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३३६ : मध्यकालीन राजस्थान में जैमधमं
रचना "रिसिदत्त चरियं" है । इसकी अपूर्ण प्रति 'भण्डारकर प्राच्यविद्या संशोधन मन्दिर, पूना" में है । '
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९. आचार्य देवसेन -- १०वीं शताब्दी के दिगम्बर आचार्यों में आचार्य देवसेन प्राकृत भाषा के उद्भट विद्वान् थे । मालवा में धारा नगरी इनका रचना केन्द्र था, किन्तु राजस्थान में भी ये प्रायः विहार करते रहते थे । इनकी प्रमुख कृतियाँ " दर्शनसार" (९३० ई०), "भावसंग्रह", "आराधना सार", " तत्त्वसार", "नयचक्र" आदि हैं । " भावसंग्रह" के अतिरिक्त सभी लघु रचनाएँ हैं । २
१०. पद्मनन्दी - विभिन्न ग्रन्थों, शिलालेखों एवं मूर्तिलेखों में इस नाम के ९ से भी अधिक आचार्य एवं भट्टारक हो गये हैं, किन्तु वीरनन्दी के प्रशिष्य एवं बालनन्दि के शिष्य आचार्य पद्मनन्दी इन सबसे भिन्न हैं । ये कोटा क्षेत्र में बारों नगर के थे । पं० नाथूराम प्रेमी ने बारों की भट्टारक गादी के आधार पर इनका समय ईसा की ११वीं शताब्दी माना है । प्राकृत भाषा के प्रकांड विद्वान् पद्मनन्दी की २ प्राकृत रचनाएँ उपलब्ध हैं । प्रथम "जम्बूद्वीपपण्णत्ति तथा द्वितीय " धम्मरसायन" । इनके द्वारा रचित "पंचविशति" नामक रचना भी देखने को मिलती है । " जम्बूद्वीपपण्णत्ति” २४२७ गाथाओं व ९३ अधिकारों में विभक्त प्राचीन भूगोल एवं खगोल पर एक विशाल कृति है । धर्म एवं दर्शन की दृष्टि से इनकी सभी रचनाएँ महत्त्वपूर्ण हैं ।
११. जिनेश्वर सूरि — ये ब्राह्मण कुलोत्पन्न, बनारस निवासी व खरतरगच्छ संस्थापक वर्धमान सूरि के शिष्य । इनका कार्यक्षेत्र गुजरात, मालवा, मेवाड़ और मारवाड़ रहा है । इन्होंने संस्कृत तथा प्राकृत दोनों भाषाओं में रचना की । इन्होंने मारवाड़ के डिण्डवानक (डीडवाना ) में प्राकृत में " कहाणयकोस" की रचना १०५२ ई० में की इसमें यत्र तत्र संस्कृत और अपभ्रंश गाथायें भी हैं । इनकी दूसरी कृति १०१ गाथाओं वाली “पंचलिंगी प्रकरण" है, जिसकी रचना जालौर में की गई थी । इसके अतिरिक्त "निर्वाण लीलावती कथा ", " षट्स्थानक प्रकरण", "वीर चरित्र, हरिभद्र कृत अष्टक पर वृत्ति भी इनकी प्रमुख रचनायें हैं । 'निर्वाण लीलावती कथा" प्राकृत की एक श्रेष्ठ रचना है, जो १०२५ ई० से १०३८ ई० के मध्य रची गई थी । इस ग्रन्थ १. राजैसा, पृ० ४३ ।
२. वही, पृ० ४७ ।
३. राभा, ३, अंक २ |
४. जैसासइ, पृ० २०८ । ५. वही । ६. वही ।
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