६०२ ई०, "पंचतीर्थी श्लेषालंकार", "चित्रकाव्य", "अजित - शांति स्तवन" आदि है ।" १. राभा ३, क्र० २ ॥ २. राजैसा, पृ० ६८ । ३. जैग्रग्र, पृ० ५६ | ४. राजैसा, पृ० ६९ । ५. जैसिभा, १६, अंक १ । २५ " Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८६ : मध्यकालीन राजस्थान में जैनधर्म ७. विनयसागरोपाध्याय - ये पिप्पलक शाखा से सम्बन्धित थे । इनकी मुख्य रचनाएँ - " अविदपद शतार्थी", " नलवर्णन महाकाव्य " ( अप्राप्त), "प्रश्नप्रबोध काव्यालंकार स्वोपज्ञ टीका सह" १६१० ई०, " राक्षस काव्य टीका", "राघवपांडवीय काव्य टीका", "विदग्ध मुखमंडन टीका " १६१२ ई० हैं ।' ८. उदयसागर -- ये भी पिप्पलक शाखा के मुनि थे । इन्होंने १७वीं शताब्दी में " वाग्भटालंकार टीका" की रचना की । २ ९. भट्टारक श्रीभूषण -- ये भट्टारक भानुकोति के शिष्य थे । ये १६४८ ई० में नागौर गादी के भट्टारक हुए। इनकी संस्कृत रचनाएँ -- " अनन्तचतुर्दशी पूजा”, "अनन्तनाथ पूजा", " भक्तामर पूजाविधान", "श्रुतस्कंध पूजा" व "सप्तर्षि पूजा" हैं । " १०. भट्टारक धर्मचंद्र – ये नागौर गादी पर १६५५ ई० में भट्टारक बने । १६६० ई० में मारोठ में इन्होंने " गौतमस्वामीचरित" की रचना की । इसके अलावा इनकी "नेमिनाथ विनती", "संबोध पंचासिका " एवं "सहस्त्रनाम पूजा" आदि कृतियाँ भी मिलती हैं ।" ११. ब्रह्म कामराज -- इन्होंने १६३४ ई० में मेवाड़ में " जयपुराण" की रचना की ।" १२. पं० जगन्नाथ - - ये तक्षकगढ़ ( टोडारायसिंह ) के निवासी और भट्टारक नरेन्द्र कीर्ति के शिष्य थे । इनकी अब तक ६ रचनाएँ उपलब्ध हैं -- "चतुर्विंशति संघान स्वोपज्ञ टीका", "सुखनिधान", "सुषैणचरित्र", "नमिनरेन्द्र स्तोत्र", "कर्मस्वरूप वर्णन" आदि । इनकी एक अन्य रचना " शृङ्गार समुद्र" भी थी, जो उपलब्ध नहीं है । १३. वादिराज - ये पं० जगन्नाथ के भाई व संस्कृत के अच्छे विद्वान् थे । ये तक्षक नगर के राजा राजसिंह के महामात्य थे । इनकी कृतियाँ उपलब्ध हैं - " वाग्भटालंकार” की " कविचंद्रिका" नामक टीका, "ज्ञान लोचन स्तोत्र" व "सुलोचना चरित्र" । प्रथम कृति १६७२ ई० में निबद्ध की गई । 9 १. राजैसा, पृ० ७३ । २ . वही । ३. वही, पृ० ११२ । ४. वही, ५. वही, पृ० ११४ । ६. जैग्रप्रस, पृ० ३८ । ७. राजैसा, पृ० ११४ । पृ० ११२-११३ । Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन साहित्य एवं साहित्यकार : ३८७ १४. भावविजय - - तपागच्छ के भावविजय ने १६३२ ई० में सिरोही में "उत्तराध्ययनसूत्र टीका" की रचना की ।" १५. पद्म सागर --- ये तपागच्छ के आचार्य थे । इन्होंने १६०० ई० में पीपाड़ में "उत्तराध्ययनसूत्र कथासंग्रह " लिखा । १६. चारित्रचंद्र -- ये खरतरगच्छ के थे । इन्होंने १६६६ ई० में रिणी में "उत्तराध्ययनसूत्र दीपिका " रची। १७, शिवानघानोपाध्याय - ये खरतरगच्छ के मुनि थे । इन्होंने पाली में "क्षेत्रसमास वृत्ति" एवं जोधपुर में १६३३ ई० में " उपदेशमाला संस्कृत पर्याय" की रचना की । ४ १८. मतिवर्द्धन – ये भी खरतरगच्छ के थे। इन्होंने १६८१ ई० में जैतारण में " गौतम पृच्छाटीका ” की रचना की ।" १९. ललित कीर्ति – ये भी खरतरगच्छ के थे । इन्होंने १६२१ ई० में लाटद्रह में "शीलोपदेशमाला टोका" की रचना की । २०. विनय विजयोपाध्याय - ये तपागच्छीय साधु थे । इन्होंने १६६१ ई० में जोधपुर में "इंदुदूत" की रचना की । ७ २१. विनय चंद्र - - खरतरगच्छ के इन मुनि ने १६३७ ई० में राडद्रह में "मेघदूत टीका" रचो थी ।' " २२. गुणरत्न - इन खरतर गच्छीय मुनि ने १६१९ ई० में जोधपुर में रघुवंश टीका" निबद्ध की । २३. सुमति विजय – ये खरतर गच्छ के थे। इन्होंने बीकानेर में १६४१ ई० में "रघुवंश टीका " लिखी । १६४२ ई० में "मेघदूत वृत्ति" की भी रचना की । १० १. राभा, ३, क्र० २ । २. राजैसा, पृ० ७४-८२ ॥ ३. वही । ४. वही । ५. वही । ३. वही । ७. वही । ८. वही । ९. वही । १०. वही । Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८८ : मध्यकालीन राजस्थान में जैनधर्म २४. राजविजय-ये खरतरगच्छ से सम्बन्धित थे। १६७० ई० में बीकानेर में इन्होंने "विज्ञप्तिका" की रचना की।' २५. लावण्यविजय-इन तपागच्छीय विद्वान ने १६५२ ई० में जोधपुर में एक "विज्ञप्तिका" रची। २६. जिनवर्धमान सूरि-खरतरगच्छ से सम्बन्धित इन मुनि ने १६८२ ई० में "सूक्ति मुक्तावली" का सृजन किया। २७. सरचंद्रोपाध्याय-ये सभी खरतरगच्छीय थे। इन्होंने १६२३ ई० में सांगानेर में "स्थूलिभद्रगणमाला काव्य" तथा १६२६ ई० में बीकानेर के निकट अमरसर में "जैन तत्वसार" ग्रन्थ स्वोपज्ञ वृत्ति सहित लिखा। ___२८ लक्ष्मीबल्लभोपाध्याय-ये खरतरगच्छ के थे। १६८९ ई० में इन्होंने रिणी में "पंचकुमार कथा" लिखी।" २९. कनककुशल-ये तपागच्छ से सम्बन्धित थे । इन्होंने १६०८ ई० में मेड़ता में “सौभाग्यपंचमी कथा" लिखी।' ३०. कनककुमार-ये भी खरतरगच्छ के थे। इन्होंने १६५९ ई० में जैसलमेर में "जैसलमेर अष्टजिनालय स्त्रोत्र" रचा। ३१. ज्ञानविमलोपाध्याय-ये खरतरगच्छ के थे। इन्होंने १७वीं शताब्दी में जैसलमेर में "जैसलमेर पार्श्व जिनस्तव" रचा।' ३२. साधुसुन्दर-ये भी खरतरगच्छीय थे। इन्होंने १६२८ ई० में जैसलमेर में "जैसलमेर पार्श्व जिन स्तुति" की रचना की। ___३३. भावप्रमोद-ये भी खरतरगच्छीय थे। इन्होंने १६३७ ई० में बिलाड़ा में "सप्तपदार्थी टीका" लिखी।१० १. राजैसा, पृ०७४-८२॥ २. वही। ३. वही। ४. वही। ५. वही। ६. जैसासइ, पृ० ६०४ । ७. राजैसा, पृ०७४-८२ । ८. वही। ९. वही। १०. वही। Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन साहित्य एवं साहित्यकार : ३८९ ३४. ज्ञानमेरु - खरतरगच्छीय इन साधु ने १६१० ई० में डीडवाना में " सारस्वतानुवृत्यव बोधक" की रचना की ।" ३५. उदयचन्द्र- ये भी खरतरगच्छीय थे । इन्होंने १६७४ ई० में बीकानेर में "पांडित्य दर्पण " सृजित किया । ३६. समयमाणिक्य — ये भी खरतरगच्छ के थे। इन्होंने १६८९ ई० में जाबालि - पुर में "रसिकप्रिया संस्कृत टोका" को रचना की । * ३७. कुशलधीर - खरतरगच्छ से सम्बन्धित इन मुनि ने १६६७ ई० जोधपुर में "रसिकप्रिया" टीका लिखी । ४ ३८. शिवचन्द-ये खरतरगच्छीय थे । १६४२ ई० में अलवर में इन्होंने "विदग्धमुखमंडनटीका" लिखी ।" ३९. कीर्तिवर्द्धन - ये भी खरतरगच्छीय थे। इन्होंने १७वीं शताब्दी में मेड़ता में 'जन्मप्रकाशिका ज्योतिष" की रचना की । "" ४०. धनराज — ये अंचलगच्छ के थे । इन्होंने १६३५ ई० में पद्मावती पट्टन में "महादेवी दीपिका" की रचना की । ४१. भानुचंद्र गणी - ये तपागच्छ के थे । १७वीं शताब्दी में सिरोही में इन्होंने " बसन्तराज शकुन टीका" रची।" ४२. मेघविजयोपाध्याय - ( १६२८ ई०-१७०३ ) ये तपागच्छीय एवं कृपाविजय के शिष्य थे। इनका कार्यक्षेत्र गुजराज एवं राजस्थान रहा । ये बहुमुखी प्रतिभासंपन्न विशिष्ट विद्वान् थे । इनकी ३८ कृतियां प्राप्त हैं, जिनमें निम्न प्रमुख हैं- "सप्तसंधान महाकाव्य" १७०३ ई० " दिग्विजय महाकाव्य", "शांतिनाथ चरित्र" ( नैषध पाद पूर्ति ), "देवानन्द महाकाव्य " ( माघ पाद पूर्ति), “किरात समस्या पूर्ति", "मेघेवूत समस्या लेख", "लघुत्रिषष्टिशलाका पुरुष चरित्र", "भविष्य दत्त चरित्र", J १. राजेसा, पृ० ७४-८२ । २. वही । ३. वही । ४. वही । ५. अरावली, १, क्र० १२ । ६. राजैसा, ७४.८२ । ७. राभा, ३, अंक २ । ८. वही । Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९० : मध्यकालीन राजस्थान में जैनधर्म "पंचाख्यान", "चंद्रप्रभा व्याकरण" १७०० ई०, “हेमशब्द चौद्रका", "हेमशब्द प्रक्रिया", "चिंतामणि परीक्षा", "युक्ति प्रबोध", "मेघ महोदय वर्ण प्रबोध", "हस्तसंजीवन", "उदयदीपिका", "वीसायंत्र विधि", "मातृकप्रसाद" १६७० ई०, "अहंद्गीता", "भविष्य दत्त कथा", "पंचमी कथा", "रमल शास्त्र", "प्रश्न सुन्दरी", "पंचतीर्थी स्तुति", "भक्तामर वृत्ति" आदि ।' ४३. धर्मवर्द्धन-( १६४३ ई०-१७१७ ई० ) इनका जन्मनाम धर्मसी था एवं विजय हर्ष के शिष्य थे । ये खरतरगच्छीय थे । इन्होंने 'वीर भक्तामर" स्वोपज्ञ टीका सहित अनेक स्तोत्र रचे ।२ ४४. महोपाध्याय रामविजय-( १६७७ ई०-१७७८ ई०) ये खतरगच्छीय क्षेमकीर्ति शाखा के एवं दयासिंह के शिष्य थे। इनका कार्यक्षेत्र जोधपुर, बीकानेर रहा । इनकी प्रमुख रचनाएँ-"गौतमीयमहाकाव्य" १७५० ई०, "गुणमाला प्रकरण", "सिद्धांतचंद्रिका टीका", "साध्वाचार षटत्रिशिका", "मुहूर्तमणिमाला" १७४४ ई०, "षड्भाषामय पत्र" १७३० ई०, आदि हैं । ४५. महिमोदय-ये खरतरगच्छीय मतिहंस के शिष्य, १८वीं शताब्दी में हुए । इनका कार्यक्षेत्र राजस्थान रहा । ये ज्योतिष शास्त्र के विद्वान् थे। इनकी प्रमुख कृतियाँ हैं-"खेटसिद्धि", "जन्मपत्री पद्धति", 'ज्योतिषरत्नाकर" १६६५ ई०, "पंचांगानयन विधि" १६६५ ई०, "प्रेमज्योति" १६६६ ई०, “षट्पंचाशिका वृत्ति बालावबोध" आदि । ४६. यशस्वत्सागर-इनका समय १८वीं शताब्दी रहा। ये खरतर गच्छीय क्षेमकीति शाखा एवं लक्ष्मीकीति के शिष्य थे। इनका कार्यक्षेत्र राजस्थान रहा । इनकी प्रमुख रचनाएँ-"कल्पसूत्र टीका", "उत्तराध्ययन सूत्र टीका", "कालिकाचार्य कथा", "कुमारसंभव टीका", "मातृकाधर्मोपदेश स्वोपज्ञ टीका सह", "संसारदावा पाद पूात्मक", "यशोराजिराज पद्धति", "पार्श्वनाथ स्त्रोत्र" आदि । ४७. पुण्यशील गणो-ये रामविजय के शिष्य थे। इनके द्वारा रचित जयदेव के गीत गोविंद की पद्धति पर "चतुर्विंशति जिन स्तवनानि स्वोपज्ञ टीका सह" और "ज्ञानानंद प्रकाश" प्राप्त हैं। १. राजैसा, पृ०७०। २. वही। ३. वही, पृ०७१ । ४. वही, पृ० ७०। ५. जैसास, पृ० ६५६ । ६. राभा, ३, अंक २। Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन साहित्य एवं साहित्यकार : ३९१ ४८. शिवचंद्रोपाध्याय-ये रामविजय के प्रशिष्य थे। इनकी मुख्य कृतियाँ "प्रद्युम्न लीला प्रकाश" १८२२ ई०, “विंशति पद प्रकाश", "समुद्रबंध काव्य" १८०४ ई०, "सिद्ध सप्ततिका", "भावनाप्रकाश" "मूलराज गुण वर्णन" तथा अनेक स्त्रोत्र हैं।' ४९. महोपाध्याय क्षमाकल्याण-(१७४४ ई०-१८१५ ई० ) ये खरतरगच्छीय अमृतधर्म के शिष्य थे । ये उत्तम कोटि के विद्वान थे। इनकी प्राप्त रचनाओं में मुख्य निम्न हैं-"तर्क संग्रह फक्किका" १७१७ ई०, "भूधातुवृत्ति" १७७२ ई०, “समरादित्यकेवली चरित्र" पूर्वार्द्ध, "अंबड चरित्र", "यशोधर चरित्र", "गौतमीय महाकाव्य टीका", "सूक्ति रत्नावली स्वोपज्ञ टीका सह", "विज्ञान चंद्रिका", "खरतरगच्छ पट्टावली", "जीव विचार टीका", परसमय सार विचार संग्रह", "प्रश्नोत्तर सार्द्धशतक", "साधु श्रावक विधि प्रकाश", "अष्टाह्निकादि पूर्वाख्यान", "चैत्यवंदन चतुर्विशति" आदि ग्रन्थ एवं कतिपय स्तोत्र । ५०. जिनसमुद्रसूरि-ये बेगड़शाखा से सम्बन्धित थे। इन्होंने १८वीं शताब्दी में निम्न रचनाएँ लिखीं-'कल्पांतर वच्चि", "सारस्वत घातुपाठ", व "वैराग्य शतक टीका। ५१. जिनचंद्र सूरि-ये आद्यपक्षीय शाखा से सम्बन्धित थे। इन्होंने १८वीं शताब्दी में "आचारांग सूत्र टीका" रची। ५२. सुमंति हंस-ये भी आद्यपक्षीय शाखा के थे। इन्होंने ''कल्पसूत्र टीका" की रचना की। ५३. भट्टारक देवेन्द्र कीति-ये भट्टारक जगत्कीति के शिष्य थे और १७१३ ई० में आमेर में भट्टारक हये। इन्होंने "समयसार" पर एक संस्कृत टोका ईसरदा में १७३६ ई० में समाप्त की। इनका कार्य क्षेत्र ढूंढाढ़ प्रवेश था। इनकी अन्य रचनाएँ-"व्रतकथा कोष", "चंदनषष्ठि कथा", "प्रद्युम्न प्रबन्ध" आदि हैं । ५४. भट्टारक सुरेन्द्र कोति-१७६५ ई० या १७६६ ई० में ये जयपुर में भट्टारक बने । ये संस्कृत के प्रकांड विद्वान थे। अभी तक इनकी निम्न रचनाएँ १. राजैसा, पृ० ७१। २. वही, पृ० ७१। ३. वही, पृ० ७२ । ४. वही। ५. बही। ६. राजैसा, पृ० ११५ । Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९२: मध्यकालीन राजस्थान में जैनधर्म उपलब्ध हुई हैं-"अष्टाह्निका कथा", "पंचकल्याणक विधाम", "पंचमास चतुर्दशीव्रतोद्यापन", "पुरन्दर व्रतोद्यापन", "लब्धिविधान", "सम्मेदशिखर पूजा", 'प्रताप काव्य", "जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति" पर टीका आदि। इन्होंने कई पूजाएं भी लिखी। ५५. जीवराज-ये खरतरगच्छ के थे। इन्होंने १७९० ई० में बीकानेर में "मान एकादशी व्याख्यान" की रचना की । ५६. कर्मचंद्र-ये भी खतरतगच्छीय मनि थे। १७६७ ई० में इन्होंने नागौर में "तर्क संग्रह टीका" की रचना की। ५७. दीपचंद्र-ये भी खरतरगच्छीय थे। इन्होंने १७५५ ई० में जयपुर में "पथ्यापथ्य निर्णय" की रचना की। ५८. लाभवर्धन-ये भी खरतरगच्छीय साधु थे । इन्होंने १७०४ में गुढ़ा में "अंक प्रस्तार" की रचना की। ५९. रायचंद्र-ये भी खरतर गच्छ से सम्बन्धित थे। इन्होंने १७७० ई० नागौर में "अषयादि शकुनावली" रची। ६०. क्यासिंह-ये भी खरतरगच्छ से सम्बन्धित थे। इन्होंने १७१४ ई० में एक "विज्ञप्तिका" की रचना की । ६१. सदानंद-इन्होंने १७४९ ई० में "सिद्धान्त चंद्रिका" की सुन्दर आलोचना लिखी। ६२. गुणविजय-इन्होंने "विजय प्रशस्ति" काव्य पर एक पुस्तक की रचना १६३१ ई० में सिरोही में पूर्ण की। (४) राजस्थानीभाषा-साहित्य एवं साहित्यकार : जैनाचार्यों की लोकभाषा में उपदेश देने की प्रवृति के कारण १७ वी व १८ वीं शताब्दी में भी स्थानीय भाषाओं में विपुल साहित्य सृजित किया गया। १. राजैसा, पृ० ११५ । २. वही पृ० ७४-८२ । ३. वही। ४. वही। वही। ६. वही। ७. वही। .. Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन साहित्य एवं साहित्यकार : ३९३ (क) पद्य साहित्य : १. महोपाध्याय समय सुन्दर - ये राजस्थानी साहित्य के सबसे बड़े गीतकार एवं कवि के रूप में उल्लेखनीय हैं । राजस्थानी गद्य-पद्य में इनकी सैकड़ों रचनाएं उपलब्ध है । सीता-राम चौपाई" नामक राजस्थानी जैन रामायण की एक ढाल इन्होंने सांचौर में बनाई थी । इनकी ५६३ रचनाएँ “समयसुन्दर कृति कुसुमांजलि" में प्रकाशित हो चुकी हैं। अन्य प्रमुख रचनाएं "संबप्रद्युम्न चौपई", "मृगावती रास" १६११ ई०, "प्रियमेलक रास” १६१५ ई०, "शत्रुंजय रास", " स्थूलिभद्ररास", "चातुर्मासिक पर्व कथा", "कालकाचार्य कथा" आदि हैं । " २. गुणविनय - ये जयसोम के शिष्य थे । इनका रचनाकाल रहा । इनकी रचनाएँ इस प्रकार है - " कवयन्नासंधि ", " कलावती प्रबन्ध", "जीवस्वरूप चीपई", " नलदमयन्ती रास" आदि । ३. भुवनकीकत - इनकी १६१० ई० से १६४९ ई० तक की रचनाएँ मिलती हैं, जिनमें " भरत बाहुबलि चौपई", "गज सुकमाल चौपई", "अजन्ना सुन्दरी रास " के नाम उल्लेखनीय हैं । १६१९ ई० तक रास", "अंजना ४. लावण्य कोर्ति- ये खरतरगच्छीय ज्ञान विलास के शिष्य थे । १७वीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध इन्होंने "रामकृष्ण चौपई" की रचना की । ५. लाभोदय - ये खरतरगच्छीय भुवनकीर्ति के शिष्य थे । इनके द्वारा रचित "कयवन्ना रास" महत्वपूर्ण कृति है ।" ६. गुण नन्दन - इनके द्वारा रचित "इलापुत्र रास" महत्वपूर्ण कृति है । ७. कविवर जिनहषं -- ये खरतरगच्छीय शांतिहर्ष के शिष्य थे । इनकी समस्त कृतियों का परिमाण एक लाख श्लोकों के लगभग है । इनके वृहद् रासों की संख्या लगभग ५०-६० है । १६४७ ई० से १६७९ ई० तक की कालावधि इन्होंने राजस्थान में व्यतीत की। इस अवधि की समस्त रचनाएं मारवाड़ प्रदेश में रचित हैं । इनके बड़ेबड़े ग्रन्थ इस प्रकार हैं- " चंदनमलयागिरि चौपई" १६४७ ई०, “विद्याविलास रास " १६५४ ई०, "मंगलकलश चौपई" १६५७ ई०, " मत्स्योदर रास” १६६१ ई०, " शीलनववाड़ सम्यक् ” १६७२ ई०, " नंद बहत्तरी" १६५७ ई०, "गजसुकुमाल चौपई" १. राजैसा, पृ० १७५ । २. जैसरा, पृ० २४२ । ३. वही । ४. वही । ५. वही । ६. वही । Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९४ : मध्यकालीन राजस्थान में जैनधर्म १६५७ ई०, “जिनप्रतिमा हुंडी रास" १६६८ ई०, “कुसुमश्रीरास" १६५२ ई०, "मगापुत्र चौपई" १६५७ ई०, “मातृका बावनी" १६७३ ई०, "ज्ञातासूत्रसज्झाय" १६७९ ई०, “समकित सप्तमी" १६७९ ई०, “शुकराज रास" १६७९ ई०, “श्रीपाल रास" १६८३ ई०, "रत्नसिंह रास" १६८४ ई०, "श्रीपाल रास संक्षिप्त" १६८५ ई०, "अवन्ति सुकुमाल रास" १६८४ ई०, "उत्तमकुमार रास" १६८८ ई०, “कुमारपाल रास" १६८५ ई०, “अमर दत्त मित्रानंद रास" १६९२ ई०, "चंदन मलयागिरि चौपई" १६८७ ई०, “हरीशचंद्र रास" १६८७ ई०, "हरिबलमच्छीरास" १६८८ ई०, "सुदर्शन सेठ रास' १६९२ ई०' "अजितसेन कनकावती रास" १६९४ ई०, “गुणावली रास" १६९४ ई०, “महाबल मलयासुन्दरि रास' १६९४ ई०, "शत्रुजय महात्म्य रास"१६९८, ई० "सत्यविजय निर्वाण रास" १६९९ ई०, "रत्नचूड़ रास" १७०० ई०, "अभय कुमार रास" १७०१ ई०, “रात्रि भोजन रास" १७०१ ई०, “रत्नसार रास" १७०२ ई०, “वयरस्वामी रास" १७०२ ई०, “जंबूस्वामी रास" १७०३ ई०, "स्थूलिभद्र सज्झाय" १७०३ ई०, “नर्मदासुन्दरि सज्झाय" १७०३ ई०, “आराम सोभारास" १७०४ ई०, “वसुदेवरास" १७०५ ई०, “जसराज बावनी" १६८१ ई०, "मेघकुमार चौडालिया", “यशोधर रास" १६९० ई०, “श्रीमतीरास” १७०४ ई०, "कनकावती रास", "उपमितिभव प्रपंच रास" १६८८ ई०, "ऋषिदत्त रास" १६९२ ई०, "शीलवती रास" १७०१ ई०, “रत्नशेखर रत्नावती रास" १७०२ ई०, "विशि" १६८८ ई०, "दशवकालिक गीत" १६८० ई०, "दोहा संग्रह", "चाबोली कथा", "गजसिंह चरित्र चौपई" १६५१ ई० तथा विविध स्तवन, सज्झाय आदि । ८. जिनसमुद्र सूरि-इनका कार्यक्षेत्र जैसलमेर के आसपास था । इनकी १६४० ई० की "नेमिनाथ फाग'' सर्वप्रथम कृति है एवं अंतिम रचना "सर्वार्थसिद्धि मणि माला" १६८३ ई० में पूर्ण हुई थी। इसके अतिरिक्त २५ रचनाएँ और हैं, जिनमें 'वसुदेव चौपई", "ऋषिदत्ता चौपई", "रुक्मिणी चरित्र", "गुणसुन्दर चौपई", "प्रवचन रचनावेलि", "मनोरथ माला बावनी" आदि उल्लेखनीय हैं।२।। ९. महोपाध्याय लब्धोदय--इनका रचनाकाल १६४९ ई० से १६९३ ई० तक रहा । इनकी प्रथम रचना १६४९ ई० को "पद्मिनी चरित्र चौपई" है, जो उदयपुर में रची गई । पश्चात्वर्ती सभी रचनाएँ उदयपुर, गोगुन्दा एवं धुलेव में रचित हैं । अन्य महत्त्वपूर्ण रचनाएँ "रत्नचूड मणिचूड़ चौपई", "मलयसुन्दरी चौपई", "गुणावली चौपई", "पद्मावतो आख्यान" आदि हैं । १. नाहटा, राजैसा, पृ० १७७ । २. वही। ३. श्री विरास्मा, पृ० ७०६ । . Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन साहित्य एवं साहित्यकार : ३९५ १०. जयरंग--( जैतसी ) इनकी १६४३ ई० से १६८२ ई० तक की रचनाएँ मिलती हैं। मुख्य रचनाएँ “अमरसेन वयरसेन चौपई", "दशवैकालिक गीत" १६५० ई०, "कयवन्ना रास" १६६४ ई० आदि हैं। ११. महिमोदय---इन्होंने १६६५ ई० में "श्रीपाल रास" रचा। १२. सुमतिरंग-१७वीं शताब्दी में इन्होंने कई आध्यात्मिक ग्रन्थों का राजस्थानी में अनुवाद किया। इनकी प्रमुख रचनाएँ-"ज्ञानकला चौपई', "योगशास्त्र चौपई", "हरिकेसी संधि", "चौबीस जिन सवैया" आदि हैं । १३. लाभवर्द्धन-ये जिनहर्ष के गुरुभ्राता थे। अब तक इनकी ११ रचनाएँ प्राप्त हुई हैं, जिनमें “लीलावती रास' १६७१ ई०, "विक्रमपंचदण्ड चौपई" १६७६ ई०, "छंदोवतंश', "धर्मबुद्धि-पाप बुद्धि चौपई" आदि महत्त्वपूर्ण हैं ।। १४. कवि उदयराज-ये जोधपुर नरेश उदयसिंह के समकालीन थे। इन्होंने "मंजन छत्तीसी" व "गुण बावनी" को रचना की। इन्होंने बीकानेर के राजा राजसिंह के आग्रह पर १६०३ ई० में "राजनीति दोहे" की रचना की।५ १५. विद्याकुशल-इन्होंने राजस्थानी भाषा में "जैन रामायण" की रचना की। १६. चारित्र धर्म-इन्होंने भी स्थानीय भाषा में "जैन रामायण' की कृति सजित की। १७. धर्मवर्द्धन-ये उत्कृष्ट कवि थे। इनकी मुख्य रचनाएँ, "श्रेणिक चोपई" १६६२ ई०, “अमरसेन वयरसेन चौपई" १६६८ ई०, 'सुरसुन्दरि रास" १६७९ ई० और "शीलरास" आदि हैं।' १८. कुशलधीर-ये वाचक कल्याणलाभ के शिष्य थे । इनकी मुख्य रचनाएँ, "कृष्णवेलि बालावबोध" १६३९ ई०, “शीलवतीरास" १६६५ ई०, 'लीलावती रास" १६७१ ई० एवं 'भोज चौपई" आदि है। १. नाहटा, राजैसा, पृ० १७८ । २. वही। ३. वही। ४. वही। ५. हिन्दी जैन साहित्य का संक्षिप्त इतिहास पृ० १३२ । ६. वही। ७. प्रशस्ति संग्रह, ५, क्र० ४ । ८. वही। ९. नाहटा, राजैसा, पृ० १७९ । : Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९६ : मध्यकालीन राजस्थान में जैनधर्म १९. यशोवर्द्धन-इनके द्वारा रचित "रत्नहास रास", "चंदन मलयगिरिरास", "जंबूस्वामीरास' एवं “विद्या विलास" रास प्राप्त हुये हैं।' २०. विनय चंद्र महोपाध्याय-ये ज्ञानतिलक के शिष्य थे। इनकी मुख्य रचनाएँ "उत्तम कुमार रास", "बीसी", "चौबीसी", "एकादश अंग सज्झाय" १६९८ ई० तथा "शत्रुजय रास" १६९८ ई० हैं ।। २१. विवेक सिद्धि-ये लावण्य सिद्धि की शिष्या थीं। इन्होंने "विमल-सिद्धि-गुरुणी गीतम' की रचना की। २२. विद्या सिद्धि-इन्होंने १६४२ ई० में “गुरुणी-गीतम" की रचना की। २३. देवेन्द्र–इन्होंने १६२६ ई० में महुआ नगर में "यशोधर चरित" की रचना की। २४. कल्याण कोति-ये देवेन्द्र कीर्ति के शिष्य थे। इनकी रचनाएँ, “चारुदत्त चरित्र" १६३५ ई०, “पार्श्वनाथ रासो" १६४० ई०, "श्रेणिक प्रबंध" १६४८ ई०, "बधावा" आदि हैं। २५. वर्धमान कवि-इन्होंने १६०८ ई० में महावीर पर एक रास की रचना की। २६. भट्टारक वीरचन्द्र-ये भट्टारक लक्ष्मीचंद्र के शिष्य व प्रकाण्ड विद्वान् थे। अब तक इनकी ८ रचनाएँ उपलब्ध हैं-“वीर विलास फाग", "नेमिनाथ रास" १६१६ ई०, “सीमंधर स्वामो गोत", "संबोध सत्ताणु", "जिन आंतरा", "बाहुबलि वेलि", "जंबूस्वामी बेलि", "चित्तनिरोध कथा" ।' २७. टोकम :- ये ढूढाढ़ प्रदेश के निवासी थे । इन्होंने १६५५ ई० में "चतुर्दशी चौपई" की रचना को । १. नाहटा, राजैमा, पृ० १७१ २. वही। ३. जैसरा, पृ० २४८ । ४. वही । ५. राजैसा, २१०। १. वही। ७. वही। ८. वही। ९. वही, पृ० २११ । Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन साहित्य एवं साहित्यकार : ३९७ २८. खड्ग :- ये बागड़ देश में नारनोल के निवासी थे । इन्होंने १६५६ ई० में शाहजहाँ के शासनकाल में ''त्रिलोक दर्पण कथा" की रचना की ।"' २९- मुनि शुभचन्द्र : ये हाड़ौती प्रदेश के कुजड़पुर में रहते थे । इन्होंने १६९८ ई० में "होली कथा" निबद्ध की । २ ३०. जोधराज गोवीका :- ये सांगानेर निवासी थे । इनकी कृतियाँ इस प्रकार है -- " सम्यक्त्व कौमुदी भाषा" १६६७ ई०, "प्रवचनसार भाषा", "कथाकोष भाषा" १६६५ ई० : प्रीतंकर चरित्र भाषा", " ज्ञानसमुद्र" १६६५ ई०, "धर्म सरोवर " १६६७ ई० । ३ ३१. हेमराज : ये ढूंढाड़ी कवि थे । इन्होंने १६६८ ई० में " दोहाशतक" की रचना की । ४ ३२. ब्रह्मनाथ : - इनका साधना स्थल टोंक रचनायें इस प्रकार हैं- " नेमीश्वर राजमती को लूहरि”, “जिनगी”, “डोरी का गीत ", " दाई "मारू", "धनाश्री के गीत" आदि 15 ३३. सेवक : - ये लोहट के गुरु थे। इनकी २ रचनाएँ "नेमिनाथ जी का दसभव वर्णन" । तथा चौबीस जिन स्तुति हैं । इनके ५० से भी अधिक पद प्राप्त हैं ।" ३४. लोहट :-- इनका कार्यक्षेत्र बून्दी था । १६७९ ई० में इन्होंने " अढाई कोरासो", १७२७ ई० में "चौढालिया", १६७८ ई० में " षट्लेश्या बेलि", १६६८ ई० में " यशोधर चरित", "पार्श्वनाथ जयमाला" आदि रचनाएँ लिखीं ।" ३५. कनककीति :- - ये १७ वीं शताब्दी के मुनि थे। इनकी निम्न रचनाएँ १. राजैसा, पृ० २११ । २. वही, पृ० २१२ 1 ३. जैसासह, पृ० ११४-११५ । जिले में नगर ग्राम था। इनकी ब्याहलो " १६७१ ई०, "नेमजी की गीत ", " राग मलार", "सोरठ", ४. राजैसा, पृ० २१७ । ५. वही । ६. चौधरी मन्दिर टोंक का गुटका नं० १०२ब । ७. जैन मन्दिर निवाई के गुटके में पृ० १२४-१२६ पर । ८. जयपुर के छाबड़ों के मं० व तेरापंथी मं० में गुटका नं० ४७ व पद संग्रह ९४६ में संग्रहीत। ९. राजेसा, पृ० २१९ । Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९८ : मध्यकालीन राजस्थान में जैनधर्म उपलब्ध हैं- "जिनराज स्तुति", "तत्त्वार्थसूत्र भाषा टीका", "मेघ कुमार गीत", "श्रीपाल स्तुति", "पद बारहखड़ी" ।' ३६. अमर विजय :-इनकी अभी तक २५ रचनाएँ प्राप्त हो चुकी हैं। मुख्य इस प्रकार हैं - "भावपच्चीसी" १७०४ ई०, 'मेघकुमार चौढालिया" १७१४ ई०, "सुकुमाल चौपई", सुदर्शन चौपई", "अक्षर बत्तीसी", "उपदेश बत्तीसी" आदि उल्लेखनीय हैं। ३७. रामविजय :--ये दयासिंह के शिष्य थे। इनकी पद्य रचनाओं में "चित्रसेन पद्मावती चौपाई", "नेमिनाथ रासों", "ओसवाल रास", आबू स्तवन" आदि हैं। ३८. रूघपति :--ये विद्या निधान के शिष्य थे । १७३१ ई० से १७९१ ई० तक इनका साहित्य निर्माण काल था । मुख्य रचनाएँ--"नंदीषण चौपई", श्रीपाल चौपई', "रत्नपाल चौपई", "सुभद्रा चौपई", "छप्पयबावनी", "उपदेश बत्तीसी" एवं उपदेश रसाल बत्तीसी" आदि हैं। ३९. जयमल्ल :--( १७०८ ई०-१७९६ ई० ) ये स्थानकवासी परम्परा के कवि थे। इन्होंने अनेक रचनाएं लिखीं । इनकी ७१ रचनाएँ "जयवाणी" नाम से संकलित है। इसके अतिरिक्त विभिन्न भण्डारों में इनकी कई रचनाएं हैं। इनकी मुख्य रचनाएं इस प्रकार हैं। १. चन्दन बाला को सज्झाय, २. मृगलोढा की कथा, ३. श्रीमतीजीनी ढाल, ४. मल्लिनाथ चरित, ५. अंजनारो रास, ६. पाँच पांडवचरित, ७. कलकली की ढाल, ८. नंदन मनिहार, ९. क्रोध की सज्झाय, १०. आनन्द श्राधक, ११. सोलहसती की सज्झाय व चौपई, १२. अजितनाथ स्तवन, १३. दुर्लभ मनुष्य की सज्झाय, १४. रावण विभीषण संवाद, १५. इलायची पुत्र को चोढालियो, १६. नव तत्त्व की ढाल, १७. नवनियाणा की ढालो, १८. दानशील तपभावना सज्झाय, १९. मिथ्या उपदेश निषेध सज्झाय, २० लघु साधु वंदना, २१. वज्र पुरन्दर चौढालिया, २२. कुंडरीक पुंडरीक चौढालिया, २३. सुरपिता का दोहा, २४. रोहिणी, २५. अंबड संन्यासी, २६. कर्मफल पद । ४०. कुशलोजी :--( १७१० ई०-१७८३ ई० ) इन्होंने स्तवन व उपदेशी पदों १. राजैसा, पृ० २१९ । २. वही, पृ० १७९ । ३. वही । ४. वही । ५. सन्मति ज्ञानपीठ आगरा से प्रकाशित । ६. हस्तलिखित प्रतियाँ विनयचन्द ज्ञान भण्डार लाल भवन जयपुर में । Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन साहित्य एवं साहित्यकार : ३९९ के अतिरिक्त “राजमती सज्झाय", साधुगण की सज्झाय", "दशारणभद्र को चौढालियो ", " धन्नाजी ढाल", "नेमनाथ जी का सिलोका", "विजयसेठ विजय सेठानी की सज्झाय", "सीताजी को आलोयणा" आदि भी लिखीं ।' ४१. रायचंद : - ( १७३९ ई० - १८०४ ई० ) इनकी २०० से अधिक रचनाएँ उपलब्ध हैं । मुख्य रचनाएँ निम्न हैं- " आठकर्मों की चौपई", "जंबू स्वामी की सज्झाय', 'नंदन मणिहार की चौपई", "मल्लिनाथ जो की चौपई, "महावीर जी को चौढालियो”, “कमलावती की ढाल", " एकन्ता ऋषि की ढाल", "गौतम स्वामी को रास", " आषाढ़भूति मुनि को पंचढालियो ", " सती नर्मदा को चौपई", "कर कंडु की चौपई", "देवकी राणकी ढाल", मेतारज मुनि चरित्र", "रायनमि का पंचढालिया", "राजा श्रेणिक रो चौढालियो ", "लालिभद्र को षढालियो ", " महासती की ढाल", "श्रेयांसकुमार की ढाल", "कलावती की चौपई"; चंदन बाला की ढाल” आदि । इसके अलावा इन्होंने कई पच्चीसी संज्ञक रचनाएँ भी लिखीं, जैसे- 'वय पच्चीसी", " जोबन पच्चीसी", चित्तसमाधि पच्चीसी", "ज्ञान पच्चीसी, "चेतन पच्चीसी", "दीक्षा पच्चीसी", "क्रोध पच्चीसी", "माया पच्चीसी", "लोभ पच्चीसी" "निंदक पच्चीसी" आदि । "2. ४२. चौथमल - इनकी मुख्य रचनाएँ इस प्रकार हैं- " जयवंती की ढाल", "जिनरिखजिनपाल", "सेठ सुदर्शन", "नन्दनमणियार", "सनतकुमार चौढ़ालिया", "महाभारत ढाल सागर", "रामायण", " श्रीपाल चरित्र", "दमघोष चौपई", "जम्बू चरित्र”, “ऋषिदेव ढाल", "तामली तापस चरित्र " आदि । ३ ४३. दुर्गादास - इनकी स्फुट रूप से पद, सज्झाय, ढालें आदि प्राप्त हैं । प्रमुख रचनाएँ हैं- " नोकरबारी स्तवन", " पार्श्वनाथ स्तवन", "जम्बूजी की सज्झाय", " महावीर के तेरह अभिग्रह की सज्झाय", " गौतमरास", " ऋषभचरित", " उपदेशात्मक ढाल”, सवैये आदि । ४४. आसकरण - इनकी छोटी-बड़ी अनेक रचनाएँ हैं । मुख्य हैं- " दस श्रावकों की ढाल", पुण्यवाणी ऊपर ढाल", "केशी गौतम चर्चा ढाल", "साधुगुणमाला", " भरतजी री रिद्धि", "नमिरायजी सप्तढालिया" आदि । 5 १. राजेसा, पृ० १८३ । २. मरुधर केसरी मिश्रीमलजी अभिनन्दन ग्रन्थ, पृ० ४२० - ४२९ । ३. राजैसा, पृ० १८४ । ४. देवेन्द्र मुनि के सम्पादन में प्रकाशित । ५. राजैसा, पू० १८५ । Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०० : मध्यकालीन राजस्थान में जैनधर्म ४५. हरकूबाई-इन्होंने १७६३ ई० में "महासती श्री अमरू जी का चरित्र" की रचना की। इन्हीं की एक अन्य रचना “महासती चतरू जी सज्झाय" भी मिलती है। ४६. आचार्य श्री भिक्षु-(१७२६ ई०-१८०३ ई.)-इन्होंने श्वेताम्बर मत में तेरापंथ की स्थापना की । इन्होंने पद्य व गद्य दोनों में साहित्य सृजन किया। इनकी पद्य कृतियां "भिक्ष ग्रंथ रत्नाकर" में संकलित हैं, इनका गद्य व पद्य साहित्य सृजन ३८००० श्लोक परिमाण है। समस्त साहित्य तत्त्व विश्लेषणात्मक, शिक्षात्मक, आचार शोधक, आख्यानात्मक, स्तवनप्रधान एवं अन्य विषयों से सम्बन्धित है। ४७. हर्षकोति-इन्होंने १६२५ ई० में "चतुर्गति वेलि" रचना समाप्त की। १६२७ ई० में 'श्रेपनक्रियारास" की रचना की। अन्य कृतियाँ "नेमिराजुल गीत", "नेमीश्वर गीत", "मोरडा", "कर्म हिण्डोलना", "पंचगति वेलि" आदि हैं। व्याकरण ग्रंथों में इन्होंने 'सारस्वत दीपिका", "धातुपात तरंगिणी", "शारदीय नाममाला", व "श्रुतबोध वृद्धि" रची। ४८. दिलाराम-इनका कार्यक्षेत्र बून्दी रहा। इन्होंने १७११ ई० में “दिलाराम विलास", १७०१ ई० में "व्रतविधान रासौ" तथा १७११ ई० में "आत्मद्वादशी" की रचना की। ४९. नथमल बिलाला-इन्होंने "सिद्धान्तसार दीपक" की रचना भरतपुर में व "भक्तामर स्तोत्र की भाषा" हिण्डोन में १७७२ ई० में लिखी। इनकी अन्य रचनाएं"जिनगुण विलास" १७६५ ई०, “नागकुमार चरित्र" १७७७ ई०, "जीवंधर चरित्र" १७७८ ई०, “जम्बू स्वामी चरित" तथा "अष्टाह्निका कथा" हैं । “गुणविलास" इनकी लघु रचनाओं का संग्रह है । यह संकलन १७६५ ई० में समाप्त हुआ। ५०. अचल कोति-इन्होंने १७२० ई० में “कर्मबत्तीसी" रची। अन्य रचनाएँ "विषापहार स्तोत्र भाषा" एवं “रविव्रत कथा" हैं। १. वही राजैसा, पृ० १८५ । २. नाहटा, ऐतिहासिक काव्य संग्रह, पृ० २१४-१५ । ३. राजैसा, पृ० २३४-२३९ । ४. वही, पृ० २०९। ५. वही, पृ० २११ । ६. वही, पृ० २१२ । ७. वही। Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन साहित्य एवं साहित्यकार : ४०१ ५१. पानसिंह-ये सांगानेर निवासी थे। इन्होंने १७६४ ई० में "रत्नकरंड श्रावकाचार तथा १७६७ ई० में "सुबुद्धिप्रकाश" की रचना सांगानेर में की। ५२. होरा-ये बून्दी के निवासी थे। १७९१ ई० में इन्होंने 'नेमिनाथब्याहलो" नामक गीतात्मक रचना लिखी । ५३. टेकचन्द्र-ये जयपुर निवासी थे, किन्तु बाद में माहिपुरा में रहने लगे। अब तक इनकी २१ रचनाएँ--''पुण्यास्रवकथाकोष" १७६५ ई०, “पंचपरमेष्ठीपूजा", "कर्मदहनपूजा", "तोनलोकपूजा" १७७१ ई०, "सुदृष्टितरंगिणी" १७८१ ई०, "व्यसनराजवर्णन" १७७० ई०, "पंचकल्याणपूजा", "पंचमेरुपूजा", "अध्यात्मबारहखड़ी" एवं "दशाध्ययनसूत्रटीका" आदि हैं। ५४. सेवाराम पाटनी-इन्होंने १७६७ ई० में दौसा में "शान्तिनाथचरित" की रचना की। १७९३ ई० में डोग में रहते हुए "मल्लिनाथचरित" को रचना की। ५५. सेवाराम जाट-इन्होंने "हनुमानचरित्र", "शान्तिनाथपुराण" व "भविष्यदत्तचरित्र" की रचना की। ५६. ब्रह्मचन्द्रसागर-सोजत इनका साहित्यिक केन्द्र था। इन्होंने १७६६ ई० में सोजत में "श्रीपालचरित" की रचना की। इन्होंने "पंचपरमेष्ठोस्तुति" भी रची । ५७. बख्तराम साह-इन्होंने १७७० ई० में जयपुर में "बुद्धिविलास" नामक रचना को, जिसमें तत्कालीन समाज, राज व्यवस्था व जयपुर नगर निर्माण का भी वर्णन है। ५८. कवि नेमीचन्द-इन्होंने १७१४ ई० में "प्रीतंकरचौपई" चरित्र ग्रंथ की रचना की। इनको अन्य रचनाएँ "नेमीश्वररास" १७१२ ई०, 'चेतन लूहरि", "जीव लूहरि", "जीवसमोधन लूहरि", "विसालकीति को देहुरो", "जाखडी", "कडावो", "आसिक को गीत", "नेमीसुर को गीत", "पदसंग्रह" आदि हैं। १. राजैसा, पृ० २१३ । २. वही। ३. वही। ४. वही। ५. हिन्दी जैन साहित्य का संक्षिप्त इतिहास, पृ० २०६ । ६. राजैसा, पृ० २१४ । ७. हिन्दी जैन साहित्य का संक्षिप्त इतिहास, पृ० २१९ । ८. राजैसा, पृ० २१८ । २६ Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०२ : मध्यकालीन राजस्थान में जैनधर्म ५९. अजयराज पाटगी - इनका कार्यक्षेत्र जयपुर रहा । इनकी २० रचनाएँ उपलब्ध होती हैं- "आदिपुराण भाषा " १७४० ई०, "नेमिनाथचरित्र भाषा !" १६७८ ई०, "कक्का बत्तीसी", "चरखा च उपई", "चारमित्रों की कथा", "चौबीस तीर्थकर पूजा", "चौबीस तीर्थंकर स्तुति", "जिनगीत", "जिनजी की रसोई", " णमोकार सिद्धि", " नन्दीश्वर पूजा", "पंचमेरु पूजा'", "पार्श्वनाथ जी का सालेहा", " बाल्य वर्णन", "बीस तीर्थंकरों की जयमाल", "यशोधर चौपई", "वन्दना", " शान्तिनाथ जयमाल ", " शिवरमणी विवाह", "विनती" आदि ।' - ६०. धनपत विजय -- इन्होंने " खुमान रासो” की रचना की, जो उदयपुर के महाराणाओं के इतिहास का वर्णन करता है । ६१. खुशालचन्द्र काला --- इनको रचनाएँ -- "हरिवंशपुराण" १७२३ ई० "यशोधरचरित्र", “qgagera”, " व्रतकथा कोष" १७३० ई०, "जम्बूस्वामीचरित”, “उत्तरपुराण", १७४२ ई०, “ सद्भाषितावली", "धन्यकुमार चरित", "वर्द्धमान पुराण" "शान्तिनाथ पुराण" "चौबीस महाराज पूजा", " ज्येष्ठ जिनकथा " १७२५ ई० है । २ इनकी रचनाएँ • ६२ : किशनसिंह - इनका साधना स्थल सांगानेर रहा। " णमोकार रास" १७०३ ई०, “चौबीस दण्डक" १७०७ ई०, "पुण्यात्रव कथाकोष" १७१६ ई०, "भद्रबाहु चरित्र" १७२६ ई०, " त्रेपन क्रियाकोष" १७२७ ई०, "लब्धिविधान कथा " १७२५ ई०, "निर्वाणकांड भाषा" १७२६ ई०, " चतुविशति स्तुति", " चेतन गीत", "चेतन लोरी", " पद संग्रह" आदि हैं । 3 ६३. देवाब्रह्म-ये १८वीं शताब्दी के कवि थे । बड़ा तेरापंथी मंदिर, जयपुर में " पदसंग्रह " ९४६ में इनके लगभग ७२ पद संग्रहीत हैं । ४ ६४. दौलतराम कासलीवाल - ये सवाई माधोसिंह के मंत्री भी थे। इनकी राजस्थानी गद्य-पद्य में लिखी हुई १८ कृतियाँ प्राप्त हुई हैं । मुख्य पद्य रचनाएँ-" जीवंधर चरित्र" १७४८ ई०, " त्रेपन क्रियाकोष" १७३८ ई०, "आध्यात्म बारहखड़ी", "विवेकविलास', 'श्रेणिक चरित' १७२५ ई०, " श्रीपाल चरित" १७६५ ई०, "चौबीस दण्डक भाषा", "सिंह पूजाष्टक", "सार चौबीसी" आदि हैं ।" १. राजेसा, पृ० २२० । २ . वही । ३. वही पृ० २२१ । ४. वही 1 कासलीवाल, कस्तूरचन्द - महाकवि दौलतराम का व्यक्तित्व एवं कृतित्व । - dove eng Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन साहित्य एवं साहित्यकार : ४०३ ६५. नवल ( १७३५. ई०-१७९८ ई० )-ये बसवा के निवासी थे । इनकी "दोहा पच्चीसी", २२२ पद, “वर्धमान पुराण" नामक चरित ग्रंथ आदि रचनाएँ हैं।' अन्य पद्य साहित्यकार: उक्त कवियों के अतिरिक्त विमलकीर्ति, नयरंग, जयनिधान, वाचक गुणरत्न, चारित्रसिंह, धर्मरत्न, धर्मप्रमोद, कल्याणदेव, वीरविजय, सारंग, जयसोम, उपाध्याय लब्धिकल्लोल, सहजकीति, श्रीसार, विनयमेरु, वाचक सूरचन्द्र आदि कितने ही राजस्थानी कवि हुए हैं । सम्राट अकबर के प्रतिबोधक युगप्रधान जिनचंद्र सूरि के अनेक शिष्य एवं प्रशिष्य थे, जो राजस्थानी भाषा के अच्छे विद्वान् थे। ऐसे विद्वानों में समयप्रमोद, मुनिप्रभ, समयराज, हर्षवल्लभ, धर्मकीर्ति, श्रीसुन्दर, ज्ञानसुन्दर, जीवराज, जिन'सिंह सूरि, जिनराज सूरि आदि के नाम उल्लेखनीय हैं। १७वीं शताब्दी में अन्य कवि लब्धिरत्न, देवरत्न, महिमामेरु, लब्धिराज, कल्याणकलश, पद्मकुमार, लखपत आदि हुए । १७वीं शताब्दी में ही तपागच्छ में मेघविजय, विनयविजय, यशोविजय एवं खरतरगच्छ में धर्मवर्धन, लक्ष्मीबल्लभ, देवचंद्र आदि उल्लेखनीय हैं । जयरंग, सुमतिरंग, धर्ममंदिर, अभयसोम, कुशलधोर, अमरविजय आदि भी राजस्थानी भाषा के कवि थे। १७वीं शताब्दी के ही अन्य कवियों में भुवनसेन (१६४४ ई०), सुमतिवल्लभ (१६६३ ई० ), श्रीसोम (१६६८ ई०), कनकनिधान, मतिकुशल (१६६५ ई०), रामचंद्र ( १५५४ ई०), विनयलाभ (१७९१ ई०), कुशलसागर (१६७९ ई०), सोमहर्ष (१६४७ ई०), राजहर्ष, राजसार, दयासार, जिनसुन्दर सूरि, जिनरंग सूरि, विद्यारुचि, लब्धिरुनि, मानसागर, सुखसागर आदि अनेक कबि हुए। दिगम्बर संत कवियों में भट्टारक शुभचंद्र द्वितीय, भट्टारक नरेन्द्रकीति, सुरेन्द्रकीति, गुणकीर्ति, आचार्य जिनसेन, ब्रह्मधर्मरुचि, सुमतिसागर, समयसागर, त्रिभुवनकीर्ति, ब्रह्मअजित, महीचंद्र, मुनि राजचंद्र, विद्यासागर, रत्नचंद्र द्वितीय, विद्याभूषण, ज्ञानकीर्ति आदि ने भी राजस्थानी जैन साहित्य की अपूर्व सेवा की। (ख) गद्य साहित्य : १७वीं शताब्दी :-१६०० ई० में उदयसागर ने उदयपुर में 'क्षेत्रसमासबालात्रबोध', विमलकोति ने १६०५ ई० में 'आवश्यकबालावबोध', 'जीवविचारनवतत्व-गंडक बालावबोध', 'जयतिहुअणबालावबोध', 'दशवकालिक टब्बा', 'षष्ठीशतकबालावबोध', 'उपदेशमाला टब्बा'; 'प्रतिक्रमण टब्बा', 'इक्कीस ढाणा टब्बा' आदि भाषा १. राजैसा, पृ० २२२। २. राजैसंत, पृ० १६५। ३. वही। Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०४ : मध्यकालीन राजस्थान में जैनधर्म टीकाएँ बनाई । शिवनिधान उपाध्याय ने १६२३ ई० में 'लघु संग्रहणी' और 'कल्पसूत्री बालावबोध', १६३५ ई० में सांगानेर में 'गुणस्थान गर्भित जिन स्तवन' नामक रचना पर बालावबोध लिखा । इन्होंने सुप्रसिद्ध काव्य 'कृष्ण रुक्मणी री वेलि' पर भी बालबोध भाषा टीका बनाई । इसी काव्य पर जयकीर्ति ने भी १६२९ ई० में बालावबोध लिखा । जयकीर्ति ने १६३६ ई० में जैसलमेर के थारूशाह की अभ्यर्थना पर 'षडावश्यक - बालावबोध' भी लिखा । विमलरत्न ने १६४५ ई० में 'वीर चरित्र बालावबोध', श्रीपाल ऋषि ने १६०७ ई० में 'दशवैकालिक बालावबोध', कनकसुन्दरगणो ने १६०९ ई० में 'दशकालिक बालावबोध' और 'जाताधर्मसूत्र बालावबोध' की रचना की । रोमचंद्र सूरि ने 'कल्पसूत्र बालावबोध', मेघराज ने 'राजप्रश्नीय समवायांग उत्तराध्ययन औपपातिक क्षेत्र समास बालावबोध' और 'साधु समाचारी' की रचना की । १६१९ ई० में उदयसागर ने उदयपुर में 'क्षेत्रसमास बालावबोध', राजचंद्र सूरि ने 'दशवैकालिक बालावबोध' तथा हर्षबल्लभ उपाध्याय ने १६१२ ई० में 'उपासकदशांग बालावबोध' की रचना की । सूरचंद्र ने 'चातुर्मासिक व्याख्यान' १६०७ ई० में, मतिकीर्ति ने 'प्रश्नोत्तर' १६३४ ई० में जैसलमेर में, कमललाभ ने 'उत्तराध्ययन बालावबोध' १६१७ ई० और १६३२ ई० के बीच में रचा । कल्याणसागर ने 'दानशील- तप-भाव तरंगिणी" की रचना १६३७ ई० में उदयपुर में की। नयविलास ने 'लोकनाल बालावबोध' की रचना की । २ कुशलधीर ने १६३९ ई० में पृथ्वीराजकृत ' कृष्ण रूक्मणी री वेलि' पर बालावबोध और १६६८ ई० में 'रसिक प्रिया' पर बालावबोध जोधपुर में निबद्ध किया । जिनहर्ष ने लक्षाधिक पद्य रचनाओं के अतिरिक्त गद्य में 'दीवाली कल्प बालावबोध', 'स्नात्रपंचाशिका', 'ज्ञान पंचमी' और 'मौन एकादशी पर्व कथा बालावबोध' की रचना की । १६७९ ई० में सगुणचंद्र ने 'ध्यानशतक बालावबोध' की रचना जैसलमेर में की लाभवर्धन ने 'चाणक्य नीति' और 'सुभाषित' ग्रन्थ पर टब्बा लिखा । १६७४ ई० में पंडित रत्नराज के शिष्य रत्नजय द्वारा छठें 'अंगसूत्र' पर टब्बा लिखा हुआ मिलता है । इन्होंने 'कल्पसूत्र' और संस्कृत वैद्यक ग्रन्थ 'योग चितामणि' पर बालावबोध तथा 'सप्तस्मरण टब्बा' भी लिखा । १६९३ ई० में उपाध्याय लक्ष्मीबल्लभ ने बीकानेर के महाराजा पृथ्वीराज के सुप्रसिद्ध काव्य 'पृथ्वीराज वेलि' पर टीका लिखी । कमल हर्ष के शिष्य विद्या विलास ने १६७१ ई० में 'कल्पसूत्र बालावबोध' की रचना की । अभयकुशल ने 'भतृहरि शतक बालावबोध' की रचना १६९८ ई० में की । ज्ञानचंद्र के शिष्य १. राजैसा, पृ० २२६-२३२ । २ . वही । Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन साहित्य एवं साहित्यकार : ४०५ श्रीदेव ने जैन भूगोल संबंधी प्राकृत ग्रन्थ 'क्षेत्र समास बालावबोध' की रचना की । राजसोम को 'मिथ्या दुष्कृत बालावबोध' की १६५२ ई० की प्रति भी प्राप्त है । १६६२ ई० में ज्ञान निधान ने 'विचार छत्तीसो' गद्य ग्रन्थ लिखा ।' ___ अखयराज श्रीमाल ने इसी शताब्दी में 'चतुर्दशगुण स्थान चर्चा', विषापहार, स्तोत्र वचनिका, 'कल्याण मंदिर स्तोत्र भाषा वचनिका', 'भक्तामर स्तोत्र भाषा वचनिका' व 'भूपाल चौबीसी भाषा वचनिका' को रचना की । पांडे हेमराज ने 'प्रवचनसार भाषा' १६४२ ई० 'पंचास्तिकाय', 'नयचक्र', 'गोम्मटसार कर्मकांड' आदि पर बालाववोध व टीकाएँ रची।। १८वीं शताब्दी-लक्ष्मीविनय ने संस्कृत के ज्योतिष ग्रन्थ 'भुवनदीपक' पर १७१० ई० में बालावबोध भाषा टीका लिखी। उपाध्याय देवचन्द्र ने मारोठ की श्राविका के लिये १७१९ ई० में 'आगम सार' ग्रन्थ लिखा। इन्होंने 'नयचक्रसार बालावबोध', 'गुणस्थान शतक', 'कर्मग्रन्थ बालावबोध', 'विचार सार टब्बा', 'गुरु गुण षट्त्रिंशिका टब्बा' और 'विचार रत्नसार' प्रश्नोत्तर ग्रन्थ गद्य में विवेचित किये । इन्होंने अन्य कई और गद्य रचनाएँ भी की । रामविजय ने कई प्राकृत, संस्कृत ग्रन्थों को गद्य रचनाएँ लिखकर सर्वसाधारण के लिये सुगम बनाया। १७३१ ई० में इन्होंने “भर्तृहरि शतक त्रय बालावबोध' व १७३४ ई० में 'अमरू शतक बालावबोध' की रचना की। १७३५ ई० में इन्होंने 'लघुस्तव' नामक दैवीय स्तुति की भाषा टीका बनाई। इसके अतिरिक्त कई स्तोत्रों पर टब्बे व भाषा टीका लिखीं। ये बहुत बड़े गद्य लेखक थे। जयचन्द ने १७१९ ई० में कुचेरा में 'माताजी की वचनिका' की रचना की। पाश्र्चचन्द्र गच्छीय रामचंद्र ने 'द्रव्यसंग्रह बालावबोध' की रचना की। खरतरगच्छीय 'पद्मचन्द्र के 'नवतत्व का बालावबोध' १७०९ ई० में बनाया । सभाचन्द्र ने १७१० ई० में 'ज्ञानसुखड़ी' की रचना की। रत्नधीर ने 'भुवनदीपक' नामक ज्योतिष ग्रंथ का १७४९ ई० में वालावबोध रचा । चैनसुख ने १७६३ ई० में वैद्यक ग्रन्थ 'शत श्लोकी वैद्य जीवन' और पथ्यापथ्य' पर टब्बा लिखा । कवि रूघपति ने १७५६ ई० मे 'छुरियर बालावबोध' रचा। उपाध्याय क्षमा कल्याण ने 'प्रश्नोत्तर साहित्यिक शतक भाषा' १७९६ ई० में बीकानेर में और 'अंबड चरित्र' १७९७ ई० में रचा। आचार्य भिक्षु ( भोखण ) ने कई गद्य रचनाएँ निबद्ध की, जिनमें से प्रमुख '३०६ बोला रो हुंडो', '१८१ बोलां री हुंडी', 'जोगा री चरचा', 'जिनाज्ञा रो चरचा', १. राजैसा, पृ० २२६-२३२ । २. वही। ३. वही। ४. वही। Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०६ : मध्यकालीन राजस्थान में जैनधर्म 'खुली चरचा', 'आसव संवर री चरचा', 'कालवादी री चरचा', 'इन्द्रियवादी की चरचा', 'द्रव्य जीव भाव री चरचा', 'निक्षेपां री चरचा', 'टीकम डोसी री चरचा', 'पाँचभाव री चरचा', 'पाँच भाव रो थोकड़ो' ( २ भाग ), 'आठ आत्मा रो थोकड़ो', 'भिक्खु पिरिच्छा', 'तेरह द्वार', 'लिखत ' आदि । दौलतराम कासलीवाल ने " पुण्यास्रव कथा कोष' १७२० ई०, 'आदि पुराण' १७६६ ई०, 'पद्मपुराण' १७६६ ई०, 'पुरुषार्थ सिद्धयुपाय' १७७० ई०, 'हरिवंश पुराण' १७७२ ई०, 'परमात्म प्रकाश' व " सारसमुच्चय' राजस्थानी गद्य में रचे । २ दीपचन्द कासलीवाल ने 'अनुभव प्रकाश ' १७२४ ई०, 'चिद्विलास' १७२२ ई०, 'आत्मावलोकन' १७१७ ई०, 'परमात्म प्रकाश', 'ज्ञानदर्पण', 'उपदेश रत्नमाला' और 'स्वरूपानन्द' गद्य में निबद्ध किये । महापण्डित टोडरमल १७५० ई० के आसपास जयपुर में हुए । इन्होंने राजस्थानी भाषा में कई. टीका ग्रन्थ रचे । जिनमें मुख्य 'गोम्मटसार जीवकांड', 'गोम्मटसार कर्मकांड', 'लब्धिसार', 'क्षपणासार', 'त्रिलोकसार', 'मोक्षमार्ग प्रकाशक', 'आत्मानुशासन', 'पुरुषार्थ - सिद्धयुपाय' एवं 'रहस्य चिट्ठी' आदि हैं । * (५) हिन्दी गद्य-पद्य साहित्य एवं साहित्यकार: प्राकृत, संस्कृत, अपभ्रंश और राजस्थानी के समान हिन्दी भाषा में भी राजस्थान के जैन साहित्यकार अविच्छिन्न रूप से साहित्य सर्जन करते रहे । इस सन्दर्भ में साधुसाध्वियों और श्रावकों, सभी का महत्त्वपूर्ण योगदान रहा। मुगल साम्राज्य के समय से राजस्थान में हिन्दी का प्रचार बढ़ा। हिन्दी जैन कवि १६वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध से ही अधिक मिलते हैं । अभिव्यक्ति के माध्यम की दृष्टि से गद्य व पद्य की विभिन्न विधाओं में विपुल साहित्य सृजन हुआ । इससे पूर्व की सारी रचनाएँ राजस्थानी भाषा की ही मानी जा सकती हैं । १८वीं शताब्दी तक के कतिपय प्रमुख हिन्दी साहित्यकारों का वर्णन इस प्रकार है १. कवि मालदेव - ये बड़गच्छ की भटनेर शाखा के आचार्य भावदेवसूरि के शिष्य थे | भटनेर व बीकानेर क्षेत्र इनका कार्यस्थल रहा । इनका रचनाकाल १५५५ ई० से १६११ ई० रहा । इनकी अब तक ३०-४० रचनाएँ ही उपलब्ध हैं । इनकी भाषा हिन्दी, राजस्थानी मिश्रित थी । मुख्य रचनाएँ इस प्रकार हैं- 'वीरांगद चौपई' १५५५ ई०, 'भविष्य भविष्या चौपई' १६११ ई०, 'विक्रम चौपई', पंचपुर में रचित 'भोज चौपई', १. देवकोठारी, राजेसा, पू० २३४-२३९ । २. राजैसा, पु० २२२ । ३. वही । ४. वही । Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन साहित्य एवं साहित्यकार : ४०७ 'अमरसेन वयरसेन चौपई', 'कीर्तिधर सुकौशल मुनि सम्बन्ध', 'स्थूलभद्र धमाल', 'राजुलनेमि धमाल', 'नेमिनाथ नवभव रास', 'देवदत्त चौपई', 'धनदेव पद्मरथ चौपई', 'अंजना सुन्दरी चौपई', 'नर्मदा सुन्दरी चौपई', 'पुरन्दर चौपई', 'पद्मावती पद्मश्री - रास', 'मृगांक पद्मावती रास' 'माल शिक्षा चौपई', 'शीलबावनी', 'सत्य की चौपई', 'सुरसुन्दर राजर्षि चोपई' 'महावीर पारणा' और कई स्तवन सज्झाय, पद आदि इनके द्वारा विरचित हैं । " २. महोपाध्याय समयसुन्दर — ये राजस्थान के बहुत विद्वान् जैनाचार्य व साहित्यकार हुये हैं । इन्होंने विविध भाषाओं में असंख्य गद्य-पद्य रचनाएँ रचीं। इनकी कई रचनाएँ हिन्दी में भी हैं, जिन पर स्पष्ट रूप से राजस्थानी भाषा का प्रभाव है । १६०१ ई० में इन्होंने 'चौबीसी' की रचना की । 'ध्रुपद बत्तीसी' और कई हिन्दी पद भी इन्होंने सृजित किये ॥२ ३. जिनराजसूरि - ये अकबर प्रतिबोधक युगप्रधान जिनचन्द्रसूरि के प्रशिष्य थे । ये अपने समय के उद्भट विद्वान् एवं कवि थे । इन्होंने 'नैषधकाव्य' पर ३६००० श्लोक प्रमाण टीका बनाई । १६२९ ई० में ये शाहजहाँ से मिले थे । 'शालिभद्र चौपई' इनकी . सर्वाधिक प्रसिद्ध रचना है । अन्य रचनाओं का संग्रह भी 'जिनराजसूरि कृति संग्रह'. में प्रकाशित है । इन्होंने हिन्दी में बहुत से सुन्दर पदों की भी रचना की । * ४. कवि वामौ —ये अंचलगच्छीय वाचक उदयसागर के शिष्य थे । १६१२ ई० में इनके पूर्व रचित ग्रन्थ ' इन्होंने जालौर में 'मदननरिद चौपई' की रचना की, जिसमें 'मदनशतक' का भी उल्लेख है । 'मदनशतक' हिन्दी भाषा का इनकी इस प्रति में आठ चित्र भी हैं । सुन्दर प्रेमकाव्य है ।४ ५. कवि कुशललाभ - ये खरतरगच्छीय वाचक अभयधर्म के शिष्य थे । 'ढोलाare sोप' इनकी बहुत ही प्रसिद्ध रचना है । 'स्थूलिभद्र छत्तीसी' इनकी प्रमुख हिन्दी रचना है । ६. भद्रसेन — खरतरगच्छ के इस कवि का नामोल्लेख १६१८ ई० के शत्रुंजय. शिलालेख में पाया जाता है । इनकी प्रसिद्ध रचना 'चंदन मलयागिरि चौपई' विक्रमपुर, १. राजैसा, पृ० २६९ । २. वही, पृ० २७० । ३. वही, पृ० २७१ । ४. भारतीय साहित्य, जुलाई - अक्टूबर, १९६२ । ५. राजैसा, पृ० २७२ । Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०८ : मध्यकालीन राजस्थान में जैनधर्म बीकानेर में रची गई थी । यह रचना बहुत लोकप्रिय रही है और इसकी कई सचित्र प्रतियाँ भी प्राप्त हैं । ७. मानसिंह मान - - ये खरतरगच्छ के उपाध्याय शिवनिधान के शिष्य व सुकवि थे । १६१३ ई० से १६३६ ई० के मध्य रचित इनकी कई कृतियाँ प्राप्त हैं, जिसमें राजस्थानी रचनाएँ अधिक हैं । हिन्दी की इनकी ३ रचनाएँ प्राप्त हुई हैं-- 'योग बावनी', 'उत्पत्ति नामा' और 'भाषा कविरस मंजरी' । शृंगार रस व नायक-नायिका वर्णन वाली यह १०७ पद्य की रचना है । ८. उदयराज - खरतरगच्छीय भद्रसार के शिष्य उदयराज हिन्दी के अच्छे कवि थे । इनकी रचनाएँ १६१० ई० से १६१९ ई० तक की प्राप्त हैं । इन्होंने लगभग ५०० दोहे भी रचे । हिन्दी रचनाओं में 'वैद्य विरहिणी प्रबन्ध' ७८ पद्यों में है । 3 ९. श्रीसार- ये खरतरगच्छीय सोमकीर्ति शाखा के रत्नहर्ष के शिष्य थे । इनका रचना काल १७वीं शताब्दी का मध्यकाल है । ये अच्छे कवि और गद्यकार थे। हिन्दी में इनका केवल 'रघुनाथ - विनोद' नामक ग्रन्थ, (अपूर्ण) ही प्राप्त है । १०. कवि केशव – ये खरतरगच्छीय दयारत्न के शिष्य थे । इन्होंने १६४० ई० में 'सदैवच्छ सावलिंगा चौपई' की रचना की । 'चतुरप्रिया' नामक नायक-नायिका भेद की रचना २ उल्लासों में प्राप्त है । इसकी रचना १६४७ ई० में पूर्ण हुई । इन्होंने 'जन्म प्रकाशिका' नामक ज्योतिष ग्रंथ मेड़ता के संघपति राजसिंह, अमीपाल, वीरपाल के लिये २७६ दोहों में रचा । इसी तरह इनकी ३ अन्य रचनाएँ 'भ्रमर बत्तीसी', 'दीपक बत्तीसी' और 'प्रीत छत्तीसी' दोहा छंद में रचित प्राप्त हैं ।" ११. कवि जसराज ( जिनहर्ष ) – ये खरतरगच्छीय शान्तिहर्ष के शिष्य थे । ये राजस्थानी भाषा के बहुत बड़े कवि थे । इन्होंने हिन्दी में १६५७ ई० में "नन्द बहोत्तरी " की रचना वोल्हावास में की । 'जसराज बावनी' की कृति १६८१ में रची । १६७३ ई० में 'दोहा बावनी' की रचना की । 'उपदेश छत्तीसी' की रचना इन्होंने ३६ सवैया छन्दों में १६५६ ई० में की। इसके अतिरिक्त चौबीस तीर्थंकरों के 'चौबीस पद', 'बारहमासा द्वय', 'पनरह तिथि का सवैया' आदि हिन्दी रचनाएं प्रकाशित भी हो चुकी हैं। १. राजैसा, पृ० २७२ ॥ २ . वही । ३. वही । ४. वही, पृ० २७३ ॥ ५. वहो । ६. वही, पृ० २७४ ॥ Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन साहित्य एवं साहित्यकार : ४०९ १२. आनंषन-इनका मूलनाम लाभानंद था। ये बड़े अध्यात्मयोगी पुरुष थे। इनकी 'चौबीसी' और 'पद बहत्तरी' कृतियाँ बहुत प्रसिद्ध हैं। १३. आनंदवर्द्धन-ये खरतरगच्छोय महिमासागर के शिष्य थे। इनकी १६४५ ई० से १६६९ ई० तक की रचनाएँ प्राप्त है। इन्होंने 'भक्तामर स्तोत्र' व 'कल्याण मन्दिर स्तोत्र' का हिन्दो पद्यानुवाद किया है ।। १४. महिमसमुद्र ( जिनसमुद्रसूरि )-ये खरतरगच्छ की बेगड़ शाखा के आचार्य “जिनचन्द्र सूरि के शिष्य थे । हिन्दी में भी इन्होंने कई उल्लेखनीय रचनायें कीं। इन्होंने भर्तृहरि के वैराग्य शतक' पर 'सर्वार्थसिद्धि मणिमाला' नामक विस्तृत टोका की, जो १६८३ ई० में पूर्ण हुई । स्वतंत्र कृतियों में 'तत्वप्रबोध' नाटक १६७३ ई० में 'जैसलमेर में रचा । अन्य रचनाएँ 'नेमिनाथ बारहमासा', 'नारी गजल', 'वैद्य चिंतामणि' आदि स्फुट कृतियाँ हैं । १५. लक्ष्मीवल्लभ-ये खरतरगच्छीय लक्ष्मीकोति के शिष्य थे। संस्कृत, राजस्थानी व हिन्दी तीनों भाषाओं में इन्होंने बहुत-सी रचनायें की। हिन्दी रचनाओं में वैद्यक सम्बन्धी २ रचनाएँ हैं-'मूत्र परीक्षा' और 'काल ज्ञान' १६८४ ई० । इनकी अन्य हिन्दी रचनाएँ 'दहा बावनी', 'दुहा', 'हेमराज बावनी', 'चौबीस स्तवन', "नवतत्व भाषा बंध' १६९० ई०, 'भावना विलास' १६७० ई०, 'नेमि राजुल बारह-मासा' आदि हैं। १६. धर्मसी (धर्मवद्धन)-ये खरतरगच्छीय विजयहर्ष के शिष्य थे। इन्होंने 'हिन्दी में बहुत-सी उत्कृष्ट रचनाएँ कीं। ये बीकानेर के राजमान्य कवि थे। इनकी 'हिन्दी रचनाओं में 'धर्म बावनी' १६६२ ई०, 'बंभक्रिया चौपई' १६७३ ई० के अतिरिक्त 'चौबीस जिन पद', 'चौबीस जिन सवैया', 'नेमि राजुल बारहमासा' एवं कुछ प्रबोधक पद भी हैं। १७. विनयचंद्र-ये खरतरगच्छीय उपाध्याय ज्ञानतिलक के शिष्य थे। इनकी 'प्राप्त रचनाओं का संग्रह 'विनचन्द्र कृति कुसुमांजलि' के नाम से प्रकाशित है। 'नेमि राजमती बारहमासा' और 'नेमि राजुल सज्झाय' ये दोनों सुन्दर हिन्दी रचनायें हैं। १. राजैसा, पृ० २७४ । २. वही । ३. वही, पृ० २७५ । ४. वही। ५. वही, पृ० २७६ । Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१० : मध्यकालीन राजस्थान में जैनधर्म इनकी संवतोल्लेख वाली रचनाएँ १६९५ ई० से १६९८ ई० तक की उपलब्ध होती हैं। १८. उदयचंद मथेण-खरतरगच्छीय जैन यति-आचार का पूर्णतया पालन न कर सकने वालों की अलग से मथेण जाति बन गई। इन्होंने बीकानेर के राजा अनुपसिंह के लिये नायक-नायिका और अलंकार वर्णन वाला 'अनूप रसाल' नामक काव्या १६६१ ई० में रचा। इन्होंने 'बीकानेर की गजल' १७०८ ई० में महाराजा सुजान सिंह के समय में लिखी ।३ १९. जिनरंग सूरि-ये खरतरगच्छीय जिनराज सूरि के पट्टधर थे। इन्होंने राजस्थानी भाषा के साथ-साथ हिन्दी में 'जिनरंग बहोत्तरी' और 'आत्म प्रबोध बावनी' (१६७४ ई०) रची। २०. विनयलाभ-ये खरतरगच्छीय विनयप्रमोद के शिष्य थे। इन्होंने 'भर्तृहरि शतक त्रय' का पद्यानुवाद 'भाषाभूषण' नाम से किया। इन्होंने "बावनी' भी लिखी। रचनाओं में इनका नाम बालचंद भी प्राप्त होता है । . २१. केसवदास-ये खरतरगच्छीय लावण्य रत्न के शिष्य थे। इन्होंने हिन्दी में 'केसव बावनी' १६७९ ई० में और 'नेमिराजुल बारहमासा' १६७७ ई० में निबद्ध किया । इनका एक और बारहमासा भी मिलता है, पर इसमें गुरु का नामोल्लेख नहीं, है । केसव नाम के कई मुनि होने से इसके कर्ता का निर्णय करना सम्भव नहीं है । २२. खेतल-ये खरतरगच्छीय दयावल्लभ के शिष्य थे। इनका रचनाकाल १६८६ ई० से १७०० ई० रहा। हिन्दी रचनाओं में चित्तौड़ की गजल' (१६९१ ई०) और 'उदयपुर की गजल' (१७०० ई०) प्राप्त हैं। २३. मानकवि प्रथम-ये विजयगच्छीय थे और इन्होंने उदयपुर के महाराणा राजसिह संबंधी 'राजविलास' नामक ऐतिहासिक काव्य लिखा, जिसमें १६५० ई० तक की घटनाओं का वर्णन है । इसको १६८९ ई० की हस्तलिखित पांडुलिपि उदयपुर में प्राप्त है । 'बिहारी सतसई टोका' भी इनकी अन्य उल्लेखनीय रचना है।' १. राजैसा, पृ० २७६ । २. एकमात्र प्रति अनूप संस्कृत लाइब्रेरी, बीकानेर में। ३. विज्ञप्ति पत्रों में किया जाने वाला नगर वर्णन १७वीं शताब्दी में गजल कहलाता था। ४. राजैसा, पृ० २७७ । ५. वही । ६. वही। ७. वही। ८. वही। Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन साहित्य एवं साहित्यकार : ४११ २४. मानकवि द्वितीय-ये खरतरगच्छीय वाचक सुमति मेरु के शिष्य थे । इन्होंने १७१६ ई० में 'संयोग द्वात्रिंशिका' नामक ७३ पद्यों की शृंगारिक रचना लिखी । अन्य दो रचनाएँ वैद्यक सम्बन्धी महत्त्वपूर्ण कृतियां हैं। पहली १६८८ ई० में लाहौर में 'कवि विनोद' ७ खण्ड में रची गई और दूसरी १६८९ ई० में 'कवि प्रमोद' रची गई । दोनों ही रचनाओं में इन्होंने स्वयं को बीकानेर निवासी बताया है । २५. कवि लालचंद-ये शांतिहर्ष के शिष्य और जिनहर्ष कवि के गुरुभ्राता थे। इनका दीक्षा नाम लाभवर्धन था। इनकी हिन्दी रचनाओं में १६७९ ई० में बीकानेर में रचित 'लीलावती गणित', १७०४ ई० में रचित "अंक प्रस्तार' आदि गणित विषयक रचनाएँ हैं। इनकी ही 'स्वरोदय भाषा' और 'शकुनदीपिका चौपई' भी अच्छी कृतियाँ हैं। २६. जोशीराय मथेण-ये बीकानेर के महाराजा अनुपसिंह द्वारा सम्मानित थे । इन्होंने हिन्दी में १७१० ई० से १७१२ ई० के मध्य में महाराजा सुजानसिंह सम्बन्धी 'बरसलपुर गढ़ विजय' की रचना की थी। जोगीवास मथेण-ये जोशीराय मथेण के पुत्र थे । इन्होंने १७३५ ई० में 'वैद्यक सार' नामक हिन्दी पद्य ग्रन्थ रचा । २८. नयन सिंह-ये खरतरगच्छ के पाठक जसशील के शिष्य थे। इन्होंने १७२९, ई० में बीकानेर राजवंश के राजा आनन्द सिंह के लिये 'भर्तृहरि शतक त्रय भाषा' की रचना की थी । इसलिये इस रचना का 'आनन्दभूषण' या 'आनंद प्रमोद' नाम रखा गया है। २९. देवचंद्र-ये खरतरगच्छीय दीपचन्द्र के शिष्य थे। इनका दीक्षा नाम राजविमल था। इन्होंने बीकानेर में १७०६ ई० में 'द्रव्यप्रकाश' नामक ग्रन्थ की रचना की। ३०. रूपचंद्र ( रामविजय )-ये खरतरगच्छीय उपाध्याय दयासिंह के शिष्य थे। इन्होंने १७१५ ई० में 'जिनसुख सूरि मजलस' की रचना की। १७४१ ई० में दूसरी रचना 'लघुस्तव टब्बा' रचा।' १. राजैसा, पृ. २७८। २. वही, पृ० २७९ । ३. वही । ४. वही। ५. वही। ६. वही। ७. वही। Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१२ : मध्यकालीन राजस्थान में जैनधर्म ३१. दीपचंद-ये खरतरगच्छ से सम्बन्धित थे । इन्होंने हिन्दी में 'बालतंत्र की भाषा वचनिका' लिखी।' ३२. अमरविजय-ये खरतरगच्छीय उदयतिलक के शिष्य थे। इनकी हिन्दी रचना “अक्षर बत्तीसी' है। ३३. रघुपति-ये खरतरगच्छीय विद्यानिधान के शिष्य थे। इनका रचनाकाल १७३० ई० से १७८२ ई० तक था । हिन्दी में इन्होंने 'जैनसार बावनी' तथा 'भोजन'विधि' नामक रचनाएँ रचों । 'जैनसार बावनी' की रचना १७४५ ई० में नापासर में ३४. विनयभक्ति-ये खरतरगच्छीय वाचक भक्तिभद्र के शिष्य थे। इनकी पहली हिन्दी रचना 'जिनलाभ सूरि दवावत' है । सम्भवतः इस कृति का रचनाकाल १७४७ ई० से १७७७ ई० के मध्य था । इनकी दूसरी रचना १७६५ ई० जैसलमेर में 'अन्योक्ति बावनी' लिखी गई। ३५. क्षमाकल्याण-ये खरतरगच्छोय वाचक अमृतधर्म के शिष्य थे । इनका रचनाकाल १७६९ ई० से १८१६ ई० रहा । बंगाल, बिहार आदि में भी विहार करने के कारण इनकी रचनाओं पर हिन्दी का अच्छा प्रभाव है । इन्होंने अपभ्रश के 'जयतिहुण स्तोत्र' का हिन्दी पद्यानुवाद किया । इसके अतिरिक्त इन्होंने 'चतुर्मालिका होलि पर्व कथा', 'अक्षयतृतीया कथा', 'हितशिक्षा द्वित्रिशिका', 'अंबद्र चरित्र' आदि की भी रचना की। ३६. शिवचंद्र-ये खरतरगच्छीय पुण्यशील के प्रशिष्य और समयसुन्दर के शिष्य थे। इन्होंने १७९४ ई० में जैसलमेर में वहां के रावल मूलराज की प्रशंसा में 'समुद्रबद्ध काव्य वचनिका' की रचना की । इसके अतिरिक्त इन्होंने २ पूजायें भी रची। ३७. कल्याण कवि-ये खरतरगच्छ के थे। इन्होंने १७६५ में 'जैसलमेर गजल', १७८१ ई० में 'गिरनार गजल' और १८०७ ई० में 'सिद्धाचल गजल'-ये तीन नगर वर्णनात्मक गजलें बनाई। १. राजैसा, पृ० २७९ । २, वही, पृ० २८०। ३. वही। ४. वही । ५. वही। ६. वही। ७. वही, पृ० २८१ । Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन साहित्य एवं साहित्यकार : ४१३ ३८. ज्ञानसार--ये खरतरगच्छीय रत्नराज गणी के शिष्य एवं राज्यमान्य विद्वान् थे। इन्होंने १७९९ ई० में जयपुर में 'कामोद्दीपन' की रचना की। ३९. पं० टोडरमल :-ये जयपुर के निवासी, अप्रतिम विद्वान् व ख्याति प्राप्त लेखक थे । २८ वर्ष की अल्पायु में ही इनका निधन हो गया। १५ वर्ष की आयु में ही इन्होंने मुल्तान के श्रावकों को कुछ जटिल प्रश्नों का उत्तर देते हुए, आध्यात्मिक विचारों से पूर्ण एक पत्र लिखा था । 'अर्थ संदृष्टि अधिकार' इनके द्वारा रचित गणित की उच्चकोटि की कृति है। इन्होंने 'आत्मानुशासन', 'पुरुषार्थ सिद्धयुपाय' एवं 'मोक्षमार्ग प्रकाशक' नामक महत्त्वपूर्ण कृतियों की रचना प्रारम्भ की, किन्तु अन्तिम दो रचनाओं को वे पूर्ण नहीं कर पाये। रचनाओं की भाषा में ब्रज, राजस्थानी व हिन्दी का मिश्रित रूप देखने को मिलता है। 'पुरुषार्थ सिद्धयुपाय' पर व्याख्या दौलतराम ने पूर्ण कर दी थी, किन्तु 'आत्मानुशासन' पर कार्य अपूर्ण ही रहा । ४०. विजयकीति :-इनका सम्बन्ध स्वर्णगिरी की भट्टारक परम्परा से रहा है। कवि ने अपनी रचनाओं में स्वपरिचय के प्रति उपेक्षा भाव रखा है। ये अजमेर और नागौर से सम्बन्धित रहे। अद्यावधि, विजयकीति प्रणीत निम्न कृतियों का पता लगा है-'श्रेणिक चरित्र' १७७० ई०, 'विजय दण्डक' .१७७२ ई०, 'करणामृत पुराण' १७६९ ई०. 'चंपक श्रेष्ठि व्रतोद्यापन सरस्वती कल्प', 'निमिचंद्र जीवन', 'गजसुकुमाल चरित्र' एवं स्फुट पद । ४१. पदमनाभ कायस्थ :-ये बून्दी निवासी थे। इन्होंने १६६४ ई० में 'यशोधर' चौपई बंध कथा' की रचना की। ४२. बख्ताराम :-१७४३ ई० में इनके द्वारा 'धर्मबुद्धि कथा' नामक कहानी लिखी गई। ४३. लखण :-१७१८ ई० में इन्होंने कोटा के निकट बिलासपुर में 'जिनदत्त चरित्र' की रचना की। ४४. विजयनाथ :-टोडानगर निवासी इन कवि ने 'वर्द्धमान पुराण' का हिन्दी में: अनुवाद किया। १. राजैसा, पृ० २८१ । २. कासलीवाल, राजैसा, पृ० २८५-३०५ । ३. वहो । ४. वही। ५. वही। ६. वही। ७. वही। Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१४ : मध्यकालीन राजस्थान में जैनधर्म ४५. लालचंद सांगानेरिया :-इन्होंने 'वारांग चरित', 'विमल पुराण' आदि की रचना की। ४६. पंडित शिवजी लाल :-ये जयपुर के प्रसिद्ध विद्वान् थे। इन्होंने १७६१ ई० में 'भगवती आराधना टीका' की रचना की। इनके द्वारा रचित भाषा वचनिकाएँ, जैसे .. 'रत्नाकरानंद', 'चर्चा संग्रह', बोधसार', 'दर्शनसार', 'आध्यात्म तरंगिणी' आदि भी उपलब्ध हैं। इनकी कृति 'तेरापंथ खण्डन' से जैनमत में तेरापंथ की उत्पत्ति विषयक जानकारी मिलती है !२ ४७. जयचंद छाबड़ा:-इन्होंने संस्कृत कृतियों का हिन्दी में अनुवाद किया। ये "देवागमस्तोत्र भाषा', 'भक्तामर स्तोत्र भाषा' आदि पदों के भी लेखक थे । ४८. पं० दीपचंद साह :-ये सांगानेर निवासी थे, किन्तु बाद में आमेर चले गये । इनकी रचनाएँ 'अनुभव प्रकाश', 'चिद्विलास', 'आत्मावलोकन', 'परमात्मपुराण', "उपदेश रत्नमाला', 'ज्ञानदर्पण', 'स्वरूपानंद' और 'भाव दीपिका' आदि हैं । अधिकांश रचनाएँ हिन्दी गद्य में हैं। ४९. कुशलचंद्र काला :-इन्होंने कई पुराणों व चरित्रों पर वचनिकाएँ लिखीं। १७३९ ई० में इन्होंने सकलकीर्ति की रचना पर हिन्दी में 'सुभाषित' नामक काव्य लिखा ।" ५०.५० दौलतराम :–इन्होंने १७२० ई० में पांडे जिनदास को कृति 'पुण्यासव' पर हिन्दी में एक वचनिका लिखी। १७३८ ई० में उदयपुर में "क्रिया कोषभाषा' की - रचना की तथा 'चतुर चितारणी' की रचना भी उदपुर में ही को। ५१. पं० देवीदास गोषा :-ये जयपुर के निकट बसवा के निवासी थे। इन्होंने .१७८७ ई० में भिलसा में नरेन्द्र सेन की संस्कृत कृति 'सिद्धांतसार संग्रह' पर हिन्दी में एक वनिका लिखी। ये 'चर्चाग्रन्थ', 'चिद्विलास' और 'प्रवचनसार' के भी लेखक हैं।" १. वीरवाणी, १, पृ० १५५ । २. जैसाऔइ, पृ० ३४-३५ । ३. राजेशाग्रसू, पृ० ४०७-८ । ४. अने०, १३, अं० ४,५,७ । ५. वीरवाणी, १, पृ० ४८ । ६. वही, २, पृ० ३० । ०७. वही, ६, पृ०८६ । Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन साहित्य एवं साहित्यकार: ४१५ ५२. राजमल : - इन्होंने 'समयसार कलश' नामक संस्कृत ग्रन्थ पर हिन्दी गद्य मैं एक पुस्तक लिखी ।' ५३. पं० अखयराज श्रीमाल : - इन्होंने १७वीं शताब्दी में 'विषापहार स्तोत्र' पर हिन्दी गद्य में व्याख्या तथा 'चतुर्दश गुणस्थान चर्चा' हिन्दी गद्य में ही जयपुर -में रची | 2 ५४. जीवराज : - इन्होंने १८०७ ई० में बीकानेर में 'मौन एकादशी कथा' लिखी 13 ५५. किशन सिंह : - इन्होंने 'रात्रि भोजन कथा' की रचना की ।