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________________ ३३४ : मध्यकालीन राजस्थान में जैनधर्म "विशति विशिका", "संबोह पगरण", "धम्म संगहणी", "योगविशिका", "योगशतक", "कथाकोष ", " धूर्ताख्यान", "समराइच्चकहा, "लग्नशुद्धि", "कथाकोह", "लग्नकुंडलियाँ" आदि हैं । जैन महाराष्ट्री प्राकृत में लिखित व कहीं कहीं पर शौरसेनी प्राकृत के प्रभाव सहित लिखित कृति "समराइच्चकहा " प्राकृत की एक श्रेष्ठ कृति है । जो स्थान संस्कृत साहित्य में " कादम्बरी' का है, वही स्थान प्राकृत में इस ग्रन्थ का है । इस विस्तृत कथाग्रन्थ में भारतीय जीवन की विविध छटाओं का मनोहर, सूक्ष्म व अलंकृत चित्रण है । लाक्षणिक शैली में रचित व्यंगोपहास की श्रेष्ठ रचना " धूर्ताख्यान" भारतीय कथा साहित्य में शैली की दृष्टि से अनुपम है । धूर्तों का व्यंग्य प्रहार ध्वंसात्मक नहीं अपितु निर्माणात्मक है ।" लघु कथाओं के माध्यम से हरिभद्र ने न केवल लोकभाषा को आगे बढ़ाया है, अपितु लोक जीवन को अपने ग्रन्थों में प्रतिपादित किया है । जैकोबी, तापमान, विंटरनिट्ज, सुवाली, शुब्रिंग प्रभृति अनेक पाश्चात्य विचारकों ने हरिभद्र के ग्रन्थों का सम्पादन और अनुवाद भी किया है, इससे भी इनकी साहित्यिक महानता का ज्ञान होता है । " २. उद्योतन सूरि-ये क्षत्रिय घराने में उत्पन्न श्वेताम्बर परम्परा के विशिष्ट मेधावी सन्त थे । ये तत्त्वाचार्य के शिष्य थे, किन्तु इन्होंने आचार्य बीरभद्र से सिद्धांत और हरिभद्रसूरि से तर्क की शिक्षा प्राप्त की । ७७९ ई० में जाबालिपुर (जालौर) में रणहस्ती वत्सराज के राज्य में इन्होंने प्राकृत भाषा के अनुपम ग्रन्थ " कुवलयमाला कहा " गद्य-पद्य मिश्रित ग्रन्थ की रचना की । महाराष्ट्री प्राकृत की यह प्रसादपूर्ण रचना चम्पू शैली में लिखी गई है । साहित्यिक सौन्दर्य के साथ ही राजनीति, ज्योतिष, तन्त्रमन्त्र, धातुवाद, शकुन, चित्र, भूगोल आदि विविध विषयों के विस्तृत समावेश के कारण यह कथा, प्राचीन भारत के अध्ययन के लिये अमूल्य निघि बन गई है ।" महाराष्ट्री प्राकृत के साथ इसमें पैशाची, अपभ्रंश व देशी भाषाओं के साथ कहीं कहीं पर संस्कृत का भी प्रयोग हुआ है । ३. मानदेव सूरि - इनका जन्म नाडौल में हुआ था। इनका वृत्तांत " प्रभावक १. सिजैसी, क्र० २० । २. हरमन जेकोबी द्वारा सम्पादित | ३. जैसास, पृ० २०८ । ४. वीशाप्रआ, पृ० ५१ । ५. राजैसा. पृ० ४१ ॥ ६. वही । ७. सिजैसी, सं० मुनि जिनविजय । ८. जबिउरिसो, मार्च, १९२८, पृ० २८ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002114
Book TitleMadhyakalin Rajasthan me Jain Dharma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajesh Jain Mrs
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1992
Total Pages514
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size21 MB
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