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________________ जैन साहित्य एवं साहित्यकार : ३३१ समकालीन राजनीतिक, धार्मिक, सामाजिक, व आर्थिक परिस्थितियों का प्रभाव साहित्य के परिमाण पर ही नहीं, अपितु विषय सामग्री पर भी देखने को मिलता है । मध्यकालीन व उत्तर मध्यकालीन जैन श्रेष्ठियों की सम्पन्नता, तथा जैनाचार्यों द्वारा मुस्लिम बर्बरता से साहित्य को सुरक्षित रखने के लिये ज्ञान भण्डारों की स्थापना के परिणाम स्वरूप, पश्चात्वर्ती शताब्दियों में मौलिक साहित्य सृजन का परिमाण कम रहा तथा दोनों वर्गों के द्वारा मूल लेखन के स्थान पर प्राचीन साहित्यिक धरोहर के प्रतिलिपिकरण व विभिन्न स्थानों पर उनकी सुरक्षा की व्यवस्था ही मुख्य ध्येय रहा। राजस्थान में रचित जैन साहित्य को पहिचानने में कठिनाइयाँ ८वीं शताब्दी से पूर्व न तो "राजस्थान" का प्रयोग एक प्रदेश विशेष के रूप में मिलता है और न उस समय के प्रचलित "मरू" से ही आधुनिक राजस्थान का समग्र चित्र उभरता है।' साहित्य सृजन की दृष्टि से १५वीं शताब्दी तक राजस्थान का जो बृहत्तर रूप सामने आता है, उस की सीमा रेखाएं' आगरा, यौधेय प्रदेश, सौराष्ट्र तथा राष्ट्रकूट तक फैली हुई दिखाई देती हैं । इस शताब्दी से पूर्व की जैन कृतियों के सम्बन्ध में यह निर्णय करना अत्यन्त कठिन है कि इनमें से कितनी राजस्थान में लिखी गई या कौन-कौन सी रचनाएं राजस्थानी जैन कवियों की देन हैं। लेखकों के स्पष्ट इतिवृत्त के अभाव में केवल इस तथ्य को ही प्रमुखता नहीं दी जा सकती कि राजस्थान के किसी शास्त्र भण्डार में उपलब्ध होने के कारण ही वह राजस्थानी है, अथवा राजस्थान से बाहर उपलब्ध होने के कारण वह किसी राजस्थानी जैन कवि की रचना नहीं है। जैन साहित्य अधिकांशतः भ्रमणशील मुनियों के द्वारा रचा गया । अतः उनके द्वारा रचित कृति का स्थान निर्धारित करने में बड़ी कठिनाई होती है। ऐसे कई उदाहरण हैं, जिनमें कोई लेखक राजस्थान में तो पैदा हुआ, गुजरात में उसकी दीक्षा हुई और सारी कृतियाँ उसने वहीं रची। बहुत से ऐसे उदाहरण भी हैं, जो गुजरात में पैदा हुये, किन्तु उनका कार्यक्षेत्र राजस्थान रहा । इसी प्रकार कुछ कृतियों की रचना राजस्थान में प्रारम्भ हुई, किन्तु पूर्ण गुजरात में हुई, या गुजरात में प्रारम्भ करके राजस्थान में समाप्त की गई। राजस्थान व गुजरात प्राचीन काल से ही सांस्कृतिक व धार्मिक एकता में निबद्ध रहे। इनकी भाषाओं में भी एकरूपता देखने को मिलती है । राजस्थान और गुजरात के पवित्र स्थानों में धर्म-प्रचार व लोक-कल्याण के कारण जैन सन्त एक प्रान्त से दूसरे में प्रायः भ्रमणशील रहते थे। जैन साहित्य के साहित्यकारों एवं उनकी रचनाओं को राजस्थान से सम्बन्धित सिद्ध करने के लिए कुछ अधारभूत सामग्री का उपयोग किया गया है, जैसे-ग्रंथों की प्रशस्तियों एवं कृतियों में राजस्थान के नगरों एवं मन्दिरों का उल्लेख, रचनाकारों के गच्छ एवं गुरु परम्परा का राजस्थान १. "मरू", पउमचरिउ, ३०/२, ८२/६ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002114
Book TitleMadhyakalin Rajasthan me Jain Dharma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajesh Jain Mrs
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1992
Total Pages514
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size21 MB
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