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३३२ : मध्यकालीन राजस्थान में जैनधर्म
से सम्बन्ध, प्रतिमालेखों, अभिलेखों व पट्टावलियों में ग्रन्थ एवं ग्रन्थकार से सम्बन्धित उल्लेख तथा राजस्थान की प्रसिद्ध जातियों एवं राजवंशों से ग्रन्थकारों का सम्बन्ध आदि । इन तथ्यों के अतिरिक्त गुजरात, मालवा आदि के प्राचीन इतिहास में भी राजस्थान के रचनाकारों एवं आचार्यों का परिचय यत्र-तत्र उपलब्ध हो जाता है । (अ) पूर्व मध्यकाल : (१) प्राकृत साहित्य एवं साहित्यकार:
प्राकृत मूलतः जनभाषा रही है । महावीर ने इसी को अपने सिद्धान्तों के प्रचारप्रसार का माध्यम बनाया था। पार्श्वनाथ और महावीर के पहले विद्यमान आगमिक साहित्य परम्परा का उल्लेख "पूर्व" शब्द से हुआ है, किन्तु आज यह साहित्य परम्परा उपलब्ध नहीं है । इसी परम्परा से वर्तमान में उपलब्ध प्राकृत साहित्य की उत्पत्ति मानी जा सकती है। अधिकांश प्राकृत साहित्य जैन धर्म और संस्कृति से सम्बद्ध है, जिसकी मूल परम्परा 'श्रुत" अथवा "आगम" के नाम से व्यवहृत हुई है, जो दीर्घकाल तक श्रुति परम्परा के माध्यम से सुरक्षित रही।
जैनाचार्यों ने प्राकृत की हर विधा को समृद्ध किया। प्राचीन भारतीय इतिहास और संस्कृति का हर प्रांगण प्राकृत साहित्य का ऋणी है। आधुनिक साहित्य सृजन के लिये यह उप-जीव्य बना। प्रेमाख्यानक काव्यों के विकास में प्राकृत जैन कथा साहित्य को भुलाया नहीं जा सकता। संस्कृत चंपू और चरित काव्यों के प्रेरक भी प्राकृत ग्रन्थ ही हैं। काव्य शास्त्रीय सिद्धांतों के प्रतिपादन के साथ ही दर्शन, भाषा विज्ञान, व्याकरण और इतिहास तक में राजस्थानी प्राकृत जैन साहित्य समृद्ध है। प्राकृत भाषा में लिखे गये ग्रन्थों का सर्वेक्षण व मूल्यांकन राजस्थान के जैनाचार्यों को इस थाती को और स्पष्ट • करता है।
८वीं शताब्दी की कुछ प्रारम्भिक रचनाओं में उनके रचयिता के साथ-साथ उनके रचना स्थलों और समय का भी उल्लेख मिलता है। सम्भवतः राजस्थान में ४थी या ५वीं शताब्दी में प्राकृत ग्रन्थ लेखन प्रारम्भ हो गया होगा, क्योंकि इस युग में देश में विपुल साहित्य रचा जा रहा था। जैन साहित्य को दृष्टि से यह युग आगमों पर भाष्य आदि लिखे जाने का था। जैनाचार्य अपनी टीकाओं में प्राकृत का प्रयोग अधिक कर रहे थे। प्राकृत में लौकिक काव्यादि भी रचे जा रहे थे, अतः पूर्ण संभावना है कि राजस्थान में भी प्राकृत में रचना हुई हो ।
१. राधू ए, बीकानेर । २. प्रेमसुमन, राजैसा, पृ० १९ । ३. मेहता, मोहन लाल-आगमिक व्याख्याएँ, जैन साहित्य का बृहद इतिहास, ३ ।
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