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१३० : मध्यकालीन राजस्थान में जैनधर्म (ख-२) नवीन सम्प्रदाय व पंथ :
१. तेरापंथ---मध्यकाल में विधि मार्ग नाम से प्रचलित पंथ ही सम्भवतः कालांतर में तेरापंथ के नाम से जाना जाने लगा। यह पंथ सांगानेर के निवासी पं० अमरचन्द बड़जात्या के द्वारा १७वीं शताब्दी में स्थापित किया गया है, जो राजस्थान में तेजी से लोकप्रिय हुआ। तेरापंथियों ने भट्टारकों के अत्यधिक संस्कारों और कर्मकांडों के प्रति विरोध प्रकट किया। बनारसीदास, जो आगरा के अप्रतिम विद्वान् और समाज सुधारक थे, ने इस पंथ को प्रचारित करने में बहुत सहयोग दिया। यहाँ तक कि यह बनारसी मत भी कहा जाने लगा । तेरापंथ को व्याख्या यह कहकर की जाती है कि यह पंथ आत्मानुशासन और चरित्र निर्माण के १३ बिन्दुओं पर जोर देता है। जबकि अन्य लोगों ने यह मत व्यक्त किया है कि यह नाम विरोधियों ने उपहास के रूप में दिया था।
तेरापंथियों को भट्टारक वर्ग नीची दृष्टि से देखता है, ठीक वैसे ही जैसे कि श्वेताम्बर तेरापंथियों को यति व श्रीपूज्य वर्ग हेय मानता है। बख्ताराम ने "बुद्धिविलास" में लिखा है कि इस पंथ के, मूल धार्मिक मत से १३ बिन्दुओं पर विचार पार्थक्य रखने से इसका नाम तेरापन्थ हुआ। तेरापंथी, भट्टारकों के शासन और उच्चस्थिति को अस्वीकार करते हैं । दिगम्बर तेरापंथी मूर्ति पूजक वर्ग है। ये मूर्ति पूजा में पुष्प, फल, चंदन, प्रक्षाल आदि का प्रयोग नहीं करते, क्योंकि इनमें हिंसा निहित है। ये मूर्ति पूजा चावल, लौंग, बादाम, खोपरा आदि शुष्क मेवों से करते हैं। नाथूराम प्रेमी के अनुसार श्वेताम्बर तेरापंथ के साथ ही दिगम्बर तेरापंथ का उदय हुआ। जिस प्रकार स्थानकवासियों से श्वेताम्बर तेरापंथी उदित हुए, उसी प्रकार भट्टारकों से दिगम्बर तेरापंथ उदित हुआ । दिगम्बर और श्वेताम्बर तेरापंथ एक दूसरे से पूर्णतया भिन्न हैं । दिगम्बर पंथ मूर्तिपूजक है । इसी प्रकार दिगम्बर तेरापंथ नग्नता का पक्षधर है, जबकि श्वेताम्बर तेरापंथ नहीं ।२
२. गुमानपंथी वर्ग-यह पंथ जयपुर निवासी पंडित टोडरमल के पुत्र गुमानी राम के द्वारा प्रवर्तित किया गया। इस पंथ के अनुसार जैन मन्दिरों में दिया-बत्ती करना पूर्णतः निषिद्ध है, क्योंकि यह कृत्य जैनधर्म के अहिंसा के मूलभूत सिद्धान्त के विपरीत है । इस मत के अनुयायी केवल मन्दिर जाते हैं और मूर्तियों को देखते हैं, कोई भेट नहीं चढ़ायी जाती । यह पंथ लगभग १७६१ ई० में अस्तित्व में आया और इस शताब्दी में ही खूब प्रचारित हुआ । यह शुद्ध आम्नाय के नाम से भी प्रसिद्ध हुआ, क्योंकि इसके अनुयायी आत्मानुशासन, आचरण की पवित्रता और नियमों पर अत्यधिक जोर देते हैं।
१. जैसाओइ, पृ० ३६७ । २. वही
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