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जैन साहित्य एवं साहित्यकार : ३८३ १४७८ ई० में रचित प्राप्त है । पावचन्द्र सूरि ने सर्वप्रथम “आचारांग", "सूत्रकृतांग", "दशवकालिक", "औपपातिक", "प्रश्न व्याकरण", "तंदुल वैयालिय", "चौसरण", "साधु प्रतिक्रमण", "नवतत्व" आदि जैन आगमों पर बालावबोध व भाषा टीकाएँ लिखीं । धर्मदेव ने १४५८ ई० में “षष्ठीशतक बालावबोध" रचा ।'
१६वीं शताब्दी-१५२५ ई० में रत्तरंगोपाध्याय ने 'रूपकमाला बालावबोध", अभयधर्म ने “दशदृष्टान्त कथानक बालावबोध", राजहंस ने "दशवकालिक बालावबोध" तथा शिवसुन्दर ने १५१२ ई० में "गौतम पृच्छा बालावबोध", खींवसर में रचित किया । १५५४ ई० में साधुकीति ने "सप्तस्मरण बालावबोध", १५५६ ई० में हर्षबल्लभ उपाध्याय ने “अंचल मत चर्चा", सोमविमल सूरि ने “दशवकालिक' और 'कल्पसूत्र बालावबोध", चन्द्रधर्म गणी ने "युगादि देव स्तोत्र बालावबोध", चारित्रसिंह गणी ने “सम्यक्त्वस्तव बालावबोध" १५७६ ई०, जयसोम ने दो प्रश्नोत्तर ग्रन्थ और "अष्टोत्तरी विधि" १५९३ ई० में रची। पद्मसुन्दर ने १५९४ ई० में "प्रवचनसार बालावबोध" की रचना की । उपाध्याय समय सुन्दर ने “रूपक माला बालावबोध", 'षडावश्यक बालावबोध" और "यति आराधना" की रचना की। शिवनिधान ने १५९५ ई० में "शाश्वत स्तवन बालावबोध" की रचना की। पांडे राजमल्ल ने "समयसार कलश" पर बालावबोध की रचना की। राजस्थानी भाषा एवं अभिलेख :
१४वीं, १५वीं शताब्दी से अभिलेखों में राजस्थानी भाषा की विविध बोलियों, यथा मेवाड़ी, गुजराती, मारवाड़ी आदि का भी प्रयोग देखने को मिलता है । देलवाड़ा (मेवाड़) के १४३७ ई० और १४४० ई० के लेख, आबू के दिगम्बर जैन मन्दिर का १४३७ ई० का लेख, आबू का ही १४४१ ई० का कुमारी कन्या अभिलेख, १४५९ ई० का देलवाड़ा का सुरह लेख, जैसलमेर का १५२४ ई० का लेख आदि राजस्थानी भाषा के अभिलेखों में प्रयोग के सुन्दर उदाहरण हैं । (५५) हिन्दी भाषा साहित्य एवं साहित्यकार :
राजस्थान जब कई रियासतों में विभक्त था, तब जो प्रदेश ब्रज व पंजाब के आसपास का था, उसमें हिन्दी का प्रभाव व प्रचार अधिक रहा । गुजरात के सन्निकट प्रदेश में स्वाभाविक रूप से गुजराती भाषा का प्रभाव अधिक रहा। शेष सारे प्रदेश की भाषा "मरू" या "मारवाड़ी" या "प्राचीन राजस्थानी" रही, जिसकी कई शाखाएँ एवं बोलियाँ हैं । हिन्दी, मूलतः जिसे खड़ी बोली कहा जाता है, वह तो मुसलमानी १. राजैसा, पृ० २२८ । २. वही। ३. वही।
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