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________________ जैन कला : ३२९ के शिल्प में आत्मोत्थान के भाव प्रतिबिम्बित होते हैं। यहां के कलाकारों ने अपनी बारीक छैनी से, भारतीय जीवन और संस्कृति के अमर तत्त्वों का उन्मीलन कर, जनजीवन पर उसका अद्भुत प्रकाश डाला है। यहाँ परमात्मा की आराधना, साधुओं की वाणी का श्रवण, अर्चन आदि गम्भीरतम भावों को अंकित कर कलाकार ने उच्चतम कल्पना का स्तर निर्धारित करने में सफल प्रयत्न का प्रदर्शन किया है। इन मन्दिरों में जहाँ हम अनेक दलीय कमल की पंखुड़ियाँ पाते हैं, वहाँ हम अनुभव करते हैं कि भगवान से साक्षात्कार के भाव जाग्रत हो रहे हैं । (१५) मध्यकाल में समकालीन परिस्थितियों के प्रभाव से मन्दिर स्थापत्य में दुर्ग शैली, धार्मिक उन्नयन के प्रभाव से चौमुख शैली और सुरक्षात्मक दृष्टि से भूमिगत मन्दिर निर्माण शैली की विधाएँ विकसित हुई। मध्यकाल के तक्षण, चित्रण में जैन मन्दिरों में यत्र-तत्र शौर्य के भावों का प्रदर्शन भी तक्षण से निबद्ध है । कामुक आकृतियों के चित्रण में हमेशा धार्मिक भावना का अवरोध रहा। रणकपुर के जैन पार्श्वनाथ मन्दिर की दीवारों में उत्कीर्ण काम दृश्यों के अपवाद ने उसे "वेश्या मन्दिर" को संज्ञा 'दिलवा दी, क्योंकि जैन स्थापत्य में ऐसा चित्रण अपवाद स्वरूप ही देखने को मिलता है, अन्यथा समकालीन व पूर्वकालीन हिन्दू व वैष्णव मन्दिरों में इस प्रकार का चित्रण सामान्य बात रही है व उन्हें किसी अपवादात्मक संज्ञा का शिकार नहीं होना पड़ा। (१६) पूर्व मध्यकालीन जैन चित्रकला को कतिपय विद्वानों ने 'जैन कला' संज्ञा से अभिहित करने में अत्यधिक आक्रोश प्रकट किया है । वस्तुतः इस कला को "जैन शैली" कहना ही अधिक उपयुक्त है, क्योंकि यह कलात्मक सर्जन न केवल जैनाचार्यों और जैन मतावलम्बियों के संरक्षण में अस्तित्व में आया, अपितु इन कला ग्रन्थों को जैनेतर ग्रन्थों के साथ जैनियों ने ही ग्रन्थागारों में मुस्लिम विध्वंस से भी बचाये रखा। विद्वानों ने जैन कला के चित्रकारों को ब्रश व डंडी लेकर गुजरात में चित्र निर्माण के लिये सड़कों पर घूमते हुये भी बताया है। इतिहास इस बात का साक्षी है कि कोई कालखण्ड ऐसा नहीं रहा, जबकि कला केवल स्वान्तः सुखाय रही हो और उसमें व्यव-सायिकता न रही हो। फिर जैन कला तो राजस्थानी शैली में मुगल कला के साथ ही -समाहित हुई है और इसकी भूमिका इस नवीन शैली की नींव स्वरूप रही है। नींव के प्रस्तर तो अनगढ़ ही होते हैं, जो इमारत की भव्यता को स्थायित्व प्रदान करते हैं । इस दृष्टि से जैन कला को "कुपड़" कलाकारों द्वारा निर्मित, आदि की संज्ञा देना उचित प्रतीत नहीं होता। १. आसरि, भाग २३, कनिंघम । २. रायकृष्णदास-भारतीय चित्रकला, पृ० २०-३२ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002114
Book TitleMadhyakalin Rajasthan me Jain Dharma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajesh Jain Mrs
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1992
Total Pages514
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size21 MB
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