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जैन साहित्य एवं साहित्यकार : ३३७ का जिनरत्न सूरि रचित, संस्कृत में श्लोकबद्ध भाषान्तर, जैसलमेर के भण्डार में उपलब्ध हुआ है । मूल प्राकृत कृति अभी तक अनुपलब्ध है । इनकी एक अन्य प्राकृत रचना "गाथाकोस" भी मिलती है ।"
१२. जिनचन्द्र सूरि-ये जिनेश्वर सूरि के शिष्य थे । अपने लघु गुरुभ्राता अभयदेव की अभ्यर्थना को सम्मान देकर इन्होंने १०६८ ई० में "संवेगरंगशाला " नामक शान्तरस प्रधान प्राकृत ग्रन्थ की रचना की ।
१३. महेश्वर सूरि-- इनका समय १०५२ ई० से पूर्व माना गया है। ये एक प्रतिभा सम्पन्न कवि तथा प्राकृत संस्कृत के प्रकाण्ड पण्डित थे । " णाणपंचमी कहा" इनका प्राकृत भाषा का श्रेष्ठ काव्य ग्रन्थ है ।
कवि देवचन्द्र - ११वीं शताब्दी के आसपास इन्होंने पार्श्वनाथ के जीवन चरित्र पर "पासचरिय" नामक महाकाव्य लिखा, जिसमें ११ सन्धियों व २०२ कडवक हैं 13
घनेश्वर सूरि - जिनेश्वर सूरि के शिष्य घनेश्वर ने १०३८ ई० में चन्द्रावती में "सुरसुन्दरिचरियं" नामक प्राकृत ग्रन्थ की रचना की । यह एक प्रेम कथा है । इसकी भाषा पर अपभ्रंश भाषा का स्पष्ट प्रभाव है । इनकी एक अन्य रचना "शत्रुंजय माहात्म्य" भी ज्ञात हुई है । 4
१६. नेमिचन्द्र सूरि-ये बृहद्गच्छीय उद्योतन सूरि के प्रशिष्य थे और आम्रदेव सूरि के शिष्य थे । आचार्य पद प्राप्त करने से पूर्व इनका नाम देवेन्द्र गणी था । " महावीर चरिय" और "रत्नचूडकहा" इनकी पद्यबद्ध रचनाएँ हैं, जो १०८४ ई० में रची गईं। इनके अतिरिक्त " अक्खाणमणिकोस" " रयण चूडाराय चरियं" " उत्तराध्ययन" की संस्कृत टीका, "आत्मबोध कुलक" आदि भी इनकी रचनायें हैं । १७. दुर्गदेव ---ये दिगम्बर मुनि संयम देव के शिष्य थे । इन्होंने १०३२ ई० में कुम्भऩगर (कुम्भेरगढ़-भरतपुर) में " ऋष्टसमुच्चय" की रचना की । इसमें २६१ शौरसेनी गाथायें हैं । इसका एक अन्य नाम " काल ज्ञान" भी है । इनका दूसरा ग्रन्थ "अर्धकाण्ड"" है । जिसमें व्यापार सम्बन्धी भविष्यवाणियाँ हैं ।
१. राजैसा, पृ० ४१
२. जैभरा २५५ ।
३. जैसलमेर भण्डार की ग्रंथ सूची, पृ० २१
४. जैसास, पृ० २०८ ।
५. जैग्रग्र, पृ० १४ ।
६. राजैसा, पृ० ४२ ।
७. सिजैसि, क्र० २१ (भूमिका) ।
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