SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 353
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अध्याय षष्ठ जैन साहित्य एवं साहित्यकार मध्यकालीन राजस्थान में रचित जैन साहित्य कथ्य एवं शिल्प की दृष्टि से बहुरंगी व बहुआयामी है। अभी तक जितना साहित्य प्रकाश में आया है, उससे कहीं अधिक विभिन्न शास्त्र भण्डारों में बन्द व अप्रकाशित है। विभिन्न जैनाचार्यों व विद्वानों ने अपने प्रभाव क्षेत्र के लोगों के स्वभाव व देशकाल को ध्यान में रखकर वैविध्यपूर्ण साहित्य की रचना की। मध्ययग में विदेशी आक्रमणों से राजनीतिक दृष्टि से परास्त होने पर इन मुनियों ने भक्ति, धर्म और साहित्य के धरातल से सांस्कृतिक आन्दोलन की प्रक्रिया को जारी रखा।। राजस्थान की सांस्कृतिक व साहित्यिक पराम्परा को अक्षुण्ण और सतत प्रवाहमान बनाये रखने में जैन साहित्य का अपरिमित योगदान है। प्राकृत, संस्कृत, अपभ्रंश, राजस्थानी हिन्दी और अन्य स्थानीय भाषाओं में विपुल साहित्य रचा गया । १३वीं शताब्दी तक राजस्थान के जैन साहित्य का स्वर्ण काल माना जाता है । १३वीं शताब्दी तक की आगम**, दर्शन, साहित्य, आगमिक व्याख्याएँ, काव्य ग्रन्थ आदि मूल रूप से लिखे गये । विभिन्न कथानकों एवं चरित्र नायकों पर प्राथमिक साहित्य निबद्ध हुआ। विभिन्न भाषाओं में महाकाव्य रचे गये। बहु आयामी वैज्ञानिक साहित्य, भूगोल, ज्योतिष, गणित, छंदालंकार, शब्दकोष, वैद्यक आदि का सृजन हुआ। परवर्ती साहित्य में, १३वीं शताब्दी के पश्चात् उक्त साहित्य को आधारभूत या बीज मानकर व्याख्यात्मक साहित्य की सर्जना की गई, अतः मध्यकाल में स्तुतिपरक भक्ति साहित्य विविध भाषाओं में, मूल नायकों पर ही लिखा गया तथा व्याख्याएँ, भाष्य, टीका, बालावबोध, वृत्तियाँ, चूणियाँ, वचनिकाएँ आदि अधिक लिखी गई। राजस्थानी साहित्य विपुल परिमाण में सृजित हुआ। यहाँ तक कि मुगल काल के पश्चात् हिन्दी का स्वरूप विकसित हो जाने पर भी लोकभाषा का प्राधान्य साहित्य सजन में रहा, क्योंकि जैन साहित्यकारों का मूल उद्देश्य पांडित्य प्रदर्शन नहीं, अपितु लोकभाषा के माध्यम से लोकभावना से. जुड़कर नैतिक उन्नयन करना व जैन धर्म की प्रभावना फैलाना था। ** इसमें ११ अंग, १२ उपांग, ६ छेदसूत्र, ४ मूलसूत्र, १० प्रकीर्णक तथा अनुयोग द्वार सूत्र और नंदिसूत्र नामक २ सूत्र सम्मिलित थे। कुछ विद्वान् इनमें भद्रबाहु की १२ नियुक्तियों, विशेषावश्यक भाष्य, २० और प्रकीर्णक, पर्दूषण कल्प, जीवकल्प सूत्र, श्राद्धजीत कल्प, पाक्षिक सूत्र, वंदित सूत्र, क्षमण सूत्र, यतिजीत कल्प और ऋषिभाषित को भी जोड़ते हैं । इस प्रकार कुल सूत्रों की संख्या ८४ हो जाती है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002114
Book TitleMadhyakalin Rajasthan me Jain Dharma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajesh Jain Mrs
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1992
Total Pages514
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy