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जैन साहित्य एवं साहित्यकार : ३३५
चरित्र", में भी वर्णित है, जिससे इनका अस्तित्व ८वीं शताब्दी में होना प्रतीत होता है ।' इन्होंने "विजय पहुत" की रचना प्राकृत भाषा में की।
४. आचार्य वीरसेन-ये एलाचार्य के शिष्य थे। इन्द्रनन्दि के श्रुतावतार से ज्ञात होता है कि एलाचार्य चित्रकुट (चित्तौड़) में निवास करते थे। जहाँ इन्होंने सिद्धांत ग्रन्थों की शिक्षा प्राप्त की फिर ये वाटग्राम (बड़ौदा) चले गये, जहाँ इन्होंने ७२ हजार श्लोक प्रमाण "षट्खण्डागम" की "धवला"४ टीका लिखी, जो हीरा लाल जैन के अनुसार शक संवत् ७३८ में पूर्ण हुई। इसलिये वीरसेन ९वीं शताब्दी (८१६ ई०) के विद्वान् थे । वीरसेन ने "कषायप्राभूत" पर "जयववला" टीका प्रारम्भ की, किन्तु २०,००० श्लोक लिखे जाने के उपरान्त ही स्वर्गवास हो जाने के कारण इनके शिष्य जिनसेन ने अवशिष्ट टीका का ४० हजार श्लोक प्रमाण लिखकर शक संवत् ७५६ में पूर्ण की।
५. जयसिंह सूरि-९वीं शताब्दी के प्राकृत रचनाकारों में इनका प्रमुख स्थान है। इन्होंने गद्य-पद्य मिश्रित "धर्मोपदेशमाला विवरण"," जो ५७७८ श्लोक प्रमाण है, ८५८ ई० में नागौर में पूर्ण की । इनकी अन्य रचना "श्री नेमीनाथ चरित्र" है ।
६. मनि शीलांक-८वीं शताब्दी के उत्तरार्ध व ९वीं शताब्दी के पूर्वाद्ध के मध्य शीलांक आचार्य ने सभी शलाका पुरुषों को कथाओं का प्रथम प्राकृत ग्रन्थ "चउपन्नमहापुरिसचरिय" लिखा।
७. विजयसिंह मूरि-इन्होंने ९वीं या १०वीं शताब्दी में "भुवनसुन्दरीकहा" नामक प्राकृत काव्य की रचना की ।
८. मुनि गुणपाल-ये श्वेताम्बर परम्परा के मुनि थे । 'जंबुचरियं"। इनकी श्रेष्ठ रचना है । ग्रन्थ का रचनाकाल स्पष्ट नहीं है। ग्रन्थ के सम्पादक मुनि जिनविजय के अनुसार यह ग्रन्थ ११वीं शताब्दी या उससे पूर्व का है। जैसलमेर भण्डार से प्राप्त प्रति १४वीं शताब्दी के आसपास की है। सम्भवतः उद्योतन सूरि के सिद्धान्त गुरु वीरभद्राचार्य और गुणपाल मुनि के प्रगुरु वीरभद्र सूरि, ये दोनों एक ही व्यक्ति होंगे। यदि ऐसा है तो इनका अस्तित्व ९वों शताब्दी के आसपास का है। इनकी दूसरी
१. वीशाप्रआ, पृ० ५३ । २. जैपइ, भाग १, पृ० ३५९-३६१ । ३. श्रुतावतार, श्लोक सं० १७६-१७७ । ४. जैग्रप्रस, पृ० ९० (भूमिका)। ५. जैसासइ, पृ० १८० । ६. सिजैसी, बम्बई से प्रकाशित ।
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