४ ५६. ब्रह्मरायमल :- इन्होंने हिन्दी में 'छंदशास्त्र' व 'पिंगल' की रचना की । ५ ५७. भगवती दास : - इन्होंने १७वीं शताब्दी में २० से भी अधिक हिन्दी कृतियाँ सृजित कीं। निष्कर्ष एवं समालोचना : (१) जैन साहित्यकारों के लिये साहित्य त्रिशुद्ध कला को वस्तु नहीं, अपितु धार्मिक आचार की पवित्रता और साधना का एक अंग बन कर रहा । अतः अभिव्यक्ति में सरलता, सुबोधता और सहजता का हमेशा आग्रह रहा । जैनाचार्यों की प्रशंसनीय विशेषता यह रही कि वे हमेशा जनपदीय भाषाओं को अपनी अभिव्यक्ति का माध्यम बनाते रहे । लोकोन्नयन मुख्य उद्देश्य होने के कारण भी, राजस्थानी जैन साहित्य - सदैव प्रचलित लोक भाषा में ही रचा जाता रहा । (२) भाषा के स्वरूप का परिवर्तन क्रम विभिन्न कालों में रचित साहित्य से स्पष्ट हो जाता है । पूर्व मध्यकाल में प्राकृत साहित्य सर्वाधिक रचा गया । १०वीं शताब्दी से लोकभाषा में अपभ्रंश का स्वरूप विकसित होने से, जैन साहित्य इस माध्यम में भी निबद्ध किया गया । पांडित्य, विद्वत्ता एवं साहित्यिक अभिव्यक्ति के क्षेत्र में संस्कृत देश में सर्वत्र लोकप्रिय थी, अतः ८वीं से १२वीं शताब्दी के मध्य जैन संस्कृत साहित्य भी विपुल परिमाण में सृजित हुआ । अपभ्रंश से कालक्रम में विभिन्न स्थानीय व प्रादेशिक भाषाएँ विकसित होने लगीं, जिसका स्पष्ट प्रतिबिम्ब १२वीं शताब्दी में सृजित राजस्थानी १. वीरवाणी, १, पृ० ७ । २. वही, ३, पृ० ९ । ३. राभा, ३, क्र० २ ॥ ४. हिन्दी जैन साहित्य का संक्षिप्त इतिहास, पृ० २१९ । ५. अने०, ४, क्र० २ ॥ Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१६ : मध्यकालीन राजस्थान में जैनधर्म भाषा की रचनाओं में देखने को मिलता है । हिन्दी का स्वरूप तो इस काल में विकसित भी नहीं हुआ था। (३) १३वीं से १६वीं शताब्दी के मध्य साहित्य सृजन में प्राकृत की लोकप्रियता में कमी व अपभ्रंश की लोकप्रियता में कुछ वृद्धि की गति देखने को मिलती है, किन्तु संस्कृत भाषा जैन विद्वानों में यथावत्, साहित्य व पांडित्य प्रदर्शन की भाषा बनी रही, जिसका प्रमाण विपुल मात्रा में विभिन्न साहित्यकारों द्वारा सृजित जैन साहित्य है। राजस्थानी भाषा का स्वरूप विकसित हो चुकने के कारण इसमें सभी प्रकार का गद्य व पद्य साहित्य रचा गया। मुगल काल में हिन्दी शब्द अस्तित्व में आया और धीरे-धीरे खड़ी बोली का प्रभाव साहित्य पर दिखाई देने लगा। (४) उत्तर मध्यकाल में प्राकृत एवं अपभ्रंश भाषाएँ जैन साहित्य सृजन की परिधि के लगभग बाहर हो गई, किन्तु संस्कृत को लोकप्रियता में कोई कमी नहीं आई। खड़ी बोली का विकास हो जाने से राजस्थानी भाषा के साथ-साथ हिन्दी में साहित्य सृजन की प्रवृत्ति तीव्रतर हुई । १७वीं व १८वीं शताब्दी में विपुल मात्रा में हिन्दी भाषा में गद्यपद्य साहित्य सृजित हुआ। (५) राजस्थानी जैन साहित्य की विशालता का अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि यहां के जैन शास्त्र भण्डारों में लगभग ३ लाख हस्तलिखित पांडुलिपियाँ, ताड़पत्रों एवं कागजों पर निबद्ध, सुरक्षित हैं । (६) तटस्थ वृत्ति और उदार दृष्टिकोण के कारण जीवन के नानाविध पक्षों को स्पर्श करनेवाला जैन साहित्य, केवल भावना के स्तर पर ही निर्मित नहीं हुआ है । ज्ञान, चेतना के स्तर पर धर्मेतर विषयों से संबद्ध रचनाएँ भी विपुल परिमाण में है। आगम साहित्य के अतिरिक्त, आगमेतर साहित्य में प्रबंध, व्याकरण, ज्योतिष, वैद्यक, मंत्र-तंत्र, इतिहास, भूगोल, दर्शन, न्याय, राजनीति, आदि वांगमय के विभिन्न अंगों पर अधिकारपूर्वक साहित्य रचा गया । (७) अपने प्रवचनों को रोचक व सरस बनाये रखने के लिए, जैनाचार्य निरन्तर कथा काव्य एवं चरित काव्य सृजित करते रहे । श्रावकों में स्वाध्याय व अध्ययन के क्रम को अनवरत बनाये रखने के लिये, नये-नये ग्रन्थों की रचनाएँ होती रही तथा प्राचीन शास्त्रीय ग्रन्थों पर टीकाएँ, व्याख्याएं, भाष्य, वचनिकाएँ, नियुक्तियां चणियाँ आदि लिखी जाती रहीं। विभिन्न, पर्व, तिथियों, धार्मिक उत्सवों, जयन्तियों आदि पर भी, सामयिक साहित्य रचा जाता रहा । प्रेरणास्पद एवं ऐतिहासिक चरित्रों पर भी, संवेदना के धरातल पर जीवनी परक साहित्य रचा जाता रहा । (८) काव्य रूपों के सन्दर्भ में जैन कवि बड़े उदार रहे । उन्होंने प्रचलित शास्त्रीय रूपों को स्वीकार करते हुए भी, लोकभाषा के काव्य रूपों में व्यापकता और सहजता ... Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन साहित्य एवं साहित्यकार : ४१७ का रंग भरा। इन्होंने प्रबन्ध एवं मुक्तक के बीच, काव्य रूपों के कई नये स्तर निर्मित किये, साथ ही प्रचलित काव्य रूपों को नयी भावभूमि और मौलिक अर्थवत्ता भी दी। (९) पद्य के सौ से भी अधिक काव्य रूप देखने को मिलते हैं। चरित काव्य के प्रमुख काव्य रूप-रास, चौपाई, ढाल, पवाडा, संघि, चर्चरी, प्रबन्ध, चरित, सम्बन्ध, आख्यानक, कथा आदि हैं। उत्सव काव्य के प्रमुख काव्य रूप-फागु, धमाल, बारहमासा, विवाहलो, धवल, मंगल आदि है। नीति काव्य के मुख्य काव्य रूप-संवाद, कक्का, मातृका, बावनी, छत्तीसी, कुलक, हीयाली आदि हैं । स्तुति काव्य के मुख्य काव्य रूप-स्तुति स्तवन, स्तोत्र, सज्झाय, विनती, नमस्कार, चौबीसी, पूजा आदि हैं। (१०) गद्य साहित्य भी स्थूल रूप से दो प्रकार का है-मौलिक एवं टीका, अनुवाद आदि । मौलिक सूजन धार्मिक, ऐतिहासिक, कलात्मक आदि रूपों में मिलता है। धार्मिक गद्य में सामान्यतः कथात्मक एवं तात्विक गद्य के ही दर्शन होते हैं। ऐतिहासिक गद्य गुर्वावली, वंशावली, उत्पत्ति ग्रन्थ, दफ्तर, बही, टिप्पण आदि रूपों में लिखा गया । कलात्मक गद्य वचनिका, दवावैत, बात, सिलोका, वर्णक, संस्मरण आदि रूपों में लिखा गया। अनुप्रासात्मक झंकारमयी शैली और अंतर्तुकात्मकता इस गद्य की अपनी विशेषता है । आगमों में निहित तत्त्व और दर्शन को, जनोपयोगी बनाने की दृष्टि से, प्रारम्भ में नियुक्तियां और भाष्य लिखे गये, जो पद्य में थे। बाद में इन्हीं पर गद्य में चूणियाँ लिखी गईं। नियुक्ति, भाष्य और चूणि साहित्य, प्राकृत अथवा प्राकृत-संस्कृत मिश्रित रूप में ही मिलता है । इसके पश्चात् टीका युग आता है, जो आगमों पर ही नहीं, अपितु नियुक्तियों और भाष्यों पर भी लिखी गईं। ये टीकाएँ प्रारम्भ में संस्कृत में और बाद में राजस्थानी व हिन्दी में मिलती हैं। इनके दो रूप-टब्बा व बालावबोध विशेष प्रचलित है । गद्य और पद्य के ये विभिन्न रूप जैन साहित्य की विशिष्ट देन हैं। (११) कागज पर लिखे ग्रन्थ त्रिपाठ, पंचपाठ, टब्बा, बालावबोध, दो विभागी, सूड़लेखन, चित्रपुस्तक, स्वर्णाक्षरी, रौप्याक्षरी, सूक्ष्माक्षरी, स्थूलाक्षरी, मिश्रिताक्षरी, पौथियाकार, गुटकाकार आदि अनेक रूपों के प्राप्त होते हैं। (१२) जैन साहित्य का मूल स्वर शांतरसात्मक है, किन्तु इसमें शृंगार एवं भक्ति रस का भी अभाव नहीं है। वीर रस की ओजस्विता के साथ ही, हृदय को विगलित करने वाला करुण रस भी विद्यमान है । कथा साहित्य के विभिन्न प्रकरणों में हास्य रस एवं व्यंगोक्तियों की छटा भी बिखरी हुई है। (१३) जैन साहित्यकारों ने साहित्य को कलाबाजी का विषय न समझ कर, हृदय को प्रभावित करने वाली आनन्दमयी कला के रूप में देखा । अतः शास्त्रीय छन्दों के अतिरिक्त लोक रुचि को ध्यान में रखकर कई नये छन्द भी निर्मित किये। ये छन्द प्रधानतः गेय रहे हैं। संगीत को शास्त्रीयता से मुक्त करने के लिये इन कवियों ने २७ Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१८: मध्यकालीन राजस्थान में जैनधर्भ विभिन्न लोक शैलियों को अपनाया, जिनके प्रयोग से भारत का पुरातन संगीत सुरक्षित रह सका। (१४) हिन्दी साहित्य की आध्यात्मिक चेतना को बनाये रखने में, जैन साहित्य की दार्शनिक संवेदना की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। भारतीय साहित्य की विभिन्न धाराओं और प्रवृत्तियों को इससे पुष्टि मिली है । (१५) जैनाचार्यों ने लोक जीवन के सन्निकट होने के कारण, समकालीन घटनाओं, लोक धारणाओं और जनचेतनाओं को यथार्थ एवं मुखर अभिव्यक्ति देने में सफलता प्राप्त की है । यह सामाजिक एवं सांस्कृतिक अध्ययन की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है। (१६) यायावर व सत्यनिष्ठ जैनाचार्यों ने घटनाओं के सही-सही विवरण अंकित किये हैं। विभिन्न वर्गों से निकटता होने के कारण, जन-जीवन के चितन को भी स्पष्ट रूप से अंकित किया है, अतः जैन साहित्य में इतिहास लेखन की प्रचुर सामग्री उपलब्ध है। (१७) जैन साहित्य समाज का दर्पण है। इसमें विभिन्न कालावधियों के विविध आचार-व्यवहार, सिद्धांत, संस्कार, रीति-नीति, वाणिज्य, व्यवसाय, धर्म-कर्म, शिल्प, कला, पर्व-उत्सव, तौर-तरीके, नियम, कानून आदि यथावत प्रतिबिंबित हैं । (१८) राजस्थानी जैन साहित्य ने जीवन की पवित्रता, नैतिकता और उत्कृष्ट जीवन आदर्शों को, लोक कल्याण हेतु व्याख्यायित किया है। इस साहित्य का रूप समष्टिमूलक लोक संग्राहक एवं लोकमंगलकारी है । इसका विश्वास संघर्ष में नहीं, अपितु मंगल में है, अतः नायक का अन्त दुःखद मृत्यु में नहीं होता, अपितु उसे आध्यात्मिक वैभव से सम्पन्न, अनन्त बल, अनन्त ज्ञान, अनन्त सुख और अनन्त सौन्दर्य का धारक बताया जाता है। जैन साहित्य के मूल में, समानता, स्वतन्त्रता, सार्वजनीनता, सांस्कृतिक समन्वय, भावनात्मक एकता और आदर्शवादिता होने के कारण, यह व्यक्ति और समाज के लिये अच्छा मार्गदर्शक और पथ-प्रणेता है । . Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्याय सप्तम् जैन शास्त्र भंडार राजस्थान के शास्त्र भण्डार ज्ञान विज्ञान के क्षेत्र में अत्यन्त गौरवपूर्ण हैं एवं हमारे पूर्वजों के साहित्यिक प्रेम व जैनाचार्यों को बुद्धिमत्ता के स्तुत्य प्रयासों के परि‘णाम हैं । प्रारम्भ में जैन श्रमण वर्ग श्रुतज्ञान को लिपिबद्ध करने के विपक्ष में था, 'किन्तु कालक्रम में यही परम उपादेय माना जाने लगा। गत १००० वर्ष के ग्रन्थ व ज्ञानभण्डार राजस्थान में विद्यमान हैं जिनसे हमें ज्ञात होता है कि श्रुत ज्ञान की अभिवृद्धि में जैनाचार्यों और श्रावक वर्ग ने विशेष योगदान दिया था। इन्होंने समय की गति को पहचान कर साहित्य सृजन के साथ-साथ उसके सुरक्षा पक्ष को भी अत्यधिक महत्व दिया और अपने अथक प्रयासों से घोरे-धीरे लाखों की संख्या में पांडुलिपियों का संग्रह कर लिया। मुस्लिम काल में इस साहित्यिक धरोहर को प्राणाधिक प्रिय समझकर सुरक्षित रखा गया, और यहाँ के शासकों व जनता, दोनों ने अपने अथक प्रयासों से इस निधि को नष्ट होने से बचाया । यहाँ के शासकों ने जहाँ राज्य स्तर पर ग्रन्थ संग्रहालयों एवं पोथीखानों की स्थापना की वहीं जैन समाज ने भी मन्दिरों, उपाश्रयों एवं अपने निवास पर भी पांडुलिपियों का अपूर्व संग्रह किया। राजस्थान में हस्तलिखित ग्रन्थों के संग्रह रूप ज्ञान भण्डार हजारों की संख्या में थे, पर मुद्रण युग में छपी हुई पुस्तकें बिना परिश्रम व थोड़े मूल्य में ही सुलभ होने लगी, तब हस्तलिखित प्रतियों का पठन-पाठन क्रमशः कम होता चला गया। परिणामस्वरूप बहुत से लोगों ने कौड़ियों के मोल अपने संग्रह बेच डाले । हजारों प्रतियाँ राजस्थान से अंग्रेजों के शासनकाल में अन्यत्र या विदेशों में चली गईं। धर्माध मुस्लिमों के शिकार अनेक ग्रन्थ भण्डार भी हुए। उचित देखभाल के अभाव में हजारों प्रतियां चूहों और दीमकों की भक्ष्य बन गई । वर्षा और सर्दी के प्रभाव से हजारों प्रतियों के पृष्ठ चिपक कर थेपड़े बन गये। उन्हें जलाने के काम में लिया गया। हजारों प्रतियां पानी में भिगोकर कूटे के काम में ली गई। इतना भयंकर विनाश होने के बावजूद राजस्थान में अभी लाखों हस्तलिखित ग्रन्थों की प्रतियाँ अवशिष्ट हैं।' राजस्थान में जैन शास्त्र भण्डारों को सर्वाधिक संख्या है। ये राजस्थान के सभी प्रमुख नगरों एवं कस्बों में मिलते हैं । यद्यपि अभी तक सारे शास्त्र भण्डारों की पूरी १. नाहटा, राजैसा, पृ० २७६ । Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२० : मध्यकालीन राजस्थान में जैनधर्म सूची तैयार नहीं हो सकी है। कई विद्वानों ने एतदर्थं अद्यावधि श्रमसाध्य प्रयास किये हैं, जिनमें डॉ० कस्तुरचंद, मुनि पुण्यविजय, अगरचंद नाहटा, भानावत आदि विद्वानों के प्रयास स्तुत्य हैं | राजस्थान में दिगंबर व श्वेतांबर शास्त्र भण्डारों की गणना की जावे तो वह २०० से कम नहीं होनी चाहिए एवं इनमें संग्रहीत ग्रन्थों की संख्या लगभग ३ लाख होनी चाहिये । " ये जैन शास्त्र भण्डार छोटे बड़े सभी स्तर के हैं । कुछ ऐसे ग्रंथ २,००० से भी अधिक पांडुलिपियों का संग्रह मिलता है तो कुछ में हस्तलिखित ग्रंथ हैं । भण्डार हैं जिनमें १०० से भी कम । ग्रन्थ भण्डारों की सूचियों के अवलोकन से स्पष्ट है कि के मध्य सृजित साहित्य की संचित निधि के ये अपूर्व कोष हैं शताब्दी तक ग्रंथों के प्रतिलिपिकरण तथा संग्रह पर अधिक जोर रहा। मुस्लिम काल में प्रतिलिपि की गई पांडुलिपियों की संख्या सर्वाधिक है । ग्रन्थ भण्डारों के लिये इन शताब्दियों को हम उनका स्वर्ण काल कह सकते हैं । आमेर, नागौर, अजमेर, सागवाड़ा, काम, मौजमाबाद, बूँदी, टोडारायसिंह आदि स्थानों के शास्त्र भण्डार इन शताब्दियों में ही स्थापित किये गये और इन्हीं स्थानों पर ग्रंथों का तीव्रता से प्रतिलिपि - करण हुआ । यह युग भट्टारक संस्था का भी स्वर्ण युग था । साहित्य लेखन, उसकी सुरक्षा एवं प्रचार-प्रसार में भट्टारकों का भी अपरिमित योगदान रहा । १८वीं शताब्दी के पश्चात् से यह कार्यं कुछ अवरुद्ध हो गया, यद्यपि जयपुर में साहित्य सृजन व पांडुलिपि प्रतिलिपिकरण अनवरत रहा, किन्तु प्राकृत, संस्कृत, अपभ्रंश आदि भाषाओं की कृतियों की सर्वथा उपेक्षा कर दी गई। यही नहीं, ग्रन्थों की सुरक्षा पर भी पूर्ण ध्यान: नहीं दिया गया । महत्त्व एवं विशेषताएँ : १९वीं से १९वीं शताब्दी १५वीं शताब्दी से १८वीं १. मध्ययुगीन बर्बरता एवं विध्वंस से प्राचीन साहित्य की रक्षार्थं, भौगोलिक दृष्टि से सुरक्षित एवं मुस्लिम आक्रमणों के मार्गों से दूर के स्थानों को चुना गया । मरुभूमि में स्थित मुस्लिम आक्रमणकारियों के मार्ग एवं पहुँच से दूर जैसलमेर के ग्रन्थ भण्डार इसका सर्वोत्तम उदाहरण हैं । २. आक्रमणों के समय हस्तलिखित ग्रन्थ मन्दिरों के भूमिगत कक्षों (भोंयरों) या तहखानों में रखे जाते थे । ऐसे भृगृह कक्ष अनेक मन्दिरों में दृष्टिगत होते हैं । इनके निर्माण से असंख्य ग्रन्थों को बचाया जा सका, किन्तु कुछ उदाहरण ऐसे भी हैं जहाँ ग्रन्थों को भूमिगत करने के बाद पुनः देखा ही नहीं गया । नागौर, आमेर, अजमेर, १. राजेशाग्रसू, ५, पृ० २, प्रस्तावना | Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन शास्त्र भंडार : ४२१ भरतपुर, कामा, बयाना, बसवा, दौसा आदि के ग्रन्थ भण्डार भूमिगत होने से ही सुरक्षित बचे रह सके । तहखानों में दरवाजे के स्थान पर प्रस्तर पट्टिका इस प्रकार रखी जाती थी कि पीछे कक्ष होने का आभास भी नहीं हो पाता था । ३. शास्त्र भण्डारों के ग्रन्थ मुख्यतः ताड़पत्र, भोजपत्र, वस्त्र, कागज एवं ताम्रपत्रों पर रचित मिलते हैं । १३वीं शताब्दी के पूर्वं कागज की उपलब्धि लगभग नगण्य थी । जैसलमेर के ग्रन्थ भण्डार में संवतोल्लेख वाला प्राचीनतम ग्रन्थ १०६० ई० का " ओध नियुक्ति वृत्ति" ताड़पत्र पर ही लिखा हुआ है । जैसलमेर प्राचीन ताड़पत्रीय ग्रन्थों की विपुलता की दृष्टि से विख्यात है । ये ग्रन्थ सामान्य स्याही, स्वर्णिम स्याही और चित्रांकित -- ३ प्रकार के मिलते हैं । चित्रपट, यंत्रपट एवं छोटे स्तोत्र या प्रार्थना लेखन के लिये वस्त्र के फलक प्रयुक्त होते थे। जयपुर के पार्श्वनाथ जैन मन्दिर में " प्रतिष्ठा पाठ" की एक पांडुलिपि वस्त्रांकित है जो १७वीं शताब्दी में लिखी गई थी । जैन भूगोल के तीन विश्व जम्बूद्वीप, अढ़ाई द्वीप व विदेह क्षेत्र के मानचित्रों के वस्त्र पट कई ग्रन्थ भण्डारों में हैं । कागज पर रचित १३वीं शताब्दी से पूर्व का कोई ग्रन्थ उपलब्ध नहीं होता । कागज पर रचित ग्रन्थ स्वर्णिम व रजत स्याही में लिखित तथा चित्रित च अलंकृत भी मिलते हैं । ऐसे ग्रन्थ सामान्यतः श्वेताम्बर ग्रन्थ भण्डारों में हैं । " कल्पसूत्र” की स्वर्णिम स्याही से अंकित व प्रचुर अलंकरण युक्त प्रति की कीमत १ लाख रुपये से भी अधिक है । काष्ठ फलक व ताम्रपत्रों पर अंकित पांडुलिपियाँ संख्या में बहुत कम हैं। मंदिरों में अधिकांश यन्त्र ताम्रपत्रों पर ही उत्कीर्ण मिलते हैं । कुछ मंदिरों में स्वर्णपत्रों व रजत-पत्रों पर उत्कीर्ण यन्त्र भी हैं । ४. शास्त्र भण्डारों में प्राकृत, अपभ्रंश, संस्कृत, राजस्थानी व हिन्दी भाषा साहित्य अपने विविध स्वरूपों में उपलब्ध है । इनमें केवल धार्मिक साहित्य ही नहीं है, अपितु काव्य, पुराण, ज्योतिष, आयुर्वेद, गणित, भूगोल आदि विषयों पर भी ग्रन्थ हैं । सामान्य अभिरुचि के विषय कथा, कहानी एवं नाटक भी अच्छी संख्या में हैं । मुस्लिम शासनकाल में भट्टारकों ने अपभ्रंश भाषा के ग्रन्थों का अच्छा संग्रह किया और उनकी पांडुलिपियाँ नकल करवाई | राजस्थान के अतिरिक्त अन्य प्रदेशों के शास्त्र भण्डारों में अपभ्रंश के ग्रन्थ या तो मिलते ही नहीं हैं या स्वल्प संख्या में हैं । अपभ्रंश ग्रन्थों की दृष्टि से नागौर, अजमेर, जयपुर के भण्डार सर्वाधिक महत्त्व के हैं । इनमें अपभ्रंश का ९५ प्रतिशत साहित्य संग्रहीत है । ५. ग्रन्थों के अतिरिक्त शास्त्र भण्डारों में उपलब्ध गुटके भी काफी महत्त्वपूर्ण हैं । इनमें विविध प्रकार की साहित्यिक और जीवनोपयोगी सामग्री का संग्रह किया जाता था। इनमें विविध विषयों के तथ्य हैं, जैसे-एक गुटके में भारत के भौगोलिक विस्तार का परिचय देते हुए १२४ देशों के नामों की सूची है' । एक अन्य गुटके में १. राजैसा, ४, पृ० ६७१, ग्रन्थ संख्या ५५०६ । . Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२२ : मध्यकालीन राजस्थान में जैनधर्म नगरों का वर्णन है ।' ६. विकास की पिछली शताब्दियों में साहित्य के विभिन्न स्वरूपों, व काव्य रूपों की जानकारी शास्त्र भण्डारों में प्राप्त होती है । इनके प्रारंभ, विस्तार व विकास को शोध परक जानकारी शास्त्र भण्डारों के गहन साहित्यिक अध्ययन से प्राप्त की जा सकती है । ७. कुछ ग्रन्थों की कई-कई प्रतियाँ उपलब्ध होती हैं जो लेखक व उनकी कृतियों की लोकप्रियता की द्योतक हैं । स्वयं ग्रन्थकारों की मूल पांडुलिपियों की उपलब्धि भी कम महत्त्वपूर्ण नहीं है । पं० टोडरमल के 'आत्मानुशासन' की विभिन्न भण्डारों में ४८ प्रतिलिपियाँ, किशनसिंह के 'क्रियाकोश' की ४५, द्यानतराय के 'चर्चाशतक' की ३७, 'पद्मनंदी पंचविशति' की ३५, शुभचंद्र के 'ज्ञानार्णव' की ३४ तथा सर्वाधिक भूधरदास के 'पार्श्वपुराण' को ७३ प्रतियाँ प्राप्त हुई हैं |3 ८. शास्त्र भण्डारों में इतिहास विषय पर ही नहीं अपितु ऐतिहासिक तथ्यों से सम्पन्न भी अनेकों ग्रन्थों की प्रतियाँ उपलब्ध होती हैं । ग्रंथों की प्रशस्तियों में वर्णित लेखक, शासक, नगर, ग्राम, आचार्य, संरक्षक, रचनाकाल, रचनास्थल आदि तथ्य प्रामाणिक इतिहास सृजन में बहुत सहायक हैं । चूँकि १०वीं शताब्दी के पश्चात् का साहित्य शास्त्र भण्डारों में उपलब्ध है, अतः पिछले १००० वर्षों का प्रामाणिक इतिहास सृजित करने में ये सहायक हैं । ९. ग्रन्थ भण्डारों के विशाल कोष में जैन कला एवं चित्रकला की प्राथमिक जानकारी देने वाली विपुल सामग्री है । कलाप्रेमी जैनाचार्य व श्रावक ग्रंथों के सौंदर्यीकरण पर बहुत ध्यान देते थे । ताड़पत्रीय कागज पर निर्मित तथा वस्त्रांकित चित्रों एवं अलंकरण के विविध स्वरूपों का दिग्दर्शन शास्त्र भण्डारों में होता है । चित्रित काष्ठ फलक भी जैसलमेर में हैं । ताड़पत्रीय चित्र बहुत कम उपलब्ध हैं जबकि अन्य चित्रित ग्रन्थ एवं रंगीन अलंकरण मुख्यतः जयपुर, अजमेर, मौजमाबाद, नागौर, भरतपुर, बसवा, बूवी आदि के भण्डारों में हैं । यद्यपि चित्रित ग्रन्थों की संख्या बहुत अधिक नहीं है, किन्तु भारतीय चित्रकला व लघु चित्रशैली के इतिहास की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण सामग्री प्रस्तुत करते हैं । १०. ये शास्त्र भण्डार अजैन ग्रन्थों के भी अच्छे संग्रह हैं । कुछ ग्रन्थ तो केवल जैन भण्डारों में ही उपलब्ध होते हैं । जैनाचार्यों ने न केवल उन्हें सुरक्षित रखा, अपितु १. राजैसा, पृ० ५७९-५९३, ग्रन्थ संख्या ५४०२ । २. वही, ४, वासुदेव शरण अग्रवाल द्वारा प्राक्कथन, पृ० ४ । ३. राजेशाग्रसू, ५, पृ० ३ | Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन शास्त्र भंडार : ४२३ उन पर वृत्तियाँ, भाष्य एवं टीकायें भी लिखीं। यही नहीं, उन्हें अनुवादित कर विस्तृत प्रचारित भी किया । ये ग्रन्थ विविध विषय यथा काव्य, कथा, व्याकरण, आयुर्वेद, ज्योतिष, स्मृति, उपनिषद्, संहिता, ब्राह्मण आदि से सम्बन्धित हैं । केवल पाटोदी जैन मंदिर, जयपुर के भण्डार में ही उक्त विषयों से सम्बन्धित ५०० ग्रन्थ हैं | मम्मट, सोमेश्वर, कवि रुद्रट, कुट्टक, वामन, उद्भट, राजानक, महिम, कालिदास, माघ, भारवि, हर्ष, हलायुध, भट्टी, उदयनाचार्य, वाचस्पति मिश्र, मुरारी, विशाखदत्त, नारायण, सुबंधु आदि अन्यान्य कई रचनाकारों की दुर्लभ व महत्त्वपूर्ण कृतियाँ इन शास्त्र भण्डारों में सुरक्षित हैं । भट्ट - ११. ये ग्रन्थ भण्डार पुस्तकालय के रूप में भी उपयोगी थे । स्वाध्याय प्रेमी यहाँ बैठकर शास्त्रों का अध्ययन कर सकते थे । ग्रन्थों की सूचियां भी उपलब्ध हुआ करती थीं तथा ग्रन्थों को लकड़ी के पुट्ठों के बीच में रख कर सूत अथवा सिल्क के फीतों से बांधा जाता था। वैज्ञानिक विधि से रख-रखाव के कारण ये सुदीर्घ अवधि तक सुरक्षित रह पाये । महत्त्वपूर्ण साहित्यिक केन्द्र भी थे । असंख्य जैन विद्वानों ने १२. शास्त्र भण्डार साहित्यिक केन्द्र भी होते थे जहाँ विद्वानों के द्वारा नव साहित्य सृजन तथा महत्त्वपूर्ण ग्रन्थों का प्रतिलिपिकरण निरन्तर होता रहता था । इनके प्रमुख, यति या विद्वान् भट्टारक होते थे । जैसलमेर, अजमेर, नागौर, बाँरा, फतेहपुर, आमेर, कोटा, रणथम्भौर, डूंगरपुर आदि के शास्त्र भंडार भट्टारकों व यतियों के नेतृत्व में यहाँ अपनी कृतियाँ रचीं । १३. विभिन्न शास्त्र भण्डारों के मंदिर अच्छे शैक्षिक केन्द्र भी थे । यहाँ बच्चों व वयस्कों को प्राकृत, संस्कृत, व्याकरण, कोष, काव्य, नाटक, दर्शन, खगोल, गणित आदि की भी शिक्षा दी जाती थी । अध्ययन-अध्यापन में जैनेतर ग्रन्थों का भी प्रयोग होता था । ग्रन्थ भण्डारों में अजैन ग्रन्थों की प्राप्ति मुनियों व श्रावकों की धर्म-निर पेक्षता, उन्मुक्त दृष्टिकोण व सर्वधर्म समभाव के परिचायक हैं । इन शैक्षिक केन्द्रों पर शिष्यों द्वारा गुरुओं को ग्रन्थ भेंट करने की भी परंपरा थी, जिससे शास्त्र भण्डार निरन्तर समृद्ध होते रहे 1 १४. मुगल काल में राजस्थानी शासकों का देश के दूरस्थ प्रदेशों से सम्पर्क रहने के कारण इन संग्रहों में देश की विभिन्न भाषाओं के हस्तलिखित ग्रंथ भी उपलब्ध हैं । उदाहरणार्थ, जयपुर में यदि बंगाली भाषा के ग्रन्थ मिलेंगे तो बीकानेर में कन्नड़ और उदयपुर में गुजराती भाषा के ग्रन्थ भी उपलब्ध हो जायेंगे । जैनाचार्यों का योगदान राजस्थान के जैनाचार्य साहित्य के सच्चे साधक थे । आत्मचिंतन एवं आध्यात्मिक चर्चा के अतिरिक्त समय का पूर्ण सदुपयोग साहित्य सृजन में होता था । स्वयं रचना Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२४ : मध्यकालीन राजस्थान में जैनधर्म करने के अतिरिक्त दूसरों को भी एतदर्थं प्रेरणा देते थे । हरिभद्र सूरि ने योगदृष्टिसमुच्चय में 'लेखना, पूजना, दानम्' द्वारा पुस्तक लेखन को योग भूमिका का अंग बतलाया है । १२वीं शताब्दी में सूराचार्य ने भी 'दानाधिप्रकाश' के पंचम अवसर में पुस्तक लेखन की महिमा गाई है । ग्रन्थों का प्रतिलिपिकरण श्रमसाध्य था, जो संत एवं संयमी विद्वान् ही कर सकते थे । अतः ग्रन्थ के अन्त में कभी-कभी उनकी सुरक्षार्थं निम्न शब्दों में पाठकों का ध्यान आकृष्ट किया करते थे "भग्नपृष्ठ कटिग्रीवा, वक्रदृष्टिरधोमुखम् । कष्टेन लिखितं शास्त्रं यत्नेन परिपालयेत ॥" 3 जिनभद्र सूरि ने अपने जीवन का श्रेष्ठतम समय ज्ञान भण्डारों की स्थापना के निमित्त व्यतीत किया । जैन संतों के सुरक्षा के विशेष नियमों के कारण ग्रन्थों के विशाल संग्रह सुरक्षित रह सके। इन्होंने अनेक संकटों व झंझावातों के मध्य भी साहित्य की अमूल्य धरोहर को सुरक्षित रखा । असंख्य ग्रन्थ भण्डार जैन संतों की साहित्य सेवा के ज्वलन्त प्रमाण हैं । इन्होंने अपने पूर्ववर्ती आचार्यों एवं लेखकों की रचनाओं को भी निष्ठापूर्वक संग्रहीत किया। जिनचन्द्र सूरि ने १४४० ई० में बृहद् ज्ञानभण्डार की स्थापना करके साहित्य की सैकड़ों अमूल्य निधियों को नष्ट होने से बचाया । चैत्यवासियों, यतियों एवं भट्टारकों के ग्रामों एवं नगरों में स्थाई निवास से साहित्य सृजन व शास्त्र भण्डारों के कोष में अपूर्वं वृद्धि होने लगी । चातुर्मास के अस्थायी निवास के दौरान भी जैनाचार्य पुस्तक लेखन व प्रतिलिपिकरण को प्रोत्साहन देते थे । इस प्रकार की मनोवृत्ति ने छोटे-छोटे स्थानों पर भी ग्रन्थ भण्डारों की स्थापना को प्रोत्साहित किया । यहाँ तक कि व्यक्तिगत रुचि जाग्रत करके आवासों पर भी पुस्तका - लय निर्माण की प्रवृत्ति को प्रोत्साहित करने का श्रेय भी इन्हीं मुनियों को है । राजनयिकों द्वारा संरक्षण एवं योगदान राजस्थान के कई राजाओं, मंत्रियों एवं दीवानों ने परिष्कृत सांस्कृतिक अभिरुचि एवं धर्मनिरपेक्षता का परिचय देते हुए, अपने ही आध्यात्मिक कल्याण हेतु या स्वयं को आदर्श एवं समदर्शी प्रजापालक सिद्ध करने के लिये, या स्वजनों की प्रेरणा एवं प्रजा की प्रियदर्शिता प्राप्त करने के लिये भी कवियों एवं साहित्यकारों को सम्मान देकर साहित्य सृजन को परोक्ष प्रोत्साहन दिया । एतदर्थं इन्होंने प्राचीन मौलिक ग्रन्थ खरीदे, नये लिखवाये, पुरानों की प्रतिलिपियाँ तैयार करवाई ताकि मुनियों को भेंट में दे सकें, एवं आत्मकल्याण हेतु स्वाध्याय भी कर सकें । ताराचन्द ने १७वीं शताब्दी में सादड़ी में जैन मुनि हेमरत्न से 'गोराबादल पद्मिनी चौपाई' की रचना करवाई थी । साहित्य के १. कासलीवाल, मुहंस्मृग, पृ० ७६३ । . Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन शास्त्र भंडार : ४२५ परिमाण में शास्त्रों उन्होंने सिद्ध हेम अनन्य प्रेमी गुर्जरेश्वर सिद्धराज जयसिंह ने एक शाही पुस्तकालय की स्थापना की थी, जिसमें विभिन्न विषयों की रचनाओं को संग्रहीत किया था एवं बड़े की ताड़पत्रीय प्रतियाँ स्वर्णाक्षरों व सचित्रादि लिखवायी थी । व्याकरण की एक लाख पच्चीस हजार प्रतियां तैयार करवाईं ताकि इन्हें विद्वानों एवं ग्रंथ भण्डारों को भेंट स्वरूप दे सकें । 2 कुमारपाल ने २१ शास्त्र भण्डार स्थापित किये और 'प्रत्येक में स्वर्णिम स्याही से लिखी गई 'कल्पसूत्र' की प्रति रखवाई | 3 वस्तुपाल एवं तेजपाल, अपने गुरु विजयसेन सूरि और उदयप्रभ सूरि के उपदेशों से शास्त्र भण्डार स्थापित करने के लिये प्रोत्साहित हुए थे । मांडवगड़ के मंत्री पेथडशाह आबू सहित ७ नगरों में शास्त्र भण्डारों की स्थापना की । " जैसलमेर के महारावल हरराज ने जैन कवि कुशललाभ के सहयोग से ही 'पिंगल शिरोमणि ग्रन्थ' की रचना की । मानसिंह के मंत्री नानू गोधा ने भट्टारक ज्ञानकीर्ति से 'यशोधर चरित्र' की रचना करने के लिये प्रार्थना की थी। जिनचन्द्र सूरि को अकबर द्वारा 'युगप्रधान ' पद देने पर बीकानेर के महाराजा रायसिंह व कुँवर दलपत सिंह द्वारा भी संख्या - बद्ध प्रतियाँ लिखवाकर भेंट करने के उल्लेख मिलते हैं । इन ग्रन्थों की प्रशस्तियों में बीकानेर, खंभात आदि के ज्ञान भण्डार स्थापित करने का भी वर्णन है । ७ जयपुर के दीवान बालचन्द्र छाबड़ा और अमरचन्द ने कई हस्तलिखित ग्रंथ लिखवा - कर जयपुर नगर के विभिन्न शास्त्र भण्डारों में वितरित किये थे । " महाराजा सवाई जयसिंह के दीवान मोहनदास ने आमेर में बहुत बड़ा मन्दिर निर्मित करवाकर उसमें ग्रंथ भण्डार भी स्थापित करवाया ।" दीवान रामचन्द छाबड़ा ( १७८४ ई० ) और राव कृपाराम पांड्या (१७८२ ई० - १७९० ई०) तथा आमेर व जयपुर के अन्य कई दीवानों ने ग्रन्थ भण्डारों की स्थापना में पूर्ण सहयोग दिया । " १. नाहटा, राजैसा, पृ० ४१९ । २. प्रभावक चरित्र ( देखें - हेमचन्द्र प्रबन्ध ) | ३. कुमारपाल प्रबन्ध, पृ० ९६-९७ । ४. उपदेशतरंगिणी, पृ० १४२ । ५. भारतीय जैन श्रमण संस्कृति अने लेखन कला, पृ० ९२ । ६. परम्परा, भाग – १३ । ७. भँवर लाल नाहटा, राजैसा, पृ० ४१९ । ८. वीरवाणी, भाग - १ | ९. वीरवाणो, भाग - १ । १०. वही । Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२६ : मध्यकालीन राजस्थान में जैनधर्म व्यापारियों एवं श्रेष्ठियों का योगदान राजाओं एवं मंत्रियों की भाँति धनी श्रावकों ने भी इस कार्य में अत्यधिक रुचि प्रदर्शित की। हस्तलिखित ग्रन्थों के पुष्पिका लेख तथा 'कुमारपाल प्रबन्ध', 'वस्तुपाल चरित्र', 'प्रभावक चरित्र', 'सुकृत सागर महाकाव्य', उपदेश तरंगिणी', 'कर्मचंद्र मंत्री वंश प्रबंध' अनेक रासों एवं ऐतिहासिक चरित्रों से समृद्ध श्रावकों द्वारा लाखों रुपये के सद्व्यय से ज्ञान कोष लिखवाने तथा प्रचारित करने के विशुद्ध उल्लेख पाये जाते हैं।' 'वीर वंशावली' में यह उल्लेख मिलता है कि १३४९ ई० में एक जैन गृहस्थ संग्राम सोनी ने लाखों स्वर्ण मुद्राएँ व्यय करके 'कल्पसूत्र' और 'कालकाचार्य कथा' जैन मुनियों के लाभार्थ तैयार करवाई थीं । खरतरगच्छ के जिनभद्र सूरि के निर्देश पर धरणाशाह ने ताड़पत्रीय ग्रन्थों को कई प्रतियाँ जैसलमेर के शास्त्र भण्डार को भेंट करने हेतु लिखवाई थीं। रइधू ने कतिपय श्रावकों के आग्रह पर २० से अधिक अपभ्रंश रचनाएँ लिखी थीं। धरणाशाह, मंडन, धनराज, पेथड शाह, पर्वत कान्हा, थाहरू शाह एवं कर्मचन्द्र ने ज्ञान भण्डार स्थापित करने में अपनी लक्ष्मी का मुक्त हस्त से व्यय किया था । थाहरूशाह का भण्डार आज भी जैसलमेर में विद्यमान है।४ जैन समाज का योगदान जैन समाज शास्त्रों को अत्यधिक सम्मान की दृष्टि से देखता है। ज्ञान का आदर, ज्ञानभक्ति आदि की विशद् उपादेयता नित्यप्रति के व्यवहार में परिलक्षित होती है। कल्पसूत्रादि आगमों को पर्युषण में गजारूढ़ शोभायात्रा निकाली जाती है तथा जागरणादि किये जाते हैं। भगवती सूत्रादि आगम पाठ के समय धूप-दीप तथा शोभायात्रा आदि जैनों के ज्ञान-सम्मान के ही प्रतीक हैं । ज्ञान-पूजा विविध रूप से की जाती है एवं ज्ञानद्रव्य के संरक्षण-संवर्धन का विशेष ध्यान रखा जाता है। ग्रन्थों की प्रतिलिपिकरण श्रुत सेवा का अंग माना जाता था। विशेष धार्मिक अवसरों यथा श्रुतपंचमी, ज्ञानपंचमी पर महत्वपूर्ण ग्रन्थों की प्रतिलिपियां पूर्ण कर आचार्यों एवं ज्ञान भण्डारों को समर्पित की जाती थीं। पुस्तकों को धरती पर न रखकर उच्चासन पर रखकर पढ़ा जाता है, जिसे सांपड़ा-साँपड़ी व रील भी कहते हैं। साधु, श्रावक के ज्ञानोपकरण के पैर, थूक आदि लगने पर प्रायश्चित का विधान है। इसलिये बैठने के आसन पर भी ग्रन्थों को नहीं रखा जाता । ग्रन्थों को वर्षा एवं धूप से बचाया जाता था तथा बन्द कमरों व तलघरों में हो रखा जाता था। इनको पत्थर की पेटियों में एवं ताड़पत्रीय ग्रन्थों को काष्ठफलकों १. भंवरलाल नाहटा, राजैसा, पृ० ४१९, लेख-जैन लेखन कला । २. जैन चरित्र कल्पद्रुम, पृ० ५७ । ३. जैसलमेर भण्डार की ग्रन्थ सूची, पृ० ४, १५, २३, २४, ३१, ४१ एवं ४२ । ४. नाहटा, राजैसा, पृ० ४१९ । Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन शास्त्र भंडार : ४२७. में सुरक्षित रखने के प्रयास किये जाते थे। इन्हें दीमक, चूहों व ठंडक से बचाने के विविध उपाय किये जाते थे । साँप की केंचुली, धोंडाध्वज एवं औषधि की पोटली आदि रखी जाती थी तथा वर्षा की नम हवा से बचाने के लिये ज्ञान भण्डार यथा सम्भव कम ही खोले जाते थे। ग्रन्थों की प्रशस्तियों में लिखने में जल, तेल, शिथिल बंधन और अयोग्य व्यक्ति के हाथ से बचाने की चेतावनी सतत् दी जाती रही है। ज्ञान की रक्षा एवं सेवा के लिये ही जैन धर्म में ज्ञानपंचमी पर्व का प्रचलन हुआ और इसके माध्यम से ज्ञानोपकरणों का प्रचुरता से निर्माण करवाकर ज्ञान भण्डारों की अभिवृद्धि की गई। ज्ञानपंचमी पूर्वाराधन के बहाने ज्ञान की पूरी सार सँभाल होने लगी। राजस्थान के प्रसिद्ध शास्त्र भण्डार (अ) जोधपुर संभाग के जैन शास्त्र भण्डार : (१) जैसलमेर के जैन ग्रन्थ भण्डार भौगोलिक विशेषताओं, शुष्क प्रकृति एवं आवागमन के सुलभ साधनों के अभाव के कारण जैसलमेर प्रदेश सामान्यतः बाह्य आक्रमणकारियों से बचा रहा। शांति एवं सुरक्षा का क्षेत्र होने के कारण जैन श्रेष्ठियों ने यहाँ अपना निवास चुना, साथ हो जैन साधुओं की भी धर्मस्थली बन गया । जैसलमेर केवल प्रस्तर कला की दृष्टि से ही नहीं, अपितु यहाँ के सुविख्यात ज्ञान भण्डारों में संग्रहीत प्राचीन ताडपत्रीय और हस्तलिखित ग्रन्थों के संग्रह की दृष्टि से भी विश्वविख्यात है। राजस्थान के जैन भण्डारों में अकेले जैसलमेर के संग्रहालय ही ऐसे हैं जिनकी तुलना भारत के किसी भी प्राचीन बड़े ग्रन्थ संग्रहालय से की जा सकती है। सर्वप्रथम इस अमूल्य धरोहर का संकेत कर्नल टॉड ने अपने ग्रन्थ में दिया। इसके बाद १८७४ ई० में जर्मन विद्वान डॉ० बुहलर और हर्मन जेकोबी प्राचीन ग्रन्थों को तलाश में भारत आये और जैसलमेर भी गये । ये ही इन ग्रंथ भण्डारों को विद्वानों के समक्ष प्रकाश में लाये । संभवतः जलवायु की प्रतिकूलता के कारण वे यहां अधिक नहीं ठहर सके, फिर भी उनके प्रारम्भिक कार्य का बहुत महत्त्व है। जैसलमेर भण्डार को पूर्ण रूप से प्रकाश में लाने का श्रेय प्रो० श्रीधर रामकृष्ण भण्डारकर को है, जो बम्बई सरकार की ओर से १९०५ ई० में राजस्थान के प्राचीन हस्तलिखित पुस्तक संग्रहों का निरीक्षण करने आये थे। इन्होंने यहां के दस ग्रन्थ संग्रहालयों की ग्रन्थ सूची बनाई जिसमें प्राचीनतम ग्रन्थ ८६७ ई० का था। इसके पश्चात् बड़ौदा सरकार की ओर से चिमन लाल दलाल ने मुख्य भण्डार के प्रायः सभी ताड़पत्रीय ग्रन्थों की सूची बनाई जो 'गायकवाड़ ओरिएण्टल सिरीज' में प्रकाशित हो चुकी है ।२ लाल चन्द्र म० गांधी, मनि जिन विजय, मुनि पुण्य विजय, मुनि हंस विजय, १. देखें-जैसलमेर भण्डार की ग्रन्थ सूची । २. जैन ग्रन्थावली, १९०९ ई० में प्रकाशित । Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -४२८ : मध्यकालीन राजस्थान में जैनधर्म मुनि जिनकृपाचंद्र सूरि व अगरचन्द नाहटा जैसलमेर गये एवं शास्त्र भण्डारों का पुनर्परीक्षण किया । ( क ) बृहद ज्ञान भण्डार, जैसलमेर : पांडुलिपि सबसे प्राचीन , इस ग्रन्थ भण्डार को सर्वाधिक प्रसिद्धि प्राप्त है । आचार्य जिनभद्रसूरि ने इसे १४४० ई० में संभवनाथ मन्दिर के तलघर में स्थापित किया था । इसीलिये इसे 'जिनभद्र सूरि शास्त्र भण्डार' भी कहा जाता है। यह ज्ञान भण्डार कई आचार्यों एवं विद्वानों की साहित्यिक गतिविधियों का केन्द्र रहा, जिनमें कमलसंयम उपाध्याय, १४८७ ई० एवं समय सुन्दर ( १४वीं शताब्दी ) के नाम उल्लेखनीय हैं। जिनभद्र सूरि ने यहाँ बहुत से ग्रन्थों की प्रतिलिपियाँ तैयार करवाईं तथा बहुत से ग्रन्थों को सुरक्षा की दृष्टि से यहाँ लाकर संग्रहीत किया । यहाँ के ताड़पत्रीय ग्रन्थों की संख्या ८०४ है, जिसमें - द्रोणाचार्य द्वारा १०६० ई० में रचित 'ओघनियुक्ति वृत्ति' की है । इसकी नकल पाहिल के द्वारा की गई थी। इसके अतिरिक्त १२वीं १३वीं शताब्दियों में सृजित ग्रन्थों की संख्या भी अच्छी है । जैनाचार्यों द्वारा निबद्ध ग्रन्थों के अतिरिक्त यहाँ जैनेतर विद्वानों की कृतियाँ भी संग्रहीत हैं । ऐसी पांडुलिपियों में 'काव्य मीमांसा' ( राजशेखर), 'काव्यादर्श' ( सोमेश्वर भट्ट ), 'काव्य प्रकाश' ( मम्मट ) एवं 'नैषधचरित' (श्री हर्ष ) के नाम उल्लेखनीय हैं । इसी में विमल सूरि के 'पउमचरिय' ( ११४१ ई०), परमानंद सूरि को 'हितोपदेशामृत' ( १२५३ ई०), संघदास वाचक 'रचित 'वासुदेव हिण्डा', देवेन्द्र सूरि रचित 'शांतिनाथ चरित', विद्याधर रचित 'नैषध टीका', विशाखदत्त रचित 'मुद्राराक्षस' नाटक की १२५७ ई० में तैयार प्रतिलिपि, यशोदेव सूरि द्वारा १९६० ई० में रचित 'चन्द्रप्रभ स्वामी चरित', जयकीर्ति द्वारा ११३५ ई० में रचित 'छंदोनुशासन' आदि दुर्लभ पांडुलिपियाँ हैं । अन्य दुर्लभ कृतियाँ - कौटिल्य के 'अर्थशास्त्र' पर १४वीं शताब्दी की टीका, ११७३ ई० में धनपाल कृत 'तिलक मंजरी', 'भोजकृत 'शृंगार- मंजरी', जिनदत्त सूरि की प्राकृत रचना 'संवेगरंगशाला' तथा ११६४ ई० में बौद्ध दार्शनिक दिगनाग द्वारा रचित 'न्यायप्रवेश' नामक ताड़पत्रीय ग्रन्थ हैं, जो विश्व में अन्यत्र उपलब्ध नहीं हैं । ( ख ) खरतरगच्छ का पंचायती भण्डार : इसमें ताड़पत्रीय ग्रन्थों की १४ प्रतियाँ और कागज पर लिखे ग्रन्थों की १००० प्रतियाँ संग्रहीत हैं । कागज के ग्रन्थों में सर्वाधिक उल्लेखनीय कल्पसूत्र स्वाध्याय पुस्तिका की १५०५ ई० की सचित्र प्रति है । इसमें १३वीं व १४वीं शताब्दी के २ चित्रित काष्ठ फलक भी हैं । १७८१ ई० में अमृतधर्मं एवं उनके शिष्य क्षमाकल्याण गणी ने यहाँ कई ग्रन्थों की प्रतियाँ रखवाईं । यहाँ कुछ दुर्लभ ग्रन्थ भी हैं, जैसे १४१९ ई० में प्रतिलिपि - कृत 'नारदीय पुराण', ज्ञानसागर सूरि की टीका सहित 'उत्तराध्ययन सूत्र' की १४२९ ई० की प्रतिलिपि आदि । Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन शास्त्र भंडार : ४२९. (ग) पंचानौ शास्त्र भण्डार : यह एक छोटा शास्त्र भण्डार है। दलाल ने अपनी ग्रन्थ सूची में इसका उल्लेख नहीं किया है। इसमें ४२ ताड़पत्रीय हस्तलिखित ग्रन्थों का संग्रह है। (घ) तपागच्छ ज्ञान भण्डार : इसकी स्थापना का समय ज्ञात नहीं है। १५०२ ई० में इसे आनंदविजयगणी ने व्यवस्थित किया था। यह उपासरा तपागच्छ के साधुओं का केन्द्र था। यहां दोनों प्रकार के हस्तलिखित ग्रन्थ हैं किन्तु ताडपत्रीय ग्रन्थ केवल आठ हैं। इसमें संरक्षित महत्वपूर्ण पांडुलिपियाँ निम्न हैं-१. 'हरिविक्रम चरित'-जयतिलक रचित १३५८ ई० की प्रतिलिपि, २. 'मृगावती चरित'--मलधारी देवप्रभ रचित--कागज पर, ३. 'वासवदत्ता'--महाकवि सुबंधु रचित-१३५४ ई० में कागज पर तैयार प्रतिलिपि आदि हैं। (ङ) बड़ा उपासरा जैन ज्ञान भण्डार : __ यह यति वृद्धिचंद की गुरु परंपरा का संग्रह है। इसमें कागज पर लिखित १०१९ ग्रन्थों का सुदर संग्रह है। यहाँ ताड़पत्रीय ग्रन्थ नहीं हैं। संभवतः इसीलिये इसका उल्लेख दलाल की सूची में उपलब्ध नहीं होता। यहाँ की कतिपय अमूल्य पांडुलिपियाँ निम्न है--१. 'नारदीय पुराण'---यह पांडुलिपि १४१९ ई० में प्रतिलिपिकृत है एवं संस्कृत में व्यास जनार्दन के द्वारा तैयार की गई थी। २. 'वीसलरास'-राजस्थानी भाषा में है व अपूर्ण है। ३. 'उत्तराध्ययन सूत्र'-ज्ञान सागर सूरि की टीका सहित पांडुलिपि १४२९ ई०में प्रतिलिपिकृत । ( च ) लोंकागच्छीय ज्ञान भण्डार : दलाल ने इसका नाम 'ड्रगर यति का ज्ञान भण्डार' दिया था परन्तु मुनि पुण्य विजय ने अपनी सूची में इसे उक्त नाम से अभिहित किया है । यति बेल जी को गुरू परंपरा के उपासरे के इस भण्डार में तांडपत्रीय ग्रन्थ केवल ११ ही हैं। इसमें पांडुलिपियों के सग्रह का श्रेय डूंगर यति को ही जाता है। जैसलमेर में १२२७ ई० में विवेक समुद्र द्वारा रचित 'पुण्याश्रव कथा' की पांडुलिपि इस ग्रन्थ भण्डार की सर्वाधिक महत्वपूर्ण कृति है । इसमें ५०० कागज ग्रंथ भी संग्रहीत हैं जिनमें 'उदयविलास' एवं कतिपय रास महत्वपूर्ण हैं । (छ) थाहरूशाह ज्ञान भण्डार : इसको स्थापना १७वीं शताब्दी में थाहरूशाह भंसाली द्वारा की गई थी । इसे १. जैसलमेर भण्डार की सूची, सेंट्रल लाईब्रेरी, बड़ौदा से १९२३ में प्रकाशित । Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३० : मध्यकालीन राजस्थान में जैनधर्म दलाल एवं भण्डारकर, दोनों ने अपनी सूचियों में सम्मिलित किया है। इसमें १६१२ ई० से १८२७ ई० के मध्य की कई प्रतिलिपियां हैं । इस भण्डार में ४ ताडपत्रीय ग्रन्थ एवं लगभग १००० कागज ग्रन्थ हैं। इस प्रकार जैसलमेर के ग्रन्थ भण्डार, जिनमें ताड़पत्रीय ग्रन्थ प्रमुख हैं, एक अमूल्य धरोहर है । जैन मतावलंबियों के लिये इन ग्रन्थों का दर्शन ही तीर्थ यात्रा के समान पवित्र माना जाता है । २. हरिसागर ज्ञान भण्डार, लोहावत : इस भण्डार में ग्रन्थों की कुल संख्या २११० एवं ८७ गुटके हैं। इसमें संग्रहीत उल्लेखनीय ग्रन्थ इस प्रकार हैं-हिन्दी में 'राठौर वंशावली', जयनारायण कृत 'शृंगार शतक', जयशेखर कृत 'सम्यकत्व कौमुदी', लक्ष्मीचंद्र द्वारा संस्कृत में टीका संदेश रासक', हिन्दी में विजयदेव सूरि कृत 'नेमिनाथ रास', 'विवेकमंजरी'. रविधर्मकृत 'कवि रहस्य टीका', 'कान्य प्रकाश वृत्ति', 'नैषध काव्य वृत्ति' आदि । ३. भट्टारक ग्रंथ भण्डार, नागौर : प्राचीन लेखों में नागौर का नाम नागपुर एवं अहिछत्रपुर भी मिलता है । हस्तलिखित ग्रन्थों की दृष्टि से यह भण्डार अत्यधिक महत्वपूर्ण है।' यहाँ लगभग १४,००० पांडुलिपियों का संग्रह है जिसमें १००० से अधिक गुटके हैं। सभी कागज ग्रन्थ हैं। भण्डार में प्राकृत, अपभ्रंश, संस्कृत, राजस्थानी व हिन्दी, सभी भाषाओं में निबद्ध कृतियों का विविध विषयक संग्रह है । अधिकांश पांडुलिपियो १४वीं से १९वीं शताब्दी के मध्य की हैं। अजैन ग्रन्थ एवं भट्टारकों, आचार्यों के जीवन से सम्बन्धित ऐतिहासिक सामग्री भी यहाँ उपलन्ध है। प्राकृत भाषा के ग्रन्थों में आचार्य कुंदकुंद के 'समयसार' की १३०३ ई० की पांडुलिपि तथा 'मूलाचार' की १३८८ ई० की पांडुलिपि यहाँ प्राप्त है। अपभ्रंश के कई दुर्लभ ग्रन्थ भी यहां है, जैसे-वरांग चरिउ' ( तेजपाल ), 'वसुधीर चरिउ (श्रीभूषण), 'सम्यकत्व कौमुदी' ( हरिसिंह ), ‘णेमिणाह चरिउ' ( दामोदर ) आदि उल्लेखनीय है । संस्कृत एवं हिन्दी की भी दुर्लभ पांडुलिपियाँ यहाँ संग्रहीत हैं, यथा--भाउ कवि का 'नेमिनाथ रास' (१६वीं शताब्दी ), जगरूप कृत 'जगरूप विलास', कलह कृत 'कृपण पच्चीसी', मंडलाचार्य श्री भूषण कृत 'सरस्वती लक्ष्मी संवाद', सुखदेव कृत 'क्रियाकोष भाषा', मानसागर कृत 'विक्रमसेन चौपाई' आदि । अजैन कृतियों में हरिदास रचित "रघुवंश टीका', 'श्री निगम प्रवचन नाम सारोद्धार', 'विदग्ध मुख मंडन टीका', 'विदग्ध मुख मंडन वृत्ति', रूप सुन्दर कृत "पिंगल विवरण', 'वृत्त रत्नाकर टीका' आदि । १. अने०, ११, पृ० १२८ । Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन शास्त्र भंडार : ४३१ भट्टारकों को प्रशंसा में गोतात्मक कृतियाँ जैसे 'नेमिचन्द्र गोत', 'विशाल कीर्ति गीत', 'सहस्त्रकीर्ति गीत', 'श्रीभूषण गीत', 'धर्मकीर्ति गीत', 'गुणचन्द्र गीत' आदि भी यहाँ प्राप्त हैं। ४. जोधपुर के ग्रंथ भण्डार : यहाँ कई मन्दिर एवं उपासरों में ज्ञान भण्डार अवस्थित है, जिनमें सहस्त्रों की संख्या में हस्तलिखित पांडुलिपियाँ उपलब्ध है । राजस्थान राज्य सरकार द्वारा स्थापित 'राजस्थान प्राच्य विद्या प्रतिष्ठान' का मुख्य कार्यालय यहीं पर है। इस प्रतिष्ठान का विशाल हस्तलिखित ग्रन्थागार है जिसमें लगभग ३०,००० जैन ग्रन्थ संग्रहीत हैं । इसी राजस्थानी शोध संस्थान, चौपासनी में भी १५,००० से अधिक हस्तलिखित ग्रन्थ हैं और जोधपुर महाराजा के 'पुस्तक प्रकाश संग्रह' में भी जैन ग्रन्थ विद्यमान हैं । __ स्वतंत्र जैन ज्ञान भण्डारों के रूप में भी जोधपुर में कई अच्छे संग्रह है, जिनमें केशरियानाथ मन्दिर में स्थित ज्ञान भण्डार महत्वपूर्ण है । इसमें लगभग २००० पांडु. लिपियाँ हैं। इसमें सूरचंद्र उपाध्याय रचित 'स्थूभिद्र गुणमाला काव्य' जैसी दुर्लभ पांडुलिपियाँ भी हैं। कोटड़ी के ज्ञान भण्डार में लगभग १,००० प्रतियाँ और जिनयश सूरि ज्ञान भण्डार में भी अच्छा साहित्य संग्रहीत है। जयमल ज्ञान भण्डार, जैनरत्न पुस्तकालय, मंगलचंद्र ज्ञान भण्डार, कानमल नाहटा का स्थानकवासी सम्प्रदाय का संग्रह आदि भी महत्वपूर्ण हैं । ५. फलौधी के ग्रन्थ भण्डार : इस स्थान पर ग्रन्थों के ३ संग्रहालय हैं। फूलचंद छाबक के संग्रह में लगभग ४०० ग्रन्थ हैं । साध्वी पुष्प श्री ज्ञान भंडार में ३७५ ग्रन्थ हैं तथा धर्मशाला के महावीर ज्ञान मन्दिर में १५० ग्रन्थ संग्रहीत हैं। ६. राजेन्द्र सूरि शास्त्र भण्डार, आहोर : इस भंडार की ग्रन्थ सूची अभय जैन ग्रन्थालय, बीकानेर में संरक्षित है । इस भंडार मैं हस्तलिखित ग्रन्थों का एक बड़ा संग्रह विद्यमान है । सभी कागज ग्रन्थ हैं एवं २२ बंडलों में बँधे हुए हैं । यहाँ प्राकृत, संस्कृत एवं हिन्दी भाषा के ग्रन्थ हैं जिनमें से कुछ उल्लेखनीय हैं, जैसे, संस्कृत में मेघ विजयकृत 'जिनेन्द्र व्याकरण वृत्ति', १३९६ ई० में रचित 'नैषध काव्य वृत्ति', प्राकृत में सचित्र 'जंबूद्वीप प्रज्ञप्ति' एवं रामचंद कृत “प्रद्युम्न चरित' । ७. जैन शास्त्र भण्डार, कुचामन सिटी : इस शहर के ३ जैन मन्दिरों में छोटे शास्त्र भण्डार हैं। इनमें अजमेरी मन्दिर के शास्त्र भंडार का संग्रह महत्वपूर्ण हैं, जिसमें प्राकृत एवं संस्कृत ग्रन्थों की अधिकता है। सभी कागज ग्रन्थ हैं, जो सिद्धांत, पुराण, चरित्र, पूजा एवं स्त्रोत आदि से संबंधित हैं। Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३२ : मध्यकालीन राजस्थान में जैनधर्म ८. धनारी का श्रीपूज्य ज्ञान भण्डार : सिरोही जिले का यह ग्रन्थ भंडार जिनेन्द्र सूरि के शिष्य पद्मसूरि को निशा में संचालित है। यह भंडार बहुत समृद्ध एवं अछूता है। इसकी ग्रन्थ सूची उपलब्ध नहीं है किन्तु यहां दुर्लभ सामग्री प्राप्त हो सकती है। ९. तिलोकविजय ज्ञान भण्डार, मोहब्बत नगर : पूर्व में यह ज्ञान भंडार अपनी तंत्र-मंत्र की पुस्तकों के लिये प्रसिद्ध रहा है । 'जैन मंत्र कल्प महोदधि' यहाँ को संग्रहीत पांडुलिपियों के आधार पर लिखा गया था। वैसे इस भंडार को सामग्री सीलदर, जीरावल एवं घाणेराव पहुँच गई है, परन्तु अब भी काफी दुर्लभ सामग्री इसमें है। १०. जयविजय ज्ञान मन्दिर, सिरोही : इस भंडार की सामग्री का संग्रह जयविजय महाराज ने किया था। इसमें बहुत से प्राचीन ग्रन्थ हैं। ११. केवलविजय ज्ञान भण्डार, कालन्द्री : ___ इसकी स्थापना साधु केवल विजय ने की थी। इसमें लगभग २००० दुर्लभ ग्रन्थ संग्रहीत थे । इस भंडार की अधिकांश सामग्रो आदोनी, गोकाक एवं दावनगेरे स्थानांतरित हो गई है । अभी भी कुछ दुर्लभ ग्रंथ यहाँ हैं । १२. श्रीमती पंकुबाई ज्ञान मन्दिर, शिवगंज : यह एक जैन मन्दिर के समीप अवस्थित है। ग्रन्थों का रखरखाव अच्छा है एवं ग्रन्थों की प्राचीन पांडुलिपियाँ भी है। १३. सोहनलाल पटनी निजी संग्रह, सिरोही : इसमें १३०० हस्तलिखित ग्रन्थ हैं जो १४वीं से १९वीं शताब्दी के मध्य के हैं। इनमें चित्रित ग्रन्थों की संख्या अल्प है। वस्त्र एवं कागज पर आलेखित यंत्र भी. यहाँ हैं । १. असावै, पृ० २३२-३४ । २. वही। ३. वही। ४. वही। ५. वही। ६. वही। Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन शास्त्र भंडार : ४३३ बीकानेर संभाग : १. बीकानेर के जैन शास्त्र भंडार : यहाँ के शास्त्र भंडार बहुत समृद्ध हैं । यहाँ विविध भाषा के अनेक दुर्लभ ग्रन्थ प्राप्य हैं। बीकानेर में लगभग १ लाख जैन ग्रन्थ संग्रहीत हैं। इनमें से लगभग ६० हजार अभय जैन ग्रन्थालय में, १५,००० अनूप संस्कृत लाइब्रेरी में व शेष अन्य भंडारों में हैं । इन भंडारों में स्वर्ण एवं रजत स्याही से लिखित ग्रन्थ भी उपलब्ध हैं । इसके अतिरिक्त असंख्य कलात्मक चीजें, प्राचीन चित्र तथा सचित्र विज्ञप्ति पत्र भी यहाँ सुरक्षित रखे हुए हैं । इस शहर में निम्न ग्रन्थ भंडार हैं(क) वृहद् ज्ञान भंडार : यह रांगड़ी का चौक के बड़े उपासरे में स्थित है। यह भंडार १९०१ ई० में यतिहिमतू जी के विशेष प्रयासों से अस्तित्व में आया। इसमें ९ यतियों का संग्रह समेकित रूप में है और कुल १०,००० हस्तलिखित प्रतियाँ सुरक्षित हैं। इस खरतरगच्छीय बृहद् ज्ञान भंडार में निम्न ९ यतियों के संग्रह हैं(अ) महिमा भक्ति भंडार : यह क्षमाकल्याण के शिष्य खरतरगच्छीय महिमा भक्ति का संग्रह है जिसमें लगभग ३००० ग्रन्थ ८९ बंडलों में सुरक्षित हैं । अधिकांश कागज ग्रन्थ हैं। प्राचीनतम ताड़पत्रीय पांडुलिपि १२५२ ई० को 'श्रावक प्रतिक्रमण' है। (आ) दानसागर भंडार : यहाँ पर २७९२ ग्रंथ ७४ बंडलों में सुरक्षित है। यहाँ कई दुर्लभ ग्रंथ भी है। यहाँ की विशिष्ट कृतियाँ 'तपागच्छ पट्टावली', 'वीसलदेव चौहान रास', हमीर रचित "पिंगल शास्त्र' आदि है। (इ) अभय सिंह भंडार : यह सम्पूर्ण संग्रह बीकानेर के श्रावक अभयसिंह द्वारा भेंट किया हुआ है। इसमें २३ बंडलों में ४२७ ग्रन्थ हैं। सभी कागज पर हैं। मुख्य १४०३ ई० को जिनदत्तसरि की संस्कृत रचना 'विवेक विलास' को प्रतिलिपि, १५६० ई० का कुशल लाभ रचित 'ढोला मारू', १४७४ ई० में ज्ञानसागर रचित 'श्रीपालरास', १५४१ ई० में लिखित एवं १६२१ ई० में प्रतिलिपिकृत ज्ञानचन्द्र रचित 'सिंहासन बत्तीसी' आदि हैं। (ई) वर्धमान भण्डार : यहाँ पर १००० ग्रंथ ४७ बंडलों में सुरक्षित हैं। हिन्दी एवं संस्कृत ग्रन्थों की दृष्टि से यह भंडार मूल्यवान है । १. बीजै लेस, पृ० ६०-७३ । २८ Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३४ : मध्यकालीन राजस्थान में जैनधर्म ( उ ) जिनहर्षसूरि भण्डार : इस भंडार में २९५ ग्रन्थ २७ बंडलों में सुरक्षित हैं । (ऊ) भुवन भक्ति भण्डार : इस भंडार में ४७६ ग्रन्थ बंडलों में सुरक्षित हैं । साधारण संग्रह होने पर भी यहाँ कतिपय दुर्लभ ग्रन्थ हैं जैसे लक्ष्मीबल्लभगणी कृत 'कुमारसम्भव वृत्ति' एवं राजस्थानी भाषा की 'राजाभोज भानुमति कथा' आदि हैं । (ए) रामचन्द्र भण्डार : इनमें ३०० ग्रन्थ ९ बंडलों में सुरक्षित हैं । अधिकांश ग्रन्थ प्रतिलिपिकृत हैं । (ऐ) मेहर चन्द भण्डार : इसमें २९५ ग्रन्थ ९ बंडलों में सुरक्षित हैं । (ओ) अबीर जी भण्डार : इसमें लगभग ५०० ग्रन्थ हैं । (ख) श्रीपूज्य भण्डार : यह भंडार वृहद् खरतरगच्छ के बड़े उपासरे में स्थित है । इसमें २ संग्रह हैं । श्री पूज्य के संग्रह में लगभग २५०० ग्रन्थ हैं जो ८५ बंडलों में हैं । २००० मुद्रित पुस्तकें हैं । चतुर्भुज यति के संग्रह में ८०० ग्रन्थ १४ बंडलों में सुरक्षित हैं । इसके अतिरिक्त १०० गुटके भी हैं, जिनमें विभिन्न भाषाओं की रचनाओं का संकलन है । (ग) श्री जैन लक्ष्मी मोहन भंडार : गड़ी के चौक में अवस्थित यह भंडार १८९४ ई० में उपाध्याय जयचंद के गुरु मोहनलाल के द्वारा स्थापित किया गया था । इसमें २५२९ ग्रन्थों का संग्रह १२१ बंडलों में सुरक्षित है । इसके अतिरिक्त २०० गुटके भी हैं । आगम साहित्य को दृष्टि से यह भंडार महत्वपूर्ण है । (घ) क्षमाकल्याण ज्ञान भण्डार : यह भण्डार सुगनाजी के उपासरे में स्थित है । इसमें ७१५ ग्रन्थ हैं, जिसमें " खरतरगच्छीय गुर्वावली" सर्वाधिक महत्वपूर्ण एवं दुर्लभ ग्रन्थ है । हर्षसागरसूरि ने इस भण्डार की ग्रन्थ सूची तैयार की । (ङ) उपाश्रय भण्डार : यह रांगड़ी के निकट बोहरों का सेरी में अवस्थित है । इसमें लगभग ८०५ ग्रन्थ २३ बंडलों में सुरक्षित हैं । यहाँ के प्राकृत एवं संस्कृत के हस्तलिखित ग्रन्थ महत्वपूर्ण हैं । Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन शास्त्र भंडार : ४३५ (च) छत्तीबाई उपाश्रय ज्ञान भण्डार : यह भण्डार नाहटों की गुवाड़ में स्थित छत्तोबाई के उपाश्रय में है। इसमें ३०० ग्रन्थ संग्रहीत हैं। (छ) पन्नीबाई का उपाश्रय भण्डार : यह उपासरा छत्तीबाई के उपासरे के पीछे है । इसमें लगभग ३०० ग्रन्थ संग्रहीत हैं । (ज) महोपाध्याय रामलाल का संग्रह : यह रामलाल का व्यक्तिगत संग्रह है, जिसमें लगभग ५०७ ग्रन्थ है । सिद्धान्त, पुराण एवं चरित्र ग्रन्थ अधिक है। (झ) खरतराचार्य शाखा का ग्रंथ भण्डार : इसमें लगभग १८९५ ग्रन्थ हैं जिसकी सूची भी यहाँ उपलब्ध है। (त्र) हेमचन्द्रसूरि पुस्तकालय : यह भण्डार बांठिया की गुवाड़ में स्थित पायचन्द गच्छ के उपासरे में है। इसमें लगभग १२०० ग्रन्थ हैं जिनमें आगम, सिद्धान्त, पुराण और कथा साहित्य की अधिकता है। (ट) कुशलचन्द गणी पुस्तकालय : ___ यह रामपुरिया को गुवाड़ में स्थित है। इसमें लगभग ४५० ग्रंथ हैं। कुछ मुद्रित ग्रन्थ भी हैं। (ठ) यति मोहन लाल का संग्रह : यह सुराणा की गुवाड़ में स्थित लोकागच्छ के उपासरे में है । (ड) अभय जैन ग्रंथालय : यह भण्डार शंकरदास नाहटा ने अपने द्वितीय पुत्र अभयराज नाहटा की स्मृति में स्थापित करवाया था। इस ग्रन्थालय में केवल जैन ग्रन्थ ही नहीं अपितु वेद, पुराण, उपनिषद, काव्य, नाटक, छंद, ज्योतिष, वैद्यक, मंत्रतंत्र आदि सभी विषय के ग्रन्थों का अच्छा संग्रह है। यहाँ विभिन्न प्रान्तों के विविध भाषाओं के ग्रन्थ भी हैं। इसमें लगभग ६०,००० ग्रन्थ हैं जिनमें बहुत बड़ी संख्या दुर्लभ ग्रन्थों की है ।' अपूर्ण ग्रन्थ भी कुछेक हैं । लगभग १००० को संख्या तो पत्र एवं गुटकों की है। एक-एक गुटके में कई-कई रचनाएँ हैं । यहाँ कुछ ताडपत्रीय ग्रन्थ भी हैं। इसके अतिरिक्त इस भण्डार में ऐतिहासिक सामग्री, जैनाचार्यों एवं यतियों के पत्र, राजाओं के पत्र, शाही फरमान, विशेष अभिलेख, पंचांग एवं १६४४ ई० से वर्तमान तक के ओसवालों की वंशावलो भी है । इसमें प्राचीन चित्र, चित्रित विज्ञप्ति पत्र, सचित्र सूचनाएँ, चित्रित वस्त्रपट्ट, १. नाहटा, राजैसा में प्रकाशित लेख । Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३६ : मध्यकालीन राजस्थान में जैनधर्म प्राचीन सिक्के, दवातें, स्वर्ण एवं रजत स्याही के द्वारा अंकित पांडुलिपियों का भी कलापूर्ण एवं भव्य संग्रह है। इस भण्डार को संवद्धित करने का श्रेय अगरचन्द नाहटा एवं भंवरलाल नाहटा को है। (ढ) अनूप संस्कृत लाइब्रेरी : इसमें हजारों जैन हस्तलिखित प्रतियाँ हैं व एक स्वतंत्र जैन विभाग है जिसकी सूची प्रकाशित नहीं है । महाराजा अनूप सिंह के विद्या प्रेम से प्रभावित होकर बड़गच्छ, पायचन्द गच्छ, खरतरगच्छ आदि के आचार्यों एवं यतियों ने हजारों प्रतियाँ महाराजा को दी थीं। यहां कई दुर्लभ ग्रन्थ भी हैं। इसमें लगभग १५,००० पांडुलिपियाँ संग्रहीत हैं। (ण) यति लच्छीराम का संग्रह : यति लच्छोराम के अधिकार में भी कुछ महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ हैं। (त) कोचरों के उपाश्रय में स्थित भण्डार : यह कोचरों की गुवाड़ में स्थित है । इसमें ३० बंडलों में लगभग ८०० ग्रन्थ हैं। (थ) यति जयकरण का संग्रह : इसमें लगभग २५० ग्रन्थ हैं । उपरोक्त सभी भण्डार उपासरों में स्थित है। इसके अतिरिक्त श्रावकों के व्यक्तिगत अधिकार में भी कुछ शास्त्र भण्डार हैं । (द) सेठिया लाइब्रेरी: यह अगरचन्द भैरोदान सेठिया जैन पारमार्थिक संस्था के अन्तर्गत है । इसमें मुद्रित ग्रन्थों के अतिरिक्त लगभग १५०० हस्तलिखित पांडुलिपियाँ हैं । (ध) गोविन्द पुस्तकालय : यह नाहटों को गुवाड़ में स्थित है। इसकी स्थापना गोविन्दराम भीखमचन्द भंसाली ने की थी। इसमें १७०० हस्तलिखित प्रतियाँ एवं १२०० मुद्रित ग्रन्थ है। (न) मोतीचन्द खजांची का संग्रह : __इसमें कुल ६,००० हस्तलिखित ग्रन्थ हैं जिनमें कुछ सचित्र भी हैं । (प) मनमल कोठारी का संग्रह : यहाँ पर ३०० हस्तलिखित एवं २,००० मुद्रित ग्रन्थ संग्रहीत हैं। (फ) जेठीबाई का ज्ञान भण्डार : यह बोधरों की गुवाड़ में स्थित है। इसमें लगभग ५०० हस्तलिखित प्रतियाँ हैं । उक्त भण्डारों के अतिरिक्त मंगल देव मालू के यहाँ भी शताधिक प्रतियाँ हैं । इसी तरह शिवचन्द्र भावक, रामपुरिया परिवार, कुछ यतियों आदि के पास भी हस्तलिखित ग्रन्थ हैं। पायचन्द गच्छ उसरे में भी अच्छा संग्रह है। मुनि जिन विजय Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन शास्त्र भंडार : ४३७ की प्रेरणा से बीकानेर के कुछ महत्वपूर्ण श्वेताम्बर ज्ञान भण्डार राजस्थान सरकार के संरक्षण में दे दिये गये हैं। श्रीपूज्य के उपासरे की हस्तलिखित प्रतियां, मोतीचन्द खजांची का संग्रह, उपाध्याय जयचन्द्र तथा अन्य यतियों के संग्रह तथा पायचन्द गच्छ के उपाश्रय का संग्रह-"राज्य प्राच्य विद्या प्रतिष्ठान', बीकानेर शाखा को संरक्षण हेतु प्रदान कर दिया गया है। इस प्रकार बीकानेर को पांडुलिपियों का शहर कहा जा सकता है। जैन शास्त्र भण्डारों की बहुत बड़ी संख्या बीकानेर के पड़ोसी कस्बों में भी विद्यमान है। २. गंगाशहर का शास्त्र भण्डार: गंगाशहर बीकानेर से २ मील दूर है। इस भण्डार में लगभग ३०० हस्तलिखित ग्रन्थ हैं जो जैन श्वेताम्बर तेरापंथी सभा के नियंत्रण में हैं । ३. चुरू के दो पुस्तकालय : चुरू में सुराणा लाइब्रेरी और खरतरगच्छीय यति वरजी के उपासरे में अवस्थित ज्ञान भण्डार, दोनों महत्वपूर्ण हैं । सुराणा लाइब्रेरी में लगभग २,५०० ग्रन्थ हैं। ताड़पत्रीय एवं सचित्र ग्रन्थों की भी कतिपय प्रतियाँ उपलब्ध हैं। सुभकरण सुराणा ने इस भंडार की सूची बनाई थी, जो अप्रकाशित है । यतिजी के संग्रह में ३७८५ ग्रन्थों का संग्रह है। सभी कागज ग्रन्थ है । ४. राजगढ़ का ओसवाल पुस्तकालय : इसमें ६ बंडलों में लगभग २०० पांडुलिपियाँ संग्रहीत हैं। ५. जैन श्वेताम्बर तेरापंथी सभा का ग्रन्थ भण्डार, सरदार शहर : इस भण्डार में १४७१ हस्तलिखित ग्रन्थ हैं। यहाँ १४७७ ई० में प्रतिलिपिकृत "कल्पसूत्र" की स्वणिम स्याही में अंकित एक प्रति है। ६.भीनासर का ज्ञान भण्डार: बीकानेर से ३ मील दूर है । बहादुर मल बांठिया के संग्रह में ७००-८०० प्रतियाँ हैं । यति सुमेरमल का संग्रह भी प्रसिद्ध है। चम्पालाल वैद के पास भी व्यक्तिगत संग्रह है। ७. कालू ग्राम के संग्रह : यहाँ यति किशनलाल के संग्रह में कुछ हस्तलिखित ग्रन्थ हैं । ८. नौहर : यहाँ कई श्रावकों के पास व्यक्तिगत संग्रह हैं । ९. सूरतगढ़ : यहाँ के जैन मन्दिर के शास्त्र भण्डार में हस्तलिखित प्रतियों का अच्छा संग्रह है। Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३८ : मध्यकालीन राजस्थान में जैनधर्म १०. हनुमान गढ़ : यहाँ ताराचन्द तातेड़ का संग्रह महत्त्वपूर्ण है। देवी जी के मन्दिर में बड़गच्छ के यति जी का भी संग्रह है । ११. राजदेलसर : यहाँ के उपकेशगच्छीय यति दौलत सुन्दर के संग्रह में कुछ हस्तलिखित ग्रन्थ प्राप्त होते हैं । १२. रतनगढ़ : यहाँ वैदों की लाइब्रेरी एवं सोहनलाल वैद के पास कुछ ग्रंथ हैं । १३. बीदासर : यहाँ पर यति गणेशचन्द के पास हस्तलिखित ग्रंथों के १५-२० बंडल हैं । १४. छापर : यहाँ मोहन लाल दुधेरिया के पास महत्त्वपूर्ण ग्रन्थों की प्रतियाँ व चित्रों का अच्छा संग्रह है । १५. सुजानगढ़ : यहाँ लोंकाच्छ के अनुयायी वैद्य रामलाल यति, खरतरगच्छ के यति दुधेचन्द एवं दानचन्द चोपड़ा की लाइब्रेरी में हस्तलिखित ग्रन्थ हैं । इसके अतिरिक्त पन्नाचन्द्र सिंधी जैन मन्दिर में भी कुछ हस्तलिखित प्रतियाँ हैं । १६. रिणी : यहाँ पन्नालाल के व्यक्तिगत संग्रह में कुछ ग्रन्थ हैं । १७. अन्य संग्रह : सरदार शहर में श्रीचंद गणेशदास गधेया की हवेली में भी अच्छा संग्रह है । उपकेश गच्छ ( कंवला गच्छ ) के श्रीपूज्य और यति प्रेमसुन्दर के संग्रह भी महत्त्वपूर्ण हैं । यहीं पर दुलीचंद सेठिया के पास कई सौ हस्तलिखित ग्रन्थ हैं । इसके अलावा आसपास गाँवों में श्रावकों के पास छोटे-छोटे व्यक्तिगत संग्रह भी हैं । उपरोक्त भण्डारों के दुर्लभ ग्रंथ : बीकानेर क्षेत्र के उक्त भण्डारों में कई दुर्लभ ग्रन्थ प्राप्त हैं । पाशुपताचार्य की 'प्रबोध सिद्धि' और मूलक की 'वागेश्वर ध्वज प्रतिज्ञा गांगेय' ताड़पत्र पर अंकित हैं । इनमें सिद्धि चंद्र का 'भानुचरित्र', जिनपालोपाध्याय की 'खरतरगच्छ गुर्वावली', 'वादिदेव सूरि चरित्र' एवं विभिन्न लेखकों द्वारा रचित खरतरगच्छ, लोकागच्छ, बड़गच्छ आदि की पट्टावलियाँ उपलब्ध हैं । इन भण्डारों के कई ग्रन्थ ऐतिहासिक महत्त्व के हैं जैसे'जैतसीरासो', 'रसविलास', 'बच्छावत वंशावली', 'जिनभद्र सूरि रास', 'जिनपति सूरि रास', 'जिनकुशल सूरि रास', 'जिनपद्म सूरि रास', 'जिनराज सूरि रास', 'जिन रतन - Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन शास्त्र भंडार : ४३९ सूरि रास', 'जिन सागर सूरि रास' और 'विजय सिंह सूरि रास' । कुछ संस्कृत के दुर्लभ जैन काव्य भी हैं, जैसे नन्दीरत्न के शिष्यों द्वारा रचित 'सारस्वतोल्लास काव्य', 'विमल कीर्ति रचित 'चंद्रदत्त काव्य', मुनीश सूरि रचित 'हंसदूत', श्रीवल्लभ रचित 'विद्वत् प्रबोध', इन्द्रनन्दी सूरि के शिष्य द्वारा रचित 'वैराग्य शतक', मुनिसोम रचित 'रणसिंह चरित, सुमति विजय रचित 'प्रिय विलास', सुरचंदगणी रचित 'पंच तीर्थी स्तव', देवानन्द सूरि रचित 'अजितप्रभु चरित्र' प्रतिष्ठा सोम रचित 'धर्मदूत', राजबल्लभ रचित 'सिंहासन द्वात्रिंशिका' और श्याम सुन्दर रचित 'जिनसिंह पदोत्सव काव्य' । इन भण्डारों में जैन एवं अजैन ग्रन्थों पर संस्कृत टीकाएँ भी हैं जो अन्यत्र उपलब्ध नहीं होतीं, जैसे—- हर्षंनन्दन रचित 'उत्तराध्ययन वृत्ति', अजित देव सूरि रचित ' कल्पसूत्र वृत्ति', जयदलाल रचित 'नन्दी सूत्र वृत्ति', श्याम सुन्दर रचित 'वाग्भटालंकार वृत्ति' और 'नेभिदत्त वृत्ति' आदि । 1 (स) अजमेर संभाग : १. जयपुर : सवाई जयसिंह ने १७२७ ई० में जयपुर नगर बसाकर आमेर के स्थान पर इसे अपनी राजधानी बनाया। उत्तरी भारत में दिल्ली के अतिरिक्त जयपुर ही दिगम्बर समाज का प्रमुख केन्द्र रहा है । २०० वर्ष पूर्व रायमल्ल ने इसे जिनपुरी लिखा था । " वर्तमान में जयपुर में १७० मंदिर व चैत्यालय हैं । सभी में स्वाध्याय के निमित्त हस्त लिखित ग्रन्थों का संग्रह मिलता है, लेकिन कुछेक में पुराने ग्रन्थों का अपूर्व संग्रह है । (क) आमेर शास्त्र भंडार : पूर्व में यह भण्डार आमेर के नेमिनाथ मन्दिर में था । लेकिन कुछ वर्षों से इसे महावीर भवन, जयपुर में स्थानांतरित कर दिया गया है । १८वीं शताब्दी में यह भंडार 'भट्टारक देवेन्द्र कीर्ति शास्त्र भण्डार' के नाम से जाना जाता था । इसमें २७०५ हस्तलिखित ग्रन्थ एवं १५० गुटके हैं । प्राचीनतम ग्रन्थ पुष्पदन्त द्वारा लिखित 'उत्तर पुराण' है जो १३३४ ई० की अपभ्रंश भाषा की प्रतिलिपिकृत कृति है । यहाँ १५वीं, १६वीं एवं १७वीं शताब्दियों में प्रतिलिपि की गई पांडुलिपियों की संख्या अधिक है । अपभ्रंश ग्रन्थों की दृष्टि से यह भण्डार बहुत सम्पन्न एवं मूल्यवान है | यहाँ अपभ्रंश के लगभग ५० ग्रन्थ हैं | अपभ्रंश के प्रथम लेखक स्वयंभू की रचनाओं के प्रारम्भ से १. कासलीवाल - राजैसा, पृ० ३७६ लेख 'राजस्थान के जैन ग्रन्थ संग्रहालय' । २. डॉ० कासलीवाल के शोध प्रबन्ध के आधार पर वर्णित हैं । ३. आमेर शास्त्र भंडार, जयपुर की ग्रन्थ सूची | ४. राजेशाग्रसू २, भूमिका | " Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४० : मध्यकालीन राजस्थान में जैनधर्म लेकर अन्तिम मान्य लेखक मानिकराज रचित 'अमरसेन चरित' इस भण्डार में प्राप्य हैं । ११वीं शताब्दी में नयनंदि रचित 'सकल विधि निधान' और १०वीं शताब्दी में पद्मकीर्ति रचित 'पार्श्वपुराण' यहाँ के दुर्लभ ग्रन्थ हैं । इसी प्रकार संस्कृत में प्रकाश वर्ष द्वारा लिखित 'किरातार्जुनीय' की टीका भी यहाँ है जो अन्य भंडारों में नही है । सकलकीर्ति, ब्रह्मजिनदास, छोहल, बनारसीदास आदि की रचनाएँ भी इस भंडार में हैं । यहाँ जैनेतर लेखकों के ग्रन्थ भी संग्रहीत हैं । यहाँ की ग्रन्थ सूची प्रकाशित है ।" (ख) बड़ामन्दिर का शास्त्र भण्डार : यह भंडार र घी वालों के रास्ते में दिगम्बर जैन तेरापंथी मन्दिर में है, जो जयपुर के सबसे बड़े शास्त्र भंडारों में से एक है । यहाँ २६३० कागज ग्रन्थ और ३२४ गुटके संग्रहीत हैं । टोडरमल, जयचंद छाबड़ा, सदासुख कासलीवाल आदि विद्वानों ने इस भंडार की संवृद्धि हेतु विशेष प्रयास किये थे । आचार्य कुंदकुन्द की प्राकृत कृति 'पंचास्तिकाय' यहाँ का प्राचीनतम ग्रन्थ है जो १२७२ ई० में योगिनिपुर ( दिल्ली) में प्रतिलिपि किया हुआ है । अन्य उल्लेखनीय ग्रन्थों में १५४० ई० की 'आदिपुराण' की ५५८ चित्रों सहित प्रति है । 'जम्बूस्वामी चरित्र' एवं 'पउम चरिय' पर संस्कृत की २ टीकाएँ भी उपलब्ध हैं । १०वीं शताब्दी की धवल रचित 'हरिवंश पुराण' भी यहाँ प्राप्य है । १३१४ ई० में देल्ह रचित 'चौबीसी' भी यहाँ खोजी गई है । गोरखनाथ, कबीर, बिहारी, केशव, वृंद जैसे जैनेतर कवियों की रचनाएँ, अपभ्रंश कवि अब्दुल रहमान का 'संदेश रासक' एवं महाकवि भारवि के 'किरातार्जुनीय' पर प्रकाश वर्ष की संस्कृत टीका की पांडुलिपियों का इस भण्डार में उल्लेखनीय संग्रह है । (ग) पांड्या लूणकरण का ग्रंथ भण्डार : यह ग्रन्थ भंडार पंडित लूणकरण द्वारा १८वीं शताब्दी के अन्त में स्थापित किया गया था । ये ज्योतिष, आयुर्वेद, मंत्र शास्त्र के विद्वान्, स्वाध्याय प्रेमी एवं भट्टारक जगत्कीर्ति के प्रशिष्य थे। इनकी १७३१ ई० में रचित 'यशोधर चरित' की पांडुलिपि भी यहाँ उपलब्ध है । इस भंडार में ८०७ हस्तलिखित ग्रन्थ एवं २२५ गुटके हैं । यहाँ की प्राचीनतम पांडुलिपि १३५० ई० में लिपिबद्ध 'परमात्मप्रकाश' है । भट्टारक सकल कीर्ति के 'यशोधर चरित' की सचित्र प्रति भी यहाँ उपलब्ध है | (घ) बाबा दुलीचन्द का शास्त्र भण्डार : यह भण्डार भी दिगंबर तेरापंथी बड़ा मन्दिर में अवस्थित है । इसे १८५४ ई० में बाबा दुलीचन्द ने स्थापित किया था । ये पूना के निवासी थे । जयपुर को सुरक्षा को १. राजेशाग्रसू, भाग - १ | २. राजेशाग्रसू, २ भूमिका । ३. वही । Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन शास्त्र भंडार : ४४१ दृष्टि से उचित समझ कर यहाँ भण्डार स्थापित किया गया। ये हिन्दी एवं संस्कृत के 'विद्वान् थे और स्वयं ने १५ से अधिक ग्रन्थों का हिन्दी अनुवाद किया था जो यहीं पर संग्रहीत भी हैं। इन्होंने अपनी यात्रा पर 'जैन यात्रा दर्पण' नामक वर्णनात्मक ग्रन्थ भी लिखा। इस भण्डार में लगभग ८५० ग्रन्थ हैं। अधिकांश हिन्दी ग्रन्थ हैं या संस्कृत टीकाएं हैं। सबसे प्राचीन प्रति १४७७ ई० को क्रियाकलापटीका' है, जो मांडवगढ़ में सुल्तान गयासुद्दीन के राज्य में लिखी गई थी। इस भण्डार में 'आप्तमीमांसा', 'तत्त्वार्थ सूत्र' की स्वर्णमयी प्रति, 'गोम्मटसार' एवं 'त्रिलोकसार' की सचित्र प्रति एवं पन्नालाल चौधरी द्वारा लिखित डालूराम कृत 'द्वादशांग पूजा' को प्रति भी दर्शनीय हैं । इस भण्डार जैसी सुन्दर हस्तलिखित प्रतियां अन्यत्र नहीं हैं। (ङ) बधीचंद जैन मंदिर का शास्त्र भण्डार : यह शास्त्र भण्डार' बधीचन्द के प्रसिद्ध मन्दिर में अवस्थित है जो जौहरी बाजार में घी वालों के रास्ते में स्थित है। इस भण्डार की स्थापना १७३८ ई० में जयपुर राज्य के दीवान बधीचन्द के द्वारा मन्दिर पूर्ण होने के उपरान्त की गई थी। इसमें गुटकों सहित १२७८ ग्रन्थ है। सभी कागज ग्रन्थ विभिन्न भाषाओं में रचित हैं। इस भण्डार का प्राचीनतम ग्रन्थ अपभ्रंश भाषा के वर्धमान काव्य पर संस्कृत की एक टीका है जो १४२४ ई० में रचित एक दुर्लभ कृति है। यहाँ अपभ्रश के कतिपय महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ भी हैं । महाकवि स्वयंभू का 'हरिवंश पुराण' यहाँ उपलब्ध है, जिसको सम्पूर्ण भारत में ३-४ प्रतियां ही प्राप्त हुई हैं। १३५४ ई० में सुधारू द्वारा राजस्थानी में रचित 'प्रद्युम्न चरित्र' भी यहाँ उपलब्ध है। गुटकों में विद्वानों के लघु कार्य एवं कवियों की कृतियाँ संकलित हैं, जैसे सकलकीति, छोहल, हंसराज, ठक्कुरसी, जिनदास, बनारसीदास आदि । १८वीं शताब्दी के विद्वान् अजयराज पाटनी की २० कृतियाँ यहाँ खोजी गई है। पं० टोडरमल एवं गुमानीराम ने इस भण्डार के संवर्धन में असीम योगदान दियो । टोडरमल की रचनाओं को मूल पांडुलिपियाँ भी यहाँ संग्रहीत हैं । (च) ठोलिया जैन मन्दिर का ग्रन्थ भण्डार : ठोलिया परिवार द्वारा स्थापित यह शास्त्र भण्डार एवं मन्दिर घी वालों के रास्ते में है । इसमें ६५८ हस्तलिखित ग्रन्थ एवं १२५ गुटके हैं। अधिकांश पांडुलिपियाँ सांगानेर एवं आमेर से लाई हुई हैं। इस भण्डार में उपलब्ध प्राचीनतम ग्रन्थ ब्रह्मदेव लिखित 'द्रव्य संग्रह' पर एक टीका है, जो १३५९ ई० में फिरोजशाह के शासनकाल में योगिनीपुर में प्रतिलिपि की गई थी। इसमें १६वों, १७वीं एवं १८वीं शताब्दी के ग्रन्थों की संख्या अधिक है। यहाँ शुभचन्द्र, हेमराज, रघुनाथ, ब्रह्म जिनदास, ब्रह्मज्ञान सागर एवं १. राजेशाप्रसू, भाग-३, भूमिका । Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४२ : मध्यकालीन राजस्थान में जैनधर्म पद्मनाभ की रचनाएँ विशेषतः उल्लेखनीय हैं। 'पूजा संग्रह' नामक चित्रित ग्रन्थ में पूजा के मंडपों के रंगीन चित्र दिये हुये हैं । (छ) पाटौदी जैन मन्दिर का शास्त्र भण्डार : यह शास्त्र भण्डार जयपुर के चौकड़ी मोदीखाना में स्थित पाटोदी मन्दिर में अव-स्थित है । इस मन्दिर का प्रारम्भिक नाम आदिनाथ चैत्यालय भी था । जयपुर नगर के निर्माण के समय ही जोधराज पाटौदी ने इस मन्दिर का निर्माण करवाकर यहाँ शास्त्र भण्डार स्थापित किया । यहाँ शास्त्रों की कुल संख्या २२५७ तथा गुटकों की संख्या ३०८ है । एक-एक गुटके में कई कृतियों का संग्रह है । 'भक्तामर स्तोत्र' एवं 'तत्त्वार्थ-सूत्र' की एक-एक ताड़पत्रीय प्रति को छोड़कर शेष सब कागज ग्रन्थ हैं । यहाँ वस्त्रांकित जम्बू द्वीप, अढ़ाई द्वीप, यंत्र एवं मंत्र आदि का उल्लेखनीय संग्रह है । इस भण्डार में महाकवि पुष्पदन्त के 'जसहर चरिउ' की प्रति सबसे प्राचीन है जो १३५० ई० में चन्द्रपुर दुर्ग में प्रतिलिपि की गई थी । यहाँ १५वीं से १८वीं शताब्दी के मध्य रचित ग्रन्थों की संख्या सर्वाधिक है । इस भण्डार में लगभग ४५० ग्रन्थ वैदिक साहित्य से सम्बन्धित हैं । इस भण्डार के गुटके आयुर्वेद की जानकारी एवं जैन कवियों की नयी रचनाओं के बारे में अज्ञात जानकारी प्रदान करते हैं । कवि रल्ह की १२९७ ई० में रचित 'जिनदत्त चौपाई' गुटके में ही खोजी गई है । यहाँ के संस्कृत के अज्ञात ग्रन्थों में 'व्रतकथा कोष' ( सकलकीर्ति एवं देवेन्द्र कीर्ति ), आशाधर कृत 'भूपाल चतुविशति स्तोत्र' टीका एवं 'रत्नत्रयविधि', भट्टारक सकल कीर्ति का 'परमात्मराज स्तोत्र', भट्टारक प्रभाचन्द्र का 'मुनिसुव्रत छन्द, विनयचन्द को 'भूपाल चतुर्विंशति' स्तोत्र की टीका उल्लेखनीय हैं । अपभ्रंश भाषा में लक्ष्मणदेव कृत 'णेमिणाह चरिउ', नरसेन की 'जिन -- रात्रि विधान कथा', मुनि गुणभद्र का 'रोहिणी विधान' एवं 'दशलक्षण कथा', विमलसेन की ' सुगन्ध दशमी कथा' आदि अज्ञात रचनाएँ हैं । राजस्थानी एवं हिन्दी भाषा की भी कई अज्ञात रचनाएं इस भण्डार में उपलब्ध हुई हैं । (ज) चन्द्रप्रभु सरस्वती भण्डार : यह सरस्वती भवन छोटे दीवानजी के मन्दिर में स्थित है जो लालजी सांडा का रास्ता चौकड़ी मोदी खाना में स्थित है । यह अमरचन्द दीवान का मन्दिर भी कहलाता है जो १९वीं शताब्दी में जयपुर के ख्याति प्राप्त दीवान थे । इस भण्डार में संस्कृत ग्रन्थों की अपूर्व सम्पदा है | यहाँ कुल ८३० ग्रन्थ हैं जिनमें से ३६० अपूर्ण हैं । यहाँ पूजा एवं सिद्धान्त ग्रन्थों का भी अच्छा संग्रह है । १५६३ ई० में लिखित ' कार्तिकेयानुप्रेक्षा' इस भण्डार की प्राचीनतम प्रतिलिपि है । इस भण्डार के कतिपय दुर्लभ ग्रन्थ - - पूर्णचन्द्राचार्य कृत 'उपसर्ग हर स्तोत्र' ( १४९६ ई० ), आम्रदेव कृत 'लब्धि विधान कथा' ( १५५०. Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन शास्त्र भंडार : ४४३ ई० ), अमरकीति कृत 'षट्कर्मोपदेशरत्नमाला' ( १५६५ ई० ), पूज्यपाद कृत 'सर्वार्थ सिद्धि', पुष्पदन्त कृत 'यशोधर चरित' ( १५७३ ई० ), ब्रह्मनेमि कृत 'नेमिनाथ पुराण ( १५९८ ई० ), जोधराज कृत 'प्रवचनसार भाषा' ( १६७३ ई० ) आदि हैं । अज्ञात कृतियों में तेजपाल कवि कृत संभव जिणणाह चरिय' ( अपभ्रंश ) मुख्य है । (झ) जोबनेर मन्दिर का शास्त्र भण्डार : यह शास्त्र भण्डार दिगंबर जैन मन्दिर जोबनेर, खेजड़े का रास्ता चाँद पोल बाजार में अवस्थित है । ग्रन्थ संग्रहण में पं० पन्नालाल व उनके शिष्य प० बख्तावर लाल का विशेष सहयोग रहा जिसके फलस्वरूप यहाँ ज्योतिष, आयुर्वेद, मंत्रशास्त्र व पूजा साहित्य का अच्छा संकलन है । इसमें २३ गुटकों सहित ३४० ग्रन्थ हैं । यहाँ १७वीं से १९वीं शताब्दी के मध्य रचित ग्रन्थ अधिक हैं । सबसे प्राचीन प्रति 'पद्मनन्दी पंचविशति' की है जो १५२१ ई० में प्रतिलिपि की गई थी । यहाँ के उल्लेखनीय ग्रन्थों में आशाधर की 'आराधना सार' टीका, क्षेमेन्द्रकीति कृत 'गजपंथ मंडल पूजन', शांति कुशल का 'अंजनारास', पृथ्वीराज का 'रूक्मिणी विवाहलो', रघुराज का 'समयसार' नाटक, १७१६ ई० की 'बिहारी सतसई' की प्रति आदि हैं । यहाँ १६ स्वप्नों के प्रतीक चित्रों से अंकित एक वस्त्र पट्ट भी है । (ञ) पार्श्वनाथ दिगंबर जैन सरस्वती भवन : यह खवास जी के रास्ते में स्थित मन्दिर में है । इसकी स्थापना १७४८ ई० में की गई थी । यहाँ ५४० ग्रन्थ एवं १८ गुटके हैं, जिनमें संस्कृत के ग्रन्थ एवं १७वीं१८वीं शताब्दी की कृतियाँ अधिक हैं । यहाँ प्राकृत एवं अपभ्रंश को भी कृतियाँ हैं । सभी कागज ग्रन्थ हैं । प्राचीनतम ग्रन्थ १३८८ ई० में प्रतिलिपिकृत माणिक्य सूरि का 'जलोदय काव्य' है । यहाँ आशाधर के 'प्रतिष्ठा पाठ' की १४५९ ई० में वस्त्रांकित प्रतिलिपि भी विद्यमान है । यह जयपुर शहर के वस्त्रांकित ग्रन्थों में प्राचीनतम है । यहीं पर ३० चित्रों वाली १७४३ ई० में प्रतिलिपिकृत 'यशोधर चरित' की सुन्दर एवं कलापूर्ण प्रति भी है । यहाँ कई महत्त्वपूर्ण, प्राचीन व अज्ञात कृतियाँ हैं । अज्ञात कृतियों में विजयसिंह कृत 'अजितनाथ पुराण' ( अपभ्रंश ), दामोदर कृत 'णेमिणाह चरिय', गुणनन्दिकृत वीरनन्दि के चन्द्रप्रभ काव्य की पंजिका ( संस्कृत ), जगन्नाथकृत 'नेमिनरेन्द्र स्तोत्र' ( संस्कृत ), पद्मनन्दि कृत 'वर्द्धमान काव्य', शुभचन्द्र कृत 'तत्त्रवर्णन ' ( संस्कृत ), चन्द्रमुनिकृत 'पुराण सागर' ( संस्कृत ), इन्द्रजीत कृत 'मुनि सुव्रत पुराण' ( हिन्दी ) आदि के नाम उल्लेखनीय हैं । (ट) गोधा मन्दिर का शास्त्र भण्डार : १८वीं शताब्दी में इस मन्दिर के निर्माण के पश्चात् से ही यहाँ ग्रन्थ संग्रह प्रारम्भः हो गया । अधिकांश ग्रन्थ सांगानेर के मन्दिरों से लाये गये । वर्तमान में यहाँ ६९६ ग्रन्थः Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४४ : मध्यकालीन राजस्थान में जैनधर्म एवं १० गुटके हैं । १७वीं से १९वीं शताब्दी के मध्य का पुराण, चरित, कथा और स्तोत्र साहित्य यहाँ उपलब्ध है। इस भण्डार का प्राचीनतम ग्रन्थ १४२९ ई० में प्रतिलिपि किया गया श्रुतसागर द्वारा संस्कृत में रचित 'व्रतकथा कोष' है। हिन्दी एवं राजस्थानी की दुर्लभ रचनाओं में-ठक्कुर कवि कृत 'चिंतामणि जयमाल' एवं 'सीमंधरस्तवन', पल्ह कवि कृत गीत एवं 'आदिनाथ स्तवन', सिंहनन्दिकृत 'नेमीश्वर चौमासा' एवं 'चेतनगीत', रत्नकीर्ति कृत 'नेमिश्वर रास' एवं 'नेमिश्वर हिंडोलना', हेमराज कृत 'द्रव्य संग्रह भाषा', डालूराम कृत 'चतुर्दशी कथा' हैं, १५७२ ई० में रचित डूंगर कवि की 'होलिका चौपाई' का परिचय प्रथम बार इसी भण्डार में मिलता है। संस्कृत ग्रन्थों में उमास्वामी विरचित 'पंच परमेष्ठी स्तोत्र' महत्त्वपूर्ण है । अन्य प्राचीन प्रतियाँ 'विमलनाथ पुराण', गुणभद्राचार्य कृत 'धन्य कुमार चरित' (१५९५ ई०), 'विदग्ध मुखमंडन' (१६२६ ई०), 'सारस्वत दीपिका' (१६०० ई०), धनंजय कृत 'नाममाला' ( १५८६ ई०), अमितगति कृत 'धर्म परीक्षा ( १५९६ ई० ) आदि उल्लेखनीय हैं। बनारसीदास कृत 'समयसार' नाटक ( १६४७ ई०) भी यहाँ उपलब्ध है। (ठ) श्वेताम्बर जैन ग्रन्थ भण्डार, जयपुर : कुंडीगरों का भेरू जी का रास्ता में स्थित जैन उपाश्रय में यह बड़ा भण्डार है 'जिसमें ३५०० ग्रन्थ संग्रहीत हैं। प्राचीनतम ग्रन्थ 'अनन्तलिया सूत्र' है जो १४२८ ई० में प्रतिलिपि किया गया था। अन्य प्राचीन ग्रन्थ-१४५२ ई० में प्रतिलिपिकृत 'आचारांग' बालावबोध और १४४७ ई० में प्रतिलिपिकृत पार्श्वनाथ चरित्र' हैं। (ड) नया मन्दिर का ग्रन्थ भण्डार : यह भण्डार भौमियों के रास्ते में स्थित नये मन्दिर (राठियों के मन्दिर ) में संग्रहीत है । इसमें १५० हस्तलिखित ग्रन्थ हैं जिनमें वीरनन्दि कृत 'चन्द्रप्रभ चरित' की १४६७ ई० की तैयार प्रतिलिपि सबसे प्राचीन है । यहाँ के कतिपय उल्लेखनीय ग्रन्थगुणभद्राचार्य कृत 'उत्तर पुराण' (१५४९ ई० ), ब्रह्मजिनदास कृत 'हरिवंश पुराण' (१५८४ ई०), दीपचन्द कृत 'ज्ञानदर्पण', लोकसेन कृत 'दश लक्षण कथा', ब्रह्मजिनदास कृत 'अठावीस मूल गुण रास' एवं 'दान कथा' तथा ब्रह्म अजित का 'हंस तिलक रास' और राजहंसोपाध्याय की 'षष्ठ्याधिक शतक' की टीका ( १५२२ ई० ) आदि महत्त्वपूर्ण हैं। यहाँ कुछ ग्रन्थों की स्वर्णाक्षरी प्रतियाँ भी हैं। इन प्रतियों पर अद्भुत बेलबूटे चित्रित हैं। (ढ) चौधरियों के दिगम्बर जैन मंदिर का शास्त्र भण्डार : यह भण्डार बर्बोली के कुए के पास चौकड़ो मोदीखाना में स्थित मन्दिर (नेमिनाथ Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन शास्त्र भंडार : ४४५. मन्दिर) में विद्यमान है । इसमें १०८ ग्रन्थ संग्रहीत हैं, जिसमें ७५ हिन्दी के वशेष संस्कृत के हैं । अधिकांश ग्रन्थ दैनिक स्वाध्यायोपयोगी हैं । मुख्य ग्रन्थ जयचन्द्र छाबड़ा कृत 'ज्ञानार्णव भाषा', खुशहाल चन्द्रकृत 'त्रिलोकसार भाषा' आदि हैं । (ण) काला छाबड़ा जैन मंदिर का शास्त्र मंदिर : इस भण्डार में ४१० हस्तलिखित ग्रन्थ हैं जो धर्म, पुराण, कथा, पूजा, स्तोत्रादि से सम्बद्ध हैं । यहाँ १०६ गुटके भी हैं जिनमें जैन व अजैन लेखकों की कृतियाँ संकलित हैं 1 (त) मेघराज जी मंदिर का शास्त्र भण्डार : यह एक छोटा संग्रहालय है, जिसमें २४९ हस्तलिखित ग्रंथ संग्रहीत हैं । इनमें से अधिकांश पूजा, पुराण, स्तोत्र आदि से सम्बन्धित हैं । (थ) यशोदानंद जैन मंदिर का शास्त्र भण्डार : यति यशोदानन्द ने १७९१ ई० में इस मन्दिर का निर्माण करवाया था । यहाँ ३५३ ग्रन्थ एवं १३ गुटके हैं । संग्रह सामान्य है । उल्लेखीय ग्रन्थ ' चन्द्रप्रभ काव्य पंजिका' (१९०७ ई०), कुन्दकुन्द कृत 'समयसार ' (१५५७ ई०), आशाधर कृत 'सागरधर्मामृत' (१५७१ ई०), केवल मिश्र कृत 'तर्कभाषा' (१६१२ ई०) आदि हैं । इसी प्रकार दिल्ली के बादशाहों की पट्टावलियाँ और भट्टारक धर्मकीर्ति की प्रशंसा में रचित गीत भी उल्लेखनीय हैं । (द) विजयराम पांड्या दिगम्बर जैन मंदिर का शास्त्र भण्डार : यह भण्डार पानों का दरीबा चौधरी रामचन्द्र जी में स्थित मन्दिर में विद्यमान है । यहाँ के ग्रन्थ जीर्ण-शीर्ण हैं व भण्डार की अवस्था अच्छी नहीं है । यहाँ २७५ ग्रन्थ एवं ७९ गुटके हैं । इनमें संग्रहीत कृतियों में विश्वभूषण की 'नेमिश्वर की लहरी', पुण्यस्तन की 'नेमिनाथ पूजा', श्यामकवि की 'तीन चौबीसी चौपाई', स्योजी राम की 'लग्नचन्द्रिका' आदि महत्त्वपूर्ण हैं । कई कवियों के पद भी संग्रहीत हैं । लोहट कृतः 'षट्लेश्यावृत्ति' उल्लेखनीय कृति 1 (ध) दिगम्बर जैन मन्दिर संधी जी का शास्त्र भण्डार : यह भण्डार चौकड़ी मोदीखाना में महावीर पार्क के पास स्थित मन्दिर में है । जयसिंह के दीवान झूथाराम संघी ने इसका निर्माण करवाया था । यहाँ ९७९ हस्तलिखित ग्रन्थों का संग्रह है । अधिकांश १८वीं व १९वीं शताब्दी के रचित हैं । प्राचीनतम कृति कुन्दकुन्द कृत 'पंचास्तिकाय' की १४३० ई० में प्रतिलिपिकृत उपलब्ध है । अन्य प्राचीन प्रतियाँ हर्षकीर्ति की 'अनेकार्थ शतक' (१६४० ई० ), धर्मकीर्ति की 'कौमुदी कथा' (१६०६ ई०), पद्मनन्दि की 'श्रावकाचार' (१५५६ ई०), शुभचन्द्रकृत Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४६ : मध्यकालीन राजस्थान में जैनधर्म - "पाण्डव पुराण' (१५५६ ई०) आदि हैं । यहाँ महेश कवि कृत 'हम्मीर रासो' की एक प्रति भी विद्यमान है । इस भण्डार में ६६ गुटके हैं जिनमें हिन्दी एवं संस्कृत पाठों का अच्छा संग्रह है । (न) लश्कर के दिगम्बर जैन मन्दिर का शास्त्र भण्डार : यह भण्डार बोरडी के रास्ते में स्थित जैन मन्दिर में है । केसरी सिंह का इस ग्रन्थ भण्डार को महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है । इसमें ८२५ हस्तलिखित ग्रन्थ संग्रहीत हैं । उल्लेखनीय कृतियाँ - रत्नप्रभाचार्य के 'प्रमाणनय' की टीका ( १४९९ ई०) एवं 'सप्त पदार्थं वृत्ति' (१४८४ ई०), अमृतचन्द्र को 'पंचास्तिकाय टीका सह' (१५६६ ई०), कुमारकवि कृत 'आत्मप्रबोध' (१५१५ ई० ) विद्यानन्दिकृत 'आप्त परीक्षा' ( १५७८ ई०), प्रभाचन्द्र कृत 'रत्नकरण्ड श्रावकाचार' पर टीका (१५७६ ई०) आदि हैं। भट्टारक ज्ञान भूषण के 'आदीश्वर फाग' की (१५३० ई०) एक सुन्दर प्रति यहाँ के संग्रह में है । (प) लाल भवन स्थित विनय चन्द्र ज्ञान भण्डार : यह भण्डार चौड़ा रास्ता लाल भवन में अवस्थित है तथा श्वेताम्बर शास्त्र भण्डारों में उल्लेखनीय है । आचार्य हस्तोमल की प्रेरणा से इस संग्रह में संवृद्धि हुई है । यहाँ लगभग ७००० ग्रन्थ मुद्रित व अमुद्रित हैं । इस भण्डार के सूचीकरण का - कार्य जारी है । · (फ) अन्य भण्डार : कुन्दीगर भैरों के रास्ते में शिवजीराम भवन में स्वर्गीय मुनि कान्ति सागर की हस्तलिखित प्रतियों का संग्रह । इसका अभी तक सूचीकरण नहीं हुआ है । खरतर - " गच्छ के श्रीमालों के उपासरे में तथा तपागच्छ उपाश्रय में भी ग्रन्थों का संग्रह है । जयपुर के महाराजा की लाइब्रेरी पोथी खाना में भी १८,००० हस्तलिखित प्रत्तियों का संग्रह है । जयपुर के 'राजस्थान प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान' की शाखा में जयपुर के घरणेंद्र सूरि ने अपना संग्रह दे दिया है जिसमें लगभग २००० प्रतियां हैं । आमेर का भट्टारकीय भण्डार श्री महावीर जी तीर्थ कमेटी के शोध संस्थान में चला गया है । कुछ संग्रह यति श्यामलाल जी के अधिकार में है । २. (क) दिगम्बर जैन तेरापंथी मन्दिर का शास्त्र भण्डार, बसवा : इस भण्डार में ग्रन्थों का संग्रह १०० से अधिक नहीं है किन्तु इस लघु संग्रह में कई पांडुलिपियाँ उल्लेखनीय हैं । इनमें पासकवि कृत 'पार्श्वनाथ स्तुति', देवीदास कृत 'राजनीति सवैया', दौलतरामकृत 'अध्यात्म बारहखड़ी' उल्लेखनीय हैं । (ख) दिगम्बर जैन पंचायती मन्दिर का शास्त्र भण्डार, बसवा : यह एक प्राचीन एवं महत्त्वपूर्ण भण्डार है । इसमें 'कल्पसूत्र' की २ स्वर्णाक्षरी Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन शास्त्र भंडार : ४४७ पांडुलिपियाँ हैं जिसमें से एक में ३९ चित्र एवं दूसरी में ४२ चित्र हैं। ये प्रतियाँ १४७१ ई० एवं १४८२ ई० की हैं। यहाँ 'पद्मनन्दी महाकाव्य' की प्रह्लाद कृत एक सटीक प्रति भी है। अन्य उल्लेखनीय कृतियाँ-महाकवि श्रीधर की १४०५ ई० की अपभ्रश कृति 'भविष्यदत्त चरिउ' एवं 'समयसार' की तात्पर्य वृत्ति हैं। ३. शास्त्र भण्डार, भादवा : यह दिगम्बर जैन मंदिर में एक छोटा भण्डार है, जिसमें १३० ग्रन्थ और २० गुटके हैं। यहाँ दुर्लभ ग्रन्थ हैं। कुछ उल्लेखनीय ग्रंथ दयानतराय का 'धर्मविलास', भगवतीदास का 'ब्रह्मविलास', धर्मदास का 'धर्मोपदेश श्रावकाचार', लब्धि विजय गणी रचित 'ज्ञानार्णव भाषा' आदि हैं । ४. भट्टारक शास्त्र भण्डार, अजमेर : यहाँ का शास्त्र भण्डार दिगम्बर जैन मन्दिर बड़ा धड़ा में स्थित है । भट्टारकों की गादी अजमेर रहने से यह भण्डार साहित्यिक गतिविधियों का केन्द्र रहा । इसमें विभिन्न भाषाओं के हस्तलिखित ग्रन्थों की संख्या ३००० है। यहाँ पं० आशाधर (१३वीं शताब्दी ) के 'अध्यात्म रहस्य' की एकमात्र पांडुलिपि जुगल किशोर मुख्तार के द्वारा खोजी गई थी । प्राचीनतम पांडुलिपि 'समयसार प्राभृत' की है जो १४०६ ई० में प्रतिलिपि की गई। इसके अलावा-वृषभनंदि का 'जीवसार समुच्चय', तेजपाल का पारस चरिउ', प्रभाचंद्राचार्य की 'आत्मानुशासन टीका', ब्रह्मजिनदास कृत 'हरिवंश पुराण', आशाधर की 'सागर धर्मामृत', आदि कृतियाँ प्रथम बार यहीं उपलब्ध हुई। भगवती दास की 'शील बत्तीसी', 'राजमती गोत', 'अगलपुर जिन वंदना', 'राजावली', "बनजारा गोत', 'राजमती नेमिश्वर रास' आदि एक ही गुटके में प्राप्त हुई है। देल्ह कवि का 'बुद्धिप्रकाश', बूचराज का 'भुवनकीर्ति गीत' एवं 'धर्मकीर्ति गीत' इतिहास की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण हैं। इसके अतिरिक्त भण्डार में 'सामुद्रिक पुरुष लक्षण' एवं “शांतिपुराण' की प्रतियाँ भी हैं । ५. ग्रंथ भण्डोर, अलवर : यहाँ ७ जैन मंदिर हैं व सभी में ग्रन्थ भण्डार हैं। खण्डेलवाल जैन पंचायती मंदिर में २११ हस्तलिखित ग्रन्थ, अग्रवाल पंचायतो मंदिर में १८६ ग्रन्थ, छाजूजी के मंदिर में ६० ग्रन्थ, नसिया के जैन मंदिर में ४२, बारा तल्ला जैन मंदिर में ४१ ग्रन्थ, साबजी साहिब के जैन मंदिर में ४० और नया बाजार जैन मंदिर में ३९ ग्रन्थ संग्रहीत हैं। इस प्रकार यहाँ कुल ६१९ ग्रन्थ हैं जो १८वीं एवं १९वीं शताब्दी के रचित हैं। खण्डेलवाल पंचायती मंदिर में "भक्तामर स्तोत्र' एवं 'तत्त्वार्थ सूत्र' की स्वर्णाक्षरी प्रतियां हैं जो कला की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण हैं । यहाँ ४६ गुटके भी हैं, जिनमें 'अध्यात्म बारहखड़ी' ( दौलतराम कासलीवाल ), 'यशोधर चरित्र' ( परिहानंद ), 'राजवातिक' Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४८ : मध्यकालीन राजस्थान में जैनधर्म (भट्टाकलंक ) की प्रतियाँ विशेष उल्लेखनीय हैं । इस भण्डार में जयपुर के महाराजा सवाई प्रतापसिंह के संरक्षण में लिखी गई आयुर्वेदिक ग्रन्थ 'अमृतसार' की एक उत्तम प्रति है जो १९७१ ई० में प्रतिलिपि की गई थी। ६. भरतपुर के शास्त्र भण्डार : ( क ) पंचायती मन्दिर का शास्त्र भण्डार : ग्रन्थों के संकलन की दृष्टि से यह भण्डार इस जिले का प्रमुख भण्डार है। इसमें हस्तलिखित ग्रन्थों की संख्या ८०१ हैं, जिनमें संस्कृत एवं हिन्दी के ग्रन्थ अधिक हैं। प्राचीनतम पांडुलिपि १४३३ ई० की प्रतिलिपिकृत 'तपागच्छ गुर्वावली' है। इसी भण्डार में 'भक्तामर स्तोत्र' की एक सचित्र पांडुलिपि है, जिसमें ५१ चित्र हैं, इस पांडुलिपि का रचनाकाल १७६९ ई० है । इसी तरह अपभ्रंश कृति 'सप्तव्यसन कथा' भी महत्त्वपूर्ण कृति है । अन्य महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ-गंगाराम कृत १७१७ ई० में रचित 'सभाभूषण', विश्वभूषणकृत 'जिनदत्त भाषा', हर्ष रचित ‘पद संग्रह', जोधराज कासलीवाल कृत 'सुखविलास' आदि हैं । यहाँ शतरंज के खेल से सम्बन्धित भी एक ग्रन्थ है । (ख ) फौजूराम दिगंबर जैन मंदिर का शास्त्र भण्डार, भरतपुर : ____ यहाँ का संग्रह केवल १०० वर्ष पुराना है । इसमें कुल ६५ हस्तलिखित ग्रन्थ हैं। इसमें कुम्हेर के गिरिवर सिंह की तत्वार्थ सूत्र पर हिन्दी गद्य टीका एक उल्लेखनीय कृति है। ७. डीक शास्त्र भण्डार : ____डीक भरतपुर से २५ मील दूर है और पहले भरतपुर की राजधानी थी । यहाँ ३ मन्दिरों के शास्त्र भण्डार महत्त्वपूर्ण हैं । ( क ) पंचायती मंदिर का शास्त्र भण्डार : इस भण्डार में ८१ हस्तलिखित ग्रन्थ हैं, जो मुख्यतः १८वीं एवं १९वीं शताब्दी के है। यहां पर सेवाराम पाटनी की १७९३ ई० में हिन्दी में रचित "मल्लिनाथ चरित्र" की मूल पाण्डुलिपि उपलब्ध है। यहाँ के ग्रन्थों में व्याकरण एवं आयुर्वेद ग्रन्थ भी हैं। ( ख ) बड़ा पंचायत दिगंबर जैन मन्दिर का शास्त्र भण्डार : __पहले यहाँ अच्छा ग्रन्थ संग्रह था जो अव्यवस्था के कारण नष्ट हो गया। वर्तमान में यहाँ ५६ पूर्ण ग्रन्थ एवं शेष अपूर्ण हैं । इस भण्डार की प्राचीनतम प्रति १४५४ ई० में मांडलगढ़ में लिखित 'भगवती आराधना' की प्रति है । इसके अलावा मुख्य ग्रन्थ राजहंस का संस्कृत में 'षट्दर्शन समुच्चय', श्रीधर का अपभ्रंश काव्य 'भविसयत्त चरिउ', गुणभद्रकृत 'आत्मानुशासन' और संस्कृत में सकल कीति कृत 'जंबू स्वामी चरित' आदि हैं। Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन शास्त्र भंडार : ४९ (ग ) जैन मंदिर पुरानी डीग का शास्त्र भण्डार : इस भंडार में १०१ हस्तलिखित ग्रन्थ हैं। कुछ ग्रन्थ बहुत दुर्लभ है। रामचन्द्रसूरि द्वारा १४२३ ई० में संस्कृत में रचित 'विक्रम चरित्र' यहाँ के अलावा अन्यत्र सामान्यतः उपलब्ध नहीं होता। कवि चुन्नीलाल की हिन्दी कृति 'चौबीस तीर्थकर पूजा' सर्वप्रथम यहीं उपलब्ध हुई। इसके अलावा नथमल कृत 'जिनगुण विलास', मुकुन्ददास कृत 'भ्रमरगीत' भी उल्लेखनीय पाण्डुलिपियाँ हैं ।। ८. कामा के शास्त्र भण्डार : यह नगर १७वीं एवं १८वीं शताब्दियों में साहित्यिक गतिविधियों का प्रमुख केन्द्र था। यहां के २ मन्दिरों के शास्त्र भण्डार महत्त्वपूर्ण हैं(क) दिगम्बर जैन खण्डेलवाल मन्दिर का शास्त्र भण्डार : यहाँ गुटकों सहित ५७८ पाण्डुलिपियों का संग्रह है। यह भण्डार महत्त्वपूर्ण एवं अज्ञात पाण्डुलिपियों की दृष्टि से प्रमुख भण्डारों में से है। यहाँ १३४८ ई० से लेकर २०वीं शताब्दी तक की पाण्डुलिपियाँ हैं । यहाँ के महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ इस प्रकार हैं-संस्कृत में १३९७ ई० में प्रतिलिपिकृत देवप्रभसूरि रचित 'पाण्डव चरित्र', प्रभाचन्द्र के संस्कृत ग्रन्थ 'आत्मानुशासन' पर १४३४ ई० में लिखी गई टोका, १३४८ ई० में राजशेखर के संस्कृत ग्रन्थ 'प्रबोध चिन्तामणि' की प्रतिलिपि, 'समयसार' पर शुभचन्द्र द्वारा १५१६ ई० में संस्कृत में की गई व्याख्या, हरिचन्द की १४६७ ई० को अपभ्रंश रचना 'दशलक्षण कथा', ब्रह्म जिनदास द्वारा अपभ्रश में रचित 'धर्म पंचविंशति' २६ गाथाओं के वर्णन की दुर्लभ कृति, पद्मकीर्ति का १५१७ ई० में लिखित 'पालपुराण', दयाहंसगणी द्वारा राजस्थानी में १४०३ ई० में अनूदित 'संग्रहणी सूत्र भाषा', सोमदेव कोति कृत 'यशस्तिलक' चौपाई की १४०३ ई० में की गई प्रतिलिपि आदि । इस भण्डार के गुटका संख्या ३३१ में १५वीं व १६वीं शताब्दियों के कई लेखकों की हिन्दी रचनाएँ हैं। (ख) अग्रवाल पंचायती मन्दिर का शास्त्र भण्डार : इस भण्डार में ११५ हस्तलिखित ग्रन्थ हैं। इसमें १२५४ ई० का सुधारु कवि रचित 'प्रद्युम्न चरित्र' अपूर्ण है। यहाँ १६३४ ई० में रचित नवलराम की 'वर्धमान पुराण भाषा' की पाण्डुलिपि है, जो प्रथम बार यहीं पर उपलब्ध हुई है। ९. बयाना के शास्त्र भण्डार : यहाँ २ जैन मन्दिरों में शास्त्र भण्डार अवस्थित हैं। पंचायती मन्दिर के शास्त्र भण्डार में पाण्डुलिपियों की संख्या १५० है। इनमें हीरालाल लुहाड़िया कृत 'व्रत विधान पूजा', जिनेन्द्र भूषण कृत 'चंद्रप्रभ पुराण', कुमुदचंद्र कृत 'बाहुबलि छंद', २९ Page #473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५० : मध्यकालीन राजस्थान में जैनधर्म हेमचंद्रकृत 'नेमिनाथ छंद', गुणचंद्र कृत 'नेमिराजुल गीत', छोहलकृत 'उदरगीत' के नाम उल्लेखनीय हैं । दिगम्बर जैन छोटा मंदिर बयाना के शास्त्र भंडार में भी गुटकों सहित ग्रन्थों की संख्या १५३ है । उल्लेखनीय ग्रन्थ-सुमति सागर कृत 'षोडश कारणो द्यापन पुजा', लालचंद्र कृत 'लीलावती भाषा', केशवदास कृत 'अक्षर बावनी', १६७९ ई० में लल्लू लाल कृत 'समोसरण पाठ' आदि है । १०. वैर के शास्त्र भंडार : दिगम्बर जैन मंदिर में स्थित शास्त्र भंडार में १२० हस्तलिखित ग्रन्थ हैं । गुटकों की संख्या इससे भी अधिक है । कुछ महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ-'साधुवंदना', दौलतराम कासलीवाल की 'आध्यात्म बारहखड़ी' आदि हैं। इसके अतिरिक्त टोडरमल, भगवतीदास, रामचंद्र, खुशहालचंद्र आदि को कृतियाँ भी हैं। पंचायती मंदिर वैर के ग्रन्थ भंडार में २२७ ग्रन्थ हैं जिनमें ४४ गुटके हैं। तेजपाल द्वारा अपभ्रंश भाषा में रचित 'वारांग चरित्र' भी एक उल्लेखनीय ग्रंथ है । ११. करौली के शास्त्र भंडार : करौली में २ जैन ग्रन्थ भंडार हैं । पंचायती मंदिर के ग्रन्थ भंडार में २२७ ग्रन्थ एवं ४४ गुटके हैं । अधिकांश ग्रन्थ स्वाध्याय निमित्त पुराण, कथा, सिद्धांतादि के हैं । अपभ्रंश भाषा में तेजपालकृत 'वारांग चरित्र' एक दुर्लभ कृति है । सोगानी जैन मंदिर के शास्त्र भंडार में ८७ ग्रन्थों का छोटा सा संग्रह है जो सामान्य है । १२. हिण्डौन के ग्रन्थ भंडार : यहाँ के २ मंदिरों में २ शास्त्र भंडार हैं, जिनमें हस्तलिखित ग्रन्थों को कुल संख्या ४२६ है । इस भंडार के संग्रह की अवस्था ठीक नहीं है। १३. श्री महावीर जी का ग्रन्थ भंडार : यहाँ के शास्त्र भंडार में गुटकों सहित ५१५ हस्तलिखित ग्रन्थ संग्रहीत है । सभी पांडुलिपियाँ १५वीं से १९वीं शताब्दी के मध्य की हैं। इन ग्रन्थों की सूची प्रकाशित हो चुकी है । यहाँ के कतिपय प्राचीन एवं महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ इस प्रकार हैं-योग देवकृत 'तत्वार्थसूत्रवृत्ति', पल्हकृत 'नेमीश्वर गोत', धर्मसागरकृत 'त्रयोदशमार्गी रासो', ब्रह्म वस्तुपालकृत 'पार्श्वनाथ रासो' और 'इन्द्रप्रस्थ प्रबंध' हैं । १४. ब्यावर के शास्त्र भंडार : __यहाँ का 'ऐलक पन्नालाल दिगम्बर जैन सरस्वती भवन' नामक सुप्रसिद्ध शास्त्र भंडार इसी नाम के व्यक्ति द्वारा १९३५ ई० में स्थापित किया गया था। इसमें विभिन्न भाषाओं के लगभग ४००० ग्रन्थ हैं। जयसेन सूरि की कृति 'प्रवचनसार तात्पर्य वृत्ति' की १४३९ ई० में तैयार प्रतिलिपि इस भंडार का प्राचीनतम ग्रन्थ है। इस भंडा Page #474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन शास्त्र भंडार : ४५१ के अलावा सोहनलाल काला, कनकमल बोहरा और नन्दलाल गुरासा के व्यक्तिगत संग्रह भी हैं । १५. सीकर का ग्रंथ भंडार : इस शहर में ५ जैन मंदिर हैं जिनमें सभी में कुछ हस्तलिखित ग्रन्थ हैं किन्तु अच्छे संग्रह की दृष्टि से बीस पंथियों का मंदिर विशेष महत्त्वपूर्ण है । इसमें ग्रन्थों की कुल संख्या ५३२ है जो सभी कागज पर हैं । वैसे तो यहाँ संस्कृत एवं प्राकृत के भी ग्रन्थ हैं किन्तु राजस्थानी भाषा व हिन्दी के ग्रन्थों का आधिक्य है । १६. दौसा के ग्रन्थ भंडार : यहाँ के २ जैन मंदिरों में ग्रन्थ भंडार हैं । दिगम्बर जैन बीसपंथी मन्दिर के शास्त्र भण्डार में १७७ ग्रन्थ हैं जिनमें गुटके भी सम्मिलित हैं । मुख्य ग्रन्थ 'परमहंस चौपाई ' ( रायमल्ल), 'श्रावकाचार रास' (जिनदास), 'यशोधर चरित' (पूर्णदेव), 'सम्यक्त्व कौमुदी' भाषा (दयानन्द ) आदि ग्रन्थों के नाम विशेष उल्लेखनीय हैं । 