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________________ ९६ : मध्यकालीन राजस्थान में जैनधर्म "तपा" नाम मिला।' कर्नल माइल्स ने तपागच्छ की निम्न शाखायें बताई हैं ।विजय देव सूरि तपा शाखा १६७५ ई० में, विजयराज सूरि तपा शाखा १५३४ ई० में, कमलकलश तपा शाखा १५३४ ई० में, वृहतपोसाल तपा शाखा १५२६ ई० में, लघु पोसाल तपा शाखा १५२६ ई० में, सागरगच्छ तपा शाखा १५५७ ई० में, कुतुबपुरागच्छ तपा शाखा, विजयानन्द सूरि तपा शाखा १६०० ई० में, विजयरत्न सूरि तपा शाखा, आगमीय तपा शाखा १३०० ई० में, ब्राह्मी तपा शाखा तथा नागौरी तपा शाखा १५७६ ई० में अस्तित्व में आईं। इनके अतिरिक्त अभिलेखों में निम्न शाखाओं का और उल्लेख है-वृद्ध तपा शाखा, विजय तपा शाखा", चन्द्रकुल तपा शाखा', कुतुबुपुरा तपा शाखा, संविघ्न तपा शाखा ।' राजस्थान में यह गच्छ मुख्यतः सिरोही', मेवाड़ और जैसलमेर, में अधिक प्रभावशाली रहा । इस गच्छ के आचार्यों द्वारा स्थापित मूर्तियाँ राजस्थान के विभिन्न भागों में पाई जाती है। मध्यकाल में १३५६ ई० से १६०० ई० तक की, तपागच्छ के आचार्यों द्वारा प्रतिष्ठित १५८ प्रतिमाओं के लेख राजस्थान के विभिन्न मन्दिरों से प्राप्त हैं।१। ४. पूर्णिमिया गच्छ या पूर्णिमा गच्छ या सारधा पूर्णिमिया गच्छ :-इस गच्छ की उत्पत्ति पूर्णिमा के दिन होने से ऐसा नाम हुआ। सारधा पूर्णिमिया गच्छ ११७९ ई० में प्रारम्भ हुआ१२ । एक अन्य मत के अनुसार इसकी उत्पत्ति ११०२ ई०१3 में हुई । कुमारपाल ने हेमचन्द्र मुनि के द्वारा पूणिमिया गच्छ के आचार्य को बुलवाकर उनके शास्त्र-सम्मत आचरण के बारे में प्रश्न किया। संतोषप्रद उत्तर न मिलने पर इस गच्छ १. नाजैलेस, क्र० ११९४ । २. जैसेस्कू, पृ० ६० । ३. इए, २३, पृ० १७९ । ४. नाजैलेस, २, क्र० १७५३ । ५. वही, भाग १, क्र० ६३ । ६. इए, १९, पृ० २३४ ।। ७. नाजैलेस, १, क्र० ८४९ एवं ८५१ । ८. वही, क्र० १७९९ । ९. अप्रजैलेस। १०. नाजैलेस, भाग १, २-३ एवं प्रलेस । ११. प्रलेस, परिशिष्ट २, पृ० २२४-२२५ । १२. जैइरा, पृ० ५९ । । १३. श्रभम, ५, खंड २, पृ० २३ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002114
Book TitleMadhyakalin Rajasthan me Jain Dharma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajesh Jain Mrs
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1992
Total Pages514
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size21 MB
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