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________________ जैन शास्त्र भंडार : ४७१ मुख्यतः व्यापार एवं वाणिज्य पर अवलंबित होने से जैनधर्म में विभिन्न प्रकार के व्यापार के आधार पर दोषी, कपासी, कुम्भट, हिरन, सोनी, कावड़िया, फिरोदिया, गदैया, नानावाटी, लूणिया, हिंगड़, बोथरा, तलेसरा, गांधी, पटुआ, गन्ना, पारख, रांका आदि गोत्रों की उत्पत्ति हुई। व्यापार व वाणिज्य के लिये ये जातियां राजस्थान के विभिन्न हिस्सों में प्रवासित हुई जिसके फलस्वरूप आर्थिक क्षेत्र में प्रगति के साथ-साथ जैनधर्म का भी विस्तार हुआ। मध्यकाल में राजस्थान में चित्तौड़, आहड़, बसंतपुर, भीनमाल, चंद्रावती, आबू, जालौर, मंडोर, ओसिया, पाली, लोद्रवा आदि कई प्रमुख व्यापारिक केन्द्र थे। यहाँ के व्यापारी न केवल भारत में, अपितु देश-विदेश से भी आयात-निर्यात का व्यापार करने थे। पूर्व में चीन, बरमा, स्याम तथा पश्चिम में अरब व यूनान तक व्यापार होता था। राजस्थान में विदेशी आयात का माल भृगुकच्छ ( भड़ौंच) से आता था। ८६१ ई० के घटियाला अभिलेख में भाउड नामक श्रेष्ठी का उल्लेख है। दोषी गोत्र के चित्तौड़ के वैश्य व्यापारी तोलाशाह का व्यापार बंगाल व चीन तक होता था। चीन में इनकी पेड़ियाँ थीं । भड़ींच से आयातित माल बंजारों के द्वारा बैलगाड़ियों से चित्तौड़ आता था। शत्रुञ्जय का अन्तिम उद्धार करने वाला कर्माशाह इसी तोलाशाह का पुत्र था, जो महाराजा रत्नसिंह का अमात्य भी था । कर्माशाह ने गुजरात के बादशाह बहादुरशाह को युवराज अवस्था में विपत्ति के समय तक लाख रुपया नकद और एक लाख रुपयों का सूती व रेशमी कपड़ा दिया था। उसी के उपलक्ष्य में गुजरात का बादशाह बनने पर बहादुरशाह ने उसे शत्रुजय का जीर्णोद्धार करने व भविष्य में अपने द्वारा कोई जैन मंदिर नहीं तोड़ने का वचन दिया था। जैसलमेर के प्रसिद्ध सेठ थारूशाह भंसाली ने अतुल राशि व्यय करके शत्रुजय का प्रथम उद्धार करवाया था। भंसाली श्रेष्ठी वर्ग बड़े-बड़े भंडारों के स्वामी होते थे। इनका व्यापार ईरान व अफगानिस्तान तक होता था। ये सिंघु नदी से जहाजों के द्वारा भी व्यापार करते थे। जैसलमेर के ही रांका व पटवा जाति के सेठों ने अतुल धन व्यय करके यहाँ ऐसे अद्भुत महल व मन्दिर बनवाये, जिनकी शिल्प व कोरणी का काम अनुपम है । श्रेष्ठियों की परंपरा में जैसलमेर के पटवा जोरावलमल का नाम महत्त्वपूर्ण है। भारत में उनकी ४०० से अधिक पेड़ियाँ व दूकानें थीं। इनका स्थायी निवास उदयपुर था, किन्तु जैसलमेर, जोधपुर, बीकानेर, बूदी, टोक व इन्दौर के राज्यों के खजानों पर इनका पूर्ण प्रभुत्व था, क्योंकि ये इन राज्यों के खजांची थे । मेवाड़ जैसा १. बलवंत सिंह मेहता, जैसरा, पृ० ३५१ लेख-राजस्थान की समृद्धि में जैनयों का योगदान २. वही, पृ० ३५२ ३. वही Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002114
Book TitleMadhyakalin Rajasthan me Jain Dharma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajesh Jain Mrs
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1992
Total Pages514
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size21 MB
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