'विल्हण शशिकलाप्रबन्ध' १७वीं शताब्दी की एक सुन्दर कृति है जो कवि सारंग की हिन्दी एवं संस्कृत टीका सहित है । दिगम्बर जैन तेरापंथी मन्दिर, दौसा में १५० ग्रन्थ हैं । अधिकांश ग्रन्थ अपभ्रंश एवं हिन्दी के हैं । अपभ्रंश ग्रन्थों में लाखू कृत 'जिणयत्त चरिउ', श्रीधर कृत 'सुकुमाल चरिउ', जयमितहल कृत 'बड्ढमाण कहा', घनपाल कृत 'भविसयत्त कहा', पुष्पदन्त कृत 'महापुराण' के नाम उल्लेखनीय हैं । अन्य ग्रन्थों में अखयराज श्रीमाल कृत 'चौदह गुणस्थान चर्चा', सारंग कृत 'विल्हण चौपाई, समयसुन्दर कृत 'प्रियप्रेलक चौपाई', हीरकलश कृत 'सिंहासन बत्तीसी' आदि महत्वपूर्ण हैं | १७. मौजमाबाद का शास्त्र भण्डार : इस भण्डार में लगभग ४०० ग्रन्थ हैं । ये ग्रन्थ प्राकृत, अपभ्रंश, संस्कृत, राजस्थानी एवं हिन्दी में हैं । प्राचीनतम ग्रन्थ कुन्दकुन्द का 'प्रवचनसार' है, जो १५वीं शताब्दी में की गई प्रतिलिपि है । इस भण्डार में पुष्पदन्त कृत 'जसहर चरिउ' की दो सचित्र प्रतिलिपियाँ भी हैं। ऐसी अपभ्रंश की चित्रित प्रतियाँ अन्यत्र उपलब्ध नहीं होतीं । 'जिनेन्द्र व्याकरण', अमरकीर्ति कृत 'षट्कर्मोपदेश रत्नमाला', आशाधर कृत “त्रिषष्ठि स्मृति शास्त्र', अमितगति कृत 'योगसार', योगदेव कृत 'तत्वार्थं सूत्र टिप्पण', - प्रभाचन्द्र कृत ' आदिनाथ पुराण टिप्पण' आदि अन्य महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ हैं | यहाँ लाखा चारण टीका वाली 'कृष्ण रूक्मिणी बेलि' की पांडुलिपि भी है, जो अन्यत्र उपलब्ध नहीं होती । १८. दिगम्बर जैन मन्दिर शास्त्र भण्डार, नरायणा : यहाँ पर हस्तलिखित ग्रन्थों की संख्या ५१ है, जिसमें बड़े मन्दिर में ३६ तथा छोटे Page #475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५२ : मध्यकालीन राजस्थान में जैनधर्म मन्दिर में १५ ग्रन्थ हैं । यहाँ एक ग्रन्थ कन्नड़ भाषा का भी है। प्राकृत एवं संस्कृत के भी कुछ ग्रन्थ है । यहाँ की प्रमुख पांडुलिपियाँ पन्नालाल संघी कृत 'पंचकल्याणक पूजा', सोमप्रभाचार्य कृत संस्कृत में 'सूक्ति मुक्तावली भाषा' आदि हैं। अधिकांश कृतियां १५वीं शताब्दी की हैं। १९. दिगंबर जैन मंदिर शास्त्र भण्डार, सांभर : धानमंडी के जैन मंदिर में स्थित एकमात्र भण्डार में ८६ हस्तलिखित ग्रन्थ हैं। प्राचीनतम पांडुलिपि अखयराज श्रीमाल के 'चौदह गुणस्थान स्वरूप' की है, जो १६८४ ई० की है । दयानतराय के 'चरचाशतक' की सुन्दर पांडुलिपि टब्बा एवं टीका सहित है। सांभर के लिपिकार पं० रामलाल ने १५ से भी अधिक पांडुलिपियाँ लिखकरे इस भण्डार में संग्रहीत की हैं। २०. दिगंबर जैन मन्दिर शास्त्र भण्डार, दुद् : इम मन्दिर के शास्त्र भण्डार में १०० से भी अधिक हस्तलिखित ग्रन्थ हैं जिनमें हिन्दी एवं संस्कृत की सर्वाधिक पांडुलिपियाँ हैं । २१. जैन शास्त्र भण्डार, झुंझुनू : यहाँ ग्रन्थों की कुल संख्या ३१० है। यहाँ के मुख्य ग्रन्थ युग प्रधान जिनचंद्र सूरि कृत 'अभयकुमार चौपाई', हेमराज कृत 'पांचसिद्धि', टीकमचन्द कृत 'हेमराज बच्छराज चौपई' आदि हैं । यहाँ के यति खरतरगच्छ के उपासरे में भी ५०० ग्रन्थ है। २२. ग्रन्थ भण्डार, मारोठ : यहाँ साहजी जैन मन्दिर के शास्त्र भण्डार में ३०६३ से भी अधिक ग्रन्थ हैं किन्तु उनमें से अधिकांश नष्ट हो गये । वर्तमान में तेरापंथी जैन मन्दिर में केवल २०० ग्रन्थ ही सुरक्षित हैं। २३. दिगंबर जैन अग्रवाल मन्दिर का शास्त्र भण्डार, : फतेहपुर ( शेखावाटी ) इस भण्डार में ४०० ग्रन्थ हैं। इनमें एक महत्त्वपूर्ण बड़ा गुटका भी है जिसमें १२२२ पृष्ठ एवं १ लाख श्लोक हैं तथा ज्योतिष व आयुर्वेद के पाठ संग्रहीत हैं । यह गुटका जीवनराम ने २२ वर्ष की सतत् साधना के उपरान्त १७०३ ई० में समाप्त किया था। इस भण्डार में णमोकार महात्म्य कथा' को एक सचित्र पांडुलिपि है, जिसमें ७६ चित्र हैं । यहाँ राजस्थानी व हिन्दी के कई ग्रन्थ प्रथम बार उपलब्ध हुए हैं जिनमें प्रमुख 'त्रिलोकसार भाषा', 'हरिवंश पुराण', 'महावीर पुराण', 'समयसार नाटक', ज्ञानार्णव' आदि हैं। २४. दिगंबर जैन मन्दिर का शास्त्र भण्डार, दूनी : यहाँ के ग्रन्थ भण्डार में १४३ ग्रन्थ हैं । प्राचीनतम पांडुलिपि १४४३ ई० की लिखी Page #476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन शास्त्र भंडार : ४५३ हुई 'जिनदत्त कथा' है। विद्यासागर की हिन्दी रचनाएँ भी यहाँ संग्रहीत हैं जिसमें 'सोलह स्वप्न', 'जिनराज महोत्सव', 'सप्तव्यसन सवैया' आदि उल्लेखनीय हैं। गंग कवि का 'राजुल का बारहमासा' यहाँ उपलब्ध एक अज्ञात रचना है। भट्टारक शुभचन्द्र की 'जीवंधर स्वामी चरित्र' की १५५५ ई० की रचित पांडुलिपि भी उल्लेखनीय है। २५. दिगंबर जैन बघेरवाल मन्दिर का शास्त्र भण्डार, आवाँ : १६वों एवं १७वीं शताब्दी में इस स्थान का धर्म एवं साहित्य के क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण स्थान था। यहां दो जैन मन्दिर है। एक खंडेलवाल जैन मन्दिर और है, परन्तु दोनों में हो हस्तलिखित ग्रन्थों का विशेष उल्लेखनीय संग्रह नहीं है, केवल स्वाध्याय ग्रन्थ हैं । २६. जैन शास्त्र भण्डार, राजमहल : ___यह भण्डार, दिगंबर जैन मन्दिर में अवस्थित है। इसमें २२५ हस्तलिखित पांडुलिपियां हैं जिनमें ब्रह्मजिनदास कृत 'करकंडुरास', मुनि शुभचन्द्र की 'होली कथा', त्रिलोक पाटनी का 'इंद्रियनाटक' आदि उल्लेखनीय हैं । २७. ग्रन्थ भण्डार, टोडाराय सिंह : इसका प्राचीन नाम तक्षकगढ़ था । यहाँ के २ जैन मन्दिरों में शास्त्र भण्डार हैं। नेमिनाथ स्वामी के मन्दिर के शास्त्र भण्डार में २४६ ग्रन्थों का संग्रह है। यहाँ की प्राचीनतम पांडुलिपि 'त्रिलोकसार टीका है जो १५३७ ई० की रचना है। 'प्रवचनसार' की १५४८ ई० की एक संस्कृत टीका भी है। इसके अतिरिक्त देवीदास कृत 'चौबीस तीर्थकर पूजा', सोमदेव कृत 'आस्रव त्रिभंगी टीका', ब्रह्म जिनदास कृत 'गुणस्थान चौपई' विशेष उल्लेखनीय हैं। पाश्र्वनाथ दिगंबर जैन मन्दिर के शास्त्र भण्डार में १०५ पांडुलिपियाँ हैं, जिनमें गुटके भी हैं । यहाँ विलास संज्ञक रचनाओं का अच्छा संग्रह है जिनमें 'धर्म विलास' ( दयानतराय ), 'ब्रह्म विलास' ( भगवतीदास ), 'सभाविलास', बनारसी पिलास' आदि उल्लेखनीय हैं। २८. जैन शास्त्र भण्डार, मालपुरा : ___इस कस्बे में ८ जैन मन्दिर हैं, जिनमें से ३ में शास्त्र भण्डार हैं । प्राचीनतम प्रतिलिपि की हुई पांडुलिपि १५७४ ई० की है। यहां प्रतिलिपिकरण का कार्य बहुत होता था। चौधरियों के मन्दिर में स्थित भण्डार में १५० कागज ग्रन्थ है। ब्रह्म कपूरचंद का १५४० ई० में लिखा हुआ 'पृथ्वीनाथ रासो' एक दुर्लभ कृति है । आदिनाथ मन्दिर के शास्त्र भण्डार में स्वाध्याय सम्बन्धी साहित्य अधिक है। यहाँ उपलब्ध दुर्लभ कृति मुनि शुभचन्द्र कृत 'क्षेत्रपाल विनती' तथा गुटका नं. ३ में प्रतिलिपि किये गये हर्षकीति के हिन्दी पद है। तेरापंथी मन्दिर के शास्त्र भण्डार में ७४ हस्तलिखित ग्रन्थ संग्रहीत है। Page #477 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५४ : मध्यकालीन राजस्थान में जैनधर्म २९. ग्रन्थ भण्डार, टोक : यहाँ २ शास्त्र भण्डार हैं। चौधरियों के मन्दिर में स्थित शास्त्र भण्डार में २५३ प्रमथ और ८५ गुटके हैं। अधिकांश ग्रन्थ अपूर्ण है। उल्लेखनीय पांडुलिपि श्रुतसागर कृत 'तत्वार्थ सूत्र' पर कनक द्वारा रचित टीका है जो १७१५ ई० में लिखी गई थी। तेरापंथी मन्दिर के ग्रन्थ भण्डार में ३८२ ग्रन्थ और ५० गुटके है। (द) उदयपुर संभाग : १. उदयपुर के शास्त्र भण्डार : मेवाड़ के शासकों ने जैन धर्म के प्रचार-प्रसार में अत्यधिक योगदान दिया। नगर में मन्दिरों के निर्माण के उपरान्त शास्त्र भण्डार स्थापित कर ग्रन्थों का संग्रह किया गया । उदयपुर नगर में ग्रन्थों के प्रतिलिपिकरण का काम विपुल मात्रा में हुआ। यहाँ के प्रतिलिपिकृत ग्रन्थ अन्यत्र भी उपलब्ध होते हैं । यहाँ ९ जैन मन्दिर हैं व सभी में छोटा-मोटा संग्रह है किन्तु ४ भण्डारों में महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ संग्रहीत हैं । (क) संभवनाथ दिगम्बर जैन मंदिर का शास्त्र भण्डार : ___ इस भण्डार में ५२४ हस्तलिखित ग्रन्थ हैं एवं अधिकांश पाण्डुलिपियाँ १५वीं से १८वीं शताब्दी के मध्य की है। प्राचीनतम पाण्डुलिपि १४०८ ई० में प्रतिलि पिकृत महोत्पल की 'लघुजातक टीका' है । यहाँ के महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ-जयकीति रचित 'सीता शील पताका गुण वेलि', १५४७ ई०, सोमकवि कृत 'राजुल पत्रिका', ब्रह्म वास्तुपाल कृत 'रोहिणीवत प्रबंध', ब्रह्म ज्ञानसागर द्वारा १५३७ ई० में रचित 'हनुमान चरित रास', रत्नभूषण सूरि रचित 'अनुरुद्ध हरण' या 'उषा हरण', भानुकीति कृत 'भट्टारक सकल कीर्ति रास', पासचन्द्र कृत 'सनत कुमार रास', आशाधर कृत 'छंदरत्नाकर' एवं ज्योतिष ग्रन्थ, यशकीति द्वारा अपभ्रश में रचित 'हरिवंश पुराण' आदि उल्लेखनीय हैं। इसी शास्त्र भण्डार में एक ऐसा गुटका भी है, जिसमें ब्रह्मजिनदास की रचनाओं का प्रमुख संग्रह मिलता है। (ख) अग्रवाल दिगम्बर जैन मंदिर का शास्त्र भण्डार : ___ यहाँ गुटकों सहित ३८८ हस्तलिखित पाण्डुलिपियाँ हैं । प्राचीनतम पाण्डुलिपि १३१३ ई० की योगिनीपुर में प्रतिलिपिकृत पूज्यपाद की 'सर्वार्थ सिद्धि' है। दौलतराम कासलीवाल का साहित्यिक केन्द्र यही मन्दिर था। इनके 'जीवंधर चरित' की मूल पाण्डुलिपि यहीं संग्रहीत है। अन्य उल्लेखनीय ग्रथ-कल्याण कीति कृत 'चारुदत्त प्रबंध' (१६३५ ई०), गंगादास कृत 'महापुराण की चौपई', सुमति कीति रचित 'लोकमत निराकरण रास', जयकीति कृत 'अकलंक यति रास' (१६१० ई०), लालकवि रचित 'सुदर्शन सेठानी चौपाई' (१५७९ ई० ), रत्नभूषण कृत 'जिनदत्त Page #478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन शास्त्र भंडार : ४५५ रास', जसकीति कृत 'गोम्मट स्वामी चौपई' (१५६२ ई० ), जयकीर्ति कृत 'वसुदेव प्रबन्ध' ( १६७८ ई०), ब्रह्म जिनदास कृत 'अजितनाथ रास' एवं 'अम्बिका रास', ब्रह्म यशोधर कृत 'बलभद्र रास' (१५२८ ई०), धर्म विनोद कृत 'श्रावकाचार' (१४५७ ई० ), महेश्वर कवि कृत 'शब्द भेद प्रकाश' (१५०० ई.), सुमति कीर्ति द्वारा १५९१ ई० में प्रतिलिपिकृत 'धर्मपरीक्षा रास', ज्ञानभूषण कृत 'पंचकल्याणक पाठ' एवं खेमसागर कृत 'चेतन मोहराज संवाद' आदि हैं। (ग) खण्डेलवाल दिगम्बर जैन मन्दिर का शास्त्र भण्डार : यह भण्डार मण्डो की नाल के मन्दिर में है। यहाँ १८५ हस्तलिखित ग्रन्य हैं । प्राचीनतम पाण्डुलिपि १३०६ ई० में प्रतिलिपिकृत 'भूपाल स्तवन' है। यहाँ रास, पूजा एवं स्तोत्र साहित्य अधिक है। कुछ महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ इस प्रकार हैं-राजसुन्दर कृत 'गजसिंह चौपई' (१४९७ ई०), माधवदास कृत 'रामरास', मुनि राजचंद कृत 'चंपावती शोल कल्याणक' ( १६२७ ई०), कमल विजय कृत 'सीमंधर स्वामी स्तवन' (१६२५ ई० ) आदि हैं । रासों में ब्रह्मजिनदास कृत 'नेमिनाथ रास' 'परमहंस रास', 'दानफल रास' एवं 'भविष्य दत्त रास', माधवदास कृत 'रामरास' तथा भैया भगवतीदास कृत 'ब्रह्म विलास' एवं कुमुदचन्द्र कृत 'बणजारा गीत' है । (घ) गौड़ी जी के उपासरे का शास्त्र भण्डार : इस भण्डार में ६२५ हस्तलिखित ग्रन्थ संग्रहीत हैं। इसमें आगमशास्त्र, आयुर्वेद एवं ज्योतिष इत्यादि विषयों के ग्रन्थों का अच्छा संग्रह है। (ङ) अन्य : ___ इसके अतिरिक्त ग्रन्थों के छोटे संग्रहालय भी है। वर्धमान ज्ञान भण्डार में लगभग ३०० ग्रन्थ हैं। कोठारी के संग्रह में ४०० ग्रन्थ सुरक्षित हैं। गणेशीलाल मेहता के संग्रह में २५० ग्रन्थ हैं तथा यति विवेक विजय और खरतरगच्छ के यति के संग्रह में भी कुछ ग्रन्थ हैं। २. दिगम्बर जैन मन्दिर शास्त्र भण्डार, डूंगरपुर : २०० वर्षों तक जैन समाज की गतिविधियों का केन्द्र होने पर भी यहाँ शास्त्र भण्डार उतना विशाल नहीं है । यह भण्डार दिगम्बर जैन मन्दिर, कोटडिया में स्थित है। इसमें हस्तलिखित ग्रन्थों की संख्या ५५३ है, जिनमें 'चन्दन मलय गिरि कथा', 'आदित्यकार कथा' एवं राग रागिनियों की सचित्र पाण्डुलिपियाँ हैं । ब्रह्म जिनदास कृत अति महत्त्वपूर्ण कृति 'सीताराम रास' को पाण्डुलिपि भी यहाँ संग्रहीत है जो १४५१ ई० में यहीं रची गई थी। इसके अतिरिक्त रासक साहित्य का भी अच्छा संग्रह है। Page #479 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५६ : मध्यकालीन राजस्थान में नधर्मजै ३. यति बालचन्द्र वैद्य का संग्रह, चित्तौड़ : ___ इसमें हस्तलिखित ग्रन्थों की कुल संख्या १००० है। इनमें मन्त्र शास्त्र, स्तोत्र, औषधि, ज्योतिष, आगम एवं धार्मिक तथा साहित्यिक ग्रन्थों की बहुलता है । यह भण्डार १३८४ ई० में पण्डित विनयचन्द ने स्थापित किया था। ४. भट्टारक यशकीति जैन सरस्वती भवन, धुलेव (केसरियाजी) यहाँ के शास्त्र भण्डार में गुटकों सहित १०७० हस्तलिखित ग्रन्थ हैं। प्राचीनतम पाण्डुलिपि १३५९ ई० में लिखित 'संग्रहणी सूत्र' बालावबोध है। यहाँ राजस्थानी, मेवाड़ी व हिन्दी के १५वीं एवं १६वीं शताब्दी में रचित ग्रन्थ अधिक है। प्रमुख निम्न है-पद्म कवि का ‘महावीर रास' ( १५५२ ई० ), 'नरसिंहपुरा जाति रास', रत्नचंद्र कृत 'शान्तिनाथ पुराण' ( १७२६ ई०), महीचन्द्र कृत 'लवकुश आख्यान', ब्रह्मगुणराज का 'प्रद्युम्नरास' (१५४९ ई०) आदि । प्राचीन ग्रन्थों में आशाधर द्वारा १४८४ ई० में संस्कृत में रचित 'धर्मामृत पंजिका', सकल कीति द्वारा १४९४ ई० में संस्कृत में रचित 'शान्तिनाथ परित', सकल भूषण कृत 'उपदेश रत्नमाला', संस्कृत भाषा में काष्ठा संघ की पट्टावली, प्रभाचन्द्र का १६४९ ई० का 'तत्वार्थ रत्न प्रभाकर', नरेन्द्र सेन की १३९९ ई० की 'महाभिषेक विधि' बादि है। (द) कोटा संभाग : कोटा, बूदी, झालावाड़, हाड़ौती प्रदेश के नाम से विख्यात हैं। जैन धर्म एवं संस्कृति का इतिहास यहाँ काफी प्राचीन है। बदी, नैणवा एवं पाटन का प्राचीन ग्रन्थों में भी नाम मिलता है। १. (क) खरतरगच्छोय शास्त्र भण्डार, कोटा : इस भण्डार में १५वीं से १७वीं शताब्दी के मध्य रचित १११७ हस्तलिखित ग्रन्थ है तथा आगम, सिद्धान्त, पुराण एवं रासों ग्रन्थों की अधिकता है। प्राचीनतम पाण्डुलिपि १३५८ ई० की रचित 'रामलक्ष्मण रास' है । यहाँ पर 'बीसलदेव चौहान रास' अपूर्ण अवस्था में है। इसके अतिरिक्त उल्लेखनीय ग्रन्थ यशोविजय कृत 'श्रीपाल रास' ( १३८८ ई० ), मुनि कुशल सिंह कृत 'नन्दराज चौपई' (१३७९ ई०), संस्कृत में नयचन्द्र कृत 'हम्मीर महाकाव्य' (१४२९ ई० ) हैं। इस भण्डार में 'कल्पसूत्र' की एक स्वर्णांकित प्रति भी है, जो १४७३ ई० में लिखी गई थी। (ख) वीरपुत्र आनन्द सागर ज्ञान भण्डार, कोटा : इस भण्डार में ४१५ हस्तलिखित ग्रन्थ संग्रहीत हैं। अधिकांश ग्रन्थ १७वीं से १९वी शताब्दी के मध्य प्रतिलिपिकृत हैं। इस भण्डार की प्राचीनतम पाण्डुलिपि Page #480 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन शास्त्र भंडार : ४५७ 'संदेह दोहावली वृत्ति' (प्रबोधचन्द्र कृत ) है, जिसकी प्रतिलिपि १३९१ ई० में को गई थी। (ग) बोरसली जैन मन्दिर का ग्रन्थ भण्डार, कोटा : यहाँ सभी भाषाओं के संग्रहीत ग्रन्थों की संख्या ७३५ है। इस भण्डार की प्राचीनतम पाण्डुलिपि शुभचन्द्र कृत 'पाण्डव पुराण' है जिसकी १४९१ ई० में प्रतिलिपि की गई थी । भट्टारक शुभचन्द्र कृत 'पल्य विधान रास', नरेन्द्र कीर्ति कृत 'चन्द्रप्रभ स्वामी विवाहलो', सकल कोति कृत 'चेतावणी', 'रविव्रत कथा', कुमुदचन्द्र कृत 'परवादरो परशील रास', वेगराज कृत 'नेमिविवाह पच्चीसी' आदि महत्त्वपूर्ण कृतियाँ हैं । वेगराज की रचनाएँ एक गुटके में खोजी गई हैं । इसी प्रकार महोपाध्याय विनयसागर का संग्रह भी उल्लेखनीय है जिसमें लगभग १५०० पाण्डुलिपियां प्राप्त हैं । २. बूंदी के ग्रन्थ भण्डार : ___यह नगर प्राचीन काल में वृन्दावती नाम से प्रसिद्ध था। १७वीं से १९वीं शताब्दियों के मध्य यह साहित्यिक गतिविधियों का केन्द्र रहा। यहाँ ६ ग्रन्थ भण्डार हैं(क) दिगम्बर जैन मन्दिर पार्श्वनाथ का ग्रन्थ भण्डार : इस भण्डार में ३३४ हस्तलिखित ग्रन्थ एवं गुटके हैं। अधिकांश ग्रन्थ हिन्दी एवं संस्कृत के तथा पूजा, कथा, स्तोत्र एवं व्याकरण सम्बन्धी हैं। इसमें ब्रह्मजिनदास विरचित 'रामचन्द्र रास' की १४७१ ई० की सुन्दर प्रतिलिपि है। इसी प्रकार हेमराज 'कृत 'भक्तामर स्तोत्र' को हिन्दी टीका एक दुर्लभ कृति है । (ख) दिगम्बर जैन मन्दिर आदिनाथ का ग्रन्थ भण्डार : ... इस भण्डार में १६८ हस्तलिखित ग्रन्थ हैं। इस संग्रह में 'ज्योतिष रत्नमाला' की सबसे प्राचीन प्रतिलिपि है जो टीका सहित 40 वैज ने १४५९ में लिखी थी। इसी प्रकार आशाधर कृत 'धर्मामृत' (१५०० ई० में प्रतिलिपिकृत), नेमिचन्द्र कृत 'त्रिलोकसार' (१४६१ ई०), धर्मदास कृत 'उपदेशमाला' (१५४० ई०) आदि इस भण्डार को प्राचीन पांडुलिपियाँ हैं। (ग) दिगम्बर जैन मन्दिर अभिनन्दन स्वामी का शास्त्र भण्डार : __ इस भण्डार में ३६८ हस्तलिखित ग्रन्थों का संग्रह है। इस भण्डार में अपभ्रंश कृति 'करकंडु चरिउ' की संस्कृत की टीका सहित अपूर्ण प्रति है । (घ) दिगम्बर मन्दिर महावीर स्वामी का शास्त्र भण्डार : इस भण्डार में गुटकों सहित १७२ ग्रंथ संग्रहीत हैं एवं अधिकांश हिन्दी व राजस्थानी भाषा के है । पुराण, पूजा, कथा एवं स्तोत्र साहित्य की अधिकता है । Page #481 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५८ : मध्यकालीन राजस्थान में जैनधर्म (ङ) नेमिनाथ दिगम्बर जैन मन्दिर का शास्त्र भण्डार : यह नगर का सबसे महत्त्वपूर्ण शास्त्र भण्डार है । यहाँ २२३ हस्तलिखित ग्रन्थ संग्रहीत हैं । इस भण्डार में नरसी के पुत्र गोकुल कृत 'माघवानल प्रबन्ध' कृति की १५९८ ई० में तैयार की गई अच्छी प्रतिलिपि है । इसके अलावा 'श्रेणिक चरित्र', डालूराम कृत 'चतुर्गति नाटक', विमलकोति कृत 'आराधनासार', श्रीधर कृत 'भागवत पुराण' आदि के नाम भी उल्लेखनीय हैं । यहाँ एक गुटके में १६वीं शताब्दी के विद्वान् बूचराज की कई छोटी-छोटी रचनाएँ प्राप्त हुई हैं । (च) स्थानकवासी शास्त्र भण्डार : यहाँ के स्थानक में भी कुछ हस्तलिखित ग्रंथ हैं, जिनकी संख्या अज्ञात है एवं सूचीकरण भी नहीं है । ३. नैणवा के शास्त्र भण्डार : भट्टारक सकल कीर्ति के गुरू पद्मनन्दि का नैणवा प्रमुख स्थान था । १७१६ ई० में केशवसिंह कवि ने 'भद्रबाहु चरित' की यहीं पर रचना की थी । इस नगर के जैन मन्दिरों में शास्त्र भण्डार हैं । (क) दिगम्बर जैन मन्दिर बघेरवाल का शास्त्र भण्डार : इस भण्डार में १०४ हस्तलिखित ग्रन्थ हैं । यहाँ के एक गुटके में कई अज्ञात रचनाओं का संग्रह है । कुछ रचनाएँ इस प्रकार हैं- भट्टारक सकलकीर्ति कृत 'सार सीखा मणि रास', ब्रह्म यशोधर कृत 'नेमिराजमति गोत', जिनसेन कृत 'पंचेंद्रिय गीत', सिंहदास कृत 'नेमिराजमती वेलि', ब्रह्म यशोधर कृत 'वैराग्य गीत' आदि लगभग ९६ छोटी-छोटी रचनाएँ संग्रहीत हैं । यह गुटका १५७८ ई० में रणथम्भौर में लिखा गया था । (ख) दिगम्बर जैन तेरापंथी मन्दिर का शास्त्र भण्डार : इस भण्डार में ८० हस्तलिखित ग्रन्थ हैं । अधिकांश हिन्दी, संस्कृत कृतियाँ पुराण, पूजा, कथा एवं चरित्र सम्बन्धी हैं । भट्टारक जगत्कीर्ति के शिष्य लालचन्द कृत 'सम्मेद शिखर पूजा' की प्रति सबसे महत्त्वपूर्ण है जो उन्होंने रेवाड़ी में १७८७ ई० में लिखी थी । इसके अलावा १६वीं एवं १७वीं शताब्दी के कपड़े पर लिखे हुए ३ यंत्र विशेष महत्त्व के हैं । १५२८ ई० में रचित ऋषिमंडल यंत्र सबसे प्राचीन है । (ग) दिगम्बर जैन मन्दिर अग्रवाल का शास्त्र भण्डार : इसके कुल ३७ हस्तलिखित ग्रन्थ हैं एवं विशेष उल्लेखनीय कोई ग्रन्थ नहीं है । ४. दिगम्बर जैन मन्दिर शास्त्र भण्डार, डबलाना : इस भण्डार में ४२३ ग्रन्थ संग्रहीत हैं । भण्डार में काव्य, चरित्र, कथा, रास Page #482 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन शास्त्र भंडार : ४५९ व्याकरण, आयुर्वेद एवं ज्योतिष विषयक ग्रन्थों का अच्छा संग्रह है। यहाँ की सबसे प्राचीन प्रति ‘षडावश्यक बालावबोध' की पांडुलिपि है जो १४६४ ई० में उज्जैन में प्रतिलिपि की गई थी। कतिपय अन्य उल्लेखनीय ग्रन्थ १४४२ ई० में मेहड़ कवि रचित 'आदिनाथ स्तवन', लालदास कृत इतिहास ‘सार समुच्चय', साधु ज्ञानचन्द विरचित 'सिंहासन बत्तीसी', केशवदास कृत 'रामयश' आदि । ५. शास्त्र भण्डार, इंद्रगढ़ : ____ यह भण्डार दिगम्बर जैन मन्दिर पार्श्वनाथ में अवस्थित है। इसमें हस्तलिखित ग्रंथों की संख्या २८९ है । इनमें सिद्धान्त, स्तोत्र, आचारशास्त्र से सम्बन्धित पांडुलिपियों की संख्या सर्वाधिक है । कुछ ग्रन्थ इसी नगर में लिखे हुए भी हैं। ६. जैन सरस्वती भवन, झालरापाटन : यह शास्त्र भण्डार ऐलक पन्नालाल दिगम्बर जैन सरस्वती भवन के नाम से प्रख्यात है। इसमें १४३६ हस्तलिखित ग्रन्थों का संग्रह है। संस्कृत, प्राकृत एवं राजस्थानी भाषा के ये ग्रन्थ सिद्धान्त, आध्यात्म, पुराण, काव्य, कथा, न्याय, एवं स्तोत्र आदि विषयों से सम्बन्धित हैं। इस भण्डार में उपलब्ध प्राचीनतम ग्रन्थ १४३१ ई० में प्रतिलिपि किया गया देवसेनकृत 'भावसंग्रह' है । इसके अतिरिक्त यहाँ मुद्रित साहित्य भी बहुत सा है। राजस्थान के अन्य शास्त्र भण्डार : उक्त शास्त्र भण्डारों के अतिरिक्त भी राजस्थान में कई छोटे-छोटे शास्त्र भण्डार हैं । कुछ इस प्रकार हैं-रघुनाथ ज्ञान भण्डार, सोजत; जयमल ज्ञान भण्डार, पीपाड़; जयमल ज्ञान भण्डार, जोधपुर, जैन रत्न पुस्तकालय; मंगलचन्द्र ज्ञान भण्डार, जोधपुर; ऋषि परम्परा सम्बन्धित ज्ञान भण्डार, प्रतापगढ़; जैन श्वेताम्बर स्थानकवासी ज्ञान भण्डार, अलवर; जैन दिवाकर ज्ञान भण्डार, ब्यावर; स्थानकवासी ज्ञान भण्डार, भिनाय; नानकराम ज्ञान मन्दिर, लाखन कोटड़ी, अजमेर आदि में भी ज्ञान भण्डार है, जो अधिकांश स्थानकवासी सम्प्रदाय से सम्बन्धित हैं। इसके अतिरिक्त-बालोतरा, बिलाड़ा, नाडोल, आसोप, गुडा, नाकोड़ा, लाडनू', पाली, बाड़मेर, पिंडवाड़ा, सादड़ी, जसोल, चोहटण, जैतारण आदि में भी छोटे-छोटे ज्ञान भण्डार एवं पुस्तकालय हैं । जालौर का मुनि कल्याण विजय का संग्रह, मेड़ता का पंचायती ज्ञान भण्डार, सिरोही का तपागच्छीय भण्डार, घाणेराव का हिमाचल सूरि ज्ञान भण्डार, उदयपुर के हाथीपोल की जैन धर्मशाला व देशनोक में डोसी जी के पास भी अच्छा संग्रह है। Page #483 -------------------------------------------------------------------------- ________________ __ ४६० : मध्यकालीन राजस्थान में जैनधर्म इस प्रकार राजस्थान की धरती अपने कलेवर में ज्ञान भण्डारों के माध्यम से ज्ञान के अनूठे रत्न छिपाये हुए हैं। इनमें सबसे महत्त्वपूर्ण जैसलमेर के भण्डार हैं जो दुर्लभ ताड़पत्रीय ग्रन्थों एवं काष्ठ फलकों के लिये प्रसिद्ध हैं। छोटे-छोटे ज्ञान भण्डारों में अधिकांशतः श्रावक वर्ग से सम्बन्धित धार्मिक विषयों की सामग्री संग्रहीत है। बड़े शास्त्र भण्डार ज्ञान विज्ञान की दृष्टि से बड़े महत्त्वपूर्ण है क्योंकि इनमें न केवल अजैन लेखकों की कृतियाँ मिलती हैं अपितु ज्योतिष, वैद्यक, व्याकरण, खगोल आदि के भी अमूल्य ग्रन्थ संग्रहीत है। कुछ शास्त्र भण्डार अज्ञात हैं तथा कुछ वर्गीकृत एवं सूचीकृत भी नहीं है । कतिपय विद्वान् एतदर्थ कार्यरत हैं। Page #484 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्याय अष्टम मध्यकालीन राजस्थान में जैनधर्म का मूल्यांकन एवं योगदान ८वीं से १८वीं शताब्दी तक राजस्थान में जैनधर्म के विकास के कतिपय आयामों के अवलोकन के उपरान्त उक्त कालान्तर्गत सांस्कृतिक जीवन धारा में जैनधर्म की भूमिका एवं योगदान का आकलन तथा मूल्यांकन करना अत्यावश्यक है । जैनधर्म की लब्धियां तथा स्थूल सिद्धियाँ राजस्थान के वैभव सम्पन्न सांस्कृतिक इतिहास का स्वर्णिम पृष्ठ ही नहीं अपितु भारतीय संस्कृति के इन्दधनुषी स्वरूप की भी एक मनोरम रंगाभा है, जिसकी दीप्ति इस सुदीर्घ काल खण्ड के झंझावातों में भी कभी धूमिल नहीं हुई। विवेच्य काल में राजस्थान के धार्मिक, सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक, वैचारिक एवं दार्शनिक जीवन में जैन संस्कृति की पावन धारा सतत प्रवाहित होती रही तथा युद्ध, हिंसा एवं विध्वंस के वातावरण में भी आप्तजनजोवन को करुणा, आध्यात्मिक कल्याण एवं अहिंसा के शान्त रस से आप्लावित करती रही। (अ) भौगोलिक परिप्रेक्ष्य का प्रभाव : __मध्यकालीन राजस्थान में जैनधर्म के प्रचार-प्रसार से उद्भूत स्वरूप का समग्र चित्र इस प्रदेश की भौगोलिक विशेषताओं के अनुरूप विकसित हुआ है । प्राकृतिक लक्षणों का जितना प्रभाव राजस्थान में जैनधर्म के संदर्भ में परिलक्षित होता है, उतना सम्भवतः अन्य किसी धर्म के संदर्भ में नहीं होता । मध्यवर्ती अरावली पर्वत श्रृंखला के. पश्चिम के मरुस्थलीय विस्तार की विशेषताएँ-जलवायु की विषमता, जल संसाधनों एवं प्राकृतिक वनस्पति की न्यूनता, प्रविकीणं बस्तियाँ एवं शुष्कता है, जबकि इसके पूर्व व दक्षिण-पूर्व में आवास योग्य अनुकूल जलवायु की उपलब्धि है। जैन-धर्म के श्वेताम्बर एवं दिगम्बर दोनों सम्प्रदाय राजस्थान में निरन्तर अस्तित्ववान रहे किन्तु इनके प्रभाव क्षेत्र में भौगोलिक पार्थक्य देखने को मिलता है । श्वेताम्बर सम्प्रदाय का प्रभाव क्षेत्र मूलतः अरावली के पश्चिम का प्रदेश रहा किन्तु न्यूनाधिक रूप से इसका वर्चस्व सम्पूर्ण राजस्थान में, सभी कालखण्डों में, सभी क्षेत्रों में भी रहा । दिगम्बर सम्प्रदाय का वर्चस्व अरावली के पूर्व व दक्षिणी-पूर्वी राजस्थान में ही विशेष: रूप से रहा और इसकी गादियां चित्तौड़, नागौर, अजमेर, जयपुर, बघेरा आदि अनुकूल. Page #485 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६२ : मध्यकालीन राजस्थान में जैनधर्म जलवायु वाले प्रदेशों में ही रहीं। इन पृथक्-पृथक् प्रभाव क्षेत्रों के कारणस्वरूप दो तर्क दिये जा सकते हैं : १. पश्चिमी राजस्थान श्वेताम्बर सम्प्रदाय का गढ़ रहा, अतः उन्होंने दिगम्बर आचार्यों को इधर पैर नहीं जमाने दिया । २. किन्हीं कारणों से दिगम्बर आचार्यों ने ही उस प्रदेश में जाना उचित नहीं समझा। प्रथम तक को इस आधार पर अस्वीकृत किया जा सकता है कि जैनधर्म में सदैव सहिष्णुता की भावना रहो है, चाहे अन्य धर्मों के संदर्भ में हो या धर्म के आन्तरिक पंथों के संदर्भ में । अतः श्वेताम्बर आचार्यों द्वारा किसी प्रतिरोध की सम्भावना की कल्पना भी नहीं की जा सकती। यह सम्भावना इस आधार पर भी अमान्य हो जाती है कि दिगम्बर प्रभाव यद्यपि पश्चिमी राजस्थान में नहीं बढ़ पाया किन्तु श्वेताम्बर प्रभाव तो पूर्वी व दक्षिणी-पूर्वी राजस्थान में भी निरन्तर ही निविरोध बना रहा, अतः अंतर्साम्प्रदायिक संघर्ष का प्रश्न ही नहीं उठता। द्वितीय सम्भावना ही अधिक उचित प्रतीत होती है। पश्चिमी राजस्थान की जलवायु की विषमताओं, जल साधनों की न्यूनता आदि के कारण दिगम्बर आचार्यों ने उधर अधिक जाना उचित नहीं समझा होगा। दोनों सम्प्रदायों के जैनाचार्यों का निरपेक्ष दृष्टि से आचारिक अध्ययन करने पर स्पष्ट है कि दिगम्बर आचार्यों का जीवन अपेक्षाकृत अधिक मान्यताओं में बँधा हुआ व कठोर है। सर्वथा दिगम्बर रह कर दिन में तीन गर्मी व रात्रि में कठोर शीत के वैषम्य को निरन्तर सहन करना दुष्कर है। दिगम्बर आचार्यों के चर्या नियम अधिक कठोर होने के कारण उनका निर्वाह इस प्रविकीर्ण आबादी वाले प्रदेश में होना भी कठिन ही था, अतः दिगम्बर आचार्यों ने इधर जाना उचित नहीं समझा होगा। पूर्वोक्त दोनों प्रभाव क्षेत्रों के लगभग मध्य में चित्तौड़ ( मेवाड़ ) की स्थिति है, जो भौगोलिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण होने के कारण जैनधर्म के प्रसार की दृष्टि से भी स्वयमेव महत्त्वपूर्ण हो गई। दक्षिण से मालवा व गुजरात होकर उत्तरी भारत के सांस्कृतिक हृदयस्थल दिल्ली तक पहुँचने का एक महत्त्वपूर्ण मार्ग चित्तौड़ ( मेवाड़) होकर ही था अतः दक्षिण की तरफ गुजरात व मालवा से राजस्थान में सम्पर्क का केन्द्र चित्तौड़ ही अधिक रहा। वैसे अरावली के पश्चिम के मार्ग के केन्द्र में आबू प्रदेश व दिल्ली-मालवा के मार्ग में केन्द्रीय स्थिति हाड़ौती प्रदेश की थी, किन्तु चित्तौड़ की केन्द्रीय स्थिति की फिर भी उपेक्षा नहीं हो सकती थी। अतः मध्यकालीन जैन इतिहास इस तथ्य का साक्षी है कि चित्तौड़ ही राजस्थान का एकमात्र ऐसा केन्द्र था जहाँ श्वेताम्बर व दिगम्बर दोनों सम्प्रदायों का वर्चस्व व केन्द्र रहा । खरतरगच्छ के आचार्यों का यह महत्त्वपूर्ण केन्द्र था तो दिगम्बर आचार्य परम्परा की गादी भी दक्षिण में उज्जैन Page #486 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मध्यकालीन राजस्थान में जैनधर्म का मूल्यांकन एवं योगदान : ४६३ यहाँ से भिन्न-भिन्न शाखाएँ 1 से बारों व बारों से चित्तौड़ ही आकर स्थिर हुई थी । विभिन्न दिशाओं में प्रसारित हुई थीं। यही नहीं, १५वीं १६वीं शताब्दी में लोंका शाह द्वारा नया पंथ प्रारम्भ करने पर उसके राजस्थान में प्रचार का भी चित्तौड़ ही प्रमुख केन्द्र रहा । स्थानकवासी पंथ से तेरापंथ का उदय भी मेवाड़ प्रदेश में ही हुआ । मेवाड़ या चित्तौड़ प्रदेश से दिगम्बर प्रभाव क्षेत्र की भी एक निश्चित दिशा व क्षेत्र देखने को मिलता है, जो चित्तौड़ से दिल्ली मार्ग के आसपास का क्षेत्र है । स्पष्टतः उत्तरी भारत का राजनीतिक व सांस्कृतिक केन्द्र दिल्ली ही रहा है । अतः दिगम्बर आचार्यों का पादविहारी क्षेत्र चित्तौड़ से आगे अरावली से टकराकर पूर्व में ही बघेरा, अजमेर, नागौर, चातसू, आमेर, जयपुर आदि में अपनी गादियाँ स्थापित करता हुआ दिल्लो तक बढ़ा हुआ दिखाई देता है । यह सम्पूर्ण क्षेत्र अनुकूल जलवायु की पेटी थी । मेवाड़ के दक्षिण में दिगम्बर आचार्यों का एक प्रवास केन्द्र वागड़ प्रदेश में ईडर तक देखने को मिलता है । धुलेव में तो काष्ठा संघ व मूल संघ दोनों की गादियाँ रहीं । स्पष्टतः ये भी प्राकृतिक दृष्टि से सरसब्ज प्रदेश हैं और बहुत कुछ मालवा व गुजरात के ही प्रकृतिक अंग हैं । अतः जैनाचार्यों के लिये भौगोलिक अतिशयताओं के दृष्टिकोण से प्रतिवाधित क्षेत्र नहीं थे । पश्चिमी श्वेताम्बर प्रभाव क्षेत्र को गुजरात व दक्षिण से जोड़ने वाला भौगोलिक केन्द्र अर्बुदमंडल रहा अतः जैनधर्म के श्वेताम्बर सम्प्रदाय का भी यह सबसे बड़ा सांस्कृतिक केन्द्र रहा। इस क्षेत्र के छोटे-छोटे गाँवों में भी सुन्दर जैन मन्दिर हैं । राजस्थान में प्रचलित कई गच्छों की उत्पत्ति यहीं से हुई । चंद्रावती, पिंडवाड़ा, बसंत - गढ़, सिरोही, आबू पर्वत आदि इस मंगल के महत्वपूर्ण लघु केन्द्र रहे । राजस्थान में जैनधर्म के स्वरूप निर्धारण में अरावली पर्वत की महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है । विदेशी आक्रमणकारियों के मार्ग निर्धारण में इस पर्वत की स्थिति का बहुत महत्व रहा । पश्चिम का क्षेत्र शुष्क होने के कारण बहुत कम आक्रमणकारियों का मार्ग रहा । दिल्ली में केन्द्रीय मुस्लिम सत्ता स्थापित हो जाने के पश्चात् तो दक्षिण की तरफ जाने वाले मार्ग राजस्थान में मेवाड़ व हाड़ौती से होकर ही थे । अतः हाड़ौती क्षेत्र में दिल्ली - मेवाड़ में सर्वदा संघर्ष की बहुत से जैन मन्दिरों को क्षति जैन स्मारकों का विपुल विध्वंस दृष्टिगोचर होता है । स्थिति रहने के कारण पूर्वी व मध्य राजस्थान में भी पहुँची । दिल्ली शासकों के लिये दक्षिण आवागमन के लिये मार्ग अपनाना कई दृष्टियों से असुविधाजनक था अतः ये अरावली के पश्चिम का प्रदेश भौगोलिक दृष्टि से अपेक्षाकृत सुरक्षित क्षेत्र रहे और आक्रमण