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जैनधर्म भेद और उपभेद : ९५
समझाया, तभी से कुमारपाल भी अपने आँचल का प्रयोग प्रणाम करते समय करने लगा !' यह गच्छ ११५६ ई० में राजस्थान के बाहर प्रारम्भ हुआ, किन्तु मध्यकाल में राजस्थान में जैसलमेर व सिरोही राज्यों में बहुत प्रचलन में रहा। राजस्थान में इसका सर्वप्रथम उल्लेख १२०६ ई० में धर्मघोष सूरि द्वारा प्रतिष्ठित जीराउला तीर्थ की एक प्रतिमा पर मिलता है ।२ १३९२ ई० से १४९५ ई० तक के २१ प्रतिमा लेख, अंचल गच्छ के विविध आचार्यों के उल्लेख सहित सिरोही के विविध स्थानों से प्राप्त हुये हैं। इसी प्रकार ३४ अन्य प्रतिमा लेख राजस्थान के विविध भागों से विभिन्न मन्दिरों से १३७६ ई० से १५९७ ई. तक के भी उपलब्ध हैं।
२. आगमगच्छ या आगमिक गच्छ-पूणिमिया गच्छ के शीलगुण सूरि और देवभद्र सूरि ने आँचलगच्छ की सदस्यता ग्रहण कर ली। किन्तु कुछ ही समय में इसे भी छोड़कर उन्होंने नया गच्छ निर्मित कर लिया। इनके अनुसार क्षेत्रपाल की पूजा नहीं की जानी चाहिये । इन्होंने कुछ नये सिद्धान्त भी प्रतिपादित किये और अपने पंथ को आगमिक गच्छ नाम दिया ।" यह गच्छ ११५७ ई० या ११९३ ई० में उत्पन्न हुआ, किन्तु राजस्थान में यह १४वीं शताब्दो से अस्तित्व में आया प्रमाणित होता है। यह सिरोही, मारवाड़, ओसिया, जैसलमेर, अजमेर, जयपुर, नागौर और बाड़मेर क्षेत्रों में प्रचलन में था। इस गच्छ का सर्वप्रथम नामोल्लेख १३६४ ई० के जीराउला तीर्थ के प्रतिमा लेख में उत्कीर्ण मिलता है । इस गच्छ के उल्लेख के १४१४ ई० से १५२४ ई० तक के ११ अन्य अभिलेख भी विविध क्षेत्रों से प्राप्त हैं।
३. तपागच्छ :--जगचन्द्र सूरि महान् विद्वान् व तपस्वी मुनि थे। उन्होंने अपने जीवनकाल में १२ वर्ष तक आयम्बिल साधना मृत्यु पर्यन्त की और इस प्रकार १२ वर्ष गुजारे । उनकी कठोर साधना को देखकर १२२८ ई० में मेवाड़ के राजा जैत्रसिंह ने उन्हें “तपा" ( वास्तविक संन्यासी) की उपाधि दो। तभी से निर्ग्रन्थ गच्छ को
१. श्रभम, ५, खण्ड २, स्थविरावली, पृ० ६५ । २. श्रीजैप्रलेस, क्र० ३०८। ३. वही, क्र ० ३४७, २९४, २९५, ३०१, २७७, २३७, १६, २०९, ६४, २५४,
१९५, २६३, २७२, २३९, २६, १४६, ३६१, ६३ आदि । ४. प्रलेस, परिशिष्ट २, पृ० २२२ । ५. श्रभम, ५, खण्ड २, पृ० ६६ । ६. श्री जैप्रलेस, क्र० ३०४ अ । ७. वही, क्र ० ७५, १,८२, २४७; प्रलेस , क्र० २१५, ४२०, ५३१, ५७२, ६३९,
७४५, ८८७।
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