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________________ जैन साहित्य एवं साहित्यकार : ३३३ राजस्थान में गुप्त युग के जैनाचार्यों में आचार्य सिद्धसेन दिवाकर एवं एलाचार्य का चित्तौड़ से सम्बन्ध बताया जाता है। सिद्धसेन दिवाकर ५वीं शताब्दी के बहुप्रज्ञ विद्वान थे । "प्रभावक-चरित्र" और "प्रबन्ध-कोष' में इनके चित्तौड़ यात्रा के उल्लेख प्राप्त हैं । "दिवाकर" की पदवी भी इन्हें चित्तौड़ में ही प्राप्त हुई थी। अतः सम्भव है कि सिद्धसेन की साहित्य रचना का क्षेत्र मेवाड़ ही रहा हो। इनका प्राकृत में रचित "सन्मति तक' नामक ग्रन्थ राजस्थान की प्रथम प्राकृत रचना मानी जा सकती है । २ प्राकृत के प्रारम्भिक साहित्यकारों व विद्वानों में सिद्धसेन के बाद एलाचार्य को स्मरण किया जा सकता है, जिनके शिष्य वीरसेन ने विक्रम की ८वीं शताब्दी में प्राकृत की महत्त्वपूर्ण रचना "धवला" टीका के रूप में निबद्ध की। ८वीं शताब्दी में राजस्थानी प्राकृत साहित्य पर्याप्त समृद्ध हो चुका था। पूर्व मध्यकालीन प्राकृत साहित्य एवं साहित्यकार निम्न प्रकार से हैं : १. आचार्य हरिभद्र सूरि-हरिभद्र सूरि राजस्थान के जैन जगत के ज्योतिर्धर नक्षत्र थे। इनके समय के सम्बन्ध में विद्वानों में विभिन्न मत थे । पुरातत्त्ववेत्ता जिनविजय ने प्रबल प्रमाणों से इनका जीवन काल ७०० ई० से ७७० ई० सिद्ध कर दिया है। इनका जन्म चित्तौड़ में हुआ था और यही इनका कार्यक्षेत्र भी था। ये जन्मना ब्राह्मण एवं राजा जितारि के पुरोहित थे । आचार्य जिनदत्त से जैन दीक्षा ग्रहण करने के उपरान्त इन्होंने जैन साहित्य की अपूर्व सेवा की। विस्तार, विविधता व गुणवत्ता इन तीनों दृष्टियों से इनकी रचनाएँ राजस्थान के जैन साहित्य में महत्त्वपूर्ण हैं ।५ हरिभद्रसूरि विरचित ग्रन्थों की संख्या "प्रतिक्रमण अर्थ दीपिका" के आधार पर १४४४, “चतुर्दशशत प्रकरण प्रोत्तुंग प्रासाद सूत्रणेकसूत्र धारै", इत्यादि पाठ के अनुसार १४०० तथा राजशेखर सूरि कृत "चतुर्विशति प्रबन्ध" के आधार पर १४४० मानी जाती है । मुनि जिनविजय के अनुसार इनके उपलब्ध ग्रन्थ २८ हैं, जिनमें से २० छप चुके हैं। गृहस्थाश्रम में ये संस्कृत के प्रकांड पंडित थे। श्रमण बनने पर प्राकृत का गहराई से अध्ययन किया और इस पर पूर्ण अधिकार कर लिया। इन्होंने धर्म, दर्शन, योग, ज्योतिष, स्तुति प्रभृति विषयों पर प्राकृत भाषा में ग्रन्थ लिखे हैं। इनकी मुख्य कृतियाँ-"उपदेशपद", "पंचवस्तु", "सम्यक्त्व सप्तति", "लघु संघयणी", "श्रावक प्रज्ञप्ति", "पंचाशक", . १. संघवी, सुखलाल-सन्मति प्रकरण-प्रस्तावना । २. राजैसा, पृ० १९ । ३. जैसंशो, वर्ष १, अंक १। ४. सुखलाल, समदर्शी आचार्य हरिभद्र, पृ० ६ । ५. जैसासइ, पृ० १५९-१६० । ६. जैसंशो, वर्ष १, अंक १ । ७. जैनन, पृ० ६। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002114
Book TitleMadhyakalin Rajasthan me Jain Dharma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajesh Jain Mrs
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1992
Total Pages514
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size21 MB
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