काल में यहाँ शास्त्र भण्डारों की स्थापना कर महत्वपूर्ण साहित्य, प्रतिमाओं आदि को सुरक्षित रखा गया । जैसलमेर के मन्दिरों में ८,००० से भी अधिक प्रतिमाएँ हैं जो राजस्थान के विभिन्न क्षेत्रों से लाई गई थीं । Page #487 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६४ : मध्यकालीन राजस्थान में जैनधर्म यहाँ के जैन ग्रन्थ भण्डार तो विश्व प्रसिद्ध हैं । पूर्वोक्त सैनिक मार्गों के मध्य के स्थानों पर शास्त्र भण्डार अधिकांशतः मुगल काल के उपरान्त ही स्थापित किये गये । धर्म की आन्तरिक विशेषताओं के साथ प्राकृतिक विशेषताओं के सामंजस्य से उभरा जैन धर्म का ऐसा स्वरूप निश्चित रूप से विलक्षण है । हुआ (ब) जैन संस्कृति के आधारभूत स्तम्भ : जैन संस्कृति के इस गरिमामय कालखण्ड का गहन अवलोकन करने के उपरान्त कुछ निष्कर्ष और आधारभूत संस्थाएँ, सुदृढ़ स्तम्भ के रूप में हमारे समक्ष उभर कर आती हैं, जिनके अभाव या दृढ़ता में कमी आने से संस्कृति का यह भव्य प्रासाद कभी भी ढह सकता था । राजस्थान में जैनधर्म के ये स्तम्भ कतिपय महत्त्वपूर्ण जैन संस्थाएँ हैं जिन्होंने सुदृढ़ नींव की भाँति आधार प्रदान कर जैन संस्कृति की गतिशीलता को संवद्धित किया है । १. जैनाचार्य या श्रमण वर्ग : 'श्रमण' शब्द समभाव, श्रमशीलता और वृत्तियों के उपशमन का परिचायक है । जैन संघ के संगठन में साधु-साध्वी वर्ग पूर्णतः वीतरागी, निस्पृह, निःस्वार्थ, शास्त्रोक्त कठोर एवं मर्यादित जीवन व्यतीत करने वाला एक तपःपूत एवं पादविहारी समुदाय है, जिसको सम्पूर्ण भारत के किसी भी धर्म के संन्यासी वर्गं से तुलना करने पर मूर्तिमंत तीर्थ की संज्ञा से अभिहित करने में कोई अतिशयोक्ति नहीं है । कथनो एवं करनी में एकरूपता रखकर नित्य उपदेश देने वाला निग्रंथ, अनागार, असुरक्षित, भिक्षुक, अपनी ही श्रम साधना पर जीवित एवं लोक कल्याणार्थ समर्पित जीवन लिये, यह अपरिग्रही समुदाय परिग्रही श्रावक समाज को नैतिक एवं आध्यात्मिक उन्नयन, परोपकारी चिंतन, सात्विक जीवन तथा धर्म की कलापूर्ण, पवित्र एवं शाश्वत निर्मितियों के सर्जन के लिये निरन्तर उद्बोधित करता रहा । समाज से न्यूनतम लेकर अधिकतम देना ही इनका जीवनोद्देश्य रहा | समाज के निम्नतम वर्ग से लेकर राजा और सम्राट् तक का भी समपूज्य यह वर्ग, जन जीवन के निकट सम्पर्क में रहकर, सहज, सरल एवं ग्राह्य लोकभाषा में, मनोरंजक कथाओं के माध्यम से आध्यात्म के गूढ़ तत्त्व को उपदेशितः करता रहा । लोकमानस व जनजीवन से लेकर राजमहलों के अंतरंग परिप्रेक्ष्य तक के सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक, धार्मिक व ऐतिहासिक तथ्यों को यह वर्ग अपनी विद्वत्ता से आकलित कर लोकभाषा में कलात्मक रूप से निबद्ध कर साहित्य सृजन करता रहा । इन्होंने भविष्य दृष्टि रखकर, अनागत विध्वंस को भांपकर महत्त्वपूर्ण ग्रन्थों की असंख्य प्रतिलिपियाँ तैयार करवाई और उनकी सुरक्षा के समुचित प्रबन्ध हेतु शास्त्र भण्डार निर्मित करवाये । यह वर्ग सदैव प्रेरणा केन्द्र रहा। जैन अभिलेखों में सर्वत्र किसी Page #488 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मध्यकालीन राजस्थान में जैनधर्म का मूल्यांकन एवं योगदान : ४६५ आचार्य के उपदेश से ही मन्दिर निर्माण, प्रतिष्ठा आदि सम्पन्न होने का उल्लेख मिलता है । वस्तुतः अपने जीवन की निर्मलता व पवित्रता के कारण ही ये श्रेष्ठी-जनों राजाओं एवं श्रावकों के पूज्य रहे । यद्यपि कभी-कभी महत्वाकांक्षाओं या व्यक्तिगत वर्चस्व हेतु ये संघ को तोड़ कर छोटे पंथ, गण, गच्छ आदि निर्मित करते रहे, किन्तु पृथकत्व का आधार भी हमेशा शास्त्रोक्त नियमों का पालन या च्युति ही होता था, अतः श्रावकों की श्रद्धा कभी भी नहीं डगमगाई । यद्यपि अपवाद जैन संतों में भी हुए हैं किन्तु अपवादों से कभी नियम नहीं टूटते हैं। २. श्रेष्ठी वर्ग : आर्थिक समृद्धि एवं श्री सम्पन्न श्रेष्ठी वर्ग, जिनमें से कुछ अपने बुद्धि-चातुर्य, कूटनीति एवं अपूर्व स्वामिभक्ति के कारण अप्रतिम राजनीतिज्ञ भी हुए हैं, सदैव जैन संस्कृति के महत्त्वपूर्ण आधार स्तम्भ रहे । विवेच्य काल में ऐतद्संदभित उदाहरण प्रत्येक कालखंड में हैं। राजस्थान की जैन संस्कृति में ऐसे कई श्रेष्ठी हुए, जिन्होंने राजसत्ता को आर्थिक पोषण ही नहीं दिया, अपितु अपनी वीरता व बौद्धिक क्षमताओं से राज्यों को भी सुरक्षित रखा। जैनाचार्यों को स्वयं सम्मान देकर राज्याध्यक्षों व सम्राटों के सम्मुख सम्माननीय बनाया। राजाओं के द्वारा प्रसन्न होने पर अपनी श्रीवृद्धि या स्वार्थ के निमित्त कभी मुंह नहीं खोला, अपितु जैन धर्म के उत्कर्ष, अमारि-घोषणा व तीर्थ रक्षा के लिये ही राजाज्ञाएँ चाहीं। कर्मचन्द्र आदि कई मंत्री ऐसे ही हुए जिन्होंने जैन धर्म के संरक्षण एवं प्रवर्द्धन के लिये राज्यसत्ता को उन्मुख करने के प्रयास किये । जैन संस्कृति की भौतिक उपलब्धियाँ मन्दिर, उपाश्रय, मूर्तियाँ, साहित्य, चित्र, स्मारकादि के परिमाण में वृद्धि मुख्यतः धनिक वर्ग द्वारा ही की गई। इनके द्वारा अधिकाधिक न्यायपूर्वक धनोपार्जन का उपयोग लोकोपकारी कार्यों के निमित्त किया जाता था। ३. मन्दिर एवं उपाश्रय : जैन संस्कृति में 'मन्दिर' नामक संस्था केवल पूजा या उपासना का केन्द्र ही नहीं अपितु साहित्य-संरक्षण, साहित्य-सृजन, अध्ययन-अध्यापन एवं सामूहिक एकत्रीकरण के द्वारा सामाजिक संगठन का भी प्रेरक हेतु रही । मन्दिरों का यह बहुआयामी आकर्षण श्रावकों को अपनी रुचि के अनुसार किसी न किसी रूप में वहाँ जाने के लिये बाध्य करता रहा। मन्दिरों का सात्विक, आध्यात्मिक, शैक्षिक व पवित्र वातावरण हमेशा व्यक्ति के दुर्विचारों का शमन कर नैतिकता जागृत करता रहा । एक ओर तो कलापूर्ण मन्दिर एवं उपाश्रय श्रेष्ठियों के धन प्रदर्शन के माध्यम बने, वहीं इनकी सांस्कृतिक उपादेयता भी राजस्थान में जैन धर्म के उन्नयन में बड़ी सार्थक रही। जैन मन्दिर साधना केन्द्रों के रूप में समाज के सभी वर्गों का बिना जाति भेद के स्वागत करते रहे । यही वे केन्द्र रहे जहाँ अपरिग्रही साधु, परिग्रही श्रावकों को धर्म की कल्याणकारी प्रवृत्तियों में प्रवृत्त करते रहे। Page #489 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६६ : मध्यकालीन राजस्थान में जैनधर्म ४. श्रावक वर्ग : यह वर्ग उक्त तीनों संस्थाओं को पोषित कर उनके वर्चस्व एवं श्रीवृद्धि में हमेशा सहायक रहा । वस्तुतः जैन संघ में यह बड़ी महत्त्वपूर्ण बात रही है कि श्रावक वर्ग परिग्रही होते हुए भी नित्य उपदेश श्रवण के निमित्त आचार्यों के सान्निध्य में जाता रहा । अमूर्तिपूजक पंथ विकसित होने पर भी इस उद्देश्य के लिये उपाश्रयों का सृजन कर लिया गया । श्रावक वर्ग की यह मूल प्रवृत्ति श्लाघ्य ही नहीं, अपितु अन्य धर्मावलम्बियों के लिये भी प्रेरणा का स्रोत रही। श्रावक वर्ग में जैन-अजैन बिना ऊँच-नीच के भेद भाव के सम्मिलित होते रहे हैं। जैन मत के सिद्धान्तों में अन्तनिहित मानवीय भावना, श्रमणों के श्रेष्ठ चरित्र एवं जैनधर्म की अच्छी छवि के कारण पूर्व-मध्यकाल में कई नई जैन जातियाँ और गोत्र अस्तित्व में आये, तथा जैन मत में दीक्षित होकर असंख्य जन समुदाय ने श्रावक धर्मपालन प्रारम्भ किया । (स) राजस्थान में जैन धर्म के योगदान का स्वरूप : १. नैतिक मूल्यों की स्थापना : जैन मान्यताओं के अनुसार अनैतिकता को जन्म देने वाले-मद्य, मांस, चोरी, शिकार, वेश्यागमन, परस्त्रीगमन और जुआ-इन सात कुव्यसनों का निषेध बताया गया है। जैन साधु अपने जीवन व व्यवहार में इनका पालन कर इनको नित्य स्नेहपूर्वक उपदेशित करते थे और अपने सम्पर्क में आने वाले सभी लोगों को अनैतिक कृत्यों को त्यागने की प्रेरणा देते थे । स्वाभाविक रूप से जैन साधुओं के उपदेश स्वयं के आचरण की पवित्रता के कारण अधिक प्रभावी होते थे । अतः समाज में नैतिक मूल्यों के उन्नयन में सदैव सहायक रहे और सार्वजनिक जीवन में नैतिकता बनी रही । सामान्यतः जैन धर्मावलंबियों में आचरण शैथिल्य या चारित्रिक दुर्बलताएँ नहीं होती हैं और कुव्यसनों से दूर रहना उनके संस्कारों में ही अंतर्निहित होता है, अतः बौद्धिक क्षमताओं में भी वे अन्य वर्गों से उच्चतर होते हैं। कुव्यसनों में धन का दुरुपयोग न करने से आर्थिक रूप से भी सम्पन्न होते हैं। समाज के अन्य वर्गों की दृष्टि में जैन समाज सदा से नैतिक मूल्यों का संरक्षक माना जाता रहा है । २. अहिंसा का दर्शन : ___सर्वे भवन्तु सुखिनः', 'जिओ और जीने दो' तथा 'आत्मवतसर्वभूतेषु' आदि अहिंसा मूलक विचार जैन धर्म को बहुमूल्य देन हैं । यद्यपि अहिंसा का दर्शन भारत के अन्य धर्मों ने भी उद्घोषित किया है, किन्तु उसे क्रियात्मक अनुपालन द्वारा अनुकरणीय बनाने का श्रेय जैन धर्म को ही है । मध्यकाल में क्षत्रिय, ब्राह्मण आदि जैनेतर जातियां अधिकांशतः मांसाहारी थीं। पशुबलि और आखेट स्वाभाविक कर्म थे। किन्तु पूर्व Page #490 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन शास्त्र भंडार : ४६७ मध्यकाल में जैनाचार्य ही एकमात्र ऐसी प्रेरणा-स्रोत थे, जो कई क्षत्रिय जातियों को उद्बोधित कर हिंसा का परित्याग करवा सके और जैन मत में दीक्षित कर सके । अहिंसा के दर्शन की,हिंसक व युद्ध प्रिय समुदाय पर, अहिंसक तरीके से इतनी बड़ी विजय का विश्व के इतिहास में संभवतः कोई उदाहरण नहीं है । जातीय संस्कार मुश्किल से छूटते हैं, किन्तु मध्यकालीन इतिहास इस बात का साक्षी है कि जैन धर्म को अपनाने के पश्चात् ये क्षत्रिय जातियां पूर्णतः अहिंसक हो गई और अहिंसा के विधिरूप अर्थात् दया, अनुकम्पा, स्नेह, सर्वप्राणियों के प्रति मंगल भावना आदि को कट्टर प्रचारक बन गईं। ___ जैन अहिंसा का स्वरूप मतावलंबियों को युद्ध से विरत रखकर जाति और राष्ट्र की अस्मिता पर आंच आने देने का कभी नहीं रहा। राजस्थान के विभिन्न प्रदेशों में मध्यकाल में कई वीर, सेनापति और कुशल योद्धा हुए हैं, जिन्होंने मातृभूमि की रक्षार्थ अपने प्राणों की आहुति दे दी। जैन अहिंसा-दर्शन का उद्देश्य यह अवश्य रहा कि मनुष्य अपने अंतःकरण की आवाज पर स्वैच्छिक शस्त्र-त्याग करे । किन्तु कर्तव्य पालन और स्वामिभक्ति के आगे जैन वीरों ने अहिंसा के सिद्धांत को भी नकार कर अपूर्व देश प्रेम का परिचय दिया। फिर भी जैन धर्म में अहिंसा का दर्शन सदैव आचरणगत रहा है। मध्यकालीन अभिलेखों में अमारि घोषणाओं के कई लेख और मुगल काल में कई फरमान देखने को मिलते हैं जिनसे स्पष्ट है कि ये जैनधर्म के आचार्यों, श्रावकों, मंत्रियों या श्रेष्ठियों की प्रेरणा से ही निकाले गये थे। ३. लोकोपकारी प्रवृत्तियों को प्रोत्साहन : जैन संस्कृति में धर्म केवल वैयक्तिक आचरण ही नहीं, अपितु सामाजिक आव. श्यकता और समाज-कल्याण व्यवस्था का महत्त्वपूर्ण घटक भी है। अपरिग्रह के दर्शन के भी २ फलितार्थ हैं, पहला-स्वयं के निर्वाह लायक अर्थोपार्जन और दूसरा अपनी पूर्ण क्षमता से न्यायपूर्वक अपने व दूसरों के निर्वाह के लायक अर्थोपार्जन । दूसरा अर्थ ही जैन साधुओं का अभीष्ट रहा । इसके अनुसार स्वयं के निर्वाह के उपरान्त शेष सेवा, दान, दया आदि की मान्यतानुसार व्यय होना चाहिए। एतदर्थ आहार-दान, ज्ञानदान, औषधदान और अभय-दान, शास्त्रोक्त दान है। इस प्रकार के औचित्यपूर्ण दर्शन के प्रचार ने जैन समाज में लोकोपकारी प्रवृत्तियों को हमेशा जीवित रखा । सामान्यतः जैन समाज विवेच्य काल में आर्थिक रूप से सम्पन्न था । सात्विक जीवन व्यतीत करने के कारण उनकी व्यक्तिगत आवश्यकताएँ न्यूनतम होती थीं, अतः जैनाचार्यों के उद्बोधन व समाज की आवश्यकताओं के अनुरूप लोक कल्याणकारी कार्यों में जैन वर्ग हमेशा प्रवृत्त रहा। चिकित्सालय, पाठशालाएँ, कुएँ, बावड़ियाँ, छात्रवृत्ति, अकाल व बाढ़ के समय सहायता, धर्मशालाएँ, निर्धनों की सहायता आदि विविध प्रकार के मानवोपकारी कार्य प्रारम्भ से हो किये जाते रहे। Page #491 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६८ : मध्यकालीन राजस्थान में जैनधर्म राजस्थान के विभिन्न प्रदेशों में जैनों की उदार भावना, दानशीलता, परोपकार आदि के कई प्रमाण बिखरे पड़े हैं। वागड़ प्रदेश का अमात्य साल्हा दुष्काल के समय २,००० लोगों को प्रतिदिन भोजन करवाता था। अनेकों जैन राजनयिकों ने राजाओं को भी इस प्रकार के कार्य करने के लिये प्रवृत्त कर उनके राज्यों को 'बहुजन हिताय बहुजन सुखाय' व सही अर्थों में कल्याणकारी राज्य की मान्यता दिलवाई। जैनधर्म के द्वारा इस प्रकार के संस्कारों का प्रवर्तन मानवता के कल्याणार्थ बहुत बड़ा योगदान हैं। ४. सात्विक जीवन की प्रेरणा : धर्म का मूल केन्द्र व्यक्ति है, जिसकी जीवन पद्धति की पवित्रता व सात्विकता समाज को भी प्रभावित करती रही है । मध्यकाल में सात्विक जीवन की प्रेरणा देने में जैनधर्म का अपूर्व योगदान था। सामान्यतः जैन मतावलंबी एकपत्नीव्रती ही रहे । कतिपय अभिलेखों में द्विभार्या उल्लेख भी मिलते हैं, जिन्हें अपवाद ही माना जाना चाहिए । यह भी सम्भव है कि अन्य जातियों से धर्मांतरण कर जैन मत में दीक्षित व्यक्ति अपनी पूर्ववर्ती एकाधिक पत्नियों का त्याग नहीं कर पाये हों। जैन मतावलंबी शुद्ध शाकाहारी रहे और अन्य वर्गों को भी इनसे निरन्तर मांसाहार त्यागने को प्रेरणा मिलती रही। मांसाहार को बढ़ावा देने वाली बलि-प्रथा तो मध्यकाल की उत्तरवर्ती शताब्दियों में धीरे-धीरे लुप्त-प्राय हो गई । मुगल सम्राट अकबर जैनाचार्यों और जैन दर्शन से प्रभावित होकर अपने पश्चात्वर्ती जीवनकाल में पूर्ण अहिंसक हो गया था। उसने आखेट व मांसाहार त्याग दिया था। जैन मत में ऐसे खानपान का व जीवन पद्धति का सर्वथा निषेध रहा है, जिससे जीवन में तामसिक वृत्तियों को बढ़ावा मिले । जीवन में सात्विकता, पवित्रता व निर्मलता लाकर उदात्त भावों की सृष्टि करना जैनधर्म के उपदेशों की महत्वपूर्ण देन है। ५. सर्वधर्म एवं प्राणी समभाव: __जैनधर्म में धार्मिक सहिष्णुता की प्रवृत्ति आद्यकालीन रही है । जाँति-पाँति, ऊंचनीच, जैन-अजैन आदि भेदों को कभी मान्यता नहीं रही । जैन साधुओं के लिये कुम्हार, बढ़ई आदि के यहाँ से भी आहार लेने का विधान है । तीर्थंकरों के समवशरण में जैसे सभी प्राणी धर्मोपदेशन के पात्र थे, उसी प्रकार आज तक भी जैन साधुओं के व्याख्यान जैनाजैन सभी को लाभान्वित कर रहे हैं। मंदिर एवं उपाश्रय प्रवेश किसी के लिये भी निषिद्ध नहीं रहे । मेवाड़ में केसरिया जी तथा नाकोड़ा पार्श्वनाथ, महावीर जी आदि सभी के पूज्य हैं। नाडोल के चौहान कीर्तिपाल के ११६१ ई० के ताम्रलेख के प्रारंभिक मंगलाचरण में ब्रह्मा, विष्णु व शिव को जैन जगत में प्रसिद्ध कहा गया है। ओसिया के सच्चिया Page #492 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन शास्त्र भंडार : ४६९ माता के प्रांगण में स्थित सूर्य मंदिर में पिछले बाह्य मंडोवर भाग पर पार्श्वनाथ की मूर्ति का अंकन है। आबू के विमल वसहि में कालियादमन, चाणूरवध, तथा लूण वसहि में कृष्णजन्म, दधिमंथन, रास लीला आदि के दृश्य हैं। सांगानेर के सिंधी जैन मंदिर के स्तंभों पर रासलीला एवं कृष्ण के विभिन्न रूपों का अंकन है। हिन्दू देवी-देवताओं को भी जैन धर्म में विविध रूपों में आत्मसात कर लिया गया है। कुबेर, सरस्वती, अंबिका, वैष्णवी आदि की कई प्रतिमाएँ जैन मंदिरों में हैं। महिषमर्दिनी को सच्चियमाता के रूप में समस्त जैनों द्वारा पूजा जाता है। गणेश व भैरव भी जैनियों द्वारा समपूज्य हैं। जैनाचार्यों के अनेकों हिन्दू आचार्यों व पंडितों से शास्त्रार्थ होने के उल्लेख हैं । किन्तु मध्ययुग के जैन धार्मिक आन्दोलन की सबसे बड़ी विशेषता यह रही है कि देश के अनेक धार्मिक मतों का खंडन करते हुए भी जैनाचार्यों ने मुस्लिम धर्म के विरुद्ध एक शब्द भी नहीं कहा और न इनका किसी इस्लामी संत से शास्त्रार्थ होना पाया जाता है। किन्तु हीरविजय, जिनचंद्र आदि के अबुलफजल आदि मुस्लिम संतों एवं विद्वानों से विचार-विमर्श करने के प्रमाण हैं। जैन, मुस्लिम मत के प्रति अपेक्षाकृत सहिष्णु हो रहे। सिद्धराज जयसिंह ने उन लोगों को कड़ा दंड दिया था जिन्होंने मुसलमानों की मस्जिदों को क्षति पहुँचाने का थोड़ा भी विचार किया था। वीर धवल के महामात्य वस्तुपाल ने तो स्वयं राज्य के खर्च से अनेक मस्जिदों का निर्माण तक करा दिया था। ६. संघ शक्ति एवं एकता को प्रोत्साहन : ऋषि मुनि एव देवदर्शनार्थ तीर्थ यात्रा जैन धर्म में संघों के रूप में होती रही। संघ का नायक संघपति कहलाता था, जो गौरवपूर्ण पद माना जाता था। मध्यकाल में जैनाचार्यों के सान्निध्य में अनेकों चातुर्विध संघ यात्राएँ हुई, जो जैन संघ में एकत्व बनाये रखने में सहायक सिद्ध रहीं । स्थानकवासी पंथ के उदय के पश्चात् ये यात्राएं आचार्यों के चातुर्मास वाले स्थानों पर भी होती रहीं । सामाजिकता की वृद्धि, संगठन कौशल, एकता आदि की दृष्टि से जैन संघ को इनका योगदान अति महत्वपूर्ण है। ७. सैनिक, प्रशासनिक एवं राजनीतिक क्षेत्र: ___ राजस्थान के मध्यकालीन इतिहास में जैन धर्मानुयायी अनेक पराक्रमी पुरुषों, योद्धाओं, प्रशासकों, राजनीतिज्ञों व कूटनीतिज्ञों के उदाहरण हैं, जिन्होंने अपूर्व स्वामी १. श्याम सुन्दर दीक्षित, १३वी, १४वीं शताब्दी के जैन संस्कृत महाकाव्य, पृ० ८६ २. गुजराती मध्यकालीन राजपूत इतिहास, पृ० २७३ ३. गुजरात का जैनधर्म, मुनि जिनविजय, पृ० ५ Page #493 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७० : मध्यकालीन राजस्थान में जैनधर्म भक्ति, राजनीति, कूटनीति, अर्थनीति, युद्धनीति आदि के द्वारा तत्कालीन राज्य प्रबंध व इतिहास निर्माण में अपूर्व योगदान दिया । इसकी पुष्टि अनेकों अभिलेखों, ताम्रपत्रों, रुक्कों, पट्टे - परवानों, ग्रन्थों, वंशावलियों, ख्यातों व भाटों की बहियों आदि से होती है । सामान्यतः इनकी योग्यताओं से प्रभावित होकर इन्हें सर्वोच्च पदों पर नियुक्त किया जाता था। इनके प्रति शासकों के अगाध विश्वास का अनुमान इन्हीं तथ्यों से लगाया जा सकता है कि अधिकांश को पीढ़ी दर पीढ़ी उन्हीं पदों पर रखा गया, खजानों की चाबियाँ उनके पास रहने दीं, सामरिक महत्व के किले व नेतृत्व में सौंपा, सेनानायकों के पद पर नियुक्त कर शत्रु के विरुद्ध संचालन का दायित्व दिया, सुलह व संधिवार्ताओं तथा राजकाज के कामों में भी जैन समुदाय की सेवाएं बड़े पैमाने पर प्राप्त कीं । गढ़ों को उनके संघर्ष में सैन्य - अन्य छोटे बड़े मध्यकाल के ऐसे जैन गौरवपात्र मेवाड़ राज्य में जालसी मेहता, भारमल्ल, भामाशाह एवं ताराचन्द, रंगोजी, बोलिया, सिंघवी दयालदास, मेहता अगरचन्द तथा मेहता मालदास, प्रधान एवं दीवान पदों पर नवलखा रामदेव, नवलखा सहणपाल, तोलाशाह, कर्माशाह, बोलिया निहालचंद, कावड़िया भामाशाह, कावड़िया जीवांशाह अक्षयराज, दयालदास आदि, जोधपुर राज्य में राव समरा एवं नरा भण्डारी, मुहणोत नेणसी, सिंधी इन्द्रराज ; प्रधान एवं दीवान पद पर भंडारी परिवार के कई वंशज, बीकानेर राज्य के मेहता कर्मचन्द्र बच्छावत, वेद मेहता, महाराव हिन्दूमल व कई दीवान, किशनगढ़, सिरोही, प्रतापगढ़, बांसवाड़ा, झालावाड़ आदि में भी कई रहे हैं ।" जयपुर राज्य में भी जैन दीवानों की लंबी परंपरा रही है, जिनमें रामचंद्र छाबड़ा, दीवान किशनचंद्र, भीमसिंह, महामंत्री मोहनदास, कल्याण दास, अजीतदास, संघी हुकमचंद झुंथाराम, श्योजीदास, अमरचंद, बालचंद छाबड़ा आदि कई उल्लेखनीय हैं । २ ८. आर्थिक उन्नयन में योगदान : राजस्थान की आर्थिक धुरी प्राचीन काल से ही जैन श्रेष्ठी वर्ग रहा है । सामान्यतः जैन मतावलंबियों का मुख्य कर्म 'व्यापारे वसति लक्ष्मी' के आधार पर वाणिज्य एवं व्यापार रहा है। पूर्व मध्यकाल व मध्यकाल में भी ग्रामीण क्षेत्र के कतिपय श्रावकों का मुख्य कर्म कृषि ही रहा किन्तु इसमें हिंसा का कुछ अंश देखकर अन्य जातियों से यह कर्म करवाया जाने लगा व स्वयं कृषि पदार्थों का विपणन करने लगे । जैन मत में खेतपालिया, न्याती, भंडशाली, संचेती, कोठारी आदि गोत्र कृषि कर्म से संबंधित माने गये है । १. देवकोठारी, जैसरा, पृ० ३०७-३३१, लेख 'देशी रियासतों के शासन प्रबंध में जैनियों का सैनिक व राजनैतिक योगदान' २. भँवरलाल जैन, जैसरा, पृ० ३३२-३३९ लेख 'जयपुर के जैन दीवान' ३. बलवंत सिंह मेहता, जैसरा, पृ० ३५०, लेख --- राजस्थान की समृद्धि में जैनियों का योगदान Page #494 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन शास्त्र भंडार : ४७१ मुख्यतः व्यापार एवं वाणिज्य पर अवलंबित होने से जैनधर्म में विभिन्न प्रकार के व्यापार के आधार पर दोषी, कपासी, कुम्भट, हिरन, सोनी, कावड़िया, फिरोदिया, गदैया, नानावाटी, लूणिया, हिंगड़, बोथरा, तलेसरा, गांधी, पटुआ, गन्ना, पारख, रांका आदि गोत्रों की उत्पत्ति हुई। व्यापार व वाणिज्य के लिये ये जातियां राजस्थान के विभिन्न हिस्सों में प्रवासित हुई जिसके फलस्वरूप आर्थिक क्षेत्र में प्रगति के साथ-साथ जैनधर्म का भी विस्तार हुआ। मध्यकाल में राजस्थान में चित्तौड़, आहड़, बसंतपुर, भीनमाल, चंद्रावती, आबू, जालौर, मंडोर, ओसिया, पाली, लोद्रवा आदि कई प्रमुख व्यापारिक केन्द्र थे। यहाँ के व्यापारी न केवल भारत में, अपितु देश-विदेश से भी आयात-निर्यात का व्यापार करने थे। पूर्व में चीन, बरमा, स्याम तथा पश्चिम में अरब व यूनान तक व्यापार होता था। राजस्थान में विदेशी आयात का माल भृगुकच्छ ( भड़ौंच) से आता था। ८६१ ई० के घटियाला अभिलेख में भाउड नामक श्रेष्ठी का उल्लेख है। दोषी गोत्र के चित्तौड़ के वैश्य व्यापारी तोलाशाह का व्यापार बंगाल व चीन तक होता था। चीन में इनकी पेड़ियाँ थीं । भड़ींच से आयातित माल बंजारों के द्वारा बैलगाड़ियों से चित्तौड़ आता था। शत्रुञ्जय का अन्तिम उद्धार करने वाला कर्माशाह इसी तोलाशाह का पुत्र था, जो महाराजा रत्नसिंह का अमात्य भी था । कर्माशाह ने गुजरात के बादशाह बहादुरशाह को युवराज अवस्था में विपत्ति के समय तक लाख रुपया नकद और एक लाख रुपयों का सूती व रेशमी कपड़ा दिया था। उसी के उपलक्ष्य में गुजरात का बादशाह बनने पर बहादुरशाह ने उसे शत्रुजय का जीर्णोद्धार करने व भविष्य में अपने द्वारा कोई जैन मंदिर नहीं तोड़ने का वचन दिया था। जैसलमेर के प्रसिद्ध सेठ थारूशाह भंसाली ने अतुल राशि व्यय करके शत्रुजय का प्रथम उद्धार करवाया था। भंसाली श्रेष्ठी वर्ग बड़े-बड़े भंडारों के स्वामी होते थे। इनका व्यापार ईरान व अफगानिस्तान तक होता था। ये सिंघु नदी से जहाजों के द्वारा भी व्यापार करते थे। जैसलमेर के ही रांका व पटवा जाति के सेठों ने अतुल धन व्यय करके यहाँ ऐसे अद्भुत महल व मन्दिर बनवाये, जिनकी शिल्प व कोरणी का काम अनुपम है । श्रेष्ठियों की परंपरा में जैसलमेर के पटवा जोरावलमल का नाम महत्त्वपूर्ण है। भारत में उनकी ४०० से अधिक पेड़ियाँ व दूकानें थीं। इनका स्थायी निवास उदयपुर था, किन्तु जैसलमेर, जोधपुर, बीकानेर, बूदी, टोक व इन्दौर के राज्यों के खजानों पर इनका पूर्ण प्रभुत्व था, क्योंकि ये इन राज्यों के खजांची थे । मेवाड़ जैसा १. बलवंत सिंह मेहता, जैसरा, पृ० ३५१ लेख-राजस्थान की समृद्धि में जैनयों का योगदान २. वही, पृ० ३५२ ३. वही Page #495 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७२ : मध्यकालीन राजस्थान में जैनधर्म ऐतिहासिक राज्य कई वर्षों तक इनके पास गिरवी रहा । इन्होंने कई तीर्थयात्रा संघ निकाले व अपने समय में दो करोड़ से अधिक रुपया दान-पुण्य में व्यय किया तथा दो करोड़ से अधिक रुपया आवास व धार्मिक भवनों के निर्माण में व्यय किया । जैसलमेर में इनके द्वारा बनवाये गये महल व हवेलो शिल्प की दृष्टि से आज भी अद्भुत है।' राजस्थान में अनेकों महत्वपूर्ण श्रेष्ठी प्रत्येक काल में अस्तित्व में रहे । 'कान्हड़दे प्रबंध' में जालौर के बड़े-बड़े व्यापारियों के उल्लेख है। चित्तौड़ में भामाशाह का श्वसुर अतुल संपत्ति का स्वामी था। भामाशाह का पिता भारमल १८ करोड़ का स्वामी व भारत प्रसिद्ध सेठ था। भामाशाह स्वयं ने अपनी अतुल संपत्ति मातृभूमि की रक्षार्थ राणा प्रताप को अर्पित कर दी । मध्यकाल के अन्य उल्लेखनीय जैन श्रेष्ठी-चंद्रावती निवासी धरणिग, कवीन्द्र बंधु यशोवीर, श्रेष्ठी यशोराज, नागपुरीय बरहड़िया, नागर श्रेष्ठी, बेसठ श्रेष्ठी, राल्हा, समधा, धांधल, जेल्हा, रामदेव नवलखा, वीसल गुणराज, धरणाशाह आदि हैं। औद्योगिक क्षेत्र में भी जैनों का वर्चस्व था । राजस्थान में उद्योग का प्राचीनतम केन्द्र बसंतपुर माना जाता है। यहाँ के जैनधर्म संघ ने सर्वप्रथम जैतक के नेतृत्व में जावर की खानों में उत्खनन का कार्य प्रारम्भ किया था, जहाँ से चाँदी, जस्ता और सीसा निकाला जाता था। जैतक संसार का पहला खनिज अभियन्ता, श्रमिक नेता और सहकार धर्मी था । जैनधर्म के इस मुखिया ने जावर में चन्द्रिका देवी का विशाल मन्दिर बनवाया था व १८ प्रदेशों के उत्खनन विशेषज्ञ बुलाये थे। वितल में उत्खनन करने के कारण इन्हें उस समय वैतालिक कहा जाता था, जिसका अपभ्रंश रूप जैन समाज की वर्तमान वैताला जाति है। संसार में सर्वप्रथम पीतल की देन इसी जावर खान को है । यहाँ तांबा व जस्ता एक साथ मिलता था, जिनके मिश्रण से पीतल बनता है। यहां के पीतल को ढली हुई मूर्तियां आज भी पिंडवाड़ा में विद्यमान हैं । जैना. चार्य हरिभद्रसूरि ने बसंतपुर का प्रमुख जैन तीर्थ एवं व्यापारिक केन्द्र के रूप में उल्लेख करते हुए लिखा है कि यहाँ के देश प्रसिद्ध व्यापारी दक्षिण में क्षितिप्रतिष्ठानपुर और पूर्व में चंपा जैसे सुदूर भागों में जाकर व्यापार करते थे और वे अत्यन्त धनाढ्य थे । लगभग १६ वीं शताब्दी तक बसंतपुर एक प्रमुख व्यापारिक नगर था। जैन श्रेष्ठियों, व्यापारियों, साहूकारों या महाजनों की भूमिका व्यापारिक क्षेत्र में शीर्षस्थ रही। बड़े व्यापारियों का कार्य कृषि उत्पादन की वस्तुओं का निर्यात तथा १. बलवंत सिंह मेहता, जैसरा, ५० ३५३ लेख-राजस्थान को समृद्धि में जैनियों का योगदान २. वही ३. वही, पृ० ३५४ ४. वही, Page #496 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन शास्त्र भंडार : ४७३ स्थानीय आवश्यकता के अनुसार वस्तुओं का आयात करना था। आयात-निर्यात के प्रमुख पदार्थ रेशम, बढ़िया कपड़ा, नील, चीनी, लोहा, तम्बाकू, अफीम, खजूर, सूखे मेवे, गेहूँ, चावल, फल, मसाले, नारियल, दवाइयां आदि थे। स्थानीय व्यापारी कपड़ा, कपास, अनाज, किराना, घी, गल्ला आदि का विनिमय करते थे। जैन श्रेष्ठी वर्ग का एक महत्वपूर्ण अर्थोपार्जन का साधन रुपयों का लेन-देन व ब्याज अर्जन भी रहा । १८वीं शताब्दी तक ग्रामीण अर्थव्यवस्था की धुरी इस प्रकार का साहूकार वर्ग ही रहा, जो समयानुकूल कृषकों की मदद करता रहा। इस प्रकार कृषि, व्यवसाय एवं उद्योग तीनों में भागीदार रहकर जैन व्यापारियों ने प्रदेश के आथिक उन्नयन में अत्यधिक योगदान 'दिया। ९. शैक्षिक एवं बौद्धिक उन्नयन में योगदान : जैन मतावलम्बी व्यापारी होने के साथ ही ज्ञान-पिपासु वर्ग भी रहा है । शैक्षिक मूल्यों को कभी विस्मृत नहीं किया। प्राकृत एवं संस्कृत शिक्षण के लिये मन्दिर में या -पृथक् से पाठशालाएं चलाई जाती थीं, जहाँ शिक्षण विधि सरल एवं सुग्राह्य होती थी। जैनियों ने सहशिक्षा को भी लड़कियों के लिये एक उचित अवस्था तक सही माना है, अतः ११-१२ वर्ष तक लड़कियों को भी शिक्षित किया जाता था। जैनमत में स्वाध्याय तप का अंग माना गया है, जिसके लिये शिक्षित होने के साथ-साथ ग्रन्थों एवं साहित्य का होना भी आवश्यक था अतः मंदिरों में या पृथक् से पुस्तकालय या ग्रन्थागार भी होते थे, जहाँ स्वाध्याय की सुविधा होती थी। ग्रन्थों की उचित देखभाल की जाती थी और सतत् रूप से ग्रन्थों की प्रतिलिपियां व नये ग्रन्थों का सजन होता रहता था। मध्यकाल में और विशेषतः पूर्व-मध्यकाल में शैक्षिक मूल्यों को विकसित करने में जैनधर्म का -महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है । सम्पूर्ण विवेच्य काल में विविध धर्मावलम्बियों का सापेक्ष अध्ययन करने पर यह तथ्य स्पष्ट हो जाता है कि शैक्षिक मूल्यों, पाठशालाओं, साहित्य अध्ययन, साहित्य सृजन, उसके रख-रखाव आदि को जितना संरक्षण जैनियों ने दिया है, उतना अन्य किसी वर्ग ने नहीं । इनके द्वारा स्थापित व संरक्षित शास्त्र भंडार सम्पूर्ण देश के लिये अनमोल हैं। १०. साहित्य सृजन में योगदान : जैनाचार्यों एवं विद्वानों ने देश, काल एवं परिस्थिति के यथारूप चित्रण के साथ ही 'धार्मिक साहित्य का भी विपुल सृजन किया। प्राकृत, अपभ्रश, संस्कृत, राजस्थानी एवं हिन्दी में रचा गया, साहित्य बहुविषयक था। आगम, दर्शन, इतिहास, राजनीति, कथा, काव्य, ज्योतिष, आयुर्वेद, भूगोल, खगोल, व्याकरण, एवं छन्दशास्त्र, शब्द कोष आदि सभी विषयों पर अनेक कृतियां रची गई। मूल रचनाओं के साथ ही इन पर भाष्य, टीकाएं', बालावबोध आदि रचकर इनको सामान्य जनों के अवगाहम के लिये उपयोगी Page #497 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७४ : मध्यकालीन राजस्थान में जैनधर्म बनाया गया। जैन साहित्य भाषा विज्ञान की दृष्टि से बहुत उपयोगी है। इसका महत्त्व सामाजिक, सांस्कृतिक व इतिहास लेखन की दृष्टि से भी है। जैन साहित्य नैतिक मूल्यों का संरक्षक और भारतीय अध्यात्म चेतना का प्रतीक है । इसकी प्रमुख विशेषताएं विविधता व विशालता, भाषागत उदारता, लोकप्रचलित भाषा का उपयोग, रस वैविध्य, विधा वैविध्य व लोक मंगलकारी होना है। अपभ्रश साहित्य का तो मुख्य केन्द्र ही राजस्थान था। वस्तुतः साहित्यिक योगदान को दृष्टि से जैन साहित्य का महत्व अतुलनीय है। ११. साहित्य संरक्षण में योगदान : दूरदर्शी जैनाचार्यों ने सम्भवतः मुस्लिम विध्वंस की विभीषिका को पहले से ही भांप लिया था । अतः १४वीं शताब्दी के पश्चात् से ही मौलिक सृजन के साथ-साथ ग्रन्थों का प्रतिलिपिकरण व ग्रन्थ भण्डारों, मन्दिरों आदि में उनका संग्रहण जारी रहा । जैन मत में ग्रन्थ लिखवाकर भेंट देने की नई परम्परा विकसित हुई, जिससे शास्त्र भण्डार समृद्ध होते गये। मुस्लिम विध्वंस के समय सुदूर स्थानों पर इनको स्थापना की गई। जैसलमेर के शास्त्र भण्डार इसीलिये सुरक्षित रह पाये, जो ज्ञान की अनमोल निधि हैं । राजस्थान में लगभग २०० ज्ञान भंडार मंदिरों, उपाश्रयों या व्यक्तिगत अधिकार में हैं, जिनमें ३ लाख से भी अधिक ग्रन्थ संग्रहीत हैं। शास्त्र भंडारों की उपयोगिता कलात्मक प्रतिमानों के संरक्षण, इतिहास सर्जन, साहित्य सृजन केन्द्र, अध्ययन व शिक्षण केन्द्र आदि रूपों में रही। इनमें ताड़पत्रीय ग्रन्थों, कागज ग्रन्थों, वस्त्र-पट्ट, काष्ठफलक, विज्ञप्ति पत्र आदि का विशाल संग्रह है। अभी तो इनका सूचीकरण भी पूर्ण नहीं हो पाया है। राजस्थान के जैन ग्रन्थगारों में अजैन ग्रन्थ भी हैं। पूर्व-मध्यकाल में भी शास्त्र भण्डार होते थे, किन्तु ये अब अस्तित्व में नहीं हैं, किन्तु जितने भी मध्यकाल के अभी अवशिष्ट हैं, वे सम्पूर्ण देश के लिये अनमोल निधि हैं। १२. इतिहास-सृजन में सहायक : राजस्थान की मध्यकालीन जैन सामग्री व स्रोत जैन इतिहास-सृजन के अतिरिक्त राजस्थान एवं भारत के लौकिक एवं सांस्कृतिक इतिहास के निर्माण के भी महत्त्वपूर्ण