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३८४ : मध्यकालीन राजस्थान में जैनधर्म
साम्राज्य के समय विकसित हुई । ब्रज, हिन्दी का दूसरा साहित्यिक रूप है । प्राचीन हिन्दी साहित्य सर्वाधिक ब्रजभाषा का है, जिसे कई ग्रन्थों में ग्वालेरी" नाम भी दिया गया है, क्योंकि ग्वालियर के आसपास के क्षेत्र में इस भाषा का प्रचार-प्रसार अधिक रहा । राजस्थान के भी कई साहित्यकारों ने ग्वालेरी भाषा का उल्लेख किया है | हिन्दी साहित्य वैसे अवधी आदि में भी मिलता है, पर राजस्थान में हिन्दी को खड़ी बोली व ब्रजभाषा इन दोनों उपभाषाओं का ही अधिक शताब्दी तक इन रूपों में स्वल्प रचनाएँ हुई । (स) उत्तर मध्यकाल :
प्रसार रहा । १६वीं
१७वीं एवं १८वीं शताब्दियों में राजस्थानी जैन साहित्य में विविध भाषाओं को रचनाओं का स्वरूप इस प्रकार रहा
(१) प्राकृत भाषा साहित्य एवं साहित्यकार:
उत्तर मध्यकाल में राजस्थानी व हिन्दी भाषा के साहित्यिक स्वरूप के अति लोकप्रिय होने के कारण तथा संस्कृत के सर्वमान्य बने रहने के कारण, प्राकृत में बहुत कम या नगण्य रचनाएँ रची गई । दिवाकर दास की "गाथाकोष सप्तशती", शुभचन्द्रसूरि का "चिन्तामणि व्याकरण", साघुरंग का " कर्म विचार सार" प्रकरण आदि १७वीं शताब्दी की प्राकृत रचनाएँ हैं । १८वीं शताब्दी में इस भाषा का प्रयोग साहित्यिक क्षेत्र में लुप्तप्राय हो गया ।
( २ ) अपभ्रंश भाषा साहित्य एवं साहित्यकार :
हिन्दी एवं राजस्थानी भाषा के साहित्यिक प्रयोग का अपभ्रंश पर भी असर हुआ, अतः १७वीं, १८वीं शताब्दी में इस भाषा में बहुत कम साहित्य सृजित हुआ । १७वीं शताब्दी में होने वाले अपभ्रंश के अन्तिम कवि भगवती दास की १६४७ ई० की कृति " मृगांक लेखाचरित" की पांडुलिपि आमेर शास्त्र भण्डार, जयपुर में है । इसके अतिरिक्त धवल ने "पासनाहचरिय", देवसेनगणी ने 'सुलोचना चरिउ", लक्ष्मदेव ने " णमिणाह चरिउ ", धनपाल ने " बाहुबलि चरिउ", जयदेव ने "भावनासन्धि" आदि, राजस्थान एवं गुजरात में रहकर लिखीं । डॉ० कासलीवाल ने ऐसी सौ अपभ्रंश रचनाओं का विवरण दिया है, जो राजस्थान में उपलब्ध हैं । अभी हाल ही में देवेन्द्र कुमार शास्त्री ने राजस्थान के ग्रन्थ भण्डारों में उपलब्ध ९६८ प्रतियों का विशेष विवरण अपने ग्रन्थ में दिया है ।
( ३ ) संस्कृत साहित्य एवं साहित्यकार:
जैन साहित्य १७वीं एवं १८वीं शताब्दी में संस्कृत भाषा में निरन्तर लिखा जाता रहा ।
१. जैभरा, परिशिष्ट ३ |
२. शास्त्री, अपभ्रंश भाषा और साहित्य की शोध प्रबृत्तियां, पृ० ११३-११७ ।
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