साधन स्रोत हैं। यदि हम ऐतिहासिक स्रोतों में से जैन स्रोतों को पृथक् कर दें तो भारत व राजस्थान के इतिहास में से कई कड़ियाँ लप्त हो जावेंगी और समस्त ऐतिहासिक तथ्य बिखर जायेंगे । यद्यपि जैन अभिलेखों का उद्देश्य सामाजिक एवं कालिक इतिहास का विवेचन करना नहीं था, किन्तु जैन श्रेष्ठी अपने क्षेत्र के वर्णन के साथ राजाओं आदि के नामों का भी उल्लेख करवाते थे, जो अतिशयोक्तिपूर्ण न होकर वस्तुपरक होता था, अतः इतिहास के सही विवेचन में अत्यंत सहायक है । ब्राह्मण पंडितों की तुलना में जैनाचार्यों द्वारा लिखित अभिलेख अधिक तथ्यपूर्ण व प्रामाणिक. होते हैं । यह तथ्य गौरीशंकर ओझा ने भी स्वीकार किया है। कई अजैन अभिलेख १. ओझा, उदयपुर राज्य, पृ० १७५ । Page #498 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन शास्त्र भंडार : ४७५ भी जैनाचार्यों द्वारा लिखे गये। कर्नल टॉड के द्वारा राजस्थान के इतिहास लेखन का प्रथम प्रयास जैन यति ज्ञानचन्द और जैन स्रोतों की सहायता के बिना कदापि सम्भव नहीं था। यह तथ्य स्वयं टॉड ने भी स्वीकार किया है। अभी भी जैन ग्रन्थ भंडारों की अपार सामग्री अशोधित पड़ी है, जिसके सूक्ष्म अध्ययन से इतिहास के अनेक तिमिरावृत्त पृष्ठों को प्रकाश में लाया जा सकता है। राजस्थान व भारत में पूर्व-मध्यकाल की साहित्य और चित्रकला के इतिहास की लुप्त कड़ियों की खोज जैन अपभ्रंश साहित्य व जैन चित्रकला शैली में पूर्ण हुई है। अतः इतिहास के गुम्फन में जैन स्रोतों का निर्विवाद रूप से महत्त्वपूर्ण योगदान है। १३. जैन जातियों का उद्गम स्थल : हर्ष की मृत्यु के पश्चात् बहुत से शक, हूण एवं शस्त्रोपजीवी समुदाय राजस्थान में ही बस गये। स्थानीय समुदायों के सम्पर्क एवं जैनमत की महत्त्वपूर्ण प्रभावना के असर से ये स्थानीय समाज में अच्छी तरह से घुल-मिल गये थे । इसका प्रमाण हरिभद्रसूरि द्वारा भीनमाल में कई विदेशियों को यहां के समाज में मिलाया जाना प्रसिद्ध है। पश्चात्वर्ती जैनाचार्यों के योगदान से कई कृषक एवं युद्धोपजीवी वैश्य, क्षत्रिय एवं अन्य जातियाँ जैन मत में दीक्षित हुई, जिनका व्यवसाय व्यापार व वाणिज्य होने से इन्हें विभिन्न क्षेत्रों में प्रसारित होना पड़ा। नई जैन जातियाँ व गोत्र अस्तित्व में आये । व्यापार के निमित्त ये समुदाय राजस्थान के बाहर भी सर्वत्र फैले जिससे राजस्थान में उत्पन्न ये जातियाँ एवं गोत्र देश के विभिन्न हिस्सों में भी देखने को मिलते हैं। जैन मत में विभिन्न जातियों एवं बहुसंख्य गोत्रों की उत्पत्ति में राजस्थान का योगदान इस दृष्टि से अतुलनीय है। १४. स्थापत्य कला में योगदान : मंदिर स्थापत्य की दृष्टि से जैनधर्म राजस्थान में अग्रणी रहा है। श्रेष्ठी वर्ग की संपन्नता व विपुल धन व्यय करने की सामर्थ्य के कारण भव्य, कलात्मक, वास्तुशिल्प सिद्धांतों के अनुकूल, अनुपम तक्षण, कुराई व उत्कीर्णन के अलंकरणों से सज्जित उत्कृष्ट मंदिर बनवाये गये। दिलवाड़ा के विमलवसहि, लूण वसहि, राणकपुर, चित्तौड़ का जैन कीति स्तंभ, जैसलमेर के स्वणिम शिखरों वाले मंदिर संपूर्ण विश्व में अनुपमेय कलातीर्थ हैं। जैनाचार्यों की प्रेरणा, वास्तुशिल्पियों के धैर्य और साधना, श्रेष्ठियों की उदारता और श्रावकों की भक्ति के प्रतीक ये जैन संस्कृति के प्रतिमान पश्चात्वर्ती कई जैन-अजैन मंदिरों को निर्मिति के लिये आदर्श रहे । यद्यपि जैन स्थापत्य समकालीन वास्तु शैली से भिन्न नहीं है, किन्तु इनकी पवित्रता, सादगी, कामुक दृश्यों का अभाव, विपुल अलंकरण और सात्विक वातावरण में एक अनोखा आकर्षण है, जो अन्य मंदिरों के संदर्भ में इनके पृथक् अस्तित्व की उद्घोषणा करता है। Page #499 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७६ : मध्यकालीन राजस्थान में जैनधर्म १५. मूर्तिकला में योगदान : जैन साधुओं की प्रेरणा, श्रावकों की धर्म भावना व धन व्यय करने की सामर्थ्य के कारण जिन प्रतिमाओं की स्थापना व प्रतिष्ठा जैनधर्म में पुण्य कृत्य माना जाता रहा है। राजस्थान में पीतल, सप्तधातु, पंचधातु, अष्टधातु, संगमरमर, रंगीन प्रस्तर, सामान्य प्रस्तर यहाँ तक कि हीरे व पन्नों को भी प्रतिमाएं हजारों की संख्या में हैं। आज भी उत्खनन में भरतपुर, चंद्रावती, बसंतपुर, बघेरा एवं अन्य कई प्रदेशों से मूर्तियां निकलती रहती है, जो जैन मूर्तिकला की अतीत की संपन्नता की द्योतक हैं। जैन शिल्प के कुछ महत्वपूर्ण प्रतीक जैसे नंदीश्वर द्वीप, सहस्त्रकूट चैत्यालय, चौबीसी, पंचतीर्थी आदि अपने आप में विशिष्ट हैं। आबू अचलगढ़ की १०८ मन पीतल की भारी प्रतिमा जैन मूर्तिशिल्प का अनुपम उदाहरण है। गुणात्मक एवं परिमाणात्मक दृष्टि से जैन मूर्ति कला का राजस्थान की संस्कृति में महत्वपूर्ण योगदान है । १६. चित्रकला में योगदान : मध्यकाल में जैनमत में कला को जो संरक्षण मिला है, उससे भारतीय चित्रकला की समृद्धि ही नहीं बढ़ी, अपितु कला इतिहास की लुप्त कड़ियों का भी पता चला है । जैन ग्रंथ भंडारों के ताडपत्रीय व प्राचीन हस्तलिखित ग्रंथों के जो लघुचित्र मिलते हैं, उनसे ही पश्चात्वर्ती राजस्थानी कला की विविध शैलियाँ, मुगल मिश्रित शैली, यहाँ तक कि आधुनिक चित्रकला की कई प्रतीकात्मक विधाएं भी अस्तित्व में आई हैं। कतिपय कलामर्मज्ञों ने इसे अपभ्रंश शैली का नाम दिया है, जो युक्तियुक्त नहीं है। जैन चित्रों की रेखाओं की कमनीयता, रंग संयोजन, लोक जीवन का प्रकटीकरण, तत्कालीन वेशभूषा का चित्रण, धार्मिक आख्यानों का अवलंबन आदि महत्वपूर्ण विशेषताएँ हैं । वस्त्रपट्ट, काष्ठफलक, विज्ञप्ति पत्र आदि का सूक्ष्म चित्रण, कला ग्रंथों में लेखन के माध्यम से ही रिक्त स्थान छोड़कर कमल, स्वस्तिक आदि निर्मित करना जैनियों के कलाप्रेम का सूचक है। तांत्रिक कला, जंबू द्वीप, विश्व द्वीप, सृष्टि पुरुष, भौगोलिक चित्रण आदि की दृष्टि से जैन कला का समकालीन चित्र विधाओं से कोई साम्य नहीं है । वस्तुतः जैन कला अपनी अनोखी विशेषताओं के कारण कला जगत को महत्वपूर्ण देन है। उपरोक्त मूल्यांकन एवं योगदान के स्वरूपों के आंकलन से स्पष्ट है कि मध्यकाल में जैनधर्म की सांस्कृतिक भूमिका, राजस्थान की सांस्कृतिक गरिमा में ही दृद्धि नहीं करती, अपितु संपूर्ण भारत के सतरंगो सांस्कृतिक इतिहास पर भी गौरवपूर्ण, अमिट, मंगलकारी व चिरस्मरणीय छाप छोड़ती है । Page #500 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सन्दर्भ ग्रन्थ सूची (१) जैन आगमिक रचनाएँ: १. आचारांग : जेकोबी द्वारा अंग्रेजी अनुवाद, से० बु० ई०. २२, ऑक्सफोर्ड, १८९२ २. उत्तराध्ययन : जेकोबी द्वारा अंग्रेजी अनुवाद, से० बु० ई०, ४५, ऑक्सफोर्ड, १८९५ ३. कल्पसूत्र : जेकोबी द्वारा अंग्रेजी अनुवाद, से० बु० ई०, २२, ऑक्सफोर्ड, १८९२ ४. सूत्रकृतांग : जेकोबी द्वारा अंग्रेजी अनुवाद, से० बु० ई०, ४५ आक्सफोर्ड, १८९५ (२) जैन साहित्यिक एवं ऐतिहासिक रचनाएँ : १. उपदेश सप्ततिका : सोमधर्म, चतुर्विजय द्वारा संपादित, श्री जैन आत्मानन्द ग्रन्थमाला, भावनगर : सिद्धर्षि, जेकोबी द्वारा सम्पादित, बिब्लि ओथेका इण्डिका, कलकत्ता ३. ओसवाल वंशावली : अगरचन्द नाहटा, बीकानेर के संग्रहालय में ७२ फीट लम्बे वस्त्र पट्ट पर, वि० सं० १६१२ में रचित ४. कथाकोश प्रकरण : जिनेश्वर सूरि, मुनि जिनविजय द्वारा संपादित, सिन्धी जैन ग्रन्थमाला, क्र० २४, बम्बई पंच कथा ५. कर्मचन्द्र वंश प्रबन्ध : गुणचन्द्र (अप्रकाशित) ६. कर्मचन्द्र वंशोत कीर्तन काव्यम् : जयसोम (अप्रकाशित) ७. कीर्ति कौमुदी महाकाव्य : सोमेश्वर, ए० वी० काठवटे द्वारा सम्पादित, बम्बई, १८८३ ८. कुमारपाल चरित्र महाकाव्य : जयसिंह सूरि (कृष्णगच्छ), शान्ति विजय गणी द्वारा सम्पादित, बम्बई १९२६ ९. कुमारपाल प्रबन्ध : जिनमंडन, मुनि चतुर्विजय द्वारा सम्पादित, भावनगर, वि० सं० १९७१ १०. कुमारपाल चरित्र संग्रह : मुनि जिनविजय द्वारा सम्पादित, सिन्धी जैन ग्रन्थालय, क्र० ४१, बम्बई, १९५६ Page #501 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७८ : मध्यकालीन राजस्थान में जैनधर्म ११. खरतरगच्छ बृहदगुर्वावली १२. खरतरगच्छ का इतिहास १३. गुरूगुण रत्नाकर काव्य १४. जैन तीर्थं सर्व संग्रह १५. तीर्थमाला, खण्डेलवाल दिगम्बर जैन मन्दिर - १६. तीर्थयात्रा स्तवन १७. त्रिषष्ठि शलाका पुरुष -१८. दर्शनसार - १९. दिग्विजय महाकाव्य २०. द्वयाश्रय महाकाव्य -२१. धूर्ताख्यान २२. नरनारायणानन्द महाकाव्य २३. पट्टावली समुच्चय २४. पुरातन प्रबन्ध संग्रह --२५. पट्टावली प्रबन्ध संग्रह : जिनपाल उपाध्याय, मुनि जिनविजय द्वारा सम्पादित, बम्बई १९५६ : प्रथम खंड, अजमेर, १९५९ : सोम चरित्र गणी, इन्द्रविजय द्वारा संपादित, श्री यशोविजय जैन ग्रन्थमाला, भाग २४, बनारस, विनि० सं० २४३७ : भाग १ एवं २ : उदयपुर के ग्रन्थ संख्या ७२ में प्राप्त एवं वि० सं० १५२९ में रचित : विनयप्रभ, अगरचन्द नाहटा द्वारा जैन सत्य प्रकाश भाग १६, पृ० १६ पर प्रकाशित जोन्सन द्वारा अनुवाद, : हेमचन्द्र, हेलेन एम० बड़ौदा, १९३१ : देवसेन, नाथूराम प्रेमी द्वारा सम्पादित, जैन ग्रन्थ रत्नाकर कार्यालय, बम्बई, वि० सं० १९७४ : मेघविजय, अम्बालाल प्रेमचन्द शाह द्वारा सम्पादित, सिन्धी जैन ग्रन्थमाला, क्र० १४, बम्बई, १४४५ : हेमचन्द्र, ए० वी० काठवटे द्वारा सम्पादित, २ भाग, बम्बई, १९१५ : हरिभद्र, ए० एन० उपाध्ये का प्राक्कथन, सिन्धी जैन ग्रन्थमाला, १५, बम्बई, १९४४ : वस्तुपाल, बी० डी० दलाल द्वारा सम्पादित, बड़ौदा, १९१६ : श्री चरित्र स्मारक ग्रन्थमाला, वीरमगाम, क्र० गुजरात, १९३३ : मुनि जिनविजय द्वारा सम्पादित, सिन्धी जैन ग्रन्थमाला, क्र० २, कलकत्ता १९३६ : संकलनकर्ता आचार्य हस्तीमल, जैन इतिहास निर्माण समिति, जयपुर, १९६८ Page #502 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सन्दर्भ ग्रन्थ सूची : ४७९ २६. प्रबन्ध चिन्तामणि २७. प्रबन्ध कोश २८. प्रभावक चरित्र २९. प्राचीन तीर्थमाला संग्रह ३०. बल्लभ भारती ३१. भट्टारक पट्टावली ३२. यशस्तिलक ऐण्ड इण्डियन कल्चर ३३. मूलसंघ पट्टावली : मेरुतुग, हजारी प्रसाद द्विवेदी द्वारा अनुवाद, सिन्धी जैन ग्रन्थमाला, क्र० ३, बम्बई, १९४० : राजशेखर, मुनि जिनविजय द्वारा सम्पादित, सिन्धी जैन ग्रन्थमाला, क्र० ६, शान्तिनिकेतन, १९३५ : प्रभाचन्द्र, मुनि जिनविजय द्वारा सम्पादित, सिन्धी जैन ग्रन्थमाला, क्र० १३, अहमदाबाद, १९४० : विजयधर्म द्वारा सम्पादित, यशोविजय ग्रंथ माला, भावनगर, वि० सं० १९७८ : प्रथम खण्ड, महोपाध्याय विनयसागर, जयपुर, १९७५ : वि० सं० १६९७ से वि० सं० १७५७ तक, सम्भवनाथ मन्दिर, उदयपुर का ग्रन्थ संख्या ४३९ : हेण्डिक्वि, जोवराज जैन ग्रन्थमाला, शोलापुर, १९४९ : इण्डियन ऐण्टीक्वेरी के भाग २० एवं २१ में प्रकाशित :: जैन ग्रन्थ रत्नाकर कार्यालय, बम्बई, १९१४ : दुर्गदेव, डॉ० ए० एस० गोपनि द्वारा संपादित, सिन्धी जैन ग्रन्थमाला, क्र० २१, बम्बई, १५४५ : जिनहर्ष, मुनि कीर्तिविजय द्वारा सम्पादित, अहमदाबाद १९४१ : जिनप्रभ सूरि, मुनि जिनविजय द्वारा संपादित, सिन्धी जैन ग्रन्थमाला, क्र० १०, शान्ति निकेतन, १९३४ : हरिषेण, ए० एन० उपाध्ये द्वारा सम्पादित, सिन्धी जैन ग्रन्थमाला, क्र० १७, बम्बई, १९४३ : सम्पादक मुनि जिन विजय, भारतीय विद्या भवन, बम्बई, १९६० ३४. रत्नकरंड श्रावकाचार ३५. रिश्ता समुच्चय ३६. वस्तुपाल चरित्र ३७. विविध तीर्थकल्प ३८. वृहत् कथाकोश ३९. विज्ञप्ति लेख संग्रह Page #503 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८० : मध्यकालीन राजस्थान में जैनधर्म ४०. समराइच्च कहा : हरिभद्र, जेकोबी द्वारा सम्पादित, बिब्लिओ थेका इण्डिका, कलकत्ता, १९२६ ४१. संबोध प्रकरण : हरिभद्र, जैन प्रन्थ प्रकाशक सभा, अहमदा बाद, वि० सं० १९७२ ४२. सकलतीर्थ स्तोत्र : सिद्धसेनसूरि, गायकवाड, ओरिएण्टल सिरीज, ७६, पृ० १५६ पर प्रकाशित ४३. सत्यपूरिय महावीर उत्साह : धनपाल, जैन साहित्य संशोधक में प्रकाशित ३, वि० सं० १९८३ (३) अभिलेख सम्बन्धी रचनाएँ: १. अबुदाचल प्रदशिणा जैन लेख संदोह २. कॉरपस इस्क्रिप्शान्स इण्डिकारम ३. जैन लेख संग्रह, भाग : जयन्तविजय द्वारा सम्पादित, भावनगर, वि० सं० २००५ : तृतीय, फ्लीट द्वारा सम्पादित, कलकत्ता, १८८८ : पूर्णचन्द्र नाहर द्वारा सम्पादित, कलकत्ता, १९१८, १९२९ : मुनि जिनविजय द्वारा सम्पादित, भावनगर, १९२१ : हीरालाल जैन द्वारा संपादित, बम्बई १९२८ : विजयमूर्ति द्वारा सम्पादित, बम्बई, १९५० : विजयमूर्ति द्वारा सम्पादित, बम्बई, १९५७ : रामबल्लभ सोमाणी, जयपुर, १९८२ ४. जैन लेख संग्रह ५. जैन शिलालेख संग्रह-१ ६. जैन शिलालेख संग्रह-२ ७. जैन शिलालेख संग्रह-३ ८. जैन इस्क्रिप्शन्स ऑफ राजस्थान ९. प्राचीन लेख संग्रह १०. प्रतिष्ठा लेख संग्रह ११ बीकानेर जैन लेख संग्रह : विद्याविजय द्वारा सम्पादित, भावनगर, १९३९ : उपाध्याय विनयसागर, सुमति सदन, कोटा, १९५३ : अगरचन्द एवं भंवरलाल नाहटा द्वारा सम्पादित, कलकत्ता, वी० नि० सं० २४८२ : जी० एच० ओझा द्वारा सम्पादित, अजमेर, १९१८ : सम्पादक दौलतसिंह लोढ़ा, यतीन्द्र साहित्य सदन घामणिया ( मेवाड़), १९५१ १२. भारतीय लिपिमाला १३. श्री जैन प्रतिमा लेख संग्रह Page #504 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सन्दर्भ ग्रन्थ सूची : ४८१ (४) प्रशस्तियों सम्बन्धी रचनाएँ : १. जैन ग्रन्थ प्रशस्ति संग्रह, जुगलकिशोर मुख्तार द्वारा सम्पादित, दिल्ली, १९५४ २. जैन पुस्तक प्रशस्ति संग्रह : मुनि जिनविजय द्वारा सम्पादित, सिन्धी जैन ग्रन्थमाला, क्र० १८, अहमदाबाद, १९४३ ३. प्रशस्ति संग्रह : कस्तूरचन्द कासलीवाल द्वारा सम्पादित, जयपुर, १९५० ४. प्रशस्ति संग्रह : भुजबलि शास्त्री द्वारा सम्पादित, आरा, वि० सं० १९९९ ५. श्री प्रशस्ति संग्रह : अमृतलाल मगनलाल द्वारा सम्पादित, अहमदा बाद, वि० सं० १९९३ (५) ग्रंथ सूची: १. आमेर शास्त्र भण्डार की सूची : के० सी० कासलीवाल द्वारा संपादित, जयपुर, २. ए केटेलॉग ऑफ मेनुस्क्रिप्ट्स : लालचंद्र भगवानदास गांधी द्वारा संपादित, ___ इन दो जैन भंडार्स एट जैस- : बड़ौदा, १९२३ गायकवाड़ ओरिएण्टल लमेर सीरीज़ भाग २१ ३. ए केटेलॉग ऑफ मेनुस्क्रिप्ट्स : लालचन्द्र भगवानदास गांधी द्वारा संपादित, इन दी जैन भंडार्स एट पाटन : गायकवाड़ ओरिएन्टल सीरीज़, भाग १६, १९३७ ४. ग्रन्थ नामावली श्री ऐलक पन्नालाल दिगंबर जैन सरस्वती भवन, झालरापाटन, वी० नि० सं० २४५९ ५. जैन ग्रन्थ और ग्रन्थकार : फतेहचन्द बेलानी, बनारस, १९५० ६. जैसलमेर का सूचीपत्र : मुनि पुण्यविजय द्वारा संपादित, अहमदाबाद ७. जैन ग्रन्थ भंडार्स इन राज- : कस्तूरचन्द कासलीवाल, साहित्य शोध स्थान विभाग, श्री महावीरजी, जयपुर, १९६७ ८. पुरातन जैन वाक्य सूची : जुगल किशोर मुख्तार द्वारा संपादित, सरसवा, १९५० ९. राजस्थान के जैन शास्त्र : भाग १,२,३,४ एवं ५, कस्तूरचन्द कास भण्डारों की ग्रन्थ सूची लीवाल द्वारा संपादित, जयपुर, १९५४ १०. श्री खंभात शांतिनाथ प्राचीन : विजयकुमुदसूरि द्वारा संपादित, बम्बई, ताड़पत्रीय जैन ज्ञान भण्डारों १९४२ का सूचीपत्र ३१ Page #505 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८२ : मध्यकालीन राजस्थान में जैनधर्म ६. जैन साहित्य एवं साहित्यकार सम्बन्धी रचनाएँ : १. ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह : अगरचन्द नाहटा द्वारा संपादित, कलकत्ता, वि० सं० १९९४ २. जैन गुर्जर कवियों : मोहनलाल दुलीचन्द देसाई, भाग १, २ व ३, बम्बई, १९२६, १९३१ एवं १९४४ ३. जैन साहित्य और इतिहास : पं० नाथूराम प्रेमी, बम्बई, १९४२ ४. जैन साहित्य नो संक्षिप्त : मोहन लाल दुलीचन्द देसाई, बम्बई, १९३३ इतिहास ५. दी जैन्स इन दो हिस्ट्री ऑफ : विटरनिट्ज, अहमदाबाद, १९४६ इण्डियन लिटरेचर ६. भारतीय संस्कृति के विकास : भाग १ व २, डॉ. नेमीचन्द शास्त्री, ___ में जैन वांगमय का अवदान वाराणसी, १९८२ ७. राजस्थान का जैन साहित्य : नाहटा, भानावत, कासलीवाल, सेठिया आदि द्वारा संपादित, प्राकृत भारती, जयपुर, १९७७ ८. राजस्थानी साहित्य की : अगरचन्द नाहटा, राधाकृष्ण प्रकाशन, दिल्ली, गौरवपूर्ण परम्परा १९६७ ९. राजस्थान में हिन्दी के हस्त- : भाग २ एवं ४, अगरचन्द नाहटा, उदयपुर, लिखित ग्रन्थों की खोज १९४७, १९५४ १०. हिन्दी जैन साहित्य का कामता प्रसाद, काशी, १९४७ संक्षिप्त इतिहास ११. हिस्ट्री ऑफ इण्डियन : विटरनिटज, मिसेज केतकर द्वारा अंग्रेजी में लिटरेचर अनुवाद, २ भाग, कलकत्ता, १९२७ एवं १९३३ १२. हिन्दी जैन साहित्य परिशीलन, : डॉ० नेमीचन्द्र, भारतीय ज्ञानपीठ भाग १,२ ७. जैन इतिहास विषयक साहित्य : १. अग्रवाल जाति का इतिहास : चन्द्रराज भंडारी, ब्रह्मलाल सोनी एवं कृष्ण लाल गुप्ता, भानपुर, १९३७ २. अर्बुदाचल प्रदक्षिणा : जयंत विजय, अहमदाबाद, वि० सं० २००४ ३. एन्शेण्ट इण्डिया, भाग १, २ : त्रिभुवनदास एल० शाह० बड़ौदा, १९३९ एवं ३ ४. एन एपिटोम ऑफ जैनिज्म : नाहर एवं घोष, कलकत्ता, १९३७ Page #506 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सन्दर्भ ग्रन्थ सूची : ४८३ ५. ए शॉर्ट हिस्ट्री ऑफ दी : छोगमल चोपड़ा, कलकत्ता तेरापंथी सेक्ट ऑफ दी श्वेताम्बर जैन्स ६. ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह : अगरचन्द नाहटा, कलकत्ता, वि० सं० १९९४ ७. एन्शेण्ट सिटीज ऐंड टाउन्स : डॉ० के० सी० जैन, मोतीलाल बनारसीदास, ऑफ राजस्थान नई दिल्ली, १९७२ ८. ओसवाल जाति का इतिहास : भाग १ एवं २, भानुपुर, १९३४ ९. ऑन दी इण्डियन सेक्ट ऑफ : बुहलर, लंदन, १९०३ ।। जैन्स १०. खंडहरों का वैभव : मुनि कांतिसागर, काशी, १९५३ ११. खोज की पगडंडियां : मुनि कांतिसागर, काशी, १९५३ १२. जैनिज्म इन बिहार : जी० सी० राय चौधरी, पटना, १९५६ १३. जैनिज्म इन नादर्न इण्डिया : चिमन जे० लाल शाह, लंदन, १९३२ १४. जैनिज्म इन साउथ इण्डिया : पी० बी० देसाई, शोलापुर, १९५७ ऐंड सम जैन एपिग्राफ्स । १५. जैन संप्रदाय शिक्षा : यति श्रीपत चन्द्र, बम्बई, १९१० १६. जैन तीर्थ सर्व संग्रह : भाग १, २, अहमदाबाद, १९५३ १७. जैन सोर्सेज ऑफ दी हिस्ट्रो : ज्योतिप्रसाद जैन, दिल्लो ,१९६४ ऑफ एंशेंट इण्डिया १८. जैन तीर्थ और उनकी यात्रा : कामताप्रसाद जैन, दिल्ली, १९६९ १९. जैन तीर्थ गाइड शांतिविजय, अहमदाबाद, १९१० २०. जैनिज्म इन राजस्थान : डॉ० के० सी० जैन, शोलापुर, १९६३ २१. जैन धर्म का मौलिक इतिहास : मुनि हस्तीमल, भाग १, २, ३ एवं ४, जैन इतिहास समिति, जयपुर, १९७४ २२. जैना सेक्ट्स ऐंड स्कूल्स : मुनि उत्तमकमल जैन, दिल्ली, १९७५ २३. जैन वीरों का इतिहास और : अयोध्याप्रसाद गोयलीय, जैन मित्रमंडल, हमारा पतन ; दरीबा, दिल्ली, १९३० २४. जैसलमेर पंचतीर्थी का : मुनि प्रकाशविजय, अजमेर, १९७३ इतिहास २५. जैन धर्म का प्राचीन इतिहास : भाग १ एवं २, परमानन्द शास्त्री, दिल्ली, वी०नि० सं० २५०० २६. दादा श्री जिनकुशल सूरि : अगरचन्द भंवरलाल नाहटा, कलकत्ता, वी. नि० सं० १९९६ Page #507 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८४ : मध्यकालीन राजस्थान में जैनधर्म २७. प्राग्वाट जाति का इतिहास २८. प्रमुख ऐतिहासिक जैन पुरुष एवं महिलाएँ २९. भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा : ज्ञान सुन्दर, का इतिहास ३०. भारत के प्राचीन जैन तीर्थ ३१. भट्टारक संप्रदाय : डॉ० जगदीश चन्द्र जैन, बनारस, १९५२ : वी० पी० जोहरा, पुरकर, शोलापुर, १९५८ ३२. भारतीय संस्कृति में जैन धर्म : डॉ० होरालाल जैन, भोपाल, १९६२ का योगदान ३३. भारत के दिगंबर जैन तीर्थ ३४. मुंडस्थल महातीर्थं ३५. महाकवि दौलतराम कास लीवाल : व्यक्तित्व एवं कृतित्व ३६. युगप्रधान श्री जिनचन्द्रसूरि ३७. राजपूताने के जैन वीर ३८. राजस्थान का प्राचीन जैन तीर्थ केशोरायपाटन ४२. लिटरेरी सर्कल ऑफ वस्तुपाल ऐंड इट्स कॉन्ट्रिब्यूशन टू संस्कृत लिटरेचर : दौलतसिंह लोढ़ा, राणी ( मारवाड़), १९५३ : डॉ० ज्योति प्रसाद जैन, भारतीय ज्ञानपीठ विभिन्न भाग, फलोदी, १९४३ ३९. राजस्थान के जैन संत : व्यक्ति : डॉ० कस्तूरचन्द कासलीवाल, साहित्य शोध त्व एवं कृतित्व ४०. रिलिजन ऐंड कल्चर ऑफ दी जैन्स ४१. लाइफ ऑफ हेमचन्द्र ४४. सम डिस्टिंग्विश्ड जैन्स ४५. सूरीश्वर और सम्राट् अकबर : भाग १-४, बलभद्र जैन, भारतीय ज्ञानपीठ, १९७८ : मुनि विशाल विजय, सिरोही, १९६२ : डॉ० कस्तूर चन्द कासलीवाल, जयपुर : अगरचन्द, भँवर लाल नाहटा, कलकत्ता, वि० सं० १९९२ : अयोध्या प्रसाद गोयलीय, दिल्ली, १९३३ : डॉ० कस्तूरचन्द कासलीवाल, बूँदी, १९८५ विभाग, श्रीमहावीर जी, जयपुर, १९६७ : ज्योति प्रसाद जैन, भारतीय ज्ञानपीठ : डॉ० भोगीलाल जे० संडेसर, सिंधी जैन ग्रन्थमाला, क्र० ३३, बम्बई ४३. वीरशासन के प्रभावक आचार्य : कासलीवाल, जोहरापुरकर, भारतीय ज्ञान : डॉ० मणिलाल पटेल द्वारा जर्मन भाषा से अनूदित, सिंघी जैन ग्रन्थमाला, अहमदाबाद पीठ प्रकाशन, १९७५ : उमराव सिंह टोंक, आगरा, १९१८ मुनिराज विद्या विजय, आगर, वि० सं १९८० Page #508 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सन्दर्भ ग्रन्थ सूची : ४८५ ४६. श्रमण भगवान् महावीर : मुनि रत्नप्रभ विजय, ८ भाग, अहमदाबाद, १९४७ ४७. श्री जैन गोत्र संग्रह : पं० हीरालाल हंसराज, जामनगर, १९३३ ४८. श्री केशरिया जी तीर्थ का चन्दनमल, सड्डि, १९३३ इतिहास ४९. श्री कापरडा तीर्थ का संक्षिप्त : प्रकाशक व्यवस्थापक समिति, श्री कापरडा इतिहास तीर्थ, १९६५ ५०. शांकंभरी प्रदेश के सांस्कृतिक : डॉ० कस्तुर चन्द कासलीवाल, किशनगढ़, विकास में जैनधर्म का १९७४ योगदान ८. इतिहास विषयक रचनाएँ: १. अजमेर हिस्टॉरिकल एंड हरिबिलास शारदा, अजमेर, १९४१ ___ डेस्क्रप्टिव २. अकबर : दी ग्रेट मुगल : विसेंट ए० स्मिथ, ऑक्सफोर्ड, १९१७ ३. अर्ली चौहान डाइनेस्टीज़ : डॉ० दशरथ शर्मा, दिल्ली, १९५९ ४. उदयपुर राज्य का इतिहास : जी० एच० ओझा, अजमेर, वि० सं १९८५ ५. एनल्स ऐंड एंटिक्विटीज : कर्नल टॉड, बम्बई, १९२० ऑफ राजस्थान, ३ भाग ६. ओझा निबंध संग्रह : भाग १, २, ३ एवं ४, उदयपुर, १९५४ ७. कोटा राज्य का इतिहास : मथुरालाल शर्मा, कोटा, १९३९ ८. जैसलमेर राज्य का इतिहास : मांगीलाल मयंक, राजस्थानी ग्रन्थागार, जोधपुर, १९८४ ९. ट्रेवल्स इन वेस्टर्न इण्डिया : कर्नल टॉड १०. डूंगरपुर राज्य का इतिहास : जी० एच० ओझा, अजमेर, १९३६ ११. डाइनेस्टिक हिस्ट्री ऑफ नार्दर्न : एच० सी० राय०, २ भाग, कलकत्ता, इण्डिया १९३१, १९३६ १२. दी कैम्ब्रिज हिस्ट्री ऑफ : ई० जे० रेप्सन द्वारा संपादित, कैम्ब्रिज, इण्डिया, भाग १ १९२२ १३. दी अर्ली हिस्ट्री ऑफ इण्डिया : विसेंट ए. स्मिथ, चतुर्थ संस्करण, ऑक्स फोर्ड, १९२४ १४. दी ग्लोरी दैट वाज गुर्जर देश : के० एम० मुंशी, बम्बई, १९५५ १५. प्रतापगढ़ राज्य का इतिहास : जी० एच० ओझा, अजमेर, १९४१ १६. बांसवाड़ा राज्य का इतिहास : जी० एच० ओझा, अजमेर, १९३७ Page #509 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८६ : मध्यकालीन राजस्थान में जैनधर्म १७. बीकानेर राज्य का इतिहास १८. मुहणोत नैणसी री ख्यात १९. महाराणा कुंभा और उनका काल २०. मारवाड़ राज्य का इतिहास २१. राजपूताना का इतिहास २२. राजस्थान थ्रू द एजेज़ २३. राजस्थान का इतिहास २४. राजस्थान का राजनीतिक एवं सांस्कृतिक इतिहास २५. वीर विनोद २६. हिन्दू पोलिटी २७. हिस्ट्री ऑफ सिरोही राज्य २८. सिरोही राज्य का इतिहास (९) जैनकला एवं पुरातत्व : १. आकृति २. इकोनोग्राफी ऑफ द जैन गोडेस अम्बिका ३. इकोनोग्राफी ऑफ द जैन गोडेश सरस्वती ४. एन्शेण्ट विज्ञप्ति पत्राज ५. जैन इकोनोग्राफी ६. जैन मिनिएचर पेंटिंग्ज़ फ्रॉम वेस्टर्न इण्डिया ७. जैसलमेर नी चित्र समृद्धि ८. जैन चित्रकल्पद्रुम ९. जैन स्थापत्य एवं कला : जी० एच० ओझा, अजमेर, १९३९ : रामनाथ दुग्गड़ द्वारा अनूदित २ भाग, उदयपुर, वि० सं० १९९१ : डॉ० तारामंगल, राजस्थानी ग्रन्थागार, जोधपुर, १९८४ : जी० एच० ओझा, अजमेर, १९३८ : जी० एच० ओझा, अजमेर, १९३७ : दशरथ- शर्मा, बीकानेर, १९६६ : गोपीनाथ शर्मा, दिल्ली, १९८१ : गुप्ता एवं ओझा, जोधपुर, १९८६ : श्यामल दास, उदयपुर : जायसवाल, कलकत्ता, १९२४ : सीताराम, इलाहाबाद, १९३० : जी० एच० ओझा, अजमेर, १९३७ : विभिन्न अंक, राजस्थान ललित कला अकादमी, जयपुर : उमाकान्त पी० शाह, बड़ौदा, १९४० : उमाकान्त पी० शाह, बड़ौदा, १९३१ : हीरानन्द शास्त्री द्वारा सम्पादित, बड़ौदा, १९४२ : भट्टाचार्य, लाहौर, १९३९ : डाँ० मोतीचन्द्र, अहमदाबाद, १९४९ : मुनि पुण्यविजय द्वारा सम्पादित, अहमदाबाद, १९५१ : साराभाई नवाब द्वारा सम्पादित, अहमदाबाद, १९३६ : भाग १, २ व ३, मूल सम्पादक अमलानन्द घोष, भारतीय ज्ञानपीठ, १९७५ Page #510 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०. जैन आर्ट एण्ड आर्किटेक्चर ११. टेंपल्स ऑफ नॉर्थ इण्डिया १२. दी आर्ट एण्ड आर्किटेक्चर ऑफ बीकानेर स्टेट १३. दी जैन स्तूप ऐण्ड अदर ऐण्टिक्विटीज ऑफ मथुरा १४. पवित्र कल्पसूत्र १५. प्रासाद मंडन १६. भारतीय चित्रकला का संक्षिप्त इतिहास १७. भारतीय मूर्तिकला १८. भारतीय कला का अध्ययन १९. भारतीय मूर्तिकला २०. भारत की चित्रकला २१. मध्यप्रांत, मध्यभारत और राजपूताना के प्राचीन जैन स्मारक २२. मध्यकालीन भारतीय कलाएँ एवं उनका विकास २३. राजस्थान को लघुचित्र शैलियाँ १९५९ २५. स्टडीज़ इन जैन आर्ट २६. स्टोरी ऑफ कालका सन्दर्भ ग्रन्थ सूची : ४८७ : आर० सी० द्विवेदी, सेण्टर फॉर जन स्टडीज़, यूनिवर्सिटी ऑफ राजस्थान, जयपुर : भारत सरकार का प्रकाशन, १९५९ : हरमन गोएट्ज, ऑक्सफोर्ड, १९५० : विसेण्ट स्मिथ, इलाहाबाद, १९०१ : मुनिपुण्य विजय द्वारा सम्पादित, अहमदाबाद, १९५२ : अनुवादक व सम्पादक, भगवान दास जैन, जयपुर, १९६३ : वाचस्पति गैरोला, अहमदाबाद, : डॉ० रमानाथ मिश्र, ग्रन्थ भारती, दिल्ली, १९७८ : निहाररंजन राय, दिल्ली, १९७८ : राय कृष्णदास, १९७२ नागरी प्रचारिणी सभा, २४. ललितकला, अंक ६, अक्टूबर : ललित कला अकादमी, जयपुर बनारस, १९७३ : राय कृष्णदास, भारती भंडार, इलाहाबाद, १९७४ : सीतल प्रसाद, सूरत, १९२६ : डॉ० रामनाथ, राजस्थान हिन्दी ग्रन्थ अकादम, जयपुर, १९७३ : सम्पादक प्रेमचन्द गोस्वामी, राजस्थान ललित कला अकादमी, जयपुर, १९७२ : यू० पी० शाह, बनारस, १९५५ : नॉरमन ब्राउन द्वारा सम्पादित, वाशिंगटन, १९३३ २७. स्टडीज़ इन इण्डियन पेंटिंग्ज : एन० सी० मेहता, बम्बई, १९२६ Page #511 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैभव ४८८ : मध्यकालीन राजस्थान में जैनधर्म २८. हिस्ट्री ऑफ इण्डिया ऐण्ड : जेम्स फग्र्युसन, भाग १ व २, लन्दन, १९१० आर्किटेक्चर (१०) सामान्य साहित्य : १. अबुंद मण्डल का सांस्कृतिक : डॉ० सोहन लाल पटना, सिरोही, १९८४ वैभव २. अपना राजस्थान : प्रकाश नारायण नाटाणी, जयपुर, १९८४ ३. ए बिब्लिओग्राफी ऑफ : गोपीनाथ शर्मा लक्ष्मीनारायण अग्रवाल, मिडाइवल राजस्थान आगरा, १९६५ ४. गजेटियर ऑफ बीकानेर : के० डी० एस्किन, अजमेर, १९१० स्टेट ५. गजेटियर सिरोही स्टेट : के० डी० एस्किन, अजमेर, १९१० ६. जैना बिब्लिओग्राफी : छोटेलाल जैन, कलकत्ता, १९४५ ।। ७. जैनाचार्य श्री आत्मानन्द : मोहनलाल-दुलीचन्द देसाई द्वारा संपादित, ___ सेंटेनरी कोमेमोरेशन वौल्यूम बम्बई, १९३६ ८. जैन संस्कृति और राजस्थान : प्रधान संपादक नरेन्द्र भानावत, प्रकाशक सम्यक ज्ञान प्रचारक मंडल, जयपुर, १९७५ ९. जैसलमेर दिग्दर्शन : दीनदयाल ओझा, मूमल प्रकाशन, जैसलमेर १०. जैन तीर्थ स्थान जैसलमेर : दीनदयाल ओझा, मूमल प्रकाशन, जैसलमेर ११. पीटरसन्स रिपोर्ट्स :१८८२, ८३, ८४, बम्बई १२. प्रेमी अभिनन्दन ग्रन्थ : बम्बई, १९४६ १३. पं० चैनसुखदास न्यायमूर्ति : प्रकाशक दिगंबर जैन अतिशय क्षेत्र श्री ___ स्मृति ग्रन्थ महावीर जी, जयपुर, १९७६ १४. भारतीय संस्कृति का विकास : सत्यकेतु विद्यालंकार, श्री सरस्वती सदन, __ मसूरी, १९७९ १५. भारतीय धर्म एवं संस्कृति : बुद्ध प्रकाश, मीनाक्षी प्रकाशन, मेरठ १६. भारतीय पुरातत्व : पुरातत्वाचार्य मुनि जिन विजय अभिनन्दन ग्रन्थ, प्रकाशक मुनि जिनविजय सम्मान समिति, जयपुर, १९७१ १७. मुनि श्री हजारीमल स्मृतिग्रन्थ : प्रकाशन समिति, ब्यावर, १९६५ १८. मणिधारी श्री जिनचन्द्रसूरि : संपादक अगरचन्द-भंवरलाल नादटा, राम अष्टम श० स्मृति ग्रन्थ नगर, नई दिल्ली, १९७१ Page #512 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सन्दर्भ ग्रन्थ सूची : ४८९ १९. रिपोर्ट ऑन दी लेंड टेन्योर्स : सी० यू० विल्स, जयपुर १९३३ एंड स्पेशल पावर्स ऑन सर्टन ठिकानेदास ऑफ दी जयपुर स्टेट २०. राजस्थान वैभव : प्रधान संपादक त्रिलोकीनाथ चतुर्वेदी, भारतीय ___ संस्कृति एवं संवर्धन परिषद, नई दिल्ली २१. राजस्थान के इतिहास के : डॉ. गोपीनाथ शर्मा, राजस्थान हिन्दी ग्रन्थ स्रोत अकादमी, जयपुर, १९७३ २२. राजस्थान के ऐतिहासिक शोध : रामबल्लभ सोमाणी, राजस्थानी ग्रन्थागार, लेख जोधपुर, १९६९ २३. राजस्थानी जातियों की खोज : रमेशचन्द गुणार्थी, अजमेर, १९६५ २४. राजस्थान के लोक तीर्थ : वेदव्यास महेंद्र जैन, कथालोक प्रकाशन, जयपुर, १९७१ २५. वीर निर्माण स्मारिका : प्रकाशक राजस्थान प्रांतीय भगवान् महावीर (विभिन्न अंक) २५०० वाँ निर्वाण महोत्सव महासमिति, जयपुर २६. श्रीमद राजेन्द्रसूरि स्मारक : आहोर, वि० सं० २०१३ ग्रन्थ १७. श्री महारावल रजत जयन्ती : सिल्वर जुबली कोमेमोरेशन वॉल्यूम कमेटी, अभिनंदन ग्रन्थ डूगरपुर, १९४७ २८. श्री यतीन्द्रसूरि अभिनंदन : श्री सौधर्म वृहत्तपागच्छीय श्वेतांबर श्री ग्रन्थ संघ द्वारा प्रकाशित, बड़ौदा, १९५८ २९. सोर्सेज फॉर कल्चरल हिस्ट्री : डॉ० रामपांडे, शोधक, जयपुर, १९८३ __ ऑफ राजस्थान ३१. हिस्ट्री ऑफ इण्डिया एज़ : इलियट एंड डाउसन द्वारा संपादित, लंदन, टोल्ड बाइ इट्स ऑन हिस्टो. १९०६-०७ रियन्स ११. जरनल : १. आर्कियोलॉजिकल सर्वे रिपोट्स, कनिंघम २. आकियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इण्डिया, एन्युअल रिपोट्स ३. इण्डियन हिस्टोरिकल क्वाटरली, कलकत्ता ४. एन्युअल, प्रोग्रेस, रिपोर्ट ऑफ आर्कियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इण्डिया, वेस्टन सर्कल, पूना, बॉम्बे Page #513 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४९० ; मध्यकालीन राजस्थान में जैनधर्म ५. एन्युअल रिपोर्ट, राजपूताना म्यूजियम, अजमेर ६. एपिग्राफिका इण्डिका, ऊटकमंड ७. जरनल ऑफ दी एशियाटिक सोसाइटी ऑफ बेंगाल ८. जरनल ऑफ दो रायल एशियाटिक सोसाइटी ऑफ लंदन ९. जरनल ऑफ दी बिहार ऐंड ओरिसा रिसर्च सोसाइटी, पटना १०. जरनल ऑफ दी बिहार रिसर्च सोसाइटो, पटना ११. जरनल ऑफ दी राजस्थान इंस्टीट्यूट ऑफ हिस्टोरिकल रिसर्च, जयपर १२. जैना एंटीक्वेरी, आरा १३. दी रिसर्चर, जयपुर १४. प्रोसीडिंग्स ऑफ द इण्डियन हिस्ट्री कांग्रेस १५. मॉडर्न रिव्यू, कलकत्ता १२. हिन्दी पत्रिकाएँ : १. अनेकांत, दिल्ली २. अरावली, अलवर ३. अवंतिका, पटना ४. जैन भारतो, कलकत्ता ५. जैन सत्यप्रकाश, अहमदाबाद ६. जैन सिद्धांत भास्कर, आरा ७. जनमन, अजमेर ८. नागरी प्रचारिणी पत्रिका, बनारस ९. भारतीय विद्या भवन, बम्बई १०. मरु भारती, पिलानी ११. महावीर जयन्ती स्मारिका, जयपुर १२. राजस्थानी भारती, बीकानेर १३. वीरवानी, जयपुर १४. शोध पत्रिका, उदयपुर १५. ज्ञानोदय, बनारस Page #514 